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________________ चुधजन विलास ( ४४ ) धर्म विन कोई नहीं अपना, सब संपति धन थिर नहिं जग में, जिसा रैन सपना || धर्म० || टेक आगे किया सो पाया भाई, याही है निरना । अब जो करेगा सो पावैगा, तातै धर्म करना ॥ धर्म || १ || ऐसें सब संसार कहत है, धर्म किये तिरना। परपीड़ा विमनादिक सेवै, नरकविषै परना || धर्म० || २ || नृपके घर सारी सामग्री, ता अर तपना । अरु दारिद्री हूं ज्वर है, पाप उदय थपना || धर्म • || ३ || नाती तो स्वास्थ के साथी, 'तोहि विपत भरना । वन गिरि सरिता अगनि जुमैं,, धर्महिका सरना ॥ धर्म• ॥ ४ ॥ चित बुत्रजन संन्तोपधारना, परचिन्ता हरना । विपति पड़े तो समतारखना, पर मातमजपना || धर्म ||५|| २५ (४५) राग - टोडी ताल होली की । कंचन दुति व्यंजन लच्छन जुत, धनुष पांच से ऊंची काया ॥ कंचन० ॥ टेक ॥ नाभिराय मरुदेवी सुत, पदमासन जिन ध्यान लगाया ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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