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बुधजनं विलास
(६८) चुप रे मूढ़ अजान,हमसौं क्या बतलावै ॥ चुप ॥ टंक ॥ ऐसा कारज कीया तैनै, जासौं तेरी हान ।। चु० ॥१॥ राम विना है मानुष जेते भ्रात तात सम मान । कर्कश वचन बकै मति भाई-फूटत मेरे कान । चु०॥२॥ पूरव दु. कृत कियाथा मैंने, उदय भया ते भान । नाथबिछोहा हूवा यातें.पै मिलसी या थान॥ चुा ॥३॥ मेरे उरमैं धीरज ऐपा, पति प्रावै या ठान। तब ही निग्रह है है तेरा, होनहार उर मान।।चुा०॥४॥ कहां अजोध्या कहं या लं. का कहां सीता कहंसान । वुधजन दखोविधि का कारज,पागममाहिं बखान ।। चुप० ॥५॥
(६) राग-कनड़ी एकतालो।। त्रिभुवननाथ हमारी हो जी ये तो जगत उजियारो ॥ त्रिभुवन० ॥ टेक ॥ परमौदारिक देहके माहीं.परमातम हितकारी ॥ त्रिभूवन०॥ १॥ सहमैं ही जगमाहिं रह्यो छ, दुष्ट मिथ्यात