Book Title: Jai Jiya Kappo
Author(s): Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ear aufsan aften unfluideuntry audeo indiamantri awasundrudra p ariuantures आगमोद्धारक-ग्रन्थमालाया एकपञ्चाशं रत्नम् णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स / / आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः / तपागच्छाधिराज-श्रीसोमप्रभसूरिप्रणीतः जइ-जीय-कप्पो (यति-जीत-कल्प: ) ( साधुशिरोमणि-साधुरत्नसूरिविहितवृत्तियुतः ) பாமாபைலாமே மாயாரை மத்திய மையாடா பாயாயாயாயாயாதியையாய பய மாமா Kualuru sarew antramundrum ution luctionwant cudrun utu supar parkar milan utupidous putralu anekituy udtirandikunty gufitue cutACTIMIM - संशोधक - प० पू० गच्छाधिपति-आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्यः शतावधानी मुनिराज-लाभसागरगणि 'विक्रम संवत् 2028 आगमोद्धारक संवत् 23 वीर संवत् 2498 प्रतयः 300] [अमूल्यम् Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारक-ग्रन्थमालाया एकपश्चाशं रत्नम् ___णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स / आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः / तपागच्छाधिराज-श्रीसोमप्रभसूरिप्रणीतः जइ-जीय-कप्पो (यति-जीत-कल्पः ) ( साधुशिरोमणि-साथुरत्नसूरिविहितवृत्तियुतः) - संशोधक - . 10 पू० गच्छाधिपति-आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्यः शतावधानी मुनिराज-लाभसागरगणिः विक्रम संवत् 2028 वीर संवत् 2498 प्रतयः 300] आगमोद्धारक संवत् 23 [ अमूल्यम् Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकआगमोद्धारक-ग्रंथमालाना एक कार्यवाहक शा. रमणलाल जयचन्द कपडबंज (जि० ) खेडा द्रव्यसहायक श्री जैन श्वेतांबरमूर्तिपूजक संघ, नंदरबार मुद्रक : पटेल भाइलालभाइ मोहनभाइ मेनेजींग डीरेक्टर सहकारी छापखानु बडोदरा लि. . रावपुरा-वडोदरा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय-निवेदन -> Haपू० गच्छाधिपति आचार्य श्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी महाराजनो निश्रामा वि. सं 2010 वर्षे आगमोद्धारक-ग्रंथमालानी स्थापना थइ हती. आ ग्रंथमालाए त्यारबाद प्रकाशनोनी ठीकठीक प्रगति करी छे. ___ सूरीश्वरजीनी पुण्यकृपाए आचार्यश्री साधुरत्नसूरिकृत-वृत्तिसहित आचार्यश्री सोमप्रभसूरि कृत ' यति-जीत-कल्प' नामनो महान् ग्रंथ आगमोद्धारक-ग्रंथमालाना 51 मा रत्न तरीके प्रगट करतां अमोने बहु हर्ष थाय छे. आना संशोधन माटे ‘जैनानंद-पुस्तकालय'नी एक हस्तलिखित प्रति तथा पू० आचार्य विजयरामसूरिजी महाराज द्वारा डहेलाना उपाश्रय नी प्राप्त थएली हस्तलिखित प्रति तेमज श्री जैन श्वेतांबर ज्ञानमंदिर-दर्भावतीनी विधिकार सुश्रावक मफतभाई द्वारा प्राप्त थएली हस्तलिखित प्रतिओनो उपयोग लेवामां आवेल छे. आनी प्रेस कोपी गणिवर्य श्री सौभाग्यसागरजी महाराजे करेल छे तेमज संशोधन पू० गच्छाधिपति आचार्य श्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी म० नो पवित्रदृष्टि नीचे शतावधानी मुनिराजश्री लाभसागजीए करेल छे. ते बदल तेओश्रीनी तेमस जेओए द्रव्य तथा प्रति आपवानी सहाय करी छे. ते महानुभावोनो आभार मानीए छीए. प्रकाशक तपागणेऽभवजैन-शासनस्य प्रभावकाः / आगमोद्धारकाः पूज्या आचार्याऽऽनन्दसागराः // 1 // वाचनादिसौकर्याय संशोध्य यः प्रयत्नतः / युता नियुक्तिवृत्त्याद्यैः प्रकाशिता जिनागमाः // 2 // मुनीनामागमज्ञप्त्यै पत्तनादिपुरेषु यैः / पाण्मासिक्यः शुभाः सप्त दत्ता आगमवाचनाः // 3 // तलाटिकायां सिद्धानेस्तथा सूरतबन्दिरे / जाते यदुपदेशाद् द्वे रम्ये आगममन्दिरे // 4 // तेषां पट्टे रविरिव गगने माणिक्यसागरः सूरिः / यतिजीतकल्पमेतं सम्पादितवान् स वृत्तिवृतम् // 5 // -संशोधकः Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदि-जगत्पूज्य त्रिलोकवंद्य प्रभुना शासनने पामीने भव्यजीवो उत्तरोत्तर आत्मिकगुणो विकसावीने शुद्धनिर्मल निरतिचार संयमनु पालन करी अष्टकर्मनो क्षयकरी मुक्तिने प्राप्त करे छे आत्मिकगुणोना विकासमा जो कोइ पण बाधरूप होय तो ते कर्म छे अने तेना मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय अने योग आ पांच हेतुओ छे. आ पांच हेतुथी ओत्मा शुभाशुभ कर्मनो बंध करे छे अने आत्माना गुणना विकासनी गति स्थगित थाय छे अथवा धीमी पडे छे. आ पांच हेतुमां पण ज्यां सुधी मिथ्यात्व होय छे त्यां सुधी तो आत्मानी विकासनी गति घणी मंद होय छे. मिथ्यात्व गया बाद तेमां सुधारो थाय छे अविरति गया वाद घणां कर्मो लागता बंध थाय छे. आ उत्तरोत्तर प्रमाद, कषाय अने योगना जवाथी आत्मगुणो वधु जल्दी प्रगट थाय छे, योगना गया बाद तो सर्वथा कर्मबंध थतो ज नथी, एटले आत्मा अकर्मा बने छे, अने तुरत आत्मो सिद्ध, बुद्ध, मुक्त थाय छे, अने आ द्वारा ते अनंत ज्ञानदर्शन-चारित्र-सुख विगेरेनी प्राप्ति करे छे. कर्मथी सर्वथा मुक्त थएलो आत्मा सर्वार्थसिद्ध विमानथी 12 योजन दूर उपर रहेल सिद्धशिलाथी एक योजनना छट्ठा भागरूप लोकनो अंते जइने स्थिर थाय छे आत्माना आ विकासनी श्रेणीने शास्त्रीय दृष्टिए 'चतुर्दश-गुणस्थानक' नामथी संबोधाय छे. सर्व प्रथम सम्यक्त्वनी प्राप्ति अने सम्यक्त्व बाद सर्व प्रथम विरतिनी प्राप्तिमा आत्माने घणो समय लागे छे. पांचमां गुणठाणे आत्मा विरति ( देशविरति ) नो स्वीकार करे छे. (छटे गुणठाणे सर्वविरति ) त्यारबाद नव गुणस्थानक चढ्या बाद आत्मा संपूर्ण अकर्मा बने छे. विरति बाद आत्माने जो बाधक होय तो प्रमाद, कषाय अने योग. आ त्रणथी पण आत्मानो घणो विकास अटके छे, अने आ त्रगने वश थइने आत्मा मिथ्यात्व, अविरतिमां पण चाल्यो जाय छे तेमज नरकनिगोदरूप संसारचक्रमां अटवाइ जवानी घणी संभावना होय छे. निरतिचार चारित्रना पालनमां कोइ बाधरूप होय तो मुख्य आ त्रण छे. अनादिकालनी देवो अने कर्मनी बहुलताने लीधे आत्मा संयममा क्यारेक स्खलित थाय छे, आवा समये आ विकासनी गति अटकी न जाय अने आत्मा तरत पोतानी क्षति सुधारी ले ते माटे अने आ पापजन्य मलिनताने दूर करवा माटे तरत एवं कांइक कर जोइए जेथी मलिनतो दूर थाय अने आत्मा बीजी वार वधु उपयोग राखो कर्मक्षय तरफ आगल वधे. आ माटे परम श्रेष्ठ गुरुवर्यनी समक्ष अंतःकरणपूर्वक थएला दोषनी आलोचना करवी जोइए अने ते पापथी मुक्त थवा आचार्य महाराज जे कांइ तप आदि आपे ते करवू जोइए. आने प्रायश्चित्त कहेवाय छे जो के योग्य आचार्य महाराज समक्ष आत्मनिंदा-गर्हापूर्वक थएल दोषनुं उद्घाटन करवू जोइए. एनाथी आत्मानी शुद्धि थाय छे. परंतु पुनः ते दोषनी पुनरावृत्ति न थाय माटे गुरु समक्ष प्रायश्चित्त करवू जोइए परंतु गुरुसमक्ष दोषनी आलोचना वगर प्रायश्चित्त करवामां आवे तो तेनाथी आत्मानी शुद्धि थती नथी (जेमके लक्ष्मणा साध्वी). Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) प्रायश्चित्त आपवानो अधिकार पण दरेक मुनिओने होतो नथी अने जेमने होय छे तेवा संविग्न गीतार्थ मुनिओनो पांच कक्षा छे. ते मुनिओ आ प्रमाणे-आगमव्यव० श्रुतव्यव० आज्ञाव्यव० धारणाव्यव० अने जीतव्यवहारी. प्रायश्चित्त प्रदानमां पांच प्रकारना व्यवहार छे. आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा अने जीतव्यवहार, आ पांच व्यवहारो आ ग्रंथमां पृ. 2 थी 9 सुधी वृत्तिकारे विस्तारथी वर्णव्या होवोथी अहिं फक्त नामनिर्देश करुं छं. - आ पांच व्यवहारमाना छेल्ला जीतव्यवहारना एक भागरूप जीतप्रायश्चित्तने वर्णवतो एक जीतकल्पसूत्र नामनो ग्रंथ छे. आ ग्रंथना कर्ता दुःषमान्धकारग्रस्तप्रवचनप्रदीपसम पुण्यनामधेय श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण छे. आ जीतकल्पना आधारे अनेक जीतकल्पो अने तेना उपविभागरूप जीतकल्पो पण रचाया छे. ते त्रण प्रकारे जोवा मले छे. 1 यतिजीतकल्प, 2 श्राद्धजीतकल्प, 3 लघुश्राद्धजीतकल्प. माहीती-जिनरत्नकोश ( वेलंकरकोश ) भाग. 1 पृ. 316 उपर त्रण जीतकल्प विषे उल्लेख मले छे. तेमांनी एक आ प्रस्तुत कृति छे. अन्य बे कृतिओ अनुक्रमे 132 अने 418 गाथात्मक छे अने पाटणना भंडारमा छे. श्राद्धजीतकल्प आ कृति आगमोद्धारक ग्रंथमाला ( ग्रंथांक 45) तरफथी प्रकाशित थइ चूकी छे अने कर्ता धर्मघोषसरि छे. लघुश्राद्धजीतकल्प-आ कृति विषे जैनग्रंथावली (पृ 56 ) मा उल्लेख छे, स्वोपज्ञवृत्तियुक्त तिलकाचार्यरचित 30 गाथात्मक छे, वृत्ति 115 श्लोक प्रमाण छे. पूर्वनिर्दिष्ट त्रणे जीतकल्पो पैकी दरेकनो विषय अनुक्रमे साधु अने श्रावकने लगता प्रायश्चित्त विषेनो छे. प्रस्तुत त्रण पैकी आ यतिजीतकल्पनुं जैनग्रंथावलीमां श्लोक प्रमाण 500 अने वृत्तिनु 5700 नु जणोवायु छे. अमने प्राप्त बे प्रति अनुसार आ कृति 306 गाथात्मक छे अने वृत्ति 5151 श्लोक प्रमाण छे. आम 549 श्लोकनो बे वच्चे फरक जणाय छे. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृती विद्यामंदिर तरफथी प्रकाशित केटेलोग भाग 4 ना प्रशस्ति आदि संग्रहना पेज 67 उपर आनी एक प्रशस्ति छे तेमां निर्देश 5770 श्लोकनो छे. आम 619 श्लोकनो फेर पडे छे. एक कृतिनी श्लोक संख्यामां आटलो फेर केम ? आ एक प्रश्न छे. आनो उत्तर अत्यार पूरतो एवो संभवे छे के कां तो आ संख्या गणवामां भूल थइ होय (1) अथवा संख्या लखवामा क्षति थइ होय (2) अथवा तो गद्यबद्ध कृतिनी श्लोकगणनारनी पद्धति वच्चे भेद रेखाओ होय ? आनुं विशेष संशोधन ए विद्वानोनुं कार्य छे. एटले तेओने आ संबंधे विचार करवानुं जणावी मूलकार ने वृत्तिकारना जीवनने स्पशुं छं. मूलकार-संसारमा जन्म अने मरण ए अस्वाभाविक नथी परंतु केटलीक व्यक्तिओ एवी उत्पन्न थती होय छे ने पोताना पवित्र कर्तव्यो द्वारा जीवनने उज्ज्वलता समर्प छे. एटलुंज नहिं परंतु बाह्य नश्वर शरीरनी विदाय बाद पण स्वसंपादित यशःकीर्तिरूप शरीर द्वारा अमर बने छे. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) अने आवा महर्षिोनुं सकल जनसमुदायना हृदयमा विशिष्ट महत्वभयुं स्थान सदा स्थापित थाय छे. आमांना एक प्रस्तुत ग्रंथकार श्री सोमप्रभसरि छे. पूज्यश्रीना जीवननो जन्म-दीक्षा विगेरे बाबतो विषे खास स्पष्टता मलतो नथी. जो के एमना जीवनना केटलाक एतिहासिक बनावो विषे थोडं जाणवी मले छे ते प्रमाणे तेओश्रोए पोताना जन्मथी भारतवर्षनी पुनित धरतीने सं. 1310 मां वधु उज्ज्वलता अर्षी छे तेओश्रीनी दीक्षा-आचार्यपद-स्वर्गगमन अनुक्रमे सं. १३२१-१३३२-१३७३नी मां नोंधाएली छ वीरवंशापलो ( जैन साहित्यसंशोधक खंड एक ) मा सं. 1375 मां स्वर्गवास जणाव्यो छे. पज्यश्रीने अगीआर अंग कंठस्थ हता अने प्रतिदिन तेओ स्वाध्याय करता हता. आ उपरथी तेमनी कुशाग्रबुद्धि अने स्वाध्याय तत्परता समजाय छे. आ सिवायनी अनेक ऐतिहासिक घटनाओनो उल्लेख गर्वावली तपागच्छ-पट्टावली विगेरेमा जोवा मले छे आ बधानो उल्लेख करता प्रस्तावना लांबी थाय एटले आटलेथी टुंकावीने वृत्तिकार विषे उल्लेख करु छु. वत्तिकार-आ वृत्तिना रचयिता श्री साधुरत्नसरि, मूलकार श्रीसोमप्रभसरिना प्रशिष्य अने 49 मा पट्टधर श्री देवसुंदरसूरिना पांच प्रसिद्ध आचार्य शिष्योमांना एक छे. सामान्य जन्म दिविषे खास माहिती मलती नथी. वीरवंशावलीमां पांच शिष्योने एक समये आचार्य पदवी आप्यान जणाव्युं छे. अने ते पण तेना लेखकना लखवाना आशय मुजब सं 1462 बाद आचार्य पदवी थयानुं जणाय छे. परंतु आ बाबत बरोबर जणाती नथी. कारणके तेमा आगल आ पांच पैकी छेल्ला आचार्य सोमसुंदरसूरि नी आचार्य पदवी सं. 1457 नी जणावाइ छे. आ सिवाय तपगच्छ पटावलीमां ( महा० धर्मसागरजी म० ) आ पांच पैको त्रणनी आचार्य पदवीनी संवतो भिन्न जणावाइ छ. आम आ वात' बरोबर लागती नथी एटलुं निश्चित जणाय छ के-आ ,वृत्तिनी रचना सं. 1456 नी छे. एटले सं. 1456 सुधीनी विद्यमानता तो छे. तेमनी कृतिमां पण आ सिवायनी अन्य कोइ जणाती नथी. रचना-मूलनी रचना संवत् विषे कोइ माहीती उपलब्ध नथी. परंतु वृत्तिनी रचना विषे आपणने स्पष्ट उल्लेख मले छे. जो के-अमने प्राप्त सं. 1965 मागशर सुद 15 रविषारना दिने बोरसद मुकामे लखाएली डभोईनी प्रतिमां रचना संवत् या प्रशस्ति नथी. जन-आनंदपुस्तकालयनी प्रति के जे सं. 1954 मागसर सुद 3 शुक्रवार वटोदरा ( वडोदरा) मां लखाएली छे. तेमां भट्टारकप्रभुजी देवसुंदर शिष्य साधुरत्नकृता आ प्रमाणे उल्लेख तेमज जैनग्रंथावलीमां पण रचना संवत 1456 जणावेली छे. तथा लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृतीविद्यामंदिर तरफथो प्रकाशित संस्कृत प्रोकृत केटेलोग भा. 4 प्रशस्त्यादि संग्रहना पेज 6-7 उपर एक प्रशस्ति छे. तेमांना निर्देश अनुसार पण आनी रचना सं. 1456 नी छे अने कर्ता साधुरत्मसरि छे. आ प्रति सं. 1623 मां अकबरना राज्यमां अलावलपुरमा भादरवा वद. 5 सोमवारे लखाई छे. आ सिवाय एक प्रति के जे अमदावाद डहेलाना उपाश्रयना भंडारनी छे ते प्रतिमां पण आवी प्रशस्ति छे. अने ए प्रशस्ति आमां छेल्ले . लखेली छे. आना कर्ता अने रचना संवत् विषे कोई शंका रहेती नथी.. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयादि-आमां प्रायश्चित्तनो विषय छे. ते पण मुनिओने आश्रयीने कहेलो छे. अने ते पण प्रायश्चित्त अधिकार जीतव्यवहार अनुसारे छे. जो के-जोतशब्द जीतव्यवहारगत प्रायश्चित्त तथा जीतव्यवहारगत आचरणानो पण तेना अर्थमा समावेश करे छे. आ वातने बृहत् चूर्णि अने विषमपदव्याख्या बंनेनुं समर्थन प्राप्त थाय छे जुओ.. जीयस्से त्ति वत्तणुवत्तपवत्तो बहुसो आसेविओ महाजणेण जीयववहारो भण्णइ ' (चूर्णि) तथा-'वत्तणुवत्तेत्यादि वृत्तः-पात्रबन्धग्रन्थिदानादिकः एकदा नवो जातः, ततः अनुवृत्तः एकपुरुष यावत् / ततः प्रवृत्तः पुरुषप्रवाहेण अत एव बहुश आसेवितो महाजनेन / (विषमपदव्याख्या ) परंतु जोतकल्प तथा अन्य उपविभागरूप यति० श्राद्ध० विगेरे कल्पोना परिशीलनथी समजाय छे के-आमां प्रायश्चित्तनो अधिकार छे. आचरणानो नहिं आ वातनी साक्षी जीतकल्पनी पहेली गाथा आपे छे. आ गाथाथी ए पण ख्यालमां आवे छे के-आमां जीतव्यवहार अनुसार प्रायश्चित्तनुं विधान छे. ___ आनुं प्रकाशन उचित छ ? छेदसूत्रो अने प्रायश्चित्तना अधिकारो घणा गूढ होय छे अने तेना अधिकारीओ पण घणा अल्प होय छे. छेदसूत्रोमां उच्चतम उत्सर्गमार्ग अने उच्चतम अपवादमार्गर्नु विधान होय छे. जो के-जोतकल्प तथा तेना विभागरूप आमां प्रायश्चित्त सिवाय उत्सर्ग-अपवाद मार्ग विषे उल्लेख नथी तेमज आ सीधी रीते छेदसूत्रने स्पर्शती कृति पण नथी, परंतु प्रायश्चित्त पण अतिगहन अने गुप्त राखवान होय छे. एटले एवी द्विधा प्रवर्ते छ के छेदसूत्रोनी जेम आवा ग्रंथोर्नु प्रकाशन पण इच्छनीय या अनिच्छनीय उचित. या अनुचित. एक एवं मंतव्य पण अत्यारे श्रमणसंघना एक विभागमा प्रवर्ते छे के-छेदसूत्रो सहित तमाम ग्रंथोनुं प्रकाशन थर्बु जोइए अने प्रचार पण थवो जोइए जेथी श्रमणो प्राचीन आचारोनुं सुविशुद्ध ज्ञान प्राप्त करी शके. ___ एटली वात नक्की छे के प्रचार शब्दनो हेतु सचवाइ रहेQ जोइए अर्थात् एनो प्रचार तत्सद् योग्य मुनिओमां थवो जोइए. जे मुनिओ परिणत होय, जे मुनिओ गुर्वाज्ञाधीन होय, परमगीतार्थ गुरुनी निश्रामां रही गुर्वाज्ञा प्रमाणे जो आवा ग्रंथोनुवांचन परिशीलन करे ते कंइ अनुचित नथी. प्रश्न एटलो छ के-आवा ग्रंथोनु प्रकाशन उचित या अनुचित ? जो उचित छे तो ते केवी रीते ? आ एक गंभीर प्रश्न छे. आनो सांगी रीते विचार करतां जणाशे के-आनुं प्रकाशन कंइक अंशे उचित छे. परंतु एना प्रचार बाबतमां संयम राखवानी जरूरत छ अर्थात् आवा ग्रंथो प्रकाशित थवा जोइए परंतु वेचाण न करतां योग्य ज्ञानभंडारो अने योग्य मुनिओने सुप्रत करवा जोइए. अने मर्यादित संख्यामां प्रकाशित करवा जोइए अने आनुं प्रकाशन कार्य पण गीतार्थों द्वारा थर्बु जोइए. जेम देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणे आगमोने पुस्तकारूढ कर्या तेवी रीते आ पण. आवा ग्रंथोनी प्रतिओनुं प्रमोण अल्प जोवाय छे. अधुरामा पुरुं आ हस्तलेखित प्रतिओनुं वांचन करनाराओनी संख्या बेहद प्रमाणमां घटी गइ छे. घटी रही छे. कारण आपणा दुर्भाग्ये कहो तो तेम पण. हवे आवा वांचनोमां रस पण घटतो रह्यो छे. आटलुं अपूर्ण होय तेम तेना प्रत्येनी उपेक्षाथी लेखको पण घटी रह्या छे. आमने आम परिस्थिति चालु रही तो नजीकना भविष्यमां आवा ग्रंथो विलुप्तप्रायः बनी जशे अने जे हशे ते पण आपणा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतकालीन समृद्ध वारसानी याद अपावता ज्ञानभंडारोनी शोभारूप बनी जशे. कारण आपणे तेने वांची शकवा अने समजी शकवा असमर्थ बनी गया होइशु. __ आवी विकट अने गंभीर स्थितिनो जो बराबर विचार करवामां आवे तो मारा प्रिय सुज्ञवाचकमित्रो अने अन्य श्रमणो पण मारा आ अभिप्राय साथे संमत थशे के आवा ग्रंथोने तद्दन अप्रकाशनना अधिकारमा न राखता अने बहु प्रचारना प्रकाशमां न राखता परिणत गीतार्थ पुरता प्रचार सहितनुं गीतार्थो द्वारा प्रकाशन ए आजना आपद्धर्मरूपे जरुरी अने उपयोगी छे. - उपसंहार-आजे जरूरत छे आपणी सजागतानी. भापणे सजाग होइए अने मुनिओ स्वयं आजे पोताना अनेक कार्यक्रमोमा पुस्तकलेखनने पण स्थान आपे अने स्वयं पोते लखे तो अशुद्ध प्रतिओ लेखकोना हस्ते लखाय छे ते दूर थाय अने सुविशुद्ध प्रति ओ लखाय. प्राचीनकालमां तो मुनिओ स्वयं लखता क्वचित् लहीआओ लखता ते पण पाछलथी पोते वांचीने या अन्य मुनिओ पासे वंचावीने अशुद्धिओ दर करवा प्रयास करता. जो आम थाय तो आपणा प्राचीन या अर्वाचीन ग्रंथोनी आयुमर्शदा वधु थाय ( अने आवा प्रकाशननी जरुरीआत पण घटे ) कारण प्रकाशित पुस्तको वधु टकता नथी नेटला हस्तलेखित ग्रंथो टके छे ( छेदसूत्रमा कोइ सूत्र एवा पण छे जे अप्रकाशित रहे तेज योग्य छे ) वो आ लेखनपद्धति पुनर्जीवन करवाथी ए ग्रंथो अप्रकाशित रहीने वधु सुरक्षित बनशे. . प्रिय विद्वानो आमा रहेली क्षतिओने उदारतापूर्वक क्षमो अी उपकृत करशे. एज अभिलाषा. आचार्य श्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्य मुनि पुण्योदसागर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धम् 30mm .1 स्थाप्येते भावी शुद्धिपत्रकम पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धम् | पृष्ठम् पक्तिः अशुद्धम् शुद्धम् 1 10 लेखचित्र लेखे चित्र 63 20 छग्गुरूअ छग्गुरू अ च्छिक च्छि अक 63 21 ति सङ्कल्पेनो ति सङ्कल्पे 3 21 अनिस्संके अ निस्संके . चतुर्गुरुकं तेन सङ्कल्पेनो 9 वाss चाss अनवरत अनवरतं कादिफं कादिकं मात्रण मात्रेण 1 वा . या अन्यस्मिन्नषि अन्यस्मिन्नपि तस्या तस्य 27. गइठाणाभास गइठाणभास अच्छति अच्छंति 28 कुड्डादस कुड्डदेस तथव तथैव 24 18 तिदडेणं तिदंडेणं भणित भणितं 30 15 स्थाप्यते धूपनम् धूपनम् 1/3 भावि दिद्वतो दिद्रुतो तपष्कारी तपःकारी मिर्दोष 49 14 चनं च तं 29 रजोहरण रजोहरणं 50. 6 ग छा गच्छा 31 शक्षादीनाम् शैक्षादीनाम् 50 23 नोदना कालाः नोदनाकालाः 103 3 तत्रवा तत्रैवो 51 22 मूल मुल 51 26 पशमि- पशमि बुध्यन्ते- बुध्यन्ते / 52. 15 हरण हरणं 117 स्तिष्टति स्तिष्पति 52 कोष्टके 2 तद्रुपाणामेव तद्रूपाणामेव 54. 12 ब्रूवते |120 जीवरूआईसु जीवरुआईसु 1 पणगाइ संगहो पणगाइसंगहो 120 जीवरूतं जीवरुतं लहुअस लहु अस अनुपाता अनुपाती 57 14 प्रादुष्यन्ति प्रादुःषन्ति 120 पात्तं पोत्तं 22 एव 141 तासां बद्धिपास बद्धि पास 142 दिवसेसु 60 21 चयस्य चर्यस्य 144 7 मित्येव- मित्येवं REE 555 * * * BF FREEEEEEEEEEEE * * * " 2 ' मिदारे 113 116 118 ब्रुवते 23 58 एवं त सां दिवसेषु Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः पृष्ठम् विषयः 1 मङ्गलादिप्रतिपादनम् / 2 आगमादिपञ्चव्यवहारनिरूपणम् / 3 व्रतषटकादीनि अष्टादश स्थानानि / 3 दशधा दापका प्रतिसेवना / 4 चतुर्विशतिधा कल्पिका प्रतिसेवना / 10 दिव्याद्या उपसर्गाः / 10 प्रायश्चित्तस्य भेदाः / 11 आलोचना-प्रायश्चित्तम् / 13 पञ्चधा उपसम्पद् / 14 प्रतिक्रमणप्रायश्चित्तम् / 14 इच्छादिसामाचारी / 15 लघुमृषादृष्टान्ताः / 18 विवेकाहं व्युत्सर्गाहं च प्रायश्चित्तम् / 20 अष्टधा ज्ञानाचारातिचारः / 20 श्रुताध्ययनपर्यायः / 27 दीक्षाया अयोग्याः / 29 प्रव्रज्यादिविधिः / 33 देवाद्याशातना-प्रायश्चित्तम् दर्शनाचारातिचारोऽष्टधा / 35 प्रथममहावतातिचारप्रायश्चित्तम् / 36 साधूनां जलमार्गे गमनविधिः / 43 द्वितीयादिमहाव्रतातिचारप्रायश्चित्तम् / 67 षोडशोद्गमदोषाणां प्रायश्चित्तम् / 71 षोडशोत्पादनादोषाणां प्रायश्चित्तम् / 73 दशग्रहणेषणादोषाणां प्रायश्चित्तम् / पृष्ठम् / विषयः 83 पासषणादोषपञ्चकप्रायश्चित्तम् / 84 आहारग्रहणाग्रहणकारणानि / 86 शय्यातरवर्णनम् / 92 जिनोचरितमालम्बनीयम् / 99 नवधा वसतिः / 99 प्रक्षेपकदोषस्वरूपम् / 103 उपधिविषयं प्रायश्चित्तम् / / 107 पात्रविषयं प्रायश्चित्तम् / / 112 स्वाध्यायस्य कत्तव्यता / ... 117 साध्वीनां वस्त्रदानविधिः / 120 यथाछन्दादिस्वरूपम् / 131 अतिक्रमादिस्वरूपम् / 135 अवधावित-प्रत्यावृत्तसाधुविषयं प्रायश्चित्तम् / . 138 आलोचनामाहिणः पुरुषाः / 143 नवविधंतपोदानव्यवहारः। 143 नवविधापत्तितपव्यिवहारः / 148 प्रायश्चित्तस्य पञ्चप्रकारा आरोपणा : 157 छेदाहं मूलाई च प्रायश्चित्तम् / 159 अनवस्थाप्याहं प्रायश्चित्तम् / 161 अनवस्थाप्यतपोविधिः / 162 पाश्चिकप्रायश्चित्तम् / 167 योगविधिविषयातिचारप्रायश्चित्तम् / | 168 प्रशस्तिः / Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादलिप्तपुरे श्रीवर्धमानजैन-आगममंदिर तथा सूर्यपुरे श्रीवर्धमान-जनताम्रपत्रआगममंदिरना संस्थापक आगमवाचनादाता आगमदिवाकर शैलाना-नरेशप्रतिवोधक 50 पू० आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज. जन्म-कपडवंजविक्रम संवत्-१९३१ आषाढ कृष्णा०)) दीक्षा-लीबडीविक्रम संवत्-१९४७ पंन्यासपद-राजनगरे विक्रम संवत्-१९६० आषाढ शुक्ला-१३ आचार्यपद-सूर्यपूरे विक्रम संवत् 1974 वैशाख शुक्ला 10 निर्वाण सूर्यपूरे विक्रम संवत् 2006 वैशाख कृष्णा-५ माघ शुक्ला-५ योऽदत्तागमषाचनाः सुशमिनां येनोद्धृता आगमा यधारोहितवाञ् श्रुतान् वरशिला-सत्ताम्रपत्रास्तथा / प्रन्था येन परःशता विरचिता यस्याऽमलः संयम: श्रीआनन्दपयोनिधिविजयते पूज्यः स सूरीश्वरः // जेलोधीमी आजीवन-अद्वितीय आगमसहित्य सेवार्नु सौ कोई अभिवादन करे छ / Page #13 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स / आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः / साधुशिरोमणि-साधुरत्नसूरिविहितवृत्तियुतः तपागच्छाधिराज-श्रीसोमप्रभसूरिप्रणीतः जइ-जीयकप्पो जयति महोदयशाली भास्वाञ् श्रीवर्धमानतीर्थपतिः। विशदं चरणपथं सा तपस्थितिर्यदुदिता तनुते // 1 // जयति प्रवचनदीपः प्रतिहतदुरपोहमोहतिमिरौघः। चित्रं निरञ्जनोऽयं जगति गुणग्रामवृद्धिकरः // 2 // सकलत्रिलोकविस्मयविधायिनिस्सीमधीगुणातिशयान् / बहुविधलब्धिसमृद्धान् निखिलानपि गणधरान्नौमि // प्रणमामि विश्रुतश्री-जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणमुख्यम् / सङ्क्षिप्तजीतकल्पं महाश्रुताद्यः समुद्दधे // 4 // श्रीसोमप्रभसूरीन् गुरूत्तमान् स्तौमि विश्रुतातिशयान् / सुविहितहिताय विहितः सव्यासो यैरसावेव / / 5 / / श्रीसोमतिलकसूरीन् वन्दे विख्यातवैभवाभ्युदयान् / यैरस्य जीतकल्पस्याऽऽतेने वृत्तिरतिविशदा // 6 // मन्दमतिबोधहेतोरतिगहनमहागमावगाहनया / कालानुभाववशतो व्युच्छिन्ना सा तदैव परम् ॥युग्मम् / / जगति जयन्ति गरिष्ठां गरवः श्रीदेवसन्दरमनीन्द्राः। सम्प्रति निष्प्रतिमगुण-प्रभाप्रभावादभता विदिताः॥ ये निजवचनसुधाञ्जन-वशेन शिष्यस्य मादृशस्यापि / उद्घाटयन्ति लोचन-मान्तरमज्ञानतिमिरभूतम // तस्याः पुनरालेखचित्रकलाकौशलेन विकलोऽपि / तैः स्वविनेयकनिष्ठो-ऽप्यादिष्टोऽयं ततो यतते // 10 // यद्यपि साहसमेवं कुर्वन् हास्योऽस्मि तदपि किं कुर्वे / यन्मामत्र प्रसभं प्रेरयति गुरुप्रसादोऽयम् // 11 // इह दुःषमान्धकारनिमग्नजिनप्रवचनप्रदीपायमान-श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचितो जीतकल्पोऽतिसङ्क्षिप्तः / निशीथभाष्यादिछेदग्रन्थाश्चातिमहान्तो दुरवगाहाश्च / अतः साध्वनुग्रहाय पूज्यश्रीसोमप्रभसूरयः किश्चित् विस्तरप्रायश्चित्तविधिप्रतिपत्तये प्रायो जीतकल्पनिशीथाद्यन्तर्गतगाथा'मिरेव यतिप्रायश्चित्तविभागाविर्भावकं जीतकल्पनामकं प्रकरण चिरन्तनजीतकल्पात् किश्चित् समधिकगाथाकदम्बकं कृतवन्तः / परं द्विधा विनेयाः-योग्या अयोग्याश्च / तत्र योग्या ये रङ्गत्संवेगतरङ्गिणीतरङ्गप्रक्षालिताऽऽन्तरमलाः परिमलितबुद्धयः समस्तसिद्धान्तमहार्णवपारीणाः परिणतवयसः सार्वपथीनप्रतिभाप्राग्भारसारचेतसः सततमुत्सर्गापवादगोचराऽऽचारचतुराश्विरप्रव्रजिताः / ये त्वेतद्विपरीताः तिन्तिणिकादयश्चाग्रतो वक्ष्यमाणस्वरूपाः तेऽयोग्याः / एतेषामयं जीतकल्पो न दातव्यः / यतः-आमे घडे निहित्तं जहा जलं तं घडं विणासेइ / इय सिद्धंतरहस्सं अप्पाहारं विणासेइ' // 1 // अतो योग्यानामेव दातव्यः / अत्र चादौ पूर्वजोतकल्पगतास्तद्रूपा एव चतुर्विशतिगाथाः सन्ति / तासां व्याख्याऽपि प्रायस्तद्रूपैव / तथाहि-सर्वाण्यपि शास्त्राणि मङ्गलाभिधेयप्रयोजनप्रतिपादनपुरःसराण्येव प्रणीयन्ते / विशेषतो निश्शेषकल्मषकरीपंकषो जीतकल्पस्ततस्तस्यादौ मङ्गलादिप्रतिपादिकेयं गाथा कयपवयणप्पणामो वुच्छं पच्छित्तदाणसंखेवं / जीअव्यवहारगयं जीवस्स विसोहणं परमं // 1 // . व्याख्या-प्रकर्षण-परसमयापेक्षया यथावस्थितभूरिभेदप्रभेदैरुच्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्था अनेनाऽस्मिन्निति वा प्रवचनं-सामायिकादि बिन्दुसारपर्यन्तं मुख्यतः श्रुतज्ञानम् उपचारात् तत्रोपयुक्त Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे श्चतुर्विधः सङ्घोऽपि / कृतः प्रवचनस्य प्रणामो येन स कृतप्रवचनप्रणामोऽहं वक्ष्ये प्रायश्चित्तदानसझेपम् / पापं छिनत्ति इति पोपछित् / अथवा प्रायः चित्तं-जीवं मनो वाऽतीचारमलमलिनितं शोधयतीति प्रायश्चित्तम् / आर्षत्वात् प्राकृतेन पच्छित्तम् / उक्तं च पावं छिंदइ जम्हा पायच्छित्तंति भण्णए तम्हा। पाएण वा वि चित्तं विसोहई तेण पच्छित्तं // तस्य दानं तस्य सक्षेपः-सङग्रहस्तं जीतव्यवहारकृतं-जीतव्यवहारो-'वत्तणुवत्ते 'त्यप्रेतनगाथयैव वक्ष्यमाणलक्षणस्तेन कृतम्-उपदिष्टं, जीतव्यवहारगतं वा जीतव्यवहारानुप्रविष्टम् / जोवस्य ‘जोव प्राणधारणे जिजीव जीवति जीविष्यती 'त्युपयोगलक्षणत्वेन त्रिकालमपि जीवनाज्जीवस्तस्य विशेषेण शोधनम् / विशेषश्चायं-द्विजादयोऽपि स्थूलबुद्धयः क्वापि प्राणवधादौ सामान्येन प्रोयश्चित्तं ददति, न पुनः सङ्घट्टनपरितापनोपद्रवादिभेदैः सर्वेषामेकेन्द्रियादि-त्रसपर्यन्तानां विषयभेदेन प्रायश्चित्तं दातुं जानन्ति / नह्ययमुपदेशस्तदीयशास्त्रेष्वस्ति / इह पुनः प्रवचने सर्वमस्ति / अत एव यथा पलाशक्षारारिष्टकोदकादिर्वस्त्रमलम्य शोधनम् / तथाऽत्रापि कर्ममलमलिनस्य जीवस्य जीतव्यवहारोपदिष्टं विशोधनं . परमं-प्रकृष्टमनन्यसदृशं, नान्यत्रैवं विशिष्टप्रायश्चित्तविधिरस्तीत्यर्थः / इह शिष्यः प्राह-विशेषणं हि व्यवच्छेदकं भवति, यथा नीलोत्पलमित्यत्र नीलविशेषणं रक्तोत्पलादेरपि सम्भवात् तद्व्यवच्छेदाय / तत् किमत्राप्यन्येऽपि व्यवहाराः सन्ति ? येन जोतव्यवहारगतमिति विशेष्यते / गुरुराह-सन्त्यन्येऽपि आगम-श्रुता-ऽऽज्ञा-धारणाव्यवहारास्तद्व्यवच्छेदाय तज्जीतपदम् / पुनः शिष्योऽभिधत्ते-भगवन्नमीषां मिथः को विशेषः ? / गुरुराह-आगमव्यवहारिणस्तावत् षड्विधाः / तद्यथा-केवलिनो मनःपर्यायज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्चतुर्दशपूर्विणो दशपूर्विणो नवपूर्विणश्च / अत्र यदा केवली प्राप्यते तदा तस्याऽग्रे प्रायश्चित्तं गृह्यते, तदभावे मनःपर्यायज्ञानिनः, तस्याप्यभावेऽवधिज्ञानिनः, तदप्राप्तौ चतुर्दशपूर्विणः, तदनुपलम्भे दशपूर्विणः , तस्याऽप्यनासादने नवपूर्विण इति / श्रुतव्यवहारिणश्चाऽष्ट-सप्त षट्-पञ्च-चतु-स्त्रीद्वकार्द्धपूर्विण एकादशाङ्गधारिणो निशीथकल्पव्यवहार-दशाश्रुतस्कन्ध-पञ्चकल्पाद्यशेषश्रुतसूत्रार्थाभिज्ञाश्च / श्रुतव्यवहारश्चोऽऽचाराङ्गादीनामष्टमपूर्वान्तानामेव / यदुक्तम्-'आयारपकप्पाई सेसं सव्वं सुअं विणिहिट्ठ 'मिति [ व्यवहारभाष्ये ] अत्राह कश्चित्-किमष्टमपूर्वान्तमेव श्रुतं, नवमपूर्वादीनां न श्रुतत्वम् ? उच्यते-आगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्तेऽतीन्द्रियोः पदार्था येन स ओगम इति व्युत्पत्तेनवमपूर्वादीनां श्रुतत्वाऽविशेषेऽपि केवलज्ञानादिवदतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमत्वेनैव व्यपदेशः / शेषश्रुतस्य तु नातीन्द्रियार्थेषु तथाविधोऽवबोधस्ततोऽस्मिन् श्रुतव्यवहारः / इदानीं चाऽऽगमव्यवहारिणामभावे समयानुसारेणोत्कृष्टतमश्रुतानां श्रुतव्यवहारिणां सन्निधावालोच्यते / आज्ञाव्यवहारस्तु कावपि गीतार्थावाचार्यों सम्यगधीताशेषसूत्रार्थों क्षीणजङ्घोबलौ दवीयोदेशवासिनौ परस्परेणोपान्तमागन्तुमक्षमा तयोरेकः प्रायश्चित्तं जिघृक्षुरगीतार्थशिष्यं मतिधारणाकुशलं सन्दिष्टवस्तुनयनसमर्थमागमभाषया गूढान्यपराधपदानि कथयित्वा लिखित्वा वा समर्प्य मन्दमेधसं शिष्यं द्वितीयाऽऽचार्यसमीपे प्रस्थापयति, सोऽपि तथैव गूढपदैः प्रायश्चित्तं कथयित्वा लिखित्वा वा समय॑ प्रेषयति, एष आज्ञालक्षणः तृतीयो व्यवहारः / तदुक्तं- 'देसंतरटिआणं गूढपयालोअणा आणा' आलोचना च प्रतिसेवकस्य प्रतिसेवनीयप्रतिसेवनातः स्यात् / तत्र प्रतिसेवकः साध्वादिः / प्रतिसेवनीयं च व्रतषट्कादीन्यष्टादशस्थानानि / तद्यथा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 दपिका-प्रतिसेवना वयछक्कं कायछक्कं अकप्पो गिहिभायणं / पलिअंक निसिज्जा य सिणाणं सोहवज्जणं'। बतषटकप्राणातिपातविरत्यादिमहाव्रतपञ्चकं रात्रिभोजनविरतिषष्ठम् / कायषट्कं-पृथिव्यादयः पड् जीवनिकायाः। षट्कद्वयेन मूलगुणा उक्ताः / एतद्देतिकल्पाश्चाऽकल्पादयः षडुत्तरगुणाः / तत्राऽकल्पो द्विविधः-शिक्षकस्थापनाकल्पोऽकल्पस्थापनाकल्पश्च / तत्राऽऽद्योऽनधीतपिण्डनियुक्त्यादिशास्त्रसाधुना समानीतमाहारादि साधुभ्यो न कल्पते / उक्तं च___'अणहीआ खलु जेणं पिंडेसणसिज्जवत्थपाएसो। तेणाणिआणि जइणो कप्पंति न पिंडमाईणि॥१॥ उउबलुमि अनला वासावासे उ दोवि नो सेहा / दिक्खिज्जती पायं (सेह) ठवणाकप्पो इमो होई' / / 2 / / आद्या गतार्था / द्वितीयस्याश्चायमर्थः-ऋतुबद्धे-शीतोष्णकालमासाष्टके अनला-अयोग्या नपुंसकादयो न दीक्षार्हाः / वर्षाकाले तु 'दोवि 'त्ति / द्वावपि-योग्याऽयोग्यौ शैक्षौ न कार्याविति शेषः / शिक्षकस्थापनाकल्पाख्योऽकल्पः। द्वितीयश्वाऽनेषणीयपिण्डशय्यावस्त्रपात्रलक्षणोऽकल्प उद्गमादिद्विचत्वारिंशद्दोषरहितस्यैव कल्पनीयत्वात् / 1 / गृहिभाजनं-गृहस्थसम्बन्धि स्थोलतलिकादिकमकल्पम् / 2 / 'पलिअंक 'त्ति / ओसन्दकशय्यामश्चकादावुपवेष्टुं स्वप्तुं वा दुष्प्रतिलेख्यत्वात् साधूनां न कल्पते / 3 / ' निसिज्ज 'त्ति / भिक्षार्थं गृहप्रविष्टस्य साधोरुत्सर्गतस्तत्र निषदनं न कल्पते / अपवोदतः पुनः कस्यचित् कल्पते / यदुक्तं श्रीशय्यंभवमित्रैः 'तिण्हमन्नयरागस्स निसिज्जा जस्स कप्पई / जराए अभिभूअस्स वाहिअस्स तवस्सिणो'॥१॥ एते च भिक्षाटनं न कार्यन्त एव परमात्मलब्ध्यपेक्षया-सूत्रे त्रयस्योपवेशनमुक्तम् / 4 / स्नानम्-अङ्गप्रक्षालनं, सर्वतो देशतोऽप्यकल्पं / 5 / शोभावर्जनं-नखकेशसंस्कारादि-विभूषात्यागः / 6 / इत्यष्टादशस्थानलक्षणं प्रतिसेवनीयम् / प्रतिसेवना च द्विधा-दर्पिका कल्पिका च / आकुट्टि-प्रमादसेवने च सत्यावपि न विवक्षिते / दर्पाकल्पसाध्यत्वादाकुट्टेः / प्रमादस्यापि दर्पजन्यत्वादनयोर्दपिकाख्यायामाद्यप्रतिसेवनायामेवान्तर्भावः / सा चाद्या दशधा, तद्यथा 'दप्प-अकप्प-निरालंब चिअत्ते अप्पसत्थ-वीसत्थे / अपरिच्छिअ कडजोगी निरणुत्तावी अनिस्संके' // 1 // तत्र दो-धावनडेपनादिः / धावनं-निष्कारणमतित्वरितमविश्राम गमनम् / डेपनं-गर्त्तवरण्डादीनां रयेणोल्लङ्घनम् / आदिशब्दान्मल्लवद् बाहुयुद्धकरणलगुडभ्रमणादिग्रहः / 1 / अकल्पःपृथिव्यादिकायानामपरिणतानां ग्रहणम्-उदकाई-सस्निग्धसरजस्काभ्यां हस्तमात्रकाभ्यामादानम् / अगीतार्थोत्पादिताहारोपधिपरिभोगः / पञ्चकादि-प्रायश्चित्तयोग्यमपवादविधिं त्यक्त्वा गुरुतरदोषसेवनं चेति / 2 / निरालम्बो-ज्ञानाद्यालम्बनं विनाऽपि निष्कारणमकल्पिकासेवनं, यद्वा-अमुकेनाऽऽचरितमतोऽहमप्याचरामीति / 3 / 'चिअत्ते 'ति / त्यक्तकृत्यः-त्यक्तचारित्रः, अपवादेनाऽसंस्तरे ग्लानोदिकारणे वा यदकल्प्यमासेवितं पुनस्तदेव संस्तरेऽपि निवृत्तरोगोऽप्यासेवते / 4 / अप्रशस्तोऽप्रशस्तेन भावेन बलवर्णाद्यर्थ प्रासुकमपि भुञ्जानः किं पुनरविशुद्धमाधाकर्मादि / 5 / विश्वस्तः-प्राणातिपाताद्यकृत्यं सेवमानः स्वपक्षात् श्रावकादेः परपक्षान्मिथ्यादृष्टयादेन बिभेति / 6 / 'अपरिच्छिअ'त्ति / अपरीक्षक-उत्सर्गापवादयोरायव्ययोवनालोच्य यः प्रतिसेवते / 7 / अकृतयोगी-ग्लानादिकार्ये गृहेषु त्रिःपर्यटनरूपं योगव्यापारमकृत्वैव योऽनेषणीयमासेवते / यथा असंस्तरादौ त्रीन् वारानेषणीयार्थ पर्यटिताशेषगृहेणाप्य Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे प्राप्तेषणीयेन चतुर्थवेलायामनेषणीयं ग्राह्यमित्येवं व्यापारमकृत्वैव प्रथमद्वित्रिवेलास्वप्यमेषणीयं गृह्णाति स तथा / 8 / निरनुतापी-अपश्चात्तापी, यः साधुरपवादेनापि पृथिव्यादीनां सङ्घट्टनपरितापनोपद्रवान् कृत्वा नानुतप्यते / यथा हा ! मया दुष्ठु कृतमिति / यस्तु दर्पणाप्यासेव्य नानुतप्यते किं तस्य उच्यते / / 9 / निश्शङ्को-निरपेक्षः, अकार्यं कुर्वन् कस्याप्योचार्यादेर्नाऽऽशङ्कते नेहलोकस्यापि बिभेतीत्यर्थः / 10 / एषा दपिका प्रथमा प्रतिसेवना / द्वितीया कल्पिका प्रतिसेवना चतुर्विशतिधा / तद्यथा 'दसणनाणचरित्ते तव-पवयण-समिइ-गुत्तिहेउं वा / साहम्मिअवच्छल्ल-तणेण कुलओ गणस्सावि // 1 // संघस्सायरिअस्स य असहस्स गिलाण बालवुड्ढस्स / उदयग्गिचोरसावय भयकंतारावई वसणे . // 2 // ‘दसण 'त्ति / दर्शनप्रभावकानि प्रमाणशास्त्राणि प्रमेयरत्नकोशादीनि गृह्णन्नसंस्तरे अकल्प्यमपि यतनया प्रतिसेवमानः शुद्धोऽप्रायश्चित्त इत्यर्थः / 1 / 'नाण 'त्ति / ज्ञाननिमित्तं सूत्रमर्थं वाऽधीयन्नसंस्तरे अकल्याऽऽसेव्यपि शुद्धः / 3 / ' चरित्ते त्ति / यत्र क्षेत्र एषणादोषः स्त्रीदोषो वा ततः क्षेत्राचारित्रार्थिना निर्गन्तव्यं, निर्गच्छंश्चाक्षमत्वादकल्प्याऽऽसेव्यपि शुद्धः / 3 / 'तवे 'त्ति / तपः करिष्यामीति घृतादि पिबेत् , कृते वा विकृष्टतपसि मासक्षपणादौ पारणके लाजातरणादि पिबेत्, तीर्यत इवास्यामतिस्वच्छतयेत्यधिकरणे अनटि तरणं लाजा-भृष्टा ब्रीहयस्तैर्निवृत्तं तरणं लाजातरणम् उपचारात् पेयाऽभिधीयते तां पिबेत् / यद्वा-आधाकर्मादि तस्मै दद्यात् माऽन्येन शीतान्नादिना रोगोऽभूत, शकंराऽऽमलकादयो वाऽस्य यतनया पारणके दीयन्ते, परं शुद्धः / 4 / 'पवयण 'त्ति / प्रवचनार्थ किञ्चित् प्रतिसेवमानः शुद्धः / यथा कोऽपि राजादिर्भणेत् मम विषयान्निर्गच्छतेति / ततस्तद्दण्डार्थमुपक्रमते / यथा विष्णुकुमारमुनिना लक्षयोजनप्रमाणं शरीरं कृतं लवणोदधिश्चलनाभ्यामालोडितः / 5 / 'समिइ 'त्ति / समितिहेतोः ईर्यासमितिर्न शुद्धथतीति चक्षुनिमित्तं वैद्योपदेशादौषधादिपानं कुर्यात् / कथमपि चित्तव्याक्षेपादिसम्भवे मा भाषासमितावसमितो भूवमिति तत्प्रशमनार्थमौषधादि पिबेत् / एषणासमित्यै कदाचिदसंस्तरेऽनेषणीयमपि गृह्णीयात् / एषणादोषेषु वा शङ्कितादिषु सत्स्वसंस्तरे गृह्णीयात् / दीर्घाऽध्वप्रतिपत्तौ वाऽध्वकल्पं प्रतिसेवेत् / अयं भावार्थः-सम्प्रत्यल्पदोषमिदमनाददानः पश्चाद् ग्लानत्वादिभावे माऽऽधाकर्मादि बादरमनेषणीयं ग्रहीषम् / आदाननिक्षेपसमित्यै कश्चित् कम्पवातादिना कम्पमानकरोऽन्यत्र प्रमार्जयत्यन्यत्र वस्तु निक्षिपत्यतस्तत्प्रशमनार्थमौषधादि विदध्यात् / पारिष्ठापनिकासमित्यै स्थण्डिलाभावे कायिकी संज्ञा वा कदाचिदक्षमतया पृथिव्यादीन् विराधयन्नपि कुर्वीत, मा ममेदानी कायिक्याद्याबाधया मृत्युर्भूत् / जीवन् पुनरिमां समितिं यथावस्थितां पालयिष्यामीति / 6 / 'गुत्तिहेउं वा' गुप्तिहेतोः कदाचिद् विषमातङ्कादौ अनन्यौषधसाध्ये वैद्योपदिष्ठं विकटं स्वल्पमेवाऽऽसेवते / माऽहं वैकल्यान् मनोवाकायैरगुप्तो भूवमिति / 7 / साधर्मिकवात्सल्यमाश्रित्य किञ्चिदकल्प्यं प्रतिसेवेत / यथा आर्यवैरिस्वामिभिरशिखाकमुण्डः पटेऽधिरोप्य दुर्भिक्षानिस्तारितः / न चैतत्कत्तुं कल्पते साधूनां / यदुक्तं 'तहेवाऽसंजयं धीरो आस एहि करेहि वा / सयं चिट्ठ वयाहित्ति मेवं भासिज्ज पण्णव // ' मिति / 8 / कुलगणसङ्गकार्येषु समुत्पन्नेषु वशीकरणोच्चाटनाभिचारादीनि राजादिकमुद्दिश्य प्रयुक्ते, चूर्णयोगादीन् वा करोति / 11 / आचार्या-ऽसहिष्णु-ग्लोन-बाल-वृद्धादीनां च येन समाधिर्भवति तत्कार्यम् / तत्र राजयुवराजाऽमात्यप्रेष्ठिपुरोहिता असहिष्णवः पुरुषा भण्यन्ते / एते हि अन्तप्रान्त Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूढान्यपराधपदानि विपरिणाम्यन्ते / बालवृद्धौ च कारणदीक्षितो भवेताम् / यथाऽऽर्यवैरिस्वामी आर्यरक्षितपिता च / एतेषां च सर्वेषामपि पञ्चकाद्यया यतनया आहारादि गृहीत्वा समाधिहेतोर्दातव्यम् / पञ्चकादियतना चेयं-येन गृहीतेन पश्चकप्रायश्चित्तापत्तिर्भवति / तदपि तत्प्रायोग्यं सर्वविशुद्धप्रायोग्याऽलाभे ग्राह्यम् / तदभावे येन दशकापत्तिस्तदाप्यादेयम् / एवं यावदाधाकर्माऽप्यादोय तेषां समाधिरुत्पाद्यः / 16 / 'उदगि'त्ति / उदकप्रवाहो-नदीपूरादिः / 'अग्गि'त्ति / दावाग्निः / 'चोरि 'त्ति / चौरा द्विविधा-वस्त्राशुपधिहारिणः शरीरहारिणश्च पारसीकम्लेच्छादयः / 'सावय 'त्ति / श्वापदानि च सिंहसिन्धुरव्याघ्रादीनि / एतेषामन्यतरस्मात् सकाशाद् भये सति स्तम्भनविद्यया तं नदीपूरादिकं स्तभ्नीयात्, विद्याया अभावे पलायेत, पलायनाऽसमर्थश्च श्रान्तो वा सचित्तवृक्षमप्यारोहेन्न दोषः / 20 / तथा भयं धाटयादेः, तस्मिन् सति पलायमानः पृथिव्यादीन् विराधयेत् / 21 / 'कंतार 'त्ति / अरण्यानी, यत्र भक्तपानादिलाभो न सम्भवत्येव, तत्र यतनया कदल्यादिफलानि उदकादि वाऽप्रासुकमाददीत / 22 / 'आवइ 'त्ति / आपत्-द्रव्यक्षेत्रकालभावैश्चतुर्की / द्रव्यतः प्रासुकोदकाद्यलाभे, क्षेत्रतो दीर्घमध्वानं प्रतिपन्नानां, कालतो दुर्भिक्षादौ, भावतो ग्लानत्वादावापत् / तत्र किश्चिदकल्पिकं प्रतिसेवेत तथापि शुद्धः / 23 / 'वसण'त्ति / गीताद्यभ्यासो व्यसनम् / कोऽपि चारणादिः दीक्षितः स्यात् / स च गीतव्यसनतया गीतोच्चारं कुर्यात् / ताम्बूलव्यसनी वा प्रव्रजितो व्यसनितया पक्वशुष्कताम्बूलपत्रादिकं मुखे प्रक्षिपेत् / 24 / एषा कल्पिका द्वितीया प्रतिसेवना / गूढपदानि चामूनि . 'पढमस्स य कज्जस्सा पढमेण पएण सेविअंजं तु। पढमे छक्के अभि-तरं तु पढमं भवे ठाणं'। प्रथमस्य कार्यस्य-दर्पिकासेवनालक्षणस्य तद्भेदानां दर्पाऽकल्पनिरालम्बादीनां दशानां पदानां मध्यात् प्रथमेन पदेन-दर्पलक्षणेनासेवितं यत् / प्रथमे षटके-व्रतषट्काख्येऽभ्यन्तरम्-अन्तर्वर्ति व्रतषट्कान्तःपतितमित्यर्थः। प्रथमं प्रोणातिपाताख्यं भवेदतीचारस्थानमापन्नमित्येवं गूढपदेन प्राणातिपाताऽतिचारं निर्दिष्टवान् / 'एवं बीयं भवे ठाणं, तइअं भवे ठाण 'मित्यादिसर्वपदचारणिकाक्रमेणाशीत्यधिक 'शतमतीचारस्थानानां जायते / तथा बीअस्स य कज्जस्सा पढमेण पएण सेविअंजं तु / पढमे छक्के अभि-तरं तु पढमं भवे ठाणं'। द्वितीयस्य कार्यस्य-कल्पिकाऽऽसेवनाख्यस्य तद्भेदानां दर्शनादीनां चतुर्विशतिसङ्ख्यानां मध्यात् प्रथमेन पदेन दर्शनाख्येन दर्शनप्रभावनारूपेणाऽऽसेवितं यत् / उत्तरार्द्ध प्राग्वत् / अत्रापि सर्वपदचारणिकाक्रमेण चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकान्यतिचारस्थानानि जायन्ते / उभयरोशिमेलने षट्शतानि द्वादशोत्तराणि / एतेषां च परिज्ञानायेदं यन्त्रकद्वयम् / // दर्पयन्त्रकम् // . Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे ॥कल्पयन्त्रकम् // | | | | | ..... દર વરશાદ 2022 રરરરર | . . अनयोर्यन्त्रकयोः शीलाङ्गरथवत् सर्वपदचारणिका करणीया / इयं स्थापना-' पढमस्स य कजस्सा 180 पढमेण पएण सेविअं जं तु 18 / बीएण 18 तइएण 18 तुरिएण 18 पंचम य 18 छट्टेण 18 सत्तम य 18 अट्ठम य 18 नवमेण 18 दसमेण / पढमे छक्के अभितरं तु 6, बीए छक्क अभितरं तु 6 तइए छक्के अभितरं तु 6 / पढमं भवे ठाणं 1 बीए (अं) भवे ठाणं 1 तइए (अं) भवे ठाणं 1 तुरिअं भवे ठाणं 1 तह पंचमं भवे ठाणं 1 छटुं भवे ठाणं 1 एतत्प्रथमं यन्त्रम् / 'बीयस्स य कजस्सा 432 पढमेण पएण सेविअं जं तु 18 / बी० 18 त० 18 तु. 18 पं० 18 छ०. 18 स... 18 अटू० 18 नव० 18 द०१८ एगोरसमेण 18 बा० 18 ते० 18 चउद० 18 पनर० 18 सोल० 18 सतर० 18 अढार० 18 इगुणो० 18 वी० 18 इग० 18 बा० 18 ते०१८ च०१८ / पढमे छक्क अभितरं तु 6, बीए 6 तइए 6 / पढमं भवे ठाणं 1 बोअं भवे ठाणं 1 तइयं भवे ठाणं 1 तुरिअं भवे ठाणं 1 तह पंचमं भवे ठाणं 1 छटुं भवे ठाणं 1 इदं द्वितीयं यन्त्रम् / 'सोऊण तस्स पडिसेवणं तु आलोअणं कमविहिं च / आगम पुरिसज्जायं परिआय बलं च खित्तं च // अवधारेउ सीसो गंतूण य सो तओ गुरुसगासे / तेसि निवेएइ तहा जहाणुपुव्वी तगं सव्वं // स गूढपदावधारकः शिष्यस्तस्याऽऽचार्यस्य प्रतिसेवकस्य प्रतिसेवामालोचनां च क्रमविधिं च मूलोत्तरगुणविषयं श्रुत्वा, आगमम्-आगमधरत्वे, पुरुषजातं-वाऽऽचार्यादि, पर्याय-व्रतवयोविषयं, बलं च-वपुःसामर्थ्य, क्षेत्रं च कर्कश-साधारणादिरूपम् , अवधार्य, ततो गत्वा गुरूणां-प्रायश्चित्तदातृणां सकाशे यथाऽनुपूर्व्या श्रुतं तत्तथा सर्व तेषां निवेदयति / ततः 'सो ववहारविहिन्नू अणुमजिअ तं सुओवएसेणं / सिस्सस्स देइ आणं तस्स इमं देहि पच्छित्तं' / स-प्रोयश्चित्तदाता आगमादिव्यवहारविधिज्ञस्तत्र स्वयं गन्तुमक्षमः स्खशिष्यं प्रेषयति, तदभावे आगतशिष्यस्यैवाऽऽज्ञां ददाति, अनुमृज्य-तं गूढपदालोचितमतीचारं श्रुतोपदेशेन विशोभ्य, यथा तस्याऽऽचार्यस्येदं प्रायश्चित्तं दद्या इति गूढपदैरेव कथयति / तानि चैतानि 'पढमस्स य कज्जस्सा दसविहमालोअणं निसामित्ता / नक्खत्ते भे पीडा सुक्के मासे तवं कुणह / / चाउम्मासं तवं कुणह, छम्मासं तवं कुणह, सुक्के इति सञ्चारितान्त्यपदा पुनरेषेव गाथा द्विः पठनीया / आसामर्थः-प्रथमस्य कार्यस्य-दर्पिकासेवनाऽऽख्यस्य दशविधामालोचनां दर्पाकल्पादि-दशपदात्मिकां निशम्य नक्षत्रे भे-भवतां पीडा-पीडकत्वेनोपचाराद्विराधना / कोऽर्थः 1 चन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रतारकभेदपञ्चविधज्योतिश्चक्रमध्ये नक्षत्रभेदश्चतुर्थः / अतोऽनेन चतुर्थव्रतगोचरा विराधना सूच्यत इति Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 साधुगुणाः एके व्याचक्षते / अन्ये त्वाषाढाद्याः संवत्सरा इति / तदाद्यदिने ज्येष्ठपूर्णिमानन्तरप्रतिपदि संवत्सरमूलदिवसे मूलनक्षत्रं भवति / ततः प्राधान्यादत्र नक्षत्रशब्देन मूलं भणन्ति / तेन मूलगुणविराधनां प्राणातिपाताद्यतिचाररूपां ज्ञापयन्ति / अपरे त्वार्द्रादिषु नक्षत्रेषु सर्वेषु वृष्टेऽपि मेघे हस्तवृष्टिं विना न धान्यानि विशिष्टां पुष्टिं बध्नन्ति / ततो हस्तस्य प्राधान्यमिच्छन्तोऽत्र नक्षत्रध्वनिना हस्तं निर्दिशन्ति / ततो हस्तेनाऽदत्तमात्रं हस्तकर्म वा कृतमिति तृतीयचतुर्थव्रतातिचारसूचा / एके तु नक्षत्राणि लोके सप्तविंशति र्व्यवह्रियन्त इति / नक्षत्रशब्देनानगारगुणानां मूलोत्तरगुणरूपाणां सप्तविंशतिसङ्ख्यानां विराधनामाहुः / तथा चाऽऽवश्यके प्रतिक्रमणाध्ययने-' सत्तावीसाए अणगारगुणेहिं 'ति / __'वयछक्कमिदिआणं च निग्गहो भावकरणसच्चं च / खमया विरागया वि अ मणमाईणं निरोहो अ॥ कोयाणं छक्क जोगंमि जुत्तया वेअणाहिआसणया / तह मारणंतिअहिआसणा य एए णगारगुणा / गाथे स्पष्टार्थे / 'नवरं-'भावकरणसच्चं च 'त्ति / भावसत्यं शुद्धान्तरात्मतारूपं पारमार्थिकाऽवितथं, करणेन सत्यं करणसत्यं-यथोक्तप्रतिलेखनादिक्रियाकरणम् / इह व्रतषट्कं कायषट्कं च 12 मूलगुणाः , शेषाः 15 उत्तरगुणाः / तत्रोत्तरगुणविराधनामाश्रित्य शुक्ले मासे तपः कुरुत / चातुर्मासिकं तपः कुरुत, पाण्मासिकं तपः कुरुत / 'शुक्ले' इति / अयमभिप्रायः-उत्तरगुणविराधनायां शुक्लशब्दवाच्यान्युद्घातिमानि मासिक-चातुर्मासिक-पाण्मासिकानि प्रायश्चित्तानि कार्याणि / मूलगुणातिचारे तु कृष्णशब्दवाच्यान्यनुद्घातिमानि तान्येवेति / तथा च _ 'एवं तावुग्घाए अणुघाए ताणि चेव कण्हमि / मासचउमासछम्मासिआणि छेअं अओ वुच्छं। तत्रोद्घातो-भागपातस्तेन निवृत्तान्युद्घातिमानि भावादिम' इतीमः-लघूनीत्यर्थः / तद्विपरीता न्यनुद्घातिमानि-गुरूणीत्यर्थः। उपलक्षणं चैतन्मासिक-चातुर्मासिक-षोण्मासिकानि / अन्यथा पञ्चकादीनि पाण्मासिकान्तानि प्रायश्चित्तानि भवन्ति / तानि च सर्वाण्यपि लघूनि गुरूणि च / तत्स्वरूपं चाग्रे वक्ष्यति -- अद्धेण छिण्णसेस 'मित्यादिना / इह तीर्थे उत्कृष्टतोऽपि षण्मासान्तमेवातिचारशुद्धयर्थ तपो भवति / अत एवोक्तं-'मासचउमासछम्मासिआणि छेअं अओ वुच्छं' यश्चैतावता तपसा न शुद्धचत्यतस्तच्छुद्धयर्थं छेदादीन् वक्ष्ये / अन्यत्राऽप्युक्तम् 'उस्सग्गेण उ सुज्झइ अइयारो कोइ कोइ उ तवेणं / तवसा असुज्झमाणे छेअविसेसावि सोहंति' / / छेदादयोऽप्याऽऽज्ञाव्यवहारत्वात् गूढपदैरेवोच्यन्ते / . 'छिदित्तु तयं भाणं गच्छंतु वयस्स साहूणो मूलं / अव्वावडा व गच्छे अब्बीआ वावि विहरंतु' / तद्भाजनं पूर्वव्रतपर्यायरूपं छिन्दन्तु-तन्मध्यात् कियन्तमपि पर्यायमपनयन्तु-उत्सारयन्त्वित्यर्थः / स च छेदस्तपोभूमिमतिक्रान्तस्य पञ्चदशकादिरूपतया तत्तदतिचाराऽपेक्षया यावत् पर्यायः प्राप्यते तावत् क्रियते / यदाह ____ 'उक्कोसं तवभूमि समईओ सावसेसचरणो अ / छेअं पणगाई पावइ जा धरइ परिआओ'। ते चैवं छेदविभागा: 'छन्भागंगुल पणगे दसराए तिभाग अद्ध पन्नरसे / वीसाइ तिभागूणं छब्भागूणं तु पणवीसा / / Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे मासचउमासछक्के अंगुलचउरो तहेव छक्कं तु / एए छेअविभागा नायव्वा अहक्कमेणं तु' // इहाङ्गलशब्देन माससङ्केतः। ततश्च पश्चके-दिनपञ्चके छेद्ये अङ्गलषड्भागच्छेद्य इति व्यपदिशन्ति / भवन्ति हि त्रिंशदिनमानस्य मासस्य षड्भागे छेो पञ्च, दशरात्रे छेद्ये त्रिभागः, पञ्चदशसु छेद्येष्वर्द्ध, विंशतौ छेद्यायां त्रिभागोनमङ्गलं, पञ्चविंशतौ छेद्यायां षड्भागोनमङ्गुलं छेद्यमिति / एकद्वित्रिचतुष्पश्चषडोदिमासेषु छेथेषु तत्सङ्ख्योन्यङ्गलानि छेद्यानीति निर्दिशन्ति / एते छेदविभागाः क्रमेण ज्ञातव्याः / सर्वपर्यायच्छेदेनाप्यशुद्धौ गच्छन्तु साधवो व्रतस्य मूलम्-अष्टमप्रायश्चित्तभाजो भवन्तु / तस्याऽप्ययोग्यतायां अव्यापृता वा गच्छेयुरव्योपाराः सन्तिष्ठन्तु-अनवस्थाप्यारे भवन्त्वित्यर्थः / तेनाऽप्यशुद्धौ अद्वितीया वा विहरन्तु-एकाकिनः सन्तो दशमप्रायश्चित्ताऽऽसेविनो भवन्तु इति / दर्पिकासेवनाप्रायश्चित्तान्युक्तानि / कल्पिकासेवनायोः प्राह __'बिइअस्स य कज्जस्सा तहि चउवीसयं निसामित्ता / आउत्तनमुक्कारा भवन्तु एवं भणिज्जाहि॥ द्वितीयस्य कार्यस्य कल्पिकासेवनाख्यस्य दर्शनादिपदगोचरामासेवनां शिष्येण कथितां श्रुत्वा गुरुराह-आयुक्ताः-संयमोद्यमविधायिनः पञ्चपरमेष्ठिस्मरणपरा भवन्तु सूरयोऽप्रायश्चित्तेन इति भावः। नवरं-'कारणपडिसेवावि हु सावज्जा निच्छए अकरणिज्जा' / किं सर्वथा ? नेत्याह-'बहुसो वि आरइत्ता' कर्तव्येतिशेषः / अधारणिज्नेसु अत्थेसु ' अत्यागाढकारणेष्वित्यर्थः / 'जइवि अ समणुण्णाया' प्रक्रमात् सावधप्रतिसेवा। तहवि अ दोसो न वज्जणे दिट्ठो 'दढधम्मया हु एवं नाभिक्खनिसेव निद्दयया'|| 'एअं नाऊण तहिं जहोवएसेण देइ पच्छित्तं / आणाइए स भणिओ ववहारो धीरपुरिसेहिं' एवं द्रव्यक्षेत्रकालभावसंहननधृतिबलादिकं तस्य प्रतिसेवकस्य ज्ञात्वा यथोपदेशेन, गूढपदैः प्रायश्चित्तं ददाति / कोऽर्थः ? तस्य शिष्यस्याऽग्रे कथयित्वो लिखित्वा वा समर्थ्य प्रेषयति / एष आज्ञाव्यवहारः / धारणाव्यवहारस्तु संविग्नेन गीतार्थेणाऽऽचार्येण द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिसेवना अवलोक्य यत्रापराधे यत् प्रायश्चित्तं दत्तं तद् दृष्ट्वाऽन्योऽपि तेष्वेव द्रव्यादिषु तादृश्येवाऽपराधे तदेव प्रायश्चित्तं ददाति / एष धारणाव्यवहारः। अथवा वैयावृत्त्यकरस्य गच्छोपग्रहकारिणः स्पर्द्धकपतेर्वा प्रवर्तकस्य संविनस्य देशदर्शनसहायस्य वाऽनेकशः कृतकार्यस्य समस्तछेदश्रुतदानाऽयोग्यस्य सानुग्रहो गुरुः कानिचिदुद्धतानि प्रायश्चित्तपदानि कथयति / स तान्यवधार्योद्धृतपदालोचनां ददाति स धारणाव्यवहारः। उक्तं च __ 'गोअत्थेणं दिन्नं सुद्धि अवधारिऊण तह चेव / दितस्स धारणा सा उद्धिअपयधरणरूवा वा।। एते चत्वारो व्यवहाराः / पञ्चमस्तु जीतव्यवहारः-येष्वपराधेषु पूर्वमहर्षयो बहुना तपःप्रकारेण शुद्धिं कृतवन्तस्तेष्वपराधेषु साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावान् विचिन्त्य संहननादीनां च हानिमासाद्य तदुचितेन केनचित्तपःप्रकारेण यां गीतार्थाः शुद्धिं निदि शन्ति तत् समयभाषया जीतमुच्यते / अथवा यद्यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तं कारणतः प्रायश्चित्तं प्रवर्तितम् , अन्यैश्च बहुभिरनुवर्तितं तज्जीतं, तस्य जीतस्य व्यवहारो जीतव्यवहारः / स चायम्fine 'वत्तणुवत्तपवत्तो बहुसो आसेविओ महाणेण / एसो हु जीअकप्पो पंचमओ होइ नायव्वो'। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवर-निर्जरानिरूपणम् वृत्तः-पात्रबन्धप्रन्थिदानादिक एकदा नवो जातः, ततोऽनुवृत्तः पुरुषान्तरं यावत् , ततः प्रवृत्तः-पुरुषप्रवाहेण / अत एव बहुश आसेवितो महाजनेन-बहुश्रुतनिवहेन / भाष्यकृताप्युक्तं-'वत्तो नामं एक्कसि, अणुवत्तो जो. पुणो बिइअवारे / तइअव्वारपवत्तो सुपरिग्गहिओ महाणेण' // 'बहुसो बहुस्सुएहिं जो वत्तो न य निवारिओ होइ / वत्तणुवत्तपमाणं जीएण कयं हवइ एयं' // एष जीतकल्पः पञ्चमो व्यवहारो भवति ज्ञातव्यः / इह पञ्चसु व्यवहारेषु सत्सु आगमव्यवहारिभ्य एव प्रायश्चित्तमादेयम् , आगमव्यवहारिणो यतिशयिनः सक्लिश्यमानं, विशुद्धथानम् अवस्थितपरिणामं वा ज्ञात्वा श्रुतादधिकं हीनं वा तन्मात्रं वा तावद्ददति यावता शुद्धयति / न श्रुतमनुरुद्धयन्ते / तदभावे श्रुतव्यवहारिभ्यो प्रोमं / ते हि श्रुतमनुवर्तमाना इङ्गिताकारनेत्रक्क्त्रवचनविकारैः भावं-संवेगाद्युपलक्ष्य त्रीन् वारानतीचारालोचनां कारयित्वा परिकुश्चितमपरिकुञ्चितं वा ज्ञात्वा श्रुतोक्तं प्रायश्चित्तं ददति / तथाविधाऽऽसन्नश्रुतधराभावे आज्ञाव्यवहारेण दूरस्थानामपि गीतार्थाऽऽचार्याणां पार्थात् प्रायश्चित्तमानाययितव्यम् / तेषामप्यभावे श्रुतधरपाविधारितप्रायश्चित्तपदेभ्यो धारणाव्यवहारिभ्यो ग्राह्यम् / ते च द्वयेऽपि श्रुतोक्तप्रदत्वात् श्रुतव्यवहारकल्पा एव / सर्वेषां चैषामप्राप्तौ जीतेन व्यवहारः / जीतं-श्रुतोक्तापत्तितो हीनमधिकं वो परम्परयाऽऽचीर्णं तेन व्यवहारः / अयं सर्वत्र यावत्तीथं भवति / एष च ग्रन्थः प्रायश्चित्तप्ररूपणार्थमेवोपक्रान्तस्ततः प्रायश्चिन्तप्राधान्यख्योपनार्थ गाथाद्वयमाहसंवरविणिज्जराओ मुक्खस्स पहो तवो य हो तासि / तवसो अपहाणंगं पच्छित्तं जं च नाणस्स // 2 // सारो चरणं तस्स वि निव्वाणं चरणसोहणत्थं च / पच्छित्तं तेण तयं नेयं मुक्खत्थिणाऽवस्सं // 3 // व्याख्या-संवरणं संवर-आश्रवद्वारप्रविशत्कर्मनिरोधः / आश्रवश्च मिथ्यादर्शनाऽविरतिकषाय-प्रमाद-कायवाङ्मनोयोगाः। तत्र मिथ्यादर्शनं प्रतीतम् / अविरतिः-प्राणातिपातादीनामनिषेधः / कषायाः-क्रोधादयः। प्रमादो-निद्राविकथामधेन्द्रियस्वेच्छाप्रवृत्त्यात्मकः / काययोगों-धावनवल्गनवरण्डाघुल्लङ्घनबाह्वाऽऽस्फालनाद्या अशुभचेष्टाः / वाग्योगोऽङ्गुष्ठपर्वादौ जीव इत्याद्यसद्भूतोद्भावनं 'नवकम्बलो देवदत्त' इत्यादि छलहिंस्रपरुषालीकपैशुन्यवचनादिः / मनोयोगः-परसम्पत्त्यसहनत्वाऽमर्षभयशोकमिथ्याभिसन्धारणरागद्वेषाऽकुशलसङ्कल्पादिः / एतैरैस्तस्य तस्य कर्मणः प्रविशतः सम्यक्त्व-विरतिनिष्कषायत्वा-ऽप्रमत्तत्वशुभयोगत्वाऽङ्गीकरणकपाटदानेन निवारणमित्यर्थः। विशेषेण निर्जरणं विनिर्जरापूर्वोपचितशुभाऽशुभकर्मपरिशाटरूपा / सा पुनः समिति-गुप्ति-श्रमणधर्म-भावना-मूलगुणोत्तरगुणपरीषहो-पसर्गाधिसहनरतस्य भवति / तत्र समितिगुप्तयः प्रतीताः / श्रमणधर्मो दशधा क्षान्त्यादिः / भावना द्वादशधा अनित्यताद्याः। मूलगुणाः पञ्च प्राणातिपातविरत्याद्याः / उत्तरगुणाः ‘पिंडस्स जा विसोही समिइओ भावणा तवो दुविहो / पडिमा अभिग्गहावि अउत्तरगुणमो विआणाहि'।। परीषहाः क्षुदाद्याः-'खुहा पिवासा सीउण्हं दंसाचेलारइथिओ / चरिआ मिसीहिआ सिज्जा अकोसवहजायणा // अलाभरोगतणफासा मलसक्कारपरीसहा / पण्णा अण्णाण सम्मत्तं इस बावीस परीसहा // 2 // उपसर्गाः दिव्याद्याः-'दिव्या माणुस्सया चेव तेरिच्छा य विआहिआ / Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 यति-जीतकल्पे आयसंवेअणीआ य उवस्सग्गा चउव्विहा' // तत्र दिव्या हास्यात् 1 प्रद्वेषात् 2 विमर्शात्- मयाऽपि प्रारब्धो ध्यानादेष न चलिष्यती'यादिकात् 3 पृथग्विमात्राः-हास्येन प्रारब्धाः प्रद्वेषण निष्ठां यान्तीत्यादि संयोगजाः 4 / मानुष्या-हास्यात् 1 प्रद्वेषात् 2 विमर्शाद्-' एष शत्रुपुत्रादिवय॑न् ममानर्थाय तदेनमुच्चाटयामी 'त्यादिकात् 3 कुशीलप्रतिसेवनार्थाश्चतुर्थव्रतलोपनार्थं स्वैरियादिकृताः 4 / तैरश्चा-भयात् 1 प्रद्वेषोत् 2 ओहारहेतोः 3 अपत्यलयनसंरक्षार्थाः 4 / आत्मसंवेदनीया-घट्टनात्-चक्षुःप्रविष्टरेण्वादिमदनात 1 स्तम्भनात-पादाद्यङ्गानां चिरं स्तब्धत्वेन धरणात 2 श्लेषणात-तेषामेव वातादिना चिरं सङ्कोच्य धरणात् 3 पतनात्-स्थाण्वाद्यास्फोलनेन भूमौ निपतनात् 4 / एते प्रत्येकं चातुर्विध्यात् षोडशेति / ते च संवरनिर्जरे द्विविधे-सर्वतो देशतश्च / तत्रान्त्यगुणस्थानके शैलेशीप्रतिपन्नस्य व्युच्छिन्नक्रियत्वादाद्यसमये एव सर्वसंवरः / द्विचरमसमये तु द्विसप्ततेः चरमसमये वाऽऽयुषा सह त्रयोदशानामुत्तरप्रकृतीनां निर्जरणात सर्वनिर्जरा / शेषकाले देशसंवरो देशनिर्जरा च / ते संवरनिर्जरे मोक्षस्य पथः / कोऽर्थः ? संवरनिर्जराभ्यां नवकर्माऽनादानेन पुरातनकर्मक्षपणेन च मोक्षे गम्यते / तयोश्च संवरनिर्जरयोस्तपः पथः। कोऽर्थः ? तपः कुर्वतां संवरविनिर्जरे भवतः। तपसश्च ।चशब्दोऽप्यर्थे / तपसोऽपि प्रधानमङ्गं प्रायश्चित्तम् आभ्यन्तरतपोभेदत्वात् तेन तज्ज्ञेयमेवेति द्वितीयगाथान्तेन योगः। तथा यच्च सामायिकादिबिन्दुसारान्तस्य ज्ञानस्य सारः-सारभूतं चरणम् , तस्याऽपि सारो निर्वाणं, परं च तच्चरणं ज्ञानदर्शनान्वितं प्रायश्चित्तेन शोधितं सत् निर्वाणसाधकं भवति, तेन कारणेन निर्वाणसाधकस्य चरणस्य शोधनार्थं चकाराज्ज्ञानदर्शनातिचारशुद्धयर्थं च तत् प्रायश्चित्तं मोक्षार्थि नाऽवश्यं ज्ञेयम् / तद्भेदानाहतं दसविहमालोअणपडिकमणोमयविवेगवुस्सग्गे / तवछेयमूलअणवठ्ठया य पारंचियं चेव // 4 // व्याख्या-अन्वयः सुगमः। भावार्थ ब्रमः-तत् प्रायश्चित्तं दशविधम्-आलोचनार्दादि / तत्राऽऽलोचनाहम्-आ-मर्यादया-'जह बालो जंपंतो कज्जमकजं च उज्जु भणइ / तं तह आलोइज्जा मायामयविप्पमुक्को अ' // इत्येवंरूपयाऽऽलोचनं-गुरोः पुरतः प्रकाशनं तावन्मात्रेणैव यस्य पापस्य शुद्धिस्तदाऽऽलोचनाई, तद्विशोधकं प्रायश्चित्तमप्युपचाराद् आलाचनाहम् / एवं सवष्वप्युपचारा दृष्टव्यः / 1 / यन् मिथ्यादुष्कृतमात्रेणैव शुद्धयति, न गुरोरालोच्यते तत् प्रतिक्रमणाहम् / 2 / यच्च प्रतिसेव्य गुरोरालोच्यते, गुरूपदेशेन च विशुद्धयर्थं मिथ्यादुष्कृतं दीयते तत्तदुभयाहम् / 3 / यस्य चानेषणीयग्रहणादेवि धिना परित्यागेनैव शुद्धिस्तद् विवेकाहम् / 4 / कायचेष्टानिरोधोपयोगमात्रेणैव यहःस्वप्नादिकमिव शुद्धथति, तव्युत्सर्गार्हम् / 5 / यत्र प्रतिसेविते निर्वि कृत्यादि पाण्मासिकान्तं तपो दीयते, तत्तपोऽहम् / 6 / यथा शेषाङ्गरक्षार्थ व्याधिदूषितमङ्गं छिद्यते, एवं व्रतशेषपर्यायरक्षार्थमतीचारानुमानेन दूषितः पर्यायो यत्र छिद्यते, तत् छेदाहम् / 7 / यस्यां चाऽऽसेवनायां सर्वपर्यायमपनीय पुनर्महाव्रतारोपणं क्रियते तन् मूलाहम् / 8 / यत्र प्रतिसेविते उपस्थापनाया अप्ययोग्यत्वेन यावदनाचीर्णविशिष्टतपास्तावदनुप (नव) स्थाण्यः क्रियते पश्चाचीर्णतपाः पुनर्महाव्रतेषु स्थाप्यते, तदनवस्थाप्याहम् / 9 / लिङ्गक्षेत्र-- कालतपोभिर्बहिष्कृतः तपसा अपराधस्य पारं-तीरमश्चतीत्येवं साधुकारी ततो दीक्ष्यते यः स पाराश्चो, पाराच्येव पाराश्चिकः, येन कर्मणा पाराश्चिकः क्रियते तत् पाराञ्चिकाहम् / 10 / एष सझेपतो भावार्थः / विस्तरस्तु दशानामपि प्रायश्चित्तानां स्वस्वविषयनिरूपणायां ज्ञेयः / इह प्रायश्चित्तानि दश, Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचनाप्रायश्चित्तनिरूपणम् साधवश्च पुलाक -बकुश-कुशील-निर्ग्रन्थ-स्नातकभेदात् पश्च / तत् कस्य तानि कियन्ति भवन्ति ? इत्युच्यते-' आलोअणा पडिकमणे मीसविवेगे तह विउस्सग्गे / तत्तो तवे अ छठे पच्छित्त पुलाकि छप्पेए / / बउसपडिसेवगाणं पायच्छित्ता भवंति सव्वेवि / थेराण भवे कप्पे जिणकप्पे अट्ठहा होइ / / आलोअणा विवेगो वा निअंठस्स दुवे भवे / विवेगो उ सिणायस्स एमआ पडिवत्तिओ' // एतासां व्याख्या-पुलाकादीनां स्वरूपं च व्याख्याप्रज्ञप्तेरवसेयम् / आलोचना 1 प्रतिक्रमणं 2 मिश्रं 3 विवेकः 4 तपः 5 व्युत्सर्गः 6 एतानि षट् प्रायश्चित्तानि पुलाके / तथा बकुश-प्रतिसेवकयोः-बकुशस्य प्रतिसेवनाकुशीलस्य च सर्वाण्यपि दशापि प्रायश्चित्तानि भवन्ति / तौ च बकुश-प्रतिसेवनाकुशीलौ स्थविराणां कल्पे भवतः / जिनकल्पे, उपलक्षणमेतत् यथालन्दकल्पे च / नवरं जिनकल्पे यथालन्दकल्पे च तयोः प्रायश्चित्तमष्टधा भवति, अनवस्थाप्य-पाराश्चिकयोरभावात् / आलोचनाप्रायश्चित्तं विवेकप्रायश्चित्तमित्येते द्वे प्रायश्चित्ते निर्ग्रन्थस्य भवतः / स्नातकस्य केवल एको विवेकः / एवमेताः पुलाकादिषु प्रतिपत्तयः / सामायिकसाध्वादीनां पञ्चानां यानि यस्य भवन्ति, तान्यप्युच्यन्ते 'सामाइअसंजयाणं पच्छित्ता छेअमूलरहिअट्ठ। थेराण जिणाणं पुण तवमंत छव्विहं होइ'। सामायिकसंयतानां स्थविराणां-स्थविरकल्पिकानां छेदमूलरहितानि शेषाण्यष्टौ प्रायश्चित्तानि भवन्ति / जिनानां जिनकल्पिकानां पुनः सोमायिकसंयतानां तपःपर्यन्तं षड्विधं प्रायश्चित्तं भवति / 'छेओक्टावणिए पायच्छित्ता हवंति सव्वेवि / थेराण जिणाणं पुण मूलंतं अट्टहा होइ' // छेदोपस्थापनीये संयमे वर्तमानानां स्थविराणां सर्वाण्यपि प्रायश्चित्तानि / जिनकल्पिकानां पुनर्मूलपर्यन्तमष्टधा भवति / 'परिहारविसुद्धीए मूलंता अट्ट हुँति पच्छित्ता / थेराण जिणाणं पुण छव्विह छेदाइवज्जं च ' // परिहारविशुद्धिके संयमे वर्तमानां स्थविराणां मूलान्तानि अष्टौ प्रायश्चित्तानि भवन्ति / जिनानां पुन छेदादिवर्ज षडविधं / ' आलोअणा विवेगो अ तइअं तु न विज्जई / सुहुमे अ संपराये अहक्खाए तहेव य'॥ सूक्ष्मसम्पराये यथाख्याते च संयमे वर्तमानानां आलोचना विवेक इत्येवं रूपे द्वे प्रायश्चित्ते भवतः / तृतीयं तु न विद्यते / -- यथोद्देशं निर्देश' इति सविषयप्रथमप्रायश्चित्तनिरूपणायाहकरणिज्जा जे जोगा तेसुवउत्तस्स निरइआरस्स / छउमत्थस्स विसोही जइणो आलोअणा मणिआ॥ व्याख्या-करणीया-अवश्यकर्त्तव्या ये योगाः-प्रत्युपेक्षणादिक्रियारूपाः श्रुतोपदिष्टा अहोरात्रानुष्ठेयाः, संयमहेतवो यदि वा योमाः कायवाङ्मनोरूपाः / तथाहि-' नित्यालीनालीनाङ्गः कूर्मवन्मुनिपुङ्गवः / तिष्ठेत् , प्रयोजनाभावे काययोगोऽयमीरितः // तत्र आ-ईषल्लीन आलीनः / बहुतरं लीनः प्रलीनः / भाष्ये तु 'अल्लीणा नाणाइसु पइ पइलीणाओ हुंति पल्लीणा / कोहाई वा पलयं जेसि गया ते पलीणाउ' // तथा-'भूमावघर्षयन् पादं यद्वा रीयेत कार्यतः / अग्रपादादिना देशे कीटिकाद्याकुळे पुनः' / / हितं मितं प्रियं सत्य-मनवद्यं विमृश्य च / यन्मुनिर्वक्ति वाग्योमः सैष तद्वामवर्जनात् / / / मनोयोगः पुनरयं मनसः कुशलस्य यत् / उदीरणं निरोधश्चा- कुशलस्य पुनः सदा // Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति जीतकल्पे तेषूपयुक्तस्य निरतिचारस्याऽदुष्टभावस्य छद्मस्थस्य-परोक्षज्ञानिनः श्रुतज्ञानानुसारेणैवाऽशेषक्रियाकलापानुष्ठानपरायणस्य यतेर्वि शुद्धिरालोचना भणिता तीर्थकर-गणधरैः / अत्राह शिष्यः-निरतिचारो यतिः करणीयान् योगान् करोति / ततः किमालोचनया विशोध्यम् ? / गुरुराह-सूक्ष्मा आश्रवक्रियोः सूक्ष्मप्रमादनिमित्ता अविज्ञातास्तासामालोचनामात्रेण शुद्धिः / स पुनर्गुरुसन्दिष्टोऽसन्दिष्टो वो कार्यस्याऽऽदौ समाप्तौ वा आलोचयति / करणीययोगान्नामग्राहमाहआहाराइग्गहणे तह बहिआ निग्गमेसु णेगेसु / उच्चारविहारावणि-चेइअजइवंदणाईसु // 6 // व्याख्या-आहारः-अशनपानखाद्यस्वाद्यरूपः , स आदिर्येषां ते आहारादय, आदिशब्दात् शय्यासंस्तारकपादप्रोञ्छनवस्त्रपात्राद्या औधिकौपग्रहिकोपधयः। तथा च-'ओहेण जस्स गहणं भोगो पुण कारणे स ओहोही / जस्स य दुगंपि निअमा कारण सो उवग्गहिओ' // आचार्यग्लानबालदुबलशेक्षक्षपकाऽसहिष्णु-प्रायोग्यौषधादयश्च गृह्यन्ते / तेषां ग्रहणमाहारादिग्रहणं तस्मिन् / तथा बहिर्निंगमेषु अनेकेषु उच्चारविहारोवनिचैत्ययतिवन्दनादिषु / बहिः-वहिस्तात् शय्याया गुरुपार्शद्वा उच्चारा- . . वनौ-सञ्ज्ञाभूमौ विहारावनौ-स्वाध्यायभूमौ चैत्यवन्दनार्थं दूरमासन्नं वा यतीनामपूर्वबहुश्रुत्तसंविग्नानां वन्दनाथं तत्पार्श्व संशयोच्छेदनार्थं वा, आदिशब्दात् श्रावकसन्तानिकाऽवसन्नविहारिश्रद्धासंवर्द्धनार्थम् साधर्मि काणां वा संयमोत्साहनार्थम् / अथवा पीठफलकादिप्रत्यर्पणार्थम् / यद्वा-कुलगणसङ्घानां चैत्यद्रव्यस्य चोपद्रवनिवारणार्थं निर्गमाः स्युस्तेषु / 'तत्थ कुलं विष्णेअं एगायरिअस्स संतई जाओ। तिण्ह कुलाणमिहो पुण साविक्खाणं गणो होइ॥ सङ्घः प्रतीतः, चैत्यं पञ्चचा-यथो वारत्तकमहर्षेः पुत्रः स्वपितरि भक्तिभरोपूरिततया चैत्यगृहं कारयित्वा तत्र रजोहरणमुखवत्रिकाप्रतिग्रहधारिणी पितुः प्रतिमामचीकरत् तदेव तत्साधर्मिकचैत्यं / 1 / मथुरादिस्थानेषु गृहे कृते मङ्गलनिमित्तमुत्तरङ्गेषु प्रथममहत्प्रतिमा प्रतिष्ठाप्यते अन्यथा तद्गृहं पतति तन्मङ्गलचैत्यम् / 2 / शाश्वतचैत्यं नन्दीश्वरादिव्यवस्थितम् / 3 / भक्तिचैत्यं भक्त्या क्रियमाणं जिनायतनं, तद्विधा-साधूनां निश्रया क्रियमाणं निश्राकृतम् / 4 / तदनिश्रया विधीयमानमनिश्राकृतम् / 5 / तस्य द्रव्यं-हिरण्यस्वर्णादिकं काष्ठोपलेष्टकादिकं वा तस्योपद्रवस्तनिवारणार्थम् / अयमभिप्रायःसति सामर्थ्य चैत्यद्रव्योपद्रवमुपेक्षमाणः साधुरपि अनन्तसंसोरितादण्डभाजनं भवति / अतस्तदर्थमपि बहिनिर्गमः करणीययोग एव / किमेतावन्त एव करणीययोगा आहोश्विदन्येऽपि सन्ति ? इत्योहजं चनं करणिज्ज जइणो हत्थसय बाहिरायरि / अविगडिअंमि असुद्धो आलोअंतो तयं सुद्धो / ___ व्याख्या-यच्च पूर्वगाथोक्तकरणीयव्यापारेभ्योऽन्यद् यतेः करणीयं क्षेत्रप्रतिलेखनस्थण्डिलान्वेषणशैक्षनिष्क्रमणाऽऽचार्यसंलेखनादि हस्तशताद् बहिराचरितं, तस्मिन् पूर्वोक्ते च करणीययोगनिवहे अविकटिते-गुरोरप्रकाशितेऽनालोचिते अशुद्धः / समित्याद्यतिचारलेशवान् आलोचयँस्तं करणीययोगनिवहं शुद्धः / आलोचनाख्यप्रायश्चित्तेन समित्याद्यतिचारलेशनिवर्त्तनात् / हस्तशताऽभ्यन्तराचरितं तु किश्चित् प्रश्रवणादिकमालोच्यते किश्चिच्च खेलसिङ्घानजल्लनिवेशनोत्थानविजृम्भणाऽऽकुञ्चनप्रसारणोच्छ्वासनिःश्वासचेष्टादिकं नालोच्यते / अत्राह शिष्यः-करणीययोगेष्वाहोरादिग्रहणार्थेषु यथोक्तविधिना Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चधा उपसम्पद् 13 कृतेष्वपि यद्यालोचनाप्रायश्चित्तयोग्यता भवति तर्हि किमपि न कर्त्तव्यं, व्रतमादाय प्रथममेव सर्वैरपि अनशनं कोर्यम् / गुरुराह-तन्न, एवं सति तीर्थोच्छेदः स्यात् कः केन प्रतिबोधयिष्यते ? किञ्च न खलु मालिन्याशङ्कया वस्त्राणि न परिधीयन्ते / अपरिधाने हि विवस्त्रतया सर्वेषां पशुरूपतापत्तिः ततः परिधीयन्त एन / जातमालिन्यानि च जलेन प्रक्षाल्य निर्मली क्रियन्ते / एवं चारित्रमपि करणीययोगकरणे सञ्जातातिचारलेशमलमालोचनाप्रायश्चित्तजलेन विशोध्य निर्मलीकार्यम् / अतिचारलेशवतोऽपि तच्छुद्धये भवत्वालोचना, परं निरतिचारस्य किम् ? इत्याहकारणविणिग्गयस्स य सगणाओ परगणागयस्स वि अ। उवसंपया विहारे आलोअण निरइआरस्स // व्याख्या-कोरणेन-अशिवदुर्भिक्षराजादिप्रत्यनीकत्वग्लानोत्तमार्थिकाऽऽराधनादिना गुर्वादेशाद् विनिर्गतः कारणविनिर्गतस्तस्य निरतिचारस्याऽप्यविराधितसमितिगुप्तिकस्याऽप्यालोचना भवति / सा च द्विधा-ओघतो विभागतश्च / तत्र यः कारणविनिर्गतः पक्षाऽभ्यन्तरे समागच्छति / आगतमात्रश्चेर्यापथिकी प्रतिक्रम्य समुद्देशवेलाया अर्वागेवाऽऽलोचयति तस्याऽप्योघालोचनामात्रं भवति / यथा 'अप्पा मूलगुणेसुं विराहणा अप्प उत्तरगुणेसुं / अप्पो पासत्थाइसु दाणग्गहसंपओगोहा' / अल्पशब्दोऽभाववाची, तेन मूलगुणेषु विराधना अल्पा-न काचित् , उत्तरगुणेष्वप्यल्पा-न काचित् / पावस्थाऽवसन्नादिषु दानग्रहाभ्यां सम्प्रयोगः-सम्पर्कः सोऽप्यल्पः-सोऽपि नासीदित्यर्थः / इयमोघालोचना / यस्तु पक्षाभ्यन्तरागतोऽपि समुद्देशानन्तरमालोचयति यो वा पक्षात् परतः समागतः समुद्देशाद गप्याऽऽलोचयति, तयोनिरतिचारयोरपि विभागालोचना-विशेषालोचना सुव्यक्तनिश्शेषनिजानुष्ठितनिवेदनरूपा / यस्तु तक्षशिलायां धर्मचक्रस्य, मथुरायां स्तूपस्य, पुरिकायां जीवत्स्वामिप्रतिमायास्तीर्थकृज्जन्मनिष्क्रमणज्ञाननिर्वाणभूमीनामयोध्यादीनां दर्शनार्थं स्वजनगोकुलविवाहादि सङ्खडकाप्रेक्षार्थं यत्र विशिष्टाहारोपधी लभ्येते तत्र तल्लिप्सया रम्यदेशदिदृक्षादिना वा गुर्वनादेशाद् विनिर्गतोऽकारणविनिर्गतस्तस्य सातिचारत्वेन बृहत्तरप्रायश्चित्तशोध्यत्वान्नोलोचनामात्रेण शुद्धिः / तथा स्वगणात-साम्भोगिकरूपादेकमण्डलीभोजिनः परगणाद् विसंभोगिकाद् अमण्डलीभोजिनः उभयतोऽपि संविग्नाऽसंविग्नरूपादागतस्यापि च निरतिचौरस्य -- उवसंपय 'त्ति / उपसम्पद्यमानस्य, सा चोपसम्पत् पञ्चधा-श्रुतग्रहणायाऽन्यमाचार्यमुपसम्पद्यमानस्य श्रुतोपसम्पत् / 1 / सुखं दुःखं वा मया भवद्भिः सह सोढव्यमिति सुखदुःखोपसम्पत / 2 / अत्र क्षेत्रे तिष्ठतो मम युष्मदीया निश्रेति क्षेत्रोपसम्पत् / 3 / मार्गे व्रजतो मम यौष्माकी निश्रेति मार्गोपसम्पत् / 4 / विनयं कर्तुं गच्छान्तरमुपसम्पद्यमानस्य विनयोपसम्पत् / 5 / भाष्यकृताऽप्युक्तम् - 'उवसंपय पंचविहा सुअ सुहदुक्खे अ खित्तमग्गे अ / विणओवसंपयावि अ पंचविहा होइ नायव्वा' / / एतासामन्यतरामुपसम्पदं प्रथममाददानस्य विभागालोचना भवति / 'विहार 'त्ति / विहारे कृते निरतिचारस्याऽप्यालोचना भवति / अयं भावः-एकाहात् पक्षाद् वर्षाद् वो यदा साम्भोगिकाः स्पद्धंकपतयो गीतार्थाऽऽचार्या मिलन्ति, तदा निरतिचारा अप्यन्योऽन्यस्य विहारालोचनां स्वस्वविहारक्रमानुष्ठितप्रकाशरूपां ददतीति / व्याख्यातं प्रथममालोचनाएं प्रायश्चित्तं / सम्प्रति प्रतिक्रमणाईमुच्यते-येषु स्थानेषु स्खलितस्य मिथ्यादुष्कृतयोग्यता भवति तान्याह Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे गुत्तीसमिइपमाए गुरुगो आसायणा विणयभंगे / इच्छाईणमकरणे लहुसमुसादिन्नमुच्छासु // 9 // . व्याख्या-गुप्तिसमितिप्रमादादिस्थानेषु मिथ्याकारः प्रतिक्रमणमिति तृतीयगाथान्ते. सम्बन्धः / गुप्तिसमितीनां प्रमादो-मनसा दुश्चिन्तितादिः, वचसो दुर्भाषितादिः, कायेन दुश्चष्टितादिः / ईर्यायां कां कथयन् गच्छेत् , भाषायां ढड्ढरगिरा गृहस्थभाषया भाषेत , एषणायामनुपयुक्तो 'भिभामाददीत, आदाननिक्षेपे प्रमार्जितादि विस्मार्य आदानं निक्षेपं वा कुर्यात, उत्सर्गसमिती स्थण्डिलमप्रमृज्य प्रश्रवणादि त्यजेत् / एवंविधगुप्तिसमितिप्रमादे / तथा गुरोराशातना-आयो-ज्ञानादिलाभस्तस्य शातनाखण्डना आशातना / यथा 'डहरो अकुलीणुत्ति अ दुम्मेहो दमगमंदबुद्धित्ति / अवि अप्पलाभलद्धो सीसो परिभवइ आयरिअं'। यद्वा-त्रिधाऽऽशातना-मनसा प्रद्वेषादि, वाचा अन्तरभाषादि, कायेन गुरोः समश्रेण्या गच्छति पुरःस्थितो वा गच्छतीत्यादिका, तस्यां गुर्वाशातनायां। विनयो-गुरोरभ्युत्थानासनदानाञ्जलिप्रग्रहवन्दनादिस्तस्य भङ्गे / इच्छादीनामकरणे। इच्छाद्याश्चामी 'इच्छा मिच्छा तहक्कारो आवस्सिआ य निसीहिओ। आपुच्छणा य पडिपुच्छा छंदणा य निमंतणा।। उवसंपया य काले सामायारी भवे दसहा' // इच्छया-बलाभियोगमन्तरेण करणं इच्छाकारः / यथा-इच्छाकारेण स्वेच्छया धर्मार्थितया मुने ! ममेदं पात्रलेपादि कुरु न बलादिति / 1 / मिथ्याकरणं मिथ्याकारः / संयमयोगवितथाचरणे वदन्ति जिनवचनतत्त्ववेदिनो मुनयो यथा-मिथ्यादुष्कृतमिति / इदं दुष्कृतं मिथ्या-वितथमनृतमित्यर्थः / 2 / तथाकरणं तथाकार:-गुरोः किमपि कथयतो यथापज्यरुक्तं तथैवेदमित्येवंरूपः / 3 / अवश्यकार्यैः योगैर्निष्पन्ना आवश्यकी वसतेर्निर्गच्छद्भिर्या विधीयते / 4 / निषेधेन निवृत्ता नेषेधिकी वसतौ प्रविशद्भिर्या क्रियते / 5 / आपृच्छनमापृच्छा सा विहारादिकार्येषु गुरोविधेया / 6 / प्रतिपृच्छा प्राग नियुक्तेनापि कार्यकरणकाले कार्या निषिद्धेन वा पुनः कार्य कर्तुकामेन / 7 / छन्दना प्राग् गृहीतेनाऽशनादिना कार्या, यथा-इदं पूज्या गृह्णन्तु / 8 / निमन्त्रणा अगृहीतेनाऽशनादिना, यथा-इदमद्य पूज्यानां योग्यमशनाद्यानयामीत्येवंरूपा / 9 / तथा चोक्तम् 'आपुच्छणा उ कज्जे पुव्वनिसिद्धण होइ पडिपुच्छा / पुव्वगहिएण छंदणं निमंतणा अगहिएणं' / उवसंपच्च ज्ञानदर्शनचारित्रार्थं विधेया / 10 / एतासामकरणे / तथा लहुसत्ति / सकार आर्षत्वादल्पवाचककप्रत्ययार्थः / ततो लघुकमृषाऽदत्तमूर्छासु / तत्र लघुकमृषास्वरूपसूचकदृष्टान्तगाथे इमे 'पयला 1 उल्ले 2 मरुए 3 पच्चक्खाणे अ 4 गमण 5 परिआए 6 / समुद्देस 7 संखडीओ 8 खुड्ग 9 परिहारिअ 10 मुहीओ 11 // 'अवसगमणे 12 दिसासु 13 एगकुले चेव 14 एगदव्वे अ 15 / एए सव्वेवि पया लहुसमुसाभासणे हुंति ' / पयला-निद्राविशेषः , उल्लं-वर्षणं, मरुया-विप्राः, शेषं स्पष्टम् / एतद्गाथाद्वयोक्तदृष्टान्ताश्च श्लोकैरुच्यन्ते / तथाहि Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुमृषासूचकदृष्टान्ताः कोऽपि साधुर्दिवा घूर्णन्निद्रयाऽन्येन साधुना / उक्तो निद्रासि किं भद्र ! न निद्रामीति सोऽवदत् / / 1 / / प्रापैवं निह्नवात् शुक्लमासार्ह स लघु मृषाम् / यत्र यत्रेहगापत्तिस्तत्र तत्र लघुर्मषा / / 2 // 1, साधुः कार्येण केनापि प्रस्थितः कोऽपि वर्षति / भणितः साधुनान्येन किं व्रजस्यार्य ! वर्षति / / 3 / / बभाषे प्रस्थितः साधुर्नाऽहं गच्छामि वर्षति / इत्युक्त्वाऽपि परं वर्षत्येव प्रस्थितवाँस्ततः // 4 // साधुनोचे मृषा वक्षि सोऽवोचद् वच्मि नाऽनृतम् / वृष्टिरााय सा नेयं नन्वेते वर्षविग्रुषः / / 2 / / 2, साधुः कार्याद्गतः कोऽप्याऽऽश्रयमागत्य जल्पति / निर्यात भुञ्जते विप्रास्तत्राऽस्माभिरपीयते / / 6 / / प्रस्थिताः साधवोऽदित्वाऽऽयाताः प्रच्छन्ति तं क ते ? / भिक्षाटनेऽपि नो दृष्टाः स ऊचे स्वस्ववेश्मसु // 7 // 3, कोऽप्यूचे मण्डलीकाले एहि भुङ्क्वेति केनचित् / सोऽब्रवीद् यूयमनीत प्रत्याख्यातमहो ! मया // 8 // इत्युदीर्याऽपि मण्डल्यामश्नाति स्म तदैव सः / किमेतदिति पृष्ठोऽथ व्याचक्रे वक्रगीरिदम् // 9 // ननु प्राणातिपाताद्या सर्वाप्यविरतिर्मया / प्रत्याख्यातैव सावद्या वितथं किमिहास्ति तत् ? // 10 // 4, याता चैत्यादिकार्येण त्वं न यासीति केनचित् / कोऽप्युक्तो मुनिरूचे तं व्रज त्वं न बजाम्यहम् / / 11 / / ततस्तस्मिन् गते सोऽपि सद्य एव तमन्वगात् / पृष्टस्तेनाथ नेत्युक्त्वा किं गच्छस्यथ सोऽभणत् / / 12 / / न त्वं जानासि सिद्धान्तं गम्यमानं गतं खलु / प्रश्नकाले स्थितोऽभूवमधुनाऽहं गतिक्रियः / / 13 / / 5, पृष्टो निनसुना कोऽपि पर्यायं यतिरूचिवान् / ममाऽस्य च दशाब्दानि निनंसुस्तं ततोऽगदत् / / 14 / / अहं नवाऽब्दपर्यायस्तत् त्वां वन्दे निषीद भोः!। अथाऽऽचख्यौ स वन्यस्त्वं नाहं वन्द्योऽस्मि ते मुने! // 15 // तेनोक्तं हेतुना केन सोऽभाणीद् भद्र ! शाठ्यतः / पञ्चाऽस्य पञ्च मेऽब्दानि मेलयित्वा दशाऽवदम् // 16 // 6, कार्याद् बहिर्गतः कोऽपि विलोक्य ग्रहणं रवेः। अधीयतो यतीनूचेऽद्भुतं भो ! भोजनक्षणः / / 17 / / उत्थिताः साधवः प्रात्त-पात्राः पृच्छन्ति कुत्र सः / गगनेऽदर्शयत्तेषां राहुणा प्रसनं रवेः // 18 // 7, भणति स्माऽऽगतः कोऽपि विधाय प्रथमालिकाम् / अद्य सङ्घडिका बहव्यो मिक्षाकालेऽथ साधवः / / 19 / / पप्रच्छुः क क गेहे ता? बभाषे च च्छलेन सः / एकेन्द्रियादयो जीवाः सङ्खण्ड्यन्ते गृहे गृहे / / 20 / / 8, कोऽप्यूचे क्षुळकं दृष्ट्वाऽऽश्रयासन्ना मृतां शुनीम् / यथा क्षुल्लक ! माता ते मृताऽतो रोदिति म्म सः / / मा रोदीरस्ति जीवन्ती रुदन्तं च तमाह सः। अथ तं क्षुल्लकोऽन्ये च स्माहुबॅषे कथं द्विधा ? // 22 / / स उवाचाऽस्य शुन्येषा कदाऽप्यम्बाऽभवद् यतः। जीवाः सर्वे भवेऽनादौ बभूवुः सर्वनात्रकैः / / 23 / / 9, उद्याने कोऽपि पार्श्वस्थान् दृष्ट्वाऽऽगत्याऽवदन् मया / भोः ! पारिहारिका दृष्टा-स्तच्छ्रत्वाऽमोदि साधुभिः कीदृशास्ते महात्मानः परिहारतपस्विनः / गतास्तत्राथ तान् द्रष्टुं तोवत् पश्यन्ति लैङ्गिकान् / / 25 / / पृच्छन्ति स्म ततस्तं ते स ददात्युत्तरं शठः / अभक्ष्यादिपरीहाराः किं नैते पारिहारिकाः? // 26 // 10, कोऽप्याख्यच्चित्रमत्र स्त्री तुरङ्गममुखोक्ष्यते / साधुभिर्दर्शयेत्युक्तः शठो दर्शयतेऽर्वतीम् // 27 // पृष्टः केनापि कोऽप्याऽऽय! मिक्षाचर्यां गमिष्यसि ? / यास्याम्यवश्यं तेनोक्ते स तं यानादेहि भोः ! / / स प्रत्यूचे न गच्छामि यावद्वेला न जायते / वेलायां तु गमिष्याम्यवश्यं दिवि शिवेऽथवा / / 29 / / 12, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे साधुरेकः परेणोक्तः क ? त्वं मिक्षामटिष्यसि / पूर्वस्यामिति तेनोक्तः पृच्छकः पश्चिमां गतः // 30 // सोऽपि तत्राऽऽगतः पृष्टः किं न वागऽनुगा क्रिया ? / सोऽवादीत् किं न पूर्वैषाऽपरग्रामव्यपेक्षया ? | भिक्षाचर्याप्रवृत्तेनाऽऽहूतः केनाऽपि कोऽप्यषिः / जगाद त्वं व्रजैकस्मिन्नेव गच्छाम्यहं कुले // 32 // सोऽप्यथाऽनेकगेहेषु पृष्टोऽहस्तेन गीतवान् / समकालमनेकेषु किं गच्छन्नस्मि वेश्मसु ? // 33 / / 14, यामो भिक्षार्थमागच्छे-त्युक्तोऽन्योऽन्येन साधुना / वक्ति स्म त्वं व्रज द्रव्य-मेकमेवाहमाददे // 34 // ततो बहूनि द्रव्याणि गृह्णन् पृष्ठोऽवदत् स तान् / तत् पुद्गलाऽस्तिकायाख्य-मेकमेवाखिलः परैः॥३५॥१५, एते पञ्चदश लघुकमृषादृष्टान्ताः / लघुकाऽदत्तं पुनरननुज्ञापिततृणलेष्टुक्षारमल्लकलेपाऽल्पकालिकवृक्षादिछायाविश्रामणादिविषयम् / लघुकमूर्छा सूक्ष्मममत्वरूपा / सा च द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभेदाचतुर्दा / तत्र द्रव्यतः शय्यातरगृहादौ काकश्वानगवाद्युपद्रवं लघुकल्पस्थकादिकं च रक्षति / क्षेत्रतः प्रतिक्रमणसंस्तारकादिस्थानकुलवसतिग्रामनगरराज्यादिषु / कालतो मासकल्पोपरि निवासादौ / भावतोऽल्परागाद्यध्यवसायात्मिका / इह च यत्र यत्र पञ्चकादिलघुमासान्ताऽऽपत्तिस्तत् सर्व लघुमृषादत्तमूर्छारूपं प्रतिक्रमणाईस्थानमध्ये गृह्यते / तथाअविहीइ कासर्जिमिअ-खुअवायासंकिलिकम्मेसु / कंदप्पहासविगहाकसायविषयाणुसंगेसु // व्याख्या- कासजृम्भितक्षुतवाताऽसक्लिष्टकर्मसु / इतरेतरद्वन्द्वः / कासजृम्भितक्षुतानि प्रतीतानि / वातो द्विधा-ऊर्ध्ववात उद्गाररूपः, अधोवातस्तु अपानजः / तत्र कासजृम्भितक्षुतोद्गारा मुखे मुखवस्त्रिका हस्तं वा दत्त्वा विधेयाः / अधोवातनिर्गमे च करेणैकपुतावकर्षणं कार्य येन महान् कुत्सितशब्दो न भवति / अन्यथा त्वविधिः / असक्लिष्टकर्म पुनः-सङ्क्लेशः कर्मबन्धस्तस्य यन्न कारणं तदसङक्लिष्टकर्म छेदनभेदनघर्षणपीडनाभिघातसिञ्चनकायक्षाराद्यनेकविधम् / छेदनं कुष्ठादिशरीरविक्रियायां दुष्टाङ्गस्य / भेदनं दुष्टवणस्य, घर्षणं दन्तादेः, पीडनं-पीडयित्वा शिरामोक्षणा दिना रुधिरस्य निष्कासनम् , अभिघातसेचनं अभिघातो-लगुडादिप्रहारस्तस्योष्णजलादिना सेचनम् , कायक्षारः प्रसूत्यादौ काये क्षाराभियोजनम् / एष्वविधिना कृतेषु / कन्दर्पो वाचिको नर्माऽऽलापादिरूपः, कायिको धावनादि, हासविकथाकपायविषयाः प्रतीताः / तेषामनुषङ्ग-आसेवनं तेषु / तथाखलिअस्स य सव्वत्थ वि हिंसमणावज्जओ जयंतस्स / सहसाणाभोगेण व मिच्छाकारो पडिक्कमणं / / व्याख्या-एकं पूर्वगाथाद्वयोक्तातिचारस्थानेषु, अन्यत् सहसत्ति / सहसाकारो-ऽविमृश्यकरणं, तथा 'पुव्वं अपासिऊणं छुढे पाए कुलिंगि जं पासे / न य तरइ निअत्तेउं जोगं सहसाकरणमेअं'। अनांभोगो-अत्यन्तं विस्मृतिः। ताभ्यां-सहसाकारानाभोगाभ्यां स्खलितस्य च-अतिचारयोग्यतां प्राप्तस्य च सर्वत्रापि-दर्शनज्ञानचारित्रतपःप्रभृतिचतुर्विशतिपदेष्वपि यतमानम्य हिंसामनापद्यमानस्य-अविराधितजीवस्य मिथ्याकारो-मिथ्यादुष्कृतदानं प्रतिक्रमणं-प्रतिक्रमणाईप्रायश्चित्तं शुद्धिकृद् भवति / तथाआभोगेण वि तणुएसु नेहमयसोगबाउसाईसु / कंदप्पहासविगहाइएसु नेअं पडिक्कमणं // 12 // Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदुभयं प्रायश्चित्तम् व्याख्या-आभोगेनापि-परिस्फुटबुद्धथापि अविस्मृत्यापीत्यर्थः / तनुकेषु-स्तोकेषु स्नेहभयशोकबाकुश्यादिषु / तत्र स्नेहो मातापितृस्वजनेषु भाक्तिकश्रावकजनेषु वा, भयं सप्तविधम्-इहपरलोकाऽऽदानाऽकम्मादाऽऽजीवमरणाऽश्लोकरूपम् , शोकः-सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्याणामिष्टानां वियोगेनाऽनिष्टानां संयोगेन, बाकुश्यं-बकुशत्वं कश्मलचारित्रत्वं, ग्लानत्वादिकारणं विनाऽपि हस्तपादादिक्षालनशीलत्वेन, आदिशब्दात् पार्श्वस्थाऽवसन्नसंसक्तकुशीलत्वानि गृह्यन्ते / कन्दर्पहासविकथादिकेषु / कन्दर्पः प्राग व्याख्यातः हासादयः प्रतीताः, आदिशब्देन कषायविषयानुषङ्गा गृहीताः। ततः सर्वेष्वप्येतेषु तनुकेषु कृतेषु ज्ञेयं-ज्ञातव्यं प्रतिक्रमण-प्रतिक्रमणाऱ्याऽऽख्यं प्रायश्चित्तम् / अत्राह शिष्यः-ननु कन्दर्पहासविकथा. कषायविषयानुषङ्गाः प्राग्गाथायोमपि प्रतिक्रमणाहप्रायश्चित्तयोग्यत्वेनोक्ताः किं पुनरिहोच्यन्ते ? / गुरुराह-सहसाकाराऽनाभोगाभ्यां पूर्वगाथात्रयातीचारस्थानानि ज्ञेयानि एकवाक्यत्वात् / इह त्वाऽऽभोगेनोऽपि कन्दर्पाद्यास्तनुकाः कृताः प्रतिक्रमणार्हप्रायश्चित्तशोध्या भवन्तीति न पौनरुक्त्यमिति / उक्तं प्रतिक्रमणार्हम् / इदानीमुभयाहमुच्यतेसंभमभयाउरावइ सहसाणाभोग-णप्पवसओ वा / सव्ववयाईआरे तदुभयमासंकिए चेव // 13 // व्याख्या-सम्भ्रमः-संक्षोभः करिसरित्पूरशार्दूलदवानलादेः / भयं चौरबन्दिकम्लेच्छादेः / आउरत्ति / भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य आतुरत्वं-पीडितत्वं क्षुत्पिपासाद्यैः / आपञ्चतुर्धा-द्रव्यक्षेत्रकालभावः / तत्र द्रव्यापत् कल्पनीयाऽशनादिद्रव्यदुर्लभता 1 / क्षेत्रापत् प्रत्यासन्नग्रामनगरादिरहितमल्पं च क्षेत्रं 2 / कालोपद् दुष्कालादि 3 / भावापत् ग्लानत्वादि 4 / ततः सम्भ्रमभयातुरापद्भिः कारणैः , सहसाकारानाभोगौ प्राग व्याख्यातो, ताभ्यां च / अनात्मवशकः-परवशः , वाशब्दाद् भूदाद्याविष्टश्च तस्य सर्वव्रतातिचारे सति, ते चैवमतीचाराः-हस्तिसम्भ्रमाद्यैः पलायमानः पृथिवीजलानलानिलहरितद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियाँश्चरणघातादिना ताडयन् पादपाद्यारोहणेन प्राणातिपातविरतिं विराधयेत्, मृषाविरतिं कूटसाक्ष्या'दिना, अदत्तविरति अप्रभोः स्तैन्येनाऽशनादि ददतो ग्रहणेन, मैथुनविरतिमतिक्रमादिना, परिग्रहविरतिं मूर्छादिनो, रात्रिभोजनविरतिं दिवागृहीतादिभङ्गकैः / अध्वकल्पो दूरतममार्गे व्रजतां घृतमिश्रकणिक्कोद्याऽऽदानरूपः तं विदध्यात् , लेपकृतं क्षीरान्नादि तदुत्सर्गतो न ग्राह्यम् कचित्तद् भुञ्जीतेत्याद्या मूलगुणविषयाः / एवमुत्तरगुणेष्वपि ज्ञेयाः। इत्थमतिचारजाते साते सति, तथा आशङ्किते चैव-यदतीचारस्थानं कृतमकृतं वेति निश्चेतुं न शक्नोति तस्मिँश्च दर्शनज्ञानचारित्रतपःप्रभृतिसर्वपदविषये तदुभयंतदुभयाई प्रायश्चित्तम् / एकं गुरोरालोचना, द्वितीयं गुरुसन्दिष्टेन मिथ्यादुष्कृतदान प्रतिक्रमणाख्यिमित्येतदुभयं शुद्धिकरं / किञ्चदुचिंतिअ दुब्भासिअ दुचिट्ठिअ एवमाइअं बहुसो। उवउत्तो वि न याणइ जं देवसिआइ अइआरं // व्याख्या-दुश्चिन्तितं च कोङ्कणार्यकवद् दवदानचिन्तना, दुर्भाषितं वा असद्भूतोद्भावनं, दुश्चेष्टितं च धावनादि, दुश्चिन्तित-दुर्भाषित-दुश्चेष्टितम् / एवमादिकम् अन्यदप्येवंप्रकारं दुष्प्रतिलेखितदुष्प्रमार्जितादि, बहुशो-ऽनेकशः उपयुक्तोऽपि-उपयोगवानपि यद् देवसिकातिंचारादि, आदिशब्दाद् Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे रात्रिकपाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकादि च पूर्वकालकृतमालोचनाकाले न स्मरति, तस्याप्यतिचारजातस्य शोधकम् अस्यां गाथायामनुक्तमपि प्रस्तावात्तदुभयार्हमेव ज्ञेयम् / किं बहुनासव्वेसु वि बीअपए दंसणनाणचरणावराहेसु / आउत्तस्स तदुभयं सहसाकाराइणा चेव / / 15 // व्याख्या-प्रथमं पदमुत्सर्गस्तदपेक्षया द्वितीयं पदमपवादस्तस्मिन्नुपस्थिते सति आयुक्तस्यकारणेन यतनया गीतार्थस्यापराधपदान्यासेवमानस्य, सहसाकारादिना चैव / आदिशब्दादनाभोगग्रहणे सहसाकाराऽनाभोगाभ्यां च, सर्वेष्वपि दर्शनज्ञानचरणापराधेषु तदुभयं प्रायश्चित्तम् / अत्राह शिष्यः'खलिअस्स य सव्वत्थ वी 'त्यत्र दर्शनज्ञानचरणादिपदेषु सर्वेषु स्खलितस्य प्रतिक्रमणाहमभिधाय तेष्वेवेह कथं तदुभयारीमभिधीयते ? / गुरुराह-तत्र हिंसामनापद्यमानस्येत्युक्तम् / इह तु हिंसाद्यापन्नस्याऽप्याऽऽयुक्तस्य तदुभयार्हेण शुद्धिरिति न विरोधः। अधुना विवेकाह भण्यतेपिंडोवहिसिज्जाई गहिरं कडजोगिणोवउत्तेण / पच्छा नायमसुद्धं सुद्धो विहिणा विगिंचितो // 16 // व्याख्या-पिण्डः-सङ्घातोऽशनपोनखोद्यस्वाद्यभेदभिन्नः। उपधिरौधिक औपग्रहिकश्च प्रागुक्तरूपः। शय्या-उपाश्रय, आदिशब्दादौषधतृणलेष्टुभारमल्लकादिग्रहः / ततः पिण्डोपधिशय्यादिकं कृतयोगिना-गीतार्थेन सूत्रतोऽर्थतोऽपि चाऽधिगताशेषतत्समयवर्तमानश्रुतेन / उपयुक्तेन-दत्तोपयोगेन गृहीतं पश्चाद्-ग्रहणानन्तरम् उद्गमोत्पादनैषणाद्यन्यतरदोषदुष्टत्वेनाऽशुद्धमिति ज्ञातं-निर्णीतं / विधिना-अनापाताऽसंलोकादौ स्थण्डिले विगिश्चन्-परित्यजन् शुद्धो-निर्दोषो भवति / तथा-: कालाद्धाणाइच्छिा-मणुग्गयत्थमिअगहिअमसठेण / कारणगहि उव्धरिअं भत्ताइ विगिंचयं सुद्धो॥ व्याख्या-कालाध्वाऽतिक्रान्त-प्रहरद्वयादूर्ध्व ध्रियमाणं कालातिक्रान्तम् , अर्द्धयोजनातिरेकादानीतं चाध्वातिक्रान्तं / तच्च साधूनामपरिभोग्यं / आह-साधूनामुपयुक्तत्वात् कथं कालाध्वातिक्रान्त सम्भवः ? सत्यं, सम्भवत्येव ग्लानादिहेतोः त्यक्तुं वा स्थण्डिलं न स्यात् , सागारिका वा तत्र स्युः , चौरादिभयं वा तत्र स्यादिति / अथ अनुद्गताऽस्तमितगृहीतमशठत्वेन मेघमहिकारजोराहुभिरावृते भास्वति प्रातरुद्गतबुद्धथा सन्ध्यायां चानस्तमितबुद्धथा गृहीतं, पश्चाच्चाऽकाले गृहीतमिति ज्ञातं / तथा कारणगृहीतोवृतं-बालग्लोनाऽऽचार्यप्राघुर्णकदुर्लभद्रव्यसहसालाभादिना . कारणेन गृहीतस्य विधिना च भुक्तस्योवृतं भक्तादि-अशनपानखाद्यस्वादरूपम् , अशठः-श्रुतोक्तः स्थण्डिले विगिश्चन्- त्यजन् शुद्धः / कोऽर्थः 1 कालातिक्रान्तादीनां सर्वेषां विवेकाईप्रायश्चित्तेनेव शुद्धिर्भवति / उक्तं विवेकाह / व्युत्सर्गार्हमुच्यतेगमणागमणविहारे सुअंमि सावज्जसुमिणयाईसु / नावानइसंतारे पायच्छित्तं विउस्सग्गो // 18 // व्याख्या-गमनागमनविहारे-हस्तशतोद् बहिर्गमनागमनादौ, विहारे स्वाध्याया) कन्दरोद्यानादौ गमने, श्रुते श्रुतविषये उद्देशानुज्ञाप्रस्थापनप्रतिक्रमणश्रुतस्कन्धाङ्गपरिगुणनादिष्वविधिना विधाने, सावद्यस्वप्नादिषु प्राणातिपाताचं येषु स्वप्नेषु कृतं स्यात्तषु, आदिशब्दाद्दर्निमित्तसूचकेषु स्वप्नेषु, नौनदीसन्तारे / तत्र नौश्चतुर्धा-आद्या समुद्रगामिनी समुद्रे 1, अन्यास्तिस्रो नद्यां प्रतिश्रोतोगामिनी, अनुश्रोतो Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तम् गामिनी, तिर्यग्गामिनी च, अन्त्या वा नदीं छिन्दती याति / नदीसन्तारो-नद्युत्तारणं, स चतुर्धा-तत्र जङ्घार्द्धदध्नोदकः सङ्घट्टः 1, नाभिद्वयसोदको लेपः 2, तदूर्ध्व जलो लेपोपरिः 3, बोहुभ्यामुडुपाद्यैर्वा चतुर्थः / सर्वेष्वेतेषु प्रायश्चित्तं कायोत्सर्गः / तथाभत्ते पाणे सयणासणे य अरहंतसमणसिज्जासु / उच्चारे पासवणे पणवीसं हुंति ऊसासा // 19 // - व्याख्या-भक्ते-भक्तविषये, पाने-पानविषये, शयनासनयोः-शयनीयविष्टरयोर्वा प्रार्थनाय / अर्हतां श्रमणानां च शय्या अर्हच्छ्रमणशय्यास्तासु चैत्योलयोपाश्रयरूपासु एतेषु हस्तशतात्परतो गमनागमनयोः , उच्चारे प्रश्रवणे हस्तशतमध्येऽपि त्यक्ते सति हस्तमात्रेऽपि रेल्लके जाते कायोत्सर्गे क्रियमाणे पञ्चविंशतिरुच्छवासा भवन्ति / इतः पाश्चात्यायां 'गमणागमणे 'त्यादिगाथायां सामान्येन कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तमुक्तम् / ततश्च किंविषयः कायोत्सर्गः कियदुच्छ्वासपरिमाणः कार्य इति प्ररूपणार्थ गाथात्रयमाहहत्यसयबाहिराओ गमणागमणाइएसु पणवीस / पाणिवहाई सुमिणे सयमठ्ठसयं चउत्थम्मि // 20 // देसिअराइअपक्खिअ-चाउम्मासवरिसेसु परिमाणं / सयमद्धं तिनि सया पंचसयठुत्तरसहस्सं // 21 // उद्देससमुद्देसे सत्तावीसं तहा अणुन्नाए / अठेव य ऊसासा पठवणपडिक्कमणमाई // 22 // ____ व्याख्या-पूर्वार्द्ध कण्ठ्यम् / नवरमादिशब्दोच्चतुर्विधनौ-नदीसन्तारे च पञ्चविंशत्युच्छवासमानः कार्यः / प्राणिवधादि स्वप्ने-करणकारणानुमतिमिः स्वप्नमध्ये प्राणिवधादौ कृते सति ‘शत 'मिति शतोच्छ्वासमानम् , 'अष्टशतं चतुर्थ' इति चतुर्थे मैथुनस्वप्नेऽष्टशतम्-अष्टोत्तरशतोच्छ्वासमानं कायोत्सर्ग कुर्यादित्यर्थः / तथा-इह यथासङ्ख्यमुच्छवासपरिमाणं ज्ञेयम् / देवसिकप्रतिक्रमणे पश्चिमकायोत्सर्गत्रिकस्याऽऽद्य द्वौ चतुर्विशतिस्तवौ चिन्त्येते / शेषद्वयोस्त्वेकैकः / स च पश्चविंशतिपदात्मकः पञ्चविशत्योच्छवासः समाप्यते / ततश्चतुर्विशतिस्तवचतुष्टयेनोच्छ्वासशतें भवति / रात्रिकप्रतिक्रमणे त्वाद्यकायोत्सगद्वयेऽप्येकैक-चतुर्विशतिस्तवचिन्तनात् 'अद्धं 'ति शतार्द्ध-पश्चाशदूच्छ्वासा भवन्तीत्यर्थः / पाक्षिककायोत्सर्ग ते द्वादश चिन्त्यन्ते, ततो द्वादशगुणिताः पञ्चविंशतिस्त्रीणि शतानि भवन्ति / चातुर्मासककायोत्सर्गे ते विंशतिश्चिन्त्यन्ते, ततो विंशतिगुणाः पञ्चविंशतिः पञ्चशतानि जायन्ते / वार्षिकप्रतिक्रमणकायोत्सर्गे च चत्वारिंशचतुर्विशतिस्तवाश्चिन्त्यन्ते, ततश्चत्वारिंशद्गणाः पञ्चविंशतिः सहस्रमुच्छ्वासानां भवति / तस्योपरि च बहुः कालो निर्विघ्नो गत इति मङ्गलार्थमष्टोच्छ्वासमानः पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारश्चिन्त्यते, ततोऽष्टोत्तरसहस्रं भवति / उद्देशः-सूत्रवाचनादानम् / समुद्देशोऽर्थदानम् / अनुज्ञो परं प्रति सूत्रार्थदानानुमतिः। तथेत्यनुक्तसमुच्चये / तेन श्रुतस्कन्धाङ्गपरावर्तनोत्तरकालं च सप्तविंशत्युच्छ्वासः कायोत्सर्गः / तत्र सप्तविंशतिपदात्मकस्य चतुर्विशतिस्तवस्य चिन्तनीयत्वात् / तथा प्रस्थापनप्रतिक्रमणादिषु / प्रस्थापनं स्वाध्यायस्य, प्रतिक्रमणं कालस्य, तयोः करणे, आदिशब्दानुयोगप्रारम्भविसर्जनयोः दुनिमित्तस्वप्नशकुनादिप्रतिघातार्थं च कायोत्सर्गेऽवोच्छ्वासाः। नमस्कारचिन्तनेनाऽष्टोच्छ्वासः कायोत्सर्गः कार्य इत्यर्थः / गतं व्युत्सर्गार्हम् / तपोऽहमभिधीयतेउद्देसज्झयणसुअखंधंगेसु. कमसो पमाइस्स / कालाइक्कमणाइसु नाणायाराइआरेसु // 23 // Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे मिन-लहु-गुरु-लहुगा णगाढि पयवुढिगाढि अत्थे अ। अपत्तापत्तावत्त-वायणुद्देसणाइसु अ॥२४॥ व्याख्या-इह तपोऽहप्रायश्चित्ते ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारपञ्चकसत्कमतीचारचक्रमालोच्यम् / तत्राऽऽद्यो ज्ञानाचारस्यातिचारो ज्ञानाचारातिचारः सोऽष्टविधः , तद्यथा-अकाले अस्वाध्यायिके वा स्वाध्यायकरणं कालातिचारः / 1 / श्रुतमधिजिगांसोर्जातिमदावलेपेन गुरुषु विनयो-वन्दनादिरुपचारस्त स्याऽप्रयोजनं हीलनं वा विनयातिचारः / 2 / श्रुते गुरौ वा बहुमानो-हार्दः प्रतिबन्धविशेषस्तस्याकरणं बहुमानातिचारः / 3 / उपधानं आचामाम्लादितपसा योगविधानं तस्याकरणमुपधानातिचारः / 4 / यत्पार्श्व श्रुतमधोतं तं निहनुते -अपलपति, अन्यं वा युगप्रधानमात्मनोऽध्यापकं निर्दिशति, स्वयं वाऽधीतमित्याचष्टे, एष निवाभिधानोऽतिचारः / 5 / व्यज्यतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनमागमः-सूत्रं तन्मात्राक्षर बिन्दुभिरूनमतिरिक्तं वा करोति, संस्कृतं वा विधत्ते, पर्यायैर्वाऽभिदधाति, यथा-धम्मो मंगलमुक्किमित्यादिस्थाने पुण्णं कल्लाणमुक्कसं दया संवरनिजरेति व्यञ्जनातिचारः / 6 / आगमपदार्थस्याऽन्यथा परिकल्पनमातिचारः, यथा-आचारसूत्रे अवन्त्यध्ययनमध्ये 'आवंती केयावंती लोगंसि विप्परामुसंतीति। यावन्तः केचन लोकेऽस्मिन् पाखण्डिलोके विपरामृशन्तीति प्रस्तुतेऽर्थेऽन्योऽर्थः परिकल्प्यते-आवंति-जनपदे केयाघटीमाला वांता-पतिता तां लोकः परामृशति कूपे' 17 / यत्र च सूत्रार्थों द्वावपि विनाश्येते स तदुभयातिचारो, यथा-धम्म मंगलमुक्कट्ठा अहिंसा गिरिमत्थए / देवावि तस्स नस्संति जस्स धम्मे सया मसी / 8 / अयं च महीयान् अतिचारो, यतः सूत्रार्थोभयनाशे चारित्रनाशः, तन्नाशे मोक्षाभावः, तदभावे दीक्षावैयर्थ्यमिति / एष चाष्टविधोऽपि ज्ञानाचारातिचारो द्विधा-ओघतो विभागतश्च / तंत्र विभागत उद्देशकाऽध्ययनश्रुतस्कन्धाङ्गेषु विषये प्रमादिनः-प्रमादपरस्य कालातिक्रमणोदिष्वष्टसुज्ञानाचारातिचारेषु क्रमशःक्रमेण तपो-भिन्नं लघुगुरुलघुका अनागाढे दशवकालिकादिश्रुते उदेशकातिचारेऽकालपाठादिके भिन्नमासः. अध्ययनातिचारे मासलघु, श्रुतस्कन्धातिचारे मासगुरु, अङ्गातिचारे चत्वारो लघव इत्यर्थः / आगाढे तूत्तराध्ययन-भगवत्यादिके एतेष्वेवातिचारस्थानेषु पदवृद्धिः कार्या, लघुमासादि चतुर्गुरुकान्तमित्यर्थः / अर्थे च-अर्थश्रवणेऽप्युद्देशकालातिक्रमणादिष्वतीचारेषु लघुमासादि चतुर्गुरुकान्तमेव तपो भवति, अप्राप्ताऽपात्राऽव्यक्तवाचनोद्देशनादिषु च / यत्र व्रतपर्याये यत् श्रुतमधीयते तदाश्रित्य तं व्रतपर्यायमनासादयन्नप्राप्तः / श्रुताध्ययनपर्यायश्चायम्'तिवरिसपरिआयस्स उ ओयारपकप्पनाम अज्झयणं / चउवरिसस्स उ सम्मं सूअगडं नाम अंगति / / दसकप्पववहारो संवच्छरपणगदिक्खिअस्सेव / ठाणं समवाओ वि अ अंगेए अट्ठवासस्स // दसवासस्स य विवाहो इक्कोरसवासयस्स इमे उ / खुडिअविमाणमाई अज्झयणा पंच नायव्वा / / बारसवासस्स तहा अरुणववायाइ पंच अज्झयणा / तेरसवासस्स तहा उट्ठाणसुआइआ चउरो / एगूणवीसगस्स उ दिट्ठीवाओ दुवालसममंगं / संपुन्नवीसवरिसो अणुवाई सव्वसुत्तस्स // जं केवलिणा भणिशं केवलनाणेण तत्तओ नाउं / तस्सन्नहा विहाणे आणाभंगो महापावो' / अपात्रमयोग्यः तितिणिकचलचित्तगाणंगणिकादिः / अव्यक्तो-वयसा लघुः श्रुते चाऽत्यल्पश्रुतः / चशब्दोऽतुक्तसमुच्चये। एतेषामप्राप्ताऽपात्राऽव्यक्तानां वाचनां-श्रुतपाठनरूपां यो ददाति उद्देशसमुद्देशानुज्ञा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिन्तिणिकादि: अपात्रम् वा करोति तस्य चतुर्गुरवः / तथा प्राप्तपात्रव्यक्तानां च यो वाचनां न ददाति उद्देशादींश्च न करोति तस्यापि चतुर्गुरवः / अथाप्राप्ताव्यक्तयोः स्वरूपं सुखावसेयमिति तदनभिधायाऽपात्रस्वरूपं सूत्रकृदेवाहतितिणिए चलचित्ते गाणंगणिए अ दुब्बलचरिते / आयरिअपारिभासी वामावट्टे अपिसुणे य // 25 / / ___व्याख्या-तिन्तिणिकः चलचित्तः गाणङ्गणिकश्च दुर्बलचरित्रः आचार्यपरिभाषी आचायपरिभावी वा, वामावर्त्तश्च पिशुनश्च / तत्र तिन्तिणिको द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च / तत्र यदग्नौ प्रक्षिप्तं तिम्बु रुकदारुवद् दह्यमानं सत् त्रटत् त्रटदिति करोति तत् द्रव्यतिन्तिणिकं भावतिन्तिणिकः पुनर्यो गुर्वादिभिः कृताकृतेषु किंभणितो नोदितो वा सम्पूर्णदिवसमपि त्रटत्-त्रटायते / मम संमुखमिदमिदं च जल्पितमेभिरिति झपन्नास्ते इतिभावः / आहारोपधिशय्याविषयोऽपि भावतिन्तिणिकः स्यात् / स च रसतिन्तिणिकोऽपि भण्यते। तत्राहारतिन्तिणिको द्विविधो-बहिःसंयोजनया अन्तःसंयोजनया च / तत्र क्षीरदध्यादि लब्ध्वा कलमशाल्योदनादिना रसगृध्नुतया यदुपाश्रयाद् बहिः संयोजयति सा बहिःसंयोजना / अन्तःसंयोजना पुनरुपाश्रयमध्ये स्यात् , सा त्रिविधा-भाजने हस्ते मुखे च / तत्र भाजने यत्र कलमशाल्योदनस्तत्र दुग्धध्यादि प्रक्षिपति, हस्ते मण्डकादिना गुडशर्करादि हस्तस्थितं वेष्टयित्वा मुखे प्रक्षिपति / मुखविषया तु पूर्व मुखे मण्डकादि प्रक्षिप्य शर्कराखण्डादि प्रक्षिपति / एवंविधां द्विविधामप्याहारसंयोजना लोभाभिभूततया कुर्वन् यदा यदा संयोजनीयवस्तुयोगं न लभते तदा तदा तिन्तिणिकत्वं करोती. त्याहारतिन्तिणिक उच्यते / एवमुपधिशय्यातिन्तिणिकावपि ज्ञेयो, यतः-उपधेरपि संयोजना द्विविधाबहिरन्तश्च / तत्रं बहिःसंयोजना-उत्कृष्टं कल्पं लब्ध्वा चोलपट्टकमप्युत्कृष्टमुत्पादयति, और्णिकं वा कल्पं सुन्दरं लब्ध्वा तदनुरूपमेव सौत्रिकमुत्पोदयति, उत्पाद्य च तदुभयपरिभोगेन संयोजयति / अन्तःसंयोजना पुनः विभूषार्थं श्वेतकम्बल्यां कृष्णदवरकसीवनिकां ददातीत्यादि / शय्या -प्रतिश्रयस्तस्या अपि संयोजना द्विधा-बहिरन्तश्च / तत्र बहिःसंयोजना-अकपाटमुपाश्रयं लब्ध्वा कपाटाभ्यां संयोजयति / अन्तःसंयोजना-शोभार्थं प्रतिश्रयं गोमयमृदादिना लिम्पति सेटिकया वा धवलयति / अथवा शय्याशब्देन संस्तारक उच्यते / ततश्च सुन्दरतरं संस्तारकं प्राप्य यदुत्तरपट्टमपि तदनुरूपमुत्पाद्य परिभुङ्क्ते, सा बहिःसंयोजना / यत् पुनः सुकुमारस्पर्थिं विभूषार्थं वा सुन्दरया भङ्ग्या संस्तारकं प्रस्तृणाति सा अन्तः संयोजना / तदेवमुपध्योदिविषयां संयोजनां कुर्वाणो विवक्षितवस्तुयोगाभावे तिन्तिणिको भवति / 'हा! नास्त्यमुकं वस्तु अत्र स्थण्डिलप्राये संनिवेशे' इत्यादि जल्पतीत्यर्थः / उक्तं च'तिंबुरुअदारुअंपि व अग्गाहिअंतिडितिडेति दिवसंपि / अह दव्वतिन्तिणो भावओ अ आहारुवहिसिज्जा / / अंतोबहिसंजोअण आहारे बाहि खीरदहिमाई / अंतो उ होइ तिविहा भायण हत्थे मुहे चेव / / एमेव उवहिसिज्जा गुणोवगोरी उ जस्स जं होइ / सो तेण जोअयंतो तदभावे तिंतिणो होइ' / एवं तिन्तिणिको व्याख्यातः / अथ चलचित्तः, स च चश्चल उच्यते / स च चतुर्धा-गतिचञ्चलः स्थानचञ्चलो भाषाचञ्चलो भावचञ्चलश्च / तत्र द्रुतद्रुतगामी गतिचञ्चलः / स्थानचञ्चलत्रिविधः-यो निषन्नः सन् पृष्ठवाहुकरचरणादिभिः कुड्यस्तम्भादि असकृत् स्पृशति 1, यो वा निषन्न एवेतस्ततो भ्राम्यति 2, पादौ वो पुनःपुनः सङ्कोचयति प्रसारयति वा 3, स स्थानचञ्चलः। भाषाचञ्चलश्चतुर्धा-असत्प्रलापी 1, असभ्यप्रलापी 2, असमीक्षितप्रलापी 3, अदेशकालपलापी 4 / तत्राऽसत्-अलीकमशोभनं वा प्रलपितुं Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जोतकल्पे शीलमस्येत्यसत्प्रलापी 1, असभ्यं-सभायाः ‘धम्मत्थसत्थकुसला सभासया जत्थ सो सभा नाम / जा पुण अविहिपलुट्टा बुहेहिं सा भण्णए मेली // ' इत्युक्तलक्षणाया योग्यं यद्वचनं तत् सभ्यं, तद्विपरीतमसभ्य दास-चण्डाल इत्यादिकं ग्राम्यवचनं, कर्कशं कटुकं निष्ठुरं जकारमकारादि वा तत् प्रलपितुं शीलमस्येत्यसभ्यप्रलापी 2, किमिदं पूर्वापरविरुद्धं किं वा इहपरलोकबाधकमित्याद्यविमृश्य यद् वदति तद्वचनमसमीक्षितं तत्प्रलपनशीलोऽसमीक्षितप्रलापी 3, कार्यस्य विनाशं दृष्ट्वा कश्चिद् भणति-यथामया पूर्वमेव विज्ञातमिदं कार्यमेवं भविष्यति / यथा केनचित् साधुना पात्रं लेपितं, ततो रूढं सत् कुतोऽपि प्रमादतो भग्नं, ततः कश्चिदात्मनो दक्षत्वं ख्यापयन् ब्रवीति-यदेवेदं परिकर्मयितुमारब्धं तदेव मया ज्ञातं, यथेदं निष्पन्नमपि भक्ष्यते / एष एवंविधोऽदेशकालेऽनवसरे प्रलपनशीलोऽदेशकालप्रलापी 4 / भावचञ्चलः पुनर्यत् श्रुतमारब्धं तस्य पारमप्राप्तः सन्नपरापरश्रुतद्रुमाणां सूत्रार्थलवपल्लवान् स्वरुच्या ग्रहीतुं शीलमस्येति पल्लवग्राही / एषां गतिचञ्चलादीनामाज्ञादयो दोषाः संयमात्मविराधना च / तत्र संयमविराधना गतिचञ्चलस्य त्वरितं गच्छतः पृथिव्यादीनां कायानामुपमर्दनम् , आत्मविराधना प्रपतनप्रस्खलनदेवताछलनादिका / एवं स्थानचञ्चलादिष्वप्युपयुज्याऽऽत्मसंयमविराधने वक्तव्ये / कारणेन तु गतिचञ्चलत्वाद्यपि न दोषाय, यथा-स्तेनश्वापदभयेन द्रुतमपि गच्छेन्न दोषः / ग्लानो वा कश्चिदागाढस्तस्यौषधानयननिमित्तं शीघ्रमपि गच्छेन्न च प्रायश्चित्तमाप्नुयात् / उन्मत्तयक्षाविष्टादिः स्थानचञ्चलत्वमपि कुर्यान्न च प्रायश्चित्तमाप्नुयादनात्मवशत्वात् / वादिनो बुद्धिं पराभवितुमलीकमपि ब्रूयात, यथा-रोहगु. प्तेन पोट्टशालपरिव्राजकमतिव्यामोहनार्थं जीवा, अजीवा, नो जीवाश्चेति त्रयो राशयः स्थापिताः। तथा पण्डकादेः शैक्षस्य व्युत्सर्जने विधेये तन्निर्भर्त्सयनसभ्यमपि भणेत् येनोद्वेजितः स्वयमेव गणान्निष्क्रम्य गच्छेत् / आचार्या वा कुतश्चित् प्रमादस्थानान्नोपरमन्ते ततोऽदेशकालप्रलापित्वमपि कुर्यात् / यथा क्षमाश्रमणा ! अमुकः संयतो अमुकश्च श्रावको मम पुरत इदं भणति, यथा-त्वदीया गुरवः पावस्थीभवन्तः सम्भाव्यन्ते / एतच्च मया पूर्वमपि विज्ञातमासीत् , यथा-क्षमाश्रमणानामेवमाचरतामपवादो भविष्यति / एवमुक्ते तेऽश्लोकभयेनैवोपरमन्ते / बालो वा केलिकन्दर्पादि कुर्वाणो वार्यमाणोऽपि न निवर्त्तते ततोऽनूहितमपि यदपि तदपि भाषित्वा वारणीयः / प्रत्यनीकादयो वा खरपरुषादिभाषणैरुपशमयितव्याः / तथा कस्याप्याचार्यस्यापूर्व सूत्रमर्थो वा विद्यते तस्योभयस्यापि तत्पादिनधीयमानस्य व्यवच्छेदो भवति / अतः पूर्वारब्धं शास्त्रमर्धपठितमपि मुक्त्वा तदुभयमप्यध्येतव्यमिति यथाक्रमं गतिस्थानभाषाभावचञ्चलेषु द्वितीयपदम् / एवं चलचित्तश्चतुर्धा प्रोक्तः / यदुक्तम्'गइठाणाभासभावे लहुगो मासो उ होइ इक्केि / आणाइणो अ दोसा विराहणासंजमायाए / / दावदविओ गइचंचलो थाणचवलो इमो तिविहो / कुड्डादस किं फुसइ भमइ व पाए व विच्छुभइ / / भासाचवलो चउहा असत्ति अलिअं असोभणं वावि / असभाजुग्गमसभं अणूहिउं तंतु असमिक्खं / / कजविवत्तिं दद्रुण भणइ पुवि मए उ विनायं / एवमिणं तु भविस्सइ अदेसकालप्पलावी अ॥ जं जं सुअमत्थो वा उद्दिट्ट तस्स पारमप्पत्तो। अण्णण्ण सुअदुमाणं पल्लवगाही उ भावचलो' / इति चलचित्तो ब्याख्यातः / अथ गाणङ्गणिकस्तस्येदं स्वरूपम्-' उपसंपन्नः साधुः कारणाभावे पण्मासानपूरयित्वा यद्यकस्माद् गणात् परं गणं सङ्क्रामति, षण्मास्याः परतो वो यावत् द्वादश वर्षाण्यपूर Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपात्रशिष्यस्वरूपम् यित्वा द्वादशभ्यो वा वर्षेभ्य ऊवं निष्कारणं गणाद् गणं सङ्क्रामति यदि, तदा गाणङ्गणिकः स्यात् / कारणे तु ज्ञानदर्शनचारित्राणामन्यतरस्मिन् पुष्टालम्बने समुत्पन्ने मध्ये द्वादशवर्षमन्तःषण्मासं वा गणाद्गणं सङ्कामन्नपि न प्रायश्चित्तभाग भवति / अथ दुर्बलचारित्रः यो धृतिवीर्यपरिहीणो दर्शनज्ञानादिपुष्टालम्बनं विनो मूलगुणोत्तरगुणविषयानपराधान् प्रतिसेवते, कथं / पञ्चकादि यावच्चरमम् / इह पश्चकशब्देन यत्र प्रतिसेविते रात्रिंदिवपञ्चकमापद्यते स सर्वजघन्यश्चरणापराधः परिगृह्यते / आदिशब्दादशरात्रिंदिवादिप्रायश्चित्तस्थानानि यावच्चरमं सर्वोत्कृष्टचरणापराधलक्षणं पाराश्चिकप्रायश्चित्तस्थानं स एष दुर्बलचारित्रः / उक्तं च___ 'मूलगुणे उत्तरगुणे पडिसेवइ पणगमाइ जा चरिमं / धिइवीरिअपरिहीणो दुब्बलचरणो अणटोए' / / एवंविधस्य छेदश्रुतार्थदाने दोषबाहुल्यं / यदुक्तम् 'पंचमहव्वयभेओ छक्कायवहो अ तेणणुन्नाओ। सुहसीलविअत्ताणं कहेइ जो पवयणरहस्सं' / / तेनाऽऽचार्येण पञ्चमहाव्रतभेदः षट्कायवधश्चानुज्ञातः , ये सुखशीलाऽव्यक्तानां-सुखं शरीरशुश्रूषादिकं शीलयन्तीति सुखशीलाः पार्श्वस्थादयः / अव्यक्ताः श्रुतेन वयसा च / सुखशीलाश्चाव्यक्ताश्चेति द्वन्द्वस्तेषां / यद्वा-सुखे-शरीरसौख्ये शीलं-स्वभावो व्यक्तः-परिस्पष्टो येषां ते सुखशीलव्यक्तास्तेषाम् / अथवा सुखंमोक्षसौख्यं तद्विषयं यत् शीलं-मूलोत्तरगुणानुष्ठानं ततो विगतो यत्न-उद्यम आत्मा वा येषां ते सुखशीलवियत्नाः सुहशोलव्यात्मानो वा तेषामुभयत्रापि पार्श्वस्थादीनामित्यर्थः / प्रवचनरहस्यं छेदग्रन्थार्थतत्त्वं कथयति / एवं दुर्बलचारित्रो व्याख्यातः / अथाऽऽचार्यपरिभावी-कश्चित् कुशिष्यः सूचया असूचया वा आचार्य परिभवति / सूचा नाम स्वव्यपदेशेन परस्वरूपसूचनं, यथा-कोऽपि वयसा परिणतः साधुबलकमाचार्य ब्रवीति / अद्यापि डहरा-बालका वयं किं नामास्माकमाचार्यपदस्य योग्यत्वमिति / असूचास्फुटमेव परदोषोद्घट्टनं, यथा भो आचार्य ! त्वं तावदद्यापि डहरो मुग्धः क्षीरकण्ठो वर्तसे / अतः कीदृशं भवत आचार्यत्वमिति / योऽकुलीन आचार्यस्तमुद्दिश्य भणति ' अहो ! उत्तमकुलसम्भूता अमी योग्या एवाऽऽचार्यपदस्य, वयं तु हीनकुलोत्पन्नाः कुतोऽस्माकं सूरिपदयोग्यता / यद्वा-धिक कष्टं यदकु. लीनोऽप्ययमाचार्यपदे निवेशित इति / एवं मेधावी मन्दमेधसम् , ईश्वरप्रव्रजितो दरिद्रप्रव्रजितं, बुद्धिसम्पन्नो मन्दबुद्धिं, लब्धिसम्पन्नो मन्दलब्धिम् आचार्य सूचया असूचया च परिभवतीत्याचार्यपरिभावी / उक्तं च____ 'डहरो अकुलीणुत्ति अ दुम्मेहो दमगमंदबुद्धी अ। अवि अप्पलाभलद्धी सीसो परिहवइ आयरिशं'। रायणिअपारिभासीतिपाठे तु रात्निको-रत्नाधिको रत्नैः-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपैः परमपुरुषार्थप्रापणप्रवणश्वरति-व्यवहरतीतीकणि रात्निको-रत्नाधिक आचार्यादिस्तं प्रत्यवज्ञावचनादि परिभाषत इत्येवंशीलो गनिकपरिभाषी। अथ वामावर्त्तः-यः शिष्य आगच्छेति भणितः सन् व्रजति, व्रति भणितः सन् शीघ्र समालीयते / एवमन्यदपि कार्य यद्यथा भण्यते तत्तथा न करोति, स वामावर्त्तः / उक्तं च 'एहि भणिओ उ वच्चइ वच्चसु भणिओ दुअं समलिअइ / जं जह भणइ तं तह अकरितो वामवट्टो अ' / / अथ पिशुन:-अलीकानीतराणि वा परदूषणानि भाषमाणः प्रीतिं शून्यां करोतीति वक्ष्यमाणलक्षणः / Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे उपलक्षणत्वादपरेऽप्यपात्रभूताः शिष्या ज्ञेया, यथा आद्यऽदृष्टभावः 1 / अकृतसामाचारीकः 2, तरुणधर्मा 3, गर्वितः 4, प्रकीर्णप्रज्ञविद्यः 5, गुरुनिह्नवी 6 / तत्राऽऽवश्यकादि-सूत्रकृताङ्गपर्यन्तेषु ग्रन्थेषु ये भावाः-पदार्था आभधेयास्ते आदिमा भावा येनाऽवगतो न सन्ति, स आद्यऽदृष्टभावः / 1 / ज्ञानोपसम्पदि सूत्रार्थमण्डलीविषयां सामाचारी शास्त्रान्तरविस्तरोक्तां यो न करोति स्म, सोऽकृतसामाचारीकः / 2 / यस्य श्रुतस्य यो यावान् काल:-'तिवरिसपरिआयस्स उ' इत्यादिगाथाकदम्बकप्रतिपादितस्तस्य तावन्तकालमसमापयन् तरुणधर्मा भवति / 3 / गर्वितो यः श्रुतमधीयानः तदवलेपादेव दुर्विनीतो भवन्नुपलभ्यते, तादृशे पुरुषे आचारादि श्रुतजातं स्तोकमात्रमपि नाचक्षीत / यतः-परिकर्तितकर्णहस्तस्य पुरुषस्य कुण्डल-कङ्कणाद्याभरणं दीयमानं न शोभेत / विशेषेणाऽयमयोग्यः / यदुक्तम् - 'मद्दवकरणं नाणं तेणेव उ जे मयं समुवयंति / ऊणगभायणसरिसा अगदो वि विसायए तेसिं' // 4 / योऽर्थमण्डल्यां राहसिकग्रन्थार्थ श्रत्वा उत्थितः सन् अपरिणतानां लेशोदेशतः कथयति / यथा अमुकं प्रलम्बग्रहणादिकमत्र सूत्रेण कल्पनीयतया कथ्यते स प्रकीर्णप्रज्ञः / प्रज्ञाशब्देनेह प्रकर्षण ज्ञायते उत्सर्गापवादतत्त्वमनयेति व्युत्पत्त्या छेदश्रुतान्तर्गता रहस्यवचनपद्धतिरुच्यते, सा प्रकीर्णा-विक्षिप्ता / येन स प्रकीर्णप्रज्ञः। तथा प्रकीर्णविद्यः-यः सर्वमप्यादेरारभ्य पर्यन्तं यावत् छेदश्रुतमुत्सर्गापवादसहितमपरिणतानां कथयति स प्रकीर्णविद्यः, विद्याशब्देन चात्राऽखण्डं छेदश्रुतमभिधीयते / 5 / यः पुनः सूत्रार्थतदुभयानि कस्यचित् पार्श्व गृहीत्वा तमाचार्य निनुते-अपलपति / अपरं कमपि विख्यातगुणमाचार्यमुद्दिशति / अथवा ब्रूयात् मया स्वयमेवाभ्यूह्य श्रुतं निर्णीतं केवलं तैर्वाचनाचार्मम दिग्मात्रमेव दत्तमिति / अत्र परिव्राजकज्ञातं, तच्चेदम्-'एगस्स हाविअस्स छुरघरगं विज्जाए आगासे चिट्ठइ / तं च एगो परिव्वायगो बहूहिं उवासणाहिं आराहिऊण तस्स सगासे विज्जं गिहित्ता अन्नत्थ गंतुं तिदडेणं आगासगएणं अच्छइ / तओ सो लोगेणं पुइज्जइ / अन्नया रन्ना पुच्छिओ-भगवं ! किं विज्जाइसओ उआहु तवाइसओ ? भणइ विज्जाइसओ / कओ आगमिओ त्ति ? भणइ-हिमवंते पव्वए फलाहारनामस्स महरिसिस्स सगासाओ त्ति भणिए तं तिदंडं खडत्ति पडिअं' एस दिळंतो / अयमत्थोवणओ, जहा-'सो पहाविअं विज्जायरिअं निण्हवितो ओहावणं पत्तो' एवं अन्नेवि अप्पगासपि वायणायरिअं निण्हविता इहलोए चेव बहूणं समणसावगाईणं हीलणिज्जा भवंति, देवयाहि अ छलिजंतीति / 6 / अत्र च तिन्तिणिक-चलचित्त-गाणङ्गणिक-दुर्बलचारित्रा-ऽऽचार्यपरिभाषि-वामावर्त-पिशुना-ऽकृतसामाचारीक-गर्वित-प्रकीर्ण-निह्नविन एकादशाऽपात्रभूताः शिष्योः / आदिमादृष्टभावोऽप्राप्तः , तरुणधर्मा पुनरव्यक्तः / अनयोः स्वरूपं प्राक् प्रतिपादितम् / तत्रेदं तात्पर्यम्-अव्यक्तो द्विधा-पर्यायेण श्रुतेन च / तत्र पर्यायो द्विधा-जन्मतः प्रव्रज्यातश्च / तत्र जन्मतो यावत् षोडशवर्षाणि तावदव्यक्तः, प्रव्रज्यातस्तु यावत् त्रीणि वर्षाणि तावदव्यक्तः। प्रकल्पाध्ययनस्य यो वा यस्य श्रुतस्य कालः प्रोक्तस्तमप्राप्तोऽव्यक्तस्तस्य श्रुतस्य / श्रुतेन पुनरावश्यकेऽनधीते दशवैकालिकस्याव्यक्तः / दशवैकालिकेऽनधीते उत्तराध्ययनानामव्यक्तः / एवं सर्वत्र / अत्र पर्यायश्रुताभ्यां चतुर्भङ्गो कार्या / तद्यथा-पर्यायेण श्रुतेन च व्यक्तः प्रथमः, पर्यायेण व्यक्तः श्रुतेन त्वव्यक्तो द्वितीयः, पर्यायेणाव्यक्तः श्रुतेन तु व्यक्तस्तृतीयः , द्वाभ्यामप्यव्यक्तश्चतुर्थः / प्रथमभङ्गे व्यक्तः शेषेषु त्रिष्वपि भङ्गेष्वव्यक्तः / स एव च यथायोगमादिमादृष्टभोवतरुणधर्मतयाऽत्रगन्तव्यः // 25 // अथैषां सूत्रार्थप्रदाने प्रायश्चित्तमाह Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपात्राणां सूत्रार्थदाने प्रायचितम् * अव्वत्ते अप्पसे लहुगा लहुगा य हुंति अप्पत्ते / लहुगा य हुति तितिणि रसतितिणि हुंतऽणुग्धाया // ___ व्याख्या-अव्यक्तः-तरुणधर्मा तस्य, तथा -- अप्पत्ते 'त्ति / अपात्राणामेकादशसङ्ख्याकानां सूत्रार्थी यदि ददाति तदा चत्वारो लघुकाः। 'लहुगा य हुंति अप्पत्ते 'त्ति / अप्राप्त-आद्यदृष्टभावस्तस्य ददाति चत्वारो लघुकाः। अत्रैव विशेषमाह- लहुगा य हुंति तितिणि ' इत्यादि / तिन्तिणिकस्य-शिक्षातिन्तिणिकस्य उपधितिन्तिणिकस्य शय्यातिन्तिणिकस्य ददाति चत्वारो लघवः। आहारतिन्तिणिकस्य पुनर्विशेषमाह-रसतितिणि हुंतऽणुग्घाया' इति / रसतिन्तिणिकस्य-व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तेराहारतिन्तिणिकस्य ददाति चत्वारोऽनुद्घाता-गुरव इत्यर्थः / अयमुत्सर्गनिश्चयः-* मरिज सह विज्जाए कालेणं आगए विदू / अप्पत्तं च न वाइज्जा पत्तं च न विमाणए' // कारणैः पुनरपवादपदेनैतानपि वाचयन्न प्रायश्चित्तभाग् भवति / तच्चापवादपदं निशीथादिमहाग्रन्थेषु विस्तरेणाभिहितं तत एवावसेयम् / इह तु प्रन्थगौरवभयानोच्यते / एवं पूर्वमुद्दिष्टानामव्यक्ताऽपात्राऽप्राप्तानां विभागेन प्रायश्चित्तं प्रतिपादितम् / अथ पूर्वोक्तपिशुनविषयं प्रसङ्गागतं विशेषमाह- .. पीईसुमणि पिसुणे गुरुगाइ चउण्ह जाव लहुगो उ / अहवा संतासंते लहुओ लहुगा गिहेसु गुरुगा // व्याख्या-पीईसुन्नणि 'त्ति / अलीकानि इतराणि वा परदूषणानि भाषमाणः प्रीति शून्यां करोतीति पिशुनो, नैरुक्ती शब्दनिष्पत्तिः / स च यद्याचार्यस्य पैशुन्यं करोति तदा चतुर्गुरु, उपाध्यायस्य करोति चतुर्लघु, भिक्षोः करोति मासगुरु, क्षुल्लकस्य करोति मासलघु इति कल्पचूर्ण्यभिप्रायः / निशीथचूर्ण्यभिप्रायेण तु यद्याचार्यः पैशुन्यं करोति तदा चत्वारो गुरवः , उपाध्यायः करोति चत्वारो लघवः, मिक्षुः करोति मासगुरु, क्षुल्लः करोति मासलघु / अमुमेवा) सञ्जिघृक्षुराह-'गुरुगा' इत्यादि / चतुर्णामाचार्योपाध्यायभिक्षुक्षुल्लकरूपाणां पैशुन्यकरणं विषयभूतानां कर्तृभूतानां वा यथाक्रमं गुरुकादयो यावल्ल'घुको मासः प्रायश्चित्तम् / अथवेति प्रकारान्तरोपन्यासे / सामान्यतः संयतः संयतेषु पैशुन्यं करोति / तत्रासद्दूषणविषये पैशुन्ये चत्वारो लघवः / सद्वृषणविषये लघुको मासः / एते एव प्रायश्चित्ते गृहिषु गुरुके अवसातव्ये, तद्यथा - गृहस्थेषु असद्भिदोषैः पैशुन्यं करोति चत्वारो गुरवः / सद्भिः करोति गुरुमासः / एवं प्रासङ्गिकं प्रतिपादितम् / सम्प्रति ज्ञानाधुपसम्पन्निमित्तमागतः शिष्यो यदोषः प्रतीच्छनीयो न स्यादिति तानाहएगे अपरिणए वा अप्पाहारे अ थेरए / गिलाणे बहुरोगी अ मंदधम्मे अ पाहुडे // 28 // ___ व्याख्या-यदि एक-एकाकी पश्चादाचार्यः। यदि वा अपरिणतः-कथमपि गृहीतैरकल्पिकैर्वमादिमिः सहितः / अथवा तस्याचार्यस्य पार्श्व ये तिष्ठन्ति, ते अपरिणता-आहारवस्त्रपात्रशय्यास्थण्डिकानामकल्पिकास्तैः सहितः, स च कल्पिकवस्त्राद्युत्पादने लब्धिमान् / अथवा स आचार्योऽल्पाधार:. अल्पस्य सुत्रस्यार्थस्य आधारः सूत्रार्थनैपुणविकलः शङ्कितसूत्रार्थों वा, सूत्रार्थकथननिपुणं तमेव शिष्य पृष्ट्वा शेषसाधुभ्यो वाचनां ददाति / यदि वा आचार्यः परिवारो वा स्थविरो-जरसा वृद्धशरीरोऽजङ्गमः , Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-जीतकरूपे सच तेषां प्रतिजागरकः। अथवा पश्चात्तत्र गच्छे एको ग्लानोऽधुनोत्पन्नरोगः, स च तस्य बिन्ताकारी। यदि वा एको बहुरोगी, बहुरोगी नाम चिरकालं बहुभिर्वा साधारण रोगैर्जाप्यशरीरः, स च तस्य वर्तापकः / यदि वा पश्चात्तनाचार्यपरिवारः सर्वोऽपि मन्दधर्मा-निर्धर्मा न गुर्वाज्ञां करोति, केवलं तद्भयात् किमपि करोति / तथा गुरुणा समं प्राभृतं-कलहं कृत्वा समागतः। अथवा प्राभृतकारिणस्तस्य शिष्याः तस्यैव गुणेन प्राभृतं न कुर्वन्ति / तस्यैव वा संयतहिमिर्वा सह प्राभृतमस्ति / यदि वा पश्चात्तत्र गुरोः केनापि सह प्राभृतमस्ति / स च क्रमेणापनयनतो गुरोः साहाय्यकारी / एवं प्राग वर्तमाने यदि समागतः स्यात् / इदमुक्तं भवति-पश्चादेकाकिनम् , अपरिणतम् , अल्पाधारं, स्थविरं, गुरुं परिवार वा ग्लानं, बहुरोगिणं, निर्द्धर्मपरिवारं वा आचार्य विमुच्य प्राभृतं वा कृत्वा यदि समागतो भवेत्तर्हि स न प्रतिग्राह्यः / केवलमयमुपदेशस्तस्मै प्रदातव्यस्तमेवाह-- , एआरिसं विउसज विप्पवासो न कप्पई / सीसपडिच्छायरिए पायच्छित्तं विहिजई.॥२९॥ व्याख्या-एतादृशमेकाक्यादि स्वरूपं गुरुमन्यं वा ग्लानादिकं व्युत्सृज्य-परित्यज्य विशेषेण प्रकासोऽन्यत्र गमनं विप्रवासो भद्र ! तव न कल्पते / बहुगुणाधारो भवान् कथमीदृशं कृतवान् / / सस्मादद्यापि प्रायश्चित्तं प्रतिपद्य पश्चाद्गच्छ / स च समागतस्तस्य प्राक्तनाचार्यस्य शिष्यो वा स्यात् प्रतीच्छको वा / एवमागतमुपसम्पद्यमानं योऽप्याचार्यः प्रतीच्छति सोऽपि प्रायश्चित्तभाक् / ततः शिष्यप्रतीच्छकाचार्याणां प्रायश्चित्तं विवक्षुरिदमाह- सीसपडिच्छायरिए' इत्यादि / शिष्ये प्रतीच्छके आचार्ये च प्रायश्चित्तं विधीयते / प्रायश्चित्तदानविधिरुच्यत इति भावः / प्रतिज्ञामेव निर्वाहयति-- एगे गिलाणि पाहुडि तिण्ह वि गुरुगाओ सीसमाईणं / सेसे सीसे गुरुगा लहुग पडिच्छे गुरू सरिसं / / व्याख्या-एकस्मिन् एकाकिनि गुरौ, ग्लाने वा तत्र गच्छे तिष्ठति, प्राभृते वा केनापि सहाऽधिकरणे सति यदि समागतः शिष्यः, प्रतीच्छको वा आचार्येण वा तथा समागतः सन् यदि प्रतीच्छितः तदा शिष्यादीनां-शिष्य-प्रतीच्छका-ऽऽचार्याणां त्रयाणामपि गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः / यः पुनरन्यः शेषो-ऽपरिणता-ऽल्पाधार-स्थविर-बहुरोग-मन्दधर्म-परिवारलक्षणस्तस्मिन् शेषे यदि समागतः शिष्यस्तस्य प्रायश्चित्तं गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः / अथ प्रतीच्छकः समागतः तर्हि तस्य लघुकाश्चत्वारो लघुमासाः / 'गुरू सरिसमिति गुरोरपि सदृशं प्रायश्चित्तं, किमुक्तं भवति-यदि शिष्यं प्रतीच्छति ततः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुमासाः / अथ प्रतीच्छकं तर्हि चत्वारो लघुका इति / अथवा प्राभृते इदं प्रायश्चित्तम् - सीसपडिच्छे पाहुडि छेओ राइंदिआणि पंचेव / आयरिअस्स उ गुरुगा दोवेए पडिच्छमाणस्स // 31 // व्याख्या-यदि प्राभृते-गुरोः शिष्यस्य वा केनापि सहाधिकरणे वर्तमाने शिष्यः प्रतीच्छको वा समागतस्तदा तस्य शिष्यस्य प्रतीच्छकस्य वा प्रायश्चित्तं पश्च रात्रिंदिवानि पर्यायस्य छेदः / आचार्यस्य पुनावप्येतौ प्रतीच्छतः-प्रतिगृह्णतः प्रायश्चित्तं गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः / तथा यः समनोज्ञ उपसम्पदनार्थमागतस्तं यद्याचार्यः प्रथमदिवसे न पृच्छति, यथा-कुतः आगतः 1 , कुत्र वा गमिष्यसि 1 , किं निमित्तं वा समागतः ? इति / ततस्तस्यैवमप्रच्छने प्रथमदिवसे मासलघु / द्वितीयदिवसेऽपि यदि न Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षाया अयोग्याः पृच्छति तदा मासगुरु / तृतीयदिवसेऽप्यप्रच्छने च चत्वारो लघुमासाः। चतुर्थेऽपि दिवसे यदि न पृच्छति * तदा चतुर्गुरु / पश्चमादिष्वपि दिवसेष्वप्रच्छने तदेव चतुर्गुरु / सोऽपि पृष्टः सन् यदि ब्रूते-कथयिष्यामि तदा तस्यापि प्रथमदिवसे मासलघु, द्वितीयदिवसे मासगुरु, तृतीयदिवसे चतुर्लघु, चतुर्थदिवसेऽप्यकथने. चतुर्गुरु, पञ्चमादिष्वपि तदेव चतुर्गुरु / अथवा प्रथमदिवसे श्रान्त इति कृत्वा न पृष्टस्तत आचार्यः शुद्धः, कारणवशेनाऽप्रच्छनात् / द्वितीयदिवसे न पृच्छति मासगुरु, तृतीये न पृच्छति चतुर्लघु, चतुर्थे दिवसे चतुर्गुरु / एवं तेनोपसम्पद्यमानेन पृष्टेनाऽपृष्टेन वा आख्यातं यदहममुकेन कारणेन समागत इति / तत आगतश्चिन्तनीयः शुद्धोऽशुद्धो वा / अत्र चत्वारो भङ्गाः / तद्यथा-निर्गमनमप्यशुद्धमागमनम-, प्यशुद्धं 1, निर्गमनमशुद्धमागमनं शुद्धं 2, निर्गमनं शुद्धमागमनमशुद्धं 3, निर्गमनमपि शुद्धमागमनमपि शुद्धं 4 / तत्र निर्गमनं पूर्वोक्तैरेकाकि-गुरुत्यागादिभिर्वक्ष्यमाणैश्चाधिकरणादिभिर्दोषैरशुद्धम् / आगमनं तु बजिकादिषु प्रतिबन्धेनाशुद्धम् / तत्रापि प्रतिबन्धनिमित्तं प्रायश्चित्तं सूत्रानुसारतो वक्तव्यम् / चतुर्थभास्तु निर्दोष इत्यादि / एतद्वक्तव्यता विस्तरतो निशीथादिमहाग्रन्थेभ्योऽवसेया / एवं ज्ञानाशुपसम्पन्निमित्तागतशिष्यदोषविषयं प्रायश्चित्तमुक्तम् / अथ नवप्रव्रजितशिष्याऽविध्युपस्थापनाविषयमोह= अप्पत्ते अकहित्ता जीवाजीवे अ बंधमुक्खं च / उवठावणि चउगुरुगा विराहणा जा भणिअपुब्धि / / व्याख्या-उपस्थापना तावत् प्रबजितस्य स्यात् / प्रव्रज्या च योग्यानामेव देया, न स्वयोग्यानाम् / यत उक्तं-' पवावणारिहा खलु जाईकुलरूवविणयसंपन्ना / तब्धिवरीअगुणा खलु हुंति अपव्वाषणाजुग्गा' // अथ चैतेऽष्टचत्वारिंशदयोग्याः प्रव्रज्यायाः। - अद्वारस पुरिसेसुं वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु / पव्वावणा अणरिहा अनला अह इत्तिआ भणिआ॥ बाले वुड्ढे नपुंसे अ जड्डे कीबे अ वाहिए। तेणे रायावगारी अ उम्मत्ते अ अदसणे // .... दासे दुढे अ मूढे अ अणत्ते जुंगिए इअ / उबद्धये अ भयए सेहनिप्फेडिआइआ // गुब्विणी बालवच्छा अ पव्वावेउं न कप्पइ / एएसिं तु परूवणा कायव्वा दुपयसंजुत्ता' / एतेषां लेशतोऽयमर्थः-पुरुषेषु मध्येऽष्टादश, स्त्रीषु विंशतिः, नपुंसकेषु दश, एतेऽष्टचत्वारशत् प्रजाजनाया अनर्हाः / अनला-अयोग्या एतावन्तो भणिताः, तद्यथा-बालः सप्ताष्टौ वर्षाणि यावदनाभिधीयते / सप्ततिवर्षेभ्य उपरि वृद्धः / अन्ये त्वाहुः-अर्वागपीन्द्रियादिहानिदर्शनात् षष्टिवर्षेभ्योऽप्यपरि वृद्धोऽभिधीयते / न स्त्री, न पुमान् नपुंसकम् / जडस्तु विधा-भाषया शरीरेण करणेन च / भाषाजहः पुनरपि विधा-जल-मूको, मन्मनमूक, एलकमूकः / तत्र जलनिमग्न इव युडबुडायमानो यो वक्ति स जलमूकः / यस्य वदतः खल्यमानमिव वचनं स्खलति, स मन्मनमूकः / यस्त्वेलक इवाव्यक्तं मूकसया शब्दमात्रमेव करोति, स एलकमूकः / यः पथि भिक्षाटने वन्दनादिषु वाऽतीव स्थूलतयाऽशक्तो भवति, स शरीरजहः / करणं-क्रिया तस्यां जडः करणजडुः समितिगुप्तिप्रतिक्रमणप्रत्युपेक्षणासंयमपालनादि-क्रियां पुनः पुनरुपदिश्यमानामप्यतीव जड़तया यो ग्रहीतुं न शक्नोति, स करणजडू इत्यर्थः / या स्त्रीमि गैनिमन्त्रितोऽसंवृताया वा स्त्रियोऽङ्गोपाङ्गानि दृष्ट्वा, शब्दं च मन्मनालापादिकं तानां श्रुत्वा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 यति-जीतकल्प समुद्भूतकामाभिलाषोऽधिसोढुं न शक्नोति स क्लीबः / भगन्दरातीसारकुष्ठप्लीहशूलार्शःप्रभृतिरोगैस्तो व्याधितः / क्षत्रखननमार्गपातनादिचौर्यनिरतः स्तेनः / श्रीगृहान्तःपुरनृपतिशरीरतत्पुत्रादिद्रोहविधायको राजापकारी / यक्षादिना प्रबलमोहोदयेन वा परवशतां नीत उन्मत्तः / न विद्यते दर्शनं-हग यस्येत्यदर्शनो-ऽन्धः स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयवानप्यत्र दृष्टव्यः / गृहदास्याः सञ्जातो, दुर्भिक्षादिष्वर्थादिना वा क्रोतः, ऋणादिव्यतिकरे वाऽवरुद्धो दास उच्यते / दुष्टो द्विधा-कषायदुष्टो विषयदुष्टश्च / तत्र सर्षपभर्जिकाभिनिविष्टसाध्वादिवद् उत्कटकषायः कषायदुष्टः / अतीव परयोषिदादिषु गृद्धो विषयदुष्टः / स्नेहाऽज्ञानादिपरतन्त्रतया यथास्थितवस्त्ववगमशून्यमानसो मूढः / यो राजादीनां हिरण्योदिकं धारयति स ऋणातः। जातिकर्मशरीरादिभिर्दूषितो जुङ्गितः। तत्र मातङ्गकौलिकवरुडसूचिकछिम्पकादयोऽस्पृश्या जात्या जुङ्गिताः / स्पृश्या अपि स्त्रीमयूरकुक्कुटादिपोषकाः / वंशवरत्राऽऽरोहणनखप्रक्षालनसौकरिकत्ववागुरिकत्वादिनिन्दितकर्मकारिणः कर्मजुङ्गिताः / करचरणकर्णादिवर्जिताः पङ्गुकुब्जवामनककाणप्रभृतयः शरीरजुङ्गिताः / अर्थग्रहणपूर्वकं विद्यादिग्रहणनिमित्त वा एतावन्ति दिनानि त्वदीयोऽहमित्येवं येनाऽऽत्मनः परायत्तता कृता भवति, सोवबद्धः / रूपकादिमात्रया भृत्या धनिनां गृहे दिनपाटिकादिमात्रेण. सदादेशकरणे प्रवृत्तो भृतकः / शिक्षकस्य दीक्षितुमिष्टस्य निःस्फेटिका-अपहरणं शिक्षकनिःस्फेटिका / तद्योगायो मातापित्रादिभिरननुज्ञातोऽपहृत्य दीक्षितुमिष्यते, सोऽपि शिक्षकनिःस्फेटिका / इत्येतेऽष्टादश पुरुषेषु दीक्षाऽनर्हाः भेदाः। एतेषां बालादीनां दीक्षाप्रदाने प्रवचनमालिन्य-संयमात्मविराधनादयो दोषाः सुखावसेया एवेति न दर्शिताः / वैरखाम्यादीनां च प्रव्राजनेऽपवादपदं निशीथादवसेयम् / एते एव चाष्टादशभेदाः स्त्रीष्वपि, परं नपुंसकद्वारेऽयं विशेषः-यः पुरुषनपुंसकः स प्रतिसेवते प्रतिसेवापयति च। स्त्रीनपुंसिका पुनः स्त्रीवेदं नपुंसकवेदमपि वेदयति / अन्यावपि द्वाविमौ भेदौ भवतः , तद्यथा-गुर्विणीसगर्भा, सबालवत्सा-सह बालेन-स्तनपायिनो वत्सेन वर्तत इति सवालवत्सा / एते सर्वेऽपि विंशतिः स्त्रीभेदा दीक्षाऽनर्हाः / नपुंसकाः पुनः षोडश भेदा भवन्ति, तद्यथा- . 'पंडए वाइए कीवे कुंभी इस्सालुए इअ / सउणी तक्कमसेवी अ पक्खिआपक्खिए इअ॥ सोगंधिए आसित्ते वद्धिए चिप्पिए इअ / मंतो-सहीउवहए इसिसत्ते देवसत्ते अ॥ पण्डकः, वातिकः, क्लीबः, कुम्भी, ईर्ष्यालुः, शकुनी, तत्कर्मसेवी, पक्षिकाऽपक्षिकः, सौगन्धिकः, आसिक्तः, वर्द्धितः, चिप्पितः, मन्त्रोपहत, औषध्युपहतः, ऋषिशप्तः, देवशप्तः / तत्र पण्डकस्येमानि षड् लक्षणानि 'महिलासहावो सरवन्नभेओ मेंढं महंत मउआ अ वाणी / ससहयं मुत्तमफेणगं च एआणि छप्पंडगलक्खणाणि' // पुरुषाकारधारिणोऽपि महिलास्वभावत्वं पण्डकस्यैकं लक्षणं, तथाहि-गतिस्तस्य पदाकुला मन्दा भवति, सशकं पृष्ठतोऽवलोकमानो गच्छति / शरीरं च शीतलं मृदु च भवति / योषिदिवाऽनवरतं हस्तोभका प्रयच्छन् उदरोपरि तिर्यग् व्यवस्थापितवामकरतलस्य उपरिष्टादक्षिणकरकूर्पूरं विन्यस्य दक्षिणकरतले प मुखं कृत्वा बाहू च विक्षिपन भाषते / अभीक्ष्णं च कटीहस्तकं ददाति / प्रावरणाभावे श्रीवा बाहुभ्या पुरुमा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु-चर्या हृदयमाच्छादयति / भाषमाणश्च पुनः पुनः सविभ्रम भ्रयुगमुत्क्षिपति / केशबन्धन-प्रावरणादिकं च स्त्रीवत् करोति / योषिदाभरणादिपरिधानं बहु मन्यते / स्नानादिकं च प्रच्छन्नं समाचरति / पुरुषसमाजमध्ये च सभयं शङ्कितस्तिष्ठति / स्त्रीसमाजे तु निःशङ्कितः प्रमदोचितं च रन्धनखण्डनपीषणादिकं कर्म प्रविधाति इत्यादि महिलास्वभावत्वं पण्डकलक्षणम् / अपरं च स्वरवर्णभेदः / उपलक्षणत्वाद् गन्धरसस्पर्शाश्च स्त्रीपुरुषापेक्षया विलक्षणास्तस्य भवन्तीत्यर्थः। मेंढूं-पुरुषचिह्नं महद्भवति / मृद्वी च वाणी ललनोया इव सञ्जायते / योषित इव सशब्दं मूत्रमभिजायते फेनरहितं च तद्भवति / एतानि षट् पण्डकलक्षणानि 1 / वातिको नाम यस्य मोहकर्मोदयेन सागरिकं सविकारं जातं सत् स्वभावस्थं न स्याद् यावदनाचारं नाऽचरति 2 / क्लीबः-क्लीब्यते इति क्लीबो गुणनिष्पन्ननामा, यस्य मैथुनाभिप्राये अङ्गादानं विकारं भजति बीजबिन्दूँश्च गलति / यदि निरुणद्धि तदा कालान्तरेण तृतीयः स्यात् 3 / यस्य तु वृषणौ श्वयतः-शोफं भजतः स कुम्भी / स च द्विधा-वातदोषेण यस्य सागारिकं वृषणौ वा श्वयति स जातिकुम्भी-रोगीत्यर्थः / यस्य पुनर्मोहोत्कटतया सागारिकं वृषणौ वाऽसेवमानः श्वयति, स वेदकुम्भी 4 / यस्य प्रतिसेवमानं दृष्ट्वा ईर्ष्याऽभिलाष उत्पद्यते, स ईर्ष्यालुर्वेदोस्कटः स्त्रीमलभमानस्तृतीयः स्यात् 5 / वेदोत्कटतया अभीक्ष्णप्रतिसेवनासक्तो गृहचटक इव शकुनी भवति।यो मैथनमासेवमानो बीजनिसर्गे जाते जिह्वया श्वान इव तदेव लेढि, स तत्कर्मसेवी सोऽप्यसेवकस्तृतीयः स्यात् 7 / यस्य शुक्लपक्षे शुक्लपक्षे अतीव मोहोद्भवः स्यात् द्वितीयपक्षे त्वल्पः / अथवा शुक्लपक्षे कृष्णपक्षे वा पक्षं यावदतीवोदयः स्यात् तावन्मात्रमेव च कालमल्पोदयः स पक्षिकापक्षिकः 8 / यः सागारिकं जिघ्रति तन्मलित्वा हस्तं जिघ्रति, तद्गन्धं च शुभं मन्यते, स सौगन्धिकः 9 / यः सागा. रिकं स्त्रीसागारिकेऽनुप्रवेश्य तिष्ठति, स आसिक्तः, सोऽपि मोहोत्कटतयातीव व्यसनी निरुद्धबस्तिः कालान्तरेण तृतीयः स्यात् 10 / एते पण्डकादयो दश नपुंसका नगरमहादाहसमानकामाध्यवसाय सम्पन्नत्वात् घ्याद्यासेवामाश्रित्यातीवाशुभाध्यवसायवत्त्वाच दीक्षाऽनर्हाः। शेषाः पुनः षट् वर्द्धितादयो नपुंसका निशीथोक्तविशेषलक्षणसम्भवे प्रव्रज्यायोग्याः। तेषामिदं स्वरूपम्-आयत्यां राजान्तःपुरमहलकपदप्राप्यादिनिमित्तं यस्य बालत्वेऽपि छेदं दत्त्वा वृषणौ गालितौ भवतः, स वर्द्धितकः / यस्य तु जातमात्रस्याङ्गष्टाङ्गलिमिर्मईयित्वा घृषणौ द्राव्येते, स चिप्पितः / एतयोश्चैवं कृते सति किल नपुंसकवेदोदयः सम्पद्यते / कस्यचितु मन्त्रसामर्थ्यादन्यस्य त्वौषधिसामर्थ्यात् पुरुषवेदे स्त्रीवेदे वा समुपहते सति नपुंसकवेदः समुदेति / अपरस्य तु मदीयतपःप्रभावान्नपुंसको भवत्विति ऋषिशापादन्यस्य तु देवशापात्तदुदयो जायते इति / एतेषामष्टचत्वारिंशतः प्रव्रज्यानर्हाणामुत्सर्गापवादपदाभ्यां प्ररूपणा प्रकल्पे प्रदर्शिता विस्तरेण सा तत एवावसेया / एतेभ्योऽपरे सर्वेऽपि जातिकुलविनयादिगुणसम्पन्ना बहुक्षीणप्रायकांशाः प्रव्रज्याया योग्या मन्तव्याः / यश्च प्रव्रज्यार्थमुपस्थितो भवति, स एवं पृच्छचते-कोऽसि त्वं ? किं निमित्तं प्रव्रजसि ? किञ्च ते वैराग्यमिति पृष्टो यदि शुद्धोऽवगतः, ततस्तस्याग्रे साधुचर्या एषा कथ्यतेयावजीवं गोचरचर्यया मिक्षामटित्वाऽचित्तस्यैषणाविशुद्धस्याहारस्य भोजनं कर्तव्यम् / तदपि बालवृद्ध शक्षकादि-संविभागेन / नित्यं चतुष्कालं स्याध्यायो विधातव्यः / यावज्जीवं देशतः सर्वतश्चाऽस्नानम् / ऋतुबद्धे काले भूमौ शय्या, वर्षा रात्रे फलकादिशयनं / दिवसे न स्वतव्यं, रात्रौ तृतीये यामे निद्रामोक्षः / भवादश शीलासहस्रा धरणीयाः / लोचादिकाः शा अनेके कार्याः / एवमुक्ते यदि स सर्वमभ्युपा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे गच्छति, तदा तस्य सूत्रोक्तविधिनो प्रव्रज्या प्रदेया / ततस्तस्य प्रोसुक आहारो दीयते / स च भिक्षां न हिण्डाप्यते किन्त्वहिण्डमान एव ग्रहणशिक्षामासेवनशिक्षां च ग्राह्यते / ग्रहणशिक्षा नाम पाठः / आसेवनाशिक्षा-सामाचारीशिक्षणम् / यदा च द्विविधामपि शिक्षा ग्राहितोऽधीतषड्जीवनिकायाध्ययनम्व स स्यात् तदा तस्याग्रे तदर्थः कथ्यते / ततोऽधिगतोऽर्थोऽनेन सम्यक श्रद्धानविषयीकृतश्च यदि तदानीं तस्येत्थं परीक्षा क्रियते, यथा-उच्चारप्रश्रवणादिपरिष्ठापनार्थमस्थण्डिलं सचित्तपृथिवीकायात्मकं दयते / यदि तत्र न परिष्ठापयति स्थाननिषदनादि च न करोति, तदा ज्ञायते सम्यक् परिणतोऽस्य धर्म इति / एवमप्कायविषये नदीतटाकाादकसमीपे परीक्षा / तेजःकाये साऽग्निवसतौ प्रदीपमवष्वष्कय उत्ष्वष्कय वा / तथा वातविषये धर्मात्ततॊ भण्यते-तालवृन्तादिना बातोदीरणां कुरु, अभिधारणं वा कुरु, यदि न करोति तदा परिणतः / हरितकाये त्रसेषु च पृथिव्यामिव परीक्षा कार्या / एवं गोचरगतोऽपि पृथिव्यादिभिः कायैः परी श्यते, तद्यथा-सरजस्केनोदकाण वा हस्तेन मात्रकेण वा भिक्षा ग्राह्यते, इत्यादि परीक्षया त्रिविधत्रिविधेन, षड़जीवनिकायपरिहारी स यद्यवगम्यते तदा व्रतारोपणयोग्यः / ततो द्रव्यादौ प्रशस्ते तस्य आचार्येणास्मनो वामपार्श्वे स्थापितस्य व्रतारोपणरूपोपस्थापना यथाविधि विधेया / ततो दिग् निबध्यते द्विविधा, त्रिविधा वा। तत्र साधोद्विविधा / तद्यथा-आचार्यस्योपाध्यायस्य च / प्रतिन्यास्त्रिविधा / तद्यथाआचार्यस्योपाध्यायस्य प्रवर्त्तिन्याश्च / तथा-उपस्थापनानन्तरं तपः कार्यते / तच्चाऽभक्तार्थमाचारलं. निर्विकृतिकं वा / तथा द्वौ पितापुत्रौ प्रबजितौ यदि द्वावपि युगपत् प्राप्तौ, तर्हि युगपदुपस्थाप्यते / अथ पुत्रः सूत्रादिभिरप्राप्तः स्थविरस्तु प्राप्तस्तर्हि तस्योपस्थापना विधेया / यदि पुनः पुत्रः प्राप्तः, स्थविरस्त्वप्राप्तः तर्हि यावदुपस्थापनादिवसः शुद्धः समेति तावत् स्थविरः प्रयत्नेन शिक्ष्यते, यदि तावताः प्राप्तो भवति, ततो द्वोवपि युगपदुपस्थाप्यते / अथाऽऽदरेण शिक्ष्यमाणोऽपि,न प्राप्तस्तदा स्थविरेणानुज्ञाते. सति क्षुल्लक उपस्थाप्यते / अथ स्थविरो न मन्यते, तदा प्रज्ञापना कर्तव्या राजादिदृष्टान्तेन / स चैवम्ला '.एगो राया रजपरिभट्ठो सपुत्तो अन्नरायाणमोलग्गिउमाढत्तो। सो रायो पुत्तस्स तुट्ठो। तं से पुत्तं. रजि ठाविउमिच्छह / किं सो पिआ नाणुजाणइ ? / एवं तव जइ पुत्तो महब्बयरज्जं पावह सा किन मनसि ? / एवं प्रज्ञापितेन स्थविरेणानुज्ञाते क्षुल्लकस्योपस्थापना कर्तव्या / अथ स यद्येवं प्राप्यमानो नेच्छति तदा पञ्च दिवसान् यावत्तिष्ठन्ति / ततः पुनरपि प्रज्ञाप्यते / तथाऽप्यनिच्छायां पुनरपि : पश्चाहं तिष्ठन्ति / पुनः प्रज्ञाप्यते तथाऽप्यनिष्टौ भूयः पञ्चाहमवतिष्ठन्ते / एवं यदि त्रिपञ्चाहकालेन : स्थविरः प्राप्तो भवति, तदा युगपदुपस्थापना / अतः परं स्थविरेऽनिच्छत्यपि क्षुल्लक उपस्थाप्यते / अथाऽहङ्कारी सन्नहं पुत्रादवमतरो भविष्यामीति विचिन्त्य कदाचिदुन्निष्कामेत् / गुरोः क्षुल्लकस्य चोपरि प्रद्वेषं गच्छेत् / एवं स्वरूपे ज्ञाते त्रयाणां पञ्चाहानामुपर्यपि क्षुल्लकः प्रतीक्षाप्यते यावत्तेनाऽधीतमिति / एवं राजाऽमात्ययोः, राज्ञा च सह श्रेष्ठिसार्थवाहयोरपि वक्तव्यम् / एवं संयतीमध्ये मातादुहिनोईयोः, महादेव्यमात्यपन्योः, श्रेष्ठिसार्थवाहपत्न्योन्ध निरवशेषं वाच्यम् / ते चोपस्थाप्यमाना गुरोर्वामपार्श्वस्था. एकोऽनेको वा गजदन्तवदवनता भवन्ति / तत्र यदि ते गुरुसमीपमग्रतो वाऽभिसरन्ति तदा गज्छस्य, वृद्धिर्ज्ञातव्या / यथाऽन्येऽपि बहवः प्रव्रजिष्यन्ति / अथ पश्चाद् बहिर्वाऽपसरन्ति तदा स उपस्थाप्यमानोऽन्यो वा उन्निष्क्रमिष्यति अपद्रविष्यति बेति निमित्तम् / तथो-आचार्य उपाध्यायो वा सरन, माधुरयमुपस्थापना) जात इति जानानश्चतूरात्रमध्ये पञ्चरात्रमध्ये वा तन्नोपस्थापयति तत्र यदि Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपत्यापनाविषयो विधि: तस्थ कल्पाकस्य कश्चिन् माननीयः पिता भ्राता वा ज्येष्ठः स्वामी वा कल्पाको भावि पञ्चरात्रेण पञ्चदशरात्रेण वा ततो नास्ति तस्य प्रायश्चित्तम् / माननीयेऽनुपस्थापिते तस्योपस्थापनाया अयोगात् / अथ नास्ति तस्य कश्चिन् माननीयः कल्पाको भावि ततस्तस्याऽऽचार्यस्योपाध्यायस्य वा प्रायश्चित्तम् / अनादेशद्वयम्-एके प्राहुन्धतूरात्रात् परं यद्यन्यानि चत्वारि दिनानि नोपस्थापयति, तत आचार्यस्योपाध्यायस्य च प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम् / अथ ततोऽप्यन्यानि चत्वारि दिनानि लयति, ततः पडलधुकं / ततोऽप्यन्यानि चेञ्चत्वारि दिनानि ततः षड्गुरुकं / ततोऽप्यन्यानि यदि चत्वारि दिनानि ततश्चतुर्गुरुक-छेदः / परमन्यानि चत्वारि दिनानि यदि तर्हि षडलघुक छेदः / ततोऽपि चेदन्यानि चत्वारि सतः षड्गुरुक छेदः / ततः परमेकैकदिवसातिक्रमे मूलानवस्थाप्यपाराश्चितानि / द्वितीयादेशवादिनः प्राहुः-पश्चरात्रात् परं यदि नोपस्थापयति ततश्चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम् / परं यदि पञ्चदिनानि लङ्घयति ततः षड्लघुकं / ततः परमपि पञ्चरात्रातिक्रमे षड्गुरुकम् / ततोऽपि परं यदि पञ्चदिनानि वाहयति ततश्चतुर्गुरुक छेदः / ततः परमन्यानि चेत् पञ्चादिनानि ततः षडलघुकश्छेदः / ततोऽपि पनराजातिवाहने षड्गुरुक-छेदः / ततः परमेकैकदिवसातिवाहने मूलानवस्थाप्यपाराश्चितानि / अथ दर्पप्रमादध्याक्षेपग्लानत्वकारणैरस्मरन् नोपस्थापयति, तत्र व्यायामवल्गनादिषु व्यापृततया यो निष्कारणोऽनादरः स दर्पः, तेनानुपस्थापने प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः / विकथादीनां पञ्चानां प्रमादा. नामन्यतमेन प्रमादेनानुपस्थापने चत्वारो लघुकाः / सीवनतुन्नस्वाध्यायध्यानपात्रलेपादिदानकायों व्याक्षेपः, तेनानुपस्थापने गुरुको मासः / ग्लानत्वेन त्वनुपस्थापने लघुमासः / अथ राज्ञो युवराजस्यामात्यादेर्वा प्रतिदिवसमागच्छतो धर्मकथा. कथ्यते / परप्रवादी वा कश्चनाऽप्युपस्थितः स वादे निग्रहीतव्य इति तन्निग्रहणाय. विशेषतः शास्त्राभ्यासे, तेन सह वादे वा दीयमाने, यदि पाऽऽचार्यस्यान्यस्य वा साधोर्यो उपस्थाप्यः तस्य वाऽत्युत्कटे ग्लानत्वे जाते व्याकुलीभवनतः स्मरन्नस्मरन् वा यद्यपि नोपस्थापयति तथापि न तस्य प्रायश्चित्तं, कारणतो व्याकुलीभवनात् / अथाऽऽचार्य उपाध्यायो वा यदा स्मरति तदा न साधकं नक्षत्रादिकं, यदा तु साधकं नक्षत्रादिकं तदा बहु व्याक्षेपतो न स्मरति / एवं स्मरन्नस्मरश्च कल्पाकं नोपस्थापयति / तत्र यदि तस्य कश्चिन्माननीयः कल्पाको भावी तदा तदपेक्षया तस्यानुपस्थापनेऽपि न प्रायश्चित्तम् / अथ नास्ति कश्चिन्माननीयः कल्पाको भावी तदा दशदिवसातिक्रमे चत्वारो गुरुकाः / ततः परं दशदिनातिक्रमे षडलघुकम् / ततः परमपि दशदिनातिवाहने षड्गुरुकम् / ततोऽपि दश दिनोतिक्रमे चतुर्गुरुकश्छेदः / ततोऽपि दशदिनातिक्रमे षडलघु*छेदः / ततोऽपि दशदिनातिक्रमे षड्गुरुकछेदः / तत एकैकदिनातिक्रमे मूलोनवस्थाप्यपाराश्चितानि / एष प्रथममादेशो, द्वितीयादेशे पुनस्तपसा छेदेन वाऽनम्यमानेऽथवा धृतिबलेन कायबलेन वा दुर्बले तपस छेदस्य वा दातुमशक्यतया संवत्सरं यावदाचार्यत्वहरणं, गणो ह्रियते इति भावः / एवमुपस्थापनाविषयो विधिर्निशीथादौ विस्तरेणाभिहितः / तदन्यथाकरणे प्रायश्चित्तम् / तच्च-' अप्पत्ते अकहिता' इत्यादि प्रस्तुतगाथयाऽत्र प्रतिपाद्यते / इति सैव साम्प्रतं प्रतन्यते / अप्राप्ते श्रुतेन पूर्वकाले शत्रपरिज्ञाध्ययनपर्यन्तेन सम्प्रति षड्जीवनिकायपर्यन्तेन पर्यायेण वा षण्मासादिकेन / तथा अकथयित्वा जीवाऽजीवान् बन्धं मोक्षं च / उपलक्षणमेतत तेन पृथिव्यादयो जोवाः / धर्माधर्माऽस्तिकायादयोऽजीवा आश्रवो बन्धः पुण्यं पापं संवरो निर्जरा मोक्षश्च / एतान्नवपदार्थान् Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे सभेदान् कर्मबन्ध-भेदहेतूंश्चाकथयित्वा / उपलक्षणत्वादनधिगते जीवाजीवादी तथा षड्जीवनिकायरक्षाविषयपरीक्षाया अभावे / इदमुक्तं भवति येन षड्जीवनिकायाध्ययनं पठितं, न च तस्यार्थः भुतः / अथ श्रुतः, परं नावगतः। अवगतोऽपि न श्रद्धानविषयीकृतः। यश्च षड्जीवनिकायरक्षाविषये न परीक्षितः तस्योपस्थापने क्रियमाणे उपस्थापयितुः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। न केवलमेतत् प्रायश्चित्तं किन्त्वाज्ञादयो दोषाः / विराधना या पूर्वभणिता सा चेयम्-उपस्थापितो भिक्षादौ किल कल्पिको भवति / ततस्तस्य मिक्षादिप्रेषणे षण्णां जीवनिकायानां विराधना अपरिज्ञानात् / ततस्तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चित्तं उपस्थापयितुरुपढौकते / स च महावतानामयोग्योऽत्र मालया दृष्टान्तो, यथा-स्थाणौ शूलाप्राये पञ्चवर्णः . सुगन्धपुष्पमाला समारोप्यमाणा न शोभते / एवमयोग्येऽपि पञ्चमहाव्रतमाला न शोभते / एवं सूत्रार्थाप्राप्तोपस्थापनाविषयं प्रायश्चित्तमुक्तम् / अथ सूत्रार्थाऽऽशातनाविषयं तदाहसामण्णेणं सुत्तासायणि चउलहुग चउगुरू अत्थे। लहुगुरुलहुगा वा तदुवगरणवन्नासु तिविहासु // व्याख्या-सामान्येन-ओघेनाऽऽगाढाऽनागाढाद्यविशेषेण सूत्राऽऽशातनायां सूत्र-परमाप्तप्रणीताऽऽगमरूपं तस्याऽऽशातनायोमविधिपाठादिरूपायां चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् / अर्थ-अर्थविषयायामाशातनायामविधिश्रवणादिरूपायां चतुर्गुरवः / तदुपकरणावज्ञासु त्रिविधासु / तस्य ज्ञानस्योपकरणानि पुस्तकपट्टिकादीनि, तेषामवज्ञास्वाशातनासु त्रिविधासु जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदासु यथाक्रमं लघुगुरुलघुका वा / जघन्यावज्ञायां लघुमासः, मध्यमावज्ञायां गुरुमासः, उत्कृष्टावज्ञायां चतुर्लघव इत्यर्थः / अत्र वाशब्दः समुच्चये पूरणे वा / अथाविधिसूत्रार्थग्रहणादिविषयं प्रायश्चित्तमाहभूअपमजणुओग-काल-अविसजणाइसु अ भिन्नं / अक्खनिसिजअविहि चउ-गुरु असमायारि लहु सेसे // व्याख्या-भूः-भूमिः सूत्रमण्डल्यर्थमण्डल्योः प्रक्रमात् भोजनमण्डल्याश्च स्थानं, तस्या अप्रमार्जने अनुयोगकालाविसर्जनादिषु च / अनुयोगकालयोरविसर्जनम्-अप्रतिक्रमणम् , आदिशब्दात् सम्पूर्ण श्रुतस्कम्धपरावर्त्तनानन्तरं कायोत्सर्गाकरणं, तेषु भिन्न-भिन्नमासः। अक्षनिषद्याऽविधौ। अनुयोगकालेऽक्षाणामस्थापने गुरुयोग्याऽक्षयोग्यनिषद्ययोरकरणे चतुर्गुरवः / शेषे-अविधौ अनुयोगग्रहणशेषविध्यकरणे असमाचारीनिष्पन्नो लघुमासः / तद्यथा-अनुयोगप्रारम्भे गुरूणां वन्दनकाऽदाने कायोत्सर्गाकरणे च लघुमासः। अथ श्रुतोपचारयोगस्य भङ्गे प्रायश्चित्तमाहआगाढाणागाढस्स सव्वभंगे अ देसभंगे अ / जोगस्स कमा छल्लहु चउगुरुचउगुरुगचउलहुगा // 35 // व्याख्या-योगो द्विधा-आगाढोऽनागाढश्च / उभयोरपि सर्वभङ्गोऽयं-यदाऽऽचामाम्लं न करोति विकृती(क्ते / देशभङ्गस्तु-योगसमाप्तौ विकृतीभुक्त्वा पश्चाद्विकृत्यादानकायोत्सग करोति, स्वयमेव. वा गुरोरसमक्षं विकृत्यादानकायोत्सर्ग करोति, स्वयमेव वा गुरोरसमक्षं विकृत्यादानकायोत्सर्ग कृत्वा भुक्ते / अभणितोऽपि वा गुरून् भणति-सन्दिशत विकृत्यादिकायोत्सर्ग करोमि, एकपात्रके विकृतिमाचा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनाचारातिचारप्रायश्चित्तम् माम्लपायोग्यं वाऽऽदत्ते / इह क्रमाद्-यथाक्रममागाढयोगस्य सर्वभङ्गे षड्लघु / देशभङ्गे चतुर्गुरु / अनागाढयोगस्य सर्वभङ्गे चतुर्गुरुकाः / देशभङ्गे चतुर्लघुका इति ज्ञानाचारातिचार-प्रायश्चित्तमुक्तम् / अधुना दर्शनाचारातिचारप्रायश्चित्ताधिकारः / तत्र दर्शनं-देवगुर्वादितत्त्वसम्यश्रद्धानलक्षणमतः प्रथम देवगुर्वाद्याशतिनाविषयं प्रायश्चित्तमाहजिणजिणहरठवणगुरू गुरु-आवलियाण तिविहऽवन्नाए / लहु-गुरु-लहुगा ठवणा-यरियावलि-नासि लहुगुरुगा // 36 // व्याख्या-जिना-जिनबिम्बानि जिनगृहाणि-जिनप्रासादाः स्थापनागुरवो-ऽक्षाद्या गुरवःप्रत्यक्षा आचार्यप्रभृतयः आवलिका-जपमाला / एतेषां त्रिविधाऽवज्ञायां-त्रिविधाशातनायां जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदायां यथाक्रमं लघुगुरुलघुकाः। जिनबिम्बादीनां जघन्याशातनायां लघुमासः। मध्यमाशातनायां गुरुमासः / उत्कृष्टाशातनायां चत्वारो लघुका इत्यर्थः / स्थापनाचार्यावलिकानाशे लघुगुरुकोस्थापनाचार्यनाशे लघुमासः, जपमालानाशे गुरुमास इति भावः / कचित्पुनरेवं-ठवणायरिआवलिआनासे गुरुगो अ आयामम् / अथ दर्शनाचाराऽतिचारप्रायश्चित्तमाहसंकाइसु तिसु देसे गुरुगा मूलं तु सव्वहिं होइ / दिट्ठीमोहे अपसंसणे अथिर अकरणे लहुगा // 37 // व्याख्या- इह दर्शनाचाराऽतिचारोऽष्टधा / तद्यथा-शङ्का-ऽऽकाङ्क्षा विचिकित्साऽमूढदृष्टिरुपबंहा स्थिरीकरणं वात्सल्यं प्रभावना चेति / तत्र संशयकरणं शङ्का / सा द्विधा-देशतः सर्वतश्च / तत्र देशतः तुल्येऽपि जीवत्वे कथमेके भव्या अपरे त्वभव्या ? इत्यादि / सर्वतस्तु प्राकृतभाषानिबद्धमिदं श्रुतं, न ज्ञायते किं सर्वज्ञेन प्रणीतं आहोश्वित् कुशलमतिना केनापि परिकल्पितमिति 1 / अन्याऽन्यदर्शनग्रहणमाकाङ्क्षा / साऽपि देशत एक किश्चित् कुतीर्थिकमतमाकाङ्क्षति / यथा-अस्मिन्नपि खल्वहिंसैव धर्मों मोक्षश्च फलमुच्यते / सर्वतः सर्वाणि-शाक्या-ऽऽजीवक-कपिल-बोटिको-लूक-वेदतापसादिकुमतान्याकाङ्क्षति, कृषीबल इव सर्वधान्यवपनानि कदाचित् किश्चित् फलतीति धिया 2 / विचिकित्सा-आत्मनः फलं प्रत्यनाश्वासो, यथा-आसीत्तादृशानुष्ठायिनां पुरातनानां महासत्त्वानां मोक्षः, अस्मादृशानां त्वस्नानकेशलुश्चनादिकं कष्टमेव मन्दसत्त्वत्वात् क मोक्षसम्भव ? इति देशतः स्तोकोऽनाश्वासः / सर्वतस्तु सर्वथाऽनाश्वासः / यद्वा-' विदक् ज्ञाने ' विदन्तीति किब्लोपे विदः-साधवः तेषां जुगुप्सा / देशतोऽहो ! मलदुर्गन्धा इमे मुनयो यद्यष्णोदकेन स्नायुस्तदा को दोषः ? स्यादित्यादि / सर्वतस्तु मण्डल्या नन्दिपात्रे मिथः संसृष्टभोजिनोऽमी गुप्तिगृहवासिन इव महामलीमसाङ्गवाससः प्रागदत्तदानत्वेनाऽऽजन्म भिक्षाचरा इत्यादि 3 / मूढदृष्टिः-परतीर्थिनां राजादिकृतां पूजा मन्त्राद्यतिशयान् वा दृष्ट्वा, तदाऽऽगमान् वा श्रुत्वा मतिव्यामोहो देशतः स्तोकः / सर्वतस्तु सर्वथा 4 / उपहा-प्रशंसा। सा ज्ञानदर्शन-तपः-संयम-वैयावृत्त्याधुद्यतानां साध्वादीनामुत्साहवृद्धिहेतुः प्रशस्ता, मिथ्यादृशां-शाक्यचरकादीनां त्वसावप्रशस्ता 5 / स्थिरीकरणं-सीदतश्चारित्रादिषु स्थैर्यहेतुः प्रशस्तम् , असंयमविषये पुनस्तदप्रशस्तम् 6 / वात्सल्यम्-आचार्यग्लोनप्राघुर्णकतपस्विसेहासहबालवृद्धादीनामाहारोपध्यादिना समाधि Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जोतकल्पे सम्पादनं प्रशस्तं, गृहस्थपार्श्वस्थाधुपष्टम्मरूपं तु तदप्रशस्तम् 7 / प्रभावना च तीर्थकरप्रवचनादिविषया प्रशस्ता, कुतीथि कविषयो त्वप्रशस्ता 8 / इह चोपबहादीनां प्रशस्तानामकरणेऽतिचारता, अप्रशस्तानां तु करणे / देशसर्वभेदश्वोपबृंहादीनामपि शङ्कादीनामिव ज्ञेयः / इति दर्शनाचारातिचारस्याष्टौ भेदाः / तत्र शङ्कादिषु-शङ्का-काक्षा-विचिकित्सासु तिसृषु देशतो गुरुकाश्चत्वारः, सर्वतः पुनः शङ्कादिषु तिसृष्वपि मूलं-सर्वपर्यायछेदो भवति / तपोऽर्हप्रायश्चित्ताधिकारेऽपि मूलमत्र लाघवार्थमभ्यधायि / दृष्टिमोहेमूढदृष्टौ अप्रशंसने-ज्ञानदर्शनतपः-संयमादिगुणानामनुपहायाम् अस्थिरीकरणे च-चारित्रादिषु सीदतां स्थैर्यानापादने चत्वारो लघुकोः प्रायश्चित्तम् / अथाऽवात्सल्यप्रायश्चित्तं विषयविभागेनाऽऽहगुरुमाऽऽयरिअगिलाणाऽवच्छल्ले लहुग खवगपाहुणए / गुरुगो अ बालवुड्डे सेहे अ महोअरे लहुओ॥ व्याख्या-इह साधुना सर्वेषां साधर्मिकाणां साध्वादीनामाहारवस्त्रपात्रभेषजौषधपादशौचाऽ. भ्यङ्गनविश्रामणादिभिः सर्वस्थाम्ना वात्सल्यं कर्त्तव्यं, गुरुग्लानादीनां तु विशेषतः / तेषां तदकरणे प्रायश्चित्तं, यथा-आचार्यग्लानाऽवात्सल्ये-आचार्यग्लानयोर्वात्सल्याऽकरणे प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः। क्षपकः प्राघुर्णकयोः-क्षपकः-तपस्वी विकृष्टतपष्कारी प्राघुर्णको-ग्रामान्तरादागतस्तयोर्वात्सल्याऽकरणे चत्वारो लघुकाः / बालवृद्धयोरवात्सल्ये गुरुको मोसः। शैक्षे-अभिनवप्रव्रजिते महोदरे च-बहुभोजिनि वात्सल्याऽविधाने लघुको मासः / चशब्दात् सामान्यतः साधर्मिकवात्सल्याऽकरणे लघुमासः / अथाऽप्रभा. वनाप्रायश्चित्तमाहसामन्नेणं गुरुगा ससत्तिए अप्पभावणे अहवा / गुरुवसभभिक्खुथेरे खुड्डे गुरुगाइ मिन्नतं // 39 // व्याख्या-इह यद्यपि प्रवचनं शाश्वतत्वात्तीर्थकरभाषितत्वात् सुरासुरनरनमस्कृतत्वाद् वा स्वयमेव दीप्यते तथापि गुणाधिकपुरुषाः स्वस्य दर्शनशुद्धये प्रवचनं प्रभावयन्ति, ते च प्रवचनप्रभावका अतिशय्यादयः / उक्तं च 'अइसेसिइड्ढिधम्मकहिवाइआयरिअ खवगनेमित्ती / विज्जा रायगणसंमया य तित्थं पभाविति / अस्या अक्षरगमनिका-अतिशयी-अवधि-मनःपर्यायज्ञानयुक्तोऽतिशय्यध्ययनो वा / ऋद्धिग्रहणात् राजामोत्यादिः ऋद्धिमान् दीक्षाग्रोहकः / आमोषध्यादि-ऋद्धिप्राप्तो वो / धर्मकथी-आक्षेपणीविक्षेपणी-निवेदनी-संवेदनीकथाभियों धर्ममाख्याति / वादी-वादलब्धिसम्पन्नः / आचार्यः स्वपरसिद्धान्तप्ररूपकः / क्षपकः-तपस्वी / नैमित्तिकः-अष्टाङ्गनिमित्तवेत्ता / विद्याग्रहणात् विद्यासिद्धः / राजगणसंमताश्च / राजसंमता मन्त्र्यादयः , गणसंमता महत्तरादयः, चशब्दाद् दानश्राद्धादिपरिग्रहः / एते तीर्थ-प्रवचनं प्रभावयन्ति / शक्तौ सत्यामेतस्याऽप्रभावने च प्रायश्चित्तं, तद्यथा-सामान्येन-अविशेषेण स्वशक्तौ-स्वसामर्थ्य सत्याम् अप्रभावने प्रवचनस्य चत्वारो गुरुकाः। अथवा पूर्वोक्ताः प्रभावकाः / एतेषां पञ्चानामाचार्यादीनामन्तर्गता अतस्तद्विभागेन दर्शयति-गुरुवृषभभिक्षुस्थविरक्षुल्लेषु गुरुकादि भिन्नान्तं प्रायश्चित्तम् / आचार्यस्य प्रवचनाऽप्रभावने चतुर्गुरुकाः / उपाध्यायस्य चतुर्लघुकोः / भिक्षोपेरुमासः। स्थविरस्य लघुमासः / क्षुल्लस्य भिन्नमास इत्यर्थः / Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमवतातिचारप्रायश्चित्तम् अथाऽप्रशस्तोपबृहोदिकरणे प्रायश्चित्तमाहमिच्छत्तीर्ण उववृह-भत्ति-थिरकरण-वच्छलाईसु / खुड्डगभिक्खू-वसभाऽऽयरिए लहुगुरुलहुगगुरुगा // व्याख्या-मिथ्यात्विना-कुतीर्थप्रवृत्तजनानाम् उपबृहा-प्रशंसा, भक्तिः-सेवा, स्थिरीकरण वात्सल्यम् , आदिशब्दात् प्रभावना च / एतेषु क्षुल्लकभिक्षुवृषभाऽऽचार्याणामनुक्रमेण लघुगुरुलघुकगुरुकाः / क्षुल्लकस्य लघुमासः, भिक्षोर्गुरुमासः, उपाध्यायस्य चतुर्लघु, आचार्यस्य चतुर्गुरु इत्यर्थः / इति दर्शनाचारातिचारप्रोयश्चित्तमभिहितम् / साम्प्रतं चारित्राचारातिचारप्रायश्चित्तमाहसमिईसु अ गुत्तीसु अ लहुगो ओहेण असमिइ अगुत्ते / आणाइविराहणया विसेसओ भणिही उवरि // 41 // व्याख्या-इह समितयः पञ्च-ईर्यासमितिः, भाषासमितिः, एषणासमितिः, आदाननिक्षेपसमितिः , पारिष्ठापनिकासमितिः / गुप्तयस्तिस्रः-मनोगुप्तिः, वचनगुप्तिः, कायगुप्तिः। तत्र जन्तुजातरक्षानिमित्तं युगमात्रभूमिकान्तरदत्तदृष्टेरव्याक्षिप्तचित्तस्य प्रतिपदं चक्षुषा विशोधयतः साधोः संयमोपकरणाद्यर्थं या गमनक्रिया सा ईर्यासमितिः / मृदुमधुरानवद्यहितमितवचनभाषणं भाषासमितिः / सूत्रानुसारेण रजोहरणवस्त्रपात्राऽशनपाननिलयौषधान्वेषणम् एषणासमितिः। धर्मोपकरणानां प्रतिलेखनाप्रमार्जनापूर्वकमेव ग्रहणमोचनमादाननिक्षेपसमितिः। मूत्रमलश्लेष्मपुरीषादीनां विवेकाह-संसक्तभक्तपानादीनां वा जन्तुविरहिते स्थण्डिले विधिना परिष्ठापनं. पारिष्ठापनिकासमितिः। सावधमनःसङ्कल्पगोपनं मनोगुप्तिः / सावधवचनरोधनं मौनेन वाऽवस्थानं वाग्गुप्तिः। कायव्यापारनिवारणं कायगुप्तिः / ननु समितिगुप्योः कः प्रतिविशेषः ? , उच्यते-समितिापाररूपा गुप्तिस्तु व्यापाराव्यापाररूपा / यदुक्तं‘समितीण य गुत्तीण य एसो भेओ उ होइ नायब्वो। समिई पयारहवा गुत्ती पुण उभयरूवा उ / / समिओ नियमा गुत्तो गुत्तो समिअत्तणंमि भइअव्यो / कुसलवयमुदीरितो जं वयगुत्तो वि समिओ वि / / समिई पयाररुवा गुत्ती पुण हुंति उभयहवा उ / कुसलवयमुदीरितो तेणं गुत्तो वि समिओ वि // गुत्तो पुण जो साहू अप्पविओरोइ नाम गुत्तीए / सो न समिओ त्ति वुच्चइ तीसे उ विआररूवत्ता' / एतासु पञ्चसु समितिष्वसमिते तिसृषु गुप्तिष्वगुप्ते च ओघेन-सामान्येन मासलनुकः / आज्ञाभङ्गादयो दोषा आत्मसंयमविराधना च स्यात् / विशेषतः पुनश्चारित्राचारातिचारप्रायश्चित्तं पञ्चमहोब्रतादिक्रमेण उपरिष्टाद् भणिष्यते / तत्र प्रथममहाप्रतातिचारप्रायश्चित्तं त्रयोदशगाथामिः प्रतिपादयतिपुढवाइएसु घट्टणमगाढगाढपरिआवणुद्दवणे / मिन्नं लहु-गुरु-चउलहु अणंति लहुगुरुलहुगगुरुगा // घ्याख्या-पृथिव्याविषु-षष्ठीसप्तम्योर) प्रत्यभेदात् पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतीनां मनाक स्पर्शन-सट्टनम् / अत्राह-मनु पृथिव्यादीनां चतुर्णा घटते सट्टनम्, अष्कायस्य तु कथं सङ्घट्टनं सम्भवति ? तस्य द्रवरूपत्वेन स्पर्शमात्रेऽपि विनाशसम्भवात् / उच्यते-घटादिस्थस्याऽकायस्यापि मना Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे करचरणादिना चालने सङ्घट्टः सम्भवति / परितापनं द्विधा-अगाढं गाढं च / तत्र सम्मईनचालनाद्यैर्बहुतरपीडोत्पादनमगाढं बहुतमपीडोत्पादनं च गोढम् / उपद्रवणं-सर्वथा जीवविनाशनं / तच्च पृथिव्यग्न्योरत्यन्तसम्मईनाद्यैः , अप्कायस्य तु वह्नितापनदण्डाद्यभिघातनपानपादादिक्षालनादिना, वायोस्तालवृन्तामिघातादिना, वनस्पतेः पत्रपुष्पाङ्करादि-त्रोटनादिभिः / ततश्चैतेषां पश्चानामपि पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येक वनस्पतीनां प्रत्येकं घट्टने मिन्नमासः / अगाढपरितापने लघुमासः। गाढपरितापने गुरुमासः / उपद्रवणे चतुर्लघु इति क्रमेणावसेयम् / अनन्ते-अनन्तकायविषये घट्टने लघुमासः / अगाढपरितापने गुरुमासः / गाढपरितापने चतुर्लघुकाः / उपद्रवणे चतुर्गुरुकाः। नववासवुट्ठिकिसलय-विराहणा जत्तिआणि दिवसाणि / तावइआ चउगुरुगा दसगं छप्पिआलसुइनासे // ___ व्याख्या-अभिनववर्षाकालवृष्टौ यानि किसलयान्यनन्तकायरूपाणि भवन्ति / तेषां विराधना यावन्ति दिनानि स्यात् तावन्तश्चतुर्गुरुकाः प्रायश्चित्तम् / अयमभिप्रायः-वर्षाकाले किल प्रथमवृष्टौ. जातायां सत्यां दिनत्रयं यावत् सूक्ष्माङ्करा अन्तर्मुहूर्त्तमात्रकालमनन्तकायरूपाः प्रायः सर्वत्र भूतले प्रतिक्षणं प्रादुर्भवन्तो भवन्ति / ते च दुर्लक्षतया परिहतुं दुःशका, अतस्तदानीं तद्विराधनाभीरवः साधवो दिनत्रयं यावत् तत्परिहाराय यथाशक्ति यतन्ते / यतमानानामपि च साधूनां नवीनाङ्करविराधना यावन्ति दिनानि स्यात् तावन्ति चतुर्गुरूणि भवन्ति / तथा षट्पद्यालयो-यूकागृहं सूची-सूचिकालयस्तयोर्माशे प्रत्येक दशकं प्रत्यासत्तेश्चतुर्गुरुकाणाम् / आऊतेऊविज्जुप्फुसणे उकोसमज्झिमजहन्ने / चउलहु-गुरु-लहुमासो चउगुरुवग्धार सुहुमे अ॥४४॥ ___व्याख्या-अप्तेजोविद्युताम्-अकायतेजःकायविधुदुद्योतानां स्पर्शने-संस्पर्श उत्कृष्टमध्यमजघन्ये-उत्कृष्टे मध्यमे जघन्ये च क्रमेण चतुर्लघुः, गुरुमासः, लघुमासश्च / 'वग्घार'त्ति / वग्धारि-या अविच्छिन्नधारा वृष्टिः, यस्यां वा वर्षाकल्पो नीनं वा च्योतति, वर्षाकल्पं वा भित्त्वान्तःकायमायति या वृष्टिः / तत्र सूक्ष्मे च महिकोरूपेऽप्काये गमने चतुर्गुरु / इगनइबहुसंघट्टे गुरुगो लहुगो अ एगसंघट्टे / लेवे लेवोवरि-कुंभ-तुंब-दइओडगे लहुगा // 45 // व्याख्या-इह जलमार्गेण गच्छतां साधूनां संयमात्मविराधनादयोऽनेके दोषाः सम्भवन्ति / अतः कारणाभावे तन्मार्गेण न गन्तव्यं, कारणेन तु यतनया गन्तव्यम् / तत्र चायं विधिः-नादिजलं तावद् द्विधा स्ताघमस्ताघं च / यत्र नासिका न ब्रुडति तत् स्ताघं, यत्र तु नासिका ब्रुडति तदस्ताघम् / तत्र स्ताघजलं सङ्घट्टलेपलेपोपरिभिर्गम्यते / अस्ताघजलं तु कुम्भतुम्बादिभिः / यत्र-यस्मिन् जले उत्तरतां पादतलादारभ्य जङ्घाया अर्द्धं ब्रुडति, स सङ्घट्टः / तस्यैव सङ्घट्टस्योपरि यावन्नाभिरेतावद्यत्र प्रविशति, स लेपः। ततः परं नाभेरारभ्योपरि सर्वमपि लेपोपरिभण्यते / नदी चोत्तरतां त्रयः पन्थानः / तद्यथा-सङ्क्रमः स्थलं नोस्थलं च / तत्र सङ्क्रम एकाङ्गिको वा स्यादनेकाङ्गिको वा / एकालिको य एकेन फलकादिमा कृतः / अनेकाङ्गिकोऽनेफलकादिनिर्मितः / सण्डेवका अपि सङ्क्रमभेदा एष / तर Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलमार्गेण गच्छतां विधिः तज्जाता अतज्जाता वा भवेयुः / तत्रैव जातास्तज्जाताः शिलादयः / अन्यतः स्थानादानीय स्थापिता अतज्जाता इट्टालकादयः / नद्या आकुण्टितकूपराकारवलनं नदीकूपरं, जलोपरि कपाटानि मुक्त्वा पालिबन्धः क्रियते स वरणः / एताभ्यां यत्रोदकं परिहृत्य गम्यते तत्स्थलम् / नोस्थलं पुनश्चतुर्विधम्उपलजलम्-अधः पोषाणा उपरि जल 1, वालुकाजलम्-अधो वालुका उपरि जलं 2, शुद्धोदकम् -अधः शुद्धा मही उपरि जलं 3, पङ्कोदकम्-अधः कर्दम उपरि जलम् 4 / एतेषां मध्ये पूर्व निरपायस्थलेन गन्तव्यम् / तदभावे सङ्क्रमेण / तत्राऽप्येकाङ्गिकेन गन्तव्यं, नाऽनेकाङ्गिकेन / एवं स्थिरेण, न चलेन / अपरिशाटिना-न परिशाटिना / सालम्बनेन न निरालम्बेन / सालम्बोऽपि द्विधा-एकतः सालम्बो द्विधा सालम्बश्च / पूर्व द्विधा सालम्बेन, ततः एकतः सालम्बेनाऽपि / तथा निर्भयेन गन्तव्यं, न सभयेन / एतेषामेकाङ्गिकादीनामभावे येऽनेकाङ्गिकादयस्तत्प्रतिपक्षास्तेष्वपि गमनं कर्त्तव्यं / यत्राल्पतरा संयमात्मविराधना / सक्रमाभावे नोस्थलेनाऽपि गन्तव्यम् / तत्र चतुर्विधे नोस्थले पूर्वमाक्रान्तनिष्प्रत्यपायेन उपलजलेन गन्तव्यम् / तदभावे अनाक्रान्तनिरपायेनाऽपि / उपलाद् वालुका अल्पसंहनना, तत उपलजलाभावे वालुकाजलेन गन्तव्यम् / वोलुकायाः शुद्धपृथिवी स्वल्पतरसंहनना, ततो वालुकाजलाभावे शुद्धोदकेन गन्तव्यं / सिकतो जलादावप्याक्रान्तोऽनाक्रान्तादयो विशेषा अवगन्तव्याः / पङ्कजलं तु बहुप्रत्यपायम् अतः सर्वेषामुपलंजलादीनामभावे तेन गम्यते, तम्राऽप्यगाधकर्दमे कण्टकादिरहितेऽपि न गम्यते / अस्ताघजलवत्तस्यापि गन्तुमशक्यत्वात् / एष सर्वोऽपि विधिः सचित्तपृथिव्याम् अचित्तपृथिव्यां पुनरप्कायादीनां संयोगाः कर्त्तव्यास्तद्यथा-पृथिवी सर्वत्राप्यचित्ता परमेकतोऽप्कायः-अन्यतश्च वनस्पतिकायः / तत्र किमकायेन गम्यते किंवा वनस्पतिकायेन ?, उच्यते-अप्काये नियमाद् वनस्पतिरस्ति तस्मात्तेन न गवसे, वनस्पतिना तु गम्यते / तत्रापि परीत्तयोनिकेन स्थिरसंहननेन आक्रान्तेन निष्प्रत्यपायेन / अत्र षोडश भङ्गाः / तद्यथा-प्रत्येकयोनिकः स्थिर आक्रान्तो निष्प्रत्यपायः एष प्रथमो भङ्गः / सप्रत्यपायेन द्वितीया / अनाकान्तेऽप्येवमेव द्वौ विकल्पौ / एवं स्थिरे चत्वारो विकल्पा लब्धाः / अस्थिरेऽप्येवं चत्वारः। एते प्रत्येकयोनिकेनाष्टौ भङ्गा लब्धाः। अनन्तयोनिकेऽप्येवमेवाष्टौ / एवं सर्वसङ्ख्यया वनस्पतिकाये षोडश भङ्गाः / एवमप्कायस्य त्रसैर्दीन्द्रियादिचतुर्विधैः सह संयोगाः कार्याः / तद्यथा-आक्रान्ताः स्थिरा निष्प्रत्यपायाः। एतैत्रिभिः पदैरष्टौ भङ्गा भवन्ति / एते च द्वीन्द्रियादिषु चतुर्वपि प्रत्येकमष्टावष्टौ लभ्यन्ते जाता द्वात्रिंशद् भङ्गाः / सान्तरनिरन्तरविवक्षया च चतुष्षष्टिः संयोगाः। अत्र चाऽऽक्रान्तस्थिरनिरपायैः सान्तरेखसर्गन्तव्यं, नाकायेन / अथ वनस्पतित्रसाणां द्विकसंयोगे किं वनस्पतौ गम्यतामुत सेषु ? उच्यते-त्रसेषु सान्तरेषु गन्तव्यं, न पुनर्वनस्पतौ, तत्र हि नियमेन वसा भवेयुः / पृथिव्यप्कायवनस्पतित्रयसम्भवे कतमेन गम्यताम् ?, उच्यते-पूर्वं पृथिवीकायेन, ततो वनस्पतिकायेन, ततोऽकायेनाऽपि / पृथिव्युदकवनस्पतित्रसलक्षणचतुष्कसंयोगसम्भवे कतमेन गन्तव्यम् ?, उच्यते-पूर्वमचित्तपृथिव्यां प्रविरलत्रसेषु, ततः सचित्तपृथिव्यां, ततो वनस्पतिना, ततोऽकायेनाऽपि गम्यम् / तथा यदि स्थलपथ एव न स्यात् , स्थलपथे वा भिक्षा वसतिर्वा नास्ति, स्तेनश्वापदभयं वा तत्र, ततः स्थलपथं मुक्त्वा पूर्व सङ्घट्टेन गम्यते / तत्रेयं यतना-'एकं पादं जले एकं पादं स्थले-आकाशे कृत्वा गन्तव्यम् / उत्तरन्तं लोकं विलोक्य, प्रातिपथिकमन्यं वा पृष्ट्वा च यस्मिन् पार्श्वे नीचतरमुदकमवगम्यते तत्रोत्तरणीयम् / उत्तरणानन्तरं च नीरे निष्प्रगलिते तीरे ईर्यापथिक्याः कायोत्सर्गः कार्यः इति / एतत् प्रकृतोपयोगित्वाद Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पें दर्शितम् / अथ प्रकृतमेव दर्यते-एवं यतनया एकनदीबहुसङ्घट्टे-एकस्यां एव नद्या बहून् - बारान् सचट्टे जाते सति गुरुको मासः प्रायश्चित्तम् / एकसट्टे-एकवारं सङ्घहे लघुकश्च मासः / यत्र तु सट्टेन गन्तुं न शक्यते, तत्र लेपेन गम्यते / यत्र तु लेपेनाऽपि गन्तुं न पार्यते, तत्र लेपोपरिणापिगम्यते / तत्र चेयं यतना-यदि स साधुग्रहिसार्थसहायस्तत उदकसमीपं गत्वोर्ध्वकायं मुखवत्रिकयाऽधःकायं रजोहरणेन प्रमाोपकरणमेकतः कृत्वा यदि चौरादिभयं न स्यात् ततो गृहस्थानां पश्चादुदकमवतरति / यथा यथा चोण्डमुण्डतरजलमवगाहते तथा तथोपर्युपरि चोलपट्टकमुत्सारयेत् येन न तीम्यते / अथ तत्र सभयं अगाधं वा जलमतो यदा कियन्तोऽपि गृहस्था अग्रतोऽवतीर्णास्तदा मध्ये साधुना अवतरणीयं चोलपट्टकं च दृढं बध्नीयात् / एतेन विधिनोत्तीर्णस्य यदि चोलपट्टकोऽन्यद्वा किश्चिदुपकरणजातं तीमितं, तदाऽयं विधिः-उदकतीरे स्निग्धपृथिव्यामप्कायरक्षार्थं तावत्तिष्ठेद् यावच्चोलपट्टोन्यद्वोपकरणं निष्प्रगलं भवति / अथ तत्र चौरादिभयं ततः प्रगलन्तमेव तं चोलपट्टकं हस्ते दण्डके वा प्रलम्बमानं गृहीत्वा कायेनाऽस्पृशन् गच्छति / यदा च सार्थविरहित एकाकी साधुरुत्तरति, तदाऽयं विधिः-सर्वोपकरणमवतरणतीरे मुक्त्वा आत्मप्रमाणाच्चतुरगुलातिरिक्तां यष्टिं गृहीत्वा तयाऽस्ताघतामनुमीय परतीरात् प्रत्यागत्य सर्वोपकरणमेकत्र कृत्वा तेन परीक्षितजलपथेनोत्तरति / अस्ताघे च जले यत्र लेपोपरिणाऽपि गन्तुं न शक्यते, तत्र बाहुभ्यां न तरणीयं हस्तादिप्रक्षेपे बहूदकोपघातभावात् / किन्तु जलभावितैः कुम्भादिभिः सन्तरणं कार्यम् / तत्र प्रथमं कुम्भेन-घटेन / अथवा घटेश्चतुष्कोष्ठकोणकनिबद्धैः प्रापकेणेत्यर्थः / तदभावे दृतिकेन-वातपूर्णेन / तदभावे तुम्बेन-तुम्बकजाले. नेत्यर्थः / तदभावे उडुपेन-कोट्टिम्बकेन / तदभावे पर्ष्यापर्णीमयभारकैः / तदभावे च नावा गन्तव्य तथाविधकारणे समुत्पन्ने / एतेषां च विपर्यासग्रहणे चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् / 'एएसि विवजासे चाउम्मासा भवे लहुगा' इतिनिशीथभाष्यवचनात् / अर्थतेषां लेपादीनामुत्तरार्द्धन प्रायश्चित्तं दर्शयति / यथा-लेपे-लेपगमने, लेपोपरि-कुम्भ-तुम्ब-दृतिको-डुपे-लेपोपरिगमने, कुम्भसन्तरणे, दृतिकसन्तरणे तुम्बसन्तरणे, उडुपसन्तरणे, उपलक्षणत्वात् पर्णीभारकसन्तरणे च चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् / अत्र च तुम्बशब्दस्य दृतिकशब्दात पूर्व निबन्धो बन्धानुलोम्यात् / नौसन्तरणप्रायश्चित्तं त्वग्रे प्रतिपादयिष्यते / निष्कारणे सङ्घट्टनेन गमने मासलघु प्रथमवारायां, द्वितीयवारायां तु मासगुरु, एवं दशमवारायां पाराश्चिकम् / अथ लेपेन गमने प्रथमवारायां चतुर्लघुकम् / अभीक्ष्णसेवयाऽष्टभिर्वारामिः पाराश्चिकम् / एवं लेपोपरि-कुम्भादिष्वपि चतुर्लघुकम् / अभीक्ष्णसेवयाऽष्टभिर्वाराभिः पाराश्चिकं द्रष्टव्यमित्यादयो निशीथगता अनेकविशेषाः स्वयमवगन्तव्याः / अथ पूर्वदर्शितसक्रमगमने प्रायश्चित्तमाहथिरसंकमेण लहुगो लहुगा निपञ्चवाय-अथिरेण / गुरुगा सपञ्चवाए जले वि इअ लेवमाईहिं // 46 // व्याख्या-स्थिरसक्रमेण-निश्चलललपरिहारमार्गेण गमने लघुको मासः / तेनैव सङक्रमेण निष्प्रत्यपायेन-अपायरहितेन अस्थिरेण-चलेन गमने चत्वारो लघुकाः / तस्मिन्नेव सप्रत्यपाये चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चित्तम् / जलेऽपि सप्रत्यपाये लेपादिमिर्गमने इत्येवं चतुर्गुरुकाः / अब यत्र तथाविधकारणे वा तीर्यते, तनाऽयं विधिः Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावा गमने विधिः अडच्छगचउरदुगाओ अवक्केण कमेण गंतु निरवाए / थल-घट्ट-लेव-लेवोपरि गमणं न उग नावाए / ___ व्याख्या- अत्र क्रमेण-यथासङ्ख्येन योजना / नावुत्तरणस्थानाद् यदि अष्टगव्यूतवक्रेण गत्वा निरपाये-अपायाभावे स्थलमार्गः प्राप्यते, तदो तेन गम्यते / अथ स्थलपथो नास्ति, अस्ति वा परं सापायस्ततः षड्गव्यूतवक्रमार्गेण सङ्घट्टेन गम्यते / तदभावे चतुर्गव्यूतवक्रेण लेपेन गम्यते / तदभावे द्विगव्यूतवक्रमार्गेण लेपोपरिणा गमनं कार्य, न पुननोवा / तथाइअ छच्चउरदुगाउ अ गमणं लेवुवरि-लेव-संघट्टे / निरवायपरिरयासइ नावाइगमे वि चउलहुगा // 48 // ___ व्याख्या-एवमेव लेपोपरिस्थानोत् षड्गव्यूतपरिरयेण स्थलेन, चतुर्गव्यूतपरिरयेण लेपेन, द्विगव्युतपरिहारेण वा सङ्घट्टेन गम्यतां, न च लेपोपरिणा / लेपोत्तरणस्थानात् चतुर्गव्यूतपर्यवहारेण स्थलेन, द्विगव्यूतपरिहारेण वा सङ्घन गन्तव्यं, न तु लेपेन / सङ्घट्टोत्तरणस्थानात् द्विगव्यूतपरिहारेण स्थलेन गन्तव्यं, न पुनः सट्टेन / एतेषां परिहारपरिमाणानामभावे नावा लेपोपरिणा लेपेन सङ्घद्देन वा कारणे यतनया गम्यते / अमुमेवार्थमुत्तरार्द्धन दर्शयति-निरपायः-प्रत्यपायवर्जितो यः परिरयो-जलपरिहारमार्गः पूर्वप्रतिपादितपरिमाणस्तस्याऽसति-अभावे नावादिगमेऽपि-नावा गमनेऽपि चतुर्लघुकाः / न केवलं लेपादिगमने किन्तु नावागमनेऽपीत्यपिशब्दार्थः। नौसन्तरणे च या षट्कायविराधना स्यात्तन्निष्पनमपि: प्रायश्चित्तमवगन्तव्यम् / अत्राह-ननु ' नावा नइसन्तारे पायच्छित्तं विउस्सग्गो' इत्यत्र नौनदीसन्तारभेदेषु सर्वेष्वपि व्युत्सर्गः प्रायश्चित्तममिहितमिह पुनस्तेष्वेव तपःप्रायश्चित्तं कथम् ? उच्यतेयत् व्युत्सर्ग प्रायश्चित्तं तत्राभिहितं तत्तदानीमेव करणीयतया यतनार्थं सामान्येनोक्तं / तपःप्रायश्चित्तं तु अप्कायविराधनाविशुद्धिनिमित्तं विशेषतोऽभिधीयमानं न विरुद्धयते, उभयप्रायश्चित्तविशोध्यत्वादेतेषामिति / नावारोहणे चामूनि कारणानि-स्थलसङ्घट्टादिपथेषु शरीरोपधिस्तेनाः सिंहादयो वा श्वापदा भवेयुः, भैक्ष्यं वा न लभ्यते, आगाढं वा कारणमहिदष्टविषविशूचिकादिकं भवेत् तत्र त्वरितमौषधान्यानेतव्यानि, कुलादिकार्य वो अक्षेपेण करणीयमुपस्थितम् उपधेरुत्पादनार्थं वा गन्तव्यं लेपे लेपोपरी वा मकरभयं ततो नौरारोढव्या / सा च नौ परार्था संयतार्था वा याति / तत्र परार्थायां गन्तव्यं, तदभावे संयतार्थायामपि / सा द्विविधा-नवा पुराणा च / नवायां गन्तव्यं, न पुराणायां सप्रत्यपायत्वात् / नवापि द्विविधा-उदकभाविता अभाविता च / उदके या क्षिप्तपूर्वा सा उदकभाविता, इतराऽभाविता / तत्र भावितायां गन्तव्यं, नाभावितायामुदकविराधनासम्भवात् / उदकभाविताऽपि द्विधो-तदुदकभाविता अन्योदकभाविता च / तदुदकभावितायां गन्तव्यं, नेतरस्यां, मा भू दुदकशस्त्रमिति कृत्वा / तदुदकभाविताऽपि द्विविधा-आर्द्रा शुष्का च / आर्द्रायां गन्तव्यं, नेतरस्यामुदकाकर्षणभयात् / नावं चाऽऽरोदुकामेन एकान्तमुपक्रम्योपकरणं प्रत्युपेक्षणीयं, ततोऽधःकायं रजोहरणेनोपरिकायं मुखोनन्तकेन प्रमृज्य, भाजनान्येकत्र बद्ध्वा तेषामुपरिष्टादुपधि सुनियन्त्रितं करोति / ततो यदि भद्रका नाविकादयः स्थिरा च नौन दोलायते ततः पूर्वमारोढव्यम् / अथ प्रान्तास्ततः पूर्वं नारुह्यते / मा अमङ्गलमिति कृत्वा प्रद्वेषं गमन् / तेषां प्रान्तानां भावं ज्ञात्वा समकं पश्चाद् वा आरोहणीयं / नौशिरसि च न स्थातव्यं देवतास्थानं तदितिकृत्वा / मार्गतोऽपि न स्थातव्यं निर्यामकस्तत्र तिष्ठतीति कृत्वा / मध्येऽपि यत्र कूपकस्थानं तत्र न Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 यति-जीतकल्पे सातव्यं / तन्मुक्त्वा यदपरं मध्ये स्थानं तत्र स्थेयम् / अथ मध्ये नास्ति स्थानं ततः शिरसि पृष्ठतो वा यत्र ते स्थापयन्ति तत्र निराबाधे स्थीयते / साकारं भक्तं प्रत्याख्याय नमस्कारस्मरणप्रवणस्तिष्ठति / उत्तरन्नपि न पूर्वमुत्तरति न वा पश्चात् किन्तु मध्ये उत्तरति / सारोपधिश्च पूर्वमेवाल्पसागारिका क्रियते, यदन्तप्रान्तं चीवरं तत्प्रावृणोति / यदि च तरपण्यं नाविको मार्गयति तदा धर्मकथा-अनुशिष्टिश्च क्रियते / अथ न मुञ्चति / ततो द्वितीयपदे यदन्तप्रान्तमुपकरणं तद्यतनया दातव्यम् / अथ तन्नेच्छति निरुणद्धि वा ततोऽनुकम्पया यद्यन्यो ददाति तदा न वारणीयः। नौश्च चतुष्प्रकारा-समुद्रगामिनी 1, अनुस्रोतोगामिनी 2, प्रतिस्रोतोगामिनी 3, तिर्यम्गामिनी च 4 / एतासामेकतरयाऽपि नावा अर्धयोजनगमने चतुर्लघु / अतः परम् अर्धयोजनवृद्धयाऽनेतनप्रायश्चित्तानि क्रमेण स्युः / तद्यथा-योजने चतुर्गुरु, सार्द्धयोजने षडलघु, योजनद्वथे षड्गुरु, सार्द्धयोजनद्वये छेदः, योजनत्रये मूलं, सार्द्धयोजनत्रये अनवस्थाप्यं, योजनचतुष्टये पाराश्चिकम् / अभीक्ष्णसेवायां पुनरष्टवारामिः पाराश्चिकमिति दर्पिकासेवायां प्रकल्पे / गंतीकमणीभोगे अचक्खुभूवणदगग्गिफुसणगमे / गाउअ लहुगाढत्तं बत्तीसं जोअणे चरिमं // 49 // व्याख्या-गन्त्री-शकटं क्रमणी-उपानत् तयोर्भोगे-परिभोगे / अचक्षुः-यत्र चक्षुर्न विद्यते व्याप्रियमाणतया प्रसृमरान्धकारनिकरेण, यत्र चक्षुषा-लोचनेन निर्मलेनाऽपि स्थूला अपि जन्तवो निरीक्षितुं न शक्यन्ते इति भावः / सोऽचक्षुः-अचक्षुर्विषयः प्रदेशः , भूः-सचित्ता पृथिवी ' वण 'त्ति वनस्पतिकायिकाः प्रत्येकशरीरिणः / 'दग 'त्ति उदकं, तच्च द्विधा-भूम्युदकं नद्यादिषु, अन्तरिक्षोदकं च मेघवृष्टौ / अग्निः-वद्विस्तस्य स्पर्शनं अग्निस्पर्शनम् / एतेषु गमे-गमने गव्यूत-लघुकाऽऽरब्धं प्रायश्चित्तं / द्वात्रिंशद्योजनेषु चरमं पाराश्चिकं स्याद् / अयमर्थः-साधुर्गन्च्यामुपविष्टः क्रमण्यो वा परिधाय अचक्षुविषये सचित्तपृथिव्यां प्रत्येकवनस्पतिकायिकेषु अप्काये अग्निस्पर्शने वा यद्येकगव्यूतमात्रं मागं गच्छति, तदा तस्य चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तं, गव्यूतद्वयं यदि गच्छति तदा चतुर्गुरु, योजनं यदि याति तदा षड्लघु, योजनद्वयं यदि याति ततः षड्गुरु, योजनचतुष्कं चेद् गच्छति तदा छेदः, योजनोष्टकं यदि प्रयाति तदा मूलं, षोडशयोजनानि यदि व्रजति तदोऽनवस्थाप्यं, द्वात्रिंशद्योजनानि यदि पुनः प्रयाति तदा पाराश्चिकम् / एवं गव्यूते चतुर्लघुकादारभ्य स्थानद्विगुणवृद्धथा द्वात्रिंशद्योजनेष्वष्टमवारायां पाराश्चिकं स्यात् / सचित्तपृथिव्यादीनामभीक्ष्णसेवायां पुनरित्थं प्रायश्चित्तम् / तद्यथा-सचित्तपृथिव्यादिषु द्वितीयवारायां गच्छतो गव्यूते चतुर्गुरुकादारभ्य यावत् षोडशयोजनस्थाने पाराञ्चिकम् / तृतीयवारायां षड्लघुकादारभ्य अष्टयोजनपदे पाराश्चिकम् / एवं यावदष्टमवारायां गव्यूते एव पाराश्चिकम् , उपलक्षणत्वात् सचित्तपृथिव्यादौ स्थानं निषदनं त्वग्वर्त्तनं वा कुर्वाणस्य चतुर्लघुकम् / अभीक्ष्णसेवायामष्टमवोरायां पाराश्चिकम् / तथा च सचित्तपृथिव्यामधोऽङ्गुलचतुष्कखनने चतुर्लघुकं, ततोऽप्यधोऽङ्गलचतुष्कखनने चतुर्गुरुकम् / एवं तृतीयचतुष्के 6, चतुर्थचतुष्के दी, ततो द्विके छेदो, द्विके मूलं, द्विकेऽनवस्थाप्यं पुनर्द्विके पाराश्चिकम् / एवमधश्चतुर्विंशत्यङ्गलखनने अष्टमस्थाने पाराञ्चिकं स्यादिति भावः / अभीक्ष्णखननेऽष्टमवारायां पाराश्चिकम् / तथा कलः-चणकस्तावन्मात्रात् खण्डादारभ्य यावदाःमलकप्रमाणं सचित्तपृथ्वीकायखण्डम् अकायरूपकरकहिमपिण्डादिखण्डं वनस्पतिकोयखण्डं वा यदि गृह्णाति, तदा चतुर्ल घुकम् / आमिलक Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकेन्द्रियविराधमाविषयं प्रायश्चित्तम् द्विकप्रमाणपृथिवीकायादि-खण्डग्रहणे चतुर्गुरु / एवं स्थान द्विगुणवृद्धया यावदष्टमवारायामष्टाविशत्युत्तरशतार्द्रामलकप्रमाणपृथिवीकायाऽप्कायवनस्पतिकायखण्डग्रहणे पाराञ्चिकम् / एवं द्रवोदकेऽपि ज्ञातव्यं, परमार्दीमलकस्थाने अञ्जलिर्द्रष्टव्यः / अष्टाविंशत्युत्तरशताञ्जलिजलग्रहणे पाराश्चिकं स्यादित्यर्थः / तथाइअ महिअणंततसगमि चउगुरुगा सोलजोयणे चरिमं / बीओसे मीसेसु अ लहुमासा अट्ठवीससए॥ ___ व्याख्या-'अ' एवं यथा पूर्वगाथायां सचित्तपृथिव्यादिगमने गव्यूतादिषु पाराधिकान्तं प्रायश्चित्तमुक्तं तथा अत्र महिकादिगमने ज्ञातव्यम् / महिका-धूमरी अनन्ता-अनन्तकायवनस्पतयः त्रसा-द्वीन्द्रियादयः, तेषु गमे-गमने गव्यूते चतुर्गुरुका: / ततो द्विगुणद्विगुणवृद्धया मार्गगमने अप्रेतनानि प्रायश्चित्तानि तावद्वाच्यानि यावत् षोडशयोजनेषु चरमं पाराश्चिकं भवति / अयममिप्राय:-महिकायां पतन्त्याम् अनन्तकायव्याप्तमार्गे द्वीन्द्रियादित्रसजीवसङ्कले च मार्गे एकगव्यूतगमने चतुर्गुरु, गव्यूतद्वयगमने षड्लघु, योजने षड्गुरु, योजनद्वये छेदः, योजनचतुष्टये मूल, योजनाऽष्टके अनवस्थाप्यं, षोडशयोजनेषु पाराश्चिकम् / तथा-बीजानि द्विधा-प्रत्येकवनस्पतिबीजानि अनन्तकायबीजानि च। 'ओस'त्ति / अवश्यायः-तुषारः / स चाऽधस्तादुपरि च स्यात्तेषु मिश्रेषु च / अत्र बहुवचनेन मिश्रपृथ्वीमिश्रोदक-मिश्रवनस्पतिकाया एते प्रयोऽपि गृह्यन्ते / तेषु च गमने गव्यूते लघुमासादारभ्य द्विगुणद्विगुणवृद्धया याबदष्टाविंशत्युत्तरशतयोजनेषु चरमं पाराश्चिकं स्यात् / अयमत्र भावःप्रत्येकाऽनन्तबीजराशिव्याप्ते पथि, अवश्याये भूभौ निपतिते निपतति वा, मिश्रपृथिव्यां मिश्रोदके मिश्रहरितादिवनस्पतिकाये च गच्छतो गव्यूते लघुमासः / गव्यूतद्वये गुरुमासः / योजने चतु. लघु / योजनद्वये चतुर्गुरु / योजनचतुष्टये षडलघु / योजनाष्टके षड्गुरु / षोडशयोजनेषु छेदः / द्वात्रिंशद्योजनेषु मूलम् / चतुःषष्टियोजनेष्वनवस्थाप्यम् / अष्टाविंशत्युत्तरशतयोजनेषु पारान्चिकम् / एवं स्थान द्विगुणवृद्धथा दशमवारायां पाराश्चिकं प्रायश्चित्तम् / अत्र महिकाऽनन्तकाय-त्रससंसक्त. मार्गाभीक्ष्णसेवायां सप्तवारामिः पाराश्चिकं / बीजावश्यायमिश्राभीक्ष्णसेवायां पुनर्दशवारामिः पाराश्चिकं, परं मिश्रानन्तकायाऽभीक्ष्णसेवायां नववाराभिः पाराञ्चिकं / यतस्तत्र प्रथमवारायां गुरुमासस्यैवापत्तिः / तथा-मिश्रपृथिवीकोयादौ स्थानोपवेशनशयनानि कुर्वाणस्य प्रत्येकं मासलघु / अभीक्ष्णसेवायां दशमवारायां पाराश्चिकम् / तथा तेजःकायविराधनायामित्थं प्रायश्चित्तं प्रकल्पे प्रदर्शितम् / तद्यथा-उत्तराधरारणिकाष्ठमथनप्रयोगेणाभिनवमग्नि जनयति यस्तस्य मूलम् / स्वयं प्रज्वालिते चाऽग्नौ पृथिव्यादीनां त्रसकायपर्यन्तानां सङ्घट्टने 4, परितापने 4ii, अतिपातने मूलम् / एतत् प्रायश्चित्तं कायनिष्पन्नम् / तथा परप्रज्वालितं वहिं स्वस्थानस्थितमेवाऽसङ्घटेन सेवमानस्य चतुर्लघु / यावतश्च वारान् हस्तादि परावर्त्य वापयति तावन्तश्चतुर्लघुकाः / तापने च षट्पदिकाविराधना, इन्धनप्रक्षेपे सादिजन्तुविराधना च स्यात् तनिष्पन्नमपि तस्य प्रायश्चित्तम् / तथा-असार्वरात्रिकप्रदीपयुक्तवसताववस्थाने लघुमासः / सार्वरात्रिकप्रदीप-सार्वरात्रिकाऽसार्वरात्रिकाऽपरज्योतिसहितवसतौ चतुर्लघु | साग्निवसतौ चोपकरण. प्रतिलेखने मासलघु / अथाऽग्नौ छेदनकानि निपतन्ति तदा चतुर्लघु / अथाग्निविराधनाभयान्न प्रतिखयति ततोऽसामाचारीनिष्पन्नं मासलघु उपधिनिष्पन्नं वा / वसतिं गमनागमने वा यदि न Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 यति-जीतकरूपे प्रमार्जयति तदा मोसलघु / अथ प्रमार्जयति तदापि मासलघु / अथ प्रमार्जने छेदनकैरग्निविराध्यते ततश्चतुर्लघु / तथा सूत्रपौरुष्यकरणे 1, अर्थपौरुष्यकरणे श, सूत्रनाशे 4, अर्थनाशे धी, तयोः करणे पुनरग्निविराधना / सज्योतिर्वसतौ रागे चतुर्गुरु / द्वषे चतुर्लघु / आवश्यके च यावत उत्सर्गान करोति तावन्तो मासाः / सर्वं वाऽऽवश्यकं न करोति चतुर्लघु / अथ करोति ततो यावन्त उत्सर्गास्तावन्तश्चतुर्लघुकाः / सर्वस्मिन्नप्यावश्यके कृते चतुर्लघुकमेव / यति वन्दनानि स्तुतीर्वा न ददाति, तति'लघुमासाः / अथ ददाति तदा तदेव मासलघु / सन्दंशकयोः प्रमार्जनेऽप्रमार्जनेऽपि लघुमासः / आवश्यकीनषेधिक्योः करणे पञ्चकमसामाचारीनिष्पन्नं वो, अकरणे तु प्रत्येकं पञ्चकम् / 'आसज्जे'त्यभणने मासलघु / भणने चाग्निनिष्पन्नं / साग्निवसतौ प्रस्खलने पठने वा चतुर्लघु षड्जीवनिकाय विराधनानिष्पन्न च / अतस्तथाविधकारणैः साग्निवसताववस्थाने यतनेयं क्रियते-कटं चिलिमिणिकां वाऽन्तरा दत्त्वा प्रतिलेखनादीनि कुर्वन्ति, तदभावे बहिः कुर्वन्ति / बहिः स्थानाभावे चावश्यकं स्तुतिवन्दनकहीनं मौनेन यतनया वर्षाकल्पप्रावृताः कुर्वन्ति / गमनागमने च प्रमार्जनावश्यकीनैषेधिकीन कुर्वन्ति इत्यादि तेजःकायविषया यतना तत एवावसेया, ग्लानादिकार्यविषयाऽपि च / वायुकायविराधनायां पुनरेवं प्रायश्चित्तं-धर्माभिभूतो निलयाऽभ्यन्तराद् बहिर्निर्गच्छति, अनिलाऽमिधारणनिमित्तं वा बहिः स्थितः शब्दयति, यथा-एहि एहि इतः शीतलो वायुरिति / पूर्वकृतछिद्रेषु वायु प्रतिसेवते / अपूर्वाणि वा छिद्राणि वाताऽभिधारणनिमित्तं करोति / धर्मातः स्वाङ्गं फूत्करोति / उष्णं वा भक्तपानं फूत्करोति / पूर्वकृतं द्वारं कपाटं वोद्घाटयति / अपूर्व वा द्वारमुद्घाटयति / उच्छाडं वाऽपसारयति / गृहछिंडिकायां वा याति / वस्त्रं वा चतुरस्रं कृत्वा वायुं करोति / तालवृन्त-वस्त्राश्चलपत्र-मात्रक-हस्तादिभिर्वायुं करोति / हस्तशङ्ख शङ्खदृतिकादि वा वायुना पूरयति / क्षुतकासितोच्छ्वसितनिःश्वसितानि वा अविधिना करोति / तत्र निर्गमन-फूत्करण-हस्त-मात्रक-पत्र-वनाञ्चलवायुकरणेषु मासलघु प्रायश्चित्तम् / अभीक्ष्णासेवायां च दशवाराभिः पाराश्चिकम् / शेषेषु पदेषु चतुर्लघु, अभीक्ष्णासेवायां चाष्टवाराभिः पाराश्चिकम् / क्षुतादिषु पुनः पञ्चकम् / अभीक्ष्णासेवायां चतुर्विशतिवाराभिः पाराश्चिकं / छिद्राणि पुनर्यावन्ति करोति तावन्तो लघुमासाः यावत् त्रीणि / ततः परं चतुर्लघु स्यात् / पूर्वकृतछिद्रेष्वेवं प्रायश्चित्तम् / ननु वाताभिधोरणादिषु कथं प्रायश्चित्तापत्तिः स्यात् 1 उच्यतेवायुकायजीवविराधनासीवात् / यदुक्तं'वाससिसिरेसु वाओ बहिआ सीओ गिहेसु तु सउण्हो / विवरीओ पुण गिम्हे दिअराई सत्थमन्नुन्नं / / एमेव देहवाओ बाहिरवायस्स होइ सत्थं तु / विअणादिसमुत्थो वि अ सउप्पत्ती सत्थमन्नस्स' // 'सउप्पत्ती 'ति / स्वेन स्वेन विधानेनोत्पन्न इति / एवमन्यदप्येतद्विराधनाविषयं प्रायश्चित्तं प्रकल्पतोऽवसेयम् इति / पृथिवीकायायेकेन्द्रियविराधनाविषयं प्रायश्चित्तमुक्तम् / सम्प्रति विकलेन्द्रियादिविराधनागोचरं तदाहविमलाण घट्टणाइसु लहुगुरुचउलहु अ चउगुरू हुंति / गुरुगाइ छल्लहुंत पंचिंदिअघट्टणाईसु // 51 // व्याख्या-विकलानां-विकलेन्द्रियाणां द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाणामित्यर्थः। घटनादिषुसङ्घट्टना-ऽगाढ़परिताप-गाढ़परितापो-पद्रवणेषु यथासङ्ख्यं लघुगुरुचतुर्लघुचतुर्गुरुका भवन्ति / विकले Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकलेन्द्रियवधविषयं प्रायश्चित्तम् न्द्रियाणां सङ्घट्टने लघुमासः / अगाढपरितापे गुरुमासः। गाढपरितापे चतुर्लघु / उपद्रवणे चतुर्गुरु स्यादिति भावः / पञ्चेन्द्रियाणां घट्टनादिषु गुरुमासादि षड्लघुकान्तं प्रायश्चित्तं भवति / पञ्चेन्द्रियाणां सङ्घट्टस्तदहर्जातमूषकगृहोलिकादिविषयो द्रष्टव्यस्तत्र गुरुमासः / अगाढपरितापे चतुर्लघु / गाडपरितापे चतुर्गुरु / उपद्रवणे षड्लघुकम् / अर्थतेषामेव वधविषयं प्रायश्चित्तं प्रकारान्तरद्वयेनाहइगबितिचउपंचिंदिअवहंमि गुरुगाइ बारसंतं वा / इगवितिचउरपणिदिसु इगबितिचउपंचकल्ला वा // व्याख्या-वा विकल्पार्थः / एकद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियवधे गुरुकादि द्वादशान्तं क्रमेण स्यात् / एकेन्द्रियवधे चतुर्गुरु / द्वीन्द्रियवधे षड्लघु / त्रीन्द्रियवधे षड्गुरु / चतुरिन्द्रियवधे दशमं / पञ्चेन्द्रियवधे द्वादशं भवतीति भावः / एकोऽयमादेशः / वा-अथवा कल्यं-कल्याणकं तच्चेदं-नि० पु० ए० आ० उ० / तत एकेन्द्रियवधे एवंविधमेकं कल्यं / द्वीन्द्रियवधे द्वे कल्ये / त्रीन्द्रियवधे त्रीणि कल्यानि / चतुरिन्द्रियवधे चत्वारि कल्यानि / पञ्चेन्द्रियवघे पञ्च कल्यानि / अयं द्वितीयादेशः। एतौ द्वावादेशी दानप्रायश्चित्ततया प्रकल्पे भणितौ / अर्थतेषां बहुलविराधनाविषयं प्रायश्चित्तमाहजलतेअबहुलफुसणे छग्गुरु दसगं तु विगलबहुलवहे / दुतिचउकल्ला व कमा वितिचउरिंदीण बहुलवहे / / व्याख्या-जलम्-अकायः तेजः-अग्निकायस्तयोः बहुलस्पर्शने-बहुविराधनायां प्रत्येकं षड्गुरुकं प्रायश्चित्तं स्यात् / विकलानां-विकलेन्द्रियाणां बहुलवधे पुनर्दशकं चतुर्थानामिति शेषः / वा-अथवा क्रमाद्-अनुक्रमेण द्वीन्द्रियाणां बहुलवधे द्वे कल्ये / त्रीन्द्रियाणां बहुलवधे त्रीणि कल्यानि / चतुरिन्द्रियाणां बहुलवधे चत्वारि कल्यानि / अथ प्रकारान्तरेण बहुलविराधनाविषयं प्रायश्चित्तमाहइग-विगल-पणिदिसु वा बहुमदणि छलहु-छगुरु-दसगाणि। . : दसपुरओ दसगं चिअ पणिदि इक्केवि दप्पेणं // 54 // 15 व्याख्या-वा-अथवा एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियाणां बहुमईने-बहुलविराधनायां क्रमेण षड्लधु-षड्गुरु-दशकानि / एकेन्द्रियाणां पञ्चविधानामपि बहुलविराधनायां षड्लघु / विकलेन्द्रियाणा त्रिविधानामपि बहुलविराधनायां षड्गुरु / पञ्चेन्द्रियाणां बहुलवधे दशकमभक्तार्थानामिति शेषः / दशपरतो-दशभ्यः परतो-ऽप्रत एकादशादिषु प्रभूतेष्वपि पञ्चेन्द्रियेषूपहतेषु दशकमेव क्षपणानां नाधिकम् / पञ्चेन्द्रिये एकस्मिन्नपि दर्पण हते दशकमेव / अथवा 'एगाइदसतेसु' इत्यादिगाथया पिण्डाधिकारे वक्ष्यमाणया द्वीन्द्रियादीनां बहुलविराधनाविषयं प्रायश्चित्तं प्रकारान्तरेण दर्शयिष्यते, तदपि प्रकारान्तरमत्राऽवगन्तव्यम् / पूर्वजीतकल्पवृत्तोवत्राधिकारे तस्य प्रकारस्य दर्शितत्वात् / एवं षड्विधजीवनिकायविराधनाप्रायश्चित्तप्रतिपादनेन प्रथममहाव्रतातिचारप्रायश्चित्तममिहितम् / अथ द्वितीय-तृतीय-पञ्चममहावतातिचारप्रायश्चित्तं सामान्येनाहमोसाइस मेहुणवज्जिएस दवाइवत्थुभिन्नेसु / हीणे मसक्कोसे कमेग गुरुलहुगचउगुरुगा // 55 // Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्प व्याख्या-मृषावादादत्तादानपरिप्रहाश्चतुर्विधा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च / तत्र द्रव्यतो मृषावादो धर्मास्तिकायादिसर्वद्रव्यविषयः। अदत्तादानं ग्राह्य-धारणीयवस्तुविषयम् / परिग्रहश्च सचित्ताचित्तमिश्रसर्वद्रव्यविषयः / क्षेत्रतो लोकालोकविषयौ मृषावादपरिग्रहौ / अदत्तादानं ग्रामनगराद्याश्रयम् / कालतस्त्रयोऽपि दिवा वा रात्रौ वा / भावतस्त्रयोऽपि रागेण वा द्वेषेण वा / ततश्चतुर्विधेष्वपि मृषावादादत्तादानपरिग्रहेषु विषये क्रमेण हीने-जघन्येऽतिचारे गुरुमासः / मध्ये-मध्यमेऽतिचारे चतुर्लघु / उत्कृष्ट पुनश्चतुर्गुरु / मैथुनविषयप्रायश्चित्तं विशेषतो द्वितीयादिमहाव्रतातिचारप्रायश्चित्सामिधानाधिकारे क्रमप्राप्तमग्रे प्रतिपादयिष्यते / अतोऽत्र मृषादिषु मैथुनवर्जितेष्वित्यभिहितम् / एवं समुदितद्वितीयतृतीयपश्चममहाव्रतातिचारप्रायश्चित्तं सामान्येनाभिधाय विशेषतो द्वितीयमहाव्रतातिचारप्रायश्चित्तामिधित्सयाऽऽहआयरिओ आयरिंअं आगाढं वयइ पावइ छेयं / वसहे छग्गुरु भिक्खूमि छल्लहु खुडगे गुरुगा / / व्याख्या--इह क्रोध-मान-माया-लोभ-हास्य-भय-मौखर्य-विकथोपयुक्तस्य वाक्यं मृषा भवति / यदुक्तं 'कोहे माणे अ मायाए लोभे अ उवउत्तया / हासे भय-मोहरिए विगहासु तहेव य // ' . एआई अट ठाणाइं परिवज्जित्तु संजये / असावजं मिअं काले भासं भासिज्ज पन्नवं' / / अत आगाढवचनं मृषावादरूपं क्रोधादिजन्यत्वात् / तच्चात्यर्थ गाढम्-आगाढम् खरपरुषनिष्ठुरजकारादि. रूपम् अन्यस्याऽऽख्यातुं यन्न शक्यते, येन चोक्तेन शरीरस्योष्मा जायते तदागाढं द्विधा-सूचया असूचयो च स्यात् / क्षेत्र सूचा स्वव्यपदेशेन परदोषाविष्करणम् / असूचा तु प्रकटमेव परदोषभाषणं / तत आचार्य आचार्य प्रति एवंविधमागाढं यदि वदति, तदा छेद-छेदाख्यं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति / घृषभे-वृषभविषये यद्यागाढं वदति, तदा षड्गुरु / एवं भिक्षुविषये षड्लघु / क्षुल्लकविषये गुरुकाश्चत्वारः / तथाक्समे छग्गुरुगाई छलहुगा भिक्खु खुडि गुरुगाई / वसभाइसु अंति कमा लहु गुरुगो अ लहुगो / ध्याख्या-वृषभस्याऽऽचार्यादिषु चतुर्पु विषये आगाढभाषणे षड्गुरुकादि चतुर्लघुकान्तं प्रायश्चित्तम् / भिक्षोः षड्लघुकादि गुरुमासान्तं / क्षुल्लकस्य चतुर्गुरुकादि लघुमासान्तं / पूर्वार्दोक्तादिपायश्चित्तोत्तरार्दोक्तान्तप्रायश्चित्तयोः क्रमेण योजनादेवमर्थघटना। इदमुक्तं भवति-वृषभस्याऽऽचार्य प्रति आगाढभाषणे षड्गुरु / वृषभं प्रति षड्लघु / भिक्षु प्रति चतुर्गुरु / क्षुल्लकं च प्रति गुरुको मासः / क्षुल्लकस्याऽऽचार्य प्रति चतुर्गुरु / वृषभं प्रति चतुर्लघु / मिझुं प्रति गुरुमासः / क्षुल्लकस्य क्षुल्लकं च प्रत्यागाढभाषणे लघुमासः / एवमोचार्यादीनामागाढभाषणविषयं प्रायश्चित्तमुक्तम् / अथाधिकरणकारिसाधूपेक्षाविरूपं तदाहलहुगो अ उहाए गुरुगो से चेव उवहसंतस्स / उत्तुअमाणे लहुगा सहायगते सरिसदोसो // 58 // Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकरणकारिणः प्रायश्चित्तम् व्याख्या-अधिक्रियते-नरकगतिगमनयोग्यतां प्राप्यते आत्मा अनेनेत्यधिकरणं-कलहः / साधूनां च तदुत्पत्तिकारणान्यमुनि-अन्यस्याऽऽभाव्यं शैक्षादिकं विपरिणमय्य यदि परः कश्चिदाचार्यों गृह्णाति, ततो मूलाचार्यों ब्रवीति-'किमिति मदीयमाभाव्यं गृह्णासि ?' पूर्वगृहीतं वा शैक्षकादिकं याचितो 'मदीयमाभाव्यं किं न प्रयच्छसि ? ' इति मार्यमाणमपि विप्रतिपत्त्या न ददाति, तदाधिकरणं भवति / एवमपरापरघटमानाऽऽलापकश्लोकादियोजनारूपव्यत्यानेडनया सूत्रं परावर्तयन् , हीनाधिकाक्षरं वा उच्चरन् , स्थापनाकुलानि वा निष्कारणं प्रविशन् , भक्त-स्त्री-देश-राजकथां वा कथयन् साधुद्धितीयेन साधुना नोदितो यदा प्रतिवक्ति प्रद्विष्ट इव तदाऽधिकरणं स्यात् / एवमादिकारणैः समुत्पन्ने चाधिकरणे या साधुर्यस्य साधोः प्रज्ञापनया उपशाम्यति तस्य तेन साधुना उपशमनं कर्त्तव्यम् / यः पुनरुपेक्षां करोति तस्य प्रायश्चित्तम् / तच्चानया गाथया प्रतिपाद्यते / यथा-उपेक्षायां लघुको मासः / अधिकरणं कुर्वतो दृष्ट्वा मध्यस्थभावेन तिष्ठति, अन्येषामप्युपदेशं प्रयच्छति--परप्रत्ययः कर्मबन्धोऽस्माकं न भवति, परकृतस्य कर्मण आत्मनि सङ्क्रमाभावात् / अधिकरणनिवारणेन च स्वाध्यायध्यानादेः स्वार्थस्य भङ्गपातो भवतो भवति / अतो ज्ञानदर्शनचारित्ररूपे पारमार्थिके स्वकार्ये एव यतध्वम् , मा परकार्ये अधिकरणोपशमनादौ स्वार्थपरिमन्थकारित्वात् परार्थकरणस्येत्यादिरूपी उपेक्षा तत्र लघुमासः / उपहसतो-ऽधिकरणं कुर्वतो दृष्ट्वा उपहासवचनानि भाषमाणस्य अट्टहासैरुपहासं कुर्वाणस्य च स एव मासो गुरुकः स्यात् / उत्तदत-उत्-प्राबल्येन तुदतः-प्रेरयतोऽधिकरणे उत्तरदानशिक्षापणमुत्तेजनं च कुर्वाणस्येत्यर्थः। लघका श्चत्वारः / सहायकत्वे सदृशदोषः / द्वयोः कलहायमानयोर्मध्यादेकस्य पक्षे भूत्वा यः कोऽपि वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यां दन्तैर्लगुडादिभिर्वा साहाय्यं करोति, सोऽधिकरणकारिणा सह समानदोषः / ततो यत्प्रायश्चित्तमधिकरणकारिणः स्यात् , साहाय्यकारिणोऽपि तत् स्यात् समानदोषत्वादिति भावः / अधिकरणकारिणस्तु प्रायश्चित्तमिदम्उरो चउगुरु अहवा विसेसिआ हुंति भिक्खुमाईणं / अहवा चउगुरुगाई हवंति उ छेअनिद्ववणा / / व्याख्या-मिक्षुवृषभोपाध्यायाचार्याणामधिकरणं कुर्वतां प्रत्येकं चतुगुरुकं ततश्चत्वारश्चतुर्गुरुका भवन्ति / अथवा त एव चतुर्गुरुकाः तपःकालविशेषिता भवन्ति / तद्यथा-मिक्षोश्चतुर्गुरुकं तपसा, कालेन च लघुकम् / वृषभस्य तदेव कालगुरुकम् / उपाध्यायस्य तपोगुरुकम् / आचार्यस्य तपसा कालेन च गुरुकम् / अथवा चतुर्गुरुकादारभ्य छेदे निष्ठापना कर्तव्या / तद्यथा-भिक्षुरधिकरोति ततस्तस्य चतुर्गुरुकम् / घृषभस्य षड्लघुकम् , उपाध्यायस्य षड्गुरुकम् , आचार्यस्याधिकरणं कुर्वाणस्य छेदः / एवमधिकरणकरणे आदेशत्रयेण प्रायश्चित्तमुक्तम् / तथा साहाय्यकरणेऽपि द्रष्टव्यम् / अधिकरणानुपशमने दोषदर्शनार्थमिदमुदाहरणम्-अरण्णमज्झे एगं अगाहजलं सव्वओ वणसंडमंडिअं महंतं सरं अत्यि। तत्य य बहूणि जलचर-थलचर-खचर-सत्ताणि अच्छंति / तत्थ एगं महल्लं हत्थिजूहं परिवसइ / अनया य गिम्हकाले तं हत्थिजूहं पाणि पाउण्हाउत्तिण्णं मज्झण्हकाले सीअलरुक्खछायाए सुहंसहेणं चिद / तत्थ य अदूरदेसे दो सरडा भंडिउमारद्धा / वणदेवताए अ ते टुं सव्वेसि सभासाए आपोसिअं-भो हस्थिणो ! भो जलयरा ! भो थलयरा ! मा एए सरडे भंडते उवेक्खह वारेह तुम्भ। एवं भणिआ वि ते जलयराइणो चितंति-किं अम्हं एते सरडा भंडता काहिंति ? / तत्थ य एगो सरहो Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे भंडतो भग्गो पिल्लिओ सो धाडिज्जतो सुहपसुत्तस्स एगस्स जूहाहिवस्स बिलं ति काउं नासापुडं पविट्ठो / बिइओ वि तस्स पिटुओ चेव पविट्ठो / ते सिरकपाले जुड़े संपलग्गा / तस्स हथिस्स महती अरई जाया / तओ वेअणट्टो महईए असमाहीए पवट्टमाणो उद्वित्ता तं वणसंडं चूरेइ / बहवे तत्थ वसंता सत्ता घाइआ। जल च आडोहितेण. जलयरा घाइआ। तलागपाली भेइआ / तलागं विणटुं ताहे जलयरा सव्वे विट्ठा। एष दृष्टान्तः। अथ अर्थोपनयः-यथा तेषामुपेक्षमाणानां तत् पद्मसरः सर्वेषामप्याश्रयभूतं विनष्टं, तस्मिँश्च विनश्यमाने तेऽपि विनष्टाः। एवमत्राप्याचार्यादीनामुपेक्षमाणानां महान् दोष उपजायते / यतस्तावधिकरणकारिणावुपेक्षितौ परस्परं मुष्टामुष्टि वा दण्डादण्डि वा युध्येताम् / सतश्च परम्परया राजकुलज्ञाते सञ्जाते सति, स राजादिः तेषां साधूनां बन्धनं वा ग्रामनगरादेर्निष्कासनं वा कटकमदं वा कुर्यात् / किं चान्यत्तावो भेओ अयसो हाणी दंसणचरित्तनाणाणं / साहुपओसो संसारवड्ढणो साहिगरणस्स // 59 / / ___व्याख्या-तापो भेदोऽयशो हानिर्दर्शनज्ञानचारित्राणां तथा साधुप्रद्वेषः संसारवर्द्धनो भवति / एते साधिकरणस्य दोषा भवन्ति / तत्र तापो द्विधा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च / तत्रातिभणिते सति चिन्तयतिधिग मां येन तदानीं स साधुर्बहुविधैरसभ्याख्यानैरभ्याख्यातः / इत्थमित्थं चाक्रुष्ठः / एष प्रशस्तस्तापः / अथ तथाविधं तस्य संमुखं तदानीं न भणितं, ततश्चिन्तयति-हो ! मन्दभाग्यो विस्मरणशीलोऽहं यन्मया सदीयं जात्यादिमर्मनिकुरम्बं न प्रकाशितम् / एषोऽप्रशस्तस्तोपः / तथा भेदो जीवितभेदश्चरणभेदो वा स्मात् / कलहं कृत्वा पश्चोत्तापतप्तचेतसो विहायसादिमरणमभ्युपगच्छेयुः, उन्निष्क्रमणं वा कुर्युरिति भावः। कलन गणभेदो वा भवति / लोकोऽपि ब्रूयाद्-अहो ! अमीषां श्रमणानां बहिः प्रशान्ताकारं रूपं. यादृशमवलोक्यते तादृशं शीलं मनःप्रणिधानं नास्ति / यद्वा-लजनीयं किमप्यनेन कृतं सम्भाव्यते, येनैवं प्रम्लानवदनो दृश्यते / एवमादिकमयशः समुच्छलति / कलहकरणोत्तरकालमपि कषायकलुषितः पश्चासापतप्तमानसो वा यन्न पठति एषा ज्ञानहानिः / साधुप्रद्वेषतः साधर्मिकवात्सल्यं विराधितं स्यात्ततो दर्शनहानिः / यथा यथा च क्रोधादीनां कषायाणां वृद्धिस्तथा तथा चारित्रस्याऽपि हानिः / विशुद्धसंयमस्थानप्रतिपातेनाविशुद्धसंयमस्थानेषु गमनं स्यादित्यर्थः / एतच्च व्यवहारनयेन, निश्चयनयेन पुनः कषायसहितः संयत एव न भवति चारित्रशून्यत्वात् / 'अकसायं खु चरित्तं कसायसहिओ न संजओ होइ' इति पचनात् / तथा साधूनामुपरि यः प्रद्वेषः तेनाऽसौ संसारं दीर्घतरं करोति / यत एते दोषाः तत उपेक्षा म विधेया किन्तु कलहायमानावुपशमयितव्यो। गुरुभिरुपशमनार्थमित्थमभिधातव्यम्-आर्या ! उपशाम्यतोपशाम्यत / अनुपशान्तानां कुतः संयमः ? कुतो वा स्वाध्यायः ? / तस्मादुपशमं कृत्वा स्वाध्याय कुरुत / किमेवं द्रमकवत् कनकरसस्य शोकपत्रैः परित्यागं कुरुथ ? कः पुनरयं द्रमक ? / उच्यते-जहा एयो परिव्वायगो दमगपुरिसं चिंतासोगसागरावगाढं पासइ पुच्छति अ / किमेवं चिंतापरो 1 तेण से मभावो कहिओ * दारिहामिभूओमि 'त्ति / तेण भणिअं इस्सरं तुमं करोमि / जतो भणामि ततो गच्छाहि, जं च भणामि तं सव्वं कायव्वं / ताहे ते संबलं घित्तुं पव्वयनिगुंज पविद्वा / परिव्वायगेण व भणितो-एस कणगरसो सीयवायातवपरिस्समं अगणंतेहि तिसा-खुधावेअणं सहतेहिं बंभयारीहिं. अचित्तकंदमूलपत्तपुष्फफलाहारीहिं समीपत्तपुडेहिं भावओ अरुस्समाणेहिं चित्तव्यो / एस से उबारो। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इयोरनुशिष्टिः तेण दमगेण सो कणगरसो उवचारेण गहिओ। तुंबयं भरिअं / ततो निअत्ता तेण परिव्वायगेण भणिों सुरुठेण वि तुमे एस सागपत्तेण न छडिअव्वो। ततो सो परिव्वायगो गच्छंतो तं दमगपुरिसं पुषो पुणो भणइ-मम पभावेण इस्सरो भविस्ससि / सो अ पुणो पुणो भण्णमाणो रुटो भणति-जं तुम पसाएण इस्सरत्तं तेण मे न कज्जं, तं कणगरसं सागपत्तेण छड्डेति / ताहे परिव्वायगेण भणिअं-हा हा! दुरात्मन् ! किमेयं तुमे कयं'जं अजिअं समीखल्लएहिं तवनिअमबंभमइएहिं / तं दाणि पच्छ नाहिसि छड्डंतो सागपत्तेहिं ' // यदर्जितं शमीसम्बन्धिभिः खल्लकैः-पत्रपुटैस्तपोनियमब्रह्मयुक्तैस्तदिदानी शाकपत्रैः परित्यजन् पश्चात्-परित्यागकालादूर्ध्वं परितप्यमानो ज्ञोस्यसि, यथा-दुष्टं मया कृतं यच्चिरसञ्चितः कनकरसः शाकपत्ररुत्सिच्य परित्यक्तः / एवं परिव्राजकेन दमक उपालब्धः / एवमाचार्यः तावधिकरणकारिणावुपालभते। आर्या ! यच्चारित्रं कनकरसस्थानीय तपोनियमब्रह्मचर्यमयः शमीखळकैरजितं परीषहोपसर्गादिश्रममगपयद्भिश्चिरात् कथंकथमपि मीलितं तदिदानी शाकपत्रसदृशैः कषायैः परित्यजन्तः पश्चात् परितप्यमानाः स्वयमेव ज्ञास्यथ, यथा-हा ! बहुकालोपार्जितेन संयमकनकरसेन तुम्बकस्थानीयं स्वजीवं बहुपूर्ण कृत्वा पश्चात् कलहायमानैः शाकवृक्षपत्रस्थानीयैः कषायैरुत्सिच्योत्सिच्याऽयमात्मा रिक्तीकृतः शिरस्तुण्डमुण्डनादिश्च प्रव्रज्याप्रयोसो मुधैव विहित इति / कषायैः पुनश्चिरसञ्चितस्यापि चारित्रस्य नाशो भवेत् / यदुक्तं 'जं अजिअं चरित्तं देसूणाए पुवकोडीए / तं पि कसायितमित्तो नासेति नरो मुखत्तणं' एवमाचार्येण सामान्यतः तयोरनुशिष्टिातव्या नत्वेकमेव कञ्चन विशेष्य भणनीयम् / यत आहआयरिओ एगं न भणे अह एगं निवारि मासिअं लहुअं। रागदोसविमुको सीअघरसमो अ आयरिओ॥ . व्याख्या-आचार्यों नैकमधिकरणकारिणं भणति-अनुशास्ति / अथाऽऽचार्य एकमेव निवारयति-अनुशास्ति, न द्वितीयं ततो मासिकलघुकमापद्यते / असमाचारीनिष्पन्नमिति भावः / तस्मादाचार्यों रागद्वेषविमुक्तः शीतगृहसमो भवेत् / शीतगृहं नाम वर्द्धकिरत्ननिर्मितं चक्रवर्तिगृहम् / तच्च वर्षासु निर्वातप्रवोतं, शीतकाले सोष्म, ग्रीष्मकाले शीतलं / यथा तच्चक्रवर्तिनः सर्व क्षमं तथा द्रमकादेरपि प्राकृतपुरुषस्य तत्सर्वक्षिममेव भवति / एवमाचार्यैरपि निर्विशेषैर्भवितव्यम् / अथ विशेषं करोति, तत इमे दोषाः / आचार्य आत्मीयोऽयमिति बुद्धया अमुं वारयति, मां तु परबुद्धया पश्यन्न वारयति / एवं पक्षरागेण क्रियमाणेनाऽननुशिष्यमाणः साधुर्बाह्यभावं गच्छति / यद्वा-सोऽननुशिष्यमाणो गाढतरमधिकरणं कुर्यात् / अथवा तमाचार्य परिस्फुटमेव ब्रूयात्-त्वं मामेवैकं बाह्यतया प्रेक्षसे, ततश्चात्मानमुबंध्य यदि मारयति / तत आचार्यस्य पाराञ्चिकम् / अथोनिष्कामति ततो मूलम् / तस्माद् द्वावपि समदृशाऽनुशासनीयो अनुशिष्टौ च यद्युपशान्तौ ततः सुन्दरम् / अथैक उपशान्तो न द्वितीयस्तेन चोपशान्तेन गत्वा स स्वापराधप्रतिपत्तिपुरःसरं क्षामितः परमसौ नोपशाम्यति / आह-कथमेतदवगम्यते यथा नोपशान्त इति / उच्यते-यदा वन्यमानोऽपि वन्दनकं न प्रतीच्छति, यदि वा अवमरात्निकोऽसौ ततस्तं रत्नाधिकं न वन्दते / आद्रियमाणोऽपि वा नाद्रियते / एवमनुपशान्त उपलक्ष्यते / ततोऽनु Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-जीतकरूपे पशान्तेऽपि य उपशान्तो भूत्वा आदरम् अभ्युत्थानं वन्दनं सम्भोजनं संवासं च करोति तस्याऽऽराधनाऽस्ति / यस्त्वेतानि न करोति अनुपशान्ततया तस्याऽऽराधना नास्ति / उपशमैकनिबन्धनत्वादाराधनायाः / अथोपशान्तमपि अधिकरणं ये पुनरुदीरयन्ति तेषां प्रायश्चित्तामिधित्सया स्वरूपमाहखामिल विउसविआई अहिगरणाइं च जे उईरंति / ते पावा नायव्वा तेसिं आरोवणा इणमो // 61 // व्याख्या-क्षामितानि-वचसा मिथ्यादुष्कृतप्रदानेन शमितानि, व्युपशमितानि-विविधम्-अनेकधा मनसा व्युत्सृष्टानि, क्षामितानि तानि व्युपशमितानि चेति क्षामितव्युपशमितानि / एवंविधान्यधिकरणानि ये भूय उदीरयन्ति, ते पापा:-साधुधर्मबाह्या ज्ञातव्यास्तेषां चेयमारोपणा-प्रायश्चित्तमित्यर्थः / उप्पायगउप्पन्ने संबद्ध कक्खडे अ बाह्र अ। आपिट्टणा समुच्छण समुघायइवायणा चेव // 62 // लहुगो लहुगा गुरुगा छम्मासा हुंति लहुगगुरुगा य / छेओ मूलं च तहा अणवठ्ठप्पो अ पारंची // 63 // व्याख्या- इदं पूर्वगाथाप्रतिपादितेषु नवसु स्थानकेषु द्वितीयगाथोक्तानि नव प्रायश्चित्तानि क्रमेणावगन्तव्यानि / तद्यथा-द्वौ साधु पूर्व कलहं कृतवन्तौ / ततश्च क्षामितव्युत्सृष्टेऽपि तस्मिन्नधिकरणेऽन्यदा तयोरेक एवं भणति-अहं नाम त्वया तदानीमित्थमित्थं च भणितः / एष उत्पादक उच्यते / अस्य च मासलघु / इतरोऽपि ब्रूते अहमपि त्वया तदानीं किं स्तोकं भणितः ? / एवमुक्ते उत्पादकः प्राह-यदि तदानीं त्वमभणिष्यस्तदा किमहमेवमेव त्वाममोक्ष्यम् ? / एवमधिकरणमुत्पन्नमुच्यते / तत्र द्वयोरपि चतुर्लघु / सम्बद्धं नाम वचसो परस्परमाक्रोशनं कर्तुमारब्धम् / तत्र चतुर्गुरु / कर्कशं नाम तटस्थितैरुपशम्यमानावपि नोपशाम्यतः तदा षडलघु / बाहु त्ति / रोषभरपरवशतया बाहूपाहवि युद्धं कर्तुं लग्नौ तत्र षड्गुरु / आपिट्टना नाम एकेनापरो निहत्य पातितस्तत्र छेदः / योऽसौ निहतः सम्मूछा यदि प्राप्तस्तदा मूलम् / मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहते अनवस्थाप्यम् / अतिपातनामरणं तत्र पाराञ्चिकम् / अत्र प्रकरणे सर्वत्र लघुगुरु-प्रायश्चित्तमिति तत्परिज्ञापनोपायमाहअद्धेण छिन्नसेसं पुव्वद्धणं तु संजुअं काउ' / दिजाहि लहुअदाणं गुरुदाणं तत्ति चेव // 6 // व्याख्या-इह प्रायश्चित्तानि पञ्चकादीनि षोण्मासिकान्तानि एकादश भवन्ति / तानि च लघुगुरुविवक्षया द्वाविंशतिः स्युः / एतानि चैतद्गाथोक्तप्रकारेणावगन्तव्योनि / यथा दशकस्यार्द्धच्छिन्नस्य शेष दिनाः 5 दशकापेक्षया पूर्वस्य-पञ्चकाख्यप्रायश्चित्तस्याऽर्द्धन सार्धद्वयरूपेण संयुक्तं कृतं सार्द्धसप्तदिनसङ्ख्यानिष्पन्नं लघुदशकं भवति / एवंविधप्रक्रियया सर्वाण्यपि प्रायश्चित्तानि पाण्मासिकान्तानि लघूनि ज्ञेयानि, पञ्चकस्य तु पूर्व प्रायश्चित्तं नास्ति, यदद्धं तस्यार्कीकृतस्य मध्ये क्षिप्यते, अतोऽस्यार्द्धमेव सार्द्धदिनद्वयरूपं लघुपञ्चकमित्युच्यते / गुरूणि च सर्वाण्यपि यथा स्वप्रमाणान्येव / स्थापना चेयम्लघु पञ्चकं 23 / दशकं 73 पञ्चदशकं 123/ विशं 173 | पञ्चविंशं 223 | एतानि सर्वाण्यपि गुरु , 5 | , 10 | , 15 , 20 | , 25 मिन्नमास इत्युक्त्यन्ते / - - Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रीत्यादिके प्रायश्चित्तम् * लघु मासिकं 273 | द्विमासिकं 45/ त्रिमासिकं 75 चतुर्मासिकं 105/ पश्चमासिकं 135/ पाण्मासिकं 165 इह पञ्च कादीन पाण्मासिकान्तानि प्रायश्चित्तानि लघूनि गुरूणि च दर्शितानि तेषां च सङ्ग्रहगाथा इमाःदो सढदिवस पणगं सग सड्ढा दसग सढबारसगं / पनरस सड्ढसतरस वीसं दिण सड्ढवावीसं // पणवीस सढसगवीस तीस पणचत्त सट्टि पणसयरी / नवइ दिण पणहिअसयं सउवीसं पंचतीससयं / / सहसयं पगसठं असीइसयमिअ दुवीसठाणेहिं / पणगाइ छग्गुरुंतं लहु गुरु पणगाइ पच्छित्तं // व्याख्या-एतास्तिस्रोऽपि स्पष्टाः / / ___ अथाऽप्रोतिकम् असङ्खडं निष्कासनम् उपधिहरणं प्रान्तोपनम् / एतानि पञ्च सम्पत्ति-असम्पत्तिभ्यां कृत्वा दश, उपद्रावणं चकोदशम् एतान्येकादश कषायस्थानानि / एतेषु क्रमेण प्रायश्चित्तं गाथाचतुष्टयेनाहसहसा व पमाएणं अप्पडिवंदे कसाइए लहुओ। अहमवि अ न वंदिस्सं असंप संपत्ति लहुगुरुगो // व्याख्या-एकेन साधुना कश्चिदपरः साधुरभिमुखो दृष्टः, स च तेन वन्दितः, त्नेन च सहसाअन्यक्रियाव्यापारोपयुक्तेनाऽन्यतरप्रमादसहितेन वा स न प्रतिवन्दितः / ततोऽप्रतिवन्दे-अप्रतिवन्दने सति -- अहमनेन वन्दितो न' इति कृत्वा स कषायितः / एवमप्रीतिकमुत्पन्नं तस्यैवं कषायितमात्रस्यैव लघुकः / तदनन्तरं स कषायित एवं चिन्तयति-यदा एष वन्दिष्यते तदाहमपि चनं न प्रतिवन्दिष्ये / तस्याऽसम्पत्तौ तत्करणावसराऽप्राप्तौ मासलघु / सम्पत्तौ-तदवसरप्राप्तौ मासगुरु / / एमेव संखडेवी असंपगुरुगो अ लहुग संपत्ते। निच्छुभणमसंपत्ते लहुगं चिअ नीणिए गुरुगा // 69 // व्याख्या- एवमेव-यथाऽप्रीतिके तथैवाऽसङ्खडेऽपि-वाचिककलहेऽपि / असम्पत्तौ गुरुको मासः / सम्पत्तो चतुलघु / निच्छुभणं-निष्कासनं यस्योपरि कोपः स्यात् तस्य गच्छान्निष्कासनोपायकरणमित्यर्थः / तत्राऽप्यसम्पत्तौ चतुर्लवुका एव / नीणिए-गच्छान्निष्कासिते चतुर्गुरुकाः। उवहीहरणे गुरुगा असंपसंपत्तिए अ छल्लहुगा / पंतावणसंकप्पे छल्लहुगा अचलमाणस्स 170 // ___व्याख्या- उपधिहरणे यस्योपरि रोषः स्यात् तस्य साधोः परिभोग्यस्य उपधेः-उपकरणस्य हरणम्-अपहरणमपहारणं वा, तत्राऽसम्पत्तौ चतुर्गुरुकाः, सम्पत्तौ च षड्लघुकाः / प्रान्तापनं-यष्टिमुष्टयादिप्रहारैर्हननं, तस्य सङ्कल्पः-चिन्तनं तस्मिन् सति * अचलमाणस्स' अचलतः-तदवस्थस्यैव कायक्रियामप्रयुञ्जानस्य षड्लघुकाः / पहरणमग्गणि छग्गुरु छेओ दिळंमि अट्ठमं गहिए। ठग्गिन्न दिन्न अमए नवमं उद्दावणे चरिमं // लघकाः / Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे व्याख्या-प्रहरणं-लकुटादि तस्य मार्गणमितस्ततो गवेषणं तस्मिन् षड्गुरु / तेन च मार्गयता. प्रहरणे दृष्टे-चक्षुर्निपाते कृतमात्रे एव छेदः / गत्वा तस्मिन् प्रहरणे हस्तेन गृहीते सत्यष्टम, मासलघुकाद् गण्यमानं मूलमष्टमं भवति / यस्य रुष्टस्तस्योपरि प्रहरणे उद्गीर्णे-उत्पाटिते सति नवमं भवति / दत्त प्रहारे यदि न मृतस्तदोपि नवममेवानवस्थाप्यमित्यर्थः / प्रहारे दत्त यदि मृतस्तदा चरमं-पाराश्चिकं भवति / अथाधिकरणं कृत्वा कश्चिदनुपशान्त एव गच्छे तिष्ठति. तस्य विधिमाहग छा अणिग्गयस्सा अणुवसमं तस्सिमो विही होइ / सज्झाय-भिक्ख-भत्तट्ठ-वासए चउर हिकिके / / व्याख्या-गच्छादनिर्गतस्यानुपशाम्यतोऽयं विधिर्भवति-सूर्योदयकाले यः स्वाध्यायः क्रियते तदवसरे प्रथममसौ नोद्यते / द्वितीयं भिक्षावतरणवेलायां / तृतीयं भक्तार्थकाले / चतुर्थं प्रादोषिकाऽऽवश्यकवेलायाम् / एवं चतुरो वारानेकैकस्मिन् दिने नोद्यते / तच्चाधिकरणं प्रभाते प्रतिक्रान्तानां स्वाध्याये अप्रस्थापिते एवमादिकारणे उत्पद्येत-दोषदुष्टां प्रतिलेखनां कुर्वन् , अप्रतिलेखरन् , असामाचार्या वा / प्रतिलेखयन्नोदितो यदि सम्यग न प्रतिपद्यते ततोऽधिकरणं भवेत् ! उत्पन्ने चाधिकरणे यदि स्वाध्याये अप्रस्थापिते स्वयमेवोपशान्तस्ततो लष्टम् / अथ नोपशान्तस्ततो यः प्रस्थापनार्थमुपतिष्ठते स वारणीयो यथा-तिष्ठतु तावद्यावत् सर्वेऽपि मिलन्ति / तत आगतेषु सर्वेषु सूरयो बवते-आर्योपशाम्य इमे साधवः स्वाध्यायं न प्रस्थापयन्ति / स पृष्टोत्तरं प्रयच्छति-अवश्यं कालो न शुद्धः , परिजितं वा साधूनां सूत्रश्रुतं ततो न प्रस्थापयन्ति / एवं भणतस्तस्य मासगुरु / साधवश्च सर्वेऽपि प्रस्थापयन्ति स्वाध्यायं च कुर्वन्ति / काले प्रतिक्रान्ते भिक्षावेलायां जातायां पुनराचार्या भणन्ति-आर्य ! साधवस्त्वदीयेनानु. पशमनेन मिक्षा नायतरन्ति उपशमं कुरु. स पृष्टोत्तरं ददाति-नूनमभक्तार्थिनो, न. वा भिक्षावेला / एवमुक्ते सर्वेऽप्यवतरन्ति तत्यानुपशान्तस्य द्वितीयं मासगुरु / भिक्षानिवृत्तेषु साधुषु गुरवो भणन्तिआर्य ! साधवो न भुञ्जते, स प्राह-नूनं साधूनां न जीणं / एवमुक्ते सर्वे समुद्दिशन्ति तस्य पुनस्तृतीय मासगुरु / भूयोऽपि प्रतिक्रमणवेलायां भणन्ति-आर्य ! साधवो न प्रतिक्रामन्ति उपशमं कुरु. स प्रत्युत्तरमाह-नूनं निरतीचाराः श्रमणास्तेन न प्रतिक्रामन्ति / एवमुक्ते सर्वेऽपि प्रतिक्रामन्ति / तस्य पुनश्चतुर्गुरुकम् / एवं प्रभातकालेऽधिकरणे उत्पन्ने विधिरुक्तः / अथाऽन्यदा स्वाध्याये प्रस्थापिते यदि पठतामधिकरणमुत्पन्नं ततस्त्रयो नोदना कालाः / द्वौ मासगुरुकौ / भिक्षां हिण्डमानानामधिकरणे उत्पन्ने द्वौ नोदनाकालौ, एकं मासगुरु / भुक्तानामधिकरणे उत्पन्ने एको नोदनाकालः / अत्र नास्ति मासगुरु / अनुपशान्तस्य प्रतिक्रमणे कृते चतुर्गुरुकमेव भवति / . एवं दिवसे दिवसे चाउक्कालं तु सारणा तस्स / जइ वारि न सारेई गुरूण गुरुगो अ ततिवारे // व्योख्या- एवमनुपशान्तस्य दिवसे दिवसे चतुष्कालं स्वाध्यायप्रस्थापनादिरूपं तस्य सारणा कर्त्तव्या / यति-यावतो वारान् आचार्यों न सारयति, तति-तावतो वारान् गुरूणामाचार्याणां मास. गुरुका भवन्ति / एवं दिने दिने सारणाविधिरगीतार्थस्य कर्त्तव्यो यस्तु गीतार्थः स यद्येकदिनं स्वाध्यायभिक्षा-ऽभक्तार्था-ऽऽवश्यकलक्षणेषु चतुर्यु स्थानेषु सारितस्तदा परतस्तमसारयन्नपि गुरुः शुद्धः / यदि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपशान्तस्य विधिः पुनस्तमगीतार्थं गीतार्थं वा गुरुर्न सारयति. ततो द्वयोरप्याऽऽचार्यस्यानुपशाम्यतश्च प्रायश्चित्तम् / अन्ये ब्रुवते-अगीतार्थस्यानुपशाम्यतोऽपि नास्ति प्रायश्चित्तम् / यस्तु गुरुरगीतार्थं न नोदयति तम्य प्रायश्चित्तम् / गच्छो उ दुन्नि मासे पक्खे पक्खे इमं परिहरेइ। भत्तछं सज्झायं वंदणलावं तउ परेणं // 74 // व्याख्या-एवमनुपशाम्यन्तं गच्छो द्वौ मासौ सारयति / इदं पुनः पक्षे पक्षे गच्छः परिहरति / तद्यथा -अनुपशान्तस्य पक्षे गते गच्छस्तेन सार्द्ध भक्तार्थं न करोति, न गृह्णाति न वा किमपि तस्य ददातीत्यर्थः / द्वितीये पक्षे गते स्वाध्यायं तेन समं न करोति / तृतीये पक्षे गते वन्दनं न करोति / चतुर्थोऽपि पक्षो यदा गतो भवति, ततः परमालापमपि तेन सार्द्ध वर्जयति / आयरिओ चउमासे भुंजइ चउरो उ देइ सज्झायं / चउरो वंदणलावं तेण परं मूलनिच्छुभणा // 75 / / व्याख्या-आचार्यः पुनश्चतुरो मासान् सर्वैरपि प्रकारैस्तेन समं सम्भुङ्क्ते / ततः परं चतुरो मासान् भक्तार्थं वर्जयति, स्वाध्यायं तु ददाति / ततश्चतुरो मासान् स्वाध्याय परिहृत्य वन्दनाऽऽला ददाति / ततः पर वर्षे पूर्ण-सांवत्सरिके प्रतिक्रान्ते उपशान्तस्य मूलम् / अनुपशान्तस्य तु गणान्निष्कासनं कत्तव्यम् / एवं द्वादशमास्यामप्यनुपशाम्यतो द्वयोरादिममासयोर्यावद् गच्छेन विसर्जितस्तावत्तपःप्रायश्चितमेव, शेषेषु दशसु मासेषु पश्चरात्रिंदिवच्छेदो यावत् सांवत्सरिकं पर्व प्राप्तं भवति / पर्युषणारात्रौ प्रतिक्रान्तानामधिकरणे उत्पन्न एष विधिरुक्तः / भाद्रपदशुद्धपञ्चम्यामनुदिते आदित्ये यदाऽधिकरणमुत्पद्यते ततः पर्युषणायामप्यनुपशान्ते संवत्सरो भवति / षष्ठयामुत्पन्ने एकदिवसोनः संवत्सरः / सप्तम्यां दिनद्वयोनः संवत्सर एवमेकैकदिनहान्या तावत् ज्ञेयं यावत् पर्युषणादिवसः / तत्रानुदिते खौ कलहे उत्पन्ने एवमेव नोदना कर्तव्या। प्रथमं स्वाभ्यायप्रस्थापनं कर्तुकामाः सारयन्ति, ततश्चत्यवन्दनार्थं गन्तुकामाः सारयेयुः, तत्राऽप्यनुपशान्ते प्रतिक्रमणवेलायां सारयन्ति / एवं तस्मिन् पर्युषणादिवसे त्रिषु स्थानेषु नोदितस्याऽनुपशान्तस्य त्रीणि मासगुरूणि भवन्ति / ततः किमिलाहमूलं तु पडिकंते पडिक्कमंते वि हुन्ज अहिगरणं / संवच्छरमुस्सग्गे कयंमि मूलं न सेसाइं // 76 // व्याख्या–पर्युषणादिने सर्वेषामधिकरणानां व्यवच्छित्तिः कर्त्तव्येति कृत्वा प्रतिक्रान्ते-समाप्ते आवश्यके यदि नोपशान्तस्ततो मूल भवति / एष पर्युषणादिनोत्पन्नाधिकरणे विधिः / अथ प्रतिक्रमणं कुर्वतामेवाधिकरणं भवेत् / ततः सांवत्सरिके कायोत्सर्गे कृते मूलमेव केवलं, न शेषाणि प्रायश्चित्तानि / एवमाचार्यस्तं रुष्टं संवत्सरं यावत् प्रयत्नेन रक्षति / किमर्थम् ? , उच्यते-यदि नाम उपशाम्येत / अथ संवत्सरेणापि यदि नोपशाम्यति, ततः पर्वतराजीसदृशरोषः स मन्तव्यः / वर्षादूर्ध्वं च मूलाचार्यसमीपान्निगतं तमन्यौ द्वावाचायौँ क्रमेणेकैक वर्षमनेनैव विधिना प्रयत्नेन संरक्षतः / तन्मध्याद् येनोपशमितस्तस्यैवाऽसौ शिष्यः। ततो वषत्रयादूर्ध्वमेष गृहीक्रियते-सङ्घस्तस्य लिङ्गमपहरतीत्यर्थः। द्वितीयपदेन राजप्रबजितस्य लिङ्गं न ह्रियते / एवं भिक्षोर्विधिरुक्तः / उपाध्यायाचार्ययोरप्येष एव विधिः / नवरमुपाध्यायस्यानुपशाम्यतो गच्छे वसतस्त्रीन् पक्षास्तपःप्रायश्चित्तं, परतश्छेदः / आचार्यस्यानुपशाम्यतो द्वौ पक्षी तपः , परतश्छेदः / ततो ये उपाध्यायस्य त्रयः पक्षोस्ते दिवसीकृताः पञ्चचत्वारिंशदिवसा भवन्ति / ततः Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 यति-जोतकल्पे पञ्चचत्वारिंशदिवसाश्चतुर्धा क्रियन्ते / चतुर्भागे च सपादा एकादश दिवसा भवन्ति / तत्र गच्छ उपाध्यायेन सममेकादश दिनानि भक्तार्थं करोति / एवं स्वाध्यायवन्दनालापानपि प्रत्येकमेकादश दिनानि यथाक्रमं करोति, परतस्तु परिहापयति / पञ्चचत्वारिंशदिवसानन्तरं चोपाध्यायस्य दशकच्छेदः / आचार्यस्तथैवोपाध्यायमपि चतुर्भिश्चतुर्भिर्मासैर्भक्तार्थादीनि परिहापयन् संवत्सरं सारयति / आचार्यस्य द्वौ पक्षौ दिवसीकृतौ त्रिंशदिवसा भवन्ति / ततश्चतुर्धा विभक्तो चतुर्थभागे चार्धष्टमा दिवसा भवन्ति / तत्र गच्छ आचार्येण सहा ष्टमानि दिनानि भक्तार्थं करोति / एवं स्वाध्यायवन्दनालापानपि यथाक्रममर्धाष्टमैर्दिवसः प्रत्येकं हापयति, ततः परं गच्छेन चतुर्भिरपि भक्तार्थादिभिः पदैविवर्जित आचार्यस्तत आचार्यस्य पञ्चदशकच्छेदो भवति / अत्राह-ननु सदृशापराधेऽप्याचार्योपाध्यायभिक्षूणां कथं विषमं प्रायश्चित्तं प्रदीयते ?, उच्यते-कुमारदृष्टान्तोऽत्रावगन्तव्यः / स चाऽयम्-एगस्स रण्णो तिण्णि पुत्ता जिट्ठो मज्झिमो कणिट्ठो / तेहि अ तिहिं वि सामस्थिअं पिअरं मारित्तो रज्जं तिहा विभयामो / न च रण। नायं / तत्थ जिट्ठो जुवराया एस पहाणवत्थुत्ति काउं किमेरिसं अज्झवसति ? त्ति तस्स भोगहरण-बंधणताडणादिआ सव्वे दंडप्पगारा कया / मज्झिमो एस अपहाणोत्ति काउं तस्स भोगहरणं न कयं बंधवहखिसाइआ कया / अव्वत्तो कणिट्ठो एएहिं विआरिउत्ति काउ कण्णचवेटयदंडो खिंसा दंडो अ कओ, न भोगहरणबंधणदंडा कया। अयमर्थोपनयो-यथा सहशेऽप्यपराधे युवराजम्य भोगहरणं बन्धनादिको महान् दण्डः कृतः / मध्यमस्य बन्धवधादिको, न भोगहरण / कनिष्ठम्य कर्णामोटनादिको, न भोगहरणादिकः / तथा लोकोत्तरेऽप्युत्कृष्टमध्यमजघन्येषु पुरुषवस्तुषु बृहत्तमो लघुलघुतरश्च यथाक्रमं दण्डः क्रियते / यतः प्रमाणभूते पुरुषे अक्रियासु वर्तमाने अप्रत्ययादयो दोषा भवन्ति / अथ भिक्षुरुपाध्याय आचार्यों वा यदा स्वगच्छेन भक्तार्थादिभिश्चतुर्भिः पदेवर्जितस्तदा परगणं सङ्कामति / ततस्तस्य परगणाचार्यो वन्दनालापाभ्यां द्वाभ्या पदाभ्यां सम्भुञ्जानः स्वाध्यायादिभिः पदैदिने दिने सारणां तथैव वर्षं यावत्करोति / परगणे चानुपशाम्यतो भिक्षोः प्रतिदिनं दशकच्छेदः / उपाध्यायस्य पञ्चदशकच्छेदः / आचार्यस्य विंशच्छेदः / परगणे अन्यसाम्भोगिकेषु पुनः सङ्क्रान्तस्य भिक्षोरनुपशाम्यतः पञ्चदशकच्छेदः / उपाध्यायस्य विंशच्छेदः / आचार्यस्य पञ्चविंशच्छेदः / अवसन्नेषु च सङ्क्रान्तस्य भिक्षोर्वि शच्छेदः / उपाध्यायस्य पञ्चविंशच्छेदः / आचार्यस्य त्रिंशद्रात्रिंदिवच्छेदः / परगण परगण स्वगण साम्भो० / अन्य० अवसन्न भिक्षोः अत्र शिष्यः प्रेरयति-रागद्वेषिणो ययं यत् स्वगणे स्तोकं छेदप्रायश्चित्तं दत्त, परगणे तु प्रभूतम् / एवं स्वगणे भवतां रागः, परगणे द्वेषः / गुरुराह-इदं छेदनानात्वं कुर्वतो वयं न रागद्वेषिणः / तथा चात्र दृष्टान्तः-' एगस्स गिहिणो चउरो भजाओ / ताओ अ तेण कम्हि एगे अवराहे कए पंतावित्ता नीहरह मम गिहाउत्ति निच्छूढा / तत्थेगा कम्हिंइ परघरमि गया। बिइआ कुलचरं / तईआ उपा० 25 आ० Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समानेऽप्यपराधे दण्डभेदे दृष्टान्तः भत्तणो एगसरीरो वयंसो त्ति तस्स घरं गया / चउत्थी निच्छुभंती वि बारसाहाए लग्गा / हम्ममाणि वि न गच्छइ / भणति अ कओ वच्चामि ? नत्थि मे अन्नो गइविसओ / जइ वि मारेसि तहावि तुमं चेव गई सरणं तत्थेव ठिआ / तओ तुठेण चउत्थी घरसामिणी कया / तइआए घाडिअघरं जंतीए सो चेव अणुवत्तिओ। विगयरोसेण खरंटिआ आणिआ य / बिइआए कुलघरं जंतीए पिउगिहबलं गहिअं गाढतरं रुठेग अन्नेहि भणिए विगयरोसेण खरंटिआ दंडिआ य / पढमा दूरनट्ठ त्ति न ताए किंचि पओअणं महंतेण वा पच्छित्तदंडेण दंडिउं आणिज्जइ / एवं उत्रसंहारो-परघरसंठाणीआ उसन्ना / कुल घरसंठाणीआ अन्नसंभोइआ घाडिअसमा संभोइआ / अनिग्गमे सघरसमो स गच्छो जोव दुरतरं ताव महंततरो दंडो भवइ / एवमादिकोऽधिकरणविषयो वाच्यविस्तरो निशीथादितः स्वयमवसेयो विस्तरप्रियैः / अथाधिकरणादिदोषैर्गणान्निर्गत्य यो भिक्षुरुपसम्पदनार्थं समागतः स्यात् स परिहरणीय इति दर्शयतिअहिगरणविगइजोगे पडिणीए थद्धलुद्धनिद्धम्मे / अलस अणुबद्धरोसे सच्छंदमई पयहिअव्यो / / 77 // व्याख्या-यदि स उपसम्पद्यमानः साधुः साधुभिर्गृहिभिर्वा सहाधिकरणं कृत्वा स्वस्थानानिर्गतः / विगइ 'त्ति विकृतिलाम्पट यात् / 'जोग 'त्ति योगोद्वहनभीरुतया / 'पडिणीए 'त्ति प्रत्यनीकोऽत्र मे साधुरितिबुद्धया / तथा 'थद्धलुद्ध' इत्यादि / स्तब्ध इति वा, लुब्ध इति वा, निर्द्धर्मा इति वा, अलस इति वा, अनुबद्धवैर इति वा, स्वच्छन्दमतिरिति वा विनिर्गतस्ततस्तस्य निर्गमनमशुद्धमिति कृत्वा ‘घयहिअव्वो 'त्ति / परिहर्त्तव्यः / नन्वविकरणादिदोषतो विनिर्गतास्ते कथमवसीयन्ते ? उच्यते - तथाविधतदुक्तिवशात् / तथाहि-विकृतिदोषविनिर्गतः पृष्टोऽपृष्टो वा वक्ति-स आचार्यो विकृति-घृतादिकां ग्रहीतुं न ददाति / तथा योगवाहिभियोंगोत्तीर्णैः कायोत्सर्गकरणतो गृहीतायां विकृतावन्यैश्च भुक्तायामपि या उद्धरिता विकृतिस्तामपि नानुजानाति / किंच भगवन् ! नवेक्षुतुल्यो मम देहो / यथा स इक्षुः पानीयेन विना शुष्यति तथा ममापि देहो विकृति विना सीदति / अन्यच्चाहं स्वभावेन दुर्बलो, न विकतिमन्तरेण बलिको भवामि / तथा सर्वदेव विकृत्या भावितदेहस्ततस्तद् भावितस्य सतो ममेदानीं तस्या अभावे न बलं, न च सूत्रस्यार्थस्य वा ग्रहणमशक्तत्वात् पूर्वगृहीतस्य तु सूत्रार्थस्यावधारणं कुतः ? ' ततोऽशक्त्या सर्वं दूरत एव विस्मृतं ततोऽहं विनिर्गतः / योगभीरुव्रते-तस्याचार्यस्य गच्छे योग एकान्तरोपवासेनोह्यते एकान्तराचाम्लेन वा / तथा योगवाहिनो योगोत्तीर्णस्यापि ते आचार्या विकृति न विसृजन्ति / ततः कर्कशास्तत्र योगा इति विनिर्गतः / प्रत्यनीकत्रस्तोऽभिधत्ते-तत्र गच्छे मम प्रत्यनीकोऽस्ति स कथञ्चित् सामाचारीयोगे विस्मृते स्खलिते दुष्प्रत्युपेक्षणोंदिके मां गृह्णाति, अत्यर्थं खरण्टयति / अथवा चुकस्खलितेषु जातेषु तानि चुक्कस्खलितानि अपराधपदे छिद्राणीव गृह्णाति गृहीत्वा च गुरूणां कथयति / पश्चाद् गुरवो मां खरण्टयन्ति / ततो विनिर्गतः। अथ स्तब्धो ब्रूते-यद्याचार्याश्चक्रमणं कुर्वन्ति, कायिक्यादिभूमि गच्छन्त्यागच्छन्ति वा तदा(था)ऽप्युत्थातव्यास्तेषां नायकत्वात् / तत एवं चक्रमणादावभ्युत्तिष्ठतामस्माकं कटी वातेन गृह्यते, भूयोभूय उत्थाने च पलिमन्थभावात् सूत्ररूपस्याथरूपस्य वा स्वाध्यायग्य हानिः / अथ नाऽभ्युत्थीयन्ते तत ओचार्याः प्रायश्चित्तं ददन्ति स्वरण्टयन्ति च ततोऽहं विनिर्गतः / लुब्धः पुनरेवं ब्रूते-यत्किमपि उत्कृष्टं शिखरिणी-मोदकादि तदाचार्यः स्वयं भुङ्क्ते Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 यति-जीतकल्पे न त्वस्मादृशेभ्यो ददाति, अन्येभ्यो वा बालवृद्धदुर्बलप्राघूर्णकेभ्यो ददाति / तत एवमसहमानोऽहं निर्गतः। यो निर्द्धर्मा स एवं भाषते-यदि कथमपि निर्गच्छन् प्रविशन् वा आवश्यकी नैषेधिकी च न करोति, दण्डादिकं वा गृह्णन निक्षिपन् वा न प्रमार्जयति, तत आचार्या निरनुकम्पाः सन्त उग्रं प्रायश्चित्तं दण्डं प्रयच्छन्ति / ततोऽहं दण्डभयाद्विनिर्गतः / यः पुनरलसः स एवं ब्रते-बालवृद्धादीनामर्थाय तस्मिन् गच्छे दीर्घा भिक्षाचर्या / क्षुल्लकं कर्कशं वा तत्क्षेत्रं ततः प्रतिदिवसमन्यत्र ग्रामान्तरे गत्वा भिक्षाऽऽनीयते / तथा यदि कथमप्यपर्याप्ते समागम्यते ततो गुरुः खरण्टयति-किं वसतौ महानसमस्ति ? येनाऽपर्याप्तः समागतः। तस्माद् भूयोऽपि व्रज भिक्षार्थं यतः कालोऽद्यापि बहुः प्राप्यः क्षेत्रं भाजनं चास्तीति ततोऽहं निर्गतः। अनुबद्धवैरो भणति-कलहमपि कृत्वा तत्र संयता एकत्र भुञ्जते / यथा चण्डालाः शुनका वा परस्परं भण्डित्वा तत्क्षणादेवैकत्र भुञ्जते नवरं मिथ्यादुष्कृतं परस्परं दाप्यन्ते इति विशेषः / अहं पुनर्न शक्नोमि हृदयस्थेन शल्येन तैः सहैकत्र समुद्देष्टुमिति विनिर्गतः। स्वच्छन्दमतिः पुनरेवं भाषतेतत्र गच्छे एकाकिनः सतः स्तोकमपि चलितुं न लभ्यं सञ्जाभूमावप्येकाकिनः सतो गन्तुं न प्रयच्छन्ति, किन्त्वेवं ब्रूवते-नियमोत् सङ्घाटकरूपतया केनापि सहितेन गन्तव्यं ततस्तमसहमानोऽहमत्रागतः / एतान्यधिकरणादीनि पदान्याचार्यः श्रुत्वा तं परित्यजति / एतैश्चाधिकरणादिपदैरागतस्य तस्योपसम्पद्यमानस्य प्रतीच्छतश्चाचार्यस्येदं प्रायश्चित्तम् समणहिगरणे पडिणीअ लुद्ध अणुबद्धरोसि चउगुरुगा। सेसाण हुंति लहुगा एमेव पडिच्छमाणस्स // व्याख्या-यः श्रमणैः सहाधिकरणं कृत्वा समागतः / यश्च तत्र मे प्रत्यनीकः सोधुरिति कृत्वा समायातः। यश्च लुब्धो यश्चानुबद्धरोषः। एतेषां चतुणों प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुमासाः। शेषाणां षण्णां विकृतिलम्पट-योगभीरु-स्तब्ध-निर्द्धर्मा-ऽलस-स्वच्छन्दमतीनां गृहिभण्डनकारिणश्च चतुर्लघुकाः। यः पुनराचार्यस्तदाचार्याननुज्ञया प्रायश्चित्तदानमन्तरेण च प्रतीच्छति तस्यापि प्रायश्चित्तमेवमेव / तद्यथाश्रमणाधिकरणकारि-प्रत्यनीक-लुब्धा-ऽनुबद्धरोषान् प्रतीच्छतश्चत्वारो गुरुमासाः। शेषान् षट प्रतीच्छतश्चत्वारो लघुमासाः / अथाधिकरणादियथोक्तदोषरहितो यः समागतो भवेत् सोऽपि त्रीणि दिनानि परीक्ष्य सङ्ग्रहीतव्यो, यदि पुनः परीक्षां न कुर्वन्ति ततश्चतुर्लघु / अन्याचार्याभिप्रायेण वा मासलघु / सा च परीक्षा उभयथापि / शिष्य आचार्य परीक्षते, आचार्यः शिष्यम् / सा पुनः परीक्षा यैः पदैः क्रियते तान्याह आवस्सय सज्झाए पडिलेहण मुंजणे अ भासाए / वीआरे गेलने भिक्खग्गहणे परिच्छंति // 79 // व्याख्या-आवश्यके स्वाध्याये प्रतिलेखने भोजने भाषायां वीचारे-बहिभूमौ ग्लाने भिक्षाग्रहणे च परस्परमाचार्यशिष्यो परीक्षेते / तत्रावश्यके शिष्यमित्थं परीक्षन्ते आचार्याः-आवश्यकं हीनं करोति, हीनं नाम यत् कायोत्सर्गसूत्राणि मन्दं मन्दमुच्चार्य शेषसाधुषु चिरकालं कायोत्सर्गस्थितेषु पश्चात् कायोत्सर्ग तिष्ठति इत्यादि / अधिकं वा करोति / अधिकं नाम कायोत्सर्गसूत्राण्यतित्वरितमुच्चार्यानुप्रेक्षाकरणार्थं पूर्वमेव कायोत्सर्गे तिष्ठति / रत्नाधिकेन चोत्सारिते कायोत्सर्गे पश्चाच्चिरेण स्वं कायोत्सर्गमुत्सारयति इत्यादि / विपरीतं वा करोति, विपरीतं नाम प्रादोषिकान् कायोत्सर्गान् प्राभातिकानिव करोति, Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षापदानि प्राभातिकान् प्रादोषिकानिव / अथवा सूर्येऽस्तमितमात्रे एव निर्व्याघाते सर्वैरपि साधुभिराचार्येण सह प्रतिक्रमितव्यं यदि पुनराचार्यस्य श्राद्धादिधर्मकथादिभिर्व्याघातस्ततो बालवृद्धग्लानासहान् निषद्याधरं च मुक्त्वा शेषैः सूत्रार्थस्मरणार्थं कायोत्सर्गेण स्थातव्यम् / ये पुनः सत्यपि बले पूर्व कायोत्सर्गे न तिष्ठन्ति तोन् पूर्वमतिष्ठतो नोदयन्त्याचार्याः / यः पुनः परीक्ष्यते तं प्रमाद्यन्तमपि न शिक्षयन्ति, ततो यदि स एवं व्यवस्थति-यथाऽऽत्मीयान् प्रमाद्यतो नोदयन्ति, न मामिति सुखमिह वस्तुमिति / स इत्थम्भूतः पञ्जर. भग्नो ज्ञातव्यो न प्रतीच्छनीयः / यः पुनरप्रतिनोद्यमानः सन्नेवं चिन्तयति-येषु स्थानेष्वहं प्रमाद्यामि तेष्वेव स्थानेष्वात्मीयान् शिष्यान् प्रमाद्यतो नोदयन्त्याऽऽचार्या न माम् / अहो ! अहमनाथः परित्यक्त एतैरिति चिन्तयित्वा संविग्नविहारमिच्छन् स्वयमेव ततः प्रमादस्थानान्निवर्त्तते / अथवा छिन्नमुक्तावलीप्रकाशान्यश्रूणि विमुञ्चन् आचार्याणां पादयोः पतित्वा शिक्षा मार्गयति-यथा मामप्यत्यादरेण भगवन्तः शिक्षयन्तां मा मां शरणमुपागतं परित्यजत, युष्मच्छरणमागतोऽप्यहं युष्माभिः शिक्षाया अप्रसादतस्त्यक्तः / न चैतद् भगवतां परमकरुणापरीतचेतसामुचितं तस्मात् प्रसादमाधाय मामपि सीदन्तं शिक्षयध्वमित्येष इत्थम्भूतः प्रतिग्राह्यः / एषाऽऽवश्यकमधिकृत्य परीक्षा / एवं स्वाध्यायेऽपि हीनमधिकं विपरीतं च करोति / स्वाध्याये च हीनता नाम यद्यप्राप्तायामपि कालवेलायां कालप्रतिक्रमणं करोति / अधिकता च यद्यतिक्रान्तायामपि कालवेलायां कालं न प्रतिक्रामति / वन्दना दिक्रियां वा तदनुगतां हीनाधिकां करोति / विपरीतता तु पौरुषीपोठ्यमतिक्रान्तायां पौरुष्यां पठति / उत्कालिकं पौरुष्या. मिति / प्रतिलेखनेऽप्येवमेव कालतो हीनामधिकां वा प्रतिलेखनां करोति / खोटकादिभिर्वा हीनाधिकां विपरीतां वा करोति / विपरितता नाम प्रभाते यन्मुखपोतिकादिक्रमेण न प्रत्युपेक्षते किन्तु स्वेच्छया, यदि वा पूर्वाहणे रजोहरणं निष्पश्चिमं प्रत्युपेक्षते अपराहणे तु सर्वप्रथममित्यादि / तथा भोजने आलोकादिविधिना सूत्रोक्तेन न भुङक्ते, दोषैर्वा काकशगालखादितादिभिः , असुरसुरं अचवचवं .अद्दअमविलम्बिअभित्यादिविपरीतरूपैर्वा भुङ्क्ते / भाषायां या गृहस्थभाषा ढड्ढरभाषा स्थूरस्वरभाषा च तां भाषते / वीचारे-स्थण्डिले सामाचारी पादप्रमार्जनडगलकग्रहणदिगालोकनादिरूपां विलुम्पति / तथा ग्लानं न प्रतिजागर्ति, नाऽपि ग्लानस्य खेलमल्लकादिकं समर्पयति / भिक्षाग्रहणे च अभणितः सन् भिक्षां न हिण्डते, भणितोऽपि वा अर्द्ध हिण्डिते प्रतिनिवर्तते, अनेषणीयां वा भिक्षां गृह्णाति, कोण्टलेन वोत्पादयति / एतेषु च स्थानेषु स्वशिष्यान्नोदयन्ति न तु तं परीक्ष्यमाणमित्यादि प्राग्वत् / स चोपसम्पद्यमानः संविग्नेभ्यः पार्श्वस्थादिभ्यो वा समागतो भवेत् / तत्र यः संविग्नेभ्यः समागतः स ज्ञानदर्शनार्थं पञ्जरभग्नो वा समागतः / यः पुनः पार्श्वस्थादिभ्यः समायातः स चारित्रार्थ मुद्यन्तुकामोऽनुद्यन्तुकामो वा ज्ञानदर्शनार्थमायातः / अथवा संविग्नेभ्यो यः समागतः स पञ्जरभग्नः / यः पुनः पार्श्वस्थादिभ्यः समायातः स पञ्जराभिमुखः। एतयोर्द्वयोरपि समागतयोरावश्यकादिभिः पदैराचार्येण परीक्षा कर्त्तव्या / एवं शिष्येणाऽप्यावश्यकादिभिः पदैराचार्यस्य परीक्षा कर्तव्या / सा चैवम्-आवश्यकादिषु पदेषु मध्ये कापि यदि गच्छवासिनः कानपि सीदतः पश्यति, तत आचार्येभ्यः कथयति, तेन कथिते सति यद्याचार्याः सम्यक् प्रतिपद्य तोन् प्रमोदिनः प्रतिनोदयन्ति प्रायश्चित्तं च प्रयच्छन्ति / ततस्तत्रोपसम्पत्तव्यम् / अथ कथितेऽप्याचोर्यास्तूष्णीं तिष्ठन्ति, भणन्ति वा किं तव ? यद्यते न सम्यगवर्तन्ते, तर्हि अन्यत्र गच्छान्तरे उपसम्पत्तव्यं न तत्र / पञ्जरस्य चेदं स्वरूपं Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे 'पणगाइ संगहो होइ पंजरो जा य सारणान्नुण्णं / पच्छित्तचमढणाहिं निवारणं सउणिदिद्वतो' पञ्चकं नाम आचार्योपाध्यायप्रवर्तिस्थविरगणावच्छेदकरूपम्, आदिशब्दात् भिक्षवो वृषभाः क्षुल्लका वृद्धाः परिगृह्यन्ते / तेषां सङ्ग्रहः पञ्चकादिसङ्ग्रहो भवति पञ्जरः। अथवा या आचार्यादीनामन्योऽन्यं-परस्परं सारणा,किमुक्तं भवति-आचार्यादयः परस्परं यन्मृदुमधुरभाषया सोपालम्भं वा शिक्षयन्ते एष वा पञ्जरः। यदि वा यत् प्रायश्चित्तचमढनाभिरसामाचार्या निवारणं-पूर्वं खरपरुषैस्तर्जयित्वा पश्चात् प्रायश्चित्तप्रदानेन यदसामाचारीतो निवर्तनं तत्पञ्जरः / अत्रार्थे शकुनिदृष्टान्तः- यथा पञ्जरे शकुनेः शलाकादिभिः स्वच्छन्दगमनं निवार्यते तथा आचार्यादि पुरुषगच्छपञ्जरे सारणाशलाकया असामाचारीरूपोन्मार्गगमनं निवार्यते / अत्र ये संघिग्नेभ्यो ज्ञानदर्शनार्थमागता ये च पार्श्वस्थादिभ्यश्चारित्रार्थमागतास्ते सङ्ग्रहीतव्याः / ये पुनः पञ्जरभग्ना ज्ञानदर्शनार्थमागता ये च पार्श्वस्थादिभ्यो ज्ञानदर्शनार्थमागतास्ते न सङ्ग्रहीतव्याः / न च स्फुटं प्रतिषेध्यन्ते / तेषां चेयं प्रतिषेधयतना-यदेतत् सूत्रमर्थं वा यूयमिच्छत तदस्माकं नास्ति / अथ भणति-मयाऽन्यसमीपे श्रुतं यथा युष्माकमेतदस्ति, अथवा भणति-मयैव यूमं वाचनां ददाना श्रुताः। तत आचार्या भणन्ति-सत्यं परमिदानों तदस्माकं शङ्कितं जातं न च शङ्कितं . ' सूत्रमों वा. दीयते आगमे प्रतिषिद्धत्वात् / ततोऽन्यत्र गच्छत यत्र निश्शङ्कितं श्रुतं लभध्वे / उक्तं च ' नत्थेअंमि जमिच्छह सुअं मए आमसंकिअं तं तु। न य संकिअं तु दिज्जइ निस्संकसुए गवेसाहि' / / एवं पूर्वोक्ता अप्यधिकरणादिदोषनिर्गता यतनया प्रतिषेध्याः / तथाहि-यः सङ्घाटकोद्विग्नः समागतः स भण्यते-अस्माकमपीदृशी सामाचारी-न सङ्घाटकेन विनो सञ्जाभूम्यादावपि गन्तुं लभ्यते / योऽनुबद्धवैरः स भण्यते-अस्माकमप्यवश्यं मण्डल्यां समुद्देष्टव्यम् / सूत्रार्थमण्डलीभग्नो भण्यते-अस्माकमियं सामाचारी सूत्रार्थमण्डलीषु यद्यपि न पठति न शृणोति वो तथापि मण्डल्यामुपविष्टस्तिष्ठति न स्वच्छन्देन स्थातुं लभ्यते / आलस्यवान् भण्यते-अस्माकमत्र क्षेत्रे बालग्लांनवृद्धा हिण्डन्ते. ततो यदि दिने दिने बहिर्भिक्षाचयाँ करोषि तदा तिष्ठ / यो निर्द्धर्मा स भण्यते-अस्माकपि यदि दुष्प्रमार्जितादीनि करोति तदा हाडहडं प्रायश्चित्तं प्रदीयते / हाडहडं नाम यत् तत्कालमेव दीयते, न कालहरणं क्रियते / विकृतिलम्पटो भण्यते-अस्माकं योगवाहिना अयोगवाहिना वा विकृतिर्न ग्राह्यो / अथवा स यद्यत् कारणं दीपयति तस्य तत्तत् प्रतिलोममुपदिश्यते / उक्तं च - _इक्कल्लेण न लब्भा वीआरादी वि जयण सच्छंदे / भोअण सुत्तेमंडलि अपढतेवी निओअंति' / अलसं भणंति बाहिं जइ हिण्डसि अम्ह इत्थ बालाई / पच्छित्तं हाडहडं अविउस्सग्गं तहा विगई। अत्राह-ननु एवं प्रतिषेधं कुर्वाणस्य माया मृषावादश्च भवति, ततः कथं संयमशुद्धिः 1 , उच्यते-नात्र मायामृषावादौ, यतः कारणे तावप्यनुज्ञातौ / कारणं चेदं-तेषां निर्गमनमशुद्धं तेनोपायेनायं प्रतिषेधः कृतः / अगीतार्थानामेषा यतना / गीतानां पुनः स्फुटमेव भण्यते यतस्ते सामाचारी जानन्तः कथमप्रीत्यादिकं कुर्वन्ति 1 तेष्वपि यन्माया-मृषावादकरणं युज्यते तत् कर्त्तव्यम् / अगीतार्थानां पुनः स्फुटं भण्यमानं विद्वेषकरं स्यात् / ते च चिन्तयन्ति-एते च मत्सरेण न ददति श्रुतं, ततोऽयशः सम्पद्यते / एतेषां च प्रतीच्छनेऽयमपवादः / यस्य निर्गमोऽशुद्धः स यतनया निषिद्धो भणति- मिथ्या मे दुष्कृतं . न पुनरेवं करिष्ये' / यद्वा भणत तत् करोमि, मुक्तो मया पापभावो दुर्गतिनिबन्धनमिहलोकेऽपि Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयमहावतातिचारप्रायश्चित्तम् 57 गर्हितः / एवमुपस्थितः सङ्ग्रहीतव्यः / तत्राऽप्येते न सङ्ग्राह्याः-योऽधिकरणं कृत्वा समागतः, यश्च प्रत्यनीको मेऽत्रेत्यागतः, यश्चानुबद्धरोषः येन वाऽऽचार्य एकाकी त्यक्तः / प्रत्यनीके पुनरपि भजना / गृहस्थप्रत्यनीको ग्राह्यः। संयतप्रत्यनीको न सङ्ग्राह्यः। गत्वा तं क्षामयेति वो भणितव्यः / यदि न क्षामयति तदा न सङ्ग्राह्यः / यदि क्षामयति तदा सङ्ग्राह्यः / / एतत् प्रासङ्गिकमभिधाय पुनः प्रस्तुतद्वितीयमहाव्रतातिचारप्रायश्चित्तशेषमाह - सावजसुबहुपडिणीअ-भासणे विगहकलहकंदप्पे / चउलहु सेसे सबहिं लहुअसमायारिनिष्फन्नं // व्याख्या-सावद्यानि-सपापानि यानि वचनानि पापनिबन्धनानि भवन्तीत्यर्थः / अतिवहूनि निरर्थकानि असम्बद्धानि यानि, प्रत्यनीकानि-चाऽऽचार्यादि प्रति प्रतिकूलानि यानि हीला-खिसादिरूपाणि तेषां भोषणे / विकथाश्चतर्विधाः-स्त्रीभक्तदेशराजकथारूपाः / तत्र स्त्रोकथा-जातिकलरूपलावण्यलीलागतिभाषाशृङ्गारवर्णनादिरूपा / तस्यां चात्मपरमोहोदीरणोड्डाहस्वाध्यायसंयमयोगपरिहोणि-ब्रह्मव्रताऽगुप्तिप्रसङ्गादयो दोषा भवेयुः। भक्तकथा-नानाप्रकारशाकरसवतीघृतादि-प्रमाणादिवणं नरूपा / अस्यां चाऽऽहारगृद्धिलोकापवादरसनेन्द्रियाऽजयषट्जीवनिकायवधानुमोदनादयो दोषा भवन्ति / देशकथानानाविधदेशाचारनेपथ्यभोजनविधिवापीकूपसरोवरादिवर्ण नरूपा। एतस्यां च रागद्वेषोत्पत्तिस्वपक्षाधिकरणादयो दोषा प्रादुष्यन्तिं / राजकथा-बलवाहनकोशकोष्ठागारप्रमाणनिर्गमप्रवेशशोभावर्ण नादिरूपा / अस्यां च चौरहेरिकादिशङ्काकौतुकनिदानादयो दोषोः स्युः / एतासु चतुर्विधास्वपि विकथासु / अथवा विरुद्धा-पापानुबन्धिनी कथा विकथा / सा च सामान्येनेयम् 'इत्थिकहो भत्तकहा रायकहा चोरजणवयकहा य / नडनट्टजल्लमुट्ठिअ कहाओ एसा भवे विकहा ' // एवंविधायां विकथायाम् / कलहे-कलहकारिवचने / यानि वचनानि कामोद्दोपनानि हास्यगर्भाणि परेषां हास्योत्पादकानि वा तानि कन्दर्पः तस्मिन् कन्दर्प चतुर्लघु / एतेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु प्रत्येकं चतुर्लघु प्रायश्चित्तं भवतीत्यर्थः / स्त्रीविकथायां तु निशीथे चतुर्गुरु / शेषे-उक्तेभ्योऽवशिष्टे द्वितीयव्रतातिचारे सूक्ष्ममृषावादलक्षणे सर्वत्र लघुमासोऽसामाचारीनिष्पन्नः / एवमन्यत्रापि सर्वत्राऽसामाचार्यां लघुमासो मन्तव्यः / एतेषु पुनः स्थानेषु मृषावादोऽपि न दोषाय / यथा -- उडाहरक्खणट्ठा संजमहेउ व बोहिगे तेणे / खित्तम्मि व पडिणीए सेहे वा खिप्पलोए वा' / / यदि धिग्जात्यादयः पृच्छन्ति-यूयं कथं भुञ्जीवं ? तदा वक्तव्यं वयं भुञ्जीमहि कमढकादिषु / कमढकं नाम करोडकोकारं काष्ठमयं भाजनम् / एवमादिको मृषावाद उड्डाहरक्षार्थं वक्तव्यः / यदि केचिल्लुब्धकादयः पृच्छन्ति-कुतोऽत्र भगवन् ! दृष्टा मृगाः शूकरा वा ? दृष्टेष्वपि न दृष्टा इति, न शृणोमीति वा वक्तव्यं तूष्णीको वा तिष्ठति / एवं संयमहेतोम॒षा वक्तव्यम् / बोधिकगृहीतो वा अब्राह्मणोऽपि ब्राह्मणोऽहमिति ब्रवीति / स्तेनगृहीतो वा भणति-एष सार्थ एति तान् चौरान् भगति नश्यत इति / रक्तपटपरिव्राजकादिप्रत्यनीकभावित क्षेत्रे उपासकाः शठतया परमार्थेन वा पृच्छन्ति भगवन् ! यद् वयं Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 यति-जीतकल्पे रक्तपटादीना दानं दद्मः, एतस्य फलं किमस्ति न वो ? एवं पृष्ठो भणति-दानस्य नास्ति नाश इति / यद्यपि तेषां दानं दत्तमफलं तथाप्येवं वक्तव्यं मा ते रुष्टा अनर्थं कुर्युरिति कृत्वा / शैक्षो वा प्रव्रज्याभिमुख आगतः प्रव्रजितो वा तं च स्वजनाः पृच्छन्ति, तत्र जानन्तोऽपि भणन्ति-न जानीमो न वा दृष्ट इति / शैक्षस्य वा अनधिसहिष्णोलोचे क्रियमाणे बहावपि तिष्ठति एवं वक्तव्यम्-एष समाप्तो लोचः स्तोकं तिष्ठति / अन्यच्च साधोलाचे क्रियमाणे तत्रस्थित एव शक्रो देवराजश्छत्रमभिधारयति / एषा कल्पिका सेवा / इत्युक्तं द्वितीयमहाव्रतातिचारविषयं प्रायश्चित्तम् / सम्प्रति तृतीयमहाव्रतातिचारप्रायश्चित्तं किञ्चिद्विशेषेगाहतण-डगल-छार-मल्लग पणगं लेवित्तरेसु लहुगो उ। दव्वादविदिन्ने पुण जिणेहिं उवही उ निष्कन्न / / व्याख्या-इह अदत्तादानं द्विधा-लौकिकं लोकोत्तरं च / तत्र लौकिक द्रव्य-क्षेत्र-कालभावभेदैश्चतर्की / लोकोत्तरं तु द्विधा-सूक्ष्म बादरं च / तत्र सूक्ष्म-स्वल्पं बादरं नाम बहकम / अथवा यत्र पञ्चकं प्रायश्चित्तं स्यात् तत्सूक्ष्म, शेषं बादरम् / अनयोः क्रमेण प्रायश्चित्तं, तद्यथा-तृणानि-कुशादीनि, डगलकानि-उपलादीनि, क्षारो-भस्म, मल्लकः-शरावः, एतेषु अदत्तेषु गृहीतेषु पञ्चकोख्यं प्रायश्चित्तं भवति। . लेपो-येन भाजन लिप्यते तस्मिन्नदत्ते गृहीते / 'इत्तरेसु'त्ति / पन्थानं व्रजन् यत्र वृक्षाधोभागच्छायादिषु विश्राम गृहीतुकामस्तत्रावग्रहं नानुज्ञापयति, तत्र चेत्वरे-अल्पकालावस्थानेऽप्यवग्रहाननुज्ञापने लघुको मासः, तुशब्दात् कुटमुखादिष्वदत्तेषु गृहीतेपु / ' दव्वादविदिन्ने पुण 'त्ति / द्रव्ये प्रतिविशिष्टे अदत्ते गृहीते / पुनःशब्दः पूर्वाभिहितप्रायश्चित्ताद्विशेषणे / जिनैः-तीर्थकररुपधिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तं भणितं. तच्चेदमुखपोतिकादिके जवन्ये पञ्चकम् / चोलपट्टादिके मध्यमे लघुमासः / वर्षाकल्पादावुत्कृष्टे चतुर्लघवः / अथ * अविदिण्ण'त्ति / अस्य पदस्य व्याख्यामाह- . लद्धं न निवेएई परिभुंजइ वा निवेइअमदिणं / तत्थोवहिनिष्फन्नं अणवठ्ठप्पो व आएसा // 82 / / व्याख्या-कोऽपि साधुर्भिक्षादिविनिर्गत उपकरणादिजातं लळू-लब्ध्वा न निवेदयति-गुरूणां न कथयति / अथवा परिभुङ्क्ते अनिवेदितं, अथवा निवेदितं परं गुरुभिर्नानुज्ञातं ततो अदत्तमेव परिभुङ्क्ते / एवमदत्तादानं भवति / तत्रोपधिनिष्पन्नं प्रोयश्चित्तं तच्च प्रागुक्तमेव / अथवा आदेशात - सूत्रादेशात् अनिवेदिताऽदत्तवस्त्राधुपकरणग्राहकः साधुरनवस्थाप्यो भवति / एव प्रातिहारिकं वस्त्राद्युपकरणं तेषां गृहिणां यदि न प्रत्यर्पयति, शय्यातरसत्कं वा किमप्यदत्तं परिभुङ्क्ते / तत्राऽप्यदत्ते उपधिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तं / वर्षाकाले च भगवता नानुज्ञातमुपधिग्रहणम् / अतस्तत्र तद् ग्रहणं कुर्वाणस्य तीथ कराऽदत्तं भवति, तत्र चतुर्गुरु / तथा परक्षेत्रे यद्यचित्तं द्रव्यमुपकरणरूपं गृह्णाति तदा तस्योपधिनिष्पन्न प्रायश्चित्तम् / अथ सचित्तं शिष्यादिरूपं गृह्णाति तदा चतुर्गुरुकं यदि वा मिश्रं सोपधिकं शिष्यादिरूपं गृह्णाति तदा संयोगप्रायश्चित्त भवति / अचित्ते उपधिनिष्पन्नं सचित्ते चतुर्गुरुकमित्यर्थः। तथा साधर्मिका लिङ्ग-प्रवचनाभ्यां त्रि(द्विधा भवन्ति / तेषामप्यदत्तसचित्तवस्तुग्रहणे चतुर्गुरुकम् / अचित्तवस्तुग्रहणे पुनरुपधिनिष्पन्नम् / अन्यधार्मिकसत्कादत्तादानेऽप्येतदेव प्रायश्चित्तम् / यत् साधर्मिकादत्तादाने कुलस्तै न्येऽप्येतदेव कालतपोगुरुकं ज्ञेयम् / गणस्तैन्ये च तपोगुरु काललघु / सङ्घस्तैन्ये तु कालगुरु तपोलघु / आदेशेन पुनः सर्वत्राऽनवस्थाप्यम् / कारणैः पुनरदत्तग्रहणेऽपि शुद्धः / यदुक्तं Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59 चतुर्थमहावतातिचार प्रायश्चित्तम् -- पत्तं वा उच्छेदे गिहि-खुड्डगमादिगं तु वुग्गाहे / निद्धम्मखुड्डगमखुड्डगं व जयउ त्ति एमेव' / सूत्रार्थोभयव्युच्छेदे गृहिणां क्षुल्लकं-बालम् , आदिशब्दोदबालमपि साधर्मिकोऽन्यधार्मिकोणां वा पात्रं सूत्रार्थतदुभयग्रहणधारणक्षम व्युद्ग्राहयेत् - विपरीतं ग्राहयेत् सूत्रार्थोभयव्युच्छेदे शिशुमितरं वा योग्य सन्तमपहरतीत्यर्थः / निर्द्धर्माणः पार्श्वस्थाः तेषां सत्कं क्षुल्लकमक्षुल्लकं वा / एवमेव-यथा गृहस्थानां तथा व्युग्राहयेत् संयमयोगेषु यततामयमित्यालम्बनेन / पार्श्वस्थानां शिष्यं संयमार्थमपहरतीत्यर्थः / ननु यत् सूत्रार्थोभयव्युच्छेदे गृहस्थादिक्षुल्लकाद्यपहरणं तद्युक्तं यत् पुनः पार्श्वस्थशिष्यापहरणं तत्कथं न स्तैन्यम् ? उच्यते-'तेसु उ तमणुण्णायं अणणुण्णायगहणे विसुद्धो उ / किं तेण्णं असंजमपंकेखुत्तं तु कड्ढते ' / तेषु पावस्थेषु तं शिष्यमनुज्ञातं पूर्व गृह्णन्ति / अननुज्ञातग्रहणेऽपि विविधं-सर्वप्रकारेण शुद्धो-विशुद्धः / अत्रोत्तरार्द्धन हेतुमाह-अपि च'सुहसीलतेणगहिए भवपल्लिं तेण जगडिअमणाहे / जो कुणइ कूविअत्त सो वन्नं कुणइ तित्थस्स ' / एवमनया दिशा अदत्तविषया कल्पिकासेवा प्रकल्पादवसेया / इत्यमिहितं तृतीयमहाव्रतातिचारप्रायश्चित्तम् / अथ चतुर्थमहाव्रतातिचारप्रायश्चित्तमोहपडिबद्भसिज्ज दव्वे भावे दव्यंमि पिठवंसाई / पासवणठाणरूवे सद्दे भावे लहुग दव्वे // 83 // .. व्याख्या-इह साधूनां दुरपोहमोहव्यपोहपरायणानामपि कदाचित्कर्मवशेन मोहोदयो भवेत् / स च सनिमित्तोऽनिमित्तो वा स्यात् / तत्र गीतादिविषयशब्दश्रवणेन स्त्रीरूपालिङ्गनादिदर्शनेन पूर्वक्रीडितस्मरणेन च यो मोहोदयो भवति स सनिमित्तः / यस्तु केवलकर्मोदयेनाऽऽहारेण शरीरोपचयेन वा स्यात् सोऽनिमित्तो बाह्यनिमित्तानपेक्षत्वात् / विषयशब्दश्रवणादीनि च मोहोदयनिमित्तानि प्रतिबद्धशय्यादौ भवेयुः / अतस्तत्र न स्थातव्यम् / तत्रावस्थाने च प्रायश्चित्तं तच्चात्र गाथाद्वयेन प्रतिबद्धशय्यास्वरूपप्ररूपणपूर्वक प्रतिपाद्यते, यथा-प्रतिबद्धा-युक्ता संश्लिष्टेन्यर्थः / शय्या-वसतिः / सा च प्रतिबद्धा द्विधा-द्रव्ये भावे च / तत्र द्रव्ये पृष्ठिवंशादि / पृष्ठिवंशो-वलधरणं येन काष्ठेन तिर्यक संस्थापितेन वला ध्रियन्ते तेन प्रतिबद्धा / एकशिखरा लोकगृहैः सहेत्यर्थः। आदिशब्दादपरेण वा केनापि देशेन प्रतिबद्धा / एषा द्रव्यप्रतिबद्धा वसतिरवगन्तव्या / भावप्रतिबद्धा पुनश्चतुर्द्धा-प्रस्रवणप्रतिबद्धा, स्थानप्रतिबद्धा, रूपप्रतिबद्धा, शब्दप्रतिबद्धा च / तत्र प्रस्रवण, प्रस्रवन्ति कायिकां कुर्वन्त्यस्मिन्नित्यधिकरणाऽनटि प्रस्रवणं-कायिकाभूमिस्तेन प्रतिबद्धा / स्थानं यत्र स्त्रियस्तिष्ठन्ति तेन प्रतिबद्धा / यत्र वसतिस्थितैः स्त्रीरूपं दृश्यते सा रूपप्रतिबद्धा / यत्र वसतिस्थितैः स्त्रोणां भाषाभूषणरहस्यशब्दाः श्रूयन्ते सा शब्दप्रतिबद्धा / अत्र द्रव्यभावपदाभ्यां चतुर्भङ्गी स्यात् / तद्यथा-द्रव्यतः प्रतिबद्धा भावतोऽपि प्रतिबद्धा / द्रव्यतः प्रतिबद्धा न भावतः / भावतः प्रतिबद्धा न द्रव्यतः / न द्रव्यतो न भावतः / अत्र चतुर्थभङ्गः शुद्धो द्विधाऽप्यप्रतिबद्धायां वसताववस्थाने दोषाभावात् / दव्वेत्ति / द्रव्यतः प्रतिबद्धा न भावत इत्येवंविधद्वितीयभङ्गे या वसतिः स्यात् तत्रावस्थाने चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् / आज्ञानवस्थामिथ त्व विराधनाश्च भवन्ति / इमे चाऽन्ये दोषाः साधूनां संशब्देन विबुद्धा असंयताः पानीयहारिका-पशुपाल Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति जीतकल्पे कौटुम्बिक-पथिक-लोहकार-यान्त्रिक-मत्स्यबन्धकादयो लोकाः तेषु तेषु नानाप्रकारपापव्यापारेषु प्रवर्तन्ते / अथाऽधिकरणभयाद्यदि साधवः तूष्णीकास्तिप्ठन्ति तदा सूत्रार्थहान्यादयो दोषा भवन्ति / तस्माद् द्रव्यप्रतिबद्धायां वसतौ न स्थातव्यम् / अथ द्रव्यभावाऽप्रतिबद्धवसत्यलाभे द्रव्यप्रतिबद्धायामपि वसतौ साधवः स्थितास्तदा शब्दे यतनां कुर्वन्ति / यथा -असंयता न जाग्रति / अथ भावतः प्रतिबद्धा न द्रव्यत इति तृतीयभङ्गे या वसतिर्भवति तस्या भेदकथनपुरस्सरं प्रायश्चित्तमाह भावपडिबद्धिपासवणमाइपयचउगि भंगसोलसगं / पनरसपएसु चउगुरु दोसा आणाइ सविसेसा // 84|| व्याख्या-भावप्रतिबद्धायां वसतौ, मकारस्यालाक्षणिकत्वात् प्रस्रवणादिपदचतुष्केन भङ्गषोडशकं भवति / तद्यथा-प्रस्रवणप्रतिबद्धा, स्थानप्रतिबद्धा, रूपप्रतिबद्धा, शब्दप्रतिबद्धा एष प्रथमो भङ्गः / प्रस्रवणप्रतिवद्धा, स्थानप्रतिवद्धा, रूपप्रतिबद्धा, न शब्दप्रतिबद्धा अयं द्वितीयः / एवं चारणिकाक्रमेण षोडशभङ्गाः कर्त्तव्याः / तत्राऽऽद्येषु पञ्चदशभङ्गकेषु-पञ्चदशभङ्गभावप्रतिबद्धवसतिष्वित्यर्थः / तिष्ठतां साधूनां . चतुर्गुरु प्रायश्चित्तं भवति / आदेशेन वा प्रथमभङ्गे चत्वारश्चतुर्गुरुकाः / एवं यत्र भङ्गे यावन्ति पदानि विरुद्धानि तत्र तावन्ति चतुर्गुरूणि भवन्ति / षोडशो भङ्गः शुद्धः / तथा आज्ञादयो दोषाः सविशेषा द्रव्यप्रतिबद्धवसतिसकाशात् भावप्रतिबद्धवसतो सविशेषतरा भवन्तीत्यर्थः / तथाहि-यत्र साधूनामसंयतीनां च एका कायिकाभूमिः सा प्रस्रवणप्रतिबद्धा / तत्रेमे दोषाः-साधुः स्त्रियं दृष्ट्वा क्षुभ्यति, स्त्री वा साधु दृष्ट्वा क्षुभ्यति / अन्योऽन्यं वा क्षुभ्यतः / ततो यदि स्त्रो साधौ क्षुभ्यति तां च यदि प्रतिसेवते ततो व्रतभङ्गः / अथ नेच्छति तदोड्डाहं करोति / एवमुभयथापि दोषः / अथ 'साधुः स्त्रियां क्षुभ्यति ततः सा स्त्री सेच्छाऽनिच्छा वा स्यात् / यद्यनिच्छा ततो उड्डाहं करोति / अथ सेच्छा ततो बतभङ्ग एव / कायिकाभूमौ च स्त्रीप्रविष्टा पश्चात्साधुरपि प्रविष्टोऽन्येन केनापि दृष्टः ततोऽनाचारशङ्का / ततो वसत्यादेव्युच्छेदं करोति, प्रदृिष्टो वा ग्रहणकर्षणव्यवहारादि कुर्यात् / यत्र स्त्रीणां संयतानां च एकं स्थानं तत्रेमे दोषाः / दुष्प्रावृतं छन्नमङ्गमूर्वादि दृष्ट्वा भुक्तभोगस्य साधोः स्मृतिकरणं भवति / तस्य वा साधोः सागारिकं दृष्ट्वा स्त्रो क्षुभ्यति, शङ्कते वा एष साधुः सागारिकं दर्शयति किं मां प्रार्थयति / ब्रह्मचयम्य चाऽगुप्तिः स्यात् / परस्परं च लज्जानाशः, अभीक्ष्णदर्शनेन वा प्रोतिवृद्धिः। लोक उत्प्रासवचनेन ब्रवीतिसाधु तपोवनवासः राजादिर्वा निवारयति मा एतेषां मध्ये कोपि प्रव्रजतु / एवं तीर्थव्युच्छेदः / रूप प्रतिबद्धायां पुनः साधुः स्त्रीणां सविलास चक्रमणस्थानप्रेक्षितप्रहसितसविस्मितमुखादीन् बहुविधाना. कारान् पश्यति / ततो भुक्तभोगस्य स्मृतिकरणं भवति / अभुक्तभोगस्य तु कौतुकं नैव मया मानुष्यकाः कामभोगा भुक्ता एवं तेषामुन्निष्क्रमणादयो दोषा भवन्ति / ताः स्त्रियो वा तत्रस्थितान् साधून् दृष्टवा एवं चिन्तयेयुः। अहो ! जल्लमलमलिनदेहानामप्येतेषां साधूनां कीदृशी लावण्यश्रीः। गृहवासे पुनरभ्यङ्गादिसंस्कारेणास्याः सकाशात् शतगुणा आसीदिति / शब्दप्रतिबद्धायां तु स्त्रीणां गीतानि पठितानि सविकारहसितानि मञ्जुलालापान् वलयनू पुरादिभूषणशब्दान् मैथुनशब्दाँश्च श्रुत्वा साधूनां मनः क्षुभ्यति / तत उन्निष्क्रमण करोति / स्वलिङ्गस्थितो वाऽनाचारमाचरति हस्तकर्म वा करोति / . तस्मादेतदोषपरिहरणार्थ न स्थातव्यं भावप्रतिबद्धवसतौ / अथ शुद्धा वसतिर्न लभ्यते ततो द्रव्यप्रतिबद्धायां Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसतिः त्रिधा स्थातव्यं, तदभावे ज्योतिष्प्रतिबद्धायां वसतौ स्थेयं, तदभावे बहिर्वक्षस्याऽधस्तात् / अथ बहिः स्तेनश्वापदभयं वृष्टिर्वा ततो भावप्रतिबद्धायामपि वसतौ तिष्ठन्ति / तत्रापि प्रथमं रूपप्रतिबद्धायां तत्र च पूर्वभणितदोषपरिहरणार्थमन्तरे कटादिकं ददति / तस्या अप्यभावे प्रस्रवणप्रतिबद्धायां, तत्रापि पूर्वभणितदोषपरिहाराय मात्रके व्युत्सृज्यान्यत्र परिष्ठापयन्ति / मात्रकाभावे अन्यस्थानाभावे च वृन्देन बोलं कुर्वन्तः कायिका. भूमौ प्रविशन्ति / तासां च या वेलो तां वर्जयन्ति / प्रस्रवणप्रतिबद्धाया अप्यभावे शब्दप्रतिबद्धायां तिष्ठन्ति / तत्रापि प्रथमं भूषणशब्दप्रतिबद्धायां पश्चाद् भाषाशब्दप्रतिबद्धायां तत्रापि पूर्वोक्तदोषपरिहाराय समुदिता महता शब्देन स्वाध्यायं कुर्वन्ति, ध्यानसलब्धयो वा ध्यानं ध्यायन्ति / तदभावे स्थानप्रतिबद्धायां तिष्ठन्ति / तत्रापि पूर्वोक्तदोषपरिहरणार्थमुपकरणं विप्रकीर्णं तथा स्थापयन्ति यथा तासां स्थानं न स्यात् / स्वयं वा विप्रकीर्णास्तिष्ठन्ति / स्थानप्रतिबद्धाया अप्यभावे रहस्यशब्दप्रतिबद्धायां तिष्ठन्ति / तत्रापि दोषपरिहाराय वैराग्यकरं श्रुतं पठन्ति, यथा तं शब्दं न शृण्वन्ति / अथवा यदस्खलितं श्रुतं यस्याऽऽगच्छति स तद्गुणयति, ध्यानसलब्धिानं ध्यायति / ध्याने पाठे वा योऽलब्धिः स कौँ स्थगयति, तथापि यदि शब्दं शृणोति तदा शब्दं करोति तथा यथा तयोर्लज्जितयोर्मोहो नश्यति / तथापि यदि न तिष्ठत्यनाचारसेवनात् तदा जनज्ञातं करोति / इति तृतीयभङ्गवसतौ दोषयतना / अथ द्रव्यतो भावतः प्रतिबद्धा वसतिरिति प्रथमभङ्गः / तत्र द्रव्यप्रतिबद्धभावप्रतिबद्धोभयपक्षोक्ता दोषा यतना चाऽवगन्तव्या / एवं पशुपण्डकसंसक्तवसतावपि दोषा यतना च स्वयमवसातव्याः / अथवा वसतिनिधायुक्तप्रमाणा अतिरक्तप्रमाणा हीनप्रमाणा च / तत्र साधुभिस्त्रिहस्तभूमिखण्डरूपसंस्तारकप्रमाणं गृह्णानैर्या सर्वापि व्याप्यते सा युक्तप्रमाणा / या न व्याप्यते साऽतिरिक्तप्रमाणा। यत्र सम्बाधया तिष्ठन्ति सा हीनप्रमाणा / एतासु तिसृष्वपि विद्यमानासु प्रथमायां स्थातव्यम् / तदभावे हीनप्रमाणायां, तदलाभेऽतिरिक्तप्रमाणायाम् / तत्रातिरिक्तप्रमाणघङ्घशाला दिवसतौ स्थिताः साधवो भूमौ वस्त्र-पात्राणि संस्तारकानऽर्दवितान् तथा कुर्वन्ति यथा तानि दृष्ट्वा स्थातुमनसोऽपि न तिष्ठन्ति / एषा दिवा यतना / अथ . रात्रौ वेश्यादिस्त्रीसहितः पुरुषः आगच्छति, ततोऽनुकूलप्रतिकूलवचनप्रकारैर्निवारणीयः / अथ न निवारयन्ति ततश्चतुर्लघुकम् / दोषाश्चाज्ञादयः / अथ वेश्यादिर्न निगच्छति तदा साधुभिर्निर्गन्तव्यमन्यत्र शून्यगृहादौ स्थातव्यं. तदभावे वृक्षमूलादावपि स्थेयम् / अथ बहिः स्तेनश्वापदभयं वर्ष वा वर्षति ततस्तत्रैव यतनया तिष्ठन्ति / अथवा भिक्षादिनिमित्तं वसतेबहिर्निर्गतस्य साधोः स्त्रीणां भाषाभूषणपरिचारशब्दान् श्रुत्वा रूपालिङ्गनविविधविलासान् प्रतिसेवनां कुर्वतो वा दृष्ट्वा अचेतनानि वा काष्ठ-पुस्तचित्रकर्मादिविनिर्मितानि स्त्रीरूपाणि समीक्ष्य स्त्रीभिः सह पूर्व यानि रतिक्रीडितानि तानि वा स्मृत्वा मोहोदयो भवेत् / तत्रापि वैराग्यभावनया दृष्टिपतिसंहरणादिना च यतनो कर्तव्या। एष सनिमित्तो मोहोदयः / अथाऽनिमित्तो यो मोहोदयः स त्रिविधः-कर्मोदयत आहारतः शरीरोपचयतश्च / तत्र क्षुधातस्य पिपोसापीडितस्य स्वभावेन ग्लानत्वेन वा कृशशरीरस्य यो बाह्यशब्दादिनिमित्तमन्तरेण मोहो जायते स कर्मोदयतः / प्रणीताऽऽहारादिभोजनाद् यो मोहोदयः स्यात् स आहारतः / आहारतो रसस्योपचयः, ततो रुधिरस्य, ततो मांसस्य, ततो मेदसः, ततोऽस्थ्नां ततो मज्जायाः, ततोऽपि शुक्रस्योपचयस्तस्माच मोहोदयः / एवं यो मोहोदयो भवेत् स शरीरोपचयतः / एवमनिमित्तो मोहोदयो भवेत् / तत्रोऽपि Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 यति-जीतकल्पे वक्ष्यमाणा निर्विकृत्यादियतनाऽवगन्तव्यो / एवं यतमानस्यापि कस्यापि हीनसत्त्वस्य साधोः कामाग्निः सन्दीप्यते; ततः कौतुकादयो दोषा भवेयुस्तानाहकोऊहलं व गमग सिंगारे कुड्डुछिड्डकरणे अ / दिट्ठी परिणय करणे भिक्खू मूलं दुवे इअरे // 85 // व्याख्या-कुतूहलं तस्य उत्पद्यते कथमनाचारं सेवन्त ? इति / अथ तस्याऽभिप्रायो जायते आसन्ने गत्वा पश्यामि शब्दं वो शृणोमि / एतदत्र साक्षादनुक्तमपि वाशब्दसूचितमवगन्तव्यम् / एव. मभिप्राये उत्पन्ने तत्र गमनं कुर्यात् / ततः शृङ्गारशब्दान् कुड्यकटान्तरे शृणुयात् विलोकनाय वा कुडये छिद्रकरणं तेन च छिद्रेणानाचारं सेवमानानां दृष्टिः-दर्शनं, ततोऽनोचारं दृष्ट्वाऽहमन्येवं करकर्म करोमीति सोऽपि तद्भावपरिणतो भवेत् / ततः करकर्मकरणम् / एतेष्वष्टस्वपराधपदेषु भिक्षोमूलं यावत् प्रायश्चित्तम् / 'दुवे 'त्ति / द्वयोरुपाध्यायाचार्ययोरितरे-अनवस्थाप्यपाराश्चिके क्रमेण चरमपदे भवतः / इदमेव व्यक्त्या दर्शयतिलहुगुरु लहुगा गुरुगा छल्लहु छग्गुरुगमेव छेओ। करकम्मस्स य करणे भिक्खू मूलं दुवे इअरे // व्याख्या-कुतूहले उत्पन्ने लघुमासः, अभिप्राये गुरुमासः, गमने चतुर्लघुकाः, शृङ्गारशब्दश्रवणे चतुर्गुरुकाः, कुड्यस्य छिद्रकरणे षड्लघुकाः, छिद्रेणानाचारविलोकने षड्गुरुकाः, करकर्मकरणपरिणामे छेदः, करकर्मकरणे च मूलम् / एवं भिक्षोः प्रायश्चित्तम् / उपाध्यायस्य मोसगुरुकादारब्धमनवस्थाप्ये पर्यवस्यति / आचार्यस्य चतुर्लघुकादारब्धं पाराश्चिके तिष्ठति / एवं सनिमित्तस्यानिमित्तस्य वा मोहोदयस्य ध्यानाऽध्ययनादिभिरधिसहनं कर्त्तव्यं तथाऽप्यनिवृत्तावेषा चिकित्सा कार्यानिविगइ निब्बलोमे तव उद्घट्ठाणमेव उब्भामे / वेआवच्ची हिंडण मंडलि कप्पढिआहरणं // 87 // ___ व्याख्या-मोहोदये जाते सति तन्निवृत्त्यर्थं निर्विकृतिकमाहारमाहारयति, तथाप्यनुपशमे निर्बलानि वल्लचणकादीन्योहारयति / एवमप्यनिवृत्ताववमौदरिकां करोति / तथाप्यनुपरमे चतुर्थादि यावत् पाण्मासिकं तपः करोति / पारणके च निर्बलमाहारमाहारयति / यद्यपशाम्यति तदा सुन्दरम् / अथ नोपशाम्यति तदा ऊर्ध्वस्थानं-महान्तं कायोत्सर्ग करोति / तथाऽप्यनुपशमे उद्भ्रामे-मिक्षाचर्यायां गच्छति / अथवा साधूनां विश्रामणा दिवैयावृत्यं कार्यते / अथवा देशहिण्डकानां सहायो दीयते / एवमगीतार्थस्य यतना / गीतार्थः पुनः सूत्रार्थमण्डली दाप्यते / अथवा गीतार्थस्यापि निर्विकृतिकादिविधिद्रष्टव्यः / नोदकः प्राह-ननु यदि तावदगीतार्थस्य निर्विकृत्यादितपोविशेषादुपशमो न भवति, ततो गीतार्थस्य कथं शीतलछायादिस्थितस्योपशमो भविष्यति ? / गुरुः प्रत्याह पैशाचिकमाख्यानं श्रुत्वा गोपायनं च कुलवध्वाः / संयमयोगैरोत्मा निरन्तरं व्यापृतः कार्यः / / कल्पस्थिका-बालिका तस्या आहरणं-उदाहरणम् / तच्चेदम्-एगस्स कुटुंबिगस्स धूआ नियकम्मवावारा सुहासणत्था अच्छइ / तस्स अन्भंगुब्वट्टण-हाणविलेवणादिपरायणाए मोहब्भवो अम्मधाति भणाति-' आणेहि मे पुरिसं / तीए अम्मधातीए माउए से कहिअं / तीए वि पिऊणो / पिउणा वाहरिया भणिआ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 हस्तकर्मविषयक-प्रायश्चित्तम् पुत्तीए-एताओ दासीओ सव्वं धन्नादि अवहरंति, तुम कोडायारं पडिअरसु, तहत्ति पडिवन्नं / सा जाव अन्नस्स भत्तयं देइ / अन्नस्स वित्ति, अन्नस्स तंदुला, अन्नस आयं देक्खति. अन्नस्स वयं / एवमादि किरिआसु वावडाए दिवसो गतो। सा अतीव खिन्ना रयणीए निविण्णा अम्मधातीए भणिता-आगेमि ते पुरिसं / सा भणति न मे पुरिसेण कजं निदं लहामि' / एवं गीतार्थस्यापि सूत्रार्थपोरुषीं ददानस्यातीव सूत्रार्थेषु व्यापृतस्य कामसङ्कल्पो न जायते / भणितं च -- काम ! जानामि ते मूलं सङ्कल्पात किल जायसे / तमेव न करिष्यामि येन मे प्रभविष्यसि // एवं निर्विकृत्यादिप्रकारेण यतमानस्य कस्यापि साधोर्मोहोपशमो भवेत् क्स्यापि तु न भवेत् / यथा गिरिनद्यां पूर्णायां कृतप्रयत्नोऽपि कश्चित् पुरुषः तीक्ष्णेनोदकवेगेन हियते / अथवा निम्नोन्नते तथाविधकर्दमे वा कृतप्रयत्नोऽपि कश्चिद्यथा पतनं प्राप्नोति / एवं सर्वप्रयत्नेन यतमानस्याऽपि कस्यचित् साधोः कर्महेतुका चारित्रविराधना भवेत् / एवं स उदीर्णमोहोऽदृढधृतिरसमर्थोऽधिसोढुं ततो हस्तकर्म करोतीति तद्विषयं प्रायश्चित्तमाहपढमाइ पोरिसीए विअ-तइअ-चउत्थिाइ करकम्मे / मूलं छेअं छम्मासमेव चत्तारि जा गुरुगा // 88 // व्याख्या-रात्रौ प्रथमपौरुष्या मोहोद्भवो जातः। तस्यामेवादृढधृतिर्यदि हस्तकर्म करोति तदा मूलम् / अथ प्रथमपौरुषीमधिसह्य द्वितीयायां पौरुष्यां करोति तदा छेदः / द्वे पोरुष्योवधिसह्य तृतीयायां करोति तदा षड्गुरुका मासाः / तिस्रः पौरुषीरधिसह्य चतुर्थी कुर्वाणस्य चत्वारो गुरुकाः / एवं पौरुषी-पौरुषीसहने एकैकं प्रायश्चित्तस्थानं हसति / उपलक्षणत्वादिदमप्यवगन्तव्यम् / रात्री चतुरो यामानधिसह्य द्वितीयदिवसे प्रथमपौरुष्यां करकर्म कुर्वाणस्य मासगुरुकम् / ततः परं सर्वत्रापि मासगुरुकमेव / लघूनि तु प्रायश्चित्तान्यत्र न भवन्ति / करकर्मसेवनस्यानुद्घातिमत्त्वात् / - एतद्विषयमेव प्रायश्चितं पुनः प्रकारान्तरेणाहसेवामि त्ति अ मिहुणं चउगुरुगं छग्गुरूअ करकम्मे / तंमि वि बहुवारकए पच्छित्तं पंचकल्लाणं // 89 / / व्याख्या-मैथुनं सेवाभि-मैथुनसेवां करोमीति सङ्कल्पेनोदीर्णकामो भवेत्ततोऽदृढधृतितयाऽधिसोढुमशक्तो यदि करकर्म करोति तदा षड्गुरुकम् / तस्मिन्नपि करकर्मणि बहुवारकृते-असकृत कृते प्रायश्चित्तं पञ्चकल्याणं पूर्वोक्तमेव तानि पञ्च भवन्ति तथा- . मूलं इत्थितिरिक्खिनपुंसनरआसपोससेवाए / थीवयवफासि लहुगा अंचलतिरिफासणे पणगं // 9 // व्याख्या-स्त्री-तिर्यञ्ची-नपुंसकनराणां आसपोषसेवायाम्-आम्यपोषाभ्यां यो सेवाऽनाचाररूपा तस्यां विहितायां मूलं प्रायश्चित्तं भवति / स्त्रीणामवयवाः-शरीरप्रदेशा हस्तादयः तेषां स्पर्श निरन्तरे लघुकाश्चत्वारः / स्त्रीणामञ्चलेन-परिधोनादिवस्त्रप्रान्तेन स्पर्शने सान्तरे तिर्यक्लीणां-गोमहिष्यादीनां स्पर्शने च पश्चकं-पश्चकाऽऽख्यं प्रायश्चित्तं स्यात् / अथवा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 यति-जीतकल्पे पुरिसस्सित्थीफासे चउलहु इत्थीइ होइ चउगुरुअं / लहुगं संतरफासे अंचलतिरिकासणे मिन्नं // 11 // व्याख्या-पुरुषस्य-संयतस्य स्त्रीस्पर्श निरन्तरे चतुर्लघुकम् / स्त्रियास्तु-संयत्या निरन्तरे पुरुषस्पर्श चतुर्गुरुकं भवति / संयतस्य संयत्याश्च सान्तरे विपक्षस्पर्श लघुमासः / वस्त्राञ्चलाभ्यामेव स्पर्शने परम्परास्पर्शने इत्यर्थः / तिर्यश्चीनां च स्पर्शने भिन्न-भिन्नमासः प्रायश्चित्तं भवति / इत्यभिहितं चतुर्थमहाव्रतातीचारप्रायश्चित्तम् / . अथ पञ्चममहाव्रतातिचारप्रायश्चित्तमाहसुहुमो अ बायरो वा दुविहो लोउत्तरो समासेणं / कागाइसाणगोणे कप्पठगरक्षणममत्ते // 92 / / सेहाई पडिकुठे सचित्तेणेसणाइ अचित्ते / ओरालिए हिरण्णे छकाय परिग्गहे जं च // 93 / / व्याख्या-परिग्रहो द्विविधो-लौकिको लोकोत्तरश्च / तत्र लौकिको द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभेदाच्चतुर्की / लोकोत्तरः पुनः समासेन-सङक्षेपेण द्विधा-सूक्ष्मो बादरश्च / तत्रेषन्ममत्वभावः सूक्ष्मः परिग्रहः / तीवो ममत्वभावो बादरः परिग्रहः / एष द्विविधोऽपि परिग्रहः पुनश्चतुर्दा-द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च / तत्र द्रव्ये काकादि पश्चाई / आत्मनः पानकादि काकमपराध्यन्तं निवारयति / आदिग्रहणात् श्वानशृगालादिकं, वानं वा दशन्तं गोणं वा बलीवदं वसत्यादिष्वपराध्यन्तं शय्यातरादीनां वा कल्पस्थकं-बालकमन्यापदेशेन रक्षति / स्वजनादिषु वा ममत्वं करोति / शैक्षा वा प्रतिकुष्टाः-प्रव्रज्याऽयोग्याः पूर्वमुपदर्शिता अष्टचत्वारिंशत् प्रवाजयतः परिग्रहो भवति / अनाभाव्यं वा अप्रत्राजनीयं सचित्तं शिष्यादि वस्तु प्रव्राजयतः परिग्रहो भवति / आदिशब्दो भेदवाचकः / अनेषणीय वा अचितभक्तादि गह्वानस्य परिग्रहः स्यात / आदिशब्दो भेदवाचकः आदिशब्दादा वस्त्रपात्रशय्या गह्यन्ते / अचित्तग्रहणाद्वाऽतिरिक्तोपधिग्रहणं करोति / स चानपकारित्वात परिग्रहो भवति / ओरालियं-घटितरूपं द्रविण, अघटितरूपं हिरण्यं एतानि गृहणतः परिग्रहो भवति / षटकायान् जीवनिकायान् सचित्तपृथिवीकायादिकान् गृानस्य परिग्रहो भवति / 'जं च 'त्ति / यच्च / एतेषु काकादिषु प्रायश्चित्तं तच्च द्रष्टव्यं तदेव दर्शयतिपंचाई लहुगुरुगा एसणमाईसु जेसु ठाणेसु / गुरुगा हिरण्णमाई छकायविराहणे जं च // 94 / / ____ व्याख्या- पञ्चकादीनि प्रायश्चित्तानि लघूनि गुरूणि वा एषणादिषु येषु येषु स्थानेषु यानि सम्भवन्ति तानि दोतव्यानि / अथवा पञ्चकमादौ कृत्वा चतुर्लघु चतुर्गुरु येषु स्थानेषु यत् प्रायश्चितं सम्भवति तद्दातव्यम् / आदिशब्दादुत्पादनोद्गमौ गृह्यते / हिरण्यं गृह्णानस्य चतुर्गुरुकाः / आदिशब्दादोरालिकेऽपि चतुर्गुरुकाः / षट्कायविरोधने यत् प्रायश्चित्त तत् षट्कायपरिग्रहे द्रष्टव्यं, तच्च पुरापि प्रतिपादितम् / इममेवाएं स्पष्टतरं व्याख्यानयतिगिहिणोऽवरज्झमाणे सुणमज्जाराइ अप्पणो वावि / वारेऊण न कप्पइ जिणाण थेराण उ गिहीणं / / 15 / / व्याख्या-गृहिणो-गृहस्थस्यापराध्यन्त्रि-अपराध कुर्वन्ति श्वा मार्जारो वा। आदिशब्दात् गोणादयो वा। आत्मनो वा एते भक्तादिष्वपराध्यन्ति / तेऽपराध्यन्तोऽपि निवारयितुं न कल्पन्ते Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चममहाव्रतातिचार-प्रायश्चित्तम् जिनानां-जिनकल्पिकानाम् / स्थविराः-स्थविरकल्पिका गच्छवासिनो ये साधवस्तेषां पुनर्गहिणां गृहेषु श्वानमार्जारादयोऽपराध्यन्तोऽपि निवारयितुं न कल्पन्ते / आत्मनस्तु भक्तादिषु वारयितुं कल्पन्त इत्यर्थः / एतेष्वेव काकादिषु प्रायश्चित्तं भणति कागनिवारणि लहुओ जाव ममत्तं तु लहुग सेसेसु / मज्झ सवासा इत्ति व तेण लहुग रागिणो गुरुगा / / व्याख्या-काकनिवारणे लघुको मासः / शेषेषु श्वानगोणादिषु निवारितेषु यावत् शय्यातरममत्वेन कल्पस्थकरक्षणेऽपि चतुर्लघुकाः / मम सवासा-एकग्रामवासिनः स्वजना वा तेन सज्ञातिकादिषु ममत्वेन कल्पस्थकं रक्षति तथाऽपि चतुर्लघुकम् / अथ कल्पस्थकं रागेण रक्षति तदा चतुर्गुरुका रागिणः / एवं प्रतिकुष्टशिष्यपरिग्रहे सामान्यतश्चतुर्गुरु / अनाभाव्यसचित्तग्रहणेऽपि चतुर्गुरुकमेव / अनेषणीयभक्तादिप्रायश्चित्तं तु अग्रे भणिष्यते / वस्त्रादीनि धर्मोपकरणानि तु परिग्रहो न भवति / तान्येव समधिकानि बहुमूल्यानि मूर्च्छया वा परिभुज्यमानानि परिग्रहः स्यात् तत्र चतुर्गुरु / एवं द्रव्यपरिग्रहप्रायश्चित्तमुक्तम् / अथ क्षेत्रपरिग्रहप्रायश्चित्तमाहओगासे संथारुवसयकुलगामनगरदेसरज्जे अ। चत्तारि छच्च लहु गुरु छेओ मूलं तह दुगं च // 9 // व्याख्या- अवकांश:-प्रतिश्रयदेशः प्रवातादिको रमणीयः तस्मिन् ममत्वं करोति / संस्तारकःसंस्तारभूमिः तस्यां ममत्वं करोति / उपाश्रयो-वसतिः तत्र ममत्वं करोति / एवं कुले-कुलं-कुटुम्बं ग्रामनगरदेशाः प्रसिद्धाः तेषु, राणकभुक्ती राज्यं, सा पुनर्भुक्तिरेकविषयोऽनेकविषयो वा भवेत् / तत्र ममत्वं करोति / एतेष्ववकाशादिषु ममत्वकरणे क्रमेण प्रायश्चित्तमिदमुत्तरार्धोक्तमवगन्तव्यम् / यथाअवकाशममत्वे चतुर्लघु / संस्तारकममत्वे चतुर्गुरु / उपाश्रयममत्वे षडलघु / कुलममत्वे षड्गुरु / ग्रामममत्वे छेदः / नगरममत्वे मूलं / देशममत्वे अनवस्थाप्यम् / राज्यममत्वे पाराश्चिकम् / एतत् क्षेत्रपरिग्रहप्रायश्चित्तम् / एवं कालपरिग्रहप्रायश्चित्तमत्रानुक्तमप्यनया गाथयो ज्ञेयम् ‘कालातीते काले कालविवच्चास कालउ अकाले / लहुओ लहुआ गुरुगा सुद्धपदे सेवए जं च // कालतोऽतीतं कालातीतम् ऋतुबद्धे मासातिरिक्तं, वर्षासु चातिरिक्तम् एकत्र स्थाने वसतः काले-कालपरिग्रहो भवति, नियतवासदोषाश्च भवन्ति / कोलस्य विपर्यासो-विपर्ययः तं करोति, कथं ? कालतःकाले ऋतुबद्धे न विहरति, अकाले-वर्षाकाले विहरति / अथवा दिवा न विहरति, रात्रौ विहरति / अत्रेदं प्रायश्चित्तम्-ऋतुबद्धे मासातिरिक्ताऽवस्थाने मासो लघुकः / वर्षातिरिक्तावस्थाने चतुर्लघुकाः / कालविपर्यासे चतुर्गुरुकाः / एतानि प्रायश्चित्तानि शुद्धपदे भवन्ति / शुद्धपदं नाम यद्यप्यपराधं न प्रोप्तस्तथापीत्यर्थः / यच्चात्म-संयम-प्रवचनविराधनं सेवते तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तं द्रष्टव्यम् / अथ भावपरिग्रहप्रायश्चित्तमाहवहिममत्ते लहुगा तेणभया निक्खिवंति ते चेव / ओसन्नगिहिसु लहुगा सच्छंदित्थीसु चउगुरुगा / / Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे व्याख्या-भावपरिग्रहो रागेण द्वेषेण च भवति / तत्रोपधिरौधिक औपग्रहिकश्च / तस्मिन् द्विविधेऽप्युपधौ ममत्वं-ममीकाररूपं तस्मिन् चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् / स्तेनभयात् -चौरभयादुपधिं निक्षिपति-गोपायति, विनाशभयाद्वा बद्धमेव स्थापयति ततः ते चेव-त एव चतुर्लघुकाः / अवसन्नाःपार्श्वस्थादयो गृहिणो--गृहस्थाः श्राद्धाः स्वजना वा तेषु विषये ममत्वे चतुर्लघुकाः / स्वच्छन्दा-यथाछन्दाः तेषु स्त्रीषु च ममत्वे चतुर्गुरुकाः / ननु अवसन्नादिषु ममत्वं किमर्थं करोति ? इत्याहपरिवाराइनिमित्तं ममत्तपरिपालणाइ-वच्छल्ले / साहम्मिय त्ति संजमहेउं वा सव्वहिं सुद्धो // 19 // ___व्याख्या-परिवारः-सहायरूपः, आदिशब्दादाहारोपधिशय्याः तेषां निमित्तम् / अयमाशयःपार्श्वस्थाद्यानुकूल्येन सहायाऽऽहारोपधिशय्या लभ्यन्त इति कृत्वा पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तयथाछन्दादिषु श्रावकस्वजनादिषु च विषये ममत्वपरिपालनादिवात्सल्ये, ममत्वं-प्रतिबन्धरूपं परिपालनमौषधाद्यैः . आदिशब्दात् संभोगसंवाससूत्रार्थदानानि / इत्यादिके वात्सल्ये कृते सति पूर्वगाथोक्तं प्रायश्चित्तं भवति / यदि वा जोतोक्तं पुरुषविभागेन प्रायश्चित्तमत्रावगन्तव्यम् / यथा-भिक्षोभिन्नमासः / वृषभस्य लघुमासः / उपाध्यायस्य गुरुमासः / आचार्यम्य चतुर्लघु / अथ पुनः साधर्मिक इति-समानधार्मिकोऽसाविति संयमं वाऽसौ मत्संसर्गात् करिष्यतीति हेतोः / वाशब्दात कुलगणसङ्घग्लानादिकार्येषु साहाय्यादिकं करिष्यतीत्यादिबुद्धया सर्वस्मिन् ममत्वादिके वात्सल्ये कृतेऽपि शुद्धः / इत्युक्तं पञ्चममहाव्रतातिचारप्रायश्चित्तम् / अथ षष्ठव्रतातिचारप्रायश्चित्तमाहलेवाडसुक्कसंनिहिभोगे गुरुगा घयाइए छलहु / दिअगहिअ दिआभुत्ते अ छग्गुरू सेसभंगतिगे // व्याख्या-लेपकृत्-द्रव्योपलिप्तस्य पात्रबन्धतुम्बकादेः पर्युषितत्वे / शुष्कसन्निधिभोगेशुष्कानां शुण्ठी-हरीतकी-बिभीतकादीनां सन्निधिः-साधुनिश्रया रात्रौ स्थापनं, तद्भोगे च चतुर्गुरुकाः / घृतादिके आर्द्रवस्तुनि पर्युषिते गृहीते षड्लघु, आदिशब्दात् गुडकक्कयतैलादीनि गृह्यन्ले / इह रात्रिभोजने चतुर्भङगी भवति / दिवा गृहीत रात्रौ परिवास्य दिवैव भुक्तमिति प्रथमो भङ्गः / दिवा गृहीतं रजन्यां भुक्तमिति द्वितीयः / रजन्यां गृहीतं दिवा भुक्तमिति तृतीयः / रजन्यां गृहीतं रजन्यामेव भुक्तमिति चतुर्थः / तत्र दिवा गृहीतं दिवा भुक्तमिति प्रथमभङ्गे च षड्लघु / शेषभङ्गत्रिके-द्वितीयतृतीय-चतुर्थभङ्गेपु षड्गुरु / तुसभूइविंदुमित्ताहारे परिवासिअंमि चउगुरुगा / लहुगा निघाइतयाइ मोअतिफलाइऽणाहारे // व्याख्या-तुषभूतिबिन्दुमात्राहारे परिवासिते भुक्ते चतुर्गुरुकाः। तिलतुषत्रिभागमात्रमप्याहारमशनादिकं रात्रिस्थापितं यद्याहरति-सक्तुकादीनां शुष्कचूर्णानामैकस्यामगुलौ यावती भूतिमात्रा लगति, तावन्मात्रमपि परिवासितं यद्यनाति / तथा पानीयस्य बिन्दुमात्राप यदि पिबति, तदा / चतुर्गुरुका इत्यर्थः / निम्बादयो ये वृक्षा आदिशब्दात् कटुकादिवृक्षपरिग्रहः , तेषां त्वगादि-त्वक-छल्ली / Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठव्रतातिचारप्रायश्चित्तम आदिशब्दान्मूलफलादिग्रहः / मोक-कायिकी, त्रिफला-आमलकहरीतकबिभीतकफलत्रयसंयोगरूपा / आदिशब्दादन्यदपि यन्निरास्वादं जिह्वाया अनिष्टम् / अयं सर्वोऽप्यनाहारः / तस्मिन्ननाहारे परिवासिते गृहीते चतुर्लघुकाः / तथो आगाढाऽनागाढग्लानत्वादिकारणमन्तरेण प्रासुकादिवस्तुपरिवासने प्रायश्चित्तं दर्शयति-- फासुअ अफासुए वाऽचित्तसचित्ते परित्तणते अ / असिणेहसिणेहगएऽणहारहारे लहुगगुरुगा // 102 // . व्याख्या-प्रासुकम-एषणीयं रात्री यदि स्थापयति तदा चतुर्लघु / अप्रासुकम् अनेषणीयं स्थापयति तदा चतुर्गुरु / अचित्ते स्थाप्यमाने चतुर्लघु / सचित्ते चतुर्गुरु / परीत्ते चतुर्लघु / अनन्ते चतुर्गुरु / अस्नेहे चतुर्लघु / स्नेहगते-स्नेहावगाढे चतुर्गुरु / अनाहारे चतुर्लघु / आहारे चतुर्गुरु / इति व्रतपटक-कायषटकविराधनाविषयप्रायश्चित्तप्रतिपादनेन मूलगुणविषयप्रायश्चित्तमभिहितं / सम्प्रति 'वयछक्ककायछकं' इत्यादि-गाथोक्तक्रमेणोत्तरगुणविषयं प्रायश्चित्तमुच्यते / तत्रोत्तरगुणा अकल्पपरिहारादयः / अकल्पश्च पिण्डशय्यावस्त्रपात्रचतुष्टयविषयः / एतेषां च क्रमेण प्रायश्चित्तमत्र प्रतिपादयिष्यते / तत्र प्रथमं पिण्डः / स च सप्तचत्वारिंशद्दोषदुष्टोऽकल्प्यः , ते चामी दोषाः____ सोलस उग्गमदोसा सोलस उप्पायणाइ दोसा उ / दस एसणाइ दोसा संजोअणमाइ पंचेव' / / पोडशोद्गमदोषा आधाकर्मादयः / ततः षोडशोत्पादनादोषा धात्र्यादयः / अथ दशैषणादोषाः शङ्कितादयः / तदनु पश्च प्रासैषणादोषाः संयोजनादयः / एतेषां च विस्तरव्याख्या पिण्डनियुक्तितोऽवसेया / लेशतश्चात्रापि यथास्थानं दर्शयिष्यते / यथा तद्विषयं प्रायश्चित्तं सुज्ञातं भवति / तत्र प्रथमं षोडशोगमदोषाणां क्रमेण प्रायश्चित्तं प्ररूपयतिआहाकम्मे चउगुरु दुविहं उद्देसिअं विआणाहि / ओहविभागे अ तहिं मासलहू ओहउद्देसे // 103 / / ... . व्याख्या- यत् साध्वर्थमेव सचित्तमचित्तीक्रियते तदाधाकर्म, तस्मिन्नाधाकर्मणि चतुर्गुरु / आधाकर्मदोषदुष्टमाहारं गृह्णानस्य साधोश्चतुर्गुरु प्रायश्चित्तं भवतीत्यर्थः / एवं सर्वत्र ज्ञेयम् / ओदेशिकं द्विविधम्-ओघतो विभागतश्च / तत्र स्वकुटुम्बार्थं पच्यमाने भक्ते पाखण्डिनां गृहिणां वा मध्ये यः कोऽपि समेष्यति, तस्य भिक्षादानार्थं कतिपयानधिकतरान् तन्दुलान् ओघेन-सामान्येन एतावत् स्वार्थ एतावच्च भिक्षादोनार्थमित्येवं विभागरहितेन गृहनायको यत् क्षिपति, एतदोघौदेशिकम् / तस्मिन्नोघोदेशिके गृहीते मासलघु / / बारसविहं विभागे चउहुद्दिढं कडं च कम्मं च / उद्देससमुद्देसादेससमाएसमेएणं // 104 // व्याख्या-वीवाहप्रकरणादिषु यदुद्धरितं तत् पृथक् कृत्वा दानाय कल्पितमेतत् विकागेनस्वसत्तातः पृथक्करणेनौदेशिकं विभागौदेशिकम् / तच्च प्रथमतस्त्रिधा-उद्दिष्टं कृतं कर्म च / तत्र स्वार्थमेव निष्पन्नमशनादिकं भिक्षाचराणां दानाय यत् पृथक्कल्पितं तदुद्दिष्टम् / यत् पुनरुद्धरितं सत् शाल्योदनादिकं भिक्षादानाय करम्बादिरूपतया कृतं तत् कृतमित्युच्यते / यत् पुनर्वीवाहप्रकरणादावुद्धरितं मोदकचूादि तद्भूयोऽपि भिक्षाचराणां दानाय गुडपाकदानादिना मोदकादि कृतं तत्कर्म / यदुक्तं Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे ‘संखडिभत्तव्वरिअं चउण्हमुद्दिसइ जं तमुद्दिष्टुं / वंजणमीसाइ कडं तमग्गितविआइ पुण कम्म' / एकैकं पुनश्चतुर्द्धा-उद्देशसमुद्देशादेशसमादेशभेदेन / तत्र यद् उद्दिष्टं कृतं कर्म वा यावन्तः केऽपि भिक्षाचराः पाखण्डिनो गृहस्था वा समेष्यन्ति तेभ्यः सर्वेभ्योऽपि दातव्यमिति सङ्कल्पितं तद् उद्देशम् / पाखण्डिनां देयत्वेन कल्पितं समुद्देशम् / श्रमणानामादेशम् / निर्ग्रन्थानां समादेशम् / यदुक्तं _ 'जावंतिअमुद्देसं पासंडीणं भवे समुद्देसं / समणाणं आएसं निग्गंथाणं समाएसं ' // ततश्चवं भेदाभिधानम्-उद्दिष्टोद्देशम् उद्दिष्टसमुद्देशम् उद्दिष्टादेशम् उद्दिष्टसमादेशम् / कृतोद्देशं कृतसमुद्देश कृतादेशं कृतसमादेशम् / कर्मोद्देशं कर्मसमुद्देशं कर्मादेशं कर्मसमादेशम् / एवं विभागे-विभागविषय मौदेशिकं द्वादशबिधं भवति / अथैतेषां द्वादशानां भेदानां प्रायश्चित्तमाहचउभेए उद्दिठे लहुमासो अह चउविहंमि कडे / गुरुमासो चउलहुअं कम्मुद्देसे अ नायव्वं // 105 / / ___ व्याख्या- चतुर्भदे-चतुष्प्रकारे उद्दिष्टे -पूर्वोक्तस्वरूपे गृहीते लघुमासः / अथ चतुर्विधे कृते गुरुमासः / कमों द्दशे च चतुर्लघुकं ज्ञातव्यम् / कम्मसमुद्देसाइसु तिसु चउगुरुअं भणंति समयन्नू / दुविहं तु पूइकम्मं उवगरणे भत्तपाणे अ // 106 / / व्याख्या - कर्मसमुद्देशादिषु त्रिषु भेदेषु-कर्मसमुद्देश-कर्मादेश-कर्मसमादेशेषु चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तं भणन्ति समयज्ञाः-श्रुतधरा-गणधरादयः / पूतिकर्म सूक्ष्मं बादरं च भवति / तत्र सूक्ष्ममाधाकर्मिकगन्धाग्निधूमादिभिः स्यात् , तददुष्टम् आचीर्णत्वादशक्यपरिहारत्वाच्च / बादरं तु पूतिकर्म द्विविधम्उपकरणे भक्तपाने च / तत्रोपकरणं चूल्लीस्थालीदादिरूपम् / चुली च'या कियता शुद्धेन कियता चाऽऽधाकर्मिकेण कर्दमेन निष्पादिता सा इत्थम्भूता उपकरणपूतिः / अनया दिशा अन्यस्याऽप्युपकरणस्य पूतित्वं भावनीयम् / आधाकर्मिकचुल्लीस्थाल्यादिषु राद्धं स्थापित वा आधाकर्मभक्तादिखरण्टितस्थाल्यादौ स्थापितं वा आधाकर्मभक्तादिलवेनाऽपि मिश्रं वा भक्तं पानं वा स्वरूपतः शुद्धमपि पूति-अपवित्रं स्यात् / यथा अशुचिलवेनाऽशनादि / एतद् भक्तपानपूतिकर्म / बगरणपूडू मासलहु मासगुरु भत्तपाणपूइंमि / जावंतिअ-जइ-पासंडि मीसजायं भवें तिविहं // 107 // व्याख्या-- उपकरणपूतौ मासलघु / भक्तपानपूतौ मासगुरु प्रायश्चित्तम् / अथ मिश्रजातं त्रिविधं भवति / यावदर्थिकमिश्रं पाखण्डिमिश्रं यतिमिश्रं च / यत् स्वस्य तेषां च योग्यं प्रथमतोऽप्यग्निजालनाऽधिश्रयणदानाद्यैरशनादि मिश्रितमेव राखुमारभ्यते तन्मिश्रमेव जातमुत्पन्नं मिश्रजातम् / जावंति मिसि चउलहु चउगुरु पासंडि सघरमीसंमि। चिर-इत्तरभेएणं निहिट्ठा ठावणा दुविहा // व्याख्या-यावदर्थिकमिश्रजाते चतुर्लधु / पाखण्डिमिश्रजाते सुष्ठ-अतिशयेनाऽगृहाः स्वगृहा. अनगारास्तैः सह मिश्रजातम् / तस्मॅिश्चतुर्गुरु / स्थापना द्विविधा निर्दिष्टा तीर्थकरादिमिः-चिरेत्वरभेदेन चिरस्थापना इत्वरस्थापना च / यत् साध्वथं स्थापयित्वा मुश्चति सा चिरस्थापना / गृहपङ्क्त्यामेकः साधुरेकत्र गृहे भिक्षां सम्यगुपयोगेन परिभावयन् गृह्णाति, द्वितीयस्तु द्वयोः पार्श्वस्थितगृहयोहस्तगते द्वे Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापना-प्रादुष्कर-क्रीतादिदोषप्रायश्चित्तम् भिक्षे परिभावयति, ततो गृहत्रयात् परतो गृहान्तरे साधुनिमित्तं या हस्तगता भिक्षा सो इत्वरस्थापना : तत्रोपयोगाऽसम्भवात् / चिरठविए लहुमासो इत्तरठविअंमि देसि पणगं / पाहुडिआ वि अ दुविहा बायरसुहुमप्पयारेहिं // व्याख्या-चिरस्थापिते-चिरस्थापनादोषे लघुमासः / इत्वरस्थापिते-इत्वरस्थापनादोषे पञ्चक देशितं-कथितम् / प्राभृतिकाऽपि च द्विविधा बादरसूक्ष्मप्रकाराभ्यां-बादरप्राभृतिका सूक्ष्मप्राभृतिका च / तत्र गुर्वागमनं ज्ञात्वा कोऽपि श्रावको विवाहादेरुपसर्पणमपसपणं वा यत्करोति सा बादरा / यत्तु पुत्रादौ भोजनमर्थयमाने सति साध्वर्थमुत्थिता तवापि दास्यामीति ब्रूते गृहस्था सा सूक्ष्मा / बायरपाहुडिआए चउगुरु सुहुमाइ पावए पणगं। पायडपयासकरणं तं बिंति पाउअरं दुविहं // 110 // __ व्याख्या- बादरप्राभृतिकायां-बादरप्राभृतिकादोषदुष्टाऽऽहारग्रहणे चतुर्गुरु / सूक्ष्मायां प्राभृ. तिकायां साधुः पञ्चकं प्राप्नोति / प्रादुष्करणं द्विविधं ब्रुवते समयविदः-प्रकटकरणं प्रकाशकरणमित्यमुना प्रकारेण / तत्रान्धकारादपसाय बहिः सप्रकाशप्रदेशे साध्वर्थमन्नादि स्थापनं प्रकटकरणम् / सान्धकारस्थानस्थितस्यैवाऽन्नादेर्मणि-प्रदीप-गवाक्ष-कुड्य-छिद्राद्यैरुद्योतकरणं प्रकाशकरणम् - मासलहु पयडकरणे पगासकरणे अ चउलहुं लहइ / अप्पपरदव्वभावेहि चउविहं कीयमाहंसु // 111 // व्याख्या-प्रकट करणे मासलघु / प्रकाशकरणे चतुर्लघुप्रायश्चित्तं लभते साधुः / क्रीतं चतुर्विधमवोचन्ननूचानाः / कथम् ? आत्मपरद्रव्यभावैः-आत्मद्रव्यश्रीतम् , आत्मभावक्रीतं, परद्रव्यक्रीतं, परभावक्रीतं चेति / तत्राऽऽत्मना स्वयमेव द्रव्येणोजयन्तभगवत्प्रतिमाशेषादिरूपेण प्रदानतः परमावर्य यद् भक्तादि गृह्यते तदात्मद्रव्यक्रीतम / यत् पुनरात्मना स्वयमेव भक्ताद्यर्थं धर्मकथादिना परमावर्त्य भक्तादि ततो गृह्यते तदात्मभावक्रीतम् / तथा परेण यत् साधुनिमित्तं द्रव्येण क्रोतं तत्परद्रव्यकोतम् / यत् पुनः परेण साध्वर्थं निजविज्ञानप्रदर्शनेन धर्मकथादिना वा परमावज्यं ततो गृहीतं तत्परभावक्रीतम् / अप्पपरदव्वकीए सभावकीए अ होइ चउलहुअं / परभावकीए पुण मासलहुं पावए समणो // 112 // व्याख्या-आत्मद्रव्यक्रीते परद्रव्यक्रीते स्वभावक्रीते च चतुर्लघुकं भवति / परभावक्रीते पुन सिलघु प्राप्नोति श्रमणः / अह लोउत्तरलोइअभेएणं दुविहमाहु पामिचं / लोउत्तरि मासलहू चउलहुअं लोइए होइ // 113 // व्याख्या-अथ प्रामित्यं द्विविधमाहुः लोकोत्तर-लौकिकभेदेन / तत्र यदुद्धारकेण वस्त्राद्यानीय साधुभ्यो ददाति गृहस्थस्तल्लौकिकं प्रामित्यम् / साधुरेव वस्त्राभावे साध्वन्तरपार्थाद्यदुद्धारके गृह्णाति तल्लोकोत्तरम् / तत्र लोकोत्तरे मासलघु / लौकिके चतुर्लघुकं भवति / परिअट्टि पि दुविहं लोउत्तरलोइअप्पगारेहिं / लोउत्तरि मासलहू चउलहुअं लोइए होइ // 114 // Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 यति-जीतकल्पे ___ व्याख्या-परिवर्तितमपि द्विधा-लौकिकलोकोत्तरप्रकाराभ्याम् ' तत्र यदन्यदीयं वस्त्राद्यात्मीयैः परावर्त्य गृही साधुभ्यो ददाति तल्लौकिकम् / साधव एव यन्मिथः परिवर्तयन्ति तल्लोकोत्तरम् / तत्र लोकोत्तरे परिवात्तते मासलघु / लौकिके चतुर्लघुकं भवति / अभिहडमुत्तं दुविहं सगामपरगामभेअओ तत्थ / चरमं सपञ्चवायं अपचवायं च इअ दुविहं // 115 / / व्याख्या- अभ्याहृतम्-अभि-सम्मुखं स्वस्थानात साधुसमीपे दानायाहृतम्-आनीतमभ्याहृतम् / तच्च द्विविधमुक्तं स्वग्रामपरग्रामभेदतः / स्वग्रामाऽभ्याहृतं परग्रामाऽभ्याहृतं चेत्यथः / तत्र तयोमध्ये चरमं-पाश्चात्यं परग्रामाऽभ्याहृतं पुनर्द्विविधं-सप्रत्यपायमप्रत्यपायं चेति / सपञ्चवायपरगाम आहडे चउगुरुं लहइ साहू। निपञ्चवायपरगामआहडे चउलहु जाण // 116 // व्याख्या-परस्माद्-अन्यस्माद् ग्रामाद् यत् साधुदाननिमित्तम् आहृतम्-आनीतं तत परग्रामाहृतम् / तस्मिन् परग्रामाहृते सप्रत्यपाये-अनर्थसहिते गृहीते चतुर्गुरुकं लभते साधुः / परग्रामाहृते निष्प्रत्यपाये चतुर्लघुकं प्रायश्चित्तं जानीहि / मासलहु सग्गामाहडम्मि तिविहं च होइ उभिन्नं / जतुछगणाइविलित्तुन्भिन्नं तह दहरुन्भिन्नं // तह य कवाडुब्भिन्न लहुमासो तत्थ दद्दरुब्भिन्ने / चउलहुअं सेसदुगे तिविहं मालोहडं तु भवे // 118 / / व्याख्या-यस्मिन् ग्रामे साधुर्भवति तस्मादेव ग्रामादाहृतं-साधुसमीपे दानायोनीतं स्वग्रा-: माहृतं तस्मिन् स्वग्रामाहृते मासलघु प्रायश्चित्तम् / उभिन्नं पुनत्रिविधं भवति-लिप्तो भिन्नं दर्दरोद्भिन्नं कपाटोद्भिन्नं च / तत्र जतुछगणादिलेपेन विलिप्तं घृतघटादिमुखं साधूनां दानार्थमुद्भिद्य घृतादि चहीयते तल्लिप्तोद्भिन्नम् / दर्दरः-कुतुपादेर्मुखबन्धनं वस्त्रचर्मादिखण्डं तं दर्दरमुद्भिद्य यद्दीयते तद्ददरोद्भिन्नम् / तथा यत् पिहितं कपाटमुद्भिद्य-उद्घाटथ साधुभ्यो दीयते तत्कपाटोद्भिन्नम् / तत्र दर्दरोद्भिन्ने लधुमासः / शेषद्विके-लिप्तोद्भिन्नकपाटोद्भिन्नलक्षणे चतुलघुकम् / मालापहृतं मालं-प्रासादोपरितलं तस्मादपहृतं मालापहृतम् / उपलक्षणत्वात् करदुर्ग्राह्य यद् दात्री ददाति तत् सर्व मालापहृतं / तत पुनत्रिविधं भवति / कथम् ?उकिट्ठजहन्नमज्झिम-भेअओ तत्थ चउलहुकिठे / लहुमासो अ जहन्ने गुरुमासं मज्झिमे जाण / / व्याख्या- जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदत्रयान् मालापहृतं विधा / तत्र भून्यस्ताभ्यां पादयोरन. भागाभ्यां पाणिभ्यां चोत्पातिताभ्यामूर्ध्वविलगितसिककादिस्थितं दाच्या दृष्टेरगोचरं यहीयते तज्जघन्य मालापहृतम् / मञ्चकादिकमारुह्य यदीयते तन्मध्यमम् / निःश्रेण्यादिकमारुह्य प्रासादोपरितलादानीय यदीयते तदुत्कृष्टं मालापहृतम् / तत्रोत्कृष्ट मालापहृते गृहीते चतुर्लघु / जघन्ये मालापहृते लघुमासः / मध्यमे म लापहृते गुरुमासं जानोहि / सामिपहुतेणकए तिविहे वि अ चउलहुं तु अच्छिज्जे / साहारण-चुल्लग-जड्डभेअओ तिनिहमणिसिद्वं Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71 आच्छेद्यादिदोषप्रायश्चित्तम् व्याख्या- आच्छेद्यं त्रिधा-स्वामि-प्रभु-स्तेनभेदात् / स्वामी -प्रामादिनायकः प्रभुः-गृहाधिपः तौ स्वोयत्तमानुषेभ्यः / स्तेनाः-चौरास्ते सार्थिकादिभ्यो बलादाच्छेद्य-उद्दाल्य यत् साधुभ्यो ददाति तदाच्छेद्यं तस्मिन् त्रिविधेऽपि-स्वामिप्रभुस्तेनकृते आच्छेद्ये गृहीते चतुर्लघुकम् / अनिसृष्टं त्रिविधं साधारण-चोल्लक-जड्डभेदतः। तत्र साधारणराद्धं भक्तं सर्वाननुज्ञातमेकादेर्ददतः साधारणानिसृष्टम् / चोल्लको-भोजनं यत् कौटुम्बिकप्रेषितहालिकयोग्यचोल्लकमध्यात् कौटुम्बिकाननुज्ञया चोलकवाही साधवे ददाति तच्चोल्लकानिसृष्टम् / जड्डो-हस्ती तस्य सत्कं पिण्डादिकं राज्ञा गजेन वाऽननुज्ञातं जड्डानिसृष्टम् / तिविहे वि तत्थ चउलहु तओ अज्झोअरं विआणाहि / जावंतिअजइपासंडि-मीसभेएण तिविगप्पं।। व्याख्या-तत्र त्रिविधेऽपि अनिसृष्टे गृहीते चतुर्लघु / ततोऽध्यवपूरकं विजानीहि-यावदर्थिक यतिपाखण्डि-मिश्रभेदेन त्रिविकल्पं-त्रिविधम् / यत्राऽग्निसन्धुक्षणस्थालीजलप्रक्षेपाद्यारम्भे यावदाथकाद्यागमनात् पूर्वमेवात्मार्थ निष्पादिते पश्चाद्यथासम्भवं त्रयाणां यावदर्थिकादीनामायाधिकतरास्तन्दुलाः सह राद्धं स्थाल्यां प्रक्षिप्यन्ते सोऽध्यवपूरकः / अत एव चास्य मिश्रजाताद् भेदः / यतो मिश्रजातं तदुच्यते यत् प्रथमत एव यावदर्थिकाद्यर्थमात्मार्थं च मिश्रं निष्पाद्यते / यत पुनः प्रथमतः स्वार्थमारभ्यते पश्चात् प्रभूतानथिनः पाखण्डिनः साधून् वा समागतानवगम्य तेषामायाधिकतरजलतन्दुलादि प्रक्षिप्यते सोऽध्यवपूरक इति मिश्रजातमदस्य भेदः / स विधा-यावदर्थिकमिश्रः , पाखण्डिमिश्रः , यतिमिश्रश्च / मासलहु पढमभेए मासगुरुं चरमंमि जाण भेअदुगे / इअ उग्गमदोसाणं पायच्छित्तं मए वुत्तं // 122 // ____ व्याख्या-प्रथमभेदे-अध्यवपूरकस्य यावदर्थिकरूपमिश्ररूपे मासलघु / चरमे-पाश्चात्ये भेदद्विके पाखण्डिमिश्रयतिमिश्ररूपे मासगुरु प्रायश्चित्तं जानीहि / इत्यमुना प्रकारेण उद्गमदोषाणां षोडशानां प्रायश्चित्तं मया प्रोक्तं-प्रतिपादितम् / एतेषु षोडशोद्गमदोषेषु केचन दोषा विशुद्धकोटिरूपाः केचन पुनर• विशुद्धकोदिरूपाः / तत्र यद्दोषदुष्टे भक्ते तावन्मात्रेऽपनीते शेषं कल्पते स दोषो विशुद्धकोदिः / शेषस्त्वविशुद्धकोटिः। तत्राधाकर्म, औदेशिकचरमभेदत्रयं. भक्तपानपूतिः, मिश्रजातान्त्यभेदद्वयं, बादरप्राभृतिका, अध्यवपूरकान्त्यभेदद्वयं चाविशुद्धकोटिः। पुरीषलवेनेव तवयवेनापि स्पृष्टं सर्वमभोज्यं, शेषास्तु विशुद्धकोटयः / ततसम्पृक्तं चान्नादि संस्तरे साधवः सर्वं त्यजन्ति / असंस्तरे तु विविच्य तदेव त्यजन्ति / घृतादिकमपि तावन्मात्रमेव त्यजन्ति, न शेषम् / यद्यपि तदद्वयवयोगस्तथापि शुद्धत्वमिति / अथोत्पादनादोषाणां षोडशानां क्रमेण प्रायश्चित्तमाहधाईउ पंच खीराईभेअओ चउलहु तु तप्पिडे / चउलहु दुईपिंडे सगामपरगामभिन्नंमि // 123 // व्याख्या-धान्यो- बालकपरिपालिकाः ताश्च क्षीरादिभेदतः पञ्च भवन्ति / बालस्य क्षीरमजनमण्डन-क्रीडना-ऽधायः / तासां कर्म धात्रीत्वं तेन लब्धः पिण्डो धात्रीपिण्डस्तस्मिन् धात्रीपिण्डे चतुलघु / दूती-परसन्दिष्टार्थकथिका, तस्याः कर्म दौत्यं तेन दौत्येन स्वग्रामे परग्रामे वा सन्दिष्टार्थकथनरूपेण प्राप्तः पिण्डो दूतीपिण्डस्तस्मिन् दूतीपिण्डे स्वग्रामपरग्रामभेदभिन्ने चतुर्लघु / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे तिविहो निमित्तपिंडो तिकालभेएण तत्थ तीयंमि। चउलहु अह चउगुरुअं अणागए वट्टमाणे अ // 124 // व्याख्या निमित्तम्-अतीताद्यर्थसूचकं शुभाशुभचेष्टादि तत्कथनेन प्राप्तः पिण्डो निमित्तपिण्डस्त्रिविधस्त्रिकालभेदेनातोतानागतवर्तमानलक्षणकालत्रयभेदेन / तत्रातीतकालविषयनिमित्तकथनेन प्राप्ते पिण्डे चतुर्लघु / अनागतकालविषयनिमित्तकथनेन वर्तमानकालविषयनिमित्तकथनेन च लब्धे पिण्डे चतुर्गुरुकम् / जाइकुलसिप्पगणकम्मभेअओ पंचहा विणिट्ठिो / आजीवणाइपिंडो पच्छित्तं तत्थ चउलहुगा // ___व्याख्या-आजीवनापिण्डो जातिकुलशिल्पगणकर्मभेदतः पञ्चधा विनिर्दिष्टः / तत्र जातिः- .. ब्राह्मणादिका कुलम्-उग्रादि / अथवा मातुः समुत्था जातिः, पितृसमुत्थं कुल / शिल्पं-तूर्णनसीवनादि / गणो-मल्लादिवृन्दं, कर्म-कृष्यादि / अथवा अप्रीत्युत्पादक कर्म, प्रीत्युपादकं तु शिल्पम् / अन्ये त्वाःअनाचार्योपदिष्टं कर्म. आचार्योपदिष्टं तु शिल्पमिति / एतैर्जातिकुलशिल्पगणकर्मभिरात्मनो गृहस्थस्य च तुल्यरूपताख्यापनेन लब्धः पिण्डः आजीवनाापण्डः / तत्राऽऽजीवनापिण्डे प्रायश्चित्तं चतुर्लघुकाः / चउलहु वणीमगपिंडे तिगिच्छंपिंडं दुहा भणंति जिणा / बायरसुहुमं च तहा चउलहु बायरचिगिच्छाए // 126 // व्याख्या-वनीपको-भिक्षाचरः तद्वत् पिण्डार्थं श्रमणातिथिब्राह्मणकृपणश्वानादिभक्तानां दायकानामात्मानं तत्तद्भक्तं दर्शयन् यल्लभते स वनीपकपिण्डस्तस्मिन् चतुर्लघु / चिकित्सापिण्डं द्विधा भणन्ति जिना-वीतरागा बादरं सूक्ष्मं च / तत्र वैद्यवत् स्वयं वमनविरेचनादि रोगप्रतीकारविधापनं बादरचिकित्सा, तयाऽवाप्तः पिण्डो बादरचिकित्सापिण्डः / वैद्यौषधादिसूचनेन सूक्ष्मा चिकित्सा तया लब्धः पिण्डः सूक्ष्मचिकित्सापिण्डः / तत्र बादरचिकित्सापिण्डे चतुर्लघु / सुहुमाए मासलहू चउलहुआ कोहमाणपिंडेसु / मायाए मासगुरुं चउगुरु तह लोभपिंडमि // 127 / / व्याख्या -- सूक्ष्मचिकित्सापिण्डे लघुमासः। क्रोधमानमायालोभलब्धाः पिण्डाः क्रोधमानमायालोभपिण्डाः / तत्र साधोविद्याप्रभावमुच्चाटनमारणादिकं, तपःप्रभा शापदानादिकं, रोजकुले वल्लभत्व, क्रोधफलं वा ज्ञात्वा गृहस्थेन यः पिण्डो दीयते स क्रोधपिण्डः / अभिमानेन हठादपि यः पिण्डो गृह्यते स मानपिण्डः / नानाविधविप्रतारणप्रकारैर्यः पिण्डो लभ्यते स मायापिण्डः / वल्लचनकादिकमसारं लभ्यमानमपि प्रतिषिध्य यन् मोदकादि सारमेव प्रतिगृह्णाति / अथवा प्रचुरं मधुरस्निग्धादि वस्तु लभ्यमानं दृष्ट्वा यद्बहु गृह्णाति स लोभपिण्डः / तत्र क्रोधमानपिण्डयोश्चतुर्लघुकाः। मायापिण्डे गुरुमासः / तथा लोभपिण्डे चतुर्गुरु / पुचिपच्छासंथवमाहु दुहा पढममित्थ गुणयुगणे / मासलहु तत्थ वीअं संबंधे तत्थ चउलहुअं // 128 // Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणादोषप्रायश्चित्तम् व्याख्या-संस्तवं द्विविधमाहुः-प्रथमं गुणस्तवने / द्वितीयं सम्बन्धे / एकैकमपि द्विधा-पूर्व पश्चाच्च / अयमर्थः-संस्तवो द्विविधः-श्लाघारूपः परिचयरूपश्च / तत्र श्लाघारूपो वचनसंस्तवः, परिचयरूपः सम्बन्धिसंस्तवः / एकैकोऽपि द्विधा-पूर्वसंस्तवः पश्चात्संस्तवश्च / तत्र पूर्व यहातारं स्तुत्वा याचते, लब्धे वा पश्चात् स्तौति स पूर्वसंस्तवः पश्चात्संस्तवश्च श्लाघारूपः / सम्बन्धिसंस्तवो मात्रादिनात्रकयोजनं पूर्वसंस्तवः, श्वश्वादिसम्बन्धयोजनं पश्चात्संस्तवः। तत्र गुणस्तवनरूपसंस्तवे द्विविधेऽपि मासलघु / सम्बन्धिसंस्तवे द्विविधेऽपि चतुर्लघुकम् / विजामंते चुन्ने जोगे चउसु वि लहेइ चउलहु / मूलं च मूलकम्मे उप्पायणदोसपच्छित्तं // 129 // व्याख्या- विद्या-ससाधना स्त्रीदेवताऽधिष्ठिता च, मन्त्रोऽसाधनः पुंरूपदेवताधिष्ठितश्च, चूर्ण * मञ्जनादि, योगः पादप्रलेपादिः / तत्प्रयोगेण लब्धाः पिण्डा विद्यामन्त्रचूर्णयोगपिण्डाः। एतेषु चतुर्वपि पिण्डेषु गृहीतेषु चतुर्लघुकं लभते साधुः। मूलकर्मणि गर्भाधानपरिशाटादिकरणरूपे मूलं च-मूलाख्यमष्टमप्रायश्चित्तं लभते साधुः / इत्युत्पादनादोषप्रायश्चित्तमुक्तम् / सम्प्रति ग्रहणैषणादोषाणां दशानामपि क्रमेण प्रायश्चित्तमाहसंकिअदोससमागं आवजइ संकिअंमि पच्छित्तं / दुविहं मक्खिअमुत्तं सचित्ताचित्तभेएणं // 130 // ... व्याख्या-इह शङ्कितदोषे चत्वारो भङ्गाः-शङ्कितमाही शङ्कितभोजी, शङ्कितमाही निःशङ्कित. भोजी, निःशङ्कितग्राही शङ्कितभोजी, निःशङ्कितग्राही निःशङ्कितभोजी च / अत्र द्वितीयचतुर्थों भङ्गो शुद्धौ, द्वयोरपि भोजनस्य निःशङ्कितत्वेन निर्दोषत्वात् / द्वितीयभङ्गभाविनश्च शङ्कितग्रहणदोषमात्रस्योत्तरशुभपरिणामेन शुद्धिसम्भवात् , शेषभङ्गद्वयमध्ये पुनः शङ्किते सति शङ्कितदोषसमानं प्रायश्चित्तमापद्यते / आधाकर्मादीनां षोडशोद्गमदोषाणां म्रक्षितादीनां च नवैषणादोषाणां मध्ये यं दोषं ग्रहणे भोजने वा शङ्किते तस्मिन् दोषे यत् प्रायश्चित्तं भवति, तत् शङ्कितदोषे प्राप्नोतीत्यर्थः। म्रक्षितं द्विविधमुक्तं सचित्ताऽचित्तभेदेन / सचित्तम्रक्षितम् अचित्तम्रक्षितं च / तत्र यत् सचित्तेन पृथ्वीकायादिना म्रक्षितम्-अवगुण्ठितं तत् सचित्तम्रक्षितम् / यत् पुनरचित्तेन पृथिवीरजःप्रभृतिनाऽवगुण्ठितं तदचित्त म्रक्षितम् / तत्र सचित्तम्रक्षितं त्रेधा-एतदेव दर्शयतिभृदगवणमक्खिअम्मि तिविहं सचित्तमक्खिअं विती / पुढवीमक्खिअमित्थं चउन्विहं बिति गीअत्था व्याख्या-सचित्तम्रक्षितं त्रिविधं ब्रुवते-भूदकवनम्रक्षितमिति-अनेन प्रकारेण पृथ्वीकायम्रक्षितम् अप्कायम्रक्षितं वनस्पतिकायम्रक्षितं चेत्यर्थः / तत्र पृथिवीम्रक्षितमित्थमनेन वक्ष्यमाणप्रकारेण चतुर्विधं ब्रुवन्ति गीतार्थाः-समयविदः / एतदेव व्याख्यानयति ससरक्खमक्खिों तह सेडिअकासाइमक्खिों चेव / __ निम्मीसमीसकद्दम-मक्खिमिअ पुढविमक्खिअं चउहा // 132 // Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 यति-जीतकल्पे व्याख्या-सरजस्कं-सचित्तपृथिवीरजोऽवगुण्ठितं देयमात्रकहस्तादि तच्च तत् म्रक्षितं च / सरजस्कम्रक्षितम् / तथा सेटिकाकाषादिम्रक्षितमेव-ऊषमृत्तिकाहरितालहिङ्गुलकमनःशिलाञ्जनलवणगैरिकसेटिकातुवरिकादिपृथ्वीकायम्रक्षितमित्यर्थः / निर्मिश्रोऽपरिणतः सचेतनः , मिश्रः सचित्ताऽचित्तरूपः, एवंविधो यः कर्दमस्तेन म्रक्षितं निर्मिश्रकर्दमम्रक्षितं मिश्रकर्दमम्रक्षितं चेत्यर्थः / इति पृथिवीम्रक्षित चतुर्दा / तत्र क्रमेण प्रायश्चित्तमाहतत्थ कमेणं पणगं लहुमासो चउलहू अ मासलहू / दगमक्खि पि चउहा पच्छाकम्मं पुरेकम्मं // 133 / / ___ व्याख्या-तत्र पृथिवीकायम्रक्षिते चतुर्विधेऽपि क्रमेणेदं प्रायश्चित्तम् / तद्यथा-सरजस्कम्रक्षिते पञ्चकम् / सेटिकादिपृथ्वीकोयम्रक्षिते लघुमासः / निर्मिश्रकर्दमम्रक्षिते चतुर्लघु / मिश्रकर्दमम्रक्षिते मासलघु / दकम्रक्षितमपि-अकायम्रक्षितमपि चतुर्दा / तद्यथा-पुरःकर्म, पश्चातकर्म, सस्निग्धम् उदका, च / तत्र दानात पूर्व हस्तमात्रकयोः क्षालने पुरःकर्म / दानानन्तरं झालने तु पश्चात्कर्म / ससिणिद्धं उदउल्लं चउलहु चउलहु अ पणग लहुमासा / वणमक्खिअं तु दुविहं पत्तेआणंतभेएण // 134 // व्याख्या-सस्निग्धम् -ईषलक्ष्यमाणजलखरण्टितं हस्तादि / उदका स्पष्टोपलभ्यमानजलसंसर्गम / अत्र क्रमेण प्रायश्चित्तमिदम्-पुरःकर्मणि चतुर्लघु, पश्चात्कर्मणि चतुर्लघु, सस्निग्धे पञ्चकम् , उदका लघुमासः / वनस्पतिकायम्रक्षितं तु द्विविध-प्रत्येकानन्तभेदेन / प्रत्येकवनस्पतिकायम्रक्षितमनन्तकायम्रक्षितं च / तत्र प्रत्येकम्रक्षितं त्रिधा, तदेवाहउक्ट्ठपिट्ठकुकुसभेआ पत्तेअमक्खिअंतिविहं। तिविहे वि हु लहुमासो गुरुमासो गंतमक्खिअए // 135 / / व्याख्या- उत्कृष्टपिष्टकुक्कुसभेदात् प्रत्येकम्रक्षितं त्रिविधम् / तत्र उत्कृष्टं कलिङ्गाऽऽमवाल क्यादिफलादीनां श्लक्ष्णीकृतानि खण्डानि अम्लिकापत्रसमुदायो वा उदूखलखण्डितः / पिष्टम्-आमतन्दुलक्षोदादि / कुक्कुसाः-प्रतीताः। तैम्रक्षितं प्रत्येकवनस्पतिम्रक्षितम् / त्रिविधेऽपि प्रत्येकवनस्पतिम्रक्षिते लघुमासः / हुशब्दः पूरणे / कुट्टितानामनन्तकायानां पनसफलादीनां श्लक्ष्णखण्डैद्मक्षितमनन्तकायम्रक्षितं तस्मिन् गुरुमासः / शेषैस्तु तेजःकोयादिभिः म्रक्षितं न सम्भवति, लोके तथा प्रतीत्यभावात् / एवं त्रिविधस्यापि सचित्तम्रक्षितस्य सप्रभेदस्य प्रायश्चित्तमभिहितम् / अथाचित्तम्रक्षितस्य तदाह गरहिअइअरेहिं अचित्तमक्खिअं दुविहमाहु साहुवरा। गरहिअअचित्तमक्खिअ-दोसेण लहइ चउलहुअं // 136 // व्याख्या-गर्हितेतरैः-गर्हितागर्हितैरचित्तम्रक्षितं द्विविधमाहुः साधुवरा-जिनाः / तत्र गर्हि तैः मांसवसाशोणितसुरामूत्रोच्चारादिभिः शिष्टजनस्याऽभक्ष्याऽपेयैक्षितं गर्हिताचित्तम्रक्षितं तेन गर्हिताचित्तम्रक्षितदोषेण चतुर्लघुकं लभते साधुः / अगरहिसंसत्त-अचित्तमक्खिअम्मि वि लहेइ चउलहुअं। निक्खित्तं पुढवाइसु अणतरपरंपरं ति दुहा // 137 // Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्रक्षित-निक्षितादिदोषप्रायश्चित्तम् 75 व्याख्या-संसजन्ति-विलगन्ति सलेपत्वात् कीटिकामक्षिकादयो जन्तवो येषु तानि संसक्तानि, तैरगर्हितैरचितम्रक्षितम् अगहितसंसक्ताचित्तम्रक्षितं तस्मिन्नगर्हितसंसक्ताचित्तम्रक्षितेऽपि चतुर्लघुकं लभते यतिः / इत्युक्तं म्रक्षितदोषप्रायश्चित्तम् / अथ निक्षिप्तदोषप्रायश्चित्ताभिधित्सया तत्स्वरूपं दर्शयत्युत्तरार्द्धन-निक्षिप्त-पृथिव्यादिषु स्थापितं द्विधा-अनन्तरपरम्परमिति / देयं वस्तु पृथिव्यादिषु निरन्तर सान्तरं वा स्थापितं भवतीति द्विधा निक्षिप्तमित्यर्थः / एतत्प्रायश्चित्तमाहठविए सचित्त भूदगसिहिपवणपरित्तवणस्सइतसेसु / चउलहु अ मासलहुआ अणतरपरंपरेसु कमा // 138 // व्याख्या-सचित्तभूदकशिखिपवनपरीत्तवनस्पतित्रसेषु-सचित्तपृथ्वीकायाऽष्कायतेजःकायवायुकायप्रत्येकवनस्पतिकायत्रसकायेषु अनन्तरम्-अव्यवधानेन परम्परं-व्यवधानेन स्थापिते निक्षिप्ते देयेऽशनाद्याहारे गृहीते क्रमात् प्रायश्चित्तं चतुर्लघुकमासलघुकौ / अनन्तरनिक्षिप्ते चतुर्लघु, परम्परनिक्षिप्ते लघुमास इत्यर्थः / अइरपरंपरठविए मीसेसु तेसु मासलहुपणगा / अइरपरंपरठविए पणगं पत्तेअणंतबीएसु // 139 // व्याख्या-तेषु-पृथ्वीकायाऽकायतेजःकायवायुकायप्रत्येकवनस्पतिकायत्रसकायेषु मिश्रेषु-सचित्ताचित्तरूपेषु / अतिरःपरम्परस्थापिते / तिरो व्यवधाने, न तिरोऽतिरोऽव्यवधानम् अनन्तरमित्यर्थः / अतिरोऽव्यवधानेन स्थापिते मासलघु / परम्परेण-व्यवधानेन स्थापिते पञ्चकं क्रमादवगन्तव्यम् / प्रत्येकानन्तबीजेषु-प्रत्येकवनस्पतिकायबीजेषु अनन्तवनस्पतिकायबीजेषु अतिरःपरम्परस्थापिते-निरन्तरं सान्तरं स्थापिते पञ्चकम् / प्रत्येकबीजेषु अनन्तरपरम्परस्थापिते पञ्चकं लघु / अनन्तबीजेषु निरन्तरपरम्परस्थापिते पञ्चकं गुरु स्यादित्यर्थः / एवमन्यत्रोऽप्यनन्तकाये पञ्चकं गुरुकं ज्ञातव्यम् / सचित्तगंतकाए अणंतरपरंपरेण निक्खित्ते / चउगुरु मासगुरु कमा मीसे गुरुमास पणगा य // 14 // व्याख्या-सचित्तेऽनन्तकाये अनन्तरपरम्परेण निक्षिप्ते-निरन्तरनिक्षिप्ते सान्तरनिक्षिप्ते क्रमाञ्चतर्गत मासगुरु भवति / मिश्रे पुनरनन्तकाये निरन्तरनिक्षिप्ते गुरुमासः। सान्तरनिक्षिप्ते तु पञ्चकं गुरुकं स्यात् / अथ पिहितं त्रिधा स्यात् तदेव दर्शयतितह गुरुअचित्तपिहिरं सचित्तपिहिरं च मीसपिहिरं च / पिहिरं तिहा अभिहिरं चउगुरुमचित्तगुरुपिहिए // 141 // ___ व्याख्या-तथा पिहितं देयमशनादि वस्तु यत् केनाऽप्यपरेण वस्तुना स्थगितं भवति तत् पिहितं त्रिधाऽभिहितं जिनः। गुर्वचित्तपिहितं सचित्तपिहितं मिश्रपिहितं च / तत्र गुरुणो-महाभारेणाऽचित्तेन पाषाणखण्डादिना यहेयवस्तु भाजनादि पिहितं स्यात् तद्गुर्वचित्तपिहितम् / सचित्तन पृथिवीकायादिना पिहितं सचित्तपिहितम् / मिश्रेण पृथ्वीकायादिना पिहितं मिश्रपिहितम् / तत्राऽचित्त. गुरुद्रव्यपिहिते चतुर्गुरु / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे पिहिए सचिनभूदग सेहिपषणपरित्तवणस्सइतसेहिं / चउलहुअमासलहुआ अणंतरपरंपरेहिं कमा // व्याख्या-सचित्तभूदकशिखिपवनपरीत्तवनस्पतित्रसैः-सचित्तैः पृथ्वीकायाऽकायतेजःकायवायुकायप्रत्येकवनस्पतिकायत्रसकायैः पिहिते-अनन्तरपरम्पराभ्यां स्थगिते क्रमाञ्चतुर्लचुकमासलघुकेएतैर्निरन्तरपिहिते चतुर्लघु / सान्तरपिहिते लघुमास इत्यर्थः / अइरपरंपरपिहिए मीसेहिं तेहिं मासलहुपणगा। अइरपरंपरपिहिए पणगं पत्तेअणंतबीएहि // 143 // व्याख्या-तैः पृथ्वीकायादिभिर्मिः सचित्ताऽचित्तरूपैरतिरःपरम्परपिहिते-निरन्तरसान्तरपिहिते निरन्तरपिहिते मासलघु / सान्तरपिहिते पञ्चकम् / प्रत्येकानन्तबीरतिरःपरम्परपिहिते-निरन्तरसोन्तरपिहिते पञ्चकम् / सचित्तगंतेगं अगंतरपरंपरम्मि पिहिअम्मि / चउगुरु मासगुरु कमा मीसेणं मासगुरुपणगा // .. ___ व्याख्या-सचित्तेनानन्तेन-अनन्तकायेनानन्तरपरम्परपिहिते क्रमाचतुर्गुरु मासगुरु / निरन्तरपिहिते चतुर्गुरु / सान्तरपिहिते गुरुमास इत्यर्थः / मिश्रेण-सचित्ताऽचित्तरूपेणानन्तकायेनानन्तरपरम्परपिहिते क्रमान् मासगुरुपञ्चके / अथ संहृतदोषप्रायश्चित्तमाह - साहरिअ सजिअ भूदगसिहिपवणपरित्तवणस्सइतसेसु / चउलहुश्रमासलहुआ अणंतरपर परेसु कमा // व्याख्या-इह येन हस्तेन मात्रकेण वा कृत्वा दात्री साधोरशनादिकं दातुमिच्छति, तत्रान्यददातव्यं किमपि सचित्तमचित्तं भिधे वाऽस्ति, ततस्तदन्यत्र भूम्यादौ सचित्ते. अचित्ते, मिश्रे वा क्षिप्त्वा तेन हस्तेन मात्रकेण वा यद्ददाति तत् संहृतम् / अत्र सचित्ताचित्तमिश्रपदैस्तिस्रश्चतुर्भङग्यो भवन्ति / तथाहि-एका चतुर्भङ्गो सचित्तमिश्रपदोभ्यां, द्वितीया सचित्ताचित्तपदाभ्यां, तृतीया मिश्राचित्तपदाभ्याम् / तत्र सचित्ते सचित्तं संहृतं, मिश्रे सचित्तं, सचित्ते मित्रं, मिश्रे मिश्रमिति प्रथमा चतुर्भङ्गी / तथा सचित्ते सचित्तं संहृतम्, अचित्ते सचित्तं, सचित्ते अचित्तम्, अचित्ते अचित्तमिति द्वितीया / तथा मिश्रे मिश्रं संहृतम्, अचित्तं मिश्रे, मिश्रे अचित्तम्, अचित्ते अचित्तमिति तृतीया / अत्र प्रथमचतुर्भङ्ग्याः सर्वेष्वपि भङ्गेषु न कल्पते / द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्योस्त्वाद्येषु त्रिषु त्रिषु भङ्गेषु प्रतिषेधः / चरमे भजना। अत्र च सचित्तः पृथ्वीकायः सचित्ते पृथ्वीकाये संहृतः, सचित्ताऽप्काये वा संहृत इत्यादि षड्जीवनिकायचारणिकया स्वस्थानपरस्थानापेक्षया चतुर्भङ्गीत्रयभङ्गेष्वेककस्मिन् भङ्गे षटत्रिंशत् षट्त्रिंशद् भङ्गा भवन्ति / सर्वसङ्ख्यया चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि भङ्गानाम् / एते च सर्वेऽपि भङ्गा नैरन्तर्येण पारम्पर्येण वा भवन्ति / तत्र चैतेषु सर्वेष्वपि निरन्तरपरम्परसंहृतभङ्गेषु यत्र सचित्तसङ्घट्टनादिदोषः स्यात् तत्र न कल्पते / एतत् सर्वं निक्षिप्ते पिहितेऽपि स्वयमवगन्तव्यम् / अथैतेषु निरन्तरपरम्परसंहृतसर्वभङ्गेषु प्रायश्चित्तं प्रदर्यते / सजीवाः-सचित्ता ये भूदकशिखिपवनपरीत्तवनस्पतित्रसाः-पृथ्वीकायाऽप्कायतेजःकायवायुकायप्रत्येकवनस्पतिकायत्रसकायास्तेषु अनन्तरपरम्परेषु संहृत्याऽन्यद्वस्तु क्षिप्त्वाऽशनादिके दीयमाने गृहीते क्रमाञ्चतुर्लघुकमासलघुके / अनन्तरसंहृते चतुर्लघुकं परम्परसंहृते मासलघुकं भवतीत्यर्थः / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरादिदायकदोषप्रायश्चित्तम् 77 अइरतिरोसाहरिए मीसेसु तेसु मासलहुपणगा। अइरतिरोसाहरिए पणगं पत्तेअणंतबीएसु // 146 // व्याख्या- तेषु पृथ्वीकायादिषु पूर्वोक्तेषु मिश्रेषु-सचित्ताऽचित्तरूपेषु अतिरस्तिरःसंहृतेअनन्तरपरम्परसंहते क्रमेण मासलघुपञ्चके / प्रत्येकानन्तबीजेषु-प्रत्येकसाधारणवनस्पतिबीजेषु अतिरस्तिरःसंहृते-अनन्तरपरम्परसंहृते पञ्चकम् / सचित्तअगतेसु अणंतरपरंपरम्मि साहरिए / चउशुरुमासगुरु कमा मीसेसु मासगुरुपणगा // 147 / / . व्याख्या-अनन्तेषु-अनन्तकायरूपेषु कन्दादिषु सचित्तेषु-सजीवेषु अनन्तरपरम्परसंहृते क्रमाचतुर्गुरुमासगुरुके / अनन्तरसंहृते चतुर्गुरु, परम्परसंहृते मासगुरु / मिश्रेषु सचित्ताऽचित्तरूपेषु पुनरनन्तकायेषु अनन्तरपरम्परसंहृते क्रमान् मासगुरुपश्चके स्योताम् / चउगुरु अचित्तगुरुसाहरिए अह दायगत्ति थेराई / थेरपहुपंडवेविर जरि अंधऽव्वत्त मत्त उम्मत्ते // व्याख्या -- अचित्ते-निर्जीवे गुरुणि-बहुभारे शिलापुत्रकादिद्रव्ये दर्वीकरोटिकादेरुपरिभागात् संहृते अथवा देयवस्तुभाजनस्योपरिभागान्महति भाजने अचित्तबहुभारे संहृते-उत्पाटयाऽन्यत्र स्थापिते चतुर्गुरु / एवं सचित्ताऽचित्तमिश्रविषयसंहृतदोषप्रायश्चित्तमभिहितम् / अथ एतदनन्तरं दायकः स्थविरादिरित्येवंविधो दोषः- स्थविरादिभिर्दीयमाने दायकदोषो भवेदित्यर्थः / अतस्तेषां स्थविरादीनां नामग्राहं प्रतिपादनार्थमाह- थेरपहुपंडवेविरे 'त्यादि / स्थविरो-वृद्धः सप्ततिवर्षाणां मतान्तरापेक्षया षष्टिवर्षाणां वा उपरिवर्ती। स्थविरस्य च हस्तेन मिक्षाग्रहणे निपतन् षड्जीवनिकायविराधनादिदोषा भवेयुः / अतस्तद्धस्तेन उत्सर्गतो न गृह्यते 1 / तथा अप्रभुः-दीयमानभक्तादेः अस्वामी भृतकादिस्तेन दीयमाने प्रभोरप्रीतिः स्यात् 2 / पण्डः-पण्डको नपुंसकस्तस्मिन् दायके लोकापवादशङ्कादिदोषाः 3 / वेपमान:कम्पमानशरीरः तद्दाने परिशाटनभाजनभङ्गादिदोषाः 4 / ज्वरितो-ज्वररोगपीडितः / ततो भिक्षाग्रहणे वरसङ्क्रमणजनापवादादयो दोषाः 5 / अन्धः-चक्षुर्विकलः / तस्य हि भिक्षां ददतः कायवधस्खलनपतनभाजनबहिर्भक्तक्षेपणजनवचनीयतादयो दोषाः 6 / अव्यक्तो-बालो जन्मतो वर्षाष्टकाभ्यन्तरवर्ती / तेन दीयमाने तज्जनन्यादेः प्रद्वेषः 7 / मत्तः-पीतमदिरादिः / स चाशुचित्वाऽऽलिङ्गनहननभाजनभङ्गकरणादिदोषदुष्टत्वात् साधुभिक्षादानाऽयोग्यः 8 / उन्मत्तो-दृप्तो ग्रहगृहीतो वा सोऽपि मत्तवद् दुष्टः 9 / तथाछिन्नकरचरणगुब्बिणिनिअलंडुअबद्धबालवच्छाए / खंडइ पीसइ मुंजइ जिमइ विरोलइ दलइ सजिअं // ठवइ बलिं उवउत्तइ पिढराइ तिहा सपञ्चवाया जा / साहारणचोरिअगं देइ परक्कं परटुं वा // 150 / / व्याख्या-छिन्नकरः-कर्त्तितहस्तः छिन्नचरणो-लूनपादः , एताभ्यां च सकाशात् भिक्षा न ग्राह्या, दानाऽसमर्थत्वाल्लोकापवादादिदोषसम्भवाच्च 10-11 / गुर्विणी-आपन्नसत्त्वा, तत्सकाशाद गच्छनिर्गता जिनकल्पिकादयः प्रथम दिनादारभ्य भिक्षा न गृहन्त्येव 12 / स्थरविरकल्पिकास्त्वष्टौ मासोन् यावत् गृहन्ति, नवममासे तु न गृहन्ति निषदनोत्थानाभ्यां गर्भपीडासम्भवात् / निगडेन-लोहमयपादबन्धनेन बद्धः 13 अण्डुकेन-कोष्ठमयकरबन्धनेन बद्धः / एताभ्यां सकाशात् परितापनादिदोषसम्भवाद् भिक्षा न ग्राह्या 14 / बालवत्सा-स्तन्योपजीविशिशुका / तया दीयमानं न कल्पते. निक्षिप्त Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे बालस्य मार्जारादिभ्यो विनाशसम्भवात् / निक्षिप्यमाणस्योत्क्षिप्यमाणस्य चातिसुकुमारत्वेन परितापनासम्भवात् 15 / अग्रेतनगाथास्थितो याशब्दोऽत्र प्रत्येकमभिसम्बध्यते / ततश्च या काचिन्महिला खण्डयति-उदूखलक्षिप्तानि शाल्यादिबीजानि मुसलघातः श्लक्ष्णीकरोतीत्यर्थः। तया दीयमाना भिक्षा न ग्राह्या / बोजसङ्घट्टनोद्यारम्भसम्भवात् 56 / तथा पिनष्टि-शिलायां तिलामलककुस्तुम्बुरुलवणजीरकादि मृद्नातीति आवः / अनयापि दीयमानं न कल्पते, तिलादिसङ्घट्टनसद्भावात 17 / तथा भृजति-चनकयवगोधूमादीन् अग्निप्रतप्तकडिल्लकादौ स्फोटयतीत्यर्थः / तया दीयमानं न कल्पते, कडिल्लकादिप्रक्षिप्तस्य तस्य चनकादेर्दाहसम्भवात् 18 / तथा जेमति-भुङ्क्तेऽभ्यवहरतीत्यर्थः / भुञ्जाना हि आचमनं विधाय यदि साधुभ्यो दद्यात् तदाऽप्कायविराधना / अथैतद्दोषभयात्तदकृत्वैव वितरेत् तदोच्छिष्टमप्येते न त्यजन्तीत्यादिजनाऽपवादः स्यात् / तत्र च महान् दोषः / यदाह ___'छक्कायदयावंतो वि संजओ दुल्हं कुणइ बोहिं / आहारे निहारे दुगुंछिए पिंडगहणे वि' / इत्यतो न कल्पते 19 / तथा विरोलयति-करमन्थानादिना दध्यादिकं मध्नाति / सा हि संसक्तदध्यादिलिप्तकरा भिक्षां ददती सत्त्ववधं विदध्यादिति न गृह्यते 20 / तथा दलति-सजीवं-सचित्तं गोधूमादिधान्यं घरट्रेन पिनष्टि / इयं हि भिक्षादानायोत्तिष्ठन्ती बोजानि सङ्घट्टयति, दत्त्वा च करौ प्रक्षालयतीति न गृह्यते 21 / तथा या काचिन्नारी साधुदानायोद्यता सती मूलस्थालीतः समाकृष्य स्थगनिकादौ बलिमुपहारमग्रकूरमित्यर्थः स्थापयति तया दीयमाना भिक्षा न कल्पते, प्रवर्तनादिदोषसम्भवात् 22 / तथा उद्वर्त्तयति-साधुदानबुद्ध था परावर्तयति पिठरादि स्थाल्यादि नमयतीत्यर्थः / अत्र च कीटिकादिसत्त्वोपघातः स्यात् 23 / तथा त्रिधा-ऊर्ध्वाऽधस्तिर्यग्लक्षणैत्रिभिः प्रकारैः सप्रत्यपायकोष्ठकण्टकगवादिभ्यः सकाशात् सम्भाव्यमानाभिघाताद्यना या काचिद् वनिता स्यात् / ‘तहा सपञ्चवाया जा' इति पाठे तु, तथा सप्रत्यपाया या दात्री कूलवालकमुनिव्रतत्याजयित्री मागधिकावेश्येव शाकिन्यादि / तया दीयमानं न कल्पते 24 / तथा साधारणं-बह्वायत्तं तद्ददातीति योगः। तत्र साधारणानिसृष्टवदोषी वोच्याः 25 / तथा चोरितकं-चौरिकया गृहीतं साधुभ्यो ददाति / तत्र च दोषाः प्रतीता एव 26 / तथा पाराक्यं-परसत्कं परकीयमिदमित्युक्त्वा ददाति / अथवा परार्थ-परनिमित्तं कार्पटिकादिदानाय कल्पितमित्यर्थः / तद्ददाति / अत्र च परसत्के तत् स्वोमिनाऽननुज्ञाते, परदानाय कल्पिते च दीयमाने अदत्तादानान्तरायादयो दोषाः 27 / अर्थतेषु दायकेषु ददानेषु भिक्षां गृह्णानस्य साधोः प्रायश्चित्तमाहदितेसु एसु चउलहु चउगुरु पगलंत पाउआरूढे / कत्तइ लोढइ पिंजइ विक्खिणइ मद्दए अ मासलहु / / व्याख्या-एतेषु सप्तविंशतिसङ्ख्येषु दायकेषु भिक्षां ददत्सु गृहीतुः साधोश्चतुर्लघु प्रायश्चित्तं भवति / तथा प्रगलन् गलत्कुष्ठः, ततो भिक्षाग्रहणे हि साधोरपि कुष्ठरोगसङ्क्रान्तिः स्यात् तदीयोच्छवासत्वक्संस्पर्शस्वेदमलमूत्रोच्चाराहारलालादिभिः शरीरान्तरे तत् सङ्क्रमणस्याभिहितत्वात् ततो न ग्राह्या। तथा पादुकारूढः-काष्ठादिमयोपानत्समारूढः / स हि भिक्षां प्रयच्छन् दुर्व्यवस्थितत्वात् कदाचित् पतति, कीटिकादिसत्त्वविराधनां च करोतीत्यतोऽसावपि परिहियते / अनयोर्दायकयोर्भिक्षां ददानयोर्गलानस्य साधोश्चतुर्गुरु प्रायश्चित्तं स्यात् / तथा या कर्त्तयति-रूतं सच्चक्रेण सूत्रं करोति / तथा लोढयति कार्पासं लोढिन्यां कनकेत निरस्थिकं करोतीत्यर्थः / तथा पिञ्जयति-रूतं पिञ्जनेन मृदूकरोति / तथा विक्खिण Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्थानप्रायश्चित्तम् इत्ति / विकी र्गयति-रूतं कराभ्यां पौनःपुन्येन श्लक्ष्णयति / एताभिश्चतसृभिरपि दीयमानं न कल्पते, कर्पासास्थिकसट्टनदेयवस्तुखरण्टितहस्तधावनदोषसम्भवात् / एताभ्यश्चतसृभ्यो दायिकाभ्यः सकाशाद् भिक्षाग्रहणे मईके च-प्रमर्दनप्रवृत्ते दातरि च मासलघु प्रायश्चित्तं भवति / अथ षटकायान् विराधयन्ती या दात्री ददाति / तद्विषयं प्रायश्चित्तमाहछक्कायवग्गहत्था समणट्ठा निक्खिवित्तु ते चेव / घटुंती गाहंती आरंभंती अ सट्ठाणं // 152 // व्याख्या-षट्कायव्यग्रहस्ता-षट्काययुक्तहस्ता / इह षट्कायव्यग्रहस्ता सो उच्यते यस्या हस्ते सजीवं लवणमुदकमग्निर्वायुपूरितो दृतिकः, फलादिकं बीजपूरादि मत्स्यादयो वा विद्यन्ते / ततः सा श्रमणार्थ-श्रमणभिक्षादानार्थमुत्थाय षटकायान् भूम्यादौ निक्षिप्य पुनस्तानेव घट्टयन्ती-तत् सङ्घर्ट कुर्वाणा / तानेव गाहमाना-विलोडनेन इतस्ततो विक्षेपणेनाऽगाढं गाढं वा परितापयन्ती / तानेव आरममाणा चं-षटकायोपद्रव करमारम्भं कुर्वाणा खननमर्दनादिना पृथ्वीकार्य, मजनवस्त्रधावनादिनाsकायम् , उल्मुकघट्टनादिनाऽग्निम् , अग्न्यादेः फूत्करणादिना मारुतं, फलादेः कर्त्तनादिना वनस्पति, स्फुरन्मत्स्यादिछेदनादिना त्रसकायं च विराधयन्तीत्यर्थः / एवंविधा दात्री यदि ददाति, ततो गृहीतुः साधोः स्वस्थानं प्रायश्चित्तं भवति / अयमभिप्रायो-जीतकल्पेऽस्यापराधस्य यत् प्रायश्चित्तमुक्तमस्ति तत् तस्य स्वस्थानम् / एतदेव स्वस्थानप्रायश्चित्तं गाथायुगलेन व्यक्तमेव दर्शयतिभूजलसिहिपवणपरित्तघट्टणागाढगाढपरिआवे / उद्दवणे वि अ कमसो पणगं लहु गुरु अ मास चउलहुआ॥ व्याख्या-पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतीनां सङ्घट्टाऽगाढपरितापगाढपरितापोपद्रवान् कुर्वाणो यदि दात्री ददाति तदा क्रमशः-क्रमेण साधोरिदं प्रायश्चित्तं भवति / यथा-सङ्घढे पञ्चकम् / अगाढपरितापे लघुमासः / गाढपरितापे गुरुमासः / उपद्रवे चतुर्लघुकाः / * लहुमासाई चउगुरुअंतं विगलेसु तह अगंतवणे / पंचिंदिसु गुरुमासाइ जाव कल्लाणगं एगं // 154 // - व्याख्या -विकलेन्द्रियाणां-द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां तथा अनन्तवनस्य-अनन्तकायवनस्पतेः सङ्घट्टाऽगाढपरितापगाढपरितापोपद्रवान् चेत् कुर्वती दात्री भिक्षां ददाति तदा गृह्णानस्य साधोलघुमासादि चतुर्गुवन्तं प्रायश्चित्तं क्रमेण भवति / सङ्घटे लघुमासः / अगाढपरितापे गुरुमासः / गाढपरितापे चतु लघु / उपद्रवे चतुर्गुरु स्यादित्यर्थः / तथा पञ्चेन्द्रियाणां सङ्घट्टोऽगाढपरितापगाढपरितापोपद्रवान् कुर्वत्या दाच्याः सकाशाद् भिक्षां गृह्णतो गुरुमासादि यावत् कल्याणकमेकं प्रायश्चित्तं भवति / सङ्घद्धे गुरुमासः / अगाढपरितापे चतुर्लघु / गाढपरितापे चतुर्गुरु / उपद्रवे एक कल्याणकमिति भावः / अथाऽनेकद्वीन्द्रियाधुपघातप्रायश्चित्तं समाचारीगतगाथया दर्शयति -- एगाइदसतेसुं एगाइदसतयं सपच्छित्तं / तेण परं दसगं चिअ बहुएसुवि सगलविगलेसु // 155 / / व्याख्या-कयाचिद् दाच्या साधोभिक्षा ददत्या प्रमादवशेन एकादयो दशान्ता द्वीन्द्रियादयोद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रिया व्यापादिताः , ततस्तत्र भिक्षां गृह्णानस्य साधोरेकादिपु दशान्तेषु Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे द्वीन्द्रियादिषूपहतेषु एकादिदशान्तं स्वप्रायश्चित्तं भवति / अयमर्थः-यद्यस्य द्वीन्द्रियादेरुपघातेऽत्र जीत. कल्पे प्रायश्चित्तं भणितमस्ति तत्तस्य स्वप्रायश्चित्तमुच्यते / तच्चैकस्य द्वीन्द्रियादेरुपघाते एकं स्वप्रायश्चित्तं भवति / द्वयोरुपघाते द्व स्वप्रायश्चित्ते भवतः। त्रयाणामुपघाते त्रीणि तानि भवन्ति / यावद् दशानामुपघाते दश स्वप्रायश्चित्तानि स्युः। 'तेने'ति / पञ्चम्यर्थत्वात् तृतीयायाः / ततः परमेकादशादिषु बहुष्वपि यावदसङ्ख्येष्वपि सकल-विकलेषु-पञ्चेन्द्रियविकलेन्द्रियेषूपहतेषु दशकमेव-दशैव स्वप्रायश्चित्त.नि दातव्यानि भवन्तीति भावः / एवं दायकदोषप्रायश्चित्तमुक्तम् / अथोन्मिश्रदोषप्रायश्चित्तमाहपुढवाइजिउम्मीसे चउलहु पणगं तु बीअउम्मीसे / मिस्सपुढवाइमीसे मासलहुं पावए साहू // 156 / / व्याख्या-इह साधूनां दानयोग्यमोदनादि, अयोग्यं तु सचित्तं फलादि, मिश्रम् -आमपक्कपृथुकादि / अचित्तं च तुषादि / ते द्वे अपि वस्तुनी अनाभोगादिना मिश्रयित्वा गृहस्थो यद्ददाति तदुन्मिश्रम् / तत्र सचित्तेन मिश्रेण वा वस्तुना मिश्रीकृत्य यद्देयद्रव्यं ददाति तन्न कल्पते / अचित्तवस्तुमिश्रितदेयद्रव्ये तु भजना। सचित्तोन्मिश्रे मिश्रोन्मिश्रे च प्रायश्चित्तमिदं-पृथिव्यादिजोवोन्मिश्रे / पृथिव्यादयः-पृथिवीकायादयः, आदिशब्दादप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिवसा गृह्यन्ते / एवविधा ये जीवाः तैरुन्मिश्रे-एकत्र मीलिते देयद्रव्ये गृहीते चतुर्लघु प्रायश्चित्तं प्राप्नोति साधुः / बोजोन्मिश्रे तु-प्रत्येकानन्तबीजोन्मिश्रे पुनः पञ्चकम्-आद्यप्रायश्चितम् / मिश्रपृथिव्यादिमिश्रे / मित्रैः सचित्ताऽचित्तरूपैः पृथिव्यादिमिमिश्रिते आहारे गृहीते मासलघु प्रायश्चित्तं प्राप्नोति साधुः / चउगुरु सचित्तअगंतमीसिए मिस्सेणं तु उम्मीसे / मासगुरु दुविहं पुण अपरिणयं दव्वभावेहि / / __ व्याख्या-सचित्तानन्तमिश्रिते-सचित्तेनोऽनन्तकायेन मिश्रिते आहारे गृहीते चतुर्गुरु / मिश्रेणानन्तका येनोन्मिश्रे मासगुरु / अथाऽपरिणते दोषस्वरूपं दर्शयति-अपरिणतं पुनर्द्विविधं द्रव्यभावाभ्यां द्रव्यापरिणतं भावापरिणतं चेतिभावः / तत्र द्रव्यापरिणतं यद्दातव्यद्रव्यमेवापरिणतम् अप्रासुकं भवति / भावोऽभ्यवसायः / स च द्वयोः स्वामिनो मध्यादेकस्यापरिणतो दानेऽनभिमुखोऽथवा भिक्षागतसाधुसङ्घाटकमध्यादेकतरस्य साधोर्मनसि एतल्लभ्यमानमशनादि निदोषमित्यध्यवसायः, द्वितीयस्य तु न तथाऽध्यवसायः / ततो भावेन दातृसत्केन गृहीतृसत्केन वा अपरिणतं भावापरिणतं द्विविधेऽप्यपरिणते प्रायश्चित्तमाह ओहेण दव्वभावापरिणयभेएसु दुसुवि चउलहुअं। दव्वापरिणमिए पुण जं नाणत्तं तयं सुणह // ___ व्याख्या-द्रव्यभावापरिणतभेदयोर्द्वयोरपि ओघेन चतुर्लघुकं-द्रव्यापरिणते भावापरिणतेऽप्याहारे गृहीते सामान्येन चतुलघुकं प्रायश्चित्तं भवतीति भावः / द्रव्यापरिणते पुनर्यन्नानात्वं-विशेषः तकत्-तत् शृणुत-निशमयत यूयमिति शिष्यान् सावधानीकृत्य तदेव नानात्वमाहअपरिणमंत छकाए चउलहु पणगं च बीअ अपरिणए / मीस छकायापरिणय दोसे लहुमास माहंसु / / ___ व्याख्या-अपरिणमन्तो-ऽचित्तपरिणाममब्रजन्तोऽप्रासुका इत्यर्थः / एवंविधा ये षटकायाःपृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतित्रसकायरूपाः, तेषु षटकायेष्वपरिणतेषु यथासम्भवं गृहीतेषु चतुर्लघु / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिप्तदोषप्रायश्चित्तम् बीजापरिणते-अपरिणतानि-अप्रासुकानि यानि प्रत्येकानन्तवनस्पतिबीजानि तेषां ग्रणे पञ्चक-प्रथमप्रायश्चित्तमित्यर्थः / मिश्रषट्कायापरिणतदोषे / मिश्राः-सचित्ताऽचित्तरूपा ये षट कायाः-पृथिव्यादयः तानाश्रित्यापरिणतदोषे अप्रासुकीभूतमिश्रषटकायग्रहणे इत्यर्थः। लघुमासं प्रायश्चित्तमुक्तवन्तः तीर्थकरगणधराः / सचित्तणतकाए अपरिणए चउगुरुं मुणेअव्वं / मीसाणंतपरिणए गुरुमासो भासिओ गुरुणा // 160 // व्याख्या-सचित्तः-सजीवो योऽनन्तकायः तस्मिन्नपरिणते-अप्रोसुके गृहीते चतुर्गुरु प्रायश्चित्तं मुणितव्य-ज्ञातव्यम् / मिश्रः-सचित्ताचित्तरूपो योऽनन्तकायः तस्मिन्नपरिणते गृहीते गुरुमासो भाषितःप्रतिपादितो गुरुणा-जगद्गुरुणा जिनेन इति / अपरिणतदोषप्रायश्चित्तमभिधाय लिप्तदोषप्रायश्चित्तमाहचउलहुअं लहइ मुणी लित्ते दहिमाइलित्तकरमत्ते / छड्डिअमिह पुढवाइसु अणंतरपरंपरंति दुहा / / ___ व्याख्या-इह दधिक्षीरघृततैलतीमनप्रभृतिद्रव्यस्य यस्य लेपः करभाजनादौ लगति तल्लेपकृत्लिप्तमुच्यते / तच्च कारणं विना न ग्राह्यम् / यदाह 'चित्तव्वमलेवकडं लेवकडमाहु पच्छकम्माई / न य रसगेहिपसंगो न य भुत्ते बंभपीडा य' / / इह साधुना सदैवाऽलेपकृद वल्लचणककुल्माषशुष्कोदनादि गृहीतव्यं, मा भूवन् लेपकृति गृह्यमाणे पश्चात्कर्मादयो दोषा दध्यादिलिप्तहस्तादिक्षालनादिरूपाः / न च सदैवाऽलेपकृग्रहणे रसगृद्धिप्रसङ्गोरसाऽभ्यवहारलाम्पट-यवृद्धिः / न च तादृशे भुक्ते ब्रह्मपीडा-ब्रह्मव्रतस्य बाधा, तादृशस्य नीरसाहारस्य दोत्पादकत्वाभावात् / अत्राह नोदको-ननु यदि लेपकृद्ग्रहणे पश्चात्कर्मप्रभृतयो दोषी भवन्ति ततः तन्न गृह्यते, तर्हि मा कदाचनापि साधुर्मुक्ताम् / एवं हि सर्वेषां दोषाणां मूलत एवोत्थानं निषिद्धं भवति / गुरुराह-सर्वकालं क्षपणमेव कुर्वतः साधोश्चिरकालभावितपोनियमसंयमानां हानिर्भवति, तस्मा• द्यावज्जोवं क्षपणं न कार्यम् / पुनः प्राह-यदि सर्वकालं क्षपणं कर्तुमशक्तः तर्हि षण्मासक्षपणं कृत्वा पारणकमलेपकृता विधत्ताम् / गुरुराह-यद्येवं तपः कुर्वन् संयमयोगान् कतुं शक्नोति तर्हि करोतु, न कोऽपि तस्य निषेद्धा। पुनरप्याह-यदि षण्मासक्षपणं कर्तुं न शक्नोति तर्हि एकदिनोनं षण्मासक्षपणं कृत्वा आचाम्लेन पारयतु / एवमेकैकदिनहान्या तावदात्मानं तोलयेत् यावच्चतुर्थं कृत्वा आचाम्लेन पारणकं करोतु / एवमप्यसामर्थ्य दिवसे दिवसे गृह्णात्वाचाम्लं निर्लेपम् / गुरुराह-करोत्वेवं तपः यदि प्रत्युपेक्षणादिसंयमयोगभ्रंशो न भवति / केवलं सम्प्रति सेवार्तसंहननानां नास्ति ताहशी शक्तिरिति न तथोपदेशो विधीयते / पुनः परः प्राह-ननु महाराष्ट्राः कोशलदेशोद्भवाः सदैव सौवीरकूरमात्रभोजिनः तेऽपि च सेवार्त्तसंहननाः। ततो यदि तेऽपीत्थं यापयन्ति यावज्जीवं तर्हि तथा सौवीरकूरमात्रभोजनेन किं न यतयो मोक्षगमनैकबद्धकक्षा यापयन्ति ? तैः सुतरामेवं यापनीयं प्रभूतगुणसम्भवात् / गुरुराह 'तिअ सीअं समणाणं तिअमुण्ह गिहीण तेणणुन्नायं / तक्काइणं गहणं कट्टरमाइसु भइअव्व ' / त्रिकं-वस्तुत्रयं श्रमणानां शीतं भवति, तेन प्रतिदिवसमाचाम्लकरणे तक्राद्यभावत आहारपाकासम्भवेनाsजीर्णादयो दोषाः प्रादुःष्यन्ति / तदेव त्रिकमुष्णं गृहिणां, तेन सौवीरकूरमात्रभोजनेऽपि तेषामाहारपाक Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे भावतो नाजीर्णादिदोषा जायन्ते / ततः तेषां तथा योपयतामपि न कश्चिद् दोषः / सोधूनां तूक्तनीत्या दोषः, तेन कारणेन तक्रादिग्रहणं साधूनामनुज्ञातम् / इह प्रायो यतिना विकृतिपरिभोगपरित्यागेन सदैवाऽऽत्मशरीरं यापनीयं, कदाचिदेव च शरीरस्यापाटवे संयमयोगवृद्धिनिमित्तं बलाधानाय विकृतिपरिभोगः / तथा चोक्तं सूत्रे-' अभिक्खणं निव्विगई गया य' इति / निर्विकृतिपरिभोगे च तक्राद्यवोपयोगीति तक्रादिग्रहणं कट्टरादिषु-घृतवटिकोन्मिश्रतीमनादिषु ग्रहणं भाज्य-विकल्पनीयं ग्लानत्वादिप्रयोजनोत्पत्तौ कार्य, न शेषकोलमिति भावः / तेषां बहुलेपत्वात् गृद्धयादिजनकत्वाच्च / अथ किं तत् त्रिकम् ? इति उच्यते-आहार उपधिः शय्या / एतानि त्रीण्यपि गृहिणां शीतकालेऽप्युष्णानि भवन्ति / तेन तेषां तक्रादिग्रहणमन्तरेणापि बाह्याभ्यन्तरोष्णतापेनाहारो जीर्यते / तत्राऽभ्यन्तरो भोजनवशात् , बाह्यः शय्योपधिवशात् / एतान्येवोऽऽहारोपधिशय्यारूपाणि त्रीणि वस्तूनि यतीनां ग्रीष्मकालेऽपि शीतानि भवन्ति / तत्राऽऽहारस्य शीतता-भिक्षाचर्यायां प्रविष्टस्य बहुषु गृहेषु स्तोकस्तोकलाभेन बृहद्वेलालगनात् / उपधेरे कमेव वारं वर्षाकालादर्वाक् प्रक्षालनेन मलिनत्वात् / शय्यायास्तु प्रत्यासन्नाग्निकरणाभावेन / तेन कारणेन ग्रीष्मकालेऽप्याहारादीनां शीतत्वसम्भवरूपेणोपहन्यते जाठरोऽग्निः / तस्माचाऽग्न्युपघातादजोर्ण-' वुभुक्षामान्द्यादयो दोषा जायन्ते / ततस्तकादिग्रहणं साधूनामनुज्ञातं, तकादिनापि हि जाठरोऽग्निरुद्दीप्यते, तेषामपि तथास्वभावत्वात् / एतत्सर्वं प्रासङ्गिकम् / प्रस्तुतं तु लिप्तम् / तत्र च दातुः सम्बन्धी हस्तः संसृष्टोऽसंसृष्टो वा भवति, येन च कृत्वा भिक्षां ददाति तदपि मात्रं संसृष्टमसंसृष्ट वा, द्रव्यमपि सावशेष निरवशेषं वा। एतेषां च त्रयाणां पदानां परस्परं संयोगतोऽष्टौ भङ्गा भवन्ति / ते चामी-संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं सावशेषं द्रव्यं 1, संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं निरवशेषं द्रव्यं 2, संसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्रं सावशेष द्रव्यं 3, संसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्रं निरवशेषं द्रव्यम् 4, असंसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं सावशेषं द्रव्यम् 5, असंसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं निरवशेषं द्रव्यम् 6, असंसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्रं सावशेष द्रव्यम् 7, असंसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्रं निरवशेषं द्रव्यम् 8 / एतेषु चाष्टसु भङ्गेषु मध्ये विषमेषु-प्रथमतृतीयपञ्चमसप्तमेषु भङ्गषु कल्पते, सावशेषद्रव्ये सति पश्चात्कर्मासम्भवात् / समेषु पुनर्न कल्पते, निरवशेषद्रव्ये सति अवश्यं पश्चात्कर्मसम्भवात् / इह च लिप्ते-लिप्तदोषे दध्यादिलिप्तकरमात्ररूपे चतु. लघुकं लभते मुनिः / अथ छर्दितम्-उज्झितं त्यक्तमित्यर्थः / तच्चेह द्विधा-पृथिव्यादिषु अनन्तरपरम्परमिति / यदशनादौ दाच्या दीयमाने पृथिव्यादिषु षड्जीवनिकायेषु परिशाटिनिरन्तरं पतति तदनन्तरछर्दितं, यत् पुनः सान्तरं निपतति तत् परम्परछर्दितम् / छर्दितग्रहणे च षड्जीवनिकायविराधनादयोऽने के दोषाः सम्भवन्ति / तत्र च मधुपिन्दूदाहरणं तच्च प्रसिद्धमेव / अथाऽनन्तरपरम्परछर्दितप्रायश्चित्तमाहछड्डिअ सचित्तभूदगसिहिपवणपरित्तवणस्सइतसेसु / चउलहु अ मासलहुआ अणंतरपरंपरेसु कमा // 162 // व्याख्या-सचित्तेषु पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतित्रसेषु मध्येऽनन्तरछाद ते परम्परछर्दिते क्रमाच्चतुर्लधुमासलघुको स्याताम् / अइरतिरोछड्डिअए मीसेसु अ तेसु मासलहुपणगा / अइरतिरोछड्डिअए पणगं पत्तेअणंतबीएसु // 163 / / Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयोजनादोषप्रायश्चित्तम् ___ व्याख्या-मिश्रेषु-सचित्ताऽचित्तरूपेषु पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतित्रसेषु मध्ये अतिरस्तिरछर्दिते-निरन्तरसान्तरछर्दिते मासलघुपञ्चके भवतः / प्रत्येकानन्तबीजविषये अतिरस्तिरछर्दितेनिरन्तरपरम्परोज्झिते पञ्चकं प्रायश्चित्तं भवति / सचित्तगंतकाये अणंतरपरंपरेण छड्डिअए / चउगुरुमासगुरु कमा मीसे गुरुमासपणगा य // 164 // ____व्याख्या-सचित्त-सजीवेऽनन्तकाये कन्दादिरूपे विषये अनन्तरपरम्परेण छर्दिते चतुर्गुरुमासगुरुकप्रायश्चित्ते क्रमाद् भवतः। मिने पुनरनन्तकाये निरन्तरपरम्परछर्दिते गुरुमासपञ्चकाख्ये प्रायश्चित्ते स्याताम् / अथ ग्रहणैषणादोषोपसंहारं कृत्वा ग्रासैषणादोषपञ्चकप्रायश्चित्तमाहइअ एसणदोसाणं पायच्छित्तं निरूविअं इत्तो / संजोअणाइ चउगुरु अइपमाणम्मि चउलहुरं // 165 / / व्याख्या-इति-उक्तप्रकारेण एषणादोषाणां-ग्रहणैषणादोषाणां दशानां प्रायश्चित्तं-विशुद्धिनिबन्धनं वस्तु निरूपितं-प्रदर्शितम् / इत ऊर्ध्वं ग्रासैषणादोषपश्चकप्रायश्चितं प्रदश्यते-तत्र पूर्व संयोजना / सा च द्विधा-बाह्या अभ्यन्तरा च / लत्र वसतेर्बहिरेव मिक्षामटन् साधू रसगृद्धया दुग्धदध्योदनादीनां द्रव्याणामनुकूलद्रव्यैः सह संयोजनं रसविशेषोत्पादनाय यत् करोति सा बाह्या संयोजना। अभ्यन्तरा पुनर्यद्वसतावागत्य भोजनवेलायां संयोजयति / सा च त्रिधा-पात्रे कवले वदने च / तत्र यद् द्रव्यं यस्य व्यस्य रसविशेषाधायि तत तेन सह पात्रे रसगद्धथा संयोजयति / यथा सुकुमारिकादिकं खण्डादिना सह / एषा पात्रेऽभ्यन्तरा संयोजना / यदा तु हस्तगतमेव कवलतयोत्पाटितं सुकुमारिकादि चूर्ण खण्डादिना सह संयोजयति तदा कवले / यदा पुनर्वदने कवलं प्रक्षिप्य ततः शालनकं प्रक्षिपति, यद्वा-मण्डकादिक पूर्व प्रक्षिप्य पश्चात् गुडादिकं प्रक्षिपति तदा मुखे / रसगृद्धथा च बाह्यद्रव्याणां संयोजनां कुर्वन् आत्मनो ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलसमूहैः सह संयोजनां करोतीति निषिद्धा संयोजना। वर्द्धिष्णुघृतादिनिगमनार्थं तु संयोगोऽनुज्ञातः तीर्थकृदादिभिः / वर्द्धिष्णु हि घृतादि न खण्डादिकमन्तरेण मण्डकादिभिरपि सह भोक्तुं शक्यते, प्रायस्तृप्तत्वात् / न च परिष्ठापनं युक्तं, घृतादिपरिष्ठापने स्निग्धत्वात् पश्चादपि कीटिकादिसत्त्वव्याघातसम्भवेन बृहत्तरप्रायश्चित्तसम्भवात् / ततो वर्धिष्णुघृतादिनिगमनार्थ खण्डादिभिरपि तस्य संयोजनं न दोषाय / एवं ग्लानाद्यर्थमपि संयोजना न दुष्टा / यदाह 'रसहेउं संयोगो पडिसिद्धो कप्पए गिलाणदा / जस्स व अभत्तच्छंदो सुहोचिओऽभाविओ जो अ'। पिण्डाधिकाराच पिण्डविषयवैषा संयोजनाऽभिहिता / एवमुपकरणविषयापि साऽवगन्तव्या / तस्यां च संयोजनायां क्रियमाणायां चतुर्गुरु प्रायश्चित्तं साधोः स्यात् / अथातिप्रमाणदोषः-तत्र साधोर्यावन्मात्रेण द्वात्रिंशत्कवलादिप्रमाणेनाहारेण - भुक्तेन धृतिबलसंयमयोगा न हीयन्ते, तावन्मात्रमाहारप्रमाण भोजने विज्ञेयम् / कुर्कुटचण्डप्रमाणकवलापेक्षं पुनरेवमाहारमानमभिधीयते 'बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छीपूरओ भणिओ / पुरिसस्स महिलिआए अट्ठावीसं भवे कवला' // Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे उदरभागापेक्षं त्वेवम्-'अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुजा दवस्स दो भागे / वाउपविआरणटा छभागं ऊणगं कुज्जा' / / प्रकामनिकामप्रणीतभक्तपानातिबबाहारातिबहुवारभोजने च प्रमाणातिक्रमदोषः स्यात् / यदुक्तं 'पगामं च निगामं च पणीअं भत्तपाणमाहारे / अइबहुअं अइबहुसो पमाणदोसो मुणेअब्बो' / तत्र द्वात्रिंशदादिकवलेभ्यः परतो भुञ्जानस्य प्रक्रामभोजनं, तदेव च प्रत्यहं क्रियमाणं निकामभोजनम् / गलत्स्नेहं भोजनं प्रणीतम्, अतिशयेन निजप्रमाणातिरेकेण बहू अतिबहु / त्रीन् वारान् त्रिभ्यो वा वारेभ्यः परतो भोजनमतिबहुशः / अंतिप्रमाणे च भोजने वमनातिसारमरणादयो दोषा भवन्ति, अतः प्रमाणातिक्रमो न कर्त्तव्यः / प्रमाणयुक्तमेव च भोक्तव्यं तस्यैव गुणावहत्वाद् / यदाह 'अप्पाहारस्स न इंदिआई विसएसु संपयर्टेति / नेव किलंमइ तवसा रसिएसु न मुज्झए आवि' / / तथा'हिआहारा मिआहारा अप्पाहारा य जे न। / न ते विजा चिगिच्छंति अप्पाणं ते चिगिच्छगा' / अतिप्रमाणे दोषे च चतुर्लघुकं प्रायश्चित्तं भवति / इंगाले चउगुरुगा चउलहु धूमे अकारणाहारे / तह कारणाऽणहारे इअ पायच्छित्तमक्खायं // 166 // व्याख्या-यन्निर्दोषमप्याहारं भुञ्जानः तद्गतविशिष्टगन्धरसास्वादवशतो जाततद्विषयमूर्छः सन्नहो ! मृष्टमहो ! सुसम्भृतमहो ! सुस्निग्धं सुपक्वं सुरसमित्येवं प्रशंसति तद्भोजनमगारं, चरणेन्धनस्य प्रदीप्तरागाग्निना अङ्गारसन्निभत्वापादनात् / यत् पुनस्तद्गतविरूपरसगन्धास्वादतो जाततद्विषयद्वषः सन्नहो ! विरूपं कुथितमपक्कमसंस्कृतमलवणं चेति निन्दति, तद्भोजनं धूमं द्वेषामिना चरणेन्धनस्य सधूमोपमत्वकरणात् / आह च त होइ सइंगालं जं आहारेइ मुच्छिओ संतो / तं पुण होइ सधूमं जं आहारेइ निदंतो' / / तत्राङ्गारदोषे चतुर्गुरुकाः, धूमदोषे चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तं भवति / इह साधूनामाहारग्रहणकारणानि बड् भवन्ति / तानि चामूनि 'वेअणवेआवच्चे इरिअढाए अ संजमट्ठाए / तह पाणवत्तिआए छटुं पुण धम्मचिंताए' // अस्या अर्थः-वेदना-बुभुक्षारूपा पीडा तदुपशमनाय / यदुक्तं- 'नथि छुहाइसरिसिआ वेअणा भुजिज्ज तप्पसमणट्ठा' / तथा आचार्यादीनां वैयावृत्त्यकरणाय / यदाह-'छाओ वेआवञ्चं न तरइ काउं अओ भुजे' / तथा ईर्यापथसंशोधनार्थं, बुभुक्षितो हि ध्यामललोचनत्वादित ईर्यापथं शोधयितुन शक्नोति / तथा संयमः-प्रत्युपेक्षणाप्रमार्जनादिलक्षणः तदर्थ-तत्परिपालननिमित्तम् / तथा प्राणप्रत्ययार्थप्राणसन्धारणार्थ, षष्ठं पुनः कारणं धर्मचिन्तार्थ-सूत्रानुचिन्तनादिरूपधर्मध्यानाभिवृद्धयर्थं भुञ्जीतेति क्रियासम्बन्धः / षड्मिस्तु कारणैः साधुन भुञ्जोत / तानि चेमानि 'आयंके उवस्सग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु / पाणिदया-तवहेउं सरीरवुच्छेअणट्टाए' / / अस्या अर्थः-आतङ्के-ज्वराजीर्णादावुत्पन्ने सति नानीयात् / तथा उपसर्गे राजस्वजनादिकृते / देवमनुष्यतिर्यकृते वा सञ्जाते सति तितिक्षार्थम् -उपसर्गसहनाथं न भुञ्जीत / तथा 'ब्रह्मचर्यगुप्ती'. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारानुगतदोषान्तरप्रायश्चित्तम् वित्यत्र षष्ठयर्थे सप्तमी / ततोऽयमर्थः-ब्रह्मचर्यगुप्तीनां परिपालनाय न जेमेत् / तथा प्रणिदयाहेतोःवर्षे वर्षति महिकायां वा पतन्त्यां प्राणिदयार्थं नाश्रीयात् / सूक्ष्ममण्डूकादिसंसक्तायां वा भूमौ प्राणिदयार्थमटनं परिहरन्न भुजीतेति भावः / तथा तपश्चतुर्थादिलक्षणं तद्धेतोः-तत्करणनिमित्तं नाद्यात् / तथा शिष्यनिष्पादनादिसकलकर्त्तव्यतानन्तरं पश्चिमे काले-पाश्चात्यवयसि संलेखनाकरणेन यावज्जोवानशनप्रत्याख्यानकरणस्यात्मानं योग्यं कृत्वा शरीरव्यवच्छेदार्थ भोजनं परिहरेत् नान्यथा / यतः-शिष्यनिष्पादनाद्यभावे प्रथमे द्वितीये वा वयसि संलेखनामन्तरेण वा शरीरपरित्यागार्थमशनप्रत्याख्यानकरणे जिनाज्ञाभङ्गः / ततश्च यानि षड् आहारग्रहणकारणान्यमिहितानि तानि विनापि बलरूपादिनिमित्तं रसगृद्धया वा य आहारो गृह्यते सोऽकारणाहारः / तस्मिन्नकारणाहारे गृह्यमाणे पूर्वोक्तमेव चतुर्लघुप्रायश्चित्तं भवति / तथा कारणाऽनाहारे-कारणानि यान्याहारविषये प्रदर्शितानि तेषु समुत्पन्नेष्वपि आहाराऽग्रहणे चतुर्लघुप्रायश्चित्तमापद्यते यतिः / ननु आहाराग्रहणं तपोरूपं तपश्च परमपदप्रापणप्रवणकारणगणाग्रेसरम् / अतः कथं तस्मिन् विधीयमाने प्रायश्चित्तमापद्यते ? भवानुबन्धिसावधव्यापारनिबन्धनत्वात् प्रायश्चित्तापत्तेः सत्यं, परं तपोऽपि जिनाज्ञयैव विधीयमानं सिद्धिनिबन्धनं सम्पद्यतेऽन्यथा तु क्रियमाणं तदपि भवानुबन्ध्येव भवेत् / अतस्तस्मिन् तथाविधे प्रायश्चित्तमपि सङ्गच्छते / इति-अमुना प्रदर्शितप्रकारेण प्रायश्चित्तं ग्रासैषणादोषपञ्चकविषयमाख्यातं-प्ररूपितम् / एवमाहारविषयसप्तचत्वारिंशद्दोषप्रायश्चित्तं प्ररूप्य पुनराहारानुगतकियघोषान्तरप्रायश्चित्तं प्रदर्शयन्नाहगच्छगयनिग्गयाणं लहुगा गुरुगा गिहेलुगस्संतो। भिक्खट्ठपविट्ठाणं निच्छुभणाणाइदोसा य // 167 / / व्याख्या - गच्छगता गच्छवासिनः स्थविरकल्पिकाः साधबो, गच्छनिर्गताः प्रतिमाप्रतिपन्नादयस्तेषां गच्छगत-निर्गतानां साधूनां गृहस्य-लोकसदनस्य य एलुक-उम्बरो द्वारे काष्ठादिमयस्तस्यान्तःमध्ये भिक्षार्थ भिक्षानिमित्तं प्रविष्टानाम् , उपलक्षणमेतत् तेनैलुकं विष्कम्भयताम्-एलुकस्यासन्नप्रदेशे वा तिष्ठतां क्रमेण चतुर्लघुकाः चतुर्गुरुका भवन्ति / गच्छवासिनां चतुर्लवु, गच्छनिर्गतानां चतुर्गुरु प्रायश्चित्तं भवतीत्यर्थः / निष्कासनाऽऽज्ञाभङ्गादयो दोषाश्च भवन्ति / तथाहि-एलुकात् परतो यदि साधुर्गच्छति तदा स्तैन्ये मैथुने वा शङ्का स्यात् / तत्र गृहमध्ये गृहस्वामी हिरण्यादेर्निधानं करोति उत्खननं वा. तत्र स्तेनोऽयमिति शङ्का भवेत् / यस्या गृहमभ्यन्तरमतिगतस्तस्या विषयेऽस्य साधोरिच्छा येनेत्थमभ्यन्तरं सहसा प्रविष्ट इति लोकस्य चतुर्थव्रतविषये शङ्का स्यात् / ततः स्तेनपारवारिकबुद्धथा ग्रहणं, ततो रोजकुलं प्रति कर्षणं. तदनन्तरं राजकुले व्यवहरणं, ततः पश्चात्कृतकरणम् / एवं च सति महान् प्रवचनस्योडाहः। तथा निर्विषयत्वकरणम् / तथा अतिभूमिप्रवेशनं तीर्थकृद्भिगृहस्थैश्चाननुज्ञातं ततोऽदत्तादान दोषः / तथा कस्मादतिभूमिमेष प्रविष्ट ? इति प्रद्विष्टः सन् गृहस्थोऽधिकरणं कुर्यात् / तथा हीलना यथा'एते वराका अलभमाना मध्ये प्रविशन्ति / तथा गलके गृहीत्वा बहिःकर्षणं कुर्वन्त्यगारिणः / अगारिणी वा मध्ये अप्रावृता दुर्निविष्टा वा भवेत् , ततः सहसा साधोरभ्यन्तरप्रवेशे तस्या लज्जा स्याद् , एवमादयोऽनेकदोषाः प्रादु.ष्यन्ति / ततः साधुना सहसा गृहाऽभ्यन्तरे न प्रवेष्टव्यम् / Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे निअअग्गपिंडि लहुगो सनिकायनिमंति सागरिअपिंडे / अमणुन्नं च इअ मणुन्नं भुंजणे भत्तपाणस्स / / . व्याख्या-नियतो-ध्रुवः शाश्वत इत्यर्थः / योऽग्रो-वरः प्रधानः, अथवा यः प्रथमं दीयते स नियताऽग्रपिण्डः / अथवा 'नोअम्गे 'तिपाठः / ततो नित्यम्-अनवरत योऽअपिण्डः-तत्क्षणोत्तीर्णोदनस्थाल्या अव्यापारितायाः शिखाकूरलक्षणः तस्मिन्नियताग्रपिण्डे नित्याऽग्रपिण्डे वा गृहीते लघुमासः / निकाचनं निकाचो-निबन्धः / निमन्त्रणं निमन्त्रो-निमन्त्रणा ततः सह निकाचेन वर्तते यो निमन्त्रः स सनिकाचनिमन्त्रः / अयमर्थः-गृही साधुं निमन्त्रयति-यथा भगवन् ! अनुग्रहं कुरु मम गृहे भक्तं गृहाण / ततः साधुभणति-करोम्यनुग्रहं परं किं दास्यसि ?, गृही भणति-येन तेऽर्थः, ततः साधुरुत्पीलन कुर्वन् भणति- गृहं गतस्य दास्यसि न वा ? , गृहीणा दास्यामीति भणिते साधुः परिमाणं कारयन् भणति-कियत् परिमाणं कियच्चिरं वा कालं दास्यसि ? , ततो गृही भणति यावन्मात्रण भक्तेन तेऽर्थो यावन्तं वा कालं तेऽर्थः, किंबहुना भणितेन ? यत्तुभ्यं रोचते द्रव्यं यावत्परिमाणं यावन्तं वा कालं तदपरिहीणमहमवश्य दास्यामीत्येवंविधा या निमन्त्रणा सा सनिकाचाऽवगन्तव्या। निकाचशब्देन चात्रोत्पीलनपरिमाणे .. गृह्यते / ततो निमन्त्रणोत्पीलनपरिमाणेषु विष्वपि मासलघु प्रायश्चित्तं भवति / अथवा प्रतिदिनं तवैतावन्मानं दास्यामि मद्गृहे नियमागन्तव्यमिति निमन्त्रितस्य नित्यं गृह्णतः सनिकाचनिमन्त्रणापिण्डो नित्यपिण्ड इत्यर्थः / ततः सनिकाचनिमन्त्रे-सनिकाचनिमन्त्रणापिण्डे लघुमासः / नन्वत्र स्वभावनिष्पन्नेऽप्योहारे गृह्यमाणे किं दूषणं ? येन प्रायश्चित्तापत्तिः / उच्यते, आत्मार्थनिष्पन्नोऽप्याहारो नियतदाननिमन्त्रणादिभिः सदोषः स्यात् / स्थापनादीनां दोषाणां सम्भवात् / ततो निमन्त्रणादिपिण्डस्त्याज्यः / सागारिकः-शय्यातरः / शय्यया-साधुसमर्पितगृहलक्षणया भवार्णवं तरतोतिव्युत्पत्तेः / तस्य पिण्डो वक्ष्यमाणलक्षणो न भोक्तव्यः / तस्मिन् सागारिकपिण्डे गृहीते लघुमासः प्रायश्चित्त भवति / अथ कोऽयं शय्यातरः ? कदो च शय्यातरो भवति ? कतिविधस्तपिण्डः ? कदा वा अ शय्यातरो भवति ? कस्य च सम्बन्ध्य सौ वर्जनीयः ? के च तत्पिण्डग्रहणे दोषाः ? कदा च तत्पिण्डो गृह्यते ? क्व च शय्यातरो भवतीत्यष्टौ द्वाराणि / तत्राद्यद्वारे-यतिप्रदत्तोपाश्रयप्रभुः, तेन यत्कृतप्रमाणतया निर्दिष्टो वा शय्यातरः / अत्र चैको वा बहवो वा शय्यातरा वाः / अपवादपदे पुनर्बहुपु शय्यातरेषु एकं शय्यातरं स्थापयित्वा वर्जयेत् / शेषेषु तु प्रविशेत् / द्वितीयद्वारे-यदा शय्यातरगृहे रात्रौ सुप्त्वा जागरित्वा वा प्राभातिकप्रतिक्रमणं कुर्वन्ति तदाऽसौ शय्यातरः / अथैतच्छायां सकलां रात्रिं जागरित्वा प्राभा तिकप्रतिक्रमणमन्यत्र कुर्वन्ति, तदा मौलः शय्यातरो न भवति, किन्तु यद्गृहे प्रतिक्रमणं कृत स एव / अथ मौलशय्यायां रात्रौ सुप्त्वाऽन्यत्र प्रातः प्रतिक्रामन्ति, तदा मौलोऽन्यश्च द्वावपि शय्यातरौ / यदा तु वसतिसङ्कीर्णतादिकारणादनेकोपाश्रयेषु साधवस्तिष्ठन्ति, तदा यत्राऽऽचार्यः स्थितः स एव शय्यातरो नाऽन्यः / तृतीयद्वारे-द्वादशधा तत्पिण्डः / तदुक्तम् * असणाईआ चउरो पाउंछण वत्थ पत्तकंबलयं / सूइछुरकन्नसोहण नहरणिआ सागरिअपिंडो॥ अयं तु तदपिण्डः ' तणडगलछारमलगसिज्जासंथारपीठलेवाई / सिज्जायर पिंडो सो न होइ सेहो अ सोवहिओ' / Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्यातरपिण्डदोषप्रायश्चित्तम् चतुर्थद्वारे-अहोरात्रात् परतोऽशय्यातरो भवति / तदुक्तं-'वुत्थे वज्जिज्जहोरत्तं' / इदमत्र हृदयं-यत्रोषितास्ततः स्थानाद् यस्यां वेलायां निर्गता द्वितीयदिने तावत्या वेलायाः परतः शययातगे न भवति / पञ्चमद्वारे-साधुगुणविरहितस्य लिङ्गमात्रावशेषस्यापि सम्बन्धी शय्यातरो वर्जनीयः / षष्ठद्वारे तित्थंकरपडिकुट्ठो आणाण्णाउग्गमो वि अ न सुज्झे / अविमुत्ति अलाघवया दुल्लहसिज्जाइबुच्छेओ'।। अस्या व्याख्या-आद्यन्तवजैर्मध्यमैर्महाविदेहजैश्च तीर्थकरैः वरमाधाकर्म कथञ्चिदुक्तं, न पुनः शय्यातरपिण्डोऽतस्तत् प्रतिकुष्टत्वाद्वर्जनीयोऽयम् / 'आण'त्ति / तं च गृह्णता तीर्थकराऽऽज्ञा न कृता स्यात् / * अण्णाउ 'त्ति / यत्र स्थितस्तत्रैव भिक्षां गृह्णता अज्ञातोयं च न कृतं स्यात् / -- उम्गमो वि अ न सुज्झे 'त्ति / आसन्नादिभावतः पुनः पुनस्तत्रैव भैक्षपानकादिनिमित्तं प्रविशत उद्गमदोषाश्च स्युः / स्वाध्यायश्रवणादिभ्यश्च प्रीतः शय्यातरः क्षीरादि स्निग्धद्रव्यं ददाति. तच्च गृह्णता 'अविमुक्तिः'गाद्धर्थाभावो न कृतः स्यात् / ' अलाघवय 'त्ति / शय्यातरतत्पुत्रपितृव्यादिभ्यो बहूपकरणं स्निग्धाहारं च गृहत उपकरणशरीरयोर्लाघवं न स्यात् / तत्रैवाहारादि गृहृतः शय्यातरवैमनस्यादिकारणात् शय्या दुर्लभा स्यात् सर्वथा वा तद्वयवच्छेदः स्यात् / अतस्तपिण्डो वर्जनीयः / सप्तमद्वारे ___ 'दुविहे गेलन्नम्मी निमंतणा दवदुल्लहा असिवे / ओमोदरिअ पओसे भए अ गहणं अणुण्णाय' / / व्याख्या-आगोढाऽनोगाढे द्विविधग्लानत्वे सूत्रोक्तविधिना शय्यातरपिण्डोऽपि प्रायः / निमन्त्रणे च-शय्यातरनिर्बन्धे सकृत् तं गृहीत्वा पुनः प्रसङ्गो निवारणीयः / दुर्लभे च क्षीरादिद्रव्येऽन्यत्रालभ्यमाने तत्रैव गृह्णन्ति / ' पओसि 'त्ति / राज्ञा प्रद्विष्टेन सर्वत्र भक्षे निवारिते प्रच्छन्नं तद्गृहेऽपि गृह्णन्ति / तस्करादिभये चान्यत्र तत्रापि स्वीकुर्वन्ति / शेषं सुगमम् / अष्टमद्वारे-खस्थाने वसन् शय्यातरो भवति देशान्तरे गतो न भवत्यपि / केवलं भद्रकान्तदोषात् पिण्डस्तत्रापि बर्जनीयः / भद्रको हि मम तावत् स्वगृहाव स्थितस्यामी न किञ्चिद् गृहन्ति, ततोऽत्र यदि गृह्णन्ति तथापि शोभनमिति विचिन्त्य अनेषणीयमपि कृत्वा दद्यात् / प्रान्तस्तु मम स्वगृहस्थितस्यामी न किश्चिद् गृहन्ति / अत्र तु सर्व गृह्णन्ति / तत् किमिदानीमहमन्यः सञ्जातः ? तस्मान् मायाविन एते इति विचिन्त्य वसत्युच्छेदादि कुर्यादेवं शय्यातरसम्बन्धिनां भ्रातृमातुलकादीनामुपाश्रयस्य प्रभूणामपि सम्बन्धी पिण्डो वर्जनीयो भद्रकप्रान्तादिदोषादित्यलं विस्तरेण / तदर्थिना तु कल्पतृतीयोदेशको निशीथद्वितीयोद्देशकोवाऽन्वेष्यः / अथ मनोज्ञं-मनसो रुचितं यद्विशिष्टवर्णगन्धरसस्पर्शीरुपेतं भक्तं भोजनमशनादि / पानं-पानीयं गन्धरसोपेतमच्छं च मनोझं तद्विपरीतममनोज्ञम् / सरसमपि दुर्गन्धममने ज्ञम् / अरसमपि सुगन्धं मनोज्ञं ततो मनोज्ञामनोज्ञे भक्तपानोये गृहीत्वा यदमनोज्ञं भक्तं पानीयं वा तत् त्यक्त्वा परिष्ठाप्य मनोज्ञस्य भक्तपानस्य भोजने विधीयमाने साधोलघुमासो भवति / आज्ञाभङ्गादयश्च दोषाः / इमे चापरे दोषाः-मनोज्ञभोजिनो रसगृद्धिः स्यात् / अपरसाधुभ्यः प्रमाणतो वाऽधिकभक्षणं स्यात्, विभज्य केवलमनोज्ञस्य भोजने काकशृगालखादितदोषः अङ्गारदोषश्च भवति / रसगृद्धो गच्छे रसाभावेन धृतिमलभमानो गच्छादपक्रामति / मायावी मण्डल्यां रसालमलभमानो भिक्षागत एव रसाल भुक्त्वा आगच्छति / उक्तं च-' भद्दगं भद्दगं भुच्चा विवन्नं विरसमाहरे' इत्यादि / रसभोजने च लुब्ध एषणामपि लुम्पति आर्यमगुवत् / मङ्गवाचार्यों हि रसलाम्पट यादवसन्नो जातो मृत्वा भवन Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति जीतकल्पे पतित्पन्नो जिह्वानिालनेन साधूननुशशास / विपक्षे आर्यसमुद्रनिदर्शनं-ते हि रसगृद्धिभीता एकतः सर्वं मिलित्वा भुञ्जते स्म / तथाच-'अरसं विरसं वावि सव्वं भुंजे न छड्डए' इति सूत्राभिहितं कृतं स्यात् / अमनोज्ञलाभेऽपि मनोज्ञभक्तादिनिमित्तं गोचरचर्या दीर्घा स्यात् / तथाच सूत्रार्थपरिमन्थो भवेत् / अमनोज्ञभक्तपरिष्ठापने च जन्तुविराधना स्यात् / यस्मादेते दोषोः ततो विधिना भोक्तव्यम् / स चाऽयम्-आचार्य-ग्लान-बाल-वृद्ध-प्राघुर्णकादीनां प्रायोग्यं पूर्व दत्त्वा शेषं मनोज्ञममनोज्ञं च द्रव्याविरोधेन करम्बयित्वा मण्डलीरात्निको मण्डल्या सह भुङ्क्ते / एवं सर्वेषां समता स्यात् / पूर्वोक्तदोषाश्च परिहृता भवन्ति / एवममनोझं कलुषं पानीयं परिष्ठाप्य मनोज्ञमच्छं पिबतो दोषा ज्ञेयाः / कलुषपानीयपरिष्ठापने च मक्षिका पिपीलिकादिबहुत्रसजन्तुघातो भवति / अत्रापीयं सामाचारीकलुषमच्छं च जलं पृथक्कृत्वा प्रथमं कलुषं पिबन्ति पश्चादच्छम् / एवं गृद्धिदोषो न स्यात् / आचार्याऽभावितशैक्षग्लानादीनामच्छं दीयते / भाजनकल्पकरणबहिर्भूमिव्यापारणादावच्छं जलं गृह्यते / अन्यथा सागारिकः कलुषजलं दृष्ट्वा सपाखण्डिष्वेते अधमतरा अशुचित्वादित्यपभ्राजनां लोके. करोति, अनादरं वा तद्व्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदं वा / कारणैः पुनरमनोज्ञं परिष्ठाप्य मनोज्ञं गृह्णानोऽपि प्रायश्चित्त-' भाग् न स्यात् / तथा अशनादिचतुर्विधाहारगतकियद्वस्तुविशेषग्रहणविषयं प्रायश्चित्तं क्रमेणोपदर्शयन्नाहअसणे अकारणं दुद्धदहिअभोगम्मि गुरुग लुद्धस्स / पाणम्मि गुरुग विअडे सचित्तजलि छलहु लहुमीसे / व्याख्या-इहाशनाहारमध्ये साधूनां दुग्धध्यादिविकृतयः कारणं विना न कल्पन्ते गृहीतुम् / अकारणग्रहणे चायं दोषः 'विगई विगईभीओ विगइगयं जो उ भुंजए साहू / विगई विगइसहावा विगई विगई बला नेई' / / बीभत्सा विकृता वा गतिर्विगतिः-नरकतियककुमनुष्यत्वकुदेवत्वलक्षणा / अथवा विविधा गतिविगतिः-संसारः / अथवा संयमो गतिः, असंयमो विगतिः तस्या भीतो विगतिभीतो यः साधः विकृति-क्षीरादिकां विकृतिगतं-विकृतिप्रकारं विकृतिर्वा यस्मिन् द्रव्ये गता तत् विकृतिगतं क्षोरान्नादिकं भुक्ते स दुर्गतिं यातीति वाक्यशेषः / यतो विकृतिबलाज्जीवमनिच्छन्तमपि विगति-नरकादिकां नरतिप्रापयति / एतदपि कुतः ? / विकृतियतो विकृतिस्वभावा-विकारजननस्वभावा संयमयोगभ्रंशजननस्व. भावेत्यर्थः / यत एवमतो विकृतयो न ग्राह्याः कारणमन्तरेण / सम्प्रति चेयं सामाचारी साधूनां-दुग्धदधिगुडरूपा एतास्तिस्रो विकृतयो विकृष्टतपऔषधादिकारणं विना न कल्पन्ते / घृततैलविकृती तु प्रत्यहं न कल्पेते, संयमयोगनिर्वाहार्थं पुनः कदाचित्कल्पेते / उद्गाहिमविकृतिरपि जिह्वालौल्येन न कल्पते / एवं पानखादिमस्वादिमाहारगतकि यद्वस्तूनि न कल्पन्ते / तद्ब्रहणे च प्रायश्चित्तं / तद्यथो अशने-अश नाहारमध्ये अकारणं-कारणं विना दुग्धदधिभोगे-दुग्धदधिग्रहणे लुब्धस्य- गृद्धस्य साधोर्गुरुका मासाश्चत्वारः स्युः / 'लुब्धस्येति'वचनात् तक्राद्यभावे तद्ग्रहणेऽपि न दोषः / तथा पाने-पानाहारमध्ये विकटे-मद्ये गृहीते गुरुकाश्चत्वारो मासा भवन्ति / सचित्तजले गृहीते षड्लघु प्रायश्चित्तम् / मिश्रे-सचित्तोऽचित्तरूपे जले गृहीते लघुमासो भवति / इह च साधूनां कल्पाध्ययनोक्तानि पानीयान्यमूनि 'उस्सेइमसंसेइमचाउलओदगं च तिलतुसजवाणं / आयामं सोवीरं सुद्धविअडमिअ जलं नवहा' / Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रग्रहणप्रायश्चित्तम् उत्स्वेदिम, संस्वेदिम, तन्दुलोदकं, तिलोदकं, तुषोदकं, यवोदकम् , आयाम, सौवीरं, शुद्धविकटम् / तत्रोत्स्वेदिम-पिष्टोत्स्वेदनार्थमुदकं पिष्टभृतहस्तादिक्षालनजलं वा, संस्वेदिमं-येनारणिकादिपर्णाद्युत्काल्य शीतोदकेन सिच्यते / चाउलोदकं-तन्दुलधावनोदकं, तिलोदकं-महाराष्ट्रादिषु निस्त्वगचित्ततिलधावनजलम् / तुषोदकः-व्रीह्यादिधावनं, यवोदकं-यवधावनम् , आयामम्-अवस्रावणं, सौवीरंकाञ्जिकं, शुद्धविकटम्-उष्णोदकम् उवृत्तत्रिदण्डमेव नापरं तस्य मिश्रत्वात् / एतेषां च पानीयानां मध्ये कालिजकमेव पूर्व साधुभिर्ग्राह्यं तदभावेऽपरपानीयग्रहणानुज्ञाप्रतिपादनात् / तथा चोक्तं निशीथपीठे'कांजिअआयामासइ संसट् ठुसुणोदगेसु वा असती। फासुअमुदगं तसजढं तस्सऽसति तसेहिं जं रहिअं'। ___ अस्या चूर्णिः-पूव्वं ताव कंजिअं गिण्हति / कंजिअं देसीभासाए आरनालं भण्णति / आयामम् अवसामणम् / एतेसिं असतीए संसठुसुणोदगं गिण्हति / गवगरसभायणनिकेअणं जं तं संसट सुणोदगं भण्णति / अहवा कोसलविसयादिसु सल्लोअणो विणस्सणभया सीतोदगे छम्मति तम्मि अ ओअणे भुत्ते अंबोभूअं तं जइ अतसागं ता धिप्पति / एवं वा संसद् ठुसुणोदगं / एतेसि असतीए जं वप्पादिसु फासुगमुदगं तं तसजढं घिप्पति / ' तस्सासति 'त्ति / फासुअ अतसागस्स असति फासुग सतसगिं धमकरका दिपरिपूअं धिप्पति / सव्वहा फासुगासति सचित्त जं तसेहिं रहिअंति / अतः काजिकजलाद्यलाभे उत्स्वेदिमादीनि पानकानि गृह्यन्ते / तान्यपि कानिचिन्मिश्राणि भवन्ति तानि न कल्पन्त इति तद्विचारं दर्शयन्नाह - पढमुस्सेइममुदयं न कप्पई कप्पई उ केसिपि / तन्न जुज्जइ जम्हा मीसं उसिणंपि जा दंडो // 170 // व्याख्या-यत्र शीतोदके उत्स्विन्नं क्षिप्यते तदुदकम् उत्स्वेदिमं / यथा-मरहट्ठदेशे दीवगा उत्स्वेदिताः शीतोदके क्षिप्यन्ते तदुदकमुत्स्वेदिमम् / ते च दीवगादय उत्स्वेदिता एकस्मिन् द्वयोस्त्रिषु वा पानीयेषु क्षिप्यमाणा निर्वलन्ते / तत्र द्वितीयतृतीयपानीये सर्वेषामेवाचार्याणां मतेनाऽकल्प्ये एव / यत् प्रथममुत्स्वेदिममुदकं तदपि न कल्पते / केषाश्चित् पुनराचार्याा मतेन तत्कल्पते / तन्न युज्यते, कस्मात् ? यस्मादुष्णमपि-उत्कालितमपि उदकं यावद्दण्डोऽत्र जातावेकवचनं ततोऽयमर्थः / यावत् त्रयो दण्डा-उत्काला न जायन्ते तावन्मिनं भवति / तथाहि-प्रथमे दण्डे जायमाने किञ्चित् परिणमति किश्चन्नेति मिश्र, द्वितीये प्रभूतं परिणमति स्तोकमवतिष्ठते, तृतीये तु सर्वमप्यचित्तं भवति / ततोऽनु. वृत्तेषु त्रिषु दण्डेषु उष्णोदकं मिश्रमेव सम्भवति / यद्येवमुष्णोदकमपि मिश्रं भवति तर्हि कथं तेषु दीवगादिषु उत्स्वेदितेषु क्षिप्तेषु तत्प्रथमोदकमचित्तं भविष्यतीत्यर्थः / एवं संस्वेदिममपि किञ्चिन्मिनं भवति / यथा संस्विन्नारणिकादिपत्राणि शीतोदकेन सिच्यन्ते / तत्र प्रथमद्वितीयपानीये प्रासुके भवतः / तृतीयचतुर्थपानके तु मिश्रे स्याताम् / तथा तन्दुलोदकमपि मिश्रं भवति / तदुपदर्शनपूर्वकं मिश्रग्रहणप्रायश्चित्तमाहपढमबितिचाउलोदगि अहुणाधोअम्मि मीसगंति लहू / लहुगसचित्ते तुरिए तइएवि परे चिरकएबि / / 12 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे व्याख्या-तन्दुलानां धावनोदकानि प्रथमद्वितीयतृतीयानि अचिरकालकृतानि नियमान्मिश्राणि भवन्ति, ततः परं चतुर्थादिधावनं सचित्तम् / एवं तिल-तुष-यवधावनोदकान्यपि अधुना कृतानि मिश्राण्यवगन्तव्यानि / ततः प्रथमद्वितीयतृतीयतन्दुलोदकेऽधुना धौते गृहीते लघुमासः प्रायश्चित्तं भवति, मिश्रकपरिणतमिदमिति हेतोः। अन्यस्मिन्नषि तिलधावनादिके उदकेऽधुना धौते मिश्र गृहीते लघुमासः प्रायश्चित्तमवसेयम् / तन्दुलानां च तुर्ये-चतुर्थे धावने सचित्ते गृहीते चतुघुकं भवति / परे-अन्ये आचार्याः पुनस्तृतीयेऽपि तन्दुलानां तृतीयधावनेऽपि न केवलं चतुर्थे, चिरकृतेऽपि न केवलमचिरकृते चतुर्लघुप्रायश्चित्तमाहुः / यतस्तत्रापि बहु अपरिणतं स्तोकं परिणतमिति / तन्दुलोदके च यान्याद्यानि-प्रथमद्वितीयतृतीयानि त्रीणि धावनानि मिश्राण्यभिहितानि तानि चिरमवतिष्ठमानान्यचित्तानि भवन्ति / चतुर्थादीनि तु धावनानि चिरमवतिष्ठमानान्यपि सचित्तानीति तेषामग्रहणमेव / मिश्राणां च तन्दुलोदकानां परिणामे इमे त्रयोऽनागमिका आदेशास्तद्यथा भंडगपासगलग्गा उत्तेडा बुब्बुआ य न समंति / जा ताव मीसगं तंदुला य रज्झति जावन्ने' / व्याख्या-तन्दुलोदके -तन्दुलप्रक्षालनभाण्डादन्यस्मिन् भाण्डे प्रक्षिप्यमाणे ये त्रुटित्वा भाण्डकस्य पाश्चेषु उत्तेडा-बिन्दवो लग्नास्ते यावन्न शाम्यन्ति-विध्वंसमुपगच्छन्ति, तावत्तं तन्दुलोदकं मिश्रं ततः परमचित्तमित्येके / अपरे पुनराहुः-तन्दुलोदके-तन्दुलप्रक्षालनभाण्डकादपरस्मिन् भाण्डके प्रक्षिप्यमाणे ये तन्दुलोदकस्योपरि समुद्भूता बुबुदास्ते यावदद्यापि न शाम्यन्ति-न विनोशमिर्यति तावत् तत् तन्दुलोदकं मिश्रं ततोऽचित्तमिति / अन्ये पुनरेवमाहुः-तन्दुलप्रक्षालनानन्तरं तन्दुला राद्धमारब्धाः / ततस्ते यावन्न राध्यन्ति-यावन्नाद्यापि सिद्धयन्ति तावत तत् तन्दुलोदकं मिश्रं ततोऽचित्तमिति / एते त्रयोऽप्यादेशा अनादेशा एव / कालनियमस्यासम्भवात् / न खलु बिन्द्वपगमे-बुबुदापगमे तन्दुलपाकनिष्पत्तौ वा सर्वदा सर्वत्र प्रतिनियत एव कालो, येन प्रतिनियतकालसम्भविनो मिश्रत्वादूर्ध्वमचित्तत्वस्याप्यभिघीयमानस्य न व्यभिचारसम्भवः / कालनियमासम्भवश्वारूक्षेतरभाण्डपवनसम्भवाऽसम्भवचिरकालजलभिन्नत्वाऽभिन्नत्वादिभिः / इयमत्र भावना-स्नेहजलादिना यन्न भिन्नं भाण्डं तत् रूक्षमुच्यते / स्नेहादिना तु भिन्नं स्निग्धम् / तत्र रूक्षे भाण्डे तन्दुलोदके प्रक्षिप्यमाणे ये बिन्दवः पार्श्वेषु लग्नास्ते भाण्डस्य रूक्षतया झटित्येव शोषमुपयान्ति / स्निग्धे तु भाण्डे भाण्डस्य स्निग्धतया चिरकालम् / ततः प्रथमादेशवादिनां मते रूक्षे भाण्डे बिन्दूनामपगमे परमार्थतो मिश्रस्याप्यचित्तत्वसम्भावनया ग्रहणप्रसङ्गः / स्निग्धे तु भाण्डे परमार्थतोऽचित्तस्यापि बिन्दूनामनपगमे मिश्रत्वेन सम्भावनया न ग्रहणमिति / तथा बुबुदा अपि प्रचुरखरपवनसम्पर्कतो झटिति विनाशमुपगच्छन्ति / प्रचुरखरपवनसम्पर्काभावे तु चिरमप्यवतिष्ठन्ते / ततो द्वितोयादेशवादिनामपि मते यदा खरप्रचुरपवनसम्पर्कतो झटिति विनाशमैयरुः बुबुदास्तदा परमार्थतो मिश्रस्यापि तन्दुलोदकस्याचित्तत्वेन सम्भावनया ग्रहणप्रसङ्गः / यदा तु खरप्रचुरपवनसम्पर्काभावे चिरकालमप्यवतिष्ठन्ते बुबुदास्तदा परमार्थतोऽचित्तीभूतस्यापि तन्दुलोदकस्य बुद्बुदर्शनतो मिश्रत्वशङ्कायां न ग्रहणमिति / येऽपि तृतीयादेशवादिनस्तेऽपि न परमार्थं पलोचितवन्तः / तन्दुलानां चिरकालपानोयभिन्नाभिन्नत्वेन पाकस्यानियतकालत्वात् / तथाहि-ये चिरकालसलिलभिन्नास्तन्दुला न च नवीना इन्धनादिसामग्री च परिपूर्णा ते सत्वरमेव निष्पद्यन्ते Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानाहारविषयं प्रायश्चित्तम् 91 शेषास्तु मन्दम् / ततस्तेषामपि मतेन कदाचिन् मिश्रस्याप्यचित्तत्वसम्भावनया ग्रहणप्रसङ्गः / कदाचित पुनरचित्तीभूतस्यापि मिश्रत्वशङ्कासम्भवादग्रहणमिति त्रयोऽप्यनादेशाः / अयं पुनरादेश आगमिकः __जाव न बहुप्पसन्नं ता मीसं एस इत्थ आएसो / होइ पमाणमचित्तं बहुप्पसन्नं तु नायव्वं'। व्याख्या-यावत् तन्दुलोदकं न बहुप्रसन्नं-नातिस्वच्छीभूतं तावन् मिश्रमवगन्तव्यम् / एषोऽत्र मिश्रविचारप्रक्रमे भवत्यादेशः प्रमाणं, न शेषः। यत्तु बहुप्रसन्नमतिस्वच्छीभूतं तदचित्तं ज्ञातव्यम् / तथा चोक्तम् _ 'जं जाणिज्ज चिराधोअं मइए दंसणेण वा / पडिपुच्छिऊण सुच्चा वा जं च निस्संकिअं भवे // ततोऽचित्तत्वेन तस्या ग्रहणे न कश्चिद्दोषः। एवमपरधावनेष्वपि प्रथमद्वितीयतृतीयधावनोदकानि मिश्राण्यवगन्तव्यानि, चतुर्थादीनि तु सचित्तानि / तान्यपि च मिश्रधावनोदकानि उत्स्वेदिमसंस्वेदिममिश्रोदकानि च यदा रसत आम्लरसानि, वर्णतो विवर्णानि, गन्धतोऽन्यगन्धानि, स्पर्शतश्चिप्फिलानि जायन्ते तदा परिणतानि ज्ञातव्यानि / तेषां ग्रहणे न दोषः / ___ एवं पानाहारविषयं प्रायश्चित्तं प्रदर्य खादिमाहारविषयं तदाहखाइमि भावे दव्वे अभिन्नभिन्ने पलंबि चउभंगो / पढमे कालतवगुरू लहुगा बीअम्मि तवगुरुगा॥ तइए कालगुरु लहु चरमे लहु दोहि लहु इअ परित्ते / ते गुरुगणंति खाइमि लवंगपूआइए गुरुगा // ___ व्याख्या-प्रलम्बते-नैरयिकादिकां गतिं प्रति लम्बते येन भुक्तेन जीवः तत् प्रलम्बम् / तच्च दशधा तद्यथा 'मूले कंदे खंधे तया य साले पवोलपत्ते अ / पुप्फे फले अ बीए पलंबसुत्तम्मि दसभेआ'। मूलं, कन्दः, स्कन्धः, त्वक्-छल्ली, शाला-शाखा, प्रवालं-पल्लवः, पत्रं, पुष्पं, फलं, बीजम् / एवं दशप्रकारं प्रलम्बं भवति / सर्वमप्येतत् द्विधा-भिन्नम् अभिन्नं च / पुनः प्रत्येकं द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च / तत्र यद् विदारितं तत् द्रव्यतो भिन्नं, जीवेन विप्रमुक्तं यत् तद् भावतो भिन्न तद्विपरीतं त्वभिन्नम् / अत्र चत्वारो भङ्गा भवन्ति / तद्यथा-द्रव्यतो भोवतश्चाऽभिन्नं, द्रव्यतो भिन्नं भावतस्त्वभिन्नं, भावतो भिन्नं द्रव्यतः पुनरमिन्नं, द्रव्यतो भावतश्च मिन्नम् / एतेषु चतुर्वपि भङ्गेषु क्रमेण प्रायश्चित्तं प्रदश्यते / यथा-खादिमे-खादिमाहारमध्ये प्रथमे-प्रथमभङ्गप्रदर्शितप्रलम्बे द्रव्यतो भावतश्चामिन्ने इत्यर्थः / गृहीते भिक्षोश्चत्वारो लघुका मासाः / कथम्भूताः ? कालतपोगुरवःकालेन तपसा च गुरवो भवन्ति / द्वितीये भङ्गे चत्वारो लघुकास्तपोगुरवः-तपसैवैकेन गुरवो न कालेनेत्यर्थः / एतयोर्द्वयोरपि भङ्गयोर्भावतोऽभिन्नतया प्रलम्बस्य सचेतनत्वात् / तृतीये भङ्गे लघुको मासः कालगुरुः-कालेन गुरुन तु तपसा / चरमे-चतुर्थे भङ्गे लघुमासो द्वाभ्यां लघुः। कालेन तपसा च लघुरित्यर्थः। इति-उक्तप्रकारेण परीत्ते प्रत्येकवनस्पतिलक्षणे प्रलम्बे प्रायश्चित्तं भणितम् / अनन्तेऽनन्तकायप्रलम्बे पुनस्तानि प्रायश्चित्तानि गुरुकाणि ज्ञातव्यानि / प्रथमद्वितीययोर्भङ्गयोश्चत्वारो गुरुकाः / तृतीयचतुर्थयोस्तु गुरुमासः प्रायश्चित्तं तपःकालविशेषितं पूर्ववद्वक्तव्यमिति भावः / तथा प्रलम्बानि गृहृता Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति जीतकल्पे तीर्थकृतामाज्ञाभङ्गः कृतो भवति / अनवस्था मिथ्यात्वं विराधना च संयमात्मविषया कृता भवति / तथा प्रलम्बान्यनाचीर्णानि / तथा चोक्तम् _ 'अविअ हु सव्व पलंबा जिणगणहरमाइएहिं नाइन्ना / लोउत्तरिआ धम्मा अणुगुरुणो तेण ते वज्जा'। व्याख्या-अपिचेति दूषणाभ्युच्चये / पूर्वोक्ता दोषास्तावत् स्थिता एव दूषणान्तरमप्यस्तीति भावः / हुः-निश्चितम् / सर्वाणि सचित्ताऽचित्तभेदभिन्नानि मूलकन्दादिभेदाद् दशविधानि वा प्रलम्बानि जिनैस्तीर्थकरैर्गणधरैश्च गौतमादिभिरादिग्रहणेन जम्बू-प्रभव-शय्यम्भवादिभिः स्थविरैरप्यनाचीर्णानिअनासेवितानि / लोकोत्तरिकाश्च ये केचन धर्माः-समाचारास्ते सर्वेऽप्यनुगुरवो यद्यथा-पूर्वगुरुभिराचरितं तत्तथैव पाश्चात्यैरप्याचरणीयमिति गुरुपारम्पर्यव्यवस्थया व्यवहरणीया इति भावः / येनैवं तेन तानि प्रलम्बानि-परिहर्त्तव्यानि / अत्र परः प्राह-यदि यद्यत् प्राचीनगुरुभिराचीणं तत्तत् पाश्चात्यैरप्या चरितव्यं तर्हि तीर्थकरैः प्राकारत्रयछत्रत्रयप्रभृतिका प्राभृतिका तेषामेवार्थाय सुरविरचिता यथा समुपजीविता / तथा वयमप्यस्मन्निमित्तकृतं किन्नोपजीवामः ? / नैवं, यतो यद्यप्यनुगुरवो धर्मास्तथापि न . . सर्वसाधात् किन्तु देशसाधादेव / तथाहि-तीर्थकरा यत् सुरेन्द्रादिकृतानतिशयानुपजीवन्ति स तीर्थकरजीतकल्प इति कृत्वा न तत्राऽनुधर्मता चिन्तनीया / यत्र पुनस्तीर्थकृतामितरेषां च साधूनां सामान्यधर्मत्वं तत्रैवानुधर्मता चिन्त्यते / सो चेयम्-अनाचीर्णेति दयते___ 'सगडदहसमभोमे अविअ विसेसेण विरहिअतरागं / तहवि खलु अणाइन्नं एसणुधम्मो पवयणस्स'।। यदा भगवान् श्रीमन्महावीरस्वामी राजगृहनगरादुदायननरेन्द्रप्रव्राजनाथ सिन्धुसौवीरदेशावतंसं वीतभयं नगरं प्रस्थितः / तदा किलापान्तराले बहवः साधवः क्षुधार्ताः तृषार्दिताः सज्ञाबाधिताच बभूवुः / यत्र च भगवानाऽऽवासितः तत्र बहूनि तिलशकटान्यासन् / तेषु च तिला व्युत्क्रान्तयोनिका अशस्त्रोपहता अप्यायुःक्षयेणाचित्तोभूताः , स्थण्डिले च स्थितास्तदुद्भवाऽऽगन्तुकत्रसविरहिताश्च तिलशकटस्वामिभिश्च दत्ताः / तथा हृदः पानीयपूर्णों यथाऽऽयुष्कक्षयादचित्तीभूतोऽचित्तपृथिव्यां च स्थितस्त्रसविवर्जितश्च हृदस्वामिना च दत्तः / साधवश्च ते क्षुधापीडिताः तृषार्दिताश्चाऽऽयुषः स्थितिक्षयमकार्युः / तथापि खलु भगवताऽनाचीण-नानुज्ञातं ग्रहणं, मा भूदशस्त्रोपहते ग्रहणप्रसङ्गः / तीर्थकरेणाऽपि गृहीतमिति मदीयमालम्बनं कृत्वा मत्सन्तानवर्तिनः शिष्या अशस्त्रोपहतं मा ग्राहिषुरिति भावः / तथा स्वामी तृतीयपौरुष्यां भुक्तमात्रैः साधुभिः सार्धमेकामटवीं प्रपन्नः / तत्र च समभोमं गर्तागोष्पदबिलादिवर्जितं यथास्थितिक्षयव्युत्क्रान्तयोनिकपृथिवीकं त्रसप्राणविरहितं स्थण्डिलं वर्त्तते, अपरं च शस्त्रोपहतं स्थण्डिलं नास्ति, साधवश्च ते सज्ञाबाधिताः स्थितिक्षयं कुर्वन्ति / तथापि भगवान्नानुज्ञां करोति / यथा'अत्र व्युत्सृजत' इति / मा भूदशस्त्रोपहते प्रसङ्गः / युक्तियुक्तं चैतत् प्रमाणस्थपुरुषाणाम् / यत उक्तम् 'प्रमाणानि प्रमाणस्थै रक्षणीयानि यत्नतः / विषीदन्ति प्रमाणानि प्रमाणस्थैर्विसंस्थुलैः / एषोऽनुधर्मः प्रवचनस्य-तीर्थस्य सर्वैरपि प्रवचनमध्यमध्यासीनैरशस्त्रोपहतपरिहारलक्षण एष एव धर्मोऽनु. गन्तव्य इति भावः / एवं प्रलम्बान्यपि तीर्थकरादिभिरनाचीर्णानि पाश्चात्यैरपि परिहर्त्तव्यानि / तथाअवमकाले असंस्तरणे प्रलम्बग्रहणे इयं यतना Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशाभङ्गादिदाषप्रायश्चित्तम् 'बत्तीसाई जा इक्कघास खवणं व नवि अ से हाणी। आवस्सएसु अत्थओ जा छम्मासे न य पलंवे'। ओदनस्य द्वात्रिंशत् कवलाः पुरुषम्य प्रमाणप्राप्त आहारः / यदि ते एकेन कवलेन न्यूनाः प्राप्यन्ते ततस्तैरेव तिष्ठतु / यदि से-तस्य साधोरावश्यकेषु-अवश्यकृत्ययोगेषु हानिर्नापि नैव भवति, न च प्रलम्बानि गहात / एवं द्वाभ्यां कवलाभ्यां न्यनाः द्वात्रिंशत् कवला लभ्यन्ते तस्तिष्ठतु यदि तस्यावश्यकयोगा न परिहीयन्ते / एवमेकैकं कवलं परिहापयतो तावद्वक्तव्यं यावद्यद्यको ग्रासः-कवलः प्राप्यते ततस्तेनैवास्ताम् / यदि तस्याऽऽवश्यकयोगा न परिहीयन्ते मा च प्रलम्बानि गृह्णातु / अथैकोऽपि कवलो न प्राप्यते तत एक दिवसं क्षपणमुपवासं कृत्वा आस्तां द्वितीयदिवसे द्वात्रिंशत्कवलैः पारयतु / यदि तावन्तो न लभ्यन्ते, तत एकैककवलपरिहाण्या तावद्वक्तव्यं यावद्योकोऽपि कवलो न लब्धः / ततः षष्ठं कृत्वा समाधिसौधमध्यास्ताम् / षष्ठस्य च पारणके प्रमाणप्राप्तमाहारमुपादत्ताम् / अथ न लभ्यते ततः पूर्वोक्तयुक्त्या यावदेकोऽपि कवलो न लभ्यते / ततोऽष्टमं कृत्वा तिष्ठतु | मा च प्रलम्बान्याददीत / एवमनयैव दिशा दशमादिकमुत्तरोत्तरक्षपणं वर्द्धयता तावन्नेतव्यं यावत् षण्मासक्षपणं करोतु यद्यावश्यकयोगा न परिहीयन्ते मा च प्रलम्बानि गृह्णातु / एवमादि प्रकारेण प्रलम्बविषया यतना प्रकल्पादौ विस्तरेण प्रदर्शिता तत एवोवसेया / एवं खादिमाहारविषयं प्रायश्चित्तं भणितम् / अथ स्वादिमाहारविषयं भण्यते / 'साइमि लवंगपूआइए गुरुग'त्ति / स्वादिमाहोरमध्ये लवङ्गपूगादिके-लवणं-देवकुसुमं, पूरी-पूगीफलम् , आदिशब्दात् खदिरवटिकाजातीयफलादिग्रहः / तस्मिन् गृहीते गुरुकाश्चत्वारो मासा भवन्तीति चतुर्विधाहारविषयं प्रायश्चित्तमुक्तम् / अथात्र प्रतिपदमाज्ञाभङ्गादयो ये दोषाः प्रोच्यन्ते तद्विषयं प्रायश्चित्तमाह - आणाभंगे चउगुरु लहुगा मिच्छे तहाणवत्थाए / गुरुगा आयविराहणि संजमि वयकायनिफन्नं // 174 // व्याख्या- इयं गाथा सामान्यविषयाऽपि प्रलम्बप्रक्रमात् प्रलम्बविषया प्रदर्यते / तद्यथाभगक्ता प्रतिषिद्धं यत् प्रलम्बं न कल्पते, तद् ग्रहणं कुर्वता भगवतामाज्ञाभङ्गः कृतो भवति / तस्मिँश्चाऽऽज्ञाभङ्गे चतुर्गुरुकाः / अत्राह परः'अवराहे लहुगतरो आणाभंगम्मि गुरुतरो किह णु? आणाइच्चिअ चरणं तब्भंगे जाण किं न भग्गं नु' / अपराधे चारित्रातिचारे लघुतरो दण्डो भवद्भिः पूर्व भणितः / तथाहि-अचित्ते प्रलम्बे मासलघु. सचित्ते चतुर्लघु / इह पुनराज्ञाभगे चतुर्गुरुकमिति गुरुतरो दण्डः कथं-कस्मात् ? नुरिति वितर्के / अपि च-अनपराधिजीवोपघातो दृश्यते तेन तत्र गुरुतरो दण्डो युक्तियुक्तः / आज्ञायां पुनर्नास्ति जीवोपघात इति लघुतर एवात्र भणितुमुचित इति / गुरुराह-आज्ञायामेव भागवत्यां चरणं-चारित्रं व्यवस्थितम् / अतः तद्भङ्गे-तस्या आज्ञाया भङ्गे किं तन्मूलोत्तरगुणादिकं वस्तु न भग्नम् ? / अपि तु सर्वमपि भग्नमत्त आज्ञायां गुरुतरो दण्ड उच्यते / अस्यैवार्थस्य प्रसाधनार्थमयं दृष्टान्तः'सोऊण य घोसणयं अपरिहरंता विणास जह पत्ता / एवं अपरिहरंतो हिअसव्वस्सा उ संसारे' / Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जोतकल्पे राज्ञा कारितां घोषणां श्रुत्वा घोषणया च निवारितमर्थमपरिहरन्तो यथा द्रव्यापहारलक्षणं विनाशं प्राप्ताः / एवं तीर्थकरनिषिद्धं प्रलम्बग्रहणमपरिहरन्तो हृतसर्वस्वा-अपहृतसंयमरूपसर्वसाराः संसारे दुःखमवाप्नुवन्ति / जहा कोइ नरवई सो छहिं पुरिसेहिं अन्नतरकज्जे तोसितो इमेणत्थेण घोषणं कारेइ / इमे छप्पुरिसा मज्झं पुरे अप्पणो इच्छाए विहरमाणा महाजणेणं अदिट्ठपुव्वा अणुवलद्धविभव नेवत्था अच्छति / जो ते छिवइ वा पीडेइ वा मारेइ वा तस्स उग्गं दंडं करेमि / एवं घोषणयं सोऊण ते पउरा जणवया य दंडभीता. ते पुरिसे पयत्तेण वण्णरूवाईहिं चिंधेहिं आगमिऊणं पीडापरिहारकयबुद्धी तेसिं छण्हं पुरिसाणं पीडं परिहरंति ते निदोसा / जे पुण अणायारमंता न परिहरंति ते रन्ना सव्वस्सावहारदंडेणं दंडिआ / एस दिÉतो / अयमत्थोवणओ-रायत्थाणीआ तित्थयरा / पुरत्थाणीओ लोगो / छप्पुरिसत्थाणीआ छक्काया / घोषणत्थाणीया छक्कायरक्खणपरूवणपरा छज्जीवणिआदओ आगमा / छिवणाइत्थाणोआ संघट्टणादी / पउरजणवयत्थाणीआ साहू / दंडत्थाणीओ संसारो। तत्थ जे य पयत्तेण छण्हं कायाणं सरूवं रक्खणोवायं च आगमेऊण जहुत्तविहीए पीडं परिहरंति ते कम्मबंधदंडेणं न दंडिजति / इअरे पुण संसारे पुणो पुणो सारीरमाणसेहि दुक्खसयसहस्से हिं दंडिज्जंति त्ति / तथा मिथ्यात्वे चत्वारो लघुका भवन्ति / शङ्कादयश्च दोषाः / यदुक्तम् -- 'मिच्छत्त संकाई जहेअ मोसं तहेव सेसंपि / मिच्छत्तथिरीकरणं अब्भुवगमवारणमसारं / मिथ्यात्वे विचार्यमाणे शङ्कादयो दोषा वक्तव्याः / शङ्का नाम किं मन्ये अमी यथावादिनस्तथाकारिणो न भवन्ति ? येन प्रलम्बानि गृह्णन्ति / आदिशब्दात् काङ्क्षादयो दोषाः। तथा यथतन्मृषा तथव शेषमन्यदप्येतेषां मिथ्यारूपमेवेति चित्तविप्लुतिः स्यात् , मिथ्यात्वाद्वा चलितभावस्य सम्यक्त्वाभिमुखस्य प्रलम्बग्रहणदर्शनात् पुनरपि मिथ्यात्वे स्थिरीकरणं भवति / अभ्युपगमं वो प्रव्रज्याया अनुव्रतानां वा सम्यग्दर्शनस्य वा कर्त्तकोमस्याऽपरः कश्चित वारणं कुर्यात्-मा एतेषां समीपे प्रतिपद्यस्व / असारं-निस्सारममीषां प्रवचनं मयेदं चेदं च दृष्टमिति / तथा अनवस्थायां चत्वारो लघुका भवन्ति / सा चेयम् - ___एगेण कयमकज्जं करेइ तप्पञ्चया पुणो अन्नो / सोयाबहुलपरंपरवुच्छेदो संजमतवाणं' // एकेन केनचिदाचार्यादिना किमप्यकार्य-प्रमादस्थानं कृतं-प्रतिसेवितं ततोऽन्योऽपि तत् प्रत्ययादेष आचार्यादिः श्रतधरोऽप्येवं करोति, नूनं नास्त्यत्र दोष इति तदेवाकार्य करोति / ततोऽपरोऽपि तथैव करोति तदन्योऽपि तथैवेत्येवं सातबहुलाना-सातगौरवप्रतिबद्धानां प्राणिनां परम्परया प्रमादस्थानमासेवमानानां संयमतपसोयवच्छेदः प्राप्नोति / यद्धि संयमस्थानं तपःस्थानं वा पूर्वाऽऽचार्येण सातगौरवगृध्नुतया वर्जितं तत पाश्चात्यैरदृष्टमिति कृत्वा व्यवच्छिन्नमेव / अथ विराधना सा च द्विधा-आत्मविषया संयमविषया च / तत्राऽऽत्मविराधना जिह्वालोलुपतया बहुप्रलम्बभक्षणे विसूचिकादिमिः / तस्यां च गुरुकाश्चत्वारो भवन्ति / संयमः-पञ्चमहाव्रतषड्विधजीवनिकायरक्षणात्मकः तस्मिन् या विराधना तस्यां व्रतकायनिष्पन्न प्रायश्चित्तं भवति / अयमर्थः-यत् पूर्वं व्रतषटूविराधनाविषयं षड्विधजीवनिकायविराधनाविषयं च प्रायश्चित्तं प्रतिपादितं तदत्र संयमविराधनायामवगन्तव्यमिति / संयमविराधना चात्रेत्थं भवति / प्रलम्बानि गृह्णानो वनस्पतिकोयान् न परित्यजति, तं चापरित्यजन् शेषानपि कायानसौ भावतः न . परित्यजति, तदपरित्यागे च प्रथमव्रतपरित्यागः। प्रथमव्रतपरित्यागे च शेषव्रतपरित्यागोऽप्युपजायते / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसतिविषयं प्रायश्चित्तम् यद्वा-वरतिलक्षणं चारित्रं भणित तच्च लक्षणं प्रलम्बानि गृह्णतो न स्यात् / लक्षणाभावे च चारित्रमपि न भवेत् / प्रलम्बग्रहणाञ्च साधोर्जीवेषु समता न विद्यते, समताया अभावाच्च सम्यक्त्वमपि नास्ति तस्यापि सामायिकभेदतया समतारूपत्वात् / तथा ज्ञानोपदेशे क्रियाद्वारेणावर्त्तमानोऽसौ ज्ञान्यपि अज्ञानी मन्तव्यः / एवमन्यत्राऽप्याज्ञाभङ्गादिष्विदं प्रायश्चित्तं ज्ञातव्यमिति पिण्डविषयं प्रायश्चित्तं प्रपश्चितम् / अथ वसतिमधिकृत्य प्रायश्चित्तमाचिख्यासुर्मूलोत्तरगुणदुष्टवसतिस्वरूपमाहपिट्ठीवंसो दो धारणा य चत्तारि मूलवेलीओ। मूलगुणेहिं असुद्धा एसा आहागडा वसही // 175 // व्याख्या-उपरितनस्तिर्यक्पाती पृष्ठिवंशः / द्वौ मूलधारणौ ययोरुपरि पृष्ठिवंशः तिर्यगनिपात्यते / चतस्रश्च मूलबेलय उभयोर्धारणयोरुभयतो द्विद्विवेलिसम्भवात् / एते वसतेः सप्त मूलभेदा एतैर्मूलगुणैः सप्तभिरशुद्धा या एषा वसतिः आधाकृता भवति साधूनाधाय-सम्प्रधार्य कृता आधाकृता / पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तेः / वंसगकडणुकंबणछायणलेवणदुवारभूमी अ। सपरिकम्मा वसही एसा मूलुत्तरगुणेहिं // 176 // व्याख्या-वंशका ये बेलीनामुपरि स्थाप्यन्ते पृष्ठवंशस्योपरि तिर्यक् / कटनं-कटादिभिः समन्ततः पार्थाणामाच्छांदनम् / उत्कम्बनम्-उपरि कम्बिकोनां बन्धनं छादन-दर्भादिमिराच्छादनम् / लेपनं कुड्यानां कर्दमेन गोमयेन च लेपप्रदानम् / 'दुवार 'त्ति / संयतनिमित्तमन्यतो वसतेभरकरणम् / 'भूमि'त्ति // समभूमिकरणम् / एतत् सप्तविधमुत्तरकरणम् / एषा सपरिकर्मा वसतिर्मूलगुणैरुत्तरगुणैश्च / एषा नियमेन विशोधिकोटिरन्येऽपि चोत्तरगुणा वसते विद्यन्ते, तैः कृता विशोधिकोटिः / के तेऽन्ये उत्तरगुणा ? इत्यत आहदूमिअधूमि(वि)अ वासिअ उज्जोइअवलिकडा अवत्ता य। सित्ता संमट्ठावि अविसोहिकोडीगया वसही॥ व्याख्या- दूमिता नास सुकुमारलेपेन-सुकुमारीकृतकुड्या सेटिकया धवलीकृतकुडथा च / धूपिता-अगुरुप्रभृतिभिः वासिता-पटवासकुसुमादिभिः / उद्योतिता-अन्धकारे-अग्निकायेन कृतोद्योता / बलिकृता यत्र सयतनिमित्तं बलिविधानं कृतम् / अवत्तानाम यत्र भूमिरुपलिप्ता / सिक्ता-आवर्षणकरणतः / सम्मृष्टा-सम्मार्जन्या, संयतनिमित्तमेवमुत्तरगुणैः कृता वसतिर्विशोधिकोटिगता भवति / अथाविशोधिकोटि -विशोधिकोटिगतवसत्यवस्थानविषयं प्रायश्चित्तमाहमूलुत्तरचउमंगो पढमे दोहिं गुरु गुरुग बिअतइए / तवगुरुकालगुरुकमा अत्तट्टकडो चरिम सुद्धो॥ व्याख्या- मूलगुणाः-पृष्ठवंशादय उत्तरगुणा-वंशकादयः / तेषु मूलोत्तरगुणेषु चतुर्भङ्गी / गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् / मूलगुणा अपि पृष्ठवंशादयः संयतनिमित्तमुत्तरगुणा अपि विशोधिकोटिगता वंशकादयः संयतनिमित्तमिति प्रथमो भङ्गः / अत्र प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका द्वाभ्यां गुरवः तपसा कालेन च / मूलगुणाः संयतार्थ मुत्तरगुणा अविशोधिकोटिगताः स्वार्थमिति द्वितीयः / अत्र चत्वारो Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 यति-जातकल्प गुरुकास्तपोगुरवः काललघवः / मूलगुणाः स्वार्थमुत्तरगुणा अविशोधिकोटिगताः संयतार्थमिति तृतीयो भङ्गः / अत्र चत्वारो गुरवः कालगुरवः तपोलघवः क्रमादवसेयाः / आत्मार्थं मूलगुणो आत्मार्थमेव चोत्तरगुणा इत्येवमात्मार्थकृतश्चरमभङ्गः शुद्धः / चतुर्थभङ्गवत्तिवसताववस्थाने प्रायश्चित्तं न भवतीत्यर्थः / अफासुएण देसे सव्वे वा दूमिआइ चउलहुआ / अफ्फासु धूमजोई देसम्मिवि चउलहू हुंति // 179 / / सेसेसु फासुएणं देसे लहु सव्वहिं भवे लहुगा / सुन्नवसहीइ गुरुगा बालाइवसहिपाले वि // 180 // व्याख्या-यत्र देशतः सर्वतो वा अप्रासुकेन वस्तुना दूमितादि / आदिशब्दात् समस्तान्यपि पदानि गृहीतानि / तत्र तिष्ठतः प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः। यत्र पुनरगुरुप्रभृतिभिधूपनम् अन्धकारेऽग्निकायेन उद्द्योतनं तत्र नियमादप्रासुकः सचित्तोऽग्निकाय इति देशेऽपि चत्वारो लघुका भवन्ति किमुत सर्वतः ? / शेषेषु धूपितमुद्द्योतितं च मुक्त्वाऽन्येषु दूमितवासितबलिकृतावत्तसिक्तसंसृष्टरूपेषु भेदेषु प्रासुकेन देशतः करणे लघुमासः / सर्वतश्चत्वारो लघुका भवन्तीति मूलोत्तरगुणाऽशुद्धवसत्यवस्थानविषयं प्रायश्चित्तमुक्तम् / तथा साधुभिर्वसतिः शून्या न कार्या, बालादिवसतिपालश्च न विधेयोऽनेकदोषसम्भवात् / ततः शून्यवसतौ कृतायां गुरुकाश्चत्वारः प्रायश्चित्तं ब.लादौ, आदिशब्दाद ग्लाने अव्यक्ते वा वसतिपालेऽपि कृते गुरुकाश्चत्वारो भवन्ति / निशीथादौ तु शून्यवसतौ चत्वारो लघुकाः कालतपोगुरवः / बालादौ तु मासलघु / अथ संसक्तवसतिस्थितिविषयं प्रायश्चित्तमाहसंसत्ताए काएहि सजिअमीसेहिं होइ सट्ठाणं / नरतिरिसंसत्ताए लहुगा गुरुगा नपुत्थीहिं // 181 // व्याख्या-कायैः-पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिकायैः सजीवैः सचित्तैः मित्रैश्च-सचित्ताचित्तरूपैः संसक्तायां-संयुक्तायां वसतौ तिष्ठतः प्रायश्चित्तं स्वस्थानं-स्वस्थाननिष्पन्नं भवति / तद्यथा-सचित्तः पृथिवीकायादिभिः संसक्तायां वसतौ चतुर्लघु / हरितैरनन्तैश्चतुर्गुरु / प्रत्येकबीजै रात्रिंदिवपञ्चकं लघु / अनन्तबीजगुरुकम् / मिश्रः पृथिव्यादिभिर्मासलघु / हरितैरनन्तैर्मिश्रर्मासगुरु / वीजैरनन्तैश्च मित्रैः सचित्तैरिव त्रसकायैश्चत्वारो गुरुकाः / तथा नरैः-पुरुषैः तिर्यकत्रीभिश्च संसक्तायां वसतौ तिष्ठतां निग्रन्थानां चत्वारो लघुकाः / नपुंसकैर्मनुष्यत्रोभिश्च संसक्तायां वसतौ चत्वारो गुरुकाः। निम्रन्थीनां पुनस्त्रीभिः संसक्तायां चतुर्लघु / पुरुषसंसक्तायां चतुर्गुरुः स्यादित्यनुक्तमप्यवगन्तव्यम् / अथ वसतिर्नवधा भवतीति दर्शयतिकालाइक्कंतउवट्ठाण अभिकंत अणमिकता य / वज्जा य महावज्जा सावज्जमहऽप्पकिरिआ य // 182 // व्याख्या-शय्या नवप्रकारा भवति / तद्यथा-कालतिक्रान्ता, उपस्थाना, अभिक्रान्ता, अनभिक्रान्ता, वा, महावा, सावद्या, महासावद्या, अरूपक्रिया च / साम्प्रतमेतासामेव कालातिक्रान्तादीनां व्याख्यानमभिधित्सुराह Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसतिदोषप्रायश्चित्तम् . उडुवासा समईआ कालाइक्कंत सा भवे सिज्जा। सा चेव उवट्ठाणा दुगुणादुगुणं अवज्जित्ता॥ व्याख्या-ऋतुबद्धकाले वर्षाकाले च यत्र स्थितास्तस्यामृतुबद्धे काले मासे पूर्ण, वर्षाकाले च चतुर्मासे पूर्ण यदि साधवस्तिष्ठन्ति तदा सा वसतिः कालातिक्रान्ता भवेत् / यस्यां वसतौ ऋतुबद्ध मासं, वर्षाकाले चतुर्मासं च स्थिता यदि तस्यामृतुबद्धवर्षाकालसम्बन्धिकालमर्यादां द्विगुणां द्विगुणामवर्जयित्वा भूयः समागत्य तिष्ठन्ति तदा सैव वसतिरुपस्थाना / किमुक्तं भवति-ऋतुबद्धे काले द्वौ मासौ, वर्षासु अष्टमासानपरिहृत्य यदि पुनरागच्छन्ति यस्यां वसतो ततः सा उपस्थाना भवति / अन्ये पुनरिदमाचक्षते-यस्यां वसतौ वर्षावासं स्थितास्तस्यां द्वौ वर्षारात्रावन्यत्र कृत्वा यदि समागच्छन्ति ततः सा उपस्थाना न भवति, अर्वाक् तिष्ठतां पुनरुपस्थाना / जावंतिअ वसही तेहिं भुत्त अभिक्कत इअरणभिक्कंता / वज्जा सगिहं दाउं सट्टाए अन्नगिहकरणे // व्याख्या-या शय्यो आचण्डालेभ्यो यावन्तिकी सा यदाऽन्यैश्चरकादिभिः पाखण्डस्थैर्गहस्थैर्वा निषेविता पश्चात् संयतास्तिष्ठन्ति तदा सा अभिक्रान्ता / सा एव यावन्तिकी अन्यैः पाखण्डस्थैर्गहस्थैर्वाऽपरिभुक्ता तस्यां यदि संयताः प्रविशन्ति ततः सा अनभिक्रान्ता / स्वगृहं यतिभ्यो दत्त्वा स्वार्थमन्यगृहकरणे वा भवति / आत्मार्थे पूर्वकृतं गृहं साधुभ्यः प्रदत्तं ततः स्ववसनार्थमन्यन्नवीनं गृहं यदि गृहस्थः करोति, तदा यत् साधुप्रदत्तं गृहं सा वसतिः वा प्रोच्यते इत्यर्थः / पासंडिअट्ठविहिआ महवज्जा समणअट्ठ सावज्जा / महसावज्ज जइट्ठा चरिमा अत्तट्टकडसुद्धा // 185 / / ख्याख्या-बहूनां श्रमणब्राह्मणप्रभृतीनां पाखण्डिनामर्थाय या विहिता वसतिः सा महावा / श्रमणार्थाय-पञ्चानां श्रमणानामर्थाय या कृता सा सावद्या / ते चामी-'निग्गंथसकतावसगेरुअ आजीवि पंच महासमणा' निग्रन्थाः-साधवः क्षपणका वा, शाक्या-रक्तपटाः, तापसा-वनवासिनः, गैरुकाःपरिव्राजकाः, आजीवका-गोसालकशैक्षाः पाण्डुरभिक्षवो वा / या पुनरमीषामेव-यतीनामर्थाय कृता सा महासावद्या / या पुनरात्मार्थं कृता शुद्धा च कोलातिक्रान्तादिदोषरहिता परिकर्मविप्रमुक्ता सर्वस्यापि परिकर्मणः स्वत एवाग्रे प्रवर्तितत्वात् सा वसतिश्चरमा-अल्पक्रिया वेदितव्या / अर्थतासु वसतिषु तिष्ठतः प्रायश्चित्तमोहकालाइआइ लहुगो उवठाणाईसु चउसु चउलहुगा / महावज्जाइसु गुरुगा अप्पकिरिआइ सुद्धो उ / व्याख्या-कालातिक्रान्तायां वसतौ तिष्ठतो लघुको मांसो भवति-ऋतुबद्धे काले कालातिक्रान्तं तिष्ठतो मासलघु / वर्षाकाले चत्वारो लघवो भवन्तीत्यर्थः / उपस्थानादिषु चतसृषु-उपस्थानायामभिकान्तायामनभिक्रान्तायां वायां चेत्यर्थः , तिष्ठतः प्रत्येकं चत्वारो लघुकाः। तथा महावादिषु तिसृषु-महावायां सावद्यायां महोसाक्द्यायां चेत्यर्थः, प्रत्येकं चत्वारो गुरवः / परं तपःकालविशेषि Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे तास्तद्यथा-महावायां चत्वारो गुरुकास्तपोलघवः / सावद्यायां तपोगुरवः / महासावद्यायां तपसा कालेन च गुरवः / अल्पक्रियायां तु वसतौ तिष्ठन् शुद्धः / प्रायश्चित्तभाग न भवतीत्यर्थः / आसां च नवानां शय्यानां मध्ये पूर्वस्याः पूर्वस्या अनुज्ञा वेदितव्या। किमुक्तं भवति-नवानां शय्यानां मध्ये या पूर्वाऽल्पक्रिया सा तावत् प्रथममनुज्ञाता, लेशतोऽपि सोवद्याभावात् / तस्या अभावे शेषाणां मध्ये कालातिक्रान्ता या पूर्वा सा अनुज्ञाता / अल्पक्रियाया अलाभे सा आश्रयणीयेति भावः / तस्या अप्लाभे शेषाणां पूर्वा उपस्थाना सा अनुज्ञाता / एवं या या पूर्वी सा सा अनुज्ञाता / तावद्वक्तव्या यावत सावद्या महासावद्यायाः पूर्वा सा अनुज्ञाता। एवं पूर्वस्याः पूर्वस्या अलाभे उत्तरस्या उत्तरस्या अनुज्ञा वेदितव्या / अथ विशेषतः सजलवसतिविषयं प्रायश्चित्तमाह सिअउसिणोदगफासुअअफासु चउभंगि सदगसिज्जाए। ठंतस्स पढमतइए लहुगो लहुगा बिअचउत्थे // व्याख्या-शीतमुष्णं चोदकं प्रासुकमप्रासुकं च / अत्र चतुर्भङ्गी भवति / तद्यथा-शीतोदकं प्रासुकं. शीतोदकमप्रासुकम् , उष्णोदकं प्रासुकम् , उष्णोदकमप्रासुकम् / तत्र प्रथमभङ्गे उष्णोदकमेव शोतीभतं तन्दलधावनादिकं वा, द्वितीयभने शीतोदकमेव स्वभावस्थं, तृतीयभङ्ग उष्णोदकमदवृत्तत्रिदण्डं. चतर्थभले तापोदकादिकं मन्तव्यम / एवं चतविधोदकेन सहिता या शय्या तस्यां तिष्ठतः साधोः प्रथमे तृतीये च भङ्ग लघुको मासो भवति / द्वितीय-चतुर्थे पुनर्लघुकाश्चत्वारो भवन्ति / एवं गुडमोदकशष्कुलिकाक्षीरदधिनवनोतसर्पिस्तैललपनश्रीशिखरिणीप्रभृतिविविधाहारप्रतिबद्धवसतौ तिष्ठतश्चतुर्लघवो भवन्ति / अथापरवसत्यलाभे आधाकर्मिकस्त्रीसंसक्तवसत्योर्मध्ये कस्यां वस्तव्यमितिविचारं दर्शयति - एगा कम्मिअ वसही थीसंसत्ता इअरा दुसुवि गुरुगा। कारणि कम्मिअवसहीइ वसणमुचिअंन इअरीए // व्याख्या-एका वसतिः कार्मिकी-ओधाकर्मदोषदुष्टा मूलगुणरशुद्धत्यर्थः / इतरा-द्वितीया पुनर्मूलगुणः शुद्धा परं स्त्रीसंसक्ता-स्त्रीप्रतिबद्धा द्वयोरपि वसयोः स्थितौ चत्वारो गुरुगा इति प्रायश्चित्तं समानमेव / तथापि तयोर्मध्ये कार्मिकवसतौ कारणे-अपरनिर्दोषवसत्यलाभादिके पुष्टालम्बने वसनमवस्थानमुचितं, न पुनरितरस्यां स्त्रीसंसक्तवसतौ / कुत ? इत्याहुःजं एगकम्मदोसो कम्मिअवसहिवसणे गुरुस्सेव / इअरीए सव्वेसि भुत्ताभुत्ताणं बहु दोसा // 189 // व्याख्या-यद्-यस्मात् कारणात् कार्मिकवसतिवसने-आधाकर्मदोषदूषितायां वमताववस्थाने क्रियमाणे गुरोरेवाचार्यस्यैव, न शेषाणामेकः कर्मदोष-आधाकर्मलक्षणो दोषो भवति / इतरस्यां स्त्रीसंसक्तवसतौ पुनः सर्वेषां साधूनां भुक्तभोगानामभुक्तभोगानां च बहवो दोषाः प्रादुःष्यन्ति / तथाहि-भुक्तभोगानां स्मृतिकरणम् अभुक्तभोगानां कौतुकं भवति / तत उन्निष्क्रामणादयो दोषाः / गृहिणां च शङ्का जायते / एते अत्र स्थिता नूनं प्रतिसेवन्त इति लोके च परिवादो भवति-साधु तपोवने वसतीति / अथवा यदि स्त्रीसंसक्ता वसतिः पुरुषाकीर्णा पुरुषोश्च सुशीलाः स्त्रियोऽपि शीलवत्यः भीतपरिषदश्च ते पुरुषाः / यद्वा-ताः स्त्रियो बाला अतीववृद्धा वा तरुण्यो वो तेषां साधूनां नालबद्धा अगम्याः तदा Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्रविषयं प्रायश्चित्तम् आधाकर्मिकवसतिः परित्यज्यते / यतः साधुभिः सर्वत्र यथा बहुतरगुणप्राप्तिः स्यात् तथा प्रवर्तितव्यम् / यदागमःजम्हा सव्वाणुना सव्वनिसेहो अ नत्थि समयंमि / आयं वयं तुलिज्जा लाहाकंखी व वाणिअओ' // अथ वसतिप्रमार्जनविधिमाहउडुवसहि दो पमजण तइअं वासासु अन्नहा लहुगो / वसहि बहुसो पमज्जणि अइसंघट्टन्नहिं गच्छे / / व्याख्या- यत्राऽपि बसतिस्रससंसक्ता न भवति / तत्रापि वसतेरष्टसु ऋतुबद्धमासेषु द्वे प्रमार्जने कर्तव्ये / तद्यथा-पूर्वाहणे अपराहणे च / वर्षासु पुनस्तृतीयं प्रमार्जनं मध्याह्ने विधेयम् / अन्यथा यथोक्तप्रमार्जनाकरणे लघुको मासः प्रायश्चित्तं भवति / अथ कुन्थुप्रभृतिमिस्त्रसप्राणैः संसक्तावसतिस्तत ऋतुबद्धे वर्षामासे च यथोक्तप्रमाणादतिरिक्तमपि बहुशः प्रमार्जनं कुर्यात् / अथ वसतेर्बहुशः प्रमार्जने त्रसपाणानामतोव सङ्घट्टो भवति अतिबहवो वा त्रसास्ततोऽन्यत्र उपाश्रये ग्रामे वा गच्छेयुः / अथ वसतेरेकदेशे पिपीलिकामत्कोटकादिनगरम् अन्यतरप्राणिसन्तानो वा भवति / तत्राऽयं विधिः-कुटकण्ठ तत्र स्थापयन्ति क्षारेण वोपलक्षितं कृत्वा परिहरन्ति / अनुपयुक्ततया गच्छन् साधून शैक्षम् अयोगोलकल्पानपरान् वा नोदयन्ति / एवं वसतिविषयं प्रायश्चित्तं प्रदर्शितम् / अथ वस्त्रमपि मूलोत्तरगुणदुष्टं न ग्राह्यं तद्ग्रहणे प्रायश्चित्तमभिधित्सुराहतणवितणसंजयट्ठा मूलत्तरपमज्जणाइ चउभंगे / गुरुगा गुरुगा लहुगा विसेसिआ चरिमओ सुद्धो॥ व्याख्या- इह संयतार्थ वस्त्रनिष्पत्तिहेतोः यत् तनन-तानपरिकर्म वितननं च वानपरिकर्म क्रियते / एतौ मूलगुणौ / यद् वस्त्रं निष्पन्नं सन् खलिकां पाय्यते तत् पायनं, तदादय आदिशब्दाजलप्रक्षेपधावनधूपनादयो गृह्यन्ते एते उत्तरगुणा वस्त्रस्य / अत्र चतुर्भङ्गी भवति / तननवितनने संयतार्थं पायनमपि संयतार्थ, तननवितनने संयतार्थं पायनं स्वार्थ, तननवितनने स्वार्थं पायनं संयतार्थं, तननवितनने स्वार्थं पायनमपि स्वार्थम् / अत्रायेषु त्रिषु भङ्गेषु गुरुका गुरुका लघुकाश्च तपःकालाभ्यां विशेषिताः प्रायश्चित्तम् / तद्यथाप्रथमे भङ्ग चत्वारो गुरवः तपसा कालेन च गुरवः। द्वितीयेऽपि चतुर्गुरुकास्तपसा गुरवः कालेन लघवः / तृतोये चत्वारो लघुकाः कालेन गुरवस्तपसा लघवः / चरमः-चतुर्थो भङ्गो द्वयोरपि मूलोत्तरगुणयोः स्वार्थत्वात् शुद्धो निर्दोषः / पुनर्वस्त्रविषयमेव प्रायश्चित्तमाहलहुग समणद्वधोए वत्थेणत्तट्टिए अ पक्खित्ते / निक्खित्तु छिन्नकालं सुज्झइ अवहीसमत्तिदिणे // 192 // व्याख्या-श्रमणानां संयतानोमर्थाय यद्वस्त्रं धौत-प्रक्षालितं तस्मिन् गृहीते लघुकाश्चत्वारो भवन्ति / ऋणात्तस्य यद्वस्त्रं स्थितं स्यात् तस्मिँश्च वस्ने गृहीते चतुर्लघुकाः / अथवा अनात्मस्थिते परगृहे स्थापिते एवं रूपे प्रक्षिप्ते-प्रक्षेपकदोषदुष्टे वस्त्रे गृहीते चतुर्लघुकाः / ‘णत्तट्टिए' इति पदस्यार्थोऽन्यथाप्यभ्यूह्यः / ननु प्रक्षेपकदोषः कथं स्यात् ? उच्यते-ये श्रमणश्रमणीजना लिङ्गमात्रधारिणस्ते उद्गमादि Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 यति-जोतकल्पे भिर्दो पैरशुद्धानि वस्त्राणि गृह्णन्ति. स्वयमेव वा तन्तुवायैर्वाययन्ति, लिङ्गतः प्रवचनतोऽपि साधर्मिकाश्च ते इति तेषां वस्त्राण्यकल्पनीयानीति हेतोः साधवो न गृह्णन्ति / ततस्ते लिङ्गस्थाः संविग्नबहुमानिनः सन्तो वस्त्राण्यन्यत्र यथाभद्रककुलादौ प्रक्षिपेयुः। यदि साधवो वस्त्राणि गवेषयेयुस्तदा प्रदश्वमितिकृत्वा / तथा श्रावकाः श्राविकाः साधुस्वजना वा अस्मद्गृहे उद्गमदोषाशङ्कया साधवो न गृह्णीयरित्यन्यत्र स्थापयेयुः / तथा ऋद्धिमतः श्रेष्ठिसार्थवाहादेर्गृहे यतस्ततः प्रवेशो न लभ्यते, तस्य च पत्नी श्राविका सा भक्तिवशादन्यत्र प्रक्षिपेद् वस्त्राणि / यद्वा-ऋद्धिमान् पाखण्डिनां श्रमणानां वा पुण्यार्थं वस्त्राणि दद्यात् / तत्र साधवो निमन्त्रिता अप्युद्गमाशङ्कातो न गृह्णन्ति, तेन सोऽपि दानश्रद्धालुस्तथैवान्यत्र प्रक्षिपेत् / एवं मामकस्यापि प्रान्तत्वेने र्ष्यालुत्वेन वा कम्यापि स्वगृहे प्रवेशं न ददात्येवं लक्षणस्य भार्या श्राद्धिका भक्तिभरप्रेरितो सती तथैवाऽन्यस्मिन् गृहे स्थापयेत् / राजपिण्डविवर्जिनः साधवो राजसत्कवस्त्राणि नाददीरन् , ततो राजाऽपि दानश्रद्धालुतयाऽन्यत्र प्रक्षिपेत् / स्तेनस्यापि वस्त्रं साधवो न गृह्णन्ति, ततः सोऽपि संयतभद्रको मदीयं न स्वीकुर्वन्ति इत्यन्यत्र प्रक्षिपेत् / एवं साधूनामर्थाय यदन्यत्र वस्त्राणां प्रक्षेपणं स प्रक्षेपकदोषः। यत् पुनः प्रथमं स्वार्थ निक्षिप्य पश्चात् साधूनामनुज्ञायते स निक्षेपकः / स च कालेन छिन्नो वा स्यादछिन्नो वा। छिन्नो नाम निर्धारितः / यदि वयं देशान्तरगताः सन्तः एतावतः कालार्वाक् न प्रत्यागच्छामस्ततो युष्माभिरमूनि वस्त्राणि श्रमणेभ्यः प्रदातव्यानीति / अच्छिन्नः पुनः प्रतिनियतकालविवक्षारहितः / तत्र यन्निक्षिप्तं-निक्षेपके स्थापितं वस्त्रं छिन्नकालं-प्रतिनियतकालावधिकं कृतं स्यात् तदवधिसमाप्तिदिनेअस्मिन् दिनेऽवधिः पूर्णो भवति तस्मिन् दिने शुद्धयति-कल्पते, न परतः स्थापनादोषसद्भावात् अच्छिन्ने पुनर्यदा प्रयच्छन्ति तदा कल्पते / अथाजनादिदूषितमध्यमादिभागवस्त्रग्रहणविषयं प्रायश्चित्तं शेषदोषातिदेशं चाह आसुररक्वसभागे गुरुगंजणमाइसिए वत्थे / पिंडम्मि व वत्थम्मि वि पच्छित्तं सेसदोसेसु // 193 // व्याख्या-इह यद्वस्त्रं प्रथमं लभ्यमानं भवति, तस्य प्रथमतस्त्रयो भागाः कल्प्यन्ते / भूयोऽप्येकैको भागस्त्रिधा विभज्यते / एवं नवभागीकृते वस्त्रे ये चत्वारः कोणकास्ते देवसम्बन्धिनो भागाः / यो द्वावञ्चलमध्यभागौ तौ मनुष्यसम्बन्धिनौ / यौ च द्वौ भागौ कर्णपट्टिकामध्यलक्षणौ तावसुरसम्बम्धिनौ। सर्वमध्यगतः पुनरेको भागो राक्षससत्कः / यदुक्तं'चउरो अ दिग्विआ भागा दुवे भागा य माणुसा / आसुरा य दुवे भागो मज्झे वत्थरस रक्खसो' / एतेषु च नवसु भागेषु अजनख जनकर्दमैः खरण्टितेषु मूषककंसारिकादिभिर्भक्षितेषु अग्निना दग्धेषु तुन्नितेषु रजककुट्टनेन पतितछिद्रेषु जोर्णेषु कुत्सिप्तवर्णान्तरसंयुक्तेषु फलमिदमवबोद्धव्यम् / 'दिव्वेसु उत्तमो लाभो माणुसेसु अ मज्झिमो / आसुरेसु अ गेलन्न मज्झे मरणमाइसे' / / ततो यौ द्वावासुरौ भोगौ यश्चैको राक्षसो भागः / एतेषु त्रिषु भागेषु यद्वस्त्रमञ्जनादिभिरादिशब्दात खजनकर्दममूषकाग्न्यादिभिर्दूषितं भवति, तस्मिन् वस्त्रे गृह्यमाणे गुरुकाश्चत्वारो भवन्ति / आत्मविरां. धनासद्भावात् आज्ञा च भगवतां विराधिता भवति / अतो यद्वस्त्रं निर्दोष लक्षणोपेतं च स्यात्-तत्साधुभिः Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्र विषयं प्रायश्चित्तम् 101 संयमनिर्वाह निमित्तं ग्राह्यं न पुनः कृत्स्नं वस्त्रं / तच्च चतुर्धा-द्रव्यकृत्स्नं, क्षेत्रकृत्स्नं, कालकृत्स्नं भावकृत्स्नं च / तत्र यत्सदशं प्रमाणातिरिक्तं वा वस्त्रं तद्रव्यकृत्स्नम् / यद्वस्त्रं यत्र क्षेत्रे दुर्लभं बहुमूल्यं वा तत्तत्र क्षेत्र कृत्स्नम् / यद्वस्त्रं यस्मिन् काले अर्थितं दुर्लभं वा तत्तस्मिन् काले कालकृत्स्नं, यथा ग्रीष्मे काषायवस्त्रं शिशिरे प्रावार दि. वर्षासु कुङ्कुमादिखचितम् / भावकृत्स्नं द्विधा-वर्णतो मूल्यतश्च / वर्णतः पञ्चविधं वर्णाढयं यथो-कृष्णं मयूरग्रोवासन्निभं, नीलं शुकपिच्छसन्निभं, रक्तम् इन्द्रगोपकसन्निभं, पीतं सुवर्णच्छवि, शुक्लं शङखेन्दुसन्निभं तदेवंविधं वर्णकृत्स्नम् / द्रव्यादिकृत्स्ने वर्णकृत्स्ने चोत्कृष्टे चतुर्लघु, मध्यमे मासलघु, जघन्ये पञ्चकम् / मूल्यकृत्स्नं पुनत्रिविधं-जघन्यं मध्यमम् उत्कृष्टं च / तत्र यस्याष्टादश रूपका मूल्यं तज्जघन्य, लक्षरूपकमूल्यमुत्कृष्टं, शेषं मध्यमम् / रूपकप्रमाणं चेदं-द्वीपसत्करूपकाद्वकेनोत्तपरापथरूपक एकः स्यात् तद्द्येन चकः पाटलिपुत्रीयो रूपकः / अथवा दक्षिणापथरूपकद्वयेन काश्चिपुरीयरूपक एकः स्यात् तवयेन च पाटलिपुत्रीय एकः एवंविधो रूपकोऽत्रोवगन्तव्यः / 18 रूपके मूल्ये वस्त्रे लघुमासः , 20 रूपके चतुर्लघु. 100 रूपके चतुर्गुरु, 250 रूपके षड्लघु. 500 रूपके षड़गुरु, सहस्ररूपके छेदः, दशसहस्ररूपके मलं, पञ्चाशतसहस्ररूपकमूल्ये अनवस्थाप्यं, लक्षरूपकमूल्ये पाराश्चितम् / पात्रे पुनरेकादित्रिपर्यन्तकार्षापगमूल्ये लघुमासः, चतुराद्यष्टादशपर्यन्तकार्षापणमूल्ये गुरुमासः / अग्रतो मूल्यवृद्धौ प्रायश्चित्तवृद्धिर्वस्त्रवत् पात्रेऽप्यवसेया / कृत्स्नवस्त्रबहुमूल्यपात्रग्रहणे च चौराद्यनर्थः / इत्थ दिद्वतो-एगो राया आयरिओण उवममइ सो सव्वं गच्छं कंबलरयणेहिं पडिलाभिउं उबढिओ। आयरिएहि निसिद्धो-न वट्टइत्ति / अतिनिबंधा एगं गहिअं / भणाति-पाउएणं हट्टमग्गेणं गच्छह तहा कयं / तेणगेण दिवा / राति आगंतु तेणगेणं भणिअं-जइ न देह वत्थं रायदि तो भे सिरच्छेअं करेमि। आयरिएहिं भणिअं-खंडिअं, दंसेह ? दंसिअं, रुढो भणेति-सिव्विउं देह अन्नहा भे मारेमि / तं च सिव्विउं दिण्णं / एवमनेकदोषाः स्वयं ज्ञेयाः। तथा वस्त्रं साधुभिः साधूचितव्यापारविधिना व्यापार्यं न तु शोर्षावरणाद्यविधिना / यदुक्तं 'भिक्खविआरविहारे दूइज्जतो व गाममणुगामं / सीसदुवारं भिक्खू जो कुज्जा आणमाइणि ' / / शीर्षावरणे चोपकरणभोगविपर्यासः , विपर्यासभोगे चेमे प्रकाराः प्रायश्चित्तं च / खंधे दुवारसंजइगरुलद्धंसो अ पट्टलिंगदुगे / लहुगो लहुगो लहुगा तिसु चउगुरु दोसमूलं तु ' / चतुष्फलं मुत्कलं वा वस्त्रं स्कन्धे करोति / दुवार इति सीसदुवारिआ-शीर्षावरणं करोति द्वे अपि बाहे छादयन् संयतीप्रावरणेन प्रावृणोति / एकत उभयतो वा स्कन्धारोपितकल्पाञ्चलकरणेन गरुडपक्षं प्रावृणोति / अख़्स-उत्तरासङ्गः, 'पट्ट' इति चोलपट्टे बध्नाति / लिङ्गद्विकं-गृहलिङ्गमन्यतीर्थिकलिङ्गं वा करोति / एतेष्वष्टसु विपर्यासोपकरणभोगप्रकारेषु यथासङ्ख्यं पश्चाहॊक्तं प्रायश्चित्तमवसेयम् / शीर्षावरणे च त्रिधा छत्रकं भवति / उक्तं च-चउफलपुत्ती सीसे वहुपावरणाउ बिइअगं छत्तं / हत्थुक्खित्तं वत्थं तइअं छत्तं च पिच्छाइ'।। चतुष्फलं कल्प शिरसि करोति, वधूप्रावरणं नाम अङ्गष्टिं करोति / एतद्वितीयं छत्रकं / हस्तोत्क्षिप्तं दण्डके वा कृत्वा धरति इदं तृतीयं छत्रकम् / अथवा द्वे पूर्वोक्ते, तृतीयं पिच्छादि छत्रकं धरति / कारणे पुनः शीर्षावरणं कुर्यात् / उत्तं च Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 यति-जीतकल्पे 'बिइअपदं गेलन्ने असहू सागोरसेहमाईसु अद्धाणतेणएसु अ संजयपंतेसु जयणाए" || ग्लान उष्णं न सहते कर्णा वा तस्य वातेन भ्रियन्ते / राजादिर्दीक्षितो वा असहो धारयति / शैक्षस्य वा सागारिकमिति कृत्वा अङ्गुष्टिं करोति / आदिशब्दादशैक्षोऽपि प्रत्यनीकादन्यस्माद्वा शङ्कमानो जात्यादिजुङ्गितो वा करोति / अध्वनि वा उष्णं न सहते, तृषितो वा संयतप्रान्तेषु वा स्तेनेष्वगुष्टिं करोति / -- जयणाए 'त्ति / यदि स्वलिङ्गोपधिना शीर्षावरणे कृते ज्ञायते तदा गृहिकाषायादिवस्त्रं गृहीत्वा करोति / एवं यथा न ज्ञायते तथा तथा करोति / एषा यतना। तथा पिण्डवत् वस्त्रेऽपि शेषदोषेषु प्रायश्चित्तं प्रतिपत्तव्यम् / अयमर्थः-यथा पिण्डविषयेषु उद्गमोत्पादनैषणासंयोजनालक्षणेषु दोषेषु पूर्व प्रायश्चित्तं प्रदर्शित तथा वस्त्रविषयेष्वपि शेषेषु-उस्तेभ्योऽवशिष्टेषु उद्गमोत्पादनेषणासंयोजनारूपेषु दोषेषु प्रायश्चित्तमवगन्तव्यम् / अथ वस्त्राऽप्रतिलेखनाविषयं प्रायश्चित्तमाहलहुगा गुरुगो लहुगो उक्कोसादुवहि अपडिलेहाए / दोसेहि उपेहंते कमेण लहुमिन्नपणगाई // 194 // व्याख्या-उत्कृष्टाधुपधीनामप्रतिलेखनायां क्रमेण लघुका गुरुको लघुकश्च प्रायश्चित्तं भवति / उत्कृष्टमुपधिं न प्रत्युपेक्षते चत्वारो लघुकाः , मध्यमं न प्रत्युपेक्षते गुरुमासः, जघन्यं न प्रत्युपेक्षते लघुमास इत्यर्थः / कल्पव्यवहारयोस्तु मध्यमे लघुमासः। जघन्ये पञ्चकम् / अथारभटासम्मामोसलीप्रभृतिभिदापर्दुष्टं प्रत्युपेक्षते ततः क्रमेणोत्कृष्टे घुमासः, मध्यमे भिन्नमासः, जघन्ये रात्रिदिवपञ्चकम् / उपधेरप्रतिलेखने चाऽऽज्ञाभङ्गादयो दोषाः / इमे च संयमदोषाः- अप्रतिलेखिते लूतापूटकं सम्बध्यते / पनको भवति / गृहकोकिला प्रसूते / हृतं नष्टं वाऽस्मारितं भवति / ग्रीष्मे घृश्चिकसर्पादयः प्रविशन्त्यप्रतिलेखिते तैरात्मविराधना भवति / भ्रमरी वा गृहं कुर्यात् / यस्मादेते दोषाः तस्मात् सर्वो. पधिर्द्विसन्ध्यं प्रतिलेखनीयः / कारणेषु पुनरप्रतिलेखनेऽपि न दोषः / तानि चेमानि * असिवे ओमोदरिए गेलन्नद्धाण संभमभए वा / तेणपउरसागारे संजमहेउं च बिइअपयं' // अशिवगृहीतो न शक्नोति प्रतिलेखनां कर्तुं तत्प्रतिचारको वा व्याकुलत्वात् / अवमे प्रगे एवारब्धा हिण्डितुं प्रतिलेखनाया नास्ति कालः, ग्लानो न शक्नोति, एकाकी अध्वनि सार्थवशी न प्रत्युपेक्षते, अग्न्यादिसम्भ्रमे वा बोधिकादिभये वा स्तेने वा प्रचुरे सारोपधिं मो पश्यत्विति न प्रत्युपेक्षते / सागारिके वा कृत्स्नोपधिं न प्रत्युपेक्षते / संयमहेतोर्वा महिकाभिन्नवर्षसचित्तरजस्सु द्वितीयपदेनाऽप्रतिलेखयन्नपि शुद्धः / प्रत्युपेक्षणा चाऽन्यूनाधिका क्रमेण कर्त्तव्या / तत्र षट् पुरिमा नव खोटका नव प्रमाजेनाश्च भवन्ति / ततो यदि न्यूना अधिका वो क्रियन्ते ततोऽशुद्धा / वेलायां च न्यूनायामधिकायां वा क्रियते ततोऽप्यशुद्धा / अतो वेलायामेव विधेया प्रत्युपेक्षणा / वेला च प्रातस्तदा स्याद् यदा आवश्यकानन्तरं मुखवस्त्रिका-रजोहरण-निषद्याद्वय-चोलपट्ट-कल्पत्रय-संस्तारको-त्तरपट्ट-दण्डकेषु एतेष्वेकादशसूप करणेषु प्रतिलेखितेषु सूर्य उदेति / क्रमश्वायं-प्रातः प्रतिलेखनायां पूर्व मुखवस्त्रिका ततो रजोहरण ततोऽन्तर्निषद्या ततो बाह्यनिषद्या, चोलपट्टः, कल्पत्रयम् , उत्त पट्टः, संस्तारकपट्टः, दण्डकश्च / एष क्रमोऽन्यथा उत्क्रमः / पुरुषेषु पुनरयं क्रमः-पूर्वमाचार्यस्य पश्चात् परिज्ञावतस्ततो ग्लानशक्षादीनाम् / अन्यथा उत्क्रमः। उत्क्रमे च उत्कृष्टमध्यमजघन्योपधिषु क्रमेण चतुर्लघु-लघुमान-पञ्च Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधिविषयं प्रायश्चित्तम् 203 कानि प्रायश्चित्तम् / प्रतिलेखनां च कुर्वता आरभटादयः षट् दोषास्त्याज्याः / तत्र यद्विपरीतं करणं त्वरितमन्यान्यवनग्रहणं वा सा आरभटा 1, वस्त्रस्य मध्यप्रदेशे कोणाः संवलिता यत्र भवन्ति सा सम्मर्दा तत्रवोपधावुपवेश्य यत् प्रत्युपेक्षां करोति सा वा सम्म 2 यत्र प्रत्युपेक्षणे वस्त्रमूर्वं पीठिषु तिर्यक कुडये अधश्च भूमौ लगति सा मोसली 3, यथा गृहस्थो रेणुगुण्डितं वस्त्रं प्रस्फोट यति एवं यद्वस्त्रस्य प्राकोटनं सा प्रस्फोटना 4, वस्त्रं प्रतिलेख्य यदन्यत्र क्षिपति वस्त्राश्चलानां वा यदूर्ध्व क्षेपणं सा विक्षिप्ता 7 / वेदिका पञ्च प्रकारा / तद्यथा-ऊर्ध्ववेदिका. अधोवेदिका, तिर्यग्वेदिका, उभयतो वेदिका, एकतो वेदिका च / तत्रो_वेदिका-यदि जानुनोरुपरि हस्तौ च कृत्वा प्रतिलेखयति / अधोवेदिका-जानुनोरधो हस्तौ कृत्वा प्रत्युपेक्षते / तिग्वेदिका-सन्दशकमध्येन हस्तौ नीत्वा प्रतिलेखयति / उभयतो वेदिकाहस्तयोरन्तरे जानुद्वयं कृत्वा प्रतिलेखयति, एकतो वेदिका हस्तयोरन्तरे एक जानु कृत्वा प्रतिलेखयति 6 एते षटदोषाः / प्रतिलेखनाविधिस्तु सम्पूर्ण ओघनियुक्तितोऽवसेयः / तथा प्रत्युपेक्षमाणः षटसु कायेषु आत्मना प्रतिष्ठितः उपधिर्वा तेषु प्रतिष्ठित इत्यत्र चतुर्भङ्गी। तद्यथा-स्वयं कायेषु प्रतिष्ठितो नोपधिः. उपधिः प्रतिष्ठितो न स्वयं, स्वयमपि प्रतिष्ठित उपधिरपि प्रतिष्ठितः , स्वयमप्यप्रतिष्ठितः उपधिरप्यप्रतिष्ठितः / ते च षटकाया मिश्रा वा सचित्ता वा भवेयुस्तेषु च साधुरुपधिर्वा अनन्तरं परम्परं वा प्रतिष्ठितो भवेत् / अत्राऽऽद्यभङ्गत्रये स्वस्थानप्रायश्चित्तं प्रागुक्तं षट्कायविराधनाविषयं प्रायश्चित्तमिति भावः / चतुर्थो भङ्गो विशुद्धः / अथ द्वीन्द्रियादिवसानां शाल्यांदिवीजोनामस्थिरसंहननिनां रक्षार्थं कायेष्वपि पृथिव्यादिषु दृढसंहननिषु कारणतः प्रत्युपेक्षणा भवति न च प्राथश्चित्तम् / आह-तेषु प्रतिष्ठितः प्रत्युपेक्षणं कुर्वन् सङ्घट्टनादिबाधाविधानात् कथं न दोषभाग भवतीति ? उच्यते नदीहरणोपलक्षितं पुत्रज्ञातमत्र-यथा कश्चित् पुरुषः तस्य द्वौ पुत्रौ। तयोरेकः कृशो द्वितीयः स्थूलः / स चान्यदा ताभ्यां सहितः कश्चिद् ग्राम गच्छन् अपान्तराले एकामपारगभीरां नदीमवतीर्णवान् / स च नदीष्णतया सुखेनैव स्वयं तां तरीतुं शक्तः पुत्रौ तु न तरणकलाकुशलौ / ततः स यदि समर्थः तदा द्वावपि पुत्रावुत्तारयेत् . अथाऽसमर्थस्तर्हि यः कृशस्तं तारयति, लघुशरीरतया तस्य सुखेनैव तारणीयत्वात् / यस्तु स्थूलस्तमुपेक्षते, निजशरीरबहुभारेणात्मानं तं च नद्यां बोलयतीतिकृत्वा / एष दृष्टान्तः / अयमापनयः-पितृस्थानीयः साधुः / पुत्रद्वयस्थ नीयः स्थिराऽस्थिरसंहनिनः पृथिवीकायादयः / ततः साधुना प्रथमतो निर्विशेषं षडपि कायाः स्थिरसंहननिनोऽस्थिरसंहननिनोश्च रक्षणीयाः / अथाऽन्यतरेषां विराधनामन्तरेणाध्वगमनादिषु प्रयुपेक्षणादि न स्यात् ततः स्थिरसंहननिनां पृथिव्यादीनां विराधनामभ्युपेत्याप्यस्थिरसंहननिनस्त्रसादयो रक्षणी या इति / पुनरुपधिविषयमेव प्रायश्चित्तमाह तिविहोवहिणो विच्चुअ विस्सारिअ पेहिआ निवेइअए / ____ तह पाडिअ लद्धेवि हु मिन्नं लहु गुरु लहुग सव्वे // 195 / / व्याख्या-द्विविधाः साधवो-जिनकल्पिकाः स्थविरकल्पिकाश्च / उपधिरपि द्विविध औधिक औपग्रहिकश्च / इहायं प्रागुक्तोऽप्यनुस्मरणार्थमत्रापि लिख्यते'ओहेण जस्स गहणं भोगो पुण कारणे स ओहोही / जस्स य दुगंपि नियमा कारण सो उवग्गहिओ' / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 यति-जीतकल्पे जिनकल्पिकसाधूनां चोपोधरष्टधा / तद्यथा-द्विविधः, त्रिविधः, चतुविधः, पञ्चविधः , नवविधः, दशविधः, एकादशविधः, द्वादशविधश्चेत्यष्टौ भेदाः / एषां च मध्ये कोऽपि केषाश्चिजिनकल्पिकानां भवति / उक्तं च'बिअ-तिअ-चउक्क-पणगं नव-दस-इक्कारसेव बारसगं / एए अट्ट विगप्पा उवहिम्मि उ हुंति जिणकप्पे / / रयहरणं मुहपुत्ती दुविहो कप्पिकजुत्ततिविहो उ / रयहरणं मुहपुत्ती दुकप्प एसो चउद्धा उ॥ तिन्नेव य पच्छागा रयहरणं चेव मुहपुत्ती / पाणिपडिग्गहिआणं एसो उवही उ पंचविहो / / पत्तगधारीणं पुण नवाइभेआ हवंति नायव्वा / पुवुत्तोवहिजोगा जिणाण जा बारसुक्कोसा'। सप्तप्रकारपात्रोपधिधारिणां पूर्वोक्तद्वित्रिचतुष्पञ्चप्रकारोपधियोगान् नवदशैकादशद्वादशाख्या भेदाः क्रमेण ज्ञेयोः / 'पत्तं पत्ताबंधो पायठवणं च पायकेसरिआ / पडलाइं रयत्ताणं च गुच्छओ पायनिजोगो / / . तिन्नेव य पच्छागा रयहरणं चेव होइ मुहपुत्ती। एसो दुवालसविहो ओही जिणकप्पिआणं तु / / 'एए चेव दुवालस मत्तगमइरेगचोलपट्टो अ / एसो चउद्दसविहो ओही पुण थेरकप्पमि' / एष त्रिविधो जघन्य-मध्यमो-त्कृष्टभेदात् / तत्र मुखवत्रिका पात्रकेसरिका गुच्छकः पात्रस्थापनं चेतिचतुर्विधो जघन्यः, पटलानि रजत्राण पात्रकबन्धश्चोलपट्टको मात्रकं रजोहरण चेति षड्विधो मध्यमः, पतद्ग्रहः कल्पत्रयं चेति चतुर्विध उत्कृष्टः / जिनकल्पिकानां तूपधेर्जघन्यमध्यमोत्कृष्टता यथासम्भवं स्थाप्या / आर्यकाणां पुनरेवम् 'उक्कोसो अट्टविहो मज्झिमओ होइ तेरसविहो उ / तह चउव्विहो जहन्नो अजाणं पन्नवीसेव।। कप्पतिअ पडिग्गहगो अभिंतरबाहिरा निअंसणिआ संघाडिखंधकरणी उक्कोसो एस अट्टविहो / पत्ताबंधो पडला रयहरणं मत्तकमठरयताणं / उग्गहपट्टो अद्धोरुचलणिकंचुअओ कच्छिवेकच्छी। इअ एस तेरसविहो मज्झिमओ तयणु चउविहु जहन्नो / गुच्छगपत्तठवणं मुहणंतयपायकेसरिआ ' // 'कमठ' त्ति, साध्वीनामेकस्मिन् भाजने भोजनं न भवति किन्तु प्रत्येकं सर्वासां निजोदरमानं कमठकं भवति / अन्यथैकभाजनभोजने एकया गुरुकवलयोत्पाटनेऽन्यस्यो अप्रोतिसम्भवः स्यादिति / इदानीमौपग्रहिकोपधिस्त्रिधा ‘पीठनिसिज्जा दंडगपमजणं घट्टडगलपिप्पलगा। सूई नहहरणी दंतकन्नसोहणदुग जहन्नो / / पीठं-काष्ठमयासनं, निषीदन्त्वस्यामिति निषद्या-पादप्रोञ्छनं / दण्डकप्रमार्जनं येन वसतिः प्रमाज्यते / घट्टका-लिप्तपात्रघर्षणोपलाः / 'डगल' त्ति, लेष्टवो यैरपानं निर्लेप्यते / पिप्पलकः-क्षुरप्रः, सूची-यया सीव्यते, नखहरणी दन्तशोधनं-सिक्थाऽपनयनसिलाका कर्णशोधनं चेति जघन्यः / . वासत्ताणाईओ मज्झिमगो वासताण पंच इमे / वाले सुत्ते सूई कुडसीसगच्छत्तए. चेव // Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधिविषयं प्रायश्चित्तम् 105 तहिअं दुन्नि अ ओहोवहिमि वाले अ सुत्तिए चेव / सेस तिअ वासताणा पणगं तह चिलमिणीण इमं / / वालमई सुत्तमई वागमई तय दंडकडगमई / संथारगदुगमझुसिरझुसिरंपि य दंडपणगं च // ____दंडविदंडगलट्ठीविलट्ठि तह नालिया य पंचमिआ / अवलेहणि मत्ततिगं पासवणुच्चारखेले अ॥ चिंचिणि अत्थुर पाउर तलिग अहवावि चम्मतिविहमिमं / केत्तीतलिगवब्भा पट्टगद्गं चेव होइ मिमं / / संथारुत्तरपट्टो अहवा सन्नाहपट्ट पल्हत्थी / मझो अजाणं पुण अइरित्तो वारगो होइ' / आसा व्याख्यालेशः- 'वाल'त्ति, वाला-ऊर्णरूपास्तन्मयं कम्बलकमित्यर्थः / 'सुत्त'त्ति सूत्रमयं / सूई तालपत्रसूच्यादि खुम्पकः / कुडसीसगं-पलाशपत्रमयं खुम्पकं / छत्रकं वंशमयं / 'सेस तिअ वासताणा' और्णिकसौत्रिकादन्यद्वर्षास्पर्शनरक्षकं त्रयमौपग्रहिकम् / ‘अझुसिरझुसिरं' अशुषिरः संस्तारको बहुकाष्ठफलकमयः उत्तरत्रैकाङ्गिकभणनात् / शुषिरः तृणादिमयः / दंडेत्यादि / ‘लट्ठी आयपमाणा विलट्ठि चउरंगुलेण परिहीणा / दंडो बाहुपमाणो विदंडओ कक्खमित्तो उ' // सिरसो उवरिं चउरंगुलदीहा नालिआ होइ। अवलहिणी-वटोदुंबरप्लक्षाम्लिकाकाष्ठमयी यया पादयोः कर्दमोऽपवीयते / भणि च-पडउंबरे पिलक्खू तस्स अलाभम्मि चिंचिणिआ'। 'अत्थुर' त्ति, दावाग्न्यादिभये भूमावास्तीर्यते प्रलम्बादिविकरणाय च / 'पाउर' त्ति, षट्पदिकाभये यत् प्राप्रियते / तलिका-उपानहः / सन्नाहपट्टो विहारे उपवेः शरीरेण सह बन्धनार्थः। पल्हत्थी-योगपट्टः / 'वारओ' त्ति, ससागारिके साध्वीनां प्रस्रवणानन्तरमुदकस्पर्शनार्थं / नित्यं जनमध्य एव तासा. मुपाश्रयस्यानुज्ञातत्वात् / एष मध्यमौपग्रहिकः / 'अक्खा संथारो वा दुविहो एगंगिओ तदिअरो वा / बिइअपय पुत्थपणगं फलगं तह होइ उक्कोसो' / / अक्खा-अक्षा आचार्योपकरणम् / संस्तारको द्विविधः-एकाङ्गिकः तिनिसकाष्ठरूपः, तदितरो दवरकावबंद्धकम्बिकामयः / प्रथमपदमुत्सर्गः तदपेक्षया द्वितीयपदमपवादः / तत्र पुस्तकपञ्चकम् अग्रे वक्ष्यमाणस्वरूपम् / फलकं-पट्टिका यस्यां लिखित्वा पठ्यते / एष उत्कृष्टौपग्रहिकः / अयं साधूनां साध्वीनां च त्रिविधोऽप्यौपग्रहिकः / एतस्य चौधिकौपग्रहिकोपधेत्रिविधस्यापि मध्यात् 'विच्चुअ 'त्ति पदं सूत्रकारेणैव ' तह पाडिअलद्धे विहु' इत्यनेन पदेन व्याख्यातम् / ततो विच्युतं नामाऽनाभोगेन पातितं ततः पुनर्लब्धं ततश्च जघन्ये उपधौ पातितलब्धे भिन्नमासः / मध्यमे पातितलब्धे लघुमासः / उत्कृष्ट पातितलब्धे गुरुमासः / तथा विस्मारितप्रेक्षितानिवेदने / प्रेक्षितं-प्रतिलेखना / अयं भावःप्रति लेखनाया विस्मारणे विस्मार्य प्रतिलेखनां गुरूणामनिवेदने च जघन्यस्य मिन्नमासः / मध्यमस्य लघुमासः / उत्कृष्टस्य गुरुमासः / सर्वस्मिँश्चोपघौ पातितलब्धे विस्मारितप्रतिलेखने न प्रतिलिखित इति गुरूणामनिवेदिते च चतुर्लघु / इदं च मुखवस्त्रिकारजोहरणव्यतिरिक्तस्योपधेः पायश्चित्तं ज्ञेयम् / तयोः 'मुहणंतय ' त्ति गाथायां प्रायश्चित्तस्य वक्ष्यमाणत्वात् / हारिअधोउग्गमिआनिवेअणादिन्नभोगदाणेसु / तिविहोवहिम्मि गुरु लहुग गुरुग सव्वम्मि छल्लहुगा // 14 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 यति-जीतकल्पे व्याख्या-हारितधौतोद्गमितानिवेदनादत्तभोगदानेषु गुरुचतुर्लघुचतुर्गुरूणि भवन्ति / अयं भावः-हारिते-नाशिते, धौते-क्षालिते, उद्गमितानिवेदने-उद्गम्योत्पाद्योपधिं गुरोरनिवेदिते, अदत्तभोगे-गुर्वदत्तेऽपि परिमुक्ते, अदत्तदाने-गुर्वननुज्ञयाऽप्यन्यस्य दत्ते, त्रिविधोपधौ-जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदे यथाक्रमं प्रायश्चित्तमिदं यथा-जघन्ये उपधौ गुरुमासः / मध्यमे चतुर्लघु / उत्कृष्टे चतुगुरु / सर्वस्मिंस्तूपधौ हारिते, वर्षारम्भकालेऽपि धौते, उत्पाद्य गुरोरनिवेदिते, गुर्वदत्तेऽपि परिभुक्ते, गुर्वननुज्ञयाऽप्यन्यस्य दत्ते षड्लघुकाः प्रायश्चित्तम् / तथामुहणंतयरयहरणे फिडिअम्मि कमेण भिन्नचउगुरुगा / नासिअ हारविए वा जीएणं गुरुग छल्लहुगा // व्याख्या-'फिडिय' त्ति / 'स्फिटण' पदभ्रंशे विकल्पे ' नन्ताश्चुरादय' इतीन्प्रत्ययाभावे कर्तरि निष्ठाप्रत्यये च स्फिटित इतिरूपम् / अथ गाथार्थः-चतुर्दिशमात्मप्रमाणं क्षेत्रमवग्रहः , तस्मादवग्रहात् स्फिटिते-बहिर्भूते मुखानन्तके क्रमेण भिन्नमासः रजोहरणे चतुर्गुरुका इति जोतकल्पचूर्णौ / निशीथभाष्ये तु साधोः सकाशात् हस्तमात्रातिक्रमेऽपि रजोहरणस्योत्सङ्घट्टनोक्ता / परचक्रादिसम्पाते चकितत्वेन च नाशिते-पातिते निजप्रमादेन वा हारिते मुखानन्तके जीतव्यवहारेण चतुर्गुरु / रजोहरणे षड्लघु / अथ सामान्येनाऽप्रत्युपेक्षणाऽप्रमार्जनाविषयप्रायश्चित्तमाह अप्पेहऽपमज्जणि चउभंगे तुरिए दुपेहदुपमज्जे / / चउभंगी इअ सत्तसु तिसु लहु तिसु पण चरिम सुद्धो // 198 // व्याख्या- अप्रेक्षणं चक्षुषा, अप्रमार्जनं रजोहरणेन / तत्र चत्वारो भङ्गा भवन्ति / तद्यथादण्डकग्रहणे न प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयतीत्येको भङ्गः / न प्रत्युपेक्षते, प्रमार्जयतीति द्वितीयः / प्रत्युपेक्षते, न प्रमार्जयतीति तृतीयः / प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयतीति चतुर्थः / तत्र तुर्ये-चतुर्थे भने दुष्प्रेक्षणे दुष्प्रमार्जने चतुर्भङ्गी भवति / तथाहि-दुष्प्रत्युपेक्षते दुष्प्रमार्जयति, दुष्प्रत्युपेक्षते सुप्रमार्जयति, सुप्रत्युपेक्षते दुष्प्रमाजयति, सुप्रत्युपेक्षते सुप्रमार्जयति / इत्येवं सप्त भङ्गा भवन्ति / एतेषु च सप्तभङ्गेषु मध्ये त्रिषु आयेषु भङ्गेषु लघुमासः, शेषेषु त्रिषु रात्रिंदिवपञ्चकं प्रायश्चित्तं भवति / चरमे सप्तमे भङ्गे शुद्धो विधिना प्रवृत्तः / यथा दण्डकग्रहणे सप्त भङ्गा दर्शिताः / तथा दण्डकनिक्षेपेऽधस्तात् भूमेरुपरि च दण्डशिरःसम्पर्कविषयभित्तिप्रदेशे अप्रेक्षणाऽपमार्जनाविषयाः सप्त भङ्गा वाच्याः / षट्सु प्रायश्चित्तं पूर्ववत् / सप्तमस्तु शुद्धः / एवं परेषामप्युपकरणानां ग्रहणे निक्षेपणे च सप्त भङ्गाः प्रायश्चित्तं च तथैव / तथाअविधिना खेलमल्लके निष्ठीवने दण्डक इव सप्त भङ्गा दण्डक इवैव चाद्येषु त्रिषु प्रत्येकं लघुमासः / उत्तरेषु त्रिषु प्रत्येकं रात्रिंदिवपञ्चकं, सप्तमभङ्गवर्तिनस्त्वनिष्ठीवका एव विधिना निष्ठीवनात् / उपरित. नेष्वपि च त्रिषु भङ्गेषु यदि भूमौ निष्ठोव्यति तदा मासलघु / यच्च निष्ठीवने प्राणिनां परितापनाशुपजायते तन्निष्पन्नं च तस्य प्रायश्चित्तम् / एवमविधिना कण्डूयनेऽपि दण्डक इव सप्त भङ्गास्तथैव च प्रायश्चित्तविधिः / तथा वस्त्रादिकमातपात् छायायां, छायाया वा आतपे सङ्क्रामयन् न प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयतीत्यादयः पूर्ववत् सप्त भङ्गाः, पूर्ववदेव चायेषु षट्सु भङ्गेषु प्रायश्चित्तविधिः / सप्तमे तु भने Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रविषयं प्रायश्चित्तम् 107 शुद्धः / एवं मार्गे वजन् अस्थण्डिलात् स्थण्डिले स्थण्डिलाद्वा अस्थण्डिले / तथा-कृष्णभूमान् प्रदेशान्नीलभूमौ नीलभूमेर्वा कृष्णभूमिप्रदेशे / एवं शेषवर्णेष्वपि प्रत्येकं योजनीयम् / तथा-अध्वनो ग्रामप्रवेशे ग्रामाद्वा अध्वनि सङ्क्रामन् पादौ न प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयतीत्यादयो दण्डक इव प्रत्येकं सप्त भङ्गा दण्डक इवैव च षट्सु भङ्गषु प्रायश्चित्तं, सप्तमे तु शुद्धः / एवमन्यत्राप्यप्रतिलेखनाऽप्रमार्जनाविषयं प्रायश्चित्तमवगन्तव्यम् / एवं वस्त्रविषयं प्रायश्चित्तमभिधाय पात्रविषयं प्रायश्चित्तमभिधातुकामस्त्रिविधपात्रोत्क्रमग्रहणप्रायश्चित्तमाहतुंबयदारुअमट्टिअपायं उक्कोस मज्झिम जहन्नं / उप्परिवाडीगहणे चाउम्मासा भवे लहुगा // 199 // ____ व्याख्या-पात्रं त्रिविधं-तुम्बकमयं दारुमयं मृत्तिकामयम् / एकैकं त्रिविधम्-उत्कृष्टं मध्यम जघन्यम् / उत्कृष्टं पतद्ग्रहो, मध्यम मात्रकं, जघन्यं टोप्परिकादि / एकैकं पुननिधा-यथाकृतम् अल्पपरिकर्म बहुपरिकर्म च / तत्र यथाकृतं यत् पूर्वमेव कृतमुखं कृतलेपं तादृशं कुत्रिकापणे लभ्यते, निह्नवो वा प्रतिमाप्रतिनिवृत्तः श्रमणोपासको वा तादृशं ददाति / अर्धाङ्गलं यावद्यच्छेद्यं स्यात्तदल्पपरिकर्म / यद ङ्गलात् परतश्छेद्यं भवति तत् बहुपरिकर्म / एतेषां पात्राणामुत्परिपाटया-विपर्यासेन ग्रहणे चत्वारो मासा लघुका भवन्ति / उपलक्षणत्वाल्लघुमास-रात्रिंदिवपञ्चके अपि / इदमुक्तं भवति-उत्कृष्टस्य यथाकृतस्य पात्रस्योत्पादनाय निर्गतस्तस्य योग-त्रिःपर्यटनरूपमकृत्वाऽल्पपरिकर्मोत्कृष्टमेव गृह्णाति चतुर्लघु / सपरिकर्म वा प्रथमत एव गृह्णाति चतुर्लघु / यदा यथाकृतं, योगे कृतेऽपि न लभ्यते तदो अल्पपरिकम गवेषणीयम् / तस्योत्पादनाय निर्गतः प्रथमत एव सपरिकर्म गृह्णाति चतुर्लघु / इति त्रीणि चतुर्लघुकानि / एवं मध्यमस्यापि त्रिषु स्थानेषु त्रीणि मासिकानि, जघन्यस्य स्थानकत्रयेऽपि त्रीणि रात्रिंदिवपश्चकानि / यथा यथाकृतादिविपर्यस्तग्रहणे प्रायश्चित्तं तथोत्कृष्टादीनामपि परस्परं विपर्यस्तग्रहणे प्रायश्चित्तम् / तद्यथा-उत्कृष्टस्य प्रतिग्रहस्यार्थाय निर्गतो मध्यमं मात्रकं गृह्णाति मासिकम् / जघन्यं टोप्परिकादि गृह्णाति पञ्चकम् / मध्यमस्य निर्गत उत्कृष्टं गृह्णाति चतुर्लघु / जघन्यं गृह्णाति पञ्चकम् / जघन्यस्य निर्गत उत्कृष्टं गृह्णाति चतुर्लघु / मध्यमं गृह्णाति मासिकम् / अथ मूलोत्तरगुणदुष्टपात्रग्रहणप्रायश्चित्तमाहमुहकरणं मूलगुणा निकोरणमुत्तरे गुरुग मूले / उत्तरगुणि लहुग अकोरिए अ झुसिरत्तिऽवीए बि // व्याख्या-पात्रस्य यन्मुखकरणं तन्मूलगुणाः / यत् पुनर्मुखकरणानन्तरं तदभ्यन्तरवर्तिनो गिरस्योत्कीरणं तन्निकोरणमित्यभिधीयते तदुत्तरगुणाः / तत्र मूले-मूलगुणदुष्टे पात्रे गृहीते गुरुकाश्चत्वारो भवन्ति / उत्तरगुणे-उत्तरगुणदुष्टे पुनर्लघुकाश्चत्वारो भवन्ति / इदमुक्तं भवति-अत्र चतुर्भङ्गी-संयतार्थं कृतमुखं संयतार्थमेवोत्कीर्णमिति प्रथमो भङ्गः / संयतार्थ कृतमुखं स्वार्थमुत्कीर्णमिति द्वितोयः / स्वार्थ कृतमुखं संयतार्थमुत्कीर्णमिति तृतीयः / स्वार्थं कृतमुखं स्वार्थमेवोत्कीर्णमिति चतुर्थः / अत्र त्रिषु भङ्गेषु प्रायश्चित्तम् / तद्यथा-प्रथमे भङ्गे चत्वारो गुरुकाः तपसा कालेन च गुरवः। द्वितीयेऽपि चतुर्गुरुकाः तपसा गुरवः कालेन लघवः / तृतीये चतुर्लघुकाः कालेन गुरवस्तपसा लघवः / चतुर्थे भने शुद्धः / उभयस्यापि स्वार्थत्वात् / तथा अकोरितेऽनुत्कीर्णे भाजने अबीजेऽपि-बीजविरहितेऽपि गृहीते चतुर्लघुका भवन्ति / शुषिरमितिकृत्वा, शुषिरं हि दुनिरीक्षत्वेन दुष्प्रतिलेख्यं भवति / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 यति-जीतकल्पे अथ दग्धत्वादिदोषदूषितपात्रकग्रहणप्रायश्चित्तमाह -- अंतो बहिं च दद्धे पुष्कगभिन्ने अ चउगुरू हंति / अन्नह भिन्ने लहुगा हुंडाइसु सत्तसु वि लहुगो॥ व्याख्या-इह साधुना एवंविधलक्षणयुक्तं पात्रकं धारणीयं न तु निर्लक्षणम् / यदुक्तम्'वढे समचउरंसं होइ थिरं थावरं च धन्नड्ढे / हुंडं वायाइद्धं मिन्नं च अधारणिज्जाई' // वृत्तं-वर्तुलं तदपि समचतुरस्रम्-उच्छ्रयेण पृथुत्वेन च तुल्यं, स्थिरं-सुप्रतिष्ठानं दृढं वो, स्थावरमप्रातिहारिकं, वर्णाढय-स्निग्धवर्णोपेतम् / एवंविधं लक्षणयुक्तं पात्रं धार्यम् / तथा हुण्डं-विषमसंस्थितं यत समचतुरस्रं न भवति / वाताविद्धं यन्निष्पत्तिकालमन्तरेणाऽर्वागपि शुष्कम् / आतपसङ्कुचितं वलिभूतं च सञ्जातं / भिन्नं नाम सछिद्रं राजियुक्तं च / एवं शबलं-विचित्रवर्णं / दुष्पुतं पुष्पकमूलेन प्रतिष्ठितं यत् स्थाप्यमानमूर्ध्वं तिष्ठति, वालितं पुनः प्रलुठति / कीलकसंस्थानं कूपराकारं कीलकवद्दीधैं / पद्मोत्पलम्-अधः पद्मोत्पलाकारपुष्पकयुक्तम् / सव्रण-क्षतसहितं दग्धम्-अग्निना ध्यामितम् / एतान्यपलक्षणतया अधारणीयानि / यतः सलक्षणनिर्लक्षणपात्रकयोरिमे गुणदोषाः / / 'संठिअम्मि भवे लाभो पइट्ठा सुपइदिए / निव्वणे कित्तिमारुग्णं वन्नड्ढे नाणसंपया / / हुंडे चरित्तभेओ सबलम्मि अ चित्तविन्भमं जाण / दुप्पुए खोलसंठाणे नत्थि ठाणं ति निहिसे ' / गणे चरणे च स्थानं नास्ति / 'पउमुप्पले अ कुसलं सव्वणे वणमाइसे / अंतो बहिं च दड्ढे मरणं तत्थ निद्दिसे' // अतो दग्धत्वादिदूषिते पात्रके धार्यमाणे प्रायश्चित्तं, तद्यथा- अन्तर्मध्ये बहिश्योपरिष्टात् दग्धे पात्रे पुष्पकभिन्ने च-पुष्पके पात्रकस्य नाभिस्तत्र यद्भिन्न तस्मिन् पात्रके धार्यमाणे चत्वारो गुरुका भवन्ति / अन्यत्र पुष्पकाद्वयतिरिक्तेषु कुक्ष्यादिस्थानेषु मिन्ने पुनः पात्रके चतुर्लघुकोः / हुण्डादिषु सप्तस्वपि-हुण्डे, वाताविद्धे, दुष्पुते, कोलकसंस्थाने, शबले, सत्रणे, अवर्णाढथे चेत्यर्थः / पात्रकेषु धार्यमाणेषु लघुको मासो भवति / तथा पात्रं प्रमाणोपेतं धार्य हीनाधिकप्रमाणे पात्रे चतुर्लघुका भवन्ति / पत्रिकप्रमाणं चेदं___ 'तिन्नि विहत्थि चउरंगुलं च भायणस्स मज्झिमपमाणं / इत्तो हीण जहन्नं अतिरेययरं तु उक्कोसं ' / इदं पात्रकपरिधिप्रमाणम् / अथवा _ 'उक्कोस तिसामासे दुगाउअद्धाणमागओ साहू / चउरंगुलवजं भत्तपाणपज्जत्तयं हिट्ठा' // मात्रकप्रमाणं पुनरिद 'सुक्कोदणस्स भरिअं दुगाउ अद्धाणमागओ साहू / भुंजइ एगदाणे एअं खलु मत्तगपमाणं / / भत्तस्स व पाणस्स व एगतरागस्स जो भवे भरिओ। पज्जत्तो साहुस्स उ बिइअं पि अ मत्तगपमाणं' / अथ पात्रकपरिकर्मणप्रायश्चित्तमाहकारणविहिपरिकम्मे चउभंगो पढम सुद्ध तिसु लहुगो। तवकालेहि विसिट्ठो तवकालगुरु चरिमभंयो॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रविषयं प्रायश्चित्तम् 109 व्याख्या - पात्रकस्य कारणे सति विधिना-सूत्रोक्तेन परिकर्मणं-बन्धनलेपनादिकं विधेयम् / अत्र चतुर्भङ्गी / कारणे विधिना परिकर्मणमित्येको भङ्गः / कारणे अविधिनेति द्वितीयः / निष्कारणे विधिना तृतीयः / निष्कारणे अविधिनेति चतुर्थः / अत्र प्रथमो भङ्गो विशुद्धोऽनुज्ञात वात् / शेषेषु त्रिषु भङ्गेषु लघुको मासः तपःकालाभ्यां विशिष्टो भवति / तत्र द्वितीयभङ्गे कालगुरुः , तृतीये तपोगुरुः / चरमः-चतुर्थो भङ्गस्तपःकालगुरुः / तपःकालाभ्यां गुरुर्लघुमासश्चतुर्थे भवतीत्यर्थः / अथ शोभादिनिमित्तपात्रकलेपदानप्रायश्चित्तमाह संजमहेडं लेवो न विभूसा गारवेण वा देओ। चउगुरुग विभूसाए लिंपते गारवेणं वा // 203 // ___ व्याख्या-लेपः पात्रस्य दातव्यः संयमहेतोर्न विभूषया न वा गारवेण / संयमहेतोः पुनर्दीयमाने लेपे यदि विभूषा भवति तथापि संयमहेतोरेव / अत्र सत्या असत्या च दृष्टान्तः / तथाहि-सत्यपि आत्मानं विभूषयति असत्यपि, केवलं सती कुलाचारनिमित्तमात्मानं विभूषयतीति तुल्यमपि तद्विभूषणमदुष्टम् इतरा जारतोषणनिमित्तमिति दोषवत् / एवं यथा सत्यसत्यौ तथा साधू / यथा विभूषणं तथा लेपः / यथा कुलाचारः तथा संयमः / यथा जारतोषणं तथा असंयमः / विभूषयो गारवेण वा लिम्पतो-लेपं ददतः प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकाः / तथा रात्रौ लेपं गृहीत्वा रात्रावेव च भाजने ददाति / अत्र प्रायश्चित्तं चतुर्लघुकास्तपःकालगुरुकाः, रात्रौ लेपं गृहीत्वा दिवा ददाति चतुर्लघुकास्तपोगुरवः, दिवा लेपं गृहीत्वा रात्रौ ददाति चतुर्लघुकाः कालगुरवः, दिवा गृहीत्वा दिवैव ददाति तदा शुद्धः / इति पात्रविषयं प्रायश्चित्तमभिहितम् / एवमुत्तरगुणप्रायश्चित्ताधिकारे पिण्डशय्या त्रिपात्रविषयप्रायश्चित्तप्रतिपादनेनाऽकल्पविषयप्रायश्चित्तमुक्त्वा गृहिमात्रादिविषयं प्रायश्चित्तमभिधित्सुराहगिहिमत्ते पलिअंके लहुगा पडिहारिवत्थमाइगहे / चउगुरुग रायपिंडे तहित्थिकहगिहनिसिज्जासु // व्याख्या- गृहिणा-गृहस्थानां मात्रं-भाजनं मणिसुवर्णरजतताम्रकांस्यलोहदारुमृदादिमयं, तस्मिन् योऽशनादि भुङ्क्ते तस्य चतुर्लघुकाः / आज्ञाभङ्गादयश्च दोषाः / तथा गृहभाजनभोजने पुर कर्मपश्चात्कमर्मादिभिः षट्कायविराधना / तथा पर्यके-पल्यङके, उपलक्षणत्वात् आसन्दीमश्चकाशालकेषु शयना. सने कुर्वतः चतुर्लघु आज्ञादयश्च दोषाः / तथा प्रातिहारिकवस्त्रादिग्रहे-प्रातिहारिकं गृहस्थसत्तास्थमेव कियत्कालव्यापारणाय गृहीतं वस्त्रादि, आदिशब्दात् कम्बलादि तस्य व्यापारणे चतुर्लघुकाः। आज्ञादयश्च दोषाः / साधुव्यापारेण मलिने च धावनादयो दोषाः। तथा राजपिण्डे-यो मूर्द्धाभिषिक्तः सेनापत्यमात्यपुरोहितश्रेष्ठिसार्थवाहसहितो राज्यं भुङ्क्ते स राजा तस्य पिण्डोऽशनादिरष्टविधः / यदुक्तम् ' असणाइआ चउरो वत्थे पाए अ कंबले चेव / पाउंछणए अ तहा अट्टविहो रायपिंडो अ' / / तस्मिन् राजपिण्डे गृह्यमाणे गुरुकाश्चत्वारः। तथा स्त्रीणां पुरतस्त्रीणि चत्वारि पश्च वा व्याकरणानि कारणेऽनुज्ञातानि, ततः परं तु षष्ठादिव्याकरणरूपामपरिमितां कथां कथयतश्चतुर्गुरुकाः / आज्ञादयश्च दोषाः शङ्कादिदोषाश्च / द्वितीयपदेन तथाविधकारणे स्त्रीणामप्रेऽपि धर्मकथां कथयेत् / तत्र Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 यति-जीतकल्पे तासु दृष्टिमबध्नन् वृद्धासु वा दृष्टिं बध्नन् वैराग्यकथां कथयतीति विधिः। तथा गृहनिषद्यायां चतुर्गुरुकाः / गोचरचर्यादिगतो गृहिणां गृहे निषदनं कुर्वतश्चतुर्गुरुका भवन्तीत्यर्थः / आज्ञाभङ्गादयश्च दोषाः / जराभिभूतादेस्तु गृहे निषीदतो न दोषः / तथा साधूनां स्नानं न कल्पते / तत् करणे प्रायश्चित्तं प्रतिपिपादयिषुराहआइन्न जयण कारण देसे पहाणंमि भंग सोलसगं / जत्थाऽऽइन्नं सव्वे कारणि नाइन्न ते सुन्ना // व्याख्या-इह स्नानं द्विधा-देशस्नानं सर्वस्नानं च / तत्र मुखनयनचलनदन्तकक्षाबाहुप्रभृतिशरीरावयवधावनं देशस्नानं, सर्वाङ्गप्रक्षालनं सर्वस्नानम् / तत्र देशस्नानं द्विधा-आचीर्णम् अनाचीण च / आचीणं यत् साधुभिराचर्यते / अनाचीर्णं तद्विपरीतम् / आचीर्णमपि द्विविधं-कारणे निष्कारणे च / यत्कारणे तदपि द्विधा-भक्तामर्ष लेपे च / तत्र भक्तामर्षेऽशनादिना लेपकृता द्रव्येण हस्तौ लिप्तौ ततस्तौ मणिबन्धं यावद् धाव्येते यत् / लेपे पुनरिदम्-अस्वाध्यायिकमूत्रपुरीषादिना यावन्मात्रः शरीरावयवश्चलनादिः खरण्टितस्तावन्मात्रः स धाव्यते यत् / एतत्कारणतः / निष्कारणे पुनस्तद्विपरीतम् / भक्तामर्ष लेपे च यत् स्नानं तदाचीर्ण, शेषं देशस्नानं सर्वस्नानं वा सर्वमनाचीर्णम् / एतत्सर्वमपि स्नान . यतनयाऽयतनया वा स्यात् / तत्र त्रिप्रमृतिप्रमाणप्रासुकपानीयेन यत्स्नानं क्रियते तत् यतनया, तदधिकेन पुनरयतनया / ततः स्नाने आचीर्ण-यतना-कारण-देशानामेतेषां चतुर्णा पदानां सप्रतिपक्षाणां | Is! | sir | ssh | षोडश भङ्गा भवन्ति / ते च प्रस्तारतो यथा-एतेषु च षोडशभङ्गेषु | // s | Isis | sils | sss | ये भङ्गा अत्र न घटन्ते तानुत्तरार्द्धनोपदर्शयति / यथा यत्र भङ्गे // | Issi | sisi | sss) | आचीर्णग्रहणं दृश्यते तत्रैव यदि सर्वग्रहणं दृश्यते ततः | Iss | Isss | siss | ssss | पूर्वापरविरोधान्न घटतेऽसौ भङ्गः। यत्र च कारणग्रहणमनाचीर्णग्रहणं च दृश्यतेऽसावपि न घटते, ततस्ते भंगाः सर्वेऽपि शून्या ज्ञातव्याः। शेषभङ्गा अत्र ग्राह्यास्तेषु प्रथमे भङ्गे शुद्धः / शेषेषु प्रायश्चितम् / एतदेवाहसेसे पढम ति इगदस बारस पण सत्त पनरस सोलसमे / ' शुद्धो लहुलहु११ लहुगा१२ तिसु५॥७॥१५ लहुगो चउलघु१६ कमेण // 206 // व्याख्या-ये भङ्गाः शून्यास्तान् वर्जयित्वा ये शेषा भङ्गा भवन्ति / तेषु यः प्रथमो भङ्ग आचीर्ण यतनया कारणे देशस्नानमित्येवंरूपस्तस्मिन् भङ्गे शुद्धः / ततस्तृतीयादिषु भगेषु लघुकादि प्रायश्चित्तं क्रमेण ज्ञातव्यं, तद्यथा--तृतीये लघुकः / एकादशे लघुकः / द्वादशे चतुर्लघुकाः / पञ्चमे सप्तमे पश्चदशे च भङ्ग लघुको मासः। षोडशे भङ्गे पुनश्चतुर्लघुकाः / आज्ञाऽनवस्थामिथ्योत्वविराधनाश्च भवन्ति / इमे च दोषाः स्नाने षड्जीवनिकायविराधना / स्नानप्रतिबन्धः / अस्नानसाधुशरीरेभ्यो निर्मलशरीरोऽहमिति गारव विभूषा / अस्नानपरीपहाऽजयः / लोकस्याविश्रम्भः / उक्तं च छक्कायाण विराहण तप्पडिबंधो अ गारव विभूषो / परिसहभीरुत्तपि अ अविसासो चेव पहाणंमि' / Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालातीतादिभक्तादिप्रायश्चित्तम् द्वितीयपदे ग्लानस्याध्वश्रान्तस्य वा देशग्नानं सर्वस्नानं वा न दुष्टम् / वादिनो वादपर्षदं गच्छतः पादादि-देशस्नानं सर्वस्नानं वा आचार्यस्याऽतिशय इति कृत्वा देशस्नानं सर्वस्नानं वाऽनुज्ञातम् / अथ कालातीतादिभक्तादिप्रायश्चित्तमाह - भिन्नं कालद्धाणाइत्थिअकरणंमि गुरुग परिभोगे / अविहिविर्गिचिणिआए भत्ताईणं तु लहुमासो॥ ___ व्याख्या- विकथादि प्रमादेन विस्मृत्या भक्तादेः कालाध्वातिक्रान्तकरणे कालातीते अध्वातीते वा भक्ते पाने वा कृते भिन्नमासः। कालाध्वातीतस्य भक्तादेः परिभोगे चतुर्गुरुकाः / कालाध्वातीतानामशुद्धगृहीतानामधिकीभूतानां वा भक्तादीनामन्येषां वा परिष्ठापनीयानां प्रस्रवणादीनामविधिविवेचनायामशुद्धस्थण्डिलादो परित्यागे पुनलघुमासः / अथवासंसट्ठासंसट्टे निद्धे चउगुरुग लुक्खसंसठे / गुरुगो इअरे लहुगो भत्ते संपइ अविहिचाए // 208 // ___ व्याख्या-संसृष्टे असंसृष्टे वा स्निग्धे भक्ते अविधिना परिष्ठोपिते चतुर्गुरुकाः / रूक्षसंसृष्टे गुरुको मासः / इतरस्मिन् रुक्षासंसृष्टे भक्ते अविधिना त्यक्ते लघुको मासः / सम्प्रति इदानी सामाचार्यागतमिदं प्रायश्चित्तमविधिपरिष्ठापनेऽवगन्तव्यम् / आगमे च परिष्ठापनेऽयं विधिः- मूलगुणाशुद्धे भक्ते परिष्ठाप्यमाने एकः पुञ्जः, उत्तरगुणाशुद्ध लोभातिरेकगृहीते च द्वौ पुञ्जौ / आचार्यग्लानप्राघुर्णकदुर्लभत्व. महसालाभहेतुकगृहीतेऽधिकीभूते शुद्धे भक्ते त्रयः पुजा वीथ्यादिनिर्गतानां साधूनां शुद्धाशुद्धपरिज्ञानार्थ क्रियन्ते / दुष्टविद्यामन्त्रचूर्णविषकृतं तु भक्तं भस्माकान्तं कृत्वा परिष्ठाप्यते / साम्प्रतं तु सर्व परिष्ठाप्यं प्रायो भस्माक्रान्तं कृत्वा परिष्ठाप्यते / तथाचउलहु भागे पाए चउगुरु किमिपाय संखडे वमणे / लहुगो इरिओवओगाकरणे सज्झाय गुरुगो अ॥ व्याख्या- प्रमादादिना हस्तपातनादितः पात्र भग्ने चतुर्लघु ! कृमिपातः कृमयो व्रणापानकुक्षिसमुद्भवा जन्तवस्तेषां पातः-पातनं निष्कासनं स चतुर्धा-निष्कारणे अविधिना, निष्कारणे विधिना, कारणे अविधिना, कारणे विधिना / काष्ठादिभिरविधिः / अगुल्यादिभिस्तु विधिः / अत्र चतुर्थे भङ्गे शुद्धो विधिना प्रवृत्तत्वात / शेषेषु त्रिषु प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु / निशीथे तु आद्यभङ्गद्वये चतुर्लघु / तृतीये लघुमासः / उत्सर्गेण विधिना अविधिना वा न ते निष्कास्या यतस्तेषु विराध्यमानेषु संयमविराधना, क्षते त्वात्मविराधना ततोऽधिसोढव्यम् / यदुक्तं निशीथचूर्णी-' सीस आह-वेअणट्टेण किं कायव्वं ? आयरिअ आह नच्चुप्पइअं दुक्खं अभिभूओ वेअणाए तिव्वाए। अद्दीणो अव्वहिओ दुक्खं अहिआसए सम्मं // नञ्चत्ति ज्ञात्वा, किं ज्ञात्वा ? दुःक्खमुत्पन्नं, वेद्यते इति वेदना 'तिव्वाए वेअणाए सव्वं सरीरं' व्याप्तमित्यर्थः / न दीणो अदीणो पसण्णमणो स्वभावस्थ इत्यर्थः / न वा ओहयमणसंकप्पे / अथवा हा माते ! हा पिते! एवमादि न भासए जो सो अदीणो, न वेअणट्टो अपणो सिरोरुकुट्टणादि करेति / अथवा न वेअणट्टो चिंतेइ अप्पाणं मारेमित्ति / तं दुक्खमुप्पन्नं सम्म अहिआसेअव्वं इत्यर्थः / कारणे पुण नौहरण करिज / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 यति-जीतकल्पे अव्वुच्छित्तिनिमित्तं जीविअट्ठी समाहिहेउं वा / गंडादीसुं किमिए जयणाए नीहरे भिक्खू / / सुत्तत्थाणं अव्वुच्छित्तिं करिस्सामि त्ति / जीवितही वा जीवंतो संजमं करिस्सामि, चउत्थाइणा वा तवेणं अप्पाणं भाविस्सामि, नाण-दसण-चरित्तसमाहिसाहणट्टा वा अथवा समाहिमरणेण वा मरिस्सामि त्ति / किमिए जयणाए नीहरिज / जयणा जहा जीवोवघाओ न भवतीत्यर्थः / तथा संखडेसङ्खड्यां चतुर्गुरु / इदमुक्तं भवति-सङ्खडी द्विविधा-आचीर्णा अनाचीर्णा च / साधूनां कल्पनीया आचीर्णा, इतरा अनाचीर्णा / तत्रैता अनाचीर्णाः'जावंतिआ पगणिआ सखित्त अखित्त बाहिराइण्णा / अविसुद्धा पंथ गमणा सपञ्चवाया सभेआ य' // तटिककार्पटिकादीनां सर्वेषां यस्यां दीयते सा यावन्तिका / यस्यां पुनः पाखण्डिनामेव दश सरजस्कानां दश शाक्यानां दश परिव्राजकानां दश श्वेतपटानामेवं गणितानां दीयते सा प्रगणिता / स्वक्षेत्रे या सक्रोशयोजनाभ्यन्तरे, अक्षेत्रे या सचित्तपृथिव्यां सचित्तवनस्पतिकायादिषु या स्थिता / बाह्या या सक्रोशयोजनप्रमाणक्षेत्रावग्रहाद् बहिः। आकीर्णा चरकपरिव्राजकसरजस्कादिभिस्तटिककार्पटिका-' दिभिश्च या आकुला। यस्या मार्गः पृथिव्यब्वनस्पतित्रसः संसक्तो भवति साऽविशुद्धपथा। सिंहादिश्वापदस्तेनादिप्रत्यपायसहिता सप्रत्यपाया / यस्यां विषकुटिलप्रयोगेण जोवितचरित्रभेदो भवति सा सभेदा / एताः सर्वा अपि सङ्खड्योऽनाचीर्णाः / यावन्तिकादिदोषविप्रमुक्ता आचीर्णाः / अनाचोर्णासु च नवसु सङ्खडीषु गच्छतः प्रायश्चित्तं, तद्यथा-यावन्तिकायां चतुर्लघु / प्रगणितायां चतुर्गुरु / स्वक्षेत्रसङ्खडयां चतुर्लघु / अक्षेत्रसङ्खडयां कायप्रायश्चित्तम् / बाह्यायामर्द्धयोजनार्द्धयोजनवृद्धौ चतुर्लघु-चतुर्गुरुप्रभृति / आकीर्णायां चतुर्गुरु / अविशुद्धपथायां कायप्रायश्चित्तमेव / सप्रत्यपायायां दर्शनापाये चतुर्लघु / ब्रह्माद्यपाये चतुर्गुरु / सभेदायां चतुर्गुरु / तथा वमने सजाते च चतुर्गुरु / तथा हस्तशताद् बहिर्गमनागमनादौ ईर्याया-ईर्यापथिक्या अप्रतिक्रमणे उपयोगाकरणे च लघुमासः। तथा पौरुषीचतुष्टये स्वाध्यायाकरणे गुरुको मासः / साधुना हि सततं विशुद्धस्वाध्यायध्यानबद्धादरेण भाव्यम् / यदुक्तं श्रीमहानिशीथे तहा गोयमा ! पवजादिवसप्पभिईए जहुत्तविणओवहाणेणं. जे केइ साहू वा साहुणी वा अपुव्वनाणगहणं न कुज्जा तस्स सुअं विराहिअं / सुत्तत्थोभयं सरमाणे एगग्गचित्ते पढमचरमपोरिसीसु दिआ राओ अनाणुगुणिज्जा से णं गोअमा ! नाणकुसीले णेए / जस्स य गुरुअनाणावरणोदएण अहं निसं पहोसेमाणस्स न संवच्छरेणावि सिलोगद्धमवि थिरपरिचिअं भविजा, तेणावि जावज्जोवाभिग्गहेणं सज्झायसीलाण वेआवञ्च तहा अणुदिणं अड्ढाइज्जे सहस्से 2500 पंचमंगलाणं सुत्तत्थोभए सरमाणे एगग्गमाणसे पहोसिज्जा / से भयवं ! केणं अद्वेणं ? गोअमा ! जे भिक्खू जावज्जीवाभिग्गहेणं चाउकालिअं वायणाइ जहासत्तोए सज्झायं न करिज्जा, से णं कुसीले णेए / अन्नं च जे केई जावज्जीवा भिग्गहेणं अपुव्वनाणोहिगम ण करिज्जा, तस्सासत्तीए पुव्वाहीअं गुणिज्जो / तस्सावि असत्तीए पवमंगलाण अड्ढाइज्जे सहस्से परोवत्ते, से भिक्खू आराहगे / तं च नाणावरणं खवित्ताणं तित्थयरे इ वा गणहरे इ वा भवित्ता णं सिज्झिज्जा / से भयवं! केणं अटेणं एवं वुच्चइ जहा णं चाउकालिअं सज्झायं कायव्वं? गोअमा! - Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकाविधिकारणप्रायश्चित्तम् मणवयणकायगुत्तो नाणावरणं च खवइ अणुसमयं / सज्झाए वटुंतो खणे खणे जाइ वेरग्गं / उड्ढमहे तिरिअंमि अ जोइसवेमाणिआ य सिद्धी अ / सव्वो लोगालोगो सज्झायविउस्स पञ्चक्खो // बारसविहम्मि वि तवे सब्भितरबाहिरे कुसलदिढे / न वि अत्थि न वि अ होही सज्झायसमं तवोकम्मं / / एगदुतिमासखमणं संवच्छरमवि अ अणसिओ हुज्जा / सज्झायझाणरहिओ एगोवासफलंपि न लभिज्जा / / - उग्गमउप्पायणेसणाहिं सुद्ध भत्तं च भुंजतो / जइ तिविहेणाउत्तो अणुसमय भविज सज्झाए / / ता त गोअम ! एगग्गमाणसत्तणं उवमिउ सक्का / संवच्छरखवणेण वि जेण तहिं निज्जराणंता / / पंचसमिओ तिगुत्तो खंतो दंतो अ निज्जरापेही / एगग्गमाणसो जो करिज सज्झाय सो मुणी मन्ने / जो वागरे पसत्थं सुअनाणं जो सुणेइ सुहभावो। चइआसवदारत्तं तकालं गोअमा ! दुण्हं / इकंपि जो दुहत्तं सत्तं पडिबोहिओ ठवइ मग्गे / ससुरासुरंमि वि जगे तेण इहं घोसिओ अणाघाओ॥ धाओवहाण कंचणभावं न हु गच्छइ किआहीणे / एवं सव्वो वि जणोवएसहीणो न बुज्झिज्जा / / गयरागदोसमोहा धम्मकहं जे करंति समयन्नू / अणुदिअहमवीसंता सव्वपावाण मुच्चंति / / एएणं अटेणं गोअमा ! एवं वुच्चइ जहा णं जावज्जीवं अभिग्गहेणं चाउकालिअं सज्झायं कायव्वं ति / अथावश्यकाविधिकारंणप्रायश्चित्तमाहफिडिए सयमुस्सारिअ भग्गे वेगाइवंदणुस्सग्गे / कमसो मिन्नं लहुगुरु मासो सव्वंमि चउलहुगा // व्याख्या-स्फिटिते स्वयमुत्सारिते भग्ने वा एकादिवन्दनोत्सर्गे / क्रमशो भिन्नलघुगुरुमासाः / सर्वेष चतुर्लघुकाः / अयं भावार्थः-निद्रादिप्रमादवशतो गुरुभिः सह प्रतिक्रमणे स्फिटितो-न मिलितः / एकस्मिन् कायोत्सर्गे भिन्नमासः / द्वयोलघुमासः / त्रिषु गुरुमासः। तथा गुरुमिरपारितेऽपि कायोत्सर्गे स्वयमात्मना प्रथममेव पारिते, भग्ने वा कायोत्सर्गे-अचिन्तयित्वापि सर्वं चिन्तनीयमन्तराल एव पारिते / एकद्वित्रिसङ्ख्ये कायोत्सर्गे यथासङ्ख्यं भिन्नलघुगुरुमासाः / सर्वेष्वपि च कायोत्सर्गेषु स्फिटितत्वे भग्नत्वे च चतुर्लघु / एवं वन्दनकेऽपि स्फिटितत्वे पश्चात्पतितत्वे गुरोर्वन्दनकं ददानस्य स्वयमग्रतः प्रदत्ते कृताकृतत्वे भग्ने वा यथासङ्ख्यमेकस्मिन् भिन्नमासः / द्वयोर्ल घुमासः / त्रिषु गुरुमासः / सर्वेषु चतुर्लघु / यस्तु कायोत्सर्गादीनि न करोत्येव तस्य किमित्याहअकएमु अ तेसु पुणो लहुगुरुचउलहुग चउगुरु सव्वे / पुव्वमपिहि अथंडिल निसि वोसिरणे दिवा सुअणे // 211 // व्याख्या-अकृतेषु पुनस्तेषु कायोत्सर्गेषु वन्दनकेषु च एकादिषु-एकद्वित्रिषु लघुगुरुचतुर्लघुकाः क्रमेण भवन्ति / सर्वस्मिंस्तु प्रतिक्रमणे अकृते चतुर्गुरु / तथा पूर्व सन्ध्यायामप्रेक्षितस्थण्डिले निशि सञोत्सर्गे कृते, दिवा स्वापे च कृते चतुर्गुरु / तथा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे कोहे बहुदेवसिए आसवककोलमाइएसुं वा / लसुणाइसु लहुमासो तन्नाईबंधमुअणे अ॥२१२॥ व्याख्या-अत्र वाशब्दोऽनुक्तसमुच्चये / तेन पूर्वोक्तं चतुर्गुरु प्रायश्चित्तमाकृष्यते / ततश्च क्रोधे बहुदेवसिके-चिरकालीने पक्षाचातुर्मासकोचोपर्यपि रहिते चतुर्गुरु / तथा 'आसवककोलमाइएसु'। आसत्रोधातक्यादिभावितइक्षुरसस्तस्मिन् कथश्चित्पीत इति शेषः / कक्कोलादिषु-कक्कोललवङ्गपूगफलजातिफलताम्बुलादिषु च भक्षितेषु चतुर्गुरु प्रायश्चित्तम् / लशुनादिषु अचित्ते लशुने, आदिशब्दात् पलाण्डौ च भक्षिते / तथा तन्नाइ ति / तों-वत्स आदिशब्दात् मयूरतित्तिरादयः तेषां बन्धोन्मोचने लघुमासः / / भूतिगअपेह अझुसिरतण भिन्नं सेसपंचगेसु लहू / चउलहु पुत्थयपणए अपेहि पणगे गुरुगं च तसे // ___व्याख्या-इह साधुभिः चतुर्भागावशेषायां चरमपौरुष्यां प्रस्रवणोच्चारकालभूमयः प्रतिलेख्याः ताः सप्तविंशतिर्भवन्ति / तद्यथा-उपाश्रयस्य मध्ये कायिकाभूमयस्तिस्रोऽनधिसहनीया आसन्ने मध्ये दूरे चाधिसहनीया अपि तिस्रः / एवमेताः षट कायिकाभूमयो वसतिमध्ये / बहिरप्येवमेव षट् कायिकाभूमयः / एवं प्रस्रवणे द्वादश / एवं सञ्ज्ञाभूमयोपि द्वादश / तिस्रः कालमण्डलभूमयः / एवमेताः सर्वाः सप्तविंशतिः / ततो भुवां-प्रस्रवणोच्चारकालभूमीनां त्रिकं भूत्रिकं तस्याऽप्रत्युपेक्षणे भिन्नमासः / निशीथे तु लघुमासः आज्ञादयश्च दोषाः / अप्रतिलेखिते च स्थण्डिले यदि व्युत्सृजति ततः षट्कायविराधना / बिलादिसम्भवे अप्रतिलेखिते अहिवृश्चिकादिमिरात्मविराधना / स्थण्डिलं न प्रतिलेखितमिति न व्युत्सृजति यदि ततो मूत्रनिरोधे चक्षुर्विनाशः / वचोंनिरोधे जीवितनाशः / ग्लानकार्यव्याकुलत्वाग्निसम्भ्रमग्रामविकाल. प्राप्त्यादिकारणैः पुनरप्रतिलेखयन्नपि शुद्धः / तथा अशुषिरतृणेसु दर्भादिषु निष्कारणं पग्भुिक्तषु मिन्नमासः / शेषपञ्चकेषु लघुमासः। तानि च पञ्चकानि-तृणपञ्चकं 1 अप्रतिलेख्यदृष्यपञ्चकं 2 दुष्प्रतिलेख्यदूष्यपञ्चकं 3 पुस्तकपश्चकं 4 चर्मपञ्चकं चेति 5 / तत्र शालिव्रीहिकोद्रवरालकारण्यकतृणरूपं तृण. पञ्चकम् / तूली संस्कृतरुतादिभृता अर्कतूलादिभृता वा प्रतीता 1 आलिङ्गनिका पुरुषप्रमाणा या राजेति बद्धथा समालिङग्य राजान्तःपुर्यः शेरते 2 मस्तकोपधानं हंसरोमादिपुर्णमच्छीषकं 3 गल्लमसरिका४ पञ्चमो मसूरकश्चर्मकृतो वस्त्रकृतो वा बूयादिपुर्ण आसनक्रियायोग्यश्च कलकगष्टिकारूपः / 5 एतदप्रतिलेख्यदूध्यपञ्चकं सर्वथापि प्रत्युपेक्षितुमशक्यम् अन्तश्चक्षुरविषयत्वात् / कोयवि-प्रावारक-पूरिका-दाढिकालि-विरालिकाख्यं दुष्प्रतिलेख्यदूष्यपञ्चकं चक्षुषा सम्यगनिरीक्ष्यम् / तत्र कोयविर्नाम रूतपूरितपट्टरूपा या लोके माणिकीत्युच्यते / 1 प्रावारो बृहत्कम्बलो नेपालादिः प्रतिशीरा वा 2 पूर्यते स्तोकैरपि तन्तुभिः पूर्णा भवतीति पूरिका स्थूलशणगुणमयपट्टात्मिका यया धान्यगोणिकाः क्रियन्ते हस्त्योद्यास्तरणानि च / 3 दाढिकालिर्यमलिततन्तुद्वयव्यूता पटी / अयमन्वयः / मुखमध्ये हि यमलितोभयदन्तपङक्तिरूपा दाढिकालि-दंट्रिकावलिनिरीक्ष्यते / एवं द्विसूत्रपट थपि / और्णिकी सौत्रिकी वा दाढिकालिसदृशीव दृश्यमाना प्रतिभातीति दाढिकालिरित्युच्यते / 4 विरालिका नाम द्विसरसूत्रपटी 5 / तथा गण्डीपुस्तकः 1 कच्छपिपुस्तकः 2 मुष्टिपुस्तकः 3 छेदपाटीपुस्तकः 4 सम्पुटफलकपुस्तकः 5 चेति पुस्तकपञ्चकम् / एतत्स्वरूपं बाहल्लपुहत्तेहिं गंडीपुत्थो अ तुल्गो दीहो / कच्छवि अंते तणुओ मज्हो पिहुलो मुंणेयव्यो / Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋतुबद्धकाले उपधिधावने दोषाः 115 चउरंगुलदीहो वा वट्टागिइमुट्ठीपुत्थगो अहवा / चउरंगुलदीहु चिय चउरंसो होइ विन्नेओ / / दीहो वा हस्सो वा जो पिहुलो होइ अप्पबाहल्लो / तं मुणिअसमयसारा छिवाडिपुत्थं भयंतीह / / संपुडगो दुगमाइ-फलगा / गोमहिषाऽजैडकमृगाणां चर्माणि चर्मपञ्चकम् / द्वितीयमपि चर्मपञ्चक भवति / यथा-तलिगाखल्लगवद्धे कोसगकत्ती अ बीअंतु / कोशकाद्याधारं चर्म / कृत्तिः प्रलम्बविकर्तनाय / अत्र च तृणपञ्चके दुष्प्रतिलेख्यदूष्यपञ्चके चर्मपञ्चके च निष्कारणपरिभुक्ते लघुमासः / अप्रतिलेख्यदूष्यपञ्चके गुरुमासः / पुस्तकपञ्चके च गृहीते चतुर्लघुकाः / यच्च त्रसानां द्वीन्द्रियादीनाम् पुस्तकान्तर्गतानां वा वधे आपद्यते तदपि च प्रायश्चित्तं भवतीत्यर्थः। त्रसविराधना च पुस्तकेष्वित्थमुक्ता / ___ जइ तेसिं जीवाणं तत्थ गयाणं तु लोहिअं हुज्जा / पीलिज्जते धणिअंगलिज्ज तं अक्खरे फुसिउं॥ यदि तेषां तत्र गतानां-पुस्तकपत्रान्तरस्थितानां जीवानां कुन्थुप्रभृतीनां लोहितं भवेत्। ततः पुस्तकबन्धनादिकाले तेषां धणियं-गाढतरं पीडयमानानां तत् रुधिरमक्षराणि स्पृष्ट्वा बहिः परिगलेत् / अत एवजत्तिअमित्ता वाराउ मुंचई बंधई व जइ वारा / जइ अक्खराणि लिहइ तइ लहुगा जं च आवज्जे / / यावन् मात्रान् वारान् पुस्तकं मुञ्चति-छोटयति / यति वारांश्च बध्नाति / यति वा यावन्ति अक्षराणि लिखति / तति-तावन्ति चतुर्लघूनि / यच्च कुन्थुपनकादीनां सङ्घट्टनं परितापनमपद्रवणं वा आपद्यते तन्निष्पन्नं च प्रायश्चित्तं भवति / द्वितीयपदेन तु मेधाधारणादिपरिहाणि विज्ञाय कालिकोत्कालिकश्रुतस्य दानग्रहणादौ भाण्डागारमेवेदं भविष्यतीत्येवमर्थं पुस्तकपन्चकमपि गृह्यते / उक्तं च-पिप्पा पुत्थगपणगं कालिअनिज्जुत्तिकोसट्ठा / तथाछल्लहु अकालधुअणे फुल्लिअ-धुवणंडुवद्दवे छगुरू / मत्तविणु बहिनिरोहे लहुगा लोहे गुरुग नठे // व्याख्या-वर्षारम्भकालं विना यदुपधिप्रक्षालनं तदकालधावनं तच्च साधूनां न कल्पते / अनेकदोषसम्भवात् / उक्तं च ' उउबद्धधुवण बाओस बंभविणासो अट्ठाणठवणं च / संपाइमवाउवहो पावणभूओवधाओ अ // ऋतुबद्धे काले चीवरधावने चरणं बकुशं भवति उपकरणबकुशत्वात् / तथा ब्रह्मविनाशो-मैथुनप्रत्याख्यानभङ्गः। प्रक्षालितवासःपरिधानभूषितशरीरो हि विरूपोऽपि रमणीयत्वेन प्रतिभासमानो रमणीनां रमणयोग्योऽयमिति प्रार्थनीयो भवति, किं पुनः शरीरावयवरामणीयकोपशोभितः / ततः कामिनीकटाक्षविक्षेपादिक्षोभितोऽवश्यं ब्रह्मचर्यादपभ्रश्यति / तथा अस्थानस्थापनम् / इयमत्र भावना-यदि कथञ्चित्तत्ववेदितया संयमविषयनिष्प्रकम्पधृत्यवष्टम्भतो न ब्रह्मचर्यादपभ्रश्यति तथापि लोकेनासौऽस्थाने स्थाप्यते / यथा-नूनमयं कामी कथमन्यथात्मानमित्थं भूषयति / न खल्वकामी मण्डनप्रियो भवतीति / तथा सम्पातिमानां मक्षिकादीनां प्रक्षालनजलादिषु निपततां वायोश्च वधो भवति / तथा प्लावनेन-प्रक्षालनजलपरिष्ठापने पृथिव्यां रेलणेन भूतोपघातः पृथिन्याश्रितकीटिकादिसत्त्वोपमर्दो भवति / तस्मान्न ऋतुबद्धकाले वस्त्रं क्षालनीयम् / नन्वेते दोषा वर्षाकालादर्वागपि धावने सम्भवन्ति / ततस्तदानीमपि न चीवराणि प्रक्षालनीयानि / तन्न, तदानीं चीवराऽप्रक्षालने अनेकदोषसम्भवात् / उक्तं च Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 यति-जीतकल्पे अइभार चुडण पणए सीअलपाउरणजीरगेलन्ने / ओहावण कायवहो वासासु अधोवणे दोसा / / वर्षाकालादर्वागपि यदि वासांसि न प्रक्षालयन्ते तदानीमतिभारः-सर्वतः सलिलमयीसु वर्षासु क्लिन्नमलसम्पर्कतो वासांसि गुरुतरभाराणि भवन्ति / तथा चुडणंति / वाससामधावने वर्षासु जीर्णताभवनेन शाटो भवति / न च वर्षासु अभिनववस्त्रग्रहणं न चाधिकः परिग्रहस्ततो वस्त्राभावे ये दोषाः समये प्रसिद्धास्ते सर्वेऽपि यथायोगमुपढौकन्ते / तथा मलक्लिन्नेषु वस्त्रेषु पनकः सञ्जायते / तथा वर्षासु शीतलोभूतवाससां प्रावरणे भुक्ताहारस्याजीर्णतायां ग्लानत्वमुपजायते / तथा च सति प्रवचनम्यापभ्राजना / यथा अहो! बठरशिरोमणयोऽमी तपस्विनो ये नाम वर्षास अप्रक्षालितानां वाससां परिभोगे मान्द्यमुपजायते इत्येतदपि नावबुध्यन्ते-ते पृथग्जनापरिछेद्यं स्वर्गापवर्गमार्गमवगच्छन्तीति दुःश्रद्धेयम् / तथा भिक्षाद्यर्थं विनिर्गतस्य साधोर्मेघवृष्टौ मलिनवस्त्रकम्बलसम्पर्कतोऽप्कायविराधना / एते वर्षासुवर्षाप्रत्यासन्नकाले वस्त्रादीनामप्रक्षालने दोषास्तस्मादवश्यं वर्षाकालादर्वाग् वासांसि प्रक्षालनीयानि / ये च सम्पातिमसत्त्वोपघातादयो दोषाश्चीवरप्रक्षालने प्रोक्तास्तेऽपि सूत्रोक्तनीत्या यतनया प्रवतमानस्य न सम्भवन्ति / यो हि सूत्राज्ञामनुसृत्य यतनया सम्यग् प्रवर्त्तते स यद्यपि कथञ्चित् प्राण्युपमईकारी तथापि नासौ पापभाग भवति / नापि तीव्रप्रायश्चित्तभागी। सूत्रे बहुमानतो यतनया प्रवर्त्तमानत्वात् / / सूत्रं चेदंअप्पत्ति च्चिअ वासे सव्वं उवहिं धुवंति जयणाए / असइए उदगस्स य जहन्नओ पायनिज्जोगो / / आचार्यादीनां पुनरकालेपि वस्त्रधावने न दोषः / यदुक्तं'आयरिअ-गिलाणाण य मइला मइला पुणोवि धोवंति। मा हु गुरूण अवण्णो लोअंमि अजीरणं इअरे'। ततश्च शेषसाधोरकाले ऋतुबद्धकाले कल्प-चोलपट्टादेः कियन्मात्रस्योपधेः प्रक्षालने षड्लघु प्रायश्चित्तं, सर्वस्य तूपधेरकालधावने प्रायश्चित्तम भणिष्यते / तथा पुष्पितस्य-पनकजीवाश्रितस्योपधेः प्रक्षालने अण्डस्य-चटकादिसत्त्वस्योपद्रवे-प्रमादादिना विनाशे च षड्गुरु / तथा मात्रकं विना बहिः केवलभूमावेव निरोधे कृते चतुर्लघुकाः / लोहे सूचीनखहरणिकादिके नष्टे चतुर्गुरुकाः / तथालहु कायभंग कवाडपिल्लणे लहुग कालऽपडिकमणे / मंडलिअपडिक्कमणे समं कुसीलेहिं पडिक्कमणे // व्याख्या-कायस्य-शरीरस्याभ्यङ्गस्तैलादिना मर्दनम् / अस्थिमांसरोमत्वक्सुखप्रदा सम्बाधनेत्यर्थः / तस्मिन् कायाभ्यने निष्कारणे कृते कोरिते च लघुमासः / एवं कायस्य कल्कादिना उद्वर्त्तने मलप्रस्वेदस्फेटने नखसंस्करणे दीर्घरोमकर्त्तने काष्ठादिना दन्तधावने अलक्तकादिरङ्गेन नखादिरजने च लघुमासः / आज्ञाभङ्गादयश्च दोषाः / इमे चापरे दोषाः। गाढसम्बाधनायां चर्मापनोयते. अस्थिभङ्गो वा भवेत, अभ्यङगे च मक्षिकादिसम्पातिमजीववधः / मलम्फेटननखसमारणादौ आत्मपरमोहोदीरणं बाकुश्यदोषः / सूत्रार्थपरिमन्थः। साधुझियाविपर्ययः श्रावकमिथ्यादृष्टिलोके वा परिवादः / अभ्यङ्गादिकरणेन परिज्ञायते न साधुरिति / वातादिरोगमार्गश्रमादिना कारणेन पुनरभ्यङ्ग उद्वर्त्तनं वा कारयन्नपि शुद्धः / एवमनाभोगादिना मलाद्यपनयन्नपि शुद्धः / तथा पादनखा दीर्घाश्चक्रमणे उपलादिषु आरिफटन्ति, भज्यन्ते वा हस्तनखा, माजनलेपं विनाशयन्ति, देहे वा क्षतं कुर्वन्ति / तथा च लोको भणेदेष कामी कामिनीकृतक्षतत्वादिति / लोकश्च भमति दीर्घ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीनां वस्त्रदानविधिः नखान्तरे सञ्ज्ञा तिष्ठत्यतोऽशुचय एते / पादनखेषु च दीर्घष्वन्तरे रेणुस्तिष्टति तया च चक्षुरुपहन्यते / एतद्दोषपरिहरणार्थ नखकर्त्तनं कुर्वन्नपि शुद्धः / तथा व्रणगण्डभगन्दरादिषु रोमाण्युपघातं कुर्वन्तीतिरोमच्छेदने शिरोरोगिणो वा केशकर्तने न दोषः / दन्तरोगे काष्ठादिना दन्तघर्षणे न दोषः / तथा आदर्शस्फटिकादिमणिजलतेलघृतादिभाजनादिषु स्वं मुखं रूपं वा विलोकमानस्य चतुर्लघु प्रायश्चित्तम् / आज्ञाभङ्गादयो दोषाः / इमे चान्ये / आदर्शादिषु आत्मानं रूपवन्तं दृष्ट्वा विषयान् भुनज्मीति प्रतिगमनं कुर्यात् / अन्यतीर्थिकेषु वा प्रविशति / सिद्धपुत्रो वा भवति / सिद्धपुत्री वा सेवते, स्वलिङ्गन वा संयतीं प्रतिसेवते, विरूपं वात्मानं दृष्टवा निदानं कुर्यात् , देवताराधनवशीकरणयोगादि वा शरीरबाकुश्यं वा कुर्यात् / आदर्श वाऽऽत्मनो रूपं दृष्ट्वा शोभेऽहमिति गौरवं कुर्यात् / रूपेण हृष्टो विरूपो वा विषादेन क्षिप्तादिचित्तो भवेत् / सागारिकैर्वा हष्टे उड्डाह-एष न तपस्वी कामी एषोऽजितेन्द्रिय इति / रोगादिकारण पुनरादर्शादिष्वात्मरूपविलोकनेऽपि न दोषः / तथा कपाटस्य प्रेरणे-अयतनयाऽग्रतः पश्चाच्च क्षेपणे लघुमासः / तथा काले-आवश्यकवेलायामप्रतिक्रमणे-आवश्यकाकरणे लघुकाश्चत्वारो भवन्ति / तथा मण्डल्यां-यथाज्येष्ठानुक्रमव्यवस्थितसाधुश्रेणिरूपायामप्रतिक्रमणे च कृते प्रतिक्रमणाऽकरणे / कुत्सितं शोलमाचारो येषां ते कुशीलाः पार्श्वस्थावसन्नादयस्तैः सार्धं प्रतिक्रमणे च कृते चतुर्लघुका भवन्ति / / गुरु उवहिअपडिलेहे छप्पइअ असोहि कमतदग्गहणे / लहुगा गुरुगजाणं सयमेव य वत्थपायगहे // व्याख्या-गुरुणामाचार्याणां परिभोग्यस्योपधेरप्रतिलेखने, षट्पदिकोनामशोधने क्रमेण-परिपाट था विभज्य तासामग्रहणे च चत्वारो लघुको भवन्ति / उपलक्षणत्वात् प्रपन्नानशनग्लानत स्विस्थविरप्राघूर्णकशक्षाणामुपधेरप्रत्युपेक्षणे चतुर्लघुकाः / तथा आर्याणां संथतीनां गृहस्थसकाशात् स्वयमेव वस्त्रपात्रग्रहणे चतुर्गुरुकाः / यतः संयतीनां गृहस्थेभ्यः स्वयमेव वस्त्रादिग्रहणे अनेकदोषाः सम्भवन्ति / तथाहि-संयतों गृहस्थाद्वस्त्राणि गृह्णन्तीं दृष्ट्वा कोऽप्यभिनवश्राद्धो मिथ्यात्वं गच्छेत् / निर्ग्रन्थ्योऽपि भाटिं गृहन्तीति शङ्कते . वा। गृहस्थो वा वस्त्राणि दत्त्वा मैथुनमवभाषेत प्रतिषिद्धे चैषामेव वस्त्राणि गृहित्वा उक्तं न करोतीत्युडहं कुर्यात् / स्त्री च स्वभावेनाल्पसत्त्वा ततो येन तेन वा वस्त्रादिनाऽल्पेनापि लोभ्यते, लोमिता चाऽकार्यमपि करोति / बहुमोहा च स्त्री, ततः पुरुषैः सह संलापं कुर्वत्या वस्त्राणि गृह्णन्त्याश्च तस्याः पुरुषसम्पर्कतो मोहो दीप्यते / उदाररूपां वा संयती दृष्ट्वा कार्मणादिना कश्चिद्वशीकुर्यात् / वशीकृता च चारित्रविराधनां करोति / तस्माद् निर्ग्रन्थीभिः गृहस्थेभ्यः स्वयं वस्त्राणि न ग्राह्याणि. किन्तु तासां तानि गणधरेण दातव्यानि / तत्रायं विधिः-संयतीप्रायोग्यमुपधिमुत्पाद्य सप्त दिनानि स्थापयति / ततः कल्पं कृत्वा स्थविरं स्थविरां वा परिधापयति / यदि नास्ति विकारस्ततः सुन्दरम् / एवं परीक्षामकृत्वा यदि ददाति तदा चतुर्गुरुकम् / तं च परीक्षितमुपधिमाचार्यो गणिन्याः प्रयच्छति / गणिनी च संयतीनां विधिना ददाति / अथाचार्यः स्वयं तासां ददाति तदा चतुर्गुरुकम् / यतः काचिन् मन्दधर्मा भणेदस्याश्चोक्षतरं दत्तम् / एषाऽम्येष्टा यौवनस्था च / एवमस्थाने स्थापयति / तस्मादाचार्येण प्रवर्त्तिन्या एव प्रदातव्यम् / आचार्यश्च संयतीवर्तापकः प्रथमभङ्गवर्ती अनुज्ञातो. न शेषभङ्गत्रयवर्ती / ते चामी भङ्गाः-सहिष्णुरपि भीतपरिषदपि 1, सहिष्णुर्न भीतपरिषत् 2, असहिष्णुः परं भीतपरिषत् 3, असहिष्णुरभीतपरिषच्च 4 / तत्रेन्द्रियनिग्रहसमर्थः संयतीप्रायोग्यक्षेत्रवस्त्रपात्रादीनामुत्पादनायां प्रभविष्णुः सहिष्णुरुच्यते / यस्य तु सर्वोऽपि Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 यति-जीतकल्पे सोधुसाध्वीवर्गों भयान्न कामप्यक्रियां करोति स भीतपरिषत् / तत्र प्रथमभङ्गे वर्तमानः संयतीपरिवर्त्तने समुचितः, शेषेषु त्रिषु भङ्गेषु वर्तमानो नानुज्ञातः / यदि परिवर्त्तयति तदा चतुर्गुरुकाः / यतो द्वितीयभड़े आत्मना सहिष्णः परमभीतपरिषत्तया स्वच्छन्दप्रचाराः सत्यो यत किमपि ताः करिष्यन्ति तत् सर्वमयमेव प्राप्नोति / तृतीयभङ्गे तु स्वयमसहिष्णुतया तासामङ्गप्रत्यङ्गादीनि दृष्ट्वा यदाचरति तन्निष्पन्नम् / चतुर्थभङ्गे द्वितीयतृतीयभङ्गदोषांश्वाप्नोति / प्रथमभङ्गवर्तिनश्चाचार्यस्य यथावत संयतीपरिवर्त्तने अतिमहती कर्मनिर्जरा यदुक्तं_ 'जइ पुण पव्वावेई जावज्जीवाए ताउ पालेई / अन्नासति कप्पे वि हु गुरुगा जं निजरा विउला'। यदीत्यभ्युपगमे / ततश्चायमर्थः-ताः प्रथमतोऽपि यतस्ततः प्रव्राजयितुं न कल्पन्ते / यदि पुनः प्रव्राजयति ततो यथोक्तविधिना यावज्जीवं ताः पालयति-योगक्षेमविधानेन सम्यग निर्वाहयतीत्यर्थः / स प्रथमभङ्गवी यदि जिनकल्पं प्रतिपित्सुरपरं चार्यिकाः परिवर्त्तयितव्याः / ततः किं करोत्विति चिन्तायां यद्यस्ति तदीये गच्छे कोऽप्यार्यिकाणां विधिना वर्तापकः ततः तस्य समर्प्य जिनकल्पं प्रतिपद्यते / अथ नास्त्यन्यो वर्त्तापकः तर्हि मा जिनकल्पप्रतिपत्तिं करोतु किन्तु आर्यिका एव परिवर्तयतु / कुत ? इत्याह अन्यस्य वर्त्तापकस्यासति-अभावे जिनकल्पेऽपि प्रतिपद्यमाने हुनिश्चये, चत्वारो गुरुकाः। आह-सकलकर्मक्षयाक्षुण्णकारणे जिनकल्पेऽपि प्रतिपद्यमाने किमेवं प्रायश्चित्तम् ? आह-यद्यस्मात्कारणात् जिनकल्प प्रतिपन्नस्य या निर्जरा तस्याः सकाशोत् विपुला निर्जरा यथावत् संयतीः परिपालयतो भविष्यतीति युक्तियुक्तमेव प्रायश्चित्तम् / तथाभिन्नमपेहे वसही सयणासणदंडथंडिलकडीणं / सज्झायकालगोअरचरिआई अपडिकमणे अ॥ व्याख्या-वसतिः-उपाश्रयः शयनं-शय्या आसनं-पीठकादि दण्डो-बाहुप्रमाणा यष्टिः स्थण्डिलं -प्रस्रवणोच्चारादि-व्युत्सर्जनभूमिः कटी-वंशखण्डादिमयीद्वारपिधानम् / एतेषामप्रत्युपेक्षणे प्रत्यु. पेक्षणां प्रमार्जनां च विनापि व्यापारणे प्रत्येकं भिन्नमासः / तथा स्वाध्यायकालगोचरचर्याणामप्रतिक्रमणेस्वाध्यायकालगोचरचर्याप्रतिक्रमणविस्मारणे प्रत्येकं भिन्नमासः / अत्र च निशीथादिभाष्यगतानां श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रणीतजीतसूत्रगतानां सुविहितजनाचीर्णजीतसमाचारीगतानां च गाथाना तद्रपाणामेव प्रायः सङ्गहीतत्वात् क्वचित् किश्चित् पदं पुनरुक्तमप्यदुष्टम् / / तथावरिसंताणि अभोगे लहुगा गुरुगा अकालसन्नाए / दगमट्टिजलुगमुअणे दगपिअणे लहुग सन्नाए / . व्याख्या-वर्षात्राण्याः-कम्बल्या वर्षादौ जलादिविराधनायां सत्योमभोगे-विनाशभयादिना अव्यापारणे चतुर्लघुकाः / अथवा वर्षति-वृष्टिं कुर्वति वारिदे यदानीतं भक्तादि तस्य भोगे-व्यापारगे चतुर्लघुकाः / अस्य पदस्यार्थोऽन्यथापि चिन्त्यः / अकालसञ्ज्ञायाम्-अकाले रजन्यां सञ्ज्ञाया व्युत्सर्जने चतुर्गुरुकाः / तथा निःकारणे मात्रके सज्ञां व्युत्सृज्य यः परिष्ठापयति तस्य मासलघु / मात्रके सज्ञा. व्युत्सर्जने चेमे दोषाः / शैक्षा गन्धेन दर्शनेन वो विपरिणामं व्रजेयुः जुगुप्सां वा कुर्युः / सागारिको वा दृष्ट्वा उडाहं कुर्यात् / अहो ! इमे अशुचयः सर्वलोकं विटालयन्तीति / भाजनभेदं वा विदध्यातू / ग्लानः Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहादिविरुद्धस्थानेषु सञ्ज्ञा व्युत्सर्जने दोषाः पुनः सज्ञाभूमिगमनाऽसमर्थः बाढमाबाधितो वा सञ्ज्ञाभूभ्यऽभावे वा पृथिव्यादिविराधनादिकारणे वा मोत्रके सज्ञां व्युत्सृज्य परिष्ठापयन्नपि शुद्धः / विरुद्धस्थाने च सज्ञाव्युत्सर्जने प्रायश्चित्तं, तच्च विरुद्धस्थानं विधा-आत्मसंयमप्रवचनोपघातकारिभेदात् / तत्रात्मोपघातकारि गृहादि तच्च परिगृहीतमपरिगृहीतं वा भवति / अपरिगृहीते मासलघु / परिगृहीते चतुर्लघु | ग्रहणाकर्षणादयश्च दोषाः / श्मशानादि प्रवचनोपघातकारि / तत्र चतुर्लघु / अशुचिस्थानसेविन एते कापालिका इवेति प्रवचनोपघोतः / अङ्गारादिदाहस्थानादीनि संयमोपघातीनि / तत्र कायविराधनानिष्पन्नं प्रायश्चित्तं / गृहादि विरुद्धस्थानेषु सञ्ज्ञाव्युत्सर्जने चैते दोषाः-दृष्टे छर्दाप्यते प्रान्ताप्यते वाऽमत्रं वो पात्यते / अदृष्टे पुनरङ्गारादिदाहस्थानमन्यत् कुर्वन्ति, तत्र च कायविराधनातीव, तां वा सञ्ज्ञां कायानामुपरि क्षिपन्ति / तथा असंसक्तग्रहणीकः साधुरुष्णे सञ्ज्ञां विसृजति / संसक्तग्रहणीः पुनः छायायाम अथोष्णे व्युत्सृजति ततः चतुर्लघु / तथा दकेन-जलेन सहिता मृत्तिका दकमृत्तिका तम्यां गमने, रक्तादिविकारे जलौकोमोचने सन्ध्यायामुत्सूरे सामाचार्यन्तरे पुन: कालवेलायां पानीयपाने चतुर्लघुकोः / तथा गुरुगो दगुल्लवत्थाइघट्टणे फुसिअमत्तगाइ लहू / सुत्थे वसओ वासुवरि गुरुग मासोवरि लहुगा // 219 // ____व्याख्या-दकेन-जलेना भिन्नं यद्वस्त्रादि, आदिशब्दात् कम्बलादिपरिग्रहः तस्य घट्टनेस्पर्शने गुरुको मासः / म्पृष्टमात्रकादौ / स्पृष्टे जलेन भिन्नमात्रकाण्डकापकरणे लघुमासः / स्पृष्टमात्रकादिघट्टने वा / तथा सौस्थ्ये-अशिवाद्यभावे वर्षाकाले वर्षाकालस्य चतुर्मासकरूपस्योपरि एकत्र स्थाने वसतः-तिष्ठतः साधोश्चत्वारो गुरुकाः / ऋतुबद्धकाले तु मासस्योपरि वसतो लघुकाश्चत्वारो भवन्ति / यतः-ऋतुबद्धवर्षास्वतिरिक्तं वसतो नियतवासो भवति / स च चतुर्द्धा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च / तत्र द्रव्यक्षेत्राभ्यां नियतवासे चतुर्भङ्गो / तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतश्च नियतः 1 द्रव्यतो नियतः क्षेत्रतस्त्वनियतः 2, द्रव्यतोऽनियतः क्षेत्रतस्तु नियतः 3. द्रव्यतः क्षेत्रतश्चानियतः / तत्र संस्तारकद्विविधोपधिप्रस्रवणसञ्ज्ञखेलमात्रकादीनि तान्येव द्रव्याणि कालद्वयातिक्रमे तस्मिन्नेव क्षेत्रे परिभुञ्जानस्य तेष्वेव च कुलेष्वाहारं गृह्णानस्य प्रथमो भङ्गः / तान्येव संस्तारकादीनि द्रव्याणि अन्यत्र क्षेत्रे नीत्वा परिभुञ्जानस्य द्वितीयो भङ्गः। तस्मिन्नेव क्षेत्रे वसतिस्वाध्यायभूमिसञ्ज्ञाभूमिकुलग्रामादिरूपे अन्यानि संस्तारकादीनि द्रव्याणि परिभुञ्जानस्य तृतीयो भङ्गः / चतुर्थस्तु शून्यो नियतवासमाश्रित्य / एवं कालभावाभ्यामपि चतुर्भङ्गो / कालतो भावतश्च नियतः 1, कालतो नियतो भावतस्त्वनियतः 2, कालतोऽनियतो भावतस्तु नियतः 3, कालतो भावतश्चानियतः 4 / तत्र ऋतुबद्धवर्षासु मोसचतुर्मासातीतं वसतः श्राद्धशय्याभक्तपानादिषु च प्रतिबद्धस्य प्रथमः / कालद्विकातीतं वसतः श्राद्धादिषु अप्रतिबद्धस्य च द्वितीयः / कालद्वयनिर्गतस्यापि श्राद्धादिषु रागप्रतिबद्धस्य तृतीयः / चतुर्थः शून्यः / वृद्धनिमित्तं च वसन् वहुकालेनापि नियतवासी न भवति / वृद्धकार्यपरिसमाप्तौ तु उपरिष्टाद्वसन् नियतवासी भवति / तत्र द्रव्यं प्रतीत्य नियतवासे उत्कृष्टोपधौ फलके च चतुर्लघु / क्षेत्रं प्रतीत्य देशे राज्ये च चतुर्लघु / कालं प्रतीत्य वर्षातीते वृद्धवासातीते च चतुर्लघु / रागेण भावनियतवासे सर्वत्र चतुर्गुरु / शेषेषु द्रव्यादिषु प्रायो मासलघु / डगलकारमल्लकेषु पञ्चामिति निशीथे / बहिरऽशिवाघमबोधिकादिगाढभयमासकल्प Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 यति-जीतकल्पे प्रायोग्यक्षेत्राभावादिकारणैः पुनद्रव्यादि चतुर्विधमपि नियतं वसेन्न दोषः / तथा ज्ञानादिगुणपरिवृद्धिनिमित्तं नियतवासोऽपि न दुष्टः / यदुक्तं गुणपरिवढिनिमित्तं कालातीते ण होइ दोसो उ / जत्थ उ बहिआ हाणी हविज तहिअंण विहरिजो // धावणडेवणसंहरिसगमणकिड्डाकुहावणाईसु / उकिटिगीअछेलिअ-जीवरूआईसु चउगुरुगा // 220 // ___ व्याख्या-धावनमतिवेगेन गमनम् / डेपनं-वरण्डाधुलङ्घनम् / सङ्घर्षणगमनम्-आवयोः कः शीघ्रगतिरिति स्पर्द्धया गमनं, समश्रेणिस्थितस्य वा यानं, क्रीडा-सारिचतुरङ्गताद्या / कुहावण त्ति / कुहना-विस्मयकारिणी दम्भक्रिया इन्द्रजालकगोलकखेलनाद्या, आदिशब्दात् समस्याग्रहेलिकादयो गृह्यन्ते / उत्कृष्टि:-बूत्कारपूर्वकः कलकलः / गीतं-प्रतोतं छेलितं-सेण्टितं तस्करसञ्ज्ञा / जीवरूतंमयूरमार्जारशुकसारसादिलापितम् / आदिशब्दादजीवरुतं अरघट्टशकटपादुकादिशब्दरूपम् / एतेषु सर्वेषु शुद्धिकृञ्चतुर्गुरुकम् / तथाअहछंद अभुटुंजलिकरणे चउगुरुगलहुग पासत्थे / थीमेहुण संकाए चउगुरु निस्संकिए मूलं / / व्याख्या-इह छन्दोऽभिप्रायः , ततो यथाऽस्याभिप्रेतं स्यात्तथा प्रज्ञापयन् यथाछन्दो भवति / तस्य चेदं स्वरूपम् उस्सुत्तमणुवदिटुं सच्छंदविगप्पिअं अणणुवाई / परतत्तिपवत्तो तिंतिणे अ इणमो अहाछंदो॥ उस्सुत्तं णाम सुत्तादवेअं। अणुवदिटुं नाम जं नो आयरिअपरंपरागयं / मुक्तव्याकरणवत् / सीसो पुच्छइ-किमण्णं सो परूवेति ? / आचार्य आह-सच्छंदविगप्पिअं-स्वेन छन्देन विकल्पित स्वच्छन्दविकल्पितं / तं च अणणुपाती-न क्वचित् सूत्रे अर्थे उभये वा अनुपाता भवति ईदृशं प्ररूपयति / किञ्च-परो गृहस्थः तस्य कृताकृतव्यापारवाहकः परापवादभाषी वा स्त्रीकथादिप्रवृत्तो वा परतप्तिप्रवृत्तः / तिंतिणो दव्वे भावे अ / व्वे तंबुरुगादिकट्ठ अगणिपक्खित्तं तिणितिणेति / भावे तितिणो आहारोवहिसिज्जाओ इट्टाओ अलभमाणे सोअति जूरति तप्पति / एवं दिवसंपि तिडितिडितो अच्छति / इमा अहोछन्दे प्रतिपत्तयः / सो अ अहाछंदो तिहा उस्सुत्तं दंसेति / परूवण-चरण-गईसुं / तत्थ परूवणे इमं . पडिलेहणमुहपत्ती रयहरणनिसिज्ज पायमत्तए पट्टे / पडलाइं चोल उण्णा दसिआ पडिलेहणा पात्तं / / पायपडिलेहणि-मुहपोत्तिआणं एगतरं भवतु / जतो सकायपमज्जणा भायणपमजणा य एआए चेव कजति न विरोहो / अप्पोवगरणया य भवति / तम्हा सच्चेव पडिलेहणिआ सच्चेव मुहपोत्तिआ कज्जतु / रयहरणपट्टगो चेव बाहिरनिसजकज्जं करोति किं निसज्जागहणं कजति ? एक्कं चेव पायं पडिग्गहं भवतु किं मत्तयगहणं कजति ? पडिग्गहेणं निअ मत्तयकज्ज कजति / भणिअं च तरुगो एग पायं गिहिज्जा / पट्टेति / उत्तरपट्टो सो राओ अत्थुरणं कजति, भिक्खग्गहकाले तं चेव पडलं कजति / अहवा.रातो उत्तरपट्टो दिवा सो चेव चोळपट्टो कजति / किं कक्खडफ़ासाहि Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथाछन्दस्य प्ररूपणा 121 उण्णसिआहि खोमिआ चेव मिउफासा भवन्तु / जइ जीवदयत्थं पडिलेहणा कजति तो एगवत्थस्स उवरिं सव्वपडिलेहणा कज्जतु / तं वत्थं बाहिं सीतले पदेसे पडिलेहेज्जउ / एवं जीवदया भवति / दंतच्छिन्नमलितं हरिअठिअ पमज्जणा य णितस्स / अणुवाइ अणणुवाई परूवणाचरणगइसुं तु / / दंतेहिं नहा छिन्तव्वा नहहरणं न चित्तव्वं, अधिकरणसम्भवात् / पायमलित्तं धरेअव्वं लेवग्गहणे बहु आयसंजमविराहणा भवति / हरितोवरिद्विअं डगलादि चित्तव्यं, ते जीवा भाराकान्ता आसासिआ भवंति, अण्णहा अदयालुत्तं भवति / जहा नितो जीवदयत्थं पमज्जइ जावच्छन्नं, तहा परतोवि पमज्जउ जीवदयत्थमेव न दोसो / इत्थ किंचि अणुवादि जहा पडिलेहणि मुहपत्ती / अहवा पहिलेहणा पुत्ते / किंचि अणणुवादी जहा पट्टे अ पडलाइं चोलेति, छप्पदिअंडओदरसम्भवात् / अहवासव्वे पदा अगीतस्स अणुवादी अ प्रतिभान्ति / गीतार्थस्य अननुपाति अनभिहितत्वात् सदोषत्वाच्च / एसा परूवणा भणिआ / इआणि चरणगतीसु भन्नति / तत्थ चरणे सागारिआदि पलिअंक निसिज्जा सेवणा य गिहिमत्ते / निग्गंथिचिट्ठणादी पडिसेहो मासकप्पस्स / / ___सिज्जातरपिंडो उम्गमादिसुद्धो भुत्तव्यो, आदिग्गहणातो रायपिण्डोवि न दोषः / नवे पलिअंके मंकुणादिजीवविरहिते सोअव्वं न दोसो। गिहिनिसिज्जाए को दोसो ? अवि अ सोहू तत्थ निसण्णो धम्म कहिज्जा / ते अदुविहं धम्म पडिजिजा। गिहिधम्म साहुधम्मं च / एवं बहुतमो गुणो गिहिनिसिजाए / गिहिमत्तसेवणे को दोसो ? अवि अ उड्डोह पच्छादणं कयं भवति / निग्गंधीणं उक्स्सए दोसविमुक्को कुसलचित्तो चिट्ठणादीपदे किं न करेति ? अह तत्थ ठिअस्स अकुसलचित्तसंभवो भवे अन्नत्थवि अकुसलचित्तस्स दोसो भवत्येव / जत्थ न दोसो तत्थ मासाहिपि वसतु, जत्थ दोसो तत्थ ऊणेवि मासे गच्छउ / एवं मासकप्पेण न किंचि पओअणं / एवं चरणे परूवणं करेति / किश्चान्यत् __'चारे वेरज्जे वा पढमसमोसरणि तह य नियते उ / सुण्णे अकप्पिते वा अन्नाउंछे अ संभोगे' // चरणं चारः / विगतरायं वेरज्जं जं भणिअं-णो कप्पति निग्गंथाणं वेरज्जविरुद्धरज्जंसि सज्जं गमणं सज्ज आगमणं / तदयुक्तं, कम्हा? जम्हा परिसहोवसग्गा सोढव्वा / अवि अ पव्वयंतेण चेव अप्पा परिचत्तो। पढमसमोसरणंसि उग्गमादिसुद्धं वत्थपत्तं कि न घिप्पति ? को दोसो ? / निम्ममस्स नियतावासे को दोसो?। अवि अ विहरंताणं सीउण्हपरिसहाइया य दोसा / निप्पञ्चवाए सुन्ना वसही किं न कज्जइ ? को दोसो ? पिंडवत्थादि अकप्पिएण उग्गमादिसुद्धं आणिअं किं न भुंजइ ? अन्नाउंछं अडंतस्स पिवासखुहपरिस्समा बहुतरा दोसा, तम्हा सड्ढादिसु कुलेसु चेव उग्गमादिसुद्धं चित्तव्वं / अन्नसंभोइओ पंचमहव्वय अद्वारससीलंगसहस्सधारी तिगुत्तो पंचसमितो अ, तेण सद्धिं किं न भुंजइ ? न य अन्नकिरिआ अन्नरस संकमति / एवं चरणे उम्सुत्तं परूवेति करेति अ / इआण गतिदिद्रुतमाह खित्तं गओ अ अडविं एगो संचिक्खई तहिं चेव / तित्थगरोवि अ पिअरो खित्तं तू भावतो सिद्धी। इमं अहाछंदो दिटुंतं परिकप्पेइ / तंजहा-एगो कुडुंवी तस्स चउरो पुत्ता / तेण सव्वे संदेवा-गच्छह खित्ते / किसिवावारं करेह / तत्थेगो जहुत्तं खित्ते कम्मं करेति / बीओ निग्गंतुं अडवीए उज्जाणादिसु Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 यति जीतकल्पे सीअलच्छायठितो अच्छइ / तइओ गिहा निग्गंतु गामे चेव देवकुलादिसु जूआदिपमत्तो चिति / चउत्थो गिहे चेव किंचि वायारं करितो चिट्ठति / अन्नया तेसिं पिता मतो। ताण जं पितिसंतिअं किंचि दव्वं खित्ते वा उत्पन्नं तं सव्वं समभागेण भवति / इआणि दिटुंतोवसंहारो / पच्छद्धं / कुटुंबीसमा तित्थगरा / भावतो खित्तं सिद्धी / पढमपुत्तसमा मासकप्पविहारी उज्जमंता / बितिअपुत्तसमा नियतवासी / तइअपुत्तसमा पासत्था / चउत्थपुत्तसमा सावगधम्मद्विता गिहिणो / पितिसंतिअं दव्वं नाणदसणचरित्ता / जं च तुम्भे खित्तं पडुच्च दुक्करं किरिअकलावं करेह / तं सव्वं अम्ह निअतादि भावटिआणं सुहेण चेव सामण्णं / एसो अहाच्छंदो / अह पासत्थो दुविहो खलु पासत्थो देसे सव्वे अ होइ नायव्यो / सव्वे तिन्नि विगप्पा देसे सिज्जायरकुलादी / / दुविहो पासत्थो देसे सव्वे अ / सव्वहा जो पासत्थो सो तिविहो / देसेण जो पासत्थो सो सिंज्जायर पिंडभोइमादी अणेगविहो / पासत्यनिरुत्तं इमं सव्वदेसभेएणं भन्नति / दसणनाणचरित्ते तवे अ अत्ताहितो पवयणे अ / तेसिं पासविहारी पासत्थं तं विआणोहि // दसणादिआ पसिद्धा / पवयणं चाउवन्नो समणसंघो / अत्ता-आत्मा संधिपयोगेण आभियोगेण आहितोआरोपितः स्थापितः जेहिं साहुहिं / उज्जुत्तविहारिण इत्यर्थः / तेसिं साधूणं पासबिहारी जो सो एवं. विधो पासत्थो पवयणं पड्डुच्च, जम्हा साहुसाहुणि-सावगसाविगासु एगपखेवि न निक्डइ तम्हा पवयणं पइ तेसि पासविहारी / अहवा दंसणादिसु अत्ता अहिओ जस्स सो अत्ताहितो दर्शनादीनां विराधक इत्यर्थः। जम्हा सो विराधको तम्हा तेसिं दसणादीणं पासविहारी पासत्थो। तिविधभेदो भण्णति / दसणनाणचरित्ते सत्थो अच्छइ तहिं न उज्जमति / एएण उ पासत्थो एसो अन्नोवि पज्जाओ। सत्थो अच्छइ त्ति / सुत्तपोरिसिं वा अत्थपोरिसिं वा न करेइ नोद्यमते / दसणाइआरेसु वट्टइ / चारित्ते न वट्टति / अइआरे वा न वज्जेइ / एवं सत्थो अच्छइ / तेन पासत्थो अन्यः पर्यायः / अन्यो व्याख्या प्रकारः / अहवा ___ पासोत्ति बंधणंति अ एगट्ठ बंधहेतवो पासो। पासद्विअ पासत्थो एसो अन्नोवि पज्जाओ / / पासो वा वंधणो त्ति वा एगळं / एए पया दोवि एगठ्ठा / वंधस्स हेऊ अविरतमादी ते पासा भण्णंति / तेसु पासेसु ठिओ पासत्थो / सव्वपासत्थो गतो / इमो देसपासत्थो-.. 'सिज्जातर कुलनिस्सिअ ठवणाकुल पलोअणा अमिहडे अ / पुाव्वपच्छासंथुअ निअअग्गपिंडभोती अ पासत्थो।। सिज्जातरपिंडं भुजनि / सड्ढाइकुलनिस्साए विहरति / ठवणकुलाणि वा निक्कारणे पविसति / संखडिं पलोएति देहं वो पलोएइ आदंसादिसु वो / अभिहडं गिण्हइ भुजति अ / सयणं पडुच्च मातापितादिअं पुव्वं संथवं करेति / पच्छा संथवं वा सासुप्तसुरादिअं / दाणं वा पडुच्च अदिण्णे पुश्वसंथवो दिण्णे पच्छा संथवो, निअयं निञ्च निमंतणे निकाएति / जइ दिणे दाहिसि अग्गकूरो तं गिण्हइ भुजइ अ / एवमादिएसु अववादपदेसु वटुंतो देसपासत्थो भवति / अथ कुत्सितशील:-कुत्सितेषु शीलं करोतोति कुशीलः / तस्य चेदं स्वरूपमू Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशीलावसन्नादिस्वरूपम् 123 कोउअ भूतीकम्मं पसिणापसिणं निमित्तमाजीवी। कक्ककुरुसुमिणलक्खणमूलमंतविज्जोवजीवी कुसीलो उ।। निंदुमादिआणं तिगचञ्चरादिसु ण्हवणं करेति त्ति कोतुअं / रक्खनिमित्तं अभिमंतिअं भूति देति / अंगुट्रबाहुपसिणादि करेति / सुविणगे विजाए अक्खिअं अक्खमाणस्स पसिणापसिणं / तीतपडुप्पण्णमणागयनिमित्तोवजीवी / अहवा-आजीवी जातिकुलगणकम्मसिप्पे पंचविहे करेति / लोत्रादिकेन कल्केन जंघादि यसति / सरीरे सुरसूसाकरणं कुरुकुआ बकुसभावं करेति त्ति वुत्तं भवति / सुभासुभसुमिणफलं अक्खति / इस्थिपुरिसाण मसतिलगादिलक्खणे सुभासुभे कहेति / विविधरोगपसमणे कंदमूले कहिंति / अहवा-गब्भादाणपरिसाडणे मूलकम्मं मंतविजोहिं वा जीवणं करतो कुसीलो भवति / अथावसन्नो-बहुतरगुणापराधी / स च द्विधा-देशतः सर्वतश्च / तत्र देशतोऽयं 'आवासग सझाए पडिलेहा झाण भिक्खभत्तढे / काउस्सग्ग पडिक्कमणे कितिकम्मं चेव पडिलेहा' / / आवासग त्ति / अस्य व्याख्या - आवासगं अनिअयं करेति हीणातिरित्तविवरीतं / गुरुवयणनियोगवलायमाणो इणमो उ ओसण्णो।। अणिअयं कदाइ करेति कयाइ न करेति / हीणं वा करेइ अधिकं वा करेइ, दोसेहिं वा सह करेति / चकवाल सामायारीए सीअमाणो आवस्सगे आलोअणवेलाए नियोगत्ति चोइतो सम्म अपडिवजंतो तहो वा अकरितो वलायमाणो गुरुवयणो भवति / अन्नत्थ वा चोइओ गुरुवयणाओ घलायति / सज्झाय त्ति / सज्झायं हीणं करेति अतिरिक्तं वा करेति / अहवा न करेति, विवरीअं वा कालिअं उक्काले करेति, उक्कालिअं वा कालबेलाए करेति, असज्झाइए वा करेति / पडिलेहणाए वि एवं चेव दव्यं / पुवावरत्तकाले झाणं नो झायति / आलसिओ भिक्खं न हिंडइ, अपुवउत्तो वा भिक्खाविसोह न करेति, असुद्धं वा गिण्हति / भत्तद्व त्ति / मंडलीए कयाइ भुजति कयाइ न भुजति, मंडलिसामायार वा न करेति, दोसेहिं वा भुजति / पविसंतो निसीहि न करेति / नितो आवस्सिअं न करेति / णिताणितो न पमज्जति वा / नदिसंतरणादिसु अन्नत्थ वा गमणागमणे काउम्सग्गं न करेति. दोसेहिं वा करेति / पडिक्कमणं ति / मिच्छादुक्कडं / तं पमायखलियादिसु न करेति / संवरणादिसु कितिकम्मदाणेसु कितिकम्मं वंदणं न करेति / गुरुमाईण वा विस्सामणादि कितिकम्मं न करेति / निसी अणतुअट्टणादिद्वाणं न पडिलेहेइ / संडासयं वा निसीअंतो आदाणनिक्खेवणेसु वा न पडिलेहेइ न पमज्जति / एस देसोसन्नो गतो / इमो सव्वोसण्णो 'यु उबद्धपीठफलगो ओसन्नं संजयं विआणाहि / ठविअगरईअगभोई एमेआ पडिवत्तीओ' जो अ पक्खस्स पीठफलगादिआण बंधे मुत्तुं पोडलेहणं न करेति सो संजओ उउबद्धपीठफलगो / अहवा निच्चुत्थरिअसंथारगो उउबद्धपीठफलगो भण्णति / ठविअपाहुडिअं भुजति निक्खित्तभोई वा ठविअभोई। घंटिकरगपटलगोदिसु जो अवट्ठिअंआणेउं भुजति सो रइअभोई / अहवा इमो संखेवओ ओसण्णो भण्णति - सामायोरि वितहं ओसण्णो जं च पावई जत्थ / संसत्तो व अलंदो नडरूबी एलओ चेव / / सव्वं सामायारिं वितहं करितो ओसन्नो, जं वा मूलुत्तरगुणातिआरं जत्थ किरिआविसेसे पयट्टो पावह Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्प तं अनिंदतो अणालोअंतों पच्छित्तं अकरितो ओसण्णो भवति / अह दोसाह जुत्तो संसत्तो आर्किण्णदोसो वा संसत्तो। पच्छद्धं / संसत्तो कहं ? अलंदमिव जहा गोभत्तकलंदयं अणेगदव्वनिअरं किमिमादीहिं वा संसत्तं तहा सोवि / अहवा-संसत्तो अणेगरूवी नटवत् एडकवत् / जहा नडो नडवसा अणेगाणि रूवाणि करेति / ऊरणगो वा हलिद्दरागेण रत्तो धोविउं पुणो गुलिगगेरुगादिरागेण रज्जते / एवं पुणो पुणोवि धोविउ अण्णोण्णेण रज्जति / एवं एलगादिबहुरूवी, एवं संसत्तोवि इमेण विहिणा बहुरूवी। ___ 'पासत्थ अहाछंदे कुसील ओसन्नमेव संसत्ते / पिअधम्मो पिअधम्मे चेव इणमो उ संसत्तो / / पासत्थाणं मझे ठितो पासत्थो / अहच्छंदेसु अहाछंदो / कुसीलेसु कुसीलो। ओसन्नेसु ओसण्णाणुवत्तिओ ओसण्णो। संसत्ताण मज्झे संसत्ताणुचरितो / पिअधम्मेसु मिलितो अप्पाणं पिअधम्म दंसेइ / निद्धंमेसु निद्धम्मो भवति / इणमोत्ति वक्खमाणस्वरूपं संसत्तो पंचासवप्पवत्तो जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो / इथिगिहिसंकिलिट्ठो संसत्तो सो उ नायव्वो' / पंच आसवदारा पाणवह-मुसावाय-अदत्त-मेहुण-परिग्गहा एतेषु प्रवृत्तः / खलुः अवधारणार्थः / / तिण्णि गारवा इढिरससाया एएसु भावतो पडिबद्धो / इत्थीसु मोहमोहितो संकिलिटो तप्पडिसेवी / गिहीसु वि समक्खपरोक्खेसु सुत्थदुत्थेसु दुपदचउपदेसु वा वाधारवहणपडिबद्धो संकिलिट्ठो। संखेवो इमो-जो जारिसेसु चेव मिलति सो तारिसो चेत्र भवति / एरिसो संसत्तो नायव्यो / अह निञ्चमवत्थाणाओ नियतोजं पुव्वं निअयं खलु चउव्विहं वण्णिअं तु बितिअंमि / तं आलंबणरहिओ सेक्तो होइ निअओ अ॥ व्वखित्तकालभावा एअं चउव्विहं इहेव अज्झयणे बिइउद्देसे वण्णिअं, सं निकारणे सेवंतो निअतो भवति / सज्झायादिकरणिज्जे जोगे मोत्तुं जो देसकहादिकहाओ कहेति सो काहिओ / आहारादीणट्ठा जसहेउ' अहव पूअणनिमित्तं / तक्कम्मो जो धम्मं कहेइ सो काहिओ होइ ' / / धम्मकहं पि जो करेति आहारादिनिमित्तं वत्थपायादिनिमित्तं जसत्थी वा वंदणादिपूआनिमित्तं वा, सुत्तत्थपोरिसिमुक्कवावारो अहो अ राओ अ धम्मकहादिपढणकहणवंझो तदेवास्य केवलं कर्म तत्कर्मा एवं विधो काहिओ भवति / चोअग आह-नणु सज्झाओ पंचविहो वायणादिगो तस्स पंचमो भेदो धम्मकहा तेण भव्वसत्ता पडिबुझंति तित्थे अ अव्वुच्छित्ती पभावणा य भवइ, अतो ताओ निर्जरा चेव भवति कहं काहिअत्तं पडिसिज्झइ 1 / आचार्य आह काम खलु धम्मकहा सज्झायस्सेव पंचमं अंगं / अव्वुच्छित्ती अ ततो तित्थस्स पभावणा चेव' / / पूर्वाभिहितनोदकानुमते कोमं शब्दः / खलुशब्दोऽवधारणार्थे / किमवधारयति ? इमं समायस्स पंचमं चेवंग धम्मकहा / जइ अ एवंसहविह न सव्वकालं धम्मकहा जीइ सव्वपरिहाणी / नाउ व खित्तकालं पुरिसं च पवेदए धम्मं ' // सव्वकालं धम्मो न कहेअब्बो। जहा पडिलेहणाइसंजमजोगाणं सुत्तत्थपोरिसीण य आयरिअ. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिक-मामाक सम्प्रसारकस्वरूपम् 125 गिलाणमादिकिञ्चण य परिहाणी भवइ / अतो न काहिअत्तं कायव्वं / जया पुण धम्मं कहेइ तयो नाउ साधुसाधुणीण व बहु गच्छवग्गहं / खित्तं ति / ओमकाले बहूणं साहुसाहुणीणं उवग्गहकरा इमे दाणसड्ढादि भविरसंति धम्मं कहेइ, रायादिपुरिसं वा नाउ कहिज्जा / महाकुले वा इमेण इक्केण उवसंतेणं पुरिसेणं बहू उवसमंतीति कहिज्जा / / जणवयववहारेसु नडनड्डादिसु वा जो पेक्खणं करेइ सो पासणिओ। ... लोइअववहारेसू लोए सत्थादिएसु कज्जेसु / पासणिअत्तं कुणई पासणिओ सो उ नोयव्वो'। लोइअववहारेसु त्ति / अस्य व्याख्यासाधारणे विरेगं साहइ पुत्त पडए अ आहरणं / दुण्ह व इक्को पुत्तो दुण्णि अ महिला उ एगस्स / / दुण्हं सामन्नं साधारणं तस्स विरेगो-विभयणं / तत्थन्ने पासणिआ छेत्तुमसमत्था सो भावत्थं नाउ छिंदति / कहं ? इत्थ उदाहरणं भण्णति-एगस्स वणिअस्स दो महिलाओ तत्थेगीए पुत्तो / एअं उदाहरणं जहा नमुक्कारनिज्जुत्ताए / पडगआहरणंपि जहा तत्थेव / एवं अन्नेसु वि बहुसु लोगववहारेसु पोसणि अत्तं करेति छिंदति वा / लोए सत्थादिएसु त्ति / अस्य व्याख्या छंई निरुत्तं सद्द अस्थं वा लोइआण सत्थाणं / भावत्थं च पसाहइ छलिआई उत्तरे सउणे / / छंदादिआणं लोगसंस्थाणं सुत्तं कहेइ अत्थं वा / अहवा- अत्यं व त्ति अत्थसत्थं सेतुमादिआण का बहूणं कज्जाणं कोडिल्लयाण य वेसिअमादिआण य भावत्थं पसाहइ / छलिअ-सिंगारकहा त्थीवण्णगादी / उत्तरे त्ति / ववहारे उत्तरं सिक्खवेइ / अहवा-उत्तरेत्ति / लोउत्तरे वि सउणरुआदीणि कहयति / ममीकारं करितो मामाओ-. 'आहार उवहि देहे विआर विहार वसहि कुलग्गामे / पडिसेहं च ममत्तं जो कुणई मामओ सो उ' / / उवगरणादिसु जहासंभवं पडिसेहं करेति मा मम उवगरणं कोइ गिण्हउ / एवं अन्नेसु वि विहारभूमिमादिएसु पडिसेहं सगच्छपरगच्छयाणं वा करेति / आहारादिएसु चेव सव्वेसु ममत्तं करेति / भावपडिबंधं एवं करितो मामाओ भवति / विविधदेसगुणेहिं पडिबद्धो मामाओ इमोअह जारिसओ देसो जे अ गुणा इत्थ सस्सगोणादी / सुंदर अभिजाय जणा मामाति निकारणा वदति' / / अह त्ति अयं / जारिसो देसो रुक्खवाविसरतडागोवसोमितो एरिसो अन्नो नत्थि / सुहविहारो सुलभवसहि भत्तोवकरणादिआ य बहू गुणा। सालि कुल्मासादिआ य बहू सस्सा निष्फजति अ / गोमहिसिपउरसणतो अ पउरगोरसं / सरीरेण वत्थादिएहिं सुंदरो जणो / अमिजायत्तणतो अ कुलीणो न साहुमुवदवकारी / एमादिएहिं गुणेहिं भावपडिबद्धो निकारणतो वा षयति प्रशंसतीत्यर्थः / गिहीण कजाणं गुरुलाघवेणं संपसारितो संपसारओ / 'असंजयाण मिक्खू कज्जेसु असंजमप्पवत्तेसु / जो देइ सामत्थं संपसारो उ नायव्यो'। जे. मिक्खू असंजयाणं असंजमकज्मपवताणं पुच्छंताणं अपुच्छताणं वा सामत्थं देइ-मा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्प एवं इमं वा करेहि / इत्थ बहुदोसा जहाहं भणामि तहा करेहि त्ति / एवं करितो संपसारओ भवति / ते अ इमे असंजमकज्जा गिहिनिक्खमणपवेसे आवाहविवाहविक्कयकए वा / गुरुलाघवं कहते गिहिणो खलु संपसारीओ // गिहिणं असंजयाणं गिहाओ दिसि जत्ताए वा निग्गमयं देइ / जत्ताओ वा आगयस्स पवेसं देइ / आवाहो बिट्टिआलंभणयं सुहं दिवसं कहेइ मा वा एअस्स देहि इमस्स वा देहि / विवाहपडलमादिरहिं जोइसगंथेहिं विवाहवेलं देइ / अग्घकंडमादिएहिं गंथेहि इमं दव्वं विकिणाहि इमं वा किणाहि / एवमादिएसु कज्जेसु गिहीणं गुरुलाघवं कहितो संपसारत्तणं पावइ / एवं प्रकल्पाध्यनाभिहितस्वरूपा यथाछन्द-पार्श्वस्थ-कुशीला-ऽवसन्न-संसक्त--नियत-काथिक-दार्शनिक-मामाक-सम्प्रसारका एते दश न वन्दनीया न प्रशंसनीयाश्च / यदुक्तम् एएसामण्णतरं जे भिक्खु पसंसए अहव वंदे / सो आणा अणवत्थं मिच्छत्तविराहणं पावे / पासत्थाई बंदमाणस्स नेव कित्तो न निजरा होइ / कायकिलेसो एमेव कुणइ तह कम्मबंधं च / / अतो यथाछन्दादीनां वन्दने प्रायश्चित्तं तच्च प्रस्तुतगाथया प्रतिपाद्यते-यथाछन्दस्य अभ्युत्थाने अञ्जलिकरणे च प्रत्येकं चतुर्गुरुकाः / अभ्युत्थानं च षोढा-अभिमुखोत्थानम् , आसनोपढौकनं, किंकरोमीति भणनं, धर्मच्युतस्य पुनर्धर्मे स्थापनरूपमभ्यासकरणम् , अभेदरूपा अविभक्तिः एतत्पञ्चपदरूपः संयोगश्च / उक्तं च.. अध्भुटाणे आसण किंकर अब्भासकरण अविभत्तो / संजोगविहिविभत्ता अब्भुटाणे वि छदाणा' / ततोऽभिमुखोत्थानादिपञ्चके कृते अभ्यासकरणे पुनः सामर्थ्य सत्यकृते प्रायश्चित्तम् / अञ्जलिंकरणमपि षोढा-पञ्चविंशत्यावश्यकयुक्तं वन्दनं 1, शिरसा प्रणामकरणम् 2, एकस्य द्वयोर्वा हस्तयोर्ललाटे योजनं 3, बहुमानरसभरेण सरभसं नमो खमासमणाणमितिभणनं 4, निषद्याकरणम् 5, एतेषां योगश्च.६ / उक्तं च बंदिअ पणमिअ अंजलि गुरु आलावे अ अभिग्गहनिसज्जा / संजोगविहिविभत्ता अंजलिपगहेवि छट्ठाणा'।। पार्श्वस्थस्य पुनरभ्युत्थाने अञ्जलिकरणे च चतुर्लघुकाः / उपलक्षणत्वात् कुशीला-ऽवसन्न-संसक्त-नियतकाथिक-दार्शनिक-मामाक-सम्प्रसारकाण्वं गृहस्थानां वाऽभ्युत्थाने अञ्जलिकरणे च चतुर्लघुकाः / संयतीनां च वन्दने चतुर्गुरु / किं मैथुनार्थी कुपितां वा प्रसादयतीति शङ्का च भवतीति / तत्र च प्रायश्चित्त यथा-स्त्रीमैथुनशङ्कायर्या चतुर्गुरु / निःशङ्किते च मैथुने मूलम् / तथा पार्श्वस्था-ऽवसन्न-कुशीलसंसक्तादीनामन्यतोर्थिकानां गृहस्थानां वा बाचनादाने तेभ्यो वा वाचनाग्रहणे चतुर्लघु / अथवा--अर्थे च चतुर्गुरु / यथाछन्दानां सूत्रे चतुर्गुरु / यथाछन्दानाम् अर्थे षड्लघु। तथा पुरुषाणां स्त्रीवाचनायां चतुर्गुरु / स्त्रीणां च पुरुषवाचनायां चतुर्गुरु / पार्श्वस्थादीनामनेकदिनवाचनासु पुनः प्रायश्चित्तमिदम् सत्तरत्तं तवो होइ ततो छेओ पहावई / छेएण छिन्नपरिआए तओ मूलं तओ दुर्ग' // सप्त दिनानि चतुर्लघुतपः, ततः एक दिनं चतुर्लघुच्छेदः, ततः एकैकदिनं मूलाऽनवस्थाप्यपाराञ्चिकानि / अथवा-तपस्तथैव चतुर्लघुच्छेदः / सप्त दिनानि शेषाण्येकैकदिनं तथैव / अथवा तपस्तथैव षड्गुरुच्छेदः सप्त दिनानि शेषाणि तथैव / अथवा-चतुर्लघुतपः सप्त दिनानि ततश्चतुर्गुरुतपः सप्त दिनानि / ततः - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावस्थादीनामशमादेः दाने ग्रहणे च दोषाः 137 षड्गुरु सप्त दिनानि, तत एते एव च्छेदाः सप्त सप्त दिनानि / ततो मूलानवस्थाप्यपाराश्चिकान्येकैकदिनम् / अथवा-चतुर्लघ्वादीनि तपांसि तान्येव सप्त सात दिनानि / ततो लघुपञ्चकादिकाः षड्गुरुपर्यन्ता छेदाः प्रत्येकं सप्त सप्त दिनानि ज्ञातव्याः / ततो मूलानवस्थाप्यपाराठिचकान्येकैकदिनम् / पार्श्वस्यादिषु च वाचनादानादानयोर्वन्दन-दुष्टसंसर्गादयोऽनेकदोषाः / अन्यतीर्थिकगृहिभ्यो ग्रहणे मिथ्यात्वस्थिरीकरण यथा ते तेषां समीपे गच्छन्तं दृष्ट्वा मिथ्यादृष्टयश्चिन्तयन्ति-इमे एव प्रधानतरा यत एतेप्येतेषां समीपे शिक्षन्ते / लोको दृष्ट्वा भणति- एतेषामात्मन आगमो मास्ति, परसत्कानिशिक्षन्ते, निस्सारं प्रवचनमित्यपभ्राजना / एवमादयो दोषाः / तेषां च दोनेऽधिकरणादयों दोषाया पुनगृही अन्यतीर्थिको वा ज्ञानदर्शनचारित्राणि प्ररूपयति जिनवचनं च रोचते यस्य स्वपाषण्डयेव स वाच्यते / तथा गृही परपाषण्डी वा प्रव्रज्याऽभिमुखो वाच्यते / श्रीवको वा सूत्रतः षडजीवनिकां यावदर्थस्तु पिण्डेषणाध्ययनं यावत् / पार्श्वस्थादिर्वा संविग्नविहारमभ्युपगतोऽभ्युगन्तुकामो वा वाच्यते / तथाऽन्यत्रालाभे सिद्धान्ताव्युच्छित्त्यर्थं पार्श्वस्थादिभ्योऽपि गृह्यते, संयतीनां च यद्याचार्य विना प्रवत्तिन्यादिर्वाचयित्री नास्ति तदाऽऽचार्यों वाचनां ददाति न दोषः / तथा गृहीणामन्यतीर्थिकानां वा अशनाद्याहारदाने चतुर्लघु, आज्ञाभङ्गादयश्च दोषाः / यदुक्तम्'जे भिक्खू असणादी दिज्जा गिहि अहव अन्नतित्थीण / सो आणा अणवत्थं मिच्छत्त विराहणं पावे' / / सव्वे वि खलु गिहत्था परपवादी य देसविरया य / पडिसिद्धदाणकरणे समणे परलोगकंखिम्मि' / / . एतेषु दानं शरीरशुश्रूषाकरणं वा, अथवा दानस्यैव करणं यः परलोककोङ्क्षी श्रमणः तस्यैतत् प्रतिषिद्धम् / अत्र नोदकः प्राह जुत्तमदाणमसीले कडसामइओ उ होइ समण इव / तस्समजुत्तमदाण आचार्य आह-चोअग ! सुण कारणं तत्थ / / रंधणकिसि वाणिज्जं पव्वत्तइ तस्स पुव्वविणिउत्तं / सामाइअकडजोगिस्सुवस्सए अच्छमाणस्स / / सामाइअ पारेऊण निग्गओ जाव साहुवसहीओ। तं करणं साइज्जइ उदाहु तं वोसिरइ सव्व / / दुविह तिविहेण रुंभइ अणुमण्णा तेण सा न पडिसिद्धा / तेण उ न सव्वविरओ कडसामइओबि सो किं च // कामी सघरंगणओ थूलपइण्णा सि होइ ददुव्वा / छेअणभेअणकरणे उद्दिटुकडं च सो भुजे'। अस्याः चूपिणः-पंचविसया कामेति त्ति कामी / सह गृहेन सगृहः / अङ्गना-स्त्री सह अङ्गनया साङ्गनः / थूलपइण्णा देसविरति त्ति वुत्तं भवति / साधूणं सव्वविरई, वृक्षादिच्छेदने पृथिव्यादिभेदने च प्रवृत्तः सामायिकंभावादन्यत्र, जं च उद्दिटुकडं तं कडसामइओ वि भुंजइ / एवं सो सम्वविरओ न भवति / एएणं कारणेणं तस्स न कप्पइ दाउं / इमो अववाओ-गिही अन्नतित्थी वा णिबंघेणं मग्गिज तदा से दिज्जति / सेहो वा गिहिवेसढिओ भावतो पव्वइओ तस्स दिजा / विज्जस्स वा गिलाणट्ठा आणिअस्स दिज्जति / एवमादि एवं पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तनित्यवासिनामशनादिदाने तेभ्यो वा अशनादिग्रहणे चतुर्लघु आज्ञादयश्च दोषाः / उक्तं च Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकरूप - पासस्थासम्भाणं फुसील-संसात-निअयवासीणं / जे भिक्खू असणाई दिज्ज पडिच्छिन्न वाणाई'। पार्श्वस्थादयश्वोद्गमादिदोषेषु नित्यं वर्तन्ते / अतस्तेषां दाने ते अनुमोदिताः, तेषां च हस्ताद ग्रहणे उगमादिदोषाः प्रतिसेविता भवन्ति / तथा चोक्तम् उग्गमदोसादीआ पासत्थाई जओ न वज्जति / तम्हा उ तव्विसुझिं इच्छंतो ते विवज्जिज्जा / / सूइज्जह अणुरागो दाणेणं पीहतो अगहणं तु / संसग्गया य दोसा गुणा यः इअ ते परिहरिजा // .. तुसंसर्गतो बहुदोषाः, अदुएसंसर्गतच गुणा भवन्ति / अन्न च वमशुकोदाहरणं यथा माताप्येका पिताप्येको मम तस्य च पक्षिणः / अहं मुनिमिरानीतः स च नीतो गवाशनैः // 1 // गवाशनानां स गिरः शृणोति अहं तु राजन् ! मुनिपुङ्गवानाम् / प्रत्यक्षमेतद्भवतापि दृष्टं संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति // 2 // अत्राऽयमपवादः असिवे ओमोदरिए रायढे भये व गेलन्ने / अद्भाणरोहए वा दिज्जो अहवा पहिच्छिज्जा / सथा योऽन्यतीथिकाना गृहस्थानां वा वस्त्रादि ददाति गृह्णाति वा, प्रातिहारिकं वा तेषां ददाति. तेषां समीपाद्वा प्रातिहारिकं गृह्णाति तस्य चतुर्लघु आज्ञादयश्च दोषाः / तथा चोक्तम् - जे भिक्खू वत्थादी विजा गिहि अहव अन्नतित्थीणं / पडिहारिगं व तेसिं पडिच्छए आणमाईणि // दाने ग्रहणे च बहवो दोषाः प्रतोता एव / 'जुत्तमदाणमसीले' इत्यादिचालना तत्प्रत्यवस्थानं चाहारवद् ववेऽपि ज्ञातव्यम् / एवं पावस्थादीनामपि यो वस्त्रं ददाति तेषां हस्ताद्वो प्रातिहारिकं गृह्णाति तस्य चतु. लघु / उक्तं च जे मिक्खू वत्थाई पासत्थोसन्ननिययवासीणं / दिज्जा अह पडिच्छे सो पावइ आणमादीणि // इमो अववाओ-गिही अन्नतिथिओ वा सेहो पञ्चईउकामो तस्स दिजइ / जत्थ सुलभं वत्थं तमि विसए अंतरे वा असिवादि हुज्जा / एवमादिकारणेहिं तं विसयमगच्छंतो इह अलभंतो पासत्यादिवत्थं गिहिज्जा, दिज्जा वा तेसिं, अद्धाणे वा वच्चंता मुसिआ अन्नतो अलभता पासत्यादिवत्थं गिव्हिज्जा / 'हिमदेसे वा सीताभिभूआ पाडिहारिअंगिहिज्जा, गिलाणस्स वा अत्थुरणादि गिहिज्जा एवमादि / तथाठिअकप्पंमि दसविहे ठवणाकप्पे अ दुविहमण्णतरे / उत्तरगुणकप्पंमि अ जो सरिकप्पो ससरिसो उ' / / स्थितकल्पादिमिर्यस्तुल्यः स साधुः सदृशः / अथवा-संविग्नः सर्वोऽपि सदृशः साम्भो. गिको वा सदृशः / अथवा कारणे पार्श्वस्था असाम्भोगिका अपि सदशास्तेषां वसतिमध्ये विद्यमानं स्थानं यो न ददाति तस्य चतुर्लघु / अग्न्यादिना वसत्युपद्रवीत् श्वापदादिभयाद्वा शैक्षग्लानाद्यर्थं वा अध्वप्रपन्ना वा / एवमादिभिः कारणैर्ये आगतास्तेषां विद्यमानस्थानादाने चतुर्गुरु / सम्भोगव्युच्छित्तिः साधर्मिकवात्सल्यव्युच्छित्तिः प्रवचनव्युच्छित्तिर्वा भवति / तस्मात् साधुना साधुषु दृढसोह्रदेन भाव्यम् / आपत्सु चात्मवदन्योऽपि रक्षणीयः / उक्तं च Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129 चारित्राधारातिचारप्रायश्चित्तम् जइ एगभाणजिमिआ गिहिणो वि हु दीहसोहिआ हुंति / जिणवयणबाहिरा वि अ धम्मं पुण्णं अयाणंता / / किं पुण जगजीवसुहावहेण संभुजिऊण समणेणं / सक्का हु इकमिक्के रक्खिउ जह अप्पणो देहो / / अशिवादिकारणैः पुनः स्थानाऽदानेऽपि न दोषः / तथापुरिमचरिमासु पत्तादपेहि सज्झायअकरणे लहुगा / नियमे चेइअवंदणि संघस्स अखामणे गुरुगा // ___ व्याख्या-प्रथमचरमपौरुष्योः पात्राद्यप्रत्युपेक्षणे-पात्रकस्य, आदिशब्दात् मात्रकादेरप्रतिलेखने स्वाध्यायाकरणे च चतुर्लघुकाः। नियमे सति चैत्याऽवन्दने सङ्घस्य चतुर्विधस्याप्यक्षामणे च चतुर्गुरुकाः। तथाबिट्ठपडिकमणि लहुगा गुरुगा निकारणोवविठ्ठस्स / पडिकमणाकरणे थुक्माइपयघट्टणे गुरुगा // व्याख्या-उपविष्टः सुप्तो वा यदि प्रतिक्रमणं करोति तदा चतुर्लघुकाः / निष्कारणोपविष्टस्य चतुर्गुरुकाः। तथा सर्वस्यापि प्रतिक्रमणस्याकरणे चतुर्गुरुकाः / तथा गुरोः-आचार्यादेः थुकादिलगने थुक्क लेष्मादिलगने पदेन घट्टने चतुर्गुरुकाः / / लहु अप्पे वि हु तलि अंधकारगमि जीणमाइपरिभोगे / तुंबाइबीअवणयणि पडिक्कमणे चिइअवंदणए / व्याख्या-अल्पेऽपि तलिकापरिभोगेन गमने, अल्पेऽप्यन्धकारगमने, जीणं-जयनं तच्च प्रतीतमेव, आदिशब्दादन्यदपि तथाविधं दुष्प्रतिलेख्यं गृह्यते, तस्य परिभोगे, तुम्बादीनामलाबूदङ्कादीनां बीजापनयने, भाजनार्थं जिघृक्षया गृहस्थादिभिर्बीजनिष्कासने, प्रतिक्रमणे-प्राभातिकप्रादोषिकप्रतिक्रमण मध्ये चेत्याऽवन्दने च / एतेष सर्वेष्वपि प्रत्येक लघमासः॥ तथा दिवसनिसि पढमचरिमे चउनिद्दासेवणे लहू मासा / आणऽणवत्थुड्डाहो विराहणा निद्दवुड्ढी अ॥ व्याख्या - दिवसस्य चतुर्ध्वपि योमेषु, निशायाः पुनः प्रथम चरमे वा यामे चतस्रो निद्राःनिद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचलालक्षणाः तासामासेवने प्रत्येकं लघुमासः / निद्रायां द्वाभ्यां लघुः / अतिनिद्रायां कालगुरुः / प्रचलायां तपोगुरुः / अतिप्रचलायां द्वाभ्यामपि गुरुः / निद्रां कुर्वतां चेमे दोषाः- भगवता प्रतिषिद्धे काले स्वपता आज्ञाभङ्गः कृतो भवति / आज्ञाभङ्गे च चरणभङ्गो, यतो भणितम्'आणाइ चिअ चरणं तब्भंगे जाण किं न भग्गं तु ?' | एकः प्रतिषिद्धकाले स्वपिति, अन्योऽपि तं दृष्ट्वा स्वपितीत्येवमनवस्था भवति / दिवा शयानोऽसंयतैदृष्टस्ततस्ते चिन्तयन्ति-यथा एष निक्षिप्तस्वाध्यायध्यानयोगः स्वपिति तथा एष लक्ष्यते रात्रौ रतिक्लान्तः, एवमुडाहो भवति / विराधना सुप्तस्याग्निप्रदीपने दाहेन, निद्रावृद्धिश्च भवति / यत उक्तम् ___ वर्द्धन्ते पश्च कौन्तेय ! सेव्यमानानि नित्यशः / आलस्यं मैथुनं निद्रा क्षुधा क्रोधश्च पञ्चमः // स्यानद्धिनिद्राप्रायश्चित्तं त्वग्रे पाराश्चिकप्रायश्चित्ताधिकारे भणिष्यते / एवमत्र 'वयछक्कायछक्क'मित्यादि Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 यति-जीतकल्पे गाथासङ्ग्रहीतमूलोत्तरगुणविषयं प्रायश्चित्तं पूर्व प्रतिपादितं, तदनु एकोनविंशतिगाथाभिः सामा. न्यत उत्तरगुणविषयविशकलितातिचारप्रायश्चित्तम भिहितम् / तदेवं मूलोत्तरगुणविषयातिचारप्रायश्चित्तप्रतिपादनेन समर्थितं चारित्राचारातिचारप्रायश्चित्तम् // अथ तपआचारातिचारप्रायश्चित्तं प्रतिपिपादयिषुगहदुविहतवपरूवणया सट्ठाणारोवणा तमकरते। सव्वत्थ होइ लहुओ लीणविणयझाय मुत्तूणं / / 226 // व्याख्या-तपो द्विधा-बाह्यमभ्यन्तरं च / तत्र बाह्यमनशनादि / यदुक्तम् अणसणमूणोअरिआ वित्तीसंखेवणं रसञ्चाओ। कायकिलेसो संलीणता य बज्यो तवो होइ / अभ्यन्तरं तु प्रायश्चित्तादि / उक्तं च प्रायच्छित्तं विणयो वेआवञ्चं तहेव सज्झाओ / झाणं उस्सग्गोवि अ अभितरओ तवो होइ / / तयोः प्ररूपणा नाम प्रज्ञापना, यथा दुमपुष्पिकाध्ययने / द्विविधमपि तत्तपोऽकुर्वतः स्वस्थाना. रोपणा-स्वस्थानप्रायश्चित्तं भवति / तच्चेदं 'सव्वत्थ होइ लहुओत्ति / सर्वेष्वनशनादितपोभेदेषु संलीनताविनयस्वाध्यायवर्जेषु शक्तौ सत्यामकृतेषु लघुमासो भवति / अथाऽवतिष्ठमानसंलीनतादितपाभेदत्रयप्रायश्चित्तं क्रमेणाहदव्वंमि असंलीणे थीनपुसंसत्तवसहिए गुरुगा / पुरिसतिरिएहि लहुगा भावे घाणिदिए रागे // 227 // गुरुगो लहुगो दोसे गुरुगा सेसेसु रागि लोभे अ। दोसे स कोहमाणे लहुगा गुरुगो अ मायाए // 228 / / व्याख्या-संलीनता द्विधा-द्रव्यसंलीनता भावसलीनता च / तत्र द्रव्यसंलीनता स्नोपशुपण्डकसंसक्तवसतिविवर्जनम् / भावसंलीनता पुनर्द्विधा-इन्द्रियप्रतिसंलीनता नोइन्द्रियप्रतिसंलीनता च / इन्द्रियप्रतिसंलीनता पञ्चविधा श्रोत्रेन्द्रियादिकेन्द्रियपश्चकभेदात / नोइन्द्रियप्रतिसंलीनता च चतुर्विधा क्रोधादिकषायचतुष्कभेदात् / साधुना च द्रव्यतो भावतश्च प्रतिसंलीनेन भाव्यं, यः पुनः प्रतिसंलीनो न भवति तस्येदं प्रायश्चित्तं, तद्यथा-द्रव्ये-द्रव्यविषये असंलीनस्य-स्त्रीनपुसकसंसक्तवसतौ वसतः चतुर्गुरुका भवन्ति / पुरुषतिर्यग्भिः संसक्तायां पुनर्वसतौ चतुर्लचुकाः / भावे-भावविषये घाणेन्द्रिये-घाणेन्द्रियविषये रागतोऽसलोनस्य गुरुमासः / द्वेषतोऽसंलीनस्य लघुमासः। शेषेषु श्रोत्रेन्द्रियादिषु चतुर्पु विषये रागतोऽसंलीनस्य चतुर्गुरुकाः। एतेष्वेव च द्वेषतोऽसलीनस्य चतुर्लघुकाः / क्रोधे मानेऽसंलीनस्य चतुर्लघु काः / मायायां गुरुमासः / लोभे च चतुर्गुरुकाः / गाथायां तु व्यस्तोपन्यासो लाघवार्थः / एवं संलीनताप्रायश्चित्तमुक्तम् / अथ विनय-स्वाध्याय-प्रायश्चित्तमाहगुरुवसभमिक्खुखुड्डे अविणय गुरुगाइ जाव लहुमासो। सत्तीइ सुत्तपोरिसि अकरणि लहुगो गुरु अत्थे ___ व्याख्या-गुरुघृषभभिक्षुक्षुल्लानामविनये चतुर्गुरुकादिलघुमासान्तं प्रायश्चित्तम् / आचार्यस्याविनये चतुर्गुरु / उपाध्यायस्याविनये चतुर्गुरु / भिक्षोर्गुरुमासः / क्षुल्लस्य च लघुमासो भवतीत्यर्थः / शक्तौ सत्यां सूत्रपौरुष्या अकरणे लघुमासः / अर्थपौरुष्यो अकरणे गुरुमासः / व्यवहारे स्वित्थं Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिक्रमादीनां स्वरूपम् सुत्तत्थपोरिसीणं अकरणि मासो उ होइ गुरुलहुगो / चाउकालं पोरिसिओवायणंतस्स चउलहुगा / सूत्रार्थपौरुष्योः-सूत्रपौरुष्या अर्थपौरुष्या इत्यर्थः / अकरणे यथाक्रमं गुरुमासो लघुमासः / अर्थपौरुषी हि प्रज्ञादिविशिष्टसामध्यपेक्षा सूत्रायत्ता च / सूत्रपौरुषो त्वभिनवदीक्षितेनापि जडमतिनापि च यथाशक्ति अवश्यं कर्तव्या। सूत्राभावे सर्वस्याप्यभावाद्, अतः सूत्रपौरुष्या अकरणे मासगुरु / अर्थपौरुष्या अकरणे मासलघु / द्वयोः सूत्रपौरुष्योरकरणे द्वौ लघुमासौ / तिसृणां पौरुषीणामकरणे त्रयो लघुमासा इति सामथ्यात् प्रतिपत्तव्यम् / 'चाउक्काल 'मित्यादि / चतुष्कालं-दिवारात्रिगतप्रथमचरमप्रहररूपेष चतुर्पु कालेषु सूत्रार्थपौरुषोरवपातयतो-भ्रंशयतोऽकुर्वत इत्यर्थः / चतुर्लधुकाश्चत्वारो लघुमासाः / / अणसणमाई नवविहसेसतवोऽकरणि लहुग सत्तीए / वयभंगे लहु सहसप्पमायओ गुरुग दप्पेणं // 230 // व्याख्या - अनशनादेर्नवविधस्य शेषतपसः शक्तौ सत्यामकरणे चतुर्लघुका जीतेनेति सम्भाव्यते / तथा सहसा प्रमादेन वा व्रतभङ्गे लघुमासः / दर्पण-अकुशलपरिणामेन व्रतभङ्गे चतुर्गुरुकाः / व्रतभङ्गे चातिक्रमव्यतिकमातीचारानाचाररूपाः चत्वारो भेदा भवन्ति / एतेषां चाधाकर्म प्रतीत्येदं व्याख्यानम् आहाकम्मामंतण पडिसुणमाणे अतिक्कमो होइ / पयभेआइ वइक्कम गहिए तइएयरो गिलिए / कोऽपि श्राद्धो नालप्रतिबद्धो ज्ञातिप्रतिबद्धो गुणानुरक्तो वा आधाकर्म निष्पाद्य निमन्त्रयति / यथाभगवन् ! युष्मन्निमित्तमस्मद्गृहे सिद्धमन्नमास्ते इति समागत्य प्रतिगृह्यतामित्यादि, तत्प्रतिशृण्वतिअभ्युपगच्छति अतिक्रमो नाम दोषो भवति / स च तावत् यावदुपयोगपरिसमाप्तिः / किमुक्तं भवतियत्प्रतिशृणोति, प्रतिश्रवणानन्तरं चोत्तिष्ठति, पात्राण्युद्गृह्णाति, उद्गृह्य च गुरोः समीपमागत्योपयोगं करोति / एष समस्तोऽपि व्यापारोऽतिक्रमः / उपयोगपरिसमाप्त्यनन्तरं च यदाधाकर्मग्रहणाय पदभेदं करोति, आदिशब्दात मार्गे गच्छति, गृहं प्रविशति, आधाकर्मग्रहणाय पात्रं प्रसारयति, न चाद्यापि प्रतिगृह्णाति / एष सर्वोऽपि व्यापारो व्यतिक्रमः / 'गहिए तइए'त्ति / आधाकर्मणि गृहीते, उपलक्षणमेतत् यावद्वसतौ समानीते गुरुसमक्षमालाचिते, भोजनार्थमुपस्थापिते, मुखे प्रक्षिप्यमाणेऽपि च यावन्नाद्यापि गिलति तावत्ततीयोsतीचारलक्षणो दोषः / गिलिते त्वाधाकर्मण्यनाचारः। एवमन्यत्राप्यतिक्रमादिस्वरूपमवगन्तव्यम् / एतेषु चेदं प्रायश्चित्त, तद्यथा-अतिक्रमे व्यतिक्रमे अतीचारे च मासगुरुः यथोत्तरं तपःकालविशेषितः / अनाचारे चतुर्गुरु / एते च मासगुर्वादयः प्रायश्चित्तभेदा अतिक्रमादिष्वविशोधिकोटयां द्रष्टव्याः / विशोधिकोटयां त्वेत एव मासादयो लघुकाः / अथाष्टम्यादिपर्वदिनेषु यथोक्ततपोऽकरणे प्रायश्चित्तमाहचउछट्टट्ठमऽकरणे अट्ठमिपक्खचउमासवरिसेसु / लहु गुरु लहुगा गुरुगा अवंदणे चेइसाधूणं // 231 // व्याख्या--अत्र यथासङ्ख्येन पदयोजना / सा चैवम्-अष्टम्यां चतुर्थस्याकरणे मासलघु / पाक्षिकेचतुर्दश्यां चतुर्थस्याकरणे मासगुरु / चतुर्मासके षष्ठस्याकरणे चत्वारो लघुमासाः / सांवत्सरिके अष्टमस्याकरणे चत्वारो गुरुमासाः / तथा एतेषु चाष्टम्यादिषु दिवसेषु चैत्यानां जिनबिम्बानामन्यवसतिगतसुसाधूनां चावन्दने प्रत्येकं मासलघु / अथ प्रत्याख्यानाऽकरण-भङ्गप्रायश्चित्तमाहपाणासंवरि भिन्नं नवकाराईण अगहणे भंगे / लहु तदहिअ तंम अभिक्खभंगे दसहिं सपयं // 232 // Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 यति-जीतकल्पे व्याख्या-पानस्योऽसंवरणे-विकालवेलायां पानकाहारस्याऽप्रत्याख्याने भिन्नमासः। साधुभिः किल भुक्ता. नन्तरं सर्वाहारसंवरणं कार्यम् / अत एव साधवस्तृतीयपौरुष्यां स्वाध्यायकरणकाले त्रिविधाहारं प्रत्याख्यान्ति, विकाले च पानकाहारमपि / यस्तु विकालेऽपि सर्वसंवरणं न करोति तस्य सर्वाहारासंवरणे लघुमासो भवतीत्युपलक्षणत्वादवसेयम् / तथा नमस्कारसहितपौरुष्यादिप्रत्याख्यानानामग्रहणे गृहीतानां वा भङ्गे लघुमासः / केचित् पुनर्नमस्कारसहितपौरुषीसार्द्धपौरुषीपुरिमार्द्धपोर्द्धद्वयासनकासननिर्विकृतिकाचाम्लक्षपणानां भङ्गे तदधिकप्रत्याख्यानदानमाहुः / इतरे तु यदेवैकासनादि भज्यते तदेवैका. सनादि दीयते इति भणन्ति / तथा अभीक्ष्णं-पुनः पुनः प्रत्याख्यानभङ्गे दशभिर्वाराभिः स्वपदं पाराञ्चिक भवति / तथाहि-सकृत्प्रत्याख्यानभङ्गे मासलघु / द्वितोयवारभङ्गे मासगुरु / तृतीयवारे चतुर्लघु / चतुर्थवारे चतुर्गुरु / पञ्चमवारे षड्लघु / षष्ठवारे षड्गुरु / सप्तमवारे छेदः / अष्टमवारे मुलम् / नवमवारे अनवस्थाप्यम् / दशमवारे पोराश्चिकम् / प्रत्याख्यानभङ्गे चाज्ञातिक्रमादयो दोषाः / इमे चापरे अपञ्चयो अवन्नो पसंगदोसो अ अदढया धम्मे / मोया य मुसावाओ होइ पइन्नाइलोवो अ // यथा एष नमस्कारसहितादिप्रत्याख्यानं भनक्ति तथा मूलगुणप्रत्याख्यानमपि भनक्ति / एवमगीताथगृहस्थानामप्रत्ययं जनयति / आत्मनः साधूनां चावर्णवादं जनयति / प्रत्याख्यानभङ्गप्रसङ्गन मूलगुणानपि भनक्ति / प्रत्याख्यानधर्मे श्रमणधर्मे वा अदृढत्वं कृतं भवति / अन्यां प्रतिक्षां प्रतिपद्यते अन्यच करोतीति माया / अन्यद्भाषते अन्यत्करोतीति मृषावादः / पौरुष्यादिप्रतिज्ञापदटोपः कृतो भवति / प्रत्याख्यानं भनक्तीति प्रद्विष्टा देवता छलनादि कुर्यात् / कारणैः पुनः प्रत्याख्यानभनोऽपि न दोषः / / एवं तप आचारातिचारप्रायश्चित्त प्ररूपितम् / अथ वीर्याचाराऽतिचारप्रायश्चित्तमभिधित्सुराहनाणे दंसणचरणे तवे अ छत्तीसएसु भेएसु / विरिअं न हावइज्जा सट्ठाणारुवण हावते // 233 // व्याख्या-ज्ञानाचारोऽष्टविधः / दर्शनाचारोऽष्टविधः। चारित्राचारोऽष्टविधः / तप आचारो द्वादशविधः / एवमेतेषु ट्त्रिंशत्सु भेदेषु-आचारविशेषेसु वीर्य-शक्तिं न हापयेत्-न गोंपयेत् / वीर्यं हापयतश्च स्वस्थानारोपणा-स्वस्थानप्रायश्चित्तं भवति / ज्ञानाचारं हापयतस्तदेव प्रायश्चित्तं यत् ज्ञानाचारेऽभिहितम् / एवं शेषेष्वपि स्वस्थानप्रायश्चित्तमवगन्तव्यम् / एषा स्वस्थोनारोपणा / / अथ वीर्याचारादिविषयं जीत-व्यवहारगतं प्रायश्चित्तमुपदर्शयतिठवणमणापुच्छाए निविसणे विरिअगृहणाए अ / जीएणं गुरुमासो सेसगमायासु चउगुरुगा // 234 // व्याख्या-स्थापनमिति / स्थापनाकुलानि-दानश्राद्धयथाभद्रकश्राद्धादीनां गृहाणि. एतेषु टेकेनैवाचार्यादिप्रायोग्यग्राहिणा सङ्घाटकेन प्रवेष्टव्यं नान्यरित्यवगणय्य लुब्धत्वाद् गुरोरनापृच्छया तेभ्यः प्रायोग्यभक्ताद्यादाय निविशतः-परिभुञ्जानस्य वीर्यगृहनायां च वीर्य-तपोऽनुष्ठानादिपराक्रमस्तस्य गृहनायां -सतोऽपि मायया गोपनायां जीतेन-जीतव्यवहारेण गुरुमासः / श्रुतव्यवहारेण पुनरेको जीतोक्तो द्वितीयो मायानिष्पन्नः, ततो गुरुमासद्वयं दीयत इति भावः / शेषकमाया-पूर्वोक्तमायातोऽन्या यथा : Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर्याचारविषयं प्रायश्चित्तम् 133 सिआ एगयओ लटुं विविहं पाणभोअणं / भद्दगं भगं भुच्चा विवन्नं विरसमाहरे / / जाणंतु ता इमे समणा आयअट्ठी (मोक्षार्थी) अयं मुणी / संतुट्ठो सेवए पंत लहवित्तीसु तोसओ' / / इत्यादिकासु यशोऽर्थं कृतासु मायासु पुनश्चतुर्गुरुकाः / तथाविज्जाइसुविणलक्षणकोउअभूईनिमित्तपसिणेसु / गिहिणा उवहिवहावणि वमणविरेआइसु अ लहुगा व्याख्या-विद्या-स्त्र्यभिधाना सोपचारसाधना वा, आदिशब्दान् मन्त्र-योगा गृह्यन्ते / तत्र मन्त्रःपुरुषाभिधानः पठितसिद्धो वा, वशीकरणविद्वेषणोच्चाटनपादलेपान्तर्दानादिका योगा अनेकविधास्ते पुनः सर्वेऽपि सविद्या अविद्या वा भवन्ति / स्वप्नं-सुप्तजागरावस्थायां प्रायो यद् दृश्यते तच्च शुभाशुभमागामिसुखदुःखनिमित्तं भवति / लक्षणं द्विधा-बाह्यमभ्यन्तरं च / तत्र बाह्यं स्वरवर्णादि / अभ्यन्तरं स्वभावसत्त्वादि / तत्र प्राकृतमनुष्याणां बाह्यानि द्वात्रिंशल्लक्षणानि भवन्ति / बलदेववासुदेवानामष्टोत्तरं शतम् / चक्रवर्तितीर्थकराणामष्टात्तरं सहस्रम् ! यानि हस्तपादादिषु स्फुटानि लक्ष्यन्ते तेषामिदं प्रमाणं, यानि पुनरन्तः स्वभावसत्त्वादीनि तैः सह बहुतराणि भवन्ति / उपलक्षणाद्वयञ्जनमपि ज्ञेयम् / लक्षणव्यञ्जनयोरयं विशेषः-मानान्मानादिकं लक्षणं, मषतिलकादिकं व्यञ्जनम् / अथवा शरीरेण सहोत्पन्नं लक्षणं पश्चात्समुत्पन्नं व्यञ्जनम् / मानोन्मानप्रमाणानां चेदं व्याख्यानं - .. जलदोणमद्धभारं समुहाइं समुस्सिओ व जो नव उ / माणुम्माणपमाणं तिविहं खलु लक्खणं एआ। कौतुकं-निन्दुप्रभृतीनां श्मशानचत्वरादिषु स्नानविधापनम् / भूतिकर्म-रक्षानिमित्तं विद्याभिमन्त्रितरक्षाप्रदानम् / निमित्तमतीतादिकालत्रयगतलाभोलाभसुखदुःखादिकथनम् / प्रश्नो-नानाविधा लोकपृच्छा लग्नबलादिना तस्य कथनम् / प्रश्नात्प्रश्नो वा / स चायं स्वप्नमध्ये विद्या किञ्चित्कथयति / अथवा विद्याभिमन्त्रिता घण्टिका कर्णमूले चाल्यते तत्र देवता कथयति तस्य परेषां कथनं, ततो विद्यामन्त्रसविद्ययोगप्रयोगे स्वप्नलक्षणव्यञ्जननिमित्तप्रश्नकथने कौतुकभूतिकर्मकरणे, उपलक्षणत्वानिधानधातुवादकथने शिल्पद्वासप्ततिकलाशिक्षणे मार्ग पृच्छतां मार्गकथने च चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तं भवति / अविद्ययोगप्रयोगे तु मासलघु / मिश्रे पुनः संयोगप्रायश्चित्तम् / तथा गृहिणा-गृहस्थेनाऽन्यतीर्थिकेन वा उपधेः-स्वोपकरणस्य वाहने चतुर्लघुकाः / आज्ञादयश्च दोषाः / इमे चापरे-स गृहस्थोऽन्यतीर्थिको वा उपकरणं पातयेत् भाजनं वा भिन्द्यात् , मलिने दुर्गन्धे चोपकरणे जुगुप्सां कुर्यात षट्पदिका वा पातयेत् मारयेद्वा। अयोगोलकल्पो वाऽसौऽस्थण्डिले पृथिव्यादौ स्थापयेत् तद्भारेण वा तस्यात्मविराधना भवेत तत्र परितापनादि, यच्च पश्चादौषधभेषजानि कुर्वन् विराधयति तन्निष्पन्नं च तस्य प्रायश्चित्तं स्यात् / स वा तदुपकरणं हरेत् तस्यानुपयुक्तस्याऽन्यो हरेत्, ग्लानत्वादिकारणैः पुनरुपकरणवाहनेपि न दोषः। तथा वमनमूवं विरेचः / विरेचोऽधःश्रावणम् , आदिपदात्तैलादिना गात्राभ्यङ्गः वर्णबलादिनिमित्तं घृतादिस्नेहपानं रूपमेधास्वरमाधुर्यादिनिमित्तं रसायनसेवनं, वलिपलितनाशनार्थमौषधकरणं नासाऽर्शःप्रभृतिरोगनाशनार्थं तस्य करणं बस्तिकर्म च / एतेषु वमनविरेचादिषु निष्कारणं कृतेषु चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् / इमे च दोषाः। अतीव वमने मरणं, वमननिरोघे कुष्ठं, व!निरोधे Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे मरणम् , अतिवेगेनास्थण्डिले छर्दनं तत्र षट्कायविराधना / यच्चात्मानमग्लानं ग्लानं करोति तनिष्पन्न च प्रायश्चित्तम् / तथासुइमाई इक्विका गुरुण सेसाण वंससिंगसुई / गिहिमाइणा तदुत्तरकरणे गुरुगो तहाणाई // 236 / / व्याख्या- सूची-लोहमयो वस्त्रादिसीवनोपकरणम् , आदिशब्दान्नखहरणी-कर्णशोधनादिकमौपग्रहिकोपकरणम् / एतान्येककान्येव गुरूणां भवन्ति / शेषा अपि तैरेव कार्यं कुर्वन्ति / अथवा महान्तं गच्छमाश्रित्य शेषसाधूनामेकैका वंशमयी शङ्गमयी वा सूची भवति / गृहिणा गृहस्थेनादिशब्दादन्यतीर्थिकेन तस्य सूच्यादेरुत्तरकरणे समारचनरूपे कारिते सति गुरुमासः तथा आज्ञादयो दोषाः / / अथ पञ्चकल्यप्रायश्चित्तशोध्यमपराधजातं पादोनगाथाद्वयेनाहसाहहिं लेहसालं चिगिच्छचप्पुडिअरक्वडिअखडिअं / सिसुकीलनघरकम्मं कयविक्यमेसिमेहि वा / / कंकणिअकंडगाई गणत्तिआहारपोअणाई तहा / कारिते पणकल्लं लहू तदन्भंग पयधुवणे // 238 // व्याख्या- इदं गाथाद्वयं श्राद्धजीतकल्पसम्बद्धं तेन तत्प्राधान्येन प्रायश्चित्तमत्र निबद्धं प्रतुते प्युपयोगीत्यत्रापि लिखितमतोऽत्र साधुप्राधान्येन प्रदश्यते, यथा-यदि साधुभिः श्राद्धो लेखशालां-शिशु. पाठनरूपां कारयति / चिकित्सा-रोगप्रतीकारं / चपुटिकां रक्षाटिकां खटिकां शिशुक्रोडनं गृहकर्म वा धवलनचित्रकरणादि कारयति, तदा साधोरेतानि कुर्वाणस्य प्रत्येकं पञ्चकल्यं भवति / तथा एतेषां गृहस्थानां सम्बन्धिवस्तुनः क्रयविक्रययोः करणे, एतैर्वा गृहस्थैः स्वसम्बन्धिवस्तुक्रयविक्रयविधापने पञ्चकल्यम् / तथा कङ्कणिका-कराभरणं कण्डकं-वलयम् , अदिशब्दात आभरणसमारचनादि / तथा गणेत्रिकाहारप्रोतनादि / आदिशब्दादन्यदप्येवंविधं साधुजनानुचितगृहकर्म गृहस्थो यत्र कारयति तत्र साधोः प्रत्येकं पञ्चकल्यं प्रायश्चित्तं भवति / तथा तेन गृहस्थेन गात्राभ्यङ्गविधापने पादधावने च लघुमासः / / अथ कल्यशोध्यमपराधमाहसंसद्वदाणगहणे कल्लं निज्जूहणा अणुवसंते / पडिलेहणकालंमि वि फिडिए कलं'पमत्तस्सा // 239 // व्याख्या-संसृष्टमुच्छिष्टं भक्तादि तस्य दाने ग्रहणे च साधोघट्टयित्वा-त्वयैवं पुनर्न कार्यमित्युक्त्वा कल्यं प्रायश्चित्तं गुरुदत्ते / तथा अनुपशान्तस्य-तस्माद्दोषादनिवृत्तस्य दायकस्य ग्राहकस्य च नियूहणा-गणान् निष्कासनं भवति / तथा प्रतिलेखनाकालेऽपि स्फिटिते-प्रमादपरवशतया अतिक्रान्ते प्रमत्तस्य माधोः कल्यं भवति / पुनः कल्याणकप्रायश्चित्तशोध्यातिचारस्थानानि गाथायगलेनाहदप्पेणं पंचिंदियवोरमणे संकिलिट्ठकम्मे अ / दीहद्धाणासेविसु गिलाणकप्पावसाणे अ // 24 // सव्योवहिकप्पमि अ पुरि मत्तापेहणे अ चरिमाए / चउमासवरिससव्वुवहिधुवणअंते अ पणकल्लं / व्याख्या-दो-धावनवल्गनडेपनादिः प्राग्व्याख्यातः / तं कुर्वता पञ्चेन्द्रियव्यपरोपणं विघांतनं कृत स्यात् तस्मिन् दर्पण पञ्चेन्द्रियव्यपरोपणे / संक्लिष्टं कर्म यदङ्गादानस्य-लिङ्गस्य करपरिमद्दनेन Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधावित प्रत्यावृत्तसाधुविषयप्रायश्चित्तम् 135 शुकपुद्गलनिष्कासनं करकर्मेति यदुच्यते, चकाराल्लिङ्गभ्य स्नेहादिना म्रक्षणादिकं च तस्मिन् सक्लिष्टकर्मणि / 'दीहद्धाणासेविसु 'त्ति / षष्ठीसप्तम्योरथं प्रत्यभेदः , ततो दीर्घाध्वनि यदाधाकर्म अध्वकल्पादिकं च शुष्ककदलीफलादिवरणात्मकं तदाऽऽसेविनां, ग्लानकल्पावसाने च / ग्लानकल्पो ग्लानाचारः-आधाकर्मिक्वाथपथ्याशुपजीवनं सन्निधीभूतचूर्णाद्यासेवनं वा तस्य ग्लानकल्पस्यावसाने नीरोगित्वे जाते सतीत्यर्थः / चः समुच्चये / सर्वोपधिकल्पे च-वर्षारम्भं विनापि सर्वोपधेः कल्पे-क्षालने कृते सति 'पुरि मत्तापेहणे अ चरिमाए' सूचकत्वात् सूत्रम्य पुरि त्ति पौरुष्य ' चरिमाए' त्ति चरमभागोनायां प्रथमपादोनप्रहरे सतीत्यर्थः / मात्राप्रेक्षणे मात्रकस्य-भिक्षापात्रकस्य प्रमादेनाप्रतिलेखने. चातुर्मासिके वार्षिके पर्युषणाख्ये पर्वणि शुद्धौ प्रक्रान्तायां वर्षारम्भकालेऽपि सर्वोपधिधावनिकाप्रान्ते च पञ्चकल्यं सर्वेष्वप्येतेषु पदेषु शोधकं पञ्चकल्याणकं प्रायश्चित्तं भवतीत्यर्थः / अत्राह-दर्पतः पञ्चेन्द्रियबधादौ दीयतां नाम प्रायश्चित्तं, चातुर्मासिकवार्षिकेषु चातिचाराभावे कथं प्रायश्चित्तम् ' इति / अत्रोच्यतेप्रादोषिका-र्द्धरात्रिक-वैरात्रिक-प्राभातिकाख्यकालानां कदाचिदग्रहणं, सूत्रार्थपौरुष्योर्जात्वऽकरणम् अप्रतिलेखितादि चेत्यादीन् सूक्ष्मातिचारान् कृतानपि यतो न जानाति न वा स्मरति / ततश्चातुर्मासिकवार्षिकेषु निरतिचारस्यापि प्रायश्चित्तं भवति / ननु वर्षारम्भकाले सर्वोपधिधावनं सिद्धान्तोक्तमेव / ततः कथं तदा सर्वोपधिधावने प्रायश्चित्तम् ? उच्यते-तदापि सिद्धान्तोक्तविधिना यतनापुरस्सरमपि धाव्यमानेषु वस्त्रेषु कथञ्चिद्वायुविराधनारूपः षटपदिकोपमर्दाविरूपो वाऽसं मोऽपि सम्भाव्यते, ततः तच्छुद्धयर्थं तत्र प्रायश्चित्तम् / ओघनिर्युक्तौ तु तत्रैककल्यमेवोक्तमस्ति / चकारद्वयं चात्र गाथायां समुच्चयार्थ 'पुरि मत्तापेहणे अ चरिमाए' इत्यत्र तु यश्चकारः सोऽनुक्तसमुच्चयार्थः / तेन यधुपोषितः कश्चिञ्चरमायां पौरुष्यामपि पात्रकानि न प्रतिलेखयति, आस्तां प्रथमायां तदा तस्यैककल्याणकं दीयत इति समुच्चीयते / / अथ कर्मवशावधावित-प्रत्यावृत्तसाधुविषयप्रायश्चित्ताभिधित्सया गाथायुगलमाहसंविग्गो साविक्खो कम्मवसोहाविओ निरईआरो / तद्दिणनिअत्तसुद्धो न तस्स उवही वि उवहम्मे // संविग्गे अमणुन्ने एवं वसि आगए नवरि लहुगो / पासत्थाइसु लहुगा सच्छंदि गुरुगा उवहिघाओ / ___ व्याख्या-कश्चित्साधुः कर्मवशात् -चारित्रमोहनीयकर्मोदयवशादवधावितो-दुस्सहपरीषहपरो. जिततया गणादपगतस्ततः केनाप्यनुशिष्टः स्वयं वा प्रत्यावृत्तपरिणामः पुनः संविग्नः-सञ्जातसंवेगः समुत्पन्नज्ञानदर्शनचारित्रसमाराधनोद्यम इत्यर्थः / ततः सापेक्ष:-संयमसापेक्षचित्तो, निरतीचार:सर्वातीचारविवर्जितो यदि तस्मिन्नेव दिने निवृत्तः-पुनः स्वगणमध्ये समायातः, तदा शुद्धः-प्रयश्चित्तभोग न भवति उपधिरपि तस्य नोपहन्यते / साधुनामकल्प्यो न स्यात् / अथवा संविग्नेषु-संयमोद्यतेषु साधुषु अन्यसाम्भोगिकेषु मध्येऽसावुषित्वा आगतस्तदाप्येवम्-अमुना प्रकारेण तस्योपधिर्नोपन्यते, परं तस्य लघुमासः प्रायश्चित्तं भवति / अथ पार्श्वस्थादिषूषित्वा समागतस्तदा तस्य चतुर्लघुकाः / अथ स्वच्छन्देषु यथाछन्देषु उषित्वा यद्यागतस्तदा तस्य चतुर्गुरुकाः पार्श्वस्थादिकेषु च वसतः साधोरुपधिघातोऽपि भवति / अथ संविग्नादिभिरनुशिष्टः साधुनिवृत्तः परं तद्दिने एव गच्छे न मिलितो, न च बजिका-सङ्खडिकादिषु प्रतिबद्धः, ततः चिरेणापि मिलितस्य तस्योपधिर्नोपहन्यते / अथ पार्श्वरादीन् परिहरन्नेकाकी रात्रौ यदि Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 यति-जीतकल्पे सुप्तः तदा तस्य मासलघु प्रायश्चित्तम् उपधिश्वोपहन्यते / ततः परं द्वितीयतृतीयादिदिनेष्वेकाकिनो वसतश्चतुर्लघु / यच्च सूत्रार्थपौरुष्यऽकरणे सूत्रार्थनाशे दर्शनचरणविराधने च प्रायश्चित्तं तत् सर्वमापद्यते / यश्चावधावनानुप्रेक्षी आकारेङ्गितादिभिरवगम्यते, तस्य रतिवाक्यचूलाभणितान्यऽष्टादशस्थानानि हयरश्मिगजाकुशपोतपताकाभूतानि यदि पुराप्यवगतानि तदा स्मारयन्ति वृषभसाधवः / अथ न तान्यवगतानि तस्य तदा सूत्रार्थतः कथयन्ति / / ___ अथ छेदादिशोध्यमतीचारं कृतवतामपि केषाश्चित्तप एव इति तान् ज्ञापयितुमाह छेआइमसद्दहओ मिउणो परिआयगव्विअस्स वि अ। छेआईए वि तवो जीएण गणाहिवइणो अ॥ ___ व्याख्या-यः छेदं न श्रद्दधाति भणति च व्रतपर्याये दिनपञ्चकादौ छिन्ने किं मदीयं छिन्नं ? सम्पूर्णकरचरणकर्णनासिकाद्यवयव एव तावदहमस्मि, तस्य छे दाद्यश्रद्धानपरस्य / ' मिउणो 'त्ति / यः छिद्यमानो व्रतपर्यायेन सन्तप्यते / यथा कष्टं मम पर्यायः छिन्न इति / यद्वा अन्येषां लघूनामध्यहमति लघीयान् जोत इति तस्य मृदोः / यश्च पर्यायगर्वितो दोघंपर्यायत्वात् छिन्नेऽपि पर्यायेऽन्येभ्योऽभ्यधिक पर्याय एव नाऽवमपर्यायः , नवा पर्यायच्छेदाद् बिभेति तस्य पर्यायगर्वितस्य | अपिचेति समुच्चये / एतेषामुद्दिष्टानां छेदमापन्नानामपि, आदिशब्दान् मूलानवस्थाप्यपाराश्चिकानप्यापन्नानाम् / तथा गणाधि पतेः-आचार्यस्य, चशब्दान् कुलगणसङ्घाधिपानां च जीतेन-जीतव्यवहारमतेन तप एव दीयते / अत्राह दीयतां नाम छेदाद्यश्रद्धालुप्रभृतीनां छेदापत्तावपि तपः, आचार्यादीनां तु कथम् ? इति / अत्रोच्यतेअनेकविधाः शिष्याः परिणामकाः अपरिणोमकाः अतिपरिणामकाः शैक्षाः उच्छङ्खलाश्चेति / तत्रोत्सर्गे उत्सर्गमपवादे चापवादं यथा भणितं ये श्रद्दधत्याचरन्ति च ते परिणामकाः। ये पुनरुत्सर्गमेव श्रद्दयत्याचरन्ति च, अपवादं तु न श्रद्दधति नाचरन्ति वा ते अपरिणामकाः / ये चापवादमेवाचरन्ति नोत्सर्ग ते अतिपरिणामकाः / शैक्षा-नवदीक्षिताः / उच्छृङ्खला-उल्लुण्ठाः / एषामपरिणामकादीनामिमे मा निन्द: नीया लाघवभाजो भूवन्नित्याचार्यादीनामपि तप एव दीयते न छेदादय इति / उक्तं वीर्याचारातिचारप्रायश्चित्तं तदुक्तौ च समर्थितं पञ्चविधाचारातिचारप्रायश्चितम् / अथ विशेषाभिधानाय प्रस्तावनामाहएअं पुण सव्वं चिअ पायं सामन्नओ विणिद्दिट्ट / दाणं विभागओ पुण दव्वाइविसेसिअं नेअं // 245 / / व्याख्या- एतत् पुनरालोचनाएदि प्रायश्चित्तदानं सर्वमेव प्रायो-बाहुल्येन सामान्यतोद्रव्याद्यविभागतो विनिर्दिष्टम् / विभागतः पुनद्रव्यादीनि द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-पुरुष-प्रतिसेवनाद्यपैक्षाविशेषितं हीनमधिक वा यथोक्तमेव वा जोतदानं दातव्यमिति ज्ञेयम् / उक्तं च दव्वं खित्तं कालं भावं पुरिसपडिसेवणाओ अ। नाउ मिअं चिय दिज्जा तंमत्तं हीणमहिलं वा / / 'मिअ चित्ति / मितमेव द्रव्यक्षेत्रादिप्रमाणेनैव / कोऽर्थः ? द्रव्यादिषु हीनेषु हीनम्, अधिकेष्वधिकम् , अहीनोत्कृष्टेषु तन्मात्रं जीतोक्तसममेव दद्यात् / / तत्र द्रव्यामिधित्सयाहआहाराई दव्वं बलिअं सुलहं च नाउ अहिअंपि। दिजाहि दुब्बलं दुल्लहं च नाऊण हीणपि // 246 // Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालविषयं प्रायश्चित्तम् , व्याख्या-आहारादिकं द्रव्यं यत्र देशे बलिकं सुलभं च / यथा अनूपदेशे शालिकूरो बलिकः स्वभावेनैव सुलभश्च तज्ज्ञात्वाऽधिकमपि जोतोक्ताद् बहुतरमपि दद्यात् / यत्र पुनर्वल्लचणककञ्जिकादिको रूक्षाहारो दुर्बलो दुर्लभश्च तं ज्ञात्वा हीनमपि जीतोक्तादल्पमपि दद्यादित्यर्थः // अथ क्षेत्रकालाभिधानार्थमाहलुक्खं सीअल साहारणं च खित्तमहिअंपि सीमि / लुक्खंमि अ हीणतरं एवं काले वि तिविहंमि // व्याख्या-रूक्षं क्षेत्रं स्नेहरहितं वातिलं वा / शीतलं पुनः स्निग्धमनूपं च / साधारण-मध्यस्थम् अस्निग्धरूक्षम् / इह शीते-स्निग्धक्षेत्रे जीतोक्तादधिकमपि दद्यात् / रूक्षे च हीनतरं-जीतोक्तादल्पतरम् / अत्र चकारोऽनुक्तसमुच्चये / तेन साधारणे क्षेत्रे साधारणं जीतोक्तमात्रमेवाहीनाधिकं दद्यादिति ज्ञेयम् / कालेऽपि त्रिविधे वर्षाशिशिरग्रीष्मरूपे / एवम्-अमुनवोक्तप्रकारेण जीतोक्ताधिकसमहीनानि तपांसि यथासङ्ख्यं दद्यादिति सामान्यातिदेशः / विशेषतः कालं प्रपञ्चयन्नाह - गिम्हसिसिरवासासुं दिजट्ठमदसमबारसंताई / नाउं विहिणा नवविहसुअववहारोवएसेणं // 248 // व्याख्या-अत्र कालनिनिधो ग्रीष्मशिशिरवर्षालक्षणः / स सामान्यतो द्विधा-स्निग्धो रूक्षश्च / स च द्विरूपोप्युत्कृष्टमध्यमजघन्यभेदात् त्रिधा / तत्रोत्कृष्टस्निग्धो अतिशीतः / मध्यमस्निग्धो नातिशीतः / जघन्यस्निग्धः स्तोकशीतः / उत्कृष्टरूक्षो अत्युष्णः / मध्यमरूक्षो नात्युष्णः / जघन्यरूक्षो कवोष्णः / एवंरूपे ग्रीष्मशिशिरवर्षाख्ये कालत्र नवविधश्रुतव्यवहारोपदेशेन नवविधो-नवविधतपोदानलक्षणश्चासौ श्रुतव्यवहारोपदेशश्च तेन नवविधश्रुतव्यवहारोपदेशेन विधिना-वैपरीत्याभावेन ज्ञात्वा अष्टमदशमद्वादशान्तानि तपांसि दद्यात् / अयं भावार्थः-ग्रीष्मशिशिरवर्षासु यथाक्रमं चतुर्थषष्ठाष्टमानि जघन्यानि / षष्ठाष्टमदशमानि मध्यमानि / अष्टमदशमद्वादशान्युत्कृष्टानि / उक्तं च गिम्हासु चउत्थं दिज्जा छट्टगं च हिमागमे / वासासु अट्ठमं दिज्जा तवो एस जहन्नगो / गिम्हासु छटुंगं दिज्जा अट्टमं च हिमागमे / वासासु दसमं दिज्जा एस मज्झिमगो तवो / गिम्हासु अट्ठमं दिजा दसमं च हिमागमे / वासासु दुवालसमं एस उक्कोसओ तवो / एष नवविधतपोदानलक्षणः श्रुतव्यवहारोपदेशः / एष च नवविधश्रुतव्यवहारोपदेशो द्विधा-ओघतो विभागतश्च / तद्विचारश्च बहुविस्तर इति कृत्वाऽने दर्शयिष्यते प्रन्थकृता स्वयमेव / / उक्तं कालविषयं प्रायश्चित्तं, साम्प्रतं भावविषयमाहहट्ठगिलाणा भामि दिज हट्ठस्स न उ गिलाणस / जावइ वा विसहइ तं दिज सहिज वा कालं // व्याख्या-भावे-भावतः कश्चिदालोचनाग्राही हृष्टो-नीरोगः समर्थः, कश्चिद् ग्लानो-रोगी शक्ति Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति जीतकल्पे विकल इत्येतद्विचार्य 'दिज्ज हदुस्स न उ गिलाणस्स' तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् / हृष्टस्य जीतोक्तादधिकमपि दद्यात् , ग्लानस्य तु न दद्यात् जीतोक्तादूनं वा दद्यात् / यावन्मानं वा विषहते-कर्तुं शक्नोति तत् प्रायश्चित्तं तावन्मानं दद्यात् / कालं वा सहेत-यावता प्रगुणो भवति तावत्प्रतीक्षेत, रोगनिवृत्तौ समर्थस्य दद्यादित्यर्थः / उक्तो भावविषयो दानविधिः // अथ अत्र सूत्रेऽनुक्तमपि पूर्वजीतकल्पगतं पुरुषद्वारं सप्रपञ्चमत्रापि लिख्यतेपुरिसा गीआगीआ सहासहा तह सढासढा केई / परिणामापरिणामा-अइपरिणामाइ वत्थूणं / / इह आलोचनाग्राहिणः पुरुषाः किं स्वरूपा ? इति प्रथममेवाचार्यैर्विचार्यास्तःपेक्षया प्रायश्चित्तं दातव्यम् / ते च बहुप्रकाराः। तद्यथा-गीतार्था-अधिगताचारप्रकल्पादिनिशीथान्तश्रुताः / तदितरे त्वगीता-अगीतार्थाः / सहाः-सर्वप्रकारैः समर्थाः / असहाः त्वसमर्थाः। तथा केचित् शठो-मायाविनः / अशठाः-सरलात्मानः / परिणामकादयस्त्रयोऽपि पूर्वमदूरे ‘छेआइमसद्दहओ' इति गाथाया विवरणे व्याख्यातास्ततो नात्र पुनः प्रतन्यन्त इति / / तह धिइसंघयणोभयसंपन्ना तदुभएण हीणा य / आयपरोभयनोभयतरगा तह अन्नतरगा य / / तथा धृतिसंहननोभयसम्पन्नास्तदुभयेन हीनाश्च / इह भङ्गचतुष्टयं सम्भवति / तत्र धृत्या सम्पन्ना इत्येकः / संहननेन सम्पन्ना इति द्वितीयः / उभयेन धृतिसंहननाख्येन सम्पन्ना इति तृतीयः / तदुभयेन हीनाश्चेति चतुर्थः / तथा आत्मपरोभयानुभयतरका इति / अत्रापि चतुभंङ्गी। आत्मानुप्राहकं तपः, परोपष्टम्भकारकं वैयावृत्त्यं तयोर्द्वयोरपि समर्थाः परं ये तप एव कुर्वन्ति, न वैयावृत्त्यं ते आत्मतरकाः , स्वार्थेऽत्र कः, न परतरका इति प्रथमः / ये तु वैयावृत्त्यमेव कुर्वन्ति न तपस्ते परतरका इति द्वितीयः / ये तूभयमपि कुर्वन्ति ते उभयतरका इति तृतीयः / ये पुनरुभयमपि न कुर्वन्ति ते नोभयतरका इति चतुर्थः / तथा अन्नतरगा त्ति / अन्यतरकाः ये तपोवैयावृत्त्ययोरन्यतरदेकमेव कत्तुं शक्नुवन्ति नोभयकरणक्षमा इत्यर्थः // कप्पठिआदओ वि अ चउरो जे सेअरा समक्खाया / साविक्खेअरभेआदओ अ जे ताण पुरिसाण // कल्पः-सततासेवनीयः समाचारः। स चायम् आचेलुकुद्देसिअ सिज्जायररायपिंड किइकम्मे / वयजिट्ठ पडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पे / न विद्यते चेलं-वस्त्रं यस्यासावचेलकस्तस्य भाव आचेलक्यम् / सचेलत्वे चायमचेलकत्वव्यपदेशः / तथा चान्यत्रापि दृश्यते जह जलमवगाहिंतो बहुचेलो वि सिरवेढिअकडिल्लो / भन्नइ नरो अचेलो तह मुणओ संतचेला वि।। तह थोव-जुण्ण-कुच्छिअचेलेहिं वि भन्नए अचेलुत्ति / जह तूर सालिअ! लहुं दे पुत्तिं नगिआ मु त्ति / / उद्देशेन-साधुसङ्कल्पेन निवृत्तमौदेशिकम् आधाकर्म / शय्यया-वसत्या तरति भवाम्भोधिमिति शय्यातरः, राजा-नृपस्तयोः पिण्डो भक्तादिरूपः शय्यातरपिण्डो राजपिण्डश्च / इहौदेशिकादीनां Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यन्त्रकालिखनविधिः 139 त्रयाणामपि परिहारोऽवसेयः / कृतिकर्म-ज्येष्ठानुक्रमेण वन्दनदानम् / व्रतानि-पञ्च महाव्रतानि / ज्येष्ठो वर्षशतदीक्षिताया अपि साध्च्या अद्यतनदीक्षितोऽपि साधुर्गरियान् / प्रतिक्रमणं प्रतीतम् / मासो-मासकल्पः / परिः-सर्वथा वसनमेकत्र निवासो निरुक्तिवशात् पर्युषणा | इत्येतस्मिन् दशविधे कल्पे स्थिताः प्रथमचरमजिनसाधवस्ते आदयो-अवयवभूता येषां ते कल्पस्थितादयः-कल्पस्थितपरिणतकृतयोगितरमाणाख्याः / तत्र कल्पस्थिताः कथिता एव / परिणताः-परिणतिपरिपाकमापन्नं जीवेन सह प्राप्तकीभावं चारित्रं येषां ते / कृतयोगिन:-चतुर्थषष्ठाटमादितपोभिः परिकामतशरीराः / तरमाण त्ति / 'शकेश्चयतरतीरपारा' इत्यनेन प्राकृतलक्षणसूत्रेण शक्तृधातोस्तरदेशे कृते शक्नुवानाः-शक्तितुलना कुर्वाणा इत्यर्थः / ये एते चत्वारः सेतराः-सप्रतिपक्षाः समाख्याताः-कथिताः / कल्पस्थितादिभ्य इतरे अकल्पस्थिताऽपरिणताऽकृतयोगाऽतरमाणोख्याः / तत्र अकल्पस्थिता-मध्यमद्वाविंशतिजिनसाधवो महाविदेहजाश्च / एते हि दशविधस्थितिकल्पमध्यात् शय्यातरपिण्डाऽनादानचतुर्यामपुरुषज्येष्ठत्वकृतिकर्मकरणाख्येषु चतुषु स्थिताः शेषेषु षट्सु पुनरस्थिताः / ते ह्येतानि षट् स्थानानि गुणानुलोम्यमालोच्य कदाचित् कानिचित् कुर्वन्ति वा नवेति / अपरिणतोदयस्तु परिणतादिविपरीताः। 'साविक्खेअरभेआदओ अ जे' इति / जे इति पादपूरणे / कल्पस्थिताकल्पस्थितादयोऽष्टावपि द्विविधाः। सापेक्षागच्छवासिनो निरपेक्षा-जिनकल्पिकादयः / 'ताण पुरिसाणं'तीत्यप्रेतनगाथायां सम्बध्यते / सा चेयं__ जो जहसत्तो बहुरगुणो व तस्साहिअंपि दिजाहि / हीणस्स हीणतरगं झोसिज्ज व सव्वहीणस्स / / तेषां पुरुषाणां कल्पस्थितादोनो सापेक्षनिरपेक्षभेदानां प्राग्गाथाद्वयोक्तगीतार्थादीनां च मध्यात् यो यथाशक्तः तपः कर्तुं क्षमः / बहुतरगुणो वा-धृतिसंहननसम्पन्नः परिणतः कृतयोगी आत्मपरतरो वा भवेत् तस्याधिकमपि-जीतोक्तादतिरिक्तमपि दद्यात् / हीनस्य-धृतिसंहननादिरहितस्य हीनतरं-जीतोक्तादल्पतरं दद्यात् / सर्वहीनस्य-सामस्त्येनाक्षमस्य सर्वमपि तपः क्षपयेत्-हासयेत् न किमपि तस्य दद्यात् मिथ्यादुष्कृतेनैव तस्य शुद्धिरादेश्येत्यर्थः। पुनः पुरुषविशेषानेवाह इत्थं पुण बहुतरगा भिक्खुण ठिय अकयकरणाणभिगया य। जं तेण जीअमटुमभत्तंतं निविगाईअं॥ अत्र पुनर्बहुतरा-बहुभेदा आचार्योपाध्यायकृवकरणगीतार्थस्थिराद्या भिक्षवः-साधवः इति / स्थिग नाम ये चरकादिभिर्दर्शनतः परीषहोपसर्गेश्वरणतोऽतिकर्कशप्रायश्चित्तदानतः स्वभावतो वा न च्याव्यन्ते / अकृतकरणाः-तपोभिरपरिकर्मितशरीराः / अनभिगताश्चागीतार्थाः चशब्दादस्थिराः / एतेषां च सर्वेषां यथार्ह, तेन सूक्ष्मबादरातिचारादिना यज्जीतं-जीतदानं तन्निर्विकृत्याद्यष्टमभक्तान्तं ज्ञेयमिति शेषः / यद्वा यन्त्रणतद् ज्ञेयमित्यर्थः / इदमत्र गाथान्ते यन्त्रकस्य पश्चम्या दीर्घपङक्तेः पश्चिमानुपूर्ध्या तपो गृहीतम् / एतदीयश्च तपोविशेषः सर्वोऽपि यन्त्रकेण स्पष्टीभवति / ततस्तस्यायं लिखनविधिः कथ्यतेइह देर्येण पङ्क्तिरचनायां त्रयोदश गृहाणि स्थाप्यन्ते, पृथुत्वेन चाद्यपंक्तौ पञ्चदश गृहाणि / द्वितीयतृतीयपङ्क्त्योश्चतुर्दश / चतुर्थपञ्चमपङ्क्त्योस्त्रयोदश / षष्ठसप्तमपङ्क्त्योदश / अष्टमनवमपङ्क्त्योरेकादश / दशमैकादशपङ्क्त्योर्दश / द्वादशत्रयोदशपङ्क्त्योर्नवगृहाणीति / अत्र चाद्यायाः पृथुपङ्क्तरुपरि निरपेक्षः स्थाप्यते / द्वितीयाया उपर्याचार्यः कृतकरणः / तृतीयाया आचार्योऽकृतकरणः / चतुर्या उपाध्यायः कृतकरणः / पञ्चम्या उपाध्यायोऽकृतकरणः / षष्ठ्या गीतार्थः स्थिरः कृतकरणभिक्षुः / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरपेक्षः आचार्यः आचार्य: कृतकरणः अकृत कृतकरणः |अस्थिरः। गीतार्थः | गीतार्थः गीतार्थः | गीतार्थः ..अगीनार्थः उपाध्यायः स्थिरः : अस्थिरः अगीतार्थः। अगीतार्थः| अगीतार्थः स्थिरः | उपाध्यायः 4 अकृत स्थिरः अकृत- | स्थिरः / अकृत अस्थिरः अस्थिरः करणः करण कृतकरणः अकृतभिक्षुः करणः कृतकरणः। करणः कृतकरणः अकृतकरणः करणः कृतकरणः भिक्षुः . पाराश्चित वत अनव- अनव अनवस्थाप्य 16. मल / यति-जीतकल्पे Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसेवनास्वरूपम् 141 सप्तम्या गीतार्थः स्थिरोऽकृतकरणभिक्षुः / अष्टम्या गीतार्थोऽस्थिरः कृतकरणभिक्षुः / नवम्या गीतार्थाऽस्थिरोऽकृतकरणभिक्षुः। दशम्या अगीतार्थः स्थिरः कृतकरणः / एकादश्या अगोतार्थः स्थिरोऽकृतकरणः / द्वादश्या अगीतार्थोऽस्थिरः कृतकरणः / त्रयोदश्या उपरि अगीतार्थोऽस्थिरोऽकृतकरणभिक्षुरिति स्थापयित्वा पृथुत्वेन प्रथमायां पङ्क्तौ निरपेक्षस्याधो गृहद्वये शून्यं स्थाप्यं, यतस्तयोः पाराश्चिकानवस्थाप्ये भवतः, ते च जिनकल्पिकस्य न सम्भवतः। तस्य हि स्वभावेनैव निरपेक्षत्वात् / अथ तयोः शून्ययोरधस्त्रयोदशसु गृहेषु मूल-छेद-षड्गुरु षड्लघु चतुर्गुरु-चतुर्लघु-मोसगुरु-मासलघु-भिन्नमास-विंशतिक-पञ्चदशक-दशक-पञ्चकानि स्थाप्यन्ते / द्वितीयायां पङ्क्तौ पाराञ्चिकादीनि दशकान्तानि / तृतीयायामनवस्थाप्यादीनि पञ्चकान्तानि / चतुर्थ्यामनवस्थाप्यादीनि दशकान्तानि / पञ्चम्यां मूलादीनि पञ्चकान्तानि / षष्ठ्यां मूलादीनि दशकान्तानि / सप्तम्यां छेदादीनि पञ्चकान्तानि / अष्टम्यां छेदादीनि दशकान्तानि / नवम्यां षड्गुर्वादोनि पञ्चकान्तानि / दशम्यां षड्गुर्वादीनि दशकान्तानि / एकादश्यां षड्लवादीनि पश्चकान्तानि / द्वादश्यां षड्लध्वादीनि दशकान्तानि / त्रयोदश्यां चतुर्गुर्वादीनि पञ्चकान्तानि स्थाप्यन्ते / अत्र चैवं भावनायत्रापराधे कृतकरणाचार्यस्य पाराञ्चिकं तत्रैवापराधे अकृतकरणाचार्यादीनां दीर्घपङ्क्तिक्रमेणानवस्थाप्यादीनि प्रायश्चित्तानि भवन्ति / तथा यत्राऽपराधे कृतकरणाचार्यस्यानवस्थाप्यं तत्रैवापराशेषाणां तथैव क्रमेण प्रायश्चित्तानीत्येवं सर्वदीघपङ्क्तिषु भावना करणीया / स्थापना चैवमत्रावसेया / एतत्पुरुषविभागेन श्रुतव्यवहारतो जीतकल्पयन्त्रम् // सम्प्रति प्रतिसेवनामाह आउट्टिआइ दप्पप्पमायकप्पेहिं वा निसेविजा / दव्वं खित्तं कालं भावं वा सेवओ पुरिसो // 250 / / व्याख्या-आकुट्टिकया - उपेत्य सावद्यकरणोत्साहात्मिकया, दप्पप्रमादकल्पैर्वा दो-धावनडेपनवल्गनादिकः हास्यजनकवचनादिकं दर्परूपो वो, प्रमादो-दिवा रात्रौ वा प्रतिलेखनाप्रमार्जनाद्यनुपयुक्तता। कल्पः-कारणे दर्शनादिचतुर्वि शतिरूपे सति गीतार्थस्य कृत योगिन उपयुक्तस्य यतनया आधाकर्माद्यादानरूपः / तैरेतेश्चतुर्भिः प्रतिसेवनारूपैरासेवकः पुरुषो निषेवेत-प्रतिसेवेत / द्रव्यम्-आहारादिकं किञ्चिदशुद्धमप्याददीत / क्षेत्र-छिन्नमडम्बादिकं स्तोकलोकाश्रयं सार्द्धयोजनं यावदविद्यमानवसत्प्रदेशं यत्र सम्पूर्णा भिक्षा न लभ्यते / कालो-दुर्भिक्षादिर्यत्र सर्वथाऽन्नादिर्न प्राप्यते / तं प्रतिसेवेत / अयमाशयःसाधुना महति क्षेत्रे काले च गत्वा स्थेयम् / आकुट्टिकादिभिर्हि छिन्नमडम्बादिकं क्षेत्रं दुष्कालं च प्रति. सेवमानः संयमात्मविराधने प्राप्नुवन् / भावं च-हृष्टग्लानत्वादिकं प्रतिसेवते / आकुट्टिकादिभिरहिताऽन्नौषधादिकं भुक्त्वा ग्लानत्वादिकं भावमुत्पादयेदित्यर्थः। उक्ताः स्वरूपतः प्रतिसेवनाः त सां प्रायश्चित्तमोहजं जीअदाणमुत्तं एवं पायं पमायसहिअस्स / इत्तो चिअ ठाणंतरमेगं वढिज्ज दपवओ // 251 // व्याख्या-यज्जीतदानं-जीतव्यवहारे तपोदानमुक्तम् / एतत्सर्वं प्रायः प्रमादसहितस्य-प्रमादप्रतिसेवना-प्राग्गाथाविवरणव्याख्यातद्रव्यादिसेविनो भणिताः / इत एव प्रमादप्रतिसेवकप्रायश्चित्तादेकं स्थानान्तरं वर्द्धयेत् दर्पवतः / अयमर्थः-प्रमादप्रतिसेवनया भिन्नमास-लघुमास-गुरुमास-चतुर्लघु-चतु: गुरु-षड्लघु-षड्गुरूणामापत्तौ निर्विकृतिकपुरिमार्द्वकासनाचामाम्लचतुर्थषष्ठाष्टमाख्यं तपो दीयते / दर्पप्र Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 यति-जीतकल्प तिसेवनाकारिणस्तु भिन्नमासादीनामापत्तौ सत्यां स्थानान्तरवृद्धिः कार्या / निर्विकृतिकं मुक्त्वा पुरिमार्दा दीनि दशमान्तानि देयानीति / / आउट्टिआइ ठाणंतरं व सठाणमेव वा दिज्जा / कप्पेण पडिक्कमणं तदुभयमहवा विणिद्दिढ // 252 // व्याख्या- आकुट्टिकाप्रतिसेवायां साधोः स्थानान्तरं वा दद्यात् / दर्पप्रतिसेवाकारिण; सकाशोत् स्थानवृद्धयाधिकं तपःस्थानं वितरेत् / दर्पप्रतिसेविनो हि भिन्नमासाद्यापत्तौ पुरिमार्द्धादीनि दशमान्तानि दीयन्ते अस्य त्वेकासनादीनि द्वादशान्तानि देयानि / ' स्वस्थानमेव' वा दद्यात् / इहाप त्तिरूपं प्रायश्चित्तं स्वस्थानमुच्यते / यथाऽऽकुट्टिकया पञ्चेन्द्रियवधे मूलम् / अन्यत्रापि चाकुट्रिकया यत्रापराधे यद् भिन्नमासादिकमुक्तं तत्तत्र स्वस्थानं तदेवाकुट्टिकाप्रतिसेविनो दद्यादित्यर्थः / कल्पेनकल्पप्रतिसेवनया प्रतिक्रमणं-मिथ्यादुष्कृतं प्रायश्चित्तम् / अथवा तदुभयम्-आलोचनामिथ्यादुष्कृतोभयरूपं प्रायश्चित्तं विनिर्दिष्टम् / / इदं चोक्तस्वरूपं प्रायश्चित्तं परिणामानुरूपेणैव दद्यादित्याह -. आलोअणकालंमि वि संकेस-विसोहिभावओ नाउं / हीणं वा अहिअं वा तम्मत्तं वा वि दिज्जाहि // व्याख्या-आलोचनाकालेऽपि कमप्यपराधविशेषं यः सर्वथा न प्रकाशयति कथयन्नप्यर्द्धकथितं वा करोति स सङ्क्लिष्टपरिणाम इति ज्ञात्वा तस्याधिकमपि दद्यात् / यः पुनः संवेगमुपगतो निन्दागर्दादिभिर्विशुद्धपरिणामः तस्य हीनमपि दद्यात् / यः पुनर्मध्यस्थपरिणामः तस्य तन्मात्रमेव दद्यात् / / उक्तमेवार्थ दृढयन्नाहइअ दव्बाइ बहुगुणे गुरुसेवाए अ बहुतरं दिज्जा / हीणयरे हीणयरं हीणयरे जाव झोसु त्ति // 254 / / व्याख्या-इति-अमुना प्रकारेण द्रव्यादौ द्रव्यक्षेत्रकालभावाख्ये प्रतिसेव्ये बहुगुणे-बहुगुणिते प्रचुरदोषत्वेन समर्थे वा, विपरीतलक्षणया वा बहुदोषे गुरुसेवायां-गुरुतरायां प्रतिसेवायां कृतायां बहुतरं प्रायश्चित्तं दद्यात् / हीनतरे-ऽल्पदोषे द्रव्यादिके प्रतिसेविते हीनतरमल्पतरं प्रायश्चित्तं दद्यात / ततोऽपि हीनतरे यावत्सर्वहीनेऽत्यल्पदोषे द्रव्यादौ अत्यल्पीयस्यां सेवायां 'झोसुत्ति ।क्षपणा-हासः कार्यः / सर्वस्तोक तपो देयमित्यर्थः / कुत्रापि च सर्वथापि ह्रासः क्रियत इति प्रतिपादयन्नाहझोसिज्जइ सुबहुं पि हु जीएणनं तवारिहं वहओ। वेआवच्चगरस्स उ दिज्जइ साणुग्गहतरं वा // 255 // व्याख्या - इह जीतेन यद्येक गुरुभिर्वितीर्ण पाण्मासिकादितपो वहतः पञ्च-षट्स्वपि दिवसेसु गतेष्वन्यच्चातुर्मासिकं पाण्मासिकं वा तपोर्ह समापन्नं ततः तत्क्षिप्यते-सुबहुकमपि हास्यते, सर्वथापि तस्य न दीयत इत्यर्थः / वैयावृत्त्यकरस्य च सानुग्रहतरं वा दीयते / कोऽर्थः ? यावन्मानं तपस्तप्यमानः स वयावृत्त्यं कर्तुं शक्नोति तस्य तावन्मात्रमेव तपो दीयते नाधिकम् / अथ पूर्वोपन्यस्तनवविधश्रुतव्यवहारं विभागतो दिदर्शयिषुरिभूतां गाथामाह - ति नव सगवीस इगसी पक्खे आवत्तिदाण कालतिगे / नवतवसुअववहारो जंते दसरेहि तिरिउड्ढं // Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवविधतपोदानश्रुतव्यवहारः 143 ___व्याख्या-अत्रैष नवविधतपोदानलक्षणश्रुतव्यवहारविभिनवभिः सप्तविंशतिमिरेकाशीतिभिश्च भेदर्भवति / तत्र संक्षेपतः तावदयं त्रिभेदः पक्षत्रयभेात् / आपत्तिभेदतः पुनर्नवभेदः / दानतपोभेदतस्तु सप्तविंशतिभेदः / कालत्रिकविशेषेण पुनरेकाशीतिभेदश्च भवति / एतेषां च सर्वेषामपि भेदानां स्वरूपं ग्रन्थकारः स्वयमेव पुरस्ताद् व्यक्तीकरिष्यति / एवंविधभेदभिन्नश्च नवविधतपोदानलक्षणश्रुतव्यवहारः तिर्यगूज़ च दशरेखे यन्त्र स्थापितः सुखोवसेयो भवतीति सकलभेदप्रतिपादनानन्तरं तत्स्थापनापि दर्शयिष्यते / तत्र पूर्व नवविधतपोदानश्रुतव्यवहारमेव दर्शयन्नाह - उपवासछट्टअट्ठम जहन्न छट्ठट्ठमादसम मज्झा। अट्ठमदसमदुवालस जिट्ट तिकाले तवो नवहा // 257 / / व्याख्या- उपवासषष्ठाष्टमानि जघन्यानि / षष्ठाष्टमदशमानि मध्यमानि / अष्टमदशमद्वादशानि उत्कृष्टानि / कालत्रये ग्रीष्मशिशिरवर्षालक्षणे क्रमेण तपांसि नवधा देयतया अवगन्तव्यानि / एष नवविधतपोदानश्रुत व्यवहारः प्रोच्यते / अथवा एष नवविधतपोदानश्रुतव्यवहारःनिविअपुरिमासगंबिल इगविति चउपंचखमण नवह तवो / सुअववहारुपएसा ओहेण विभागजो चेव / व्याख्या-निर्विकृतिकं. 1 पुरिमार्द्धम् 2 एकासनं 3 आचामाम्लम् 4 एकक्षपणं चतुर्थं 5 द्वे क्षपणे षष्ठं 6 त्रीणि क्षपणानि अष्टमं 7 चतुःक्षपणानि दशमं 8 पञ्च क्षपणानि द्वादशं 9 श्रुतव्यवहारोपदेशादेवं तपा नवधा ओवतो विभागतश्च प्रीष्मशिशिरवर्षासु दीयत इति नवधा तपोदानश्रुतव्यवहारः / / अथ -- यथोदेशं निर्देश' इति न्यायोत् पूर्व पक्षत्रयं स्पष्टयन्नाहगुरु लहु लहुस ति पक्खा पिहो तिहाऽतिगुरु गुरुतरो गुरुओ। लहुतमलहुतरलहुओ लहुसतमो लहुसतर लहुसो // 259 // व्याख्या- एष नवविधतपोव्यवहारः संक्षेपतनिधा-उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्च / तत्र गुरुतम गुरुतर-गुरुरूपभेदत्रयात्मको गुरुपक्ष उत्कृष्टः / लघुतम-लघुतर-लघुरूपभेदत्रयात्मको लघुपक्षो मध्यमः / लघुस्वतम-लघुस्वतर-लघुस्वाख्यत्रिभेदो लघुस्वपक्षो जघन्य इति / यदाह नवविहववहारे सो संखेवेणं तिहा मुणेअव्वो। उक्कोसो मज्झिमगो जहन्नगो चेव तिविहो सो // उक्कोसो गुरुपक्खो लहुपक्खो मज्झिमो मुणेअव्वो / लहुसपक्खो जहन्नो तिविगप्पो एस नायव्वो // इदानी प्रकृतगाथाक्षरार्थः-गुरु 1 लघु 2 लघुस्वः 3 लघुस्वशब्दश्च लघुकार्थः / स्वशब्दस्याल्पार्थक रत्ययार्थत्वादित्येते त्रयः पक्षाः पृथक् प्रत्येकं त्रिधा भवन्ति / त्रैविध्यं च दर्शितमेव / / अथ नवविधापत्तितपोव्यवहारं दर्शयतिगुरुलहुअ छपणमासा चउतिगमासा दुमासगुरुमासो। लहुमासमिन्नवीसं पनरसदसपण तिपक्खकमा // Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143 यति जीतकल्पे उक्कोसमज्झहीणा आवत्ती नवति दाण कालतिगे। उक्कोसुक्कोसुक्कोसमज्झ उक्कोसग जहन्ना / / 261 // मझुक्कोसा मज्झिमगमज्झिमा तहय मज्झिमजहन्ना / जहन्नुक्कोस जहन्नगमज्झा य जहन्नगजहन्ना // 262 // व्याख्या-तेषु त्रिषु पक्षेषु गुरुलघुलघुकलक्षणेषु / एता आपत्तय उत्कृष्टमध्यमजघन्यरूपाः क्रमादवगन्तव्याः। तथाहि-गुरुपक्षे गुरुलघु पाण्मासिकपाश्चमासिकरूपा उत्कृष्टापत्तिः / चातु सिकत्रिमासिकरूपा मध्यमा। द्विमासिकगुरुमासरूपा जघन्या। लघुपक्षे लघुमास उत्कृष्टः / भिन्नमासो मध्यमः / विंशतिकं जघन्यम् / लघुकपक्षे पश्चदशकमुत्कृष्टम् / दशकं मध्यमम् / पञ्चकं जघन्यमित्येवनवविधापत्तितपोरूपः श्रुतव्यवहारो दर्शितः / भणितं च गुरुपक्खो उक्कोसो मज्झ जहन्नो अ एव लहुए वि / एमेव य लहुसे वी इअ एसो नवविहो होइ / / ___ गुरुपक्खे छम्मासो पणमासो चेव होइ उक्कोसो। मझो चउतिमासो दुमासगुरुमासग जहन्नो।। लहु-भिन्नमास-वीसा लहुपक्खुक्कोस मज्झिम जहन्ना। पनरस दसगं पणगं लहुसुक्कोसाइ तिविहेसो / आवत्तितवो एसो नवभेओ वण्णिो समासेण। अहुणा उ सत्तवीसो दाणतवो तस्सिमो होइ / / तस्यापतितपसो नवविधस्य दानतपस्विविधमुत्कृष्टमध्यमजघन्यलक्षगं सप्तविंशतिभेदं भवति / तच कालत्रिकेण वर्षाशिशिरग्रीष्मलक्षणेन विचार्यमाणमेकाशीतिभेदं भवति / तत्र गुरुपक्ष एकोऽपि नवधा। तद्यथा-उत्कृष्टोत्कृष्टः 1 / उत्कृष्टमध्यमः 2 / उत्कृष्टजघन्यः 3 / मध्यमोत्कृष्टः 4 / मध्यममध्यमः 5 / मध्यमजघन्यः 6 / जघन्योकृष्टः 7 / जघन्यमध्यमः 8 जघन्यजघन्यश्चेति 9 एवं लघुपक्षोऽपि नवधा / 9 / लघुकपक्षोऽपि चैवमेव नवधा 9 / सर्वमीलने सप्तविंशतिभेदा भवन्ति / भणितं च गुरुलहुलहुस्रगपक्खे इक्विको नवविहो मुणेअव्वो / उक्कोसुक्कोसो वा उक्कोसो मज्झिमजहन्नो 2 // मझुक्कोसो मज्झिममझो तह होइ मज्झिमजहन्नो / इअ नेउ जहन्नो वि अ उक्कोसो मज्झिम जहन्नो 3 // गुरुपक्खे नव एए नव चेव य हुंति लहुअपक्खे वि / नव चेव लहुसपक्खे सत्तावीसं भवंतेए / / अर्थतेषु गुरुलघुलघुकलक्षणेषु त्रिषु पक्षेषु सप्तविंशतिविधं दानतपो व्यक्तीकरोतितहिं बारस दसममट्ठम जिढे मज्झि दसमट्ठमा छद्रं / अट्ठमछट्टचउत्थं जहन्न तिगि दाण गुरुपवखे // व्याख्या-तत्र पक्षत्रये क्रमेण दानतपः प्रतिपाद्यते / यथा-इह गुरुपक्षे पाण्मासिक-पञ्चमासिकाख्योत्कृष्टापत्तौ सत्यामुत्कृष्टोत्कृष्टं द्वादशं तपः / उत्कृष्टमध्यमं दशमम् / उत्कृष्टजघन्यमष्टमम् / चातुर्मासिक-त्रिमासिकाख्यमध्यमापत्तौ मध्यमोत्कृष्टं दशमं / मध्यममध्यममष्टमं / मध्यमजघन्यं षष्ठं / द्विमासिक-गुरुमासाख्यजघन्यापत्तौ जघन्योत्कृष्टमष्टमम् / जघन्यमध्यमं षष्ठम् / जघन्यजघन्यं चतुर्थम् / एवं गुरुपक्षे नवधा दानतपः प्रोक्तम् // अथ लघुपक्षे दर्शयति Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुकपक्षे. दानतपः 145 इअ दसमट्ठमछठा अट्ठमछट्ठाचउत्थया कमसो / छट्टचउत्थायामा लहुपक्खे दाण वासासु // 264 // व्याख्या- लघुपक्षे लघुमासाख्योत्कृष्टापत्तो उत्कृष्टोत्कृष्टं दशमम् / उत्कृष्टमध्यममष्टमम् / उत्कृष्टजघन्य षष्ठं / मिन्नमासाख्यमध्यमापत्तौ मध्यमोत्कृष्टमष्टमं / मध्यममध्यमं षष्ठं / मध्यमजघन्यं चतुर्थ / विंशत्याख्यजंघन्यापत्तो जघन्योत्कृष्टं षष्ठं / जघन्यमध्यमं चतुर्थं / जघन्यजघन्यमाचामाम्लम् / इत्यमुना प्रकारेण लघुपक्षे क्रमेण दानतपो नवविधमुक्तम् / एतच्च दानतपो वर्षाखवगन्तव्यं / पूर्वगाथोक्तमपि अप्रेतनगाथोक्तमपि च / अथ लघुकपक्षे दानतपो दर्शयतिअट्ठमछट्ठचउत्थं छट्टचउत्थंबिलं लहुसपक्खे। तह खवणंविलआसण इअ अद्भुकंति सगवीसा // 265 / / व्याख्या-लघुकपक्षे पञ्चदशाख्योत्कृष्टापत्तौ उत्कृष्टोत्कृष्टमष्टमम् / उत्कृष्टमध्यमं षष्ठम् / उत्कृष्टजघन्यं चतुर्थ / दशकाख्यमध्यमापत्तौ मध्यमोत्कृष्टं षष्ठं / मभ्यममध्यमं चतुर्थं / मध्यमजघन्यमाचामाम्लं / पञ्चकाख्यजघन्यापत्तौ जघन्योत्कृष्टं चतुर्थ / जघन्यमध्यममाचामाम्लं / जघन्यजघन्यमेकासनकमित्येवमर्धीपक्रान्त्या सप्तविंशतिविधं दानतपो वर्षाविषयं प्रदर्शितम् / / अथ शिशिरीष्मविषयं दानतपोऽतिदेशेनाहदसमाई पुरिमंता सिसिरे गिम्हट्ठमाइ निविअंता / असहे इक्किकहासो जा पंतिसु अंति इक्विकं // व्याख्या-एवं यथा वर्षासु उस्कृष्टायापत्तिनवके सति दानतपसो द्वादशमादौ कृत्वा एकासनान्ताः सप्तविंशतिर्भेदावारणिकया कृताः, तथा शिशिरेऽपि, केवलं सममादौ कृत्वा पुरिमार्द्धान्ताः। ग्रीष्मे पुनरष्टममादौ कृत्वा निर्विकृत्यन्ताः सप्तविंशतिर्भेदाः कार्याः यन्त्रकस्थापनातश्च क्षेयाः / वर्षाशिशिरग्रीष्माणों सप्तविंशतित्र्यसीलने चकाशीतिर्दानतपसो भेदा भवन्ति / अर्धपक्रान्तिश्चेयं-अर्द्धस्यअसमप्रविभागरूपस्य एकदेशस्य-एकादिपदात्मकस्यापक्रमणं-निवर्तनं शेषस्य तु द्वथादिपदसंघातात्मकस्यैकदेशस्यानुवर्त्तनं यस्यां रचनायां सा समयपरिभाषया अर्द्धापक्रान्तिरुच्यते / यथा वर्षासु गुरुतमे उत्कृष्टतो द्वादशमं, मध्यमतो दशमं, जघन्यतोऽष्टमम्, एषां मध्यादेकदेशो द्वादशलक्षणोऽपक्रामति, दशमाष्टमे गुरुतरं गच्छतः अप्रेतनं च षष्ठं मील्यते / ततश्च गुरुतरे उत्कृष्टतो दशमं, मध्यमतोऽष्टमं, जघन्यतः षष्ठम् / एषां मध्यादेकदेशो दशमलक्षणो निवर्त्तते अष्टमषष्ठे गुरुकं गच्छतः अग्रेतनं चतुर्थ मील्यते / ततश्च गुरुके उत्कृष्टतोऽष्टमं मध्यमतः षष्ठं जघन्यतश्चतुर्थमिति / यथा चेयमेकाशीतिके दानतपोयन्त्रके वर्षाद्ये नवकेऽ पक्रान्तिर्दर्शिता, तथैव सर्वेष्वपि नवकेषु विलोकनीया / एतैर्दानैरापत्तयः स्वकाः स्वका नियमात् सर्वा बोद्धव्याः / एवंविधापत्तिषु च द्वादशायं तपः कर्तुमसहिष्णोरेकैकहासः तावत् कार्यो यावन्नवस्वपि पङ्क्तिषु पर्यन्तकोष्टकगतमेकैकं चतुर्थादि निर्विकृतिकान्तं तपः स्थितं / ततः तत् तस्य दीयते // तत्करणेऽप्यशक्तस्य पुनस्तथैव हासो भवतीति दर्शयतिअसहस्स तं पि हसई तो सट्ठाणउ दिज्ज परट्ठाणे / इअ हिट्ठमुहे हासे निव्वीअं ठाइं सुद्धो वा // 267 // Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 यति-जीतकल्पे यन्त्र 6 / 5 उत्कृष्टापत्ती ____43 मध्यमापत्ती गुरुतमं उ० उ० 12 गुरुतमं उ० म० 10 गुरुतमं उ० ज०८ गुरुतरं म० उ० 10 गुरुतरं म० म०८ 27. उत्कृष्टापत्ती 25 मध्यमापत्तो लघु उ० उ० 10 लघु उ० म०८ लघु उ० ज०६ लघुतरं म०७०८ लघुतरं म० म०६ 15 उत्कृष्टापत्तौ 10 मध्यमापत्ती लघुकं उ० उ० 8 लघुकं उ० म० 6 लघुकं उ० ज० 4 लघुकतरं म० उ० 6 लघुकतरं म० म० 4 - 6 / 5 उत्कृष्टापत्तौ 43 मध्यमापत्ती गुरुतमं उ० उ० 10 गुरुतम उ० म०८ गुरुतमं उ० ज०६ गुरुतरं म० उ०८ गुरुतरं म० म०६ 273 उत्कृष्टापत्तौ 25 मध्यमापत्तौ . लघु उ० उ०८ लघु उ० म०६ लघु उ० ज०४ लघुतरं म० 70 6 लघुतरं म० म०४ 15 उत्कृष्टापत्ती 10 मध्यमापत्तौ लघुकं उ० उ० 6 लघुकं 30 म० 4 लघुकं उ० ज० आं० लघुकतरं म० 70 4 लघुकतरं म०म० आं० 6 / 5 उत्कृष्टापत्तो 43 मध्यमापत्तो गुरुतमं उ० उ०८ गुरुतमं उ० म० 6 गुरुतमं उ० ज० 4 गुरुतरं म० उ०६ गुरुतरं म० म० 4 273 उत्कृष्टापत्तो 25 मध्यमोपत्तो लघु 30 उ०६ लघु उ० म० 4 लघु उ० ज० आं० लघुतरं म० उ० 4 लघुतरं म०म० आं० 15 उत्कृष्टापत्तो 10 मध्यमापत्तो लघुकं उ० उ० 4 लघुकं उ० म० आं० लघुकं उ० ज० ए० लघुकतरं म०३० आं० लघुकतरं म०म० ए० व्याख्या-असहस्य-तत्करणोसमर्थस्य तदपि-पङ्क्तिपर्यन्तकोष्टकगतमपि तपो हास्यते, ततः पूर्वस्थानतपो दीयते / वर्षासु वर्षाकालोक्तं, शिशिरे शिशिरोक्तं, ग्रीष्मे ग्रीष्मोक्तं तदपि कर्तुमक्षमस्य ततः स्वस्थानात् परस्थानं-परस्थानतपः वर्षास्वपि शिशिरोक्तं, शिशिरेऽपि प्रीष्मोक्तं तपो दीयते / इत्येवमधोमुखे हासे स्थाने स्थाने वर्षाशिशिरग्रीष्मरूपे हासयद्भिः तावन्नेयं यावन्निर्विकृतिकमात्रमेव देयतया स्थितम् / शुद्धो वा यः पुनर्निर्विकृतिकमात्रमपि तपः कर्तुमशक्तः स मिथ्यादुष्कृतेनैव शुद्धयतीत्यर्थः। कैश्चित्त्वेवं व्याख्यातम्-आधाकर्मिकाद्युत्पत्तौ या षड्जीवनिकायविराधना तज्जनितं प्रायश्चित्तं स्वस्थानम् / आधाक Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यन्त्र स्थापना 147 . स्थापना 21 जघन्यापत्ती गुरुतरं म० ज०६ गुरु ज० उ०८ गुरु ज०म०६ गुरु ज० ज०४ 20 जघन्यापत्ती लघुतरं म० ज० 4 लघुतमं ज० उ० 6 लघुतमं ज०म० 4 लघुतमं जज०० 5 जघन्यापत्तौ लघुकतरं मज०आं० लघुकतमं ज०उ० 4 लघुकतमं ज०म०आं० लघुकतमं जज०५० 211 जघन्यापत्ती गुरुतरं म० ज०४ गुरु ज० उ०६ गुरु ज०म०४ गुरु 'ज० ज० आं० 2. जघन्यापत्तौ लघुतरं म० ज० आं• लघुतमं ज० 30 4 लघुतमं ज०म० आं० लघुतमं जज० ए० 5 जघन्यापत्ती लघुकतरं म०ज० ए० लघुकतमं ज००० पुकतमं ज०म०ए० लघुकेशमं ज०ज०० भेद 27 प्रीष्मकाले तपोदानयन्त्रकमिदम् | शिशिरेषु तपोदानयन्त्रकमिदम् | वर्षासु तपोदानयन्त्रकमिदम् भेद 27 21 जघन्यापत्ती गुरुतरं म०ज० आं० गुरु ज० 204 गुरु ज०म० आं० गुरु ज० ज० ए० | 20 जघन्यापत्ती लघुतरं मज० ए० लघुतमं ज०उ० आं० लघुतमं ज०म० ए० लघुतम जज. पु० 5 जघन्यापत्ती लघुकतरं म०ज० पु० लघुकतमं ज०७० ए० लघुकतमं ज०म०पु० लघुकतमं जज०नि० र्माद्यासेवाभणितं च चतुर्थादिकं परस्थानं तहानेऽप्ययमेव हासविधि:य इति / उक्तं च एएहिं दाणेहिं आवत्तिओ सया सया नियमा / बोधव्वा सव्वाओ असहस्सिक्किकहासणया / / जावद्विय इकिकं तं पि हासिज्ज असहुणो साव / दाउं सठाणतवं परठाणं दिज एमेव / / एवं ठाणे ठाणे हिद्वाहुत्तं कमेण हासित्ता / नेअव्वं जाव तिअं नियमा निव्वीअयं इकं / एष नवविधो व्यवहारः।। एकाशीतिकस्य नवविधव्यवहारयन्त्रस्य स्थापना चेयं / . Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्प एवं कालविषयो नवविधदानतपोव्यवहारः पुनरपि प्रकारान्तरेण दानविधिमेवाह- . एगाइ जा छमासं आवन्नाणं जहागयं दिज्जा / तवकाल गुरुअ लहुअं सझोसमिअरं व जहपत्तं // व्याख्या-एकादि यावत् षण्मासमापनानाम्-एकमासिकं द्विमासिकं त्रिमासिकं चातुर्मासिकं पाश्चमासिकं पाण्मासिकं च ओपन्नानां साधूनां यथागतं तपःकालाभ्यां गुरुकं लघुकं वा यथाप्राप्तं स्यात् / तथा सझौषमितरद्वा अझोषं, यथाप्रात्रं-सहासहादिपुरुषविशेषरूपं पात्रमपेक्ष्य प्रायश्चित्तं दीयते / / अथ तपःकालाभ्यां लघुगुरु प्रायश्चित्तं यदुच्यते तत्स्वरूपं प्ररूपयतिमुटुंतं तव लहुमट्ठमाइ तव गुरु जमुज्झई गिम्हे / तं लहुमवि कालगुरु गुरु वि लहुअं सिसिरवासे // व्याख्या-निर्विकृत्यादिना षष्ठान्तेन तपसा यन्मासगुर्वादिकमप्यूह्यते तत्तपो लघुकम् / अष्टमादिना तूयमानं मासलवादिकमपि तपो गुरुकम् / ग्रीष्मे यदृह्यते तल्लघुकमपि-मासलध्वादिकमपि . कालगुरुकम् / शिशिरवर्षासु तु यन्मासगुर्वादिकमप्यूह्यते तत्काललघुकम् / यदाहतवकाले ओसज्जउ गुरू वि होइ उ लहू लहू गुरुओ। कालो गिम्हो उ गुरू अ ठाइ तवो लहू सेसो / / गुरुलघुप्रायश्चित्तं पुनः प्रकारान्तरेण दर्शयतिदाणे निरंतरे वा लहु पि गुरू गुरुं पि लहु इहरा / सुत्तविहिणाविलंब ज धुझाइ तं तु हाडहडं // व्याख्या-वाशब्दः प्रकारान्तरोपन्यासे / दाने निरन्तरे सति लघुकमपि गुरुकं, विचाले पारणकाऽदानेन दीयमानं लघुकमपि तपो गुरुकं भवतीति भावः / इतरथा-सान्तरं दीयमानं गुरुकमपि तपो लघुकं भवति / उक्तं चजंतु निरंतरदाणं जस्स व तस्स व तवस्स तं गुरुअं। जं पुण संतरदाणं गुरुअं पि हु तं लहुं होइ / तथा सूत्रविधिना-सूत्रोक्तप्रकारेण यत्प्रायश्चित्तमविलम्ब-कालक्षेपं विनवोह्यते तत्प्रायश्चित्तं हाडहडमित्युच्यते। आरोपणा हि पश्चविधा / यदुक्तम् पदृविइआ थ ठविआ कसिणाऽकसिणा तहेव हाडहडा / आरोवण पंचविहा पायच्छित्तं पुरिसजोए / / आरोपणा पञ्चप्रकारा // तद्यथा-प्रस्थापितिका स्थापिता कृत्स्ना अकृत्स्ना हाडहडा च / एषा पश्चप्रकाराप्यारोपणा प्रायश्चित्तस्य / तच्च प्रायश्चित्तं पुरुषजाते कृतकरणादौ यथायोग्यमवसेयम् / एतासां चेदं व्याख्यानम्पट्टविइमा वहंते वेआबच ठिा ठविइआउ / कसिणा झोसविरहिआ जहिं झोसो सा अकसिणाओ। ____ यदासेपितं प्रायश्चित्तं वहति एषा प्रस्थापितिका, वैयावृत्त्यकरणलब्धिसम्पन्न आचार्यप्रभृतीनां वैयावृत्त्यं कुर्वन् यत्प्रायश्चित्तमापन्नः तस्यारोपितमपि स्थापित कियते यावद्वथावृत्त्यपरिसमाप्ति Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरोपणा प्रकाराः 149 र्भवति / द्वौ योगावेककालं कर्तुमसमर्थ इति कृत्वा सा आरोपणा स्थापितिका / कृत्स्ना नाम यत्र झोषो न क्रियते, अकृत्स्ना यत्र किश्चित् झोष्यते / हाडहडा त्रिविधा-सद्योरूपा स्थापिता प्रस्थापिता च / तत्र लघु. गुरुमासिकादि यत्तप आपन्नः तद्यदि सद्यस्तत्कालं दीयते न कालक्षेपेण तदा सा हाडहडा आरोपणा सद्योरूपा। यदि पुनर्यन् मासिकादिकमापन्नः तद्वैयावृत्त्यमाचार्यादीनां करोतीति स्थापितं क्रियते / तस्मिंश्च स्थापिते यदन्यदुद्घातमनुद्घातं वा आपद्यते तत्सर्वमपि प्रमादनिवारणार्थमनुद्घातं दीयते सा हाडहडा स्थापिता / पाण्मासिकपाश्चमासिकादितपो वहन् अन्तरा यदन्यदापद्यते उद्घातमनुद्घातं वा तत्तस्यापि प्रमादनिवारणार्थमनुद्घातं यदारोप्यते एषा हाडहडा आरोपणा प्रस्थापिता / / कस्मिन्नपराधे पुनरेवं क्रमेण तपःप्रभृति प्रायश्चित्तमापद्यत इति दर्शयतिसत्तरत्तं तवो होइ तओ छेओ पहावई / छेएणाछिन्नपरिआए तओ मूलं तओ दुगं // 271 // व्याख्या-सप्तरात्रमिति जातावेकवचनं, ततोऽयमर्थः-त्रीणि सप्तरात्राणि यावच्चतुर्गुदिकं तपो भवति / ततः सप्तरात्रत्रयानन्तरं छेदः तस्यापराधपदासेविनोऽमिमुखं प्रकर्षण धावति प्रधावति / छेदेनापि यस्य प्रभूतत्वात् पर्यायो न छियते तस्मिन्नपराधकारिणि छेदेणाछिन्नपर्याये एकेनैव दिवसेन मूलम् / ततो द्विकमनवस्थाप्यपारानिकलक्षणम् / इयमत्र भावना-यदा कश्चिदाचार्योऽगीतार्थस्याऽबहुश्रुतस्य वा गणं ददाति, स च तदनुज्ञातो गणं धारयति, तदा द्वयोरप्यनेन क्रमेण प्रायश्चित्तमापद्यते / तथाहि-तयोराचार्ययोः प्रथमतः सप्तरात्रं यावत् दिवसे दिवसे चतुर्गुरुकम् / यद्येतावति गते केनाप्यपरेण गीतार्थेन आर्या ! न कल्पते अबहुश्रुतस्यागीतार्यस्म वा गणं दातुं धारयितुं वा, ततः प्रतिपद्यध्वं सम्प्रत्यपि प्रायश्चित्तमिति प्रज्ञापितो स्वयं वा यधुपरतौ ततः प्रायश्चित्तमप्युपरतम् / अथ नोपरमेते ततो द्वितीयं सप्तगत्रं दिने दिने षडलघवः / तृतीयं सप्तरात्रं प्रत्यहं षड्गुरवः / यद्येतावता स्थितौ ततः सुन्दरमेव, नो चेत्ततश्छेदः प्रधावति / तत्रैके आचार्याः पञ्चरात्रिंदिवादारभ्य छेदं प्रस्थापयन्ति / अपरे पुनश्चतुर्गुरुकादिति / पश्चरात्रिंदिवप्रस्थापनायां भूयोऽप्याऽऽदेशयुगं तद्यथा-केचिदाचार्या लघुभ्यः केचित्तु गुरुभ्यः पञ्चरात्रिंदिवेभ्यश्छेदं प्रारभन्ते / तत्र लघुकं पश्चरात्रिंदिवप्रस्थापना प्रथमतो भाव्यते-सप्तरात्रत्रयानन्तरं तुरीयं सप्तरात्रं लघुपञ्चकछेदः / पञ्चमं गुरुपञ्चकः / षष्ठं लघुदशरात्रिंदिवः / सप्तमं गुरुदशरात्रिंदिवः / अष्टमं लघुपञ्चदशकः / नवमं गुरुपञ्चदशकः / दशमं लघुविंशतिगत्रिंदिवः / एकादशं गुरुविंशतिरात्रिंदिवः / द्वादशं लघुपञ्चविंशतिरात्रिंदिवः। त्रयोदशं गुरुपञ्चविंशतिकः / चतुर्दशं लघुमासिकः / पञ्चदशं गुरुमासिकः / षोडशं चतुर्लघुमासिकः / सप्तदर्श चतुर्गुरुमासिकः / अष्टादशं लघुषाण्मासिकः / एकोनविंशं सप्तरात्रं गुरुषाण्मोसिकछेद इति सर्वसङ्ख्यया त्रयस्त्रिंशं शतमहोरात्राणां भवति / गुरुपञ्चकप्रस्थापनायां तु सप्तरात्रत्रयानन्तरं सप्ताहोरात्राणि प्रथमत एव गुरुपञ्चकछेदः / ततः सप्ताहं लघुदशकः / एवं पूर्वोक्तविधिना गुरुदशकादयोऽपि षड्गुरुकान्ता छेदाः / सप्ताह सप्ताहं प्रत्येकं द्रष्टव्या इति / अत्र चाष्टादशभिः सप्तरात्रैः षड्विंशं शतं गत्रिंदिवानां भवति / यदा तु यतः प्रभृति तपः प्रायश्चित्तमुपक्रान्तं तत आरभ्य छेदविवक्षा क्रियते तदा चतुर्थे सप्तरात्र प्रथमत एव चतुर्गुरुकः छेदः / पञ्चमे षड्लघुकः / षष्ठे षड्गुरुकः एवं षभिः सप्तरात्रैर्द्विचत्वारिंशदिनानि भवन्ति / इत्थं त्रयाणामादेशानामन्यतमेनादेशेन छिद्यमानोऽपि भूयस्त्वात् यदा पर्यायो न छिद्यते / ततो यद्यपि Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 यति-जीतकल्पे देशोनपूर्वकोटिप्रमाणः पर्यायोऽवशिष्यते तथापि सर्वोपि युगपदेकदिनेनैव छिद्यते इति सर्वछेदलक्षणं ततो मूल / ततो द्वितीयदिवसेऽनवस्थाप्यं / तृतीये पाराञ्चिकम् / एषा गाथाऽनियतविषयाऽप्येवं प्रतिनियतविषयत्वेन भाविता निशीथादौ तथादर्शितत्वात् / / अथ श्रीवीरतीर्थे उत्कृष्टा तपोभूमिः पाण्मासिकं तपो भवति / ततः परमपि कश्चित् तत्प्रायश्चित्तमापन्नः स्यात्तस्य कथं प्रायश्चित्तं प्रदीयत ? इत्याह - जइ छम्मास परेण वि आवन्नो जाव मास असिइसयं / ठवणरुवणाइ ते वि हु काउ दिणे दिज छम्मासं // व्याख्या - यदि कश्चित् साधुः षण्मासेभ्यः परतोऽपि सप्तमासादीनि प्रायश्चित्तानि यावदशीतिशतमासरूपमुत्कृष्टं तपोहप्रायश्चित्तमापन्नः तदा तान सर्वानपि मासान् स्थापनारोपाप्रकारेण दिवसान् कृत्वा पाण्मासिकमेवोत्कृष्टं तपस्तस्य दद्यान्नाधिकम् / इयमत्र भावना-मासादारभ्य यावत षण्मासास्तावत् स्थापनारोपणाव्यतिरेकेणापि सूत्रेणैव प्रायश्चित्तं दीयते / ततः पराणि तु यानि सप्तमासादीनि प्रायश्चित्तानि यावदशीतिशतमासरूपमुत्कृष्टं प्रायश्चित्तं तानि अपरिणामकस्याऽतिपरिणामकस्य वाऽगीतार्थस्य स्थापनारोपणाप्रकारेणेव दीयन्ते / तयोः प्रत्ययहेतुत्वात्तत्प्रकारस्याऽन्यथादोषसम्भवाच्च / गीतार्थस्य अगीतार्थस्य वा परिणामकस्य पुनर्न स्थापनारोपणाप्रकारेण तानि दीयन्ते, तयोरन्यथा दानेऽपि प्रत्ययसम्भवात् दोषाभावाच / स्थापनारोपणाप्रकारश्वायं-यावन्तो मासा दिवसा प्रतिसेविताः तावन्तः सर्वेऽप्येकत्र स्थाप्यन्ते, स्थापयित्वा च यत सक्षेपार्ह विशिकादिकं प्रतिसेवितं तत स्थाप्यते एषा स्थापना / तदनन्तरं येऽन्ये मासाः प्रतिसेवितास्ते सफलीकर्तव्या इत्येकैकस्मान् मासात प्रतिसेवनापरिणामानुरूपं स्तोकान् स्तोकतरान् समान् विषमान वा दिवसान् गृहीत्वैकत्र रोपयति / एषा आरोपणा / एषा चोत्कर्षतः तावत्कर्तव्या यावन् स्थापनया सह संकलय्यमानाः षण्मासाः पूर्यन्ते, नाधिकाः / अनेन हि प्रकारेण प्रायश्चित्तदानेऽतिपरिणामकोऽपरिणामको वा चिन्तयति-सर्वे मासाः सफलीकृता इति शुद्धोऽहमिति / तत्र स्थापनाया आरोपणायाश्च चत्वारि स्थानानि भवन्ति / तद्यथा-प्रथमं स्थानं त्रिंशत्स्थानात्मकं / द्वितीयं त्रयस्त्रिंशत्स्थानात्मकं / तृतीयं पञ्चत्रिंशत्स्थानात्मकम् / चतुर्थमेकोनाशीत्यधिकस्थानकशतप्रमाणम् / एतेषु च चतुर्वपि स्थानकेष्विमा जघन्या स्थापनारोपणा // ठवणा वीसिअ पक्खिअ पंचिअ एगाहिआ उ बोधव्वा / आरोवणा वि पक्खिअ पंचिअ तह पंचएगाही। स्थापनायाः प्रथम स्थाने जघन्यास्थापना विंशिका-विंशतिरात्रिंदिवप्रमाणा / द्वितीये पाक्षिकी / तृतीये पञ्चदिवसात्मिका / चतुर्थे एकाहिका / आरोपणापि प्रथम स्थाने जघन्या पाक्षिकी। द्वितीये पश्चिका-पञ्चदिनप्रमाणा / तृतीयेऽपि पश्चिको / चतुर्थे एकाहिका | आद्येषु च त्रिषु स्थापनारोपणास्थानेषु पञ्चोत्तरा वृद्धिः / चतुर्थे त्वेकोत्तरा वृद्धिः / तथाहि-प्रथमस्थापनास्थानके विंशतिदिनस्थापना१ पञ्चविंशतिदिना२ त्रिंशद्दिना३ एवं पञ्चकवृद्धथा तावन्नेयं यावत्पश्चषष्टयधिकशतदिनप्रमाणा त्रिंशत्तमा स्थापना / द्वितीये स्थापनास्थाने पञ्चदशदिना प्रथमा, द्वितीया विंशतिदिना, तृतीया पञ्चविंशतिदिना, एवं पञ्चकवृद्धथा तावन्नेतव्यं यावत् पञ्चसप्तत्यधिकशतदिनप्रमाणा त्रयस्त्रिंशत्तमा स्थापना / तृतीये स्थाने प्रथमा पञ्चदिना, द्वितीया दशदिना, पञ्चदशदिनो तृतीया, एवं पञ्चोत्तरवृद्धथा तावन्नेतव्यं यावत् पञ्चसप्तत्यधिकशतदिनप्रमाणा पञ्चत्रिंशतत्तमा स्थापना / Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरोग्णा-प्रकाराः चतुर्थे स्थाने प्रथमा एकदिना, द्वितीया द्विदिना, तृतीया त्रिदिना, चतुर्थी चतुर्दिना, एवमेकोत्तरवृद्धथातावन्नेतव्यं यावदेकोनाशीत्यधिकशतदिनप्रमाणा एकोनाशीतिशततमा स्थापना / एवमारोपणाया अपि प्रथमे स्थाने पञ्चदशदिना / विंशतिदिना, पञ्चविंशतिदिना, एवं पञ्चकवृद्धथा तावज्ज्ञातव्यं यावत् पष्ट यधिकशतदिनप्रमाणा त्रिंशत्तमा आरोपणा / द्वितीयस्थाने पञ्चदिना प्रथमा / दशदिना द्वितीया / पञ्चदशदिना तृतीया / एवं पन्चकवृद्धथा तावत् ज्ञेयं यावत् पञ्चषष्टयधिकशतदिनप्रमाणा त्रयस्त्रिंशत्तमाऽऽरोपणा / तृतीयेऽपि स्थाने पञ्चदिना प्रथमा / दशदिना द्वितीया / पश्चदशदिना तृतीया, एवं पञ्चकवृद्धथा तावद् गन्तव्यं यावत् पञ्चसप्तत्यधिकशतदिनप्रमाणा पञ्चत्रिंशत्तमाऽऽरोपणा / चतुर्थे पुनरारोपणास्थाने स्थापना चतुर्थस्थानवदेकोनाशीतिशतप्रमाणान्यारोपणास्थानान्यवगन्तव्यानि / विंशतिदिनादिकासु च स्थापनासु पाक्षिक्यादिका आरोपणाः प्रत्येक योज्याः / एवं पाक्षिक्यादिकासु स्थापनासु पञ्चाहिकादिका आरोपणाः प्रत्येकं योज्याः / पञ्चाहिकादिस्थापनासु पश्चाहिकाद्या आरोपणा, एकाहिकादिस्थापनासु पुनरेकाहिकाचा आरोपणा योजनीयाः। एवं स्थापनारोपणानां परस्परं संबेधतोऽनेके भङ्गा भवन्ति / ते च स्वयं निशीथव्यवहारतो ज्ञेयाः / स्थापनारोपणयोंश्च सर्वत्र वृद्धिः तावती कार्या यावत्या उभयमीलने षण्मासाः पूर्णा भवन्ति नाधिकम् / / अथ का स्थापना आरोपणां च कतिषु मासेषु प्रतिसेवितेषु द्रष्टव्या ? इत्येतत्परिज्ञानार्थमाहठवणारोवणदिवसे माणाउ विसोहइत्तु तु जं सेसं / इच्छिअरुवणोए भए असुज्झमाणे खिवइ झोसं / / मानात्-पण्णां मासानां दिवसपरिमाणात् अशीत्यधिकशतरूपात् विवक्षितायाः स्थापनाया विवक्षितायाश्वारोपणाया ये दिवसाः तान् विशोधयेत् / विशोध्य च यच्छेषमुपलभ्यते तत् ईप्सितया अधिकतया आरोपणयां भजेत-भाग डियात / भागेच इते यदि राशिनिलेपः शध्यति / ततो न किमपि प्रक्षिप्यते, केवलं सारोपणा कृत्स्नेति व्यपदिश्यते / यदि पुनर्निर्लेपो न शुद्धथति ततः क्षिपति झोषम् / यस्मिन् प्रक्षिप्ते समो भागहारो भवति सा चारोपणा अकृत्स्नभागहरणादकृत्स्नेति व्यवहर्तव्या / यथा केनापि पृष्टं-विंशिका स्थापना पाक्षिकी चारोपणा कतिमिर्मासैः प्रतिसेवितनिष्पन्ना ? उच्यते-त्रयोदशमिर्मासैः। तथाहि-षण्णां मासानां मानमशीतं दिवसशतमित्यशीतं शतं धियते / 180 ततो विंशतिकायाः स्थापनाया विंशतिदिनानि पाक्षिक्याश्वारोपणायाः पञ्चदश दिनानि शोध्यन्ते / शोधिते च शेषं जातं पञ्चचत्वारिंशं शतं / ततोऽधिकृतयो पञ्चदशदिनया आरोपणया भागो ह्रियते, तत्र चोपरितनो राशिः शुद्धं भागं न प्रयच्छति, पञ्चसु च प्रक्षिप्तेषु प्रयच्छतीति पञ्चपरिमाणोऽत्र झोषः प्रक्षिप्यते / ततो भागे हृते लब्धा दश मासाः / वक्ष्यमाणकरणतो द्वौ स्थापनाया मासौ एकश्वारोपणाया मास इत्यागतास्त्रयोदश मासाः प्रतिसेविताः / एवं विशिका स्थापना पञ्चविंशतिदिना चारोपणा कतिभिर्मासैः प्रतिसेवितैनिष्पन्ना ? उच्यते-त्रयोविंशतिमासैः। तथाहि-स्थापनादिवसा विंशतिरारोपणादिवसाः पञ्चविंशतिरेते मिलिताः पञ्चचत्वारिंशत / ते षण्मासदिवसेभ्योऽशीतिशतसङ्ख्येभ्य शोध्यन्ते / जातं शेषं पश्चत्रिंश शतम् / ततोऽधिकृतपञ्चविंशतिदिनया आरोपणया तस्य भागो लियते / तत्र चोपरितनो राशिः शुद्धं भागं न प्रयच्छति, पञ्चदशसु च प्रक्षिप्तेषु प्रयच्छतीति पञ्चदशपरिमाणोऽत्र झोषः प्रक्षिप्यते लब्धाः षण्मासाः। तथा वक्ष्यमाणकरणतोऽधिकृतारोपणया पञ्चभिर्भागो वियते लब्धाः पञ्च ते द्विरूपहीनाः क्रियन्ते, Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 यति-जीतकल्पे जातात्रय एतावन्त आरोपणाया मासा, यदि वेयं तृतीयारोपणेति ते षण्मासानिभिर्गुण्यन्ते जाता अष्टादश, द्वौ स्थापनामासौ प्रयश्वारोपणामासा इत्यागताः सर्वसङख्यया त्रयोविंशतिमासाः / / __ अथवाऽन्यथा झोषपरिमाणं कथयतिठवणादिवसे माणा विसोहइत्ताण भयह रुवणाए / जो छेयं सविसेसो अकसिणरुवणाइ सो झोसो / मानात-षण्मासदिवसपरिमाणात् अशीतिशतात् स्थापनादिवसान्-अधिकृतस्थापनावासगन् विशोध्य यच्छेषमवतिष्ठते तत् आरोपणया-अधिकृतारोपणादिवसैर्भज-भागहारं कुरु / भागे च हृते यच्छेदशिानां विश्लेषः / इह विश्लेषे कृते सति यदवतिष्ठते, तदपि विश्लेषतो जातत्वात् विश्लेषः / स तावत्प्रमाणोऽकृस्नारोपणायां झोषः / यथां षण्मासदिवसपरिमाणादशीतिशतात् विंशतिकायाः स्थापनाया दिवसा विंशतिरिति शोध्यते / जातं षष्टयधिकं शतं 160 / ततः पाक्षिक्यामारोपणायां सञ्चयमासा ज्ञातुमिष्टा इति पञ्चदशमिर्भागो ह्रियते, स्थिताः शेषा दश अधस्ताच्छेदः पञ्चदश / तेभ्यो दश विश्लिष्यन्ते स्थिताः पञ्च, आगतं पञ्चदशिक्यामकृत्स्नारोपणायां पञ्चको झोषः / तथा अशीतिशतात् स्थापनादिवसा विंशतिः शोध्यन्ते, जातं षष्टं शतं 160 / ततः पञ्चविंशतिदिनाया आरोपणायाः सञ्चयमासा ज्ञातुभिष्टा इति पञ्चविंशत्या भागो ह्रियते, शेषा दशच्छेदोऽधस्तात् पञ्चविंशतिः तस्य दशविश्लिष्यन्ते स्थिताः पश्चदश / आगतं पञ्चविंशतिदिनायामारोपणायां पक्षो झोषः। एवं सर्वत्र भावनीयम् / / जत्थ पुण देइ शुद्धं भागं आरोवणाओ सा कसिणा। दुण्हं पि गुणसु लद्धं इच्छिअरुवणाइ जइ मासा / / यस्यां पुनरारोपणायामुपरितनो राशिः शुद्धभागं प्रयच्छति, व किश्चित पञ्चायस्योवतिष्ठते इतिभावः / सा आरोपणा कृत्स्ना ज्ञातव्या / यथा विंशतिदिना / तथाहि-केनाऽपि पृष्टं-विशिकास्थापना विंशिका चारोपणा कतिमिर्मासैः प्रतिसेवितैर्नि पन्ना 1 उच्यते-अष्टादशभिर्मासैः / तद्यथा-षण्णां मासानामशीतिशतं दिवसाः, तेभ्यो विंशतिर्दिना स्थापनाया विंशतिर्दिनान्यारोपणायाः शोध्यन्ते जातं शेषं चत्वारिंशं शतं / ततोऽधिकृतया विशिकया आरोपणया भोगे हृते उपरितनो राशिनि लेपः शुद्धः / एषा कृत्स्नारोपणा लब्धाः सप्त मासाः / इयमारोपणा द्वाभ्यां मासाभ्यां निष्पन्नेति सप्त मासा द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाताश्चतुर्दश मासाः। ततो द्वौ स्थापनामासौ द्वौ चारोपणामासौ चतुर्दशसु प्रक्षिप्यन्ते, आगतं विशिका स्थापना विशिका चारोपणा अष्टादशमासैनिष्पन्नेति / 'दुण्डंपि' इत्यादि / द्वयोरपि आरोपणयोः कृत्स्नाकृत्स्नयोलब्धमीप्सिताया आरोपणाया यति मासा यतिभिर्मासैरीप्सितारोपणा निष्पन्नेति यावत् ततिभिर्गुणय / योकेन मासेन निष्पन्ना तत एकेन गुणय / अथ द्वाभ्यां मासाभ्यां निष्पन्ना तर्हि द्विकेन / अथ त्रिभिः ततस्त्रिमिरित्यादि / अथवा द्वयोरप्यारोपणयोः कृत्स्नाकृत्स्नयोर्लब्धं यति मासास्तत ईप्सितया आरोपणया गुणय / यदि प्रथमा तत एकेन गुण्यते / अथ द्वितीया ततो द्वाभ्यामथ तृतीया ततनिभिरित्यादि एवं सर्वत्र भावनीयम् // अथ स्थापनारोपणादिवसेभ्यो यथा मासा आगच्छन्ति मासेभ्यो वा दिवसास्तथा प्रतिपादयतिदिवसा पंचहिं भइआ दुरूवहीणाउ ते भवे मासा / मासा दुरूवसहिआ पंचगुणा ते भवे. दिवसा / / Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरोपणा-प्रकाराः 153 स्थापनाया आरोपणाया वा दिवसाः पञ्चभिर्भज्यन्ते, ततो भोगे हृते ये लब्धास्ते द्विरूपहीनाः क्रियन्ते, ततो यदवशिष्यते ते भवेयुर्मासाः / यथा विंशिकायाः स्थापनाया दिवसो विंशतिः, तेषां पञ्चमिर्भागे हृते लब्धाश्चत्वारस्ते द्विरूपहीना कृताः स्थितौ द्वौ / आगतं विंशिकास्थापना द्वाभ्यां मासाभ्यां निष्पन्ना / तथा पाक्षिक्या आरोपणायो दिनानि पञ्चदश, तेषां पञ्चभिर्भागे हृते लब्धाः त्रयस्ते द्विरूपहीनाः कृताः स्थित एक, आगतं पाक्षिकी आरोपणा एकेन मासेन निष्पन्ना विशिकारोपणा विशिकास्थापना च द्विमासनिष्पन्ना / एवं सर्वत्र भावनीयं / 'मासा दुरूवसहिआ' इत्यादि / यति मासाः स्थापनायामारोपणायां वा अधिकृतकरणवशात् लब्धास्ते दिवसानयनाय द्विरूपसहिताः क्रियन्ते / ततः पश्चगुणास्ततोभवेयुर्यथोक्ता दिवसाः / यथा विशिकायाः स्थापनाया द्वौ मासौ तौ द्विरूपसहितौ क्रियेते जाताश्चस्वारस्ते पञ्चभिर्गुण्यन्ते / आगतं विशिकास्थापनाया विंशतिर्दिनानि / तथा पाक्षिक्यामारोपणायामेको मासः / स द्विरूपसहितः कृतो जाताः त्रयः ते पञ्चभिर्गुण्यन्ते / आगत पाक्षिक्यारोपणाया पञ्चदश दिनानि / एवं सर्वत्र भावनीयं / / तदेवं करणान्यभिधायोपसंहारमाहठवणारोवणसहिआ संचयमासा हवंति एवइआ / कत्तो किं गहिरं ति अ ठवणामासे ततो सोहे / / पूर्व * ठवणारोवण दिवसे माणाउ विसोहइत्तु ' इत्यादि करणवशात् ये लब्धा मासास्तेऽनन्तरोक्तकरणवशादानीता ये स्थापनारोपणामासाः तत्सहिताः क्रियन्ते, ततः शिष्येभ्य एवं प्ररूप्यते / अस्यां स्थापनायामस्यां चारोपणायामेतावन्तः सञ्चयमासाः सर्वप्रायश्चित्तसङ्कलनमासा भवन्ति / अथ तस्यां स्थापनायामारोपणान्यां च सञ्चयमानानां मध्ये कुतो मासात् किं गृहीतम् ? / अत्र करणमाह ‘ठवणामासे ततो सोहे' / ततः सञ्चयमाससख्यातः स्थापनामासान् शोधयेत् / शोधिते च सतिदिवसेहिं जइहिं मासो निष्फनो हवइ सव्वरुवणाणं / तइहिं गुणिआउ मासा ठवणादिणजुआउ छम्मासा / / .. सर्वासामारोपणानां यतिभिर्दिवसैर्मासो भवति निष्पन्नस्ततिमिर्गुणितास्ते कर्तव्याः / पुनः स्थापनादिनयुक्तास्ततस्ते षण्मासा भवन्ति / यथा प्रथमायां स्थापनायामारोपणायां च त्रयोदश सञ्चयमासास्तेभ्यः स्थापनामासौ द्वौ शोधितौ स्थिता एकादश / अत्रारोपणायामेको मासः, स च पञ्चदशभिदिनैर्निष्पन्न इति ते एकादश पश्चदशमिर्गुण्यन्ते / जातं पञ्चषष्टं शतं / ततो विंशतिदिवसाः स्थापनासत्काः प्रक्षिप्यन्ते / जोतं पश्चाशीतं शतं पश्चझोष इति ते त्यक्ताः / जाताः षण्मासाः। आगतं द्वाभ्यां स्थापनीकृताभ्यां मासाभ्यां दश दश दिनानि गृहीतानि / शेषेभ्यस्त्वेकादशेभ्यः पञ्चदश पञ्चदश दिनानि / केवलं तन्मध्यात् पश्चझोषः कृतः पञ्च दिनानि त्यक्तानीति भावः / एतान्येव च प्राक् राशिसमकरणार्थं प्रक्षिप्तानीति समकरणः प्रक्षेपणीयो राशिझोषशब्देनोक्तः / एवं सर्वत्र झोषभावना ज्ञेया / तथा विशिकायां स्थापनायो विशिकायां चारोपणायोमष्टादश किल सञ्चयमासाः तेभ्यो द्वौ स्थापनामासौ शोधितौ जाताः षोडश / अत्र विंशतिदिनारोपणा द्विमासेत्येकको मासो दशभिदिनैर्निष्पन्नः, ततस्ते षोडश दशभिगुण्यन्ते जातं षष्टं शतं 160 / ततः स्थापनादिवसा विंशतिः प्रक्षिप्यन्ते जातमशीतिशतम् / आगतमत्र द्वाभ्यां स्थापनामासाभ्यां दश दश वासरा गृहीताः / शेषेभ्योऽपि षोडशेभ्यो गात्रतो दश दशेति / तथा 20 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 यति-जीतकल्पे विशिकायां स्थापनायां पञ्चविंशतिकायां चारोपणायां त्रयोविंशतिः सञ्चयमासास्तेभ्यो द्वौ स्थापनामासो शोधितौ जाता एकविंशतिः / पञ्चविंशतिदिनारोपणा त्रिभिर्मासै निष्पन्नेत्येकैको मासः स त्रिभागैरष्टमिदिननिष्पन्नस्तत एकविंशतिरमिर्दिनैर्गुणिता जातमष्टषष्टं शतं, त्रिभागगुणने च लब्धाः सप्त तेपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते जातं पश्चसप्ततं शतं तत्र विंशतिः स्थापनादिवसाः प्रक्षिप्यन्ते जातं पश्चनवतं शतं 195 / तत्र पञ्चदश दिनानि झोष इति तान् अपनीयन्ते जातमशीतं शतम् / आगतमत्र द्वाभ्यां स्थापनीकृतमासाभ्यां दश दश दिवसा गृहीताः, शेषेभ्यस्त्वेकविंशतिमासेभ्यो गात्रतोऽष्टावष्टौ दिवसाः सत्रिभागाः, केवलं तत्रापि पञ्चदश दिनानि झोषीकृतानि / तदेवं स्थापनातः शेषमासेभ्य गात्रतो यत् गृहीतं तत्प्रतिपादितम् / / अधुना शेषमासेभ्यो यद् येभ्यो विशेषतो गृहीतं तत्प्रतिपादनार्थं करणमाह रुवणाए जइ मासा तइभागं तं करे तिपंचगुणं / सेसं च पंचगुणिअंठवणादिवसाजुआ दिवसा / / स्थापनामासेषु शोधितेषु यच्छेषमवतिष्ठते तत आरोपणायां यति मासाः ततिभागं-तावत्सङ्ख्याकभागं करोति / तत्राद्यं त्रिपञ्चगुणं-पञ्चदशगुणं करोति, शेषं तु समस्तमपि पञ्चगुणम् / एतच्चैवं द्रष्टयंपाक्षिक्यादिष्वारोपणादिषु यदि पुनरेकदिना द्विदिना यावचतुर्दशदिना आरोपणा तदा यतिदिनारोपणा ततिगणं कुर्यात् / ततः ते दिवसाः स्थापनादिवसयुताः क्रियन्ते ततो दिवसाः षण्मासदिवसा भवन्ति / तद्यथाप्रथमायां स्थापनायां प्रथमायां चारोपणायां त्रयोदश सञ्चयमासाः, तेभ्यो द्वौ स्थापनामासौ शोधितौ जाता एकादश. अधिकृतारोपणा एकमासनिष्पन्नेति / ते एकादश एकभागेन क्रियन्ते / एकभागकृतं च तत्तथारूपमेव भवतीति समुदिता एव ते एकादश। ततः 'तिपंचगुणिअ'मिति वचनात् पञ्चदशमिर्गुण्यन्ते जातं पञ्चषष्टं शतं 165 / तत्र स्थापना दिवसा विंशतिः प्रक्षिप्ता जातं पञ्चाशीतं शतं, ततः पञ्च दिनानि झोषीकृतानीति तान्यपसार्यन्ते जातमशीतं शतम् / आगतं द्वाभ्यां स्थापनाकृतमासाभ्यां दश दश दिनानि गृहीतानि शेषेभ्यस्त्वेकादशमासेभ्यः पञ्चदश पञ्चदश दिनानि यावत् झोषीकृतानि / तथा विशिकायां स्थापनायां विशिकायां चारोपणायामष्टादश सञ्चयमासाः, तेभ्यो द्वौ स्थापनामासावपनोती जाताः षोडश / ततोऽत्रारोपणा द्वाभ्यां मासाभ्यां निष्पन्नेति षोडश द्वाभ्यां भागाभ्यां क्रियन्ते / उपर्यष्टौ अधोप्यष्टौ। तत्रोपरितनमाद्यभागं पञ्चदशभिर्गुणयेत् / जातं विशं शतं 120 / अधस्तनास्त्वष्टौ पञ्चभिर्गुण्यन्ते माता चत्वारिंशत् 40 उभयमीलने जातं षष्टं शतं 160 / अत्र स्थापनादिवसा विंशतिः प्रक्षिप्ता जातमशीतं शतम्, आगतमत्र द्वाभ्यां स्थापनामासाभ्यां दश दश दिनानि गृहीतानि / अष्टाभ्यो मासेभ्यः पञ्चदश पञ्चदश / अन्ये त्वष्टाभ्यः पञ्च पञ्चेति / तथा विशिकायां स्थापनायां पञ्चविंशिकायां चारोपणायां त्रयोविंशतिः सञ्चयमासास्तेभ्यो द्वौ स्थापनामासौ शोधितौ जातो एकविंशतिरत्रारोपणा त्रिभिर्मासैनिष्पन्नेति ते एकविंशतिः सञ्चयमासास्त्रिभागाः क्रियन्ते जातात्रयः सप्तकोः पुञ्जाः। तत्र प्रथमसप्तकः पञ्चदशमिगुण्यन्ते जातं पञ्चोत्तरं शतं, तत्र पक्षो झोष इति पञ्चदश शोध्यन्ते जाता नवतिः 90 / शेषौ च द्वौ भागौ सप्तको प्रत्येकं पञ्चभिर्गुण्येते / जाता उभयत्र प्रत्येकं पञ्चत्रिंशत् / उभयमीलने सप्ततिः, सा. पूर्वराशौ क्षिप्ता जातं षष्टयधिकं शतं 160 / तत्र विंशति, स्थापनादिवसाः प्रक्षिप्ता जोतमशीतं शतमागतमत्र द्वाभ्यां स्थापनामासाभ्यां दश दश वासरा गृहीताः, सप्तभ्यो मासेभ्यः पञ्चदश पञ्चदश, चतुर्दशभ्यो Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्द्धमानादितीर्थे उत्कृष्टतपः 155 .मासेभ्यः पञ्च पञ्च पञ्चदश वासराश्च झोषीकृता इति / एवं सर्वत्र भावनीयम् / / __ अथ -- दिवसा पंचहि भइआ' इत्यादि करणं यत्र न प्रवर्त्तते तत्र विधिमाहजत्थ य दुरूवहीणं न हुन्ज भागं च पञ्चहिं न दिज्जा / तहिं ठवणरुवणमासो एगो उ दिणाउ ते चेव / / यत्र पुनः स्थापनासु आरोपणासु पञ्चदिनादिकासु पञ्चभिर्भागे हृते लब्धं तत् द्विरूपहीनं न भवेत् / पञ्चदिनादिकासु नवदिनपर्यन्तासु द्वयोरेव रूपयोरसम्भवात् / दशदिनादिकासु तु चतुर्दशदिनपर्यन्तासु द्विरूपहीनतायां शून्यतापत्तेः / यदि वा यासु स्थापनास्वारोपणासु चकदिनादिषु चतुर्दिनपर्यन्तासु पञ्चभिर्भागमुपरितनो राशिनं दद्यात् स्तोकत्वात्तत्र तासु स्थापनास्वारोपणासु चैको मासो द्रष्टव्यः / 'दिणाउत चेवत्ति / दिनान्यपि तान्येव यान्यपात्तानि / न पुनर्माससङख्यां द्विरूपसहितां कृत्वा पञ्चभिश्च गुणयित्वा दिनान्यानेतव्यानीति भावः / अथ यत्रोत्कृष्टा स्थापनारोपणा वा स्थापनारोपणाभ्यामेव षण्णां मासानां परिपूर्णभवनात् / 'ठवणारोवणदिवसे माणाउ विसोहइत्तु जं सेस' मित्यादिकरणं न प्रवर्त्तते, तदप्रवृत्तौ च कथं सञ्चयमाससङ्कलनं कर्तव्यं ? तत आह उक्कस्सारूवणाणं मासा जे हुंति करणनिहिट्ठा / ते ठवणामासजुआ संचयमासाउ सव्वासि / / सर्वासामुत्कृष्टानामारोपणानां ये मासा भवन्ति करणनिर्दिष्टाः-' दिवसा पंचहिं भइआ' इत्यादिना आरोपणाकरणेन निर्दिष्टास्ते स्थापनामासयुताः-स्थापनायां करणवशतो लब्धा मासास्तैः संयुक्ताः सञ्चयमासा द्रष्टव्याः / यथा विशिकायां स्थापनायां षष्टदिनशतायामारोपणायां द्वात्रिंशन् मासाः / तथाहि-स्थापनायां द्वौ मासौ लब्धौ, तौ च प्रागेव भावितौ आरोपणायाः पञ्चभिर्भागो हियते, लब्धा द्वात्रिंशत् सा द्विरूपहीना क्रियते, जाताः त्रिंशत् / स्थापनामासौ तत्र प्रक्षिप्तावागतं द्वात्रिंशत् प्रतिसेविता मासाः / अथात्र कुतो मासोत् किं गृहीतं ? उच्यते-द्वौ द्वात्रिंशतः सञ्चयमासेभ्यः स्थापनामासौ . शोध्येते स्थिताः त्रिंशन् मासास्त्रिंशता मासैनिष्पन्नास्त्रिंशद्भागाः क्रियन्ते / आगत एकैकस्मिन् भागे एकैको मासः / तत्र प्रथमभामः पञ्चदशभिर्गुण्यते, जाताः पञ्चदश, शेषा एकोनत्रिंशत् पञ्चभिर्गुण्यन्ते जातं पञ्चचत्वारिंशं शतं 145 / उभयभीलने षष्टं शतम् 160 / अत्र स्थापनादिवसा विंशतिः प्रक्षिप्ता जातमशात शतम् / आगतमत्र द्वाभ्यां स्थापनामासाभ्यां दश दश दिवसा गृहीताः / एकस्मात् पञ्चदश, शेषेभ्यः पञ्च पञ्चेति / एवं सर्वत्र भावनीयं / श्रीवर्द्धमानतीर्थे च पाण्मासिकमेवोत्कृष्टं तपो दातव्यं नाधिकम् / यदुक्तं बारस अटु य छक्कग माणं भणिअं जिणेहिं सोहिकरं / तेण परं जे मासा संहणंता परिसडंति / / मीयते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति मानं / तत् द्विधा-द्रव्ये भावे च / तत्र द्रव्येषु प्रस्थकादिषु, भावतः पुनरिदं मान-प्रायश्चित्तमानं जिनस्तीर्थकृद्भिस्त्रिविधं शोधिकरं भणितम् / तद्यथा-प्रथमतीर्थकरस्य द्वादशमासा, मध्यमतीर्थकृतामष्टौ मासा, वर्द्धमानस्वामिनः षट्कं-षण्मासाः / इतोऽधिकं न दीयते किन्तु बहुष्वपि प्रतिसेवितेषु मासेष्वेतावन् मात्रमेव / अत्र प्रस्थकदृष्टान्तो यथा-प्रस्थकेन मीयमानं तावन्मीयते यावत्प्रस्थकस्य शिखा परिपूर्णा भवति / ततः परमधिकमारोह्यमाणमपि परिपतति / एवं षण्णां मासानामधिकं यद्यपि Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे प्रतिसेवितं तथापि तत् स्थापनारोपणाप्रकारेण संहन्यमानं परिशति / तथा चाह- सेण पर' मित्यादि / तत उक्तरूपात् षण्मासादिकान् मानात् 'पर'मित्यव्ययं ये मासास्ते स्थापनारोपणाप्रकारेण संहन्यमानाःसंघात्यमानाः परिशटन्ति / तावन्मात्रेण च प्रायश्चित्तप्रतिपत्तारः शुद्धयन्ति शुद्धस्वभावत्वात् / भगवतां तीर्थकृतोमाषा सम्यगनुष्ठेया स्थापनारोपणाराशिज्ञानसद्भावे इत्थमुक्तम् / / यदा तु स्थापनारोपणाराशिर्न ज्ञायते तदा कस्मान् मासात् कियदिनानि गृह्यन्ते ? इतिकथनार्थमाह - अहवाऽऽगयमासहिए असीइसए लद्धमासमासदिणे / मासगुणे सेसदिणीकयसहिए दिज असिइसयं // व्याख्या-अथवेति प्रकारान्तरोपन्यासे / तदेव प्रकारान्तरं दर्शयति / तथाहि-यदा स्थापनारोपणाराशिर्न ज्ञायते विस्मृतत्वादिना तदा आगतमासा-ये आलोचकशिष्यमुखास् प्रतिसेविता मासाः श्रुताः तरेव मासैरशीतशतस्य-षण्मासदिनसङ्ख्यारूपस्य भागो हियते, हृते च भागे यल्लब्धं तत मासात् मासात ग्राह्यमानम् / एकैकस्मान् मासात्तावन्ति दिनानि गृह्यन्ते इत्यर्थः / इह यदुद्वरित ते दिनभागा अवबोद्धव्याः ! ततस्तानि प्रतिमासग्राह्यदिनानि मासगुणानि प्रतिसेवितमासगुणितानि क्रियन्ते / शेषाश्च ये दिनभागास्तेप्यागतमासैस्तैरेव गुणयित्वा भागं हृत्वा दिनानि कार्याणि / ततस्तानि पूर्वागतदिनरात्रौ प्रक्षिप्यन्ते, जातमशीतं दिनशतं पाण्मासिकमित्यर्थः / यदा स्थापनारोपणाराशि वगम्यते तदाऽनेन करणप्रकारेणैवं पाण्मासिकं कृत्वा दद्यादिति भावः / यथा श्रुतमासाः 13 एभिरस्मात् 180 राशेर्भागे हृते लब्धास्त्रयोदश उद्वरितं 11 ते लब्धास्त्रयोदश श्रुतमासैस्त्रयोदशभिर्गुणितो जातं 169 ते च शेषा एकादश तैः श्रुतमासस्त्रयोदशभिर्गुणिता आतम् 143 / अस्य च तरेव त्रयोदशभिर्भागे हृते लब्धा एकादश / एतेषां च 169 पूर्वराशौ प्रक्षेपे जातमशीतं शतम् 180 / एवं सप्रपञ्चं तपःपायश्चित्तं प्रदर्शितम् / / एतच्च सकलं स्थविरकल्पिकोनामनाचारमेवाश्रित्य भवति न पुनरतिक्रमव्यतिक्रमातीचारान् / यदाह- ' सव्वे वि अ पच्छित्ता जे सुत्ते ते पडुचणायारं / थेराण भवे कप्पे जिणकप्पे चउसु वि पएसु / / यानि कोनिचित सूत्रेऽभिहितानि प्रायश्चित्तानि तानि सर्वाण्यपि स्थविराणां कल्पे-स्थविरकल्पिकानोमनाचारं प्रतीत्य भवन्ति / यतः स्थविरकल्पिकानां त्रिष्वतिक्रमादिषु पदेषु प्रायश्चित्तं न भवति / तथाहिप्रतिश्रुतेऽपि यदि स्वतः परतो वा प्रतिबोधितः पदभेदं न कुरुते. कृतेपि वा पदभेदे न गृह्णाति गृहीतेऽपि यदि न भुङ्क्ते. किन्तु परिष्ठापयति, तदा स मिथ्यादुष्कृतमात्रप्रदानेनापि शुद्धयतीति न सूत्राभिहित प्रायश्चित्तविषयः / भुञ्जोनम्त्वनाचारे वर्तते इति तस्य सूत्रोक्तप्रायश्चित्तविषयता / जिनकल्पे-जिनकल्पिकानां पुनश्चतुर्ध्वप्यतिक्रमादिषु पदेषु प्रायश्चित्तं भवति / स्थविरकल्पिकानां च मनसापन्नेऽपराधे तपःप्रायश्चित्तं नास्ति || तथा चोक्तं जीवो पमायबहुलो पडिवखे दुक्करं ठवेउं जे / कित्तिअमित्तं वुज्झइ पच्छित्तं दुग्गयरिणीव // अयं जीवः प्रमादबहुलो-ऽनादिभवाभ्यस्त प्रमादभावनाभावितः ततः प्रतिपक्षे-ऽप्रमादे स्थापयितुं दुष्करं भवति / दुःखेनाऽप्रमादभावनायां स्थाप्यत इत्यर्थः / जे इति पादपूरणे / अतो दुर्गतऋणिक इवदरिद्राधमर्ण इवातिप्रभूतं ऋणं अतिचपलचित्तसम्भवोपराधवशादयं प्रमादबहुलो जीवः पदे पदे समा Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलप्रायश्चित्तं 157 * पद्यमानं कियन्मानं प्रायश्चित्तं वक्ष्यति-वोढुं शक्ष्यतीति नास्ति मनसापन्नेऽपराधे तपःप्रायश्चित्तं स्थविरकल्पिकानाम् / आलोचनाप्रतिक्रमणप्रायश्चित्त तु तत्रापि भवत इति मन्तव्यमिति / एष सप्रपञ्चस्तपोर्हप्रायश्चित्तविधिः / इदानीं छेदाहप्रायश्चित्तं गाथात्रयेणाहतबगबिओ तवस्स य असमत्थो तवमसदहतो अ / तवसा व जो न दम्मई अइपरिणाममप्पसंगी अ / / सुबहुत्तरगुणभंसी छेआवत्तिसु पसज्जमाणो अ / पासत्थाइ जो वि अ जईण पडितप्पओ बहुसो॥ उकोसं तवभूमि समईओ सावसेसचरणो अ / छेअं पणगाईअं पावइ जा धरइ परिआओ // 276 // त्रिभि विशेषकम् / व्याख्या-तपोगर्वित: षण्मासक्षपकोऽन्यो वा विकृष्टतपःकरणक्षमः / तपसश्चासमर्थोऽसहिष्णुः ग्लानो बालो वृद्धो वा / तपोऽश्रद्दधानश्च / तपसा वा पुनःपुनीयमानेनापि यो न दम्यते / अतिपरिणामको-ऽपवादेकप्रसक्तः / अतिप्रसंगी वा-यो मुहुर्मुहुस्तदेवातिचारपदं सेवते बहुतरं वाऽतिचारस्थान सेवते / तथा सुबहूनुत्तरगुणान् पिण्डविशुद्धयादीन-भ्रंशयति-विनाशयतीत्येवंशीलः सुबहूत्तग्गुणभ्रंशी। छेदोपत्तिषु प्रसश्च-येनातिचारेण छेदापत्तिर्भवति तमेवातिचारं पुनःपुनर्यः करोति / योऽपि च पार्श्वस्थादिः, आदिशब्दादवसन्नः कुशोलः संसक्तो नित्यवासी वा यतीनां-साधूनां संविग्नानां बहुशो-ऽनेकशः परितर्पको-वैयावृत्त्यकरः / तथा उत्कृष्टा तपोभूमिः-आदिजिनतीर्थे संवत्सरं मध्यमजिनतीर्थेष्वष्टौ मासाः श्रीवोरतीर्थे षण्मासाः. तां तपोभूमिमतिकान्तः-तदधिकप्रायश्चित्तयोग्यमतीचारजातं कृतवानित्यथः / सावशेष चरणश्च-क्रियमाणेऽपि पर्यायछेदे यस्य सावशेषश्चरणपर्यायो भवति स साधः पूर्वगाथाद्वयोक्तश्च तपोगर्वितादिः तपोऽहप्रायश्चित्तापत्तावपि पञ्चकादिकम् , आदिशब्दाद्दशक-पनदशकादिकं अती. चागनुमानेन छेदं व्रतपर्यायछेदनरूपं प्राप्नोति / यावत्पर्यायं धरति-सर्वपर्यायच्छेदो यावन्न भवतीत्यर्थः / सर्वछेदे हि मूलं स्यादिति / / उक्तं छेदार्हम् / अधुना मूलाई गाथाचतुष्टयेनाह आउट्टिआइ पंचिंदिघाए मेहुणे अ दप्पेणं / सेसेसुकोसामिक्खासेवणाईसु तीसुपि // 277 // तवगविआइएसु अ मूलुत्तरदोसवइअरगएसु / दंसणचरित्तवंते चिअत्तकिच्चे अ सेहे अ // 278 / / अचंतोसन्नेसु अ परलिंगदुगे अ मूलकम्मे अ / भिक्खुंमि अ विहिअतवेऽणवठ्ठपारंचियं पत्ते // 279 // छेएण उ परिआएऽगवट्ठपारंचिआवसाणे अ / मूलं मूलावत्तिसु बहुसो अ पसज्जओ भणियं // 280 // ___ चतुर्भिः कलापकम् / व्याख्या - आकुट्टिकया पञ्चेन्द्रियघ ते मैथुने च दर्पण सेविते सतीवादमस्या नाशयामीतिबुद्धया स्त्रीसेवनायां / शेषेषु.च मृषावादाऽदत्तादानपरिग्रहेषु त्रिष्वप्याकुट्टिकया उत्कर्षतोऽभीक्ष्णं वा पुनः पुनरासेवनादिषु आदिशब्दादाकुट्टिकया पचानामप्येषां कारणानुमत्योश्च मूलम् / तथा तपोगर्विता.. दिषु-तपोगर्वित तपोऽसमर्थ-तपोऽश्रद्दधान-तपोऽदम्यमानेषु बहुशो मूलोत्तरदोषव्यतिकरगतेषु / मूलगुणा उत्तरगुणाश्च बहुप्रकारास्तेषां दोषा-दूषणं भङ्गकरणं तस्य व्यतिकरः-सम्पर्कात गतेषु बहुशा मूलोत्तर Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 यति-जीतकल्पे गुणभङ्गकारिष्वित्यर्थः / वान्तदर्शनचारित्रे / इह दर्शने वान्ते नियमाच्चारित्रं वान्तमेव / चारित्रे पुनन्तेि दर्शने भजना-वान्तचारित्रोऽपि कोऽपि दर्शनं वमति, कोऽपि न वमति / ततो वान्तदर्शने वान्तचारित्र च / त्यक्तानि कृत्यानि दशविधचक्रवालसामाचारीरूपाणि सर्वाणि येन स त्यक्तकृत्यस्तस्मिन् / शैक्षे च नवदीक्षितेऽनुपस्थापिते एतेषु सर्वेषु मूलम् / तथा अत्यन्तावसन्नेषु च / अवसन्ना एव प्रवाजिताः सविग्नर्वा प्रवाजितमात्रा एवावसन्नतया विहृतास्तेऽत्यन्तावसन्नास्तेषु / परलिङ्गाद्विके / परलिङ्ग-गृहस्थलिङ्ग कच्छाबन्धनादिगृहस्थवेषरूपम् अन्यतीर्थिकलिङ्गं च तापसादिवेषरूपम् / तयोराकुट्टिकया दर्पण वा स्वयं करणे, मलकर्मणि च औषधादिना स्त्रीणां गर्भाधानशाटनकरणरूपे / भिक्षौ च विहिततपसि / विहितं-दत्तं गुरु भिस्तपोरूपप्रायश्चित्तं यस्य तस्मिन् / एवमङ्गीकृततपःप्रायश्चित्ते पुनरपि छेदमूले अतिक्रम्य तथाविधाऽतिचारसेवनयाऽनवस्थाप्यं पाराश्चिक वापि प्राप्ते मूलं / कोऽर्थः 1 मिक्षोनवमदशमप्रायश्चित्तोपत्तावपि मूलमेव प्रायश्चित्तं भवति / आचार्योपाध्याययोस्तु पाराश्चिकापत्तावप्यऽनवस्थोप्यमेव // यदुक्तं भाष्ये - इत्य य जह नवदसमे आवन्नस्सा वि अ भिक्खुणो मूलं / दिज्जइ तहोमिसेगे परं पयं होइ नवमं तु / अभिषेकशब्देनाचार्योपाध्यायौ उच्येते, परमत्राचार्यस्याकृतकरणस्योपाध्यायस्य तु कृतकरणस्येतत् नेयम / कृतकरणस्याचार्यस्यान्त्यप्रायश्चित्तप्रतिपत्तिभणनात् / तथा छेदेन-पुनःपुनरतीचारमाश्रित्य क्रियमाणेन व्रतपर्याये निरवशेषेऽपि छिन्ने इति शेषः / मूलम् अनवस्थाप्यपाराश्चिकयोरनुष्ठितयोरनन्तरं पनस्तथाविधाऽतिचारसेवनया तदापत्तावपि मूलमेव दीयते / मूलापत्तिषु-उपचारान् मूलापत्तिकारणे. ध्वतिचारेषु बहुशश्च प्रसजतः-पुनः पुनः प्रसक्तिं कुर्वाणस्य मूलम् / एतेषु यथोक्तस्थानेषु सर्वेषु मूलं प्रायश्चित्तं भणितं // पुनरप्येकया गाथया मूलमेवाहतबईअमसद्दहए तवबलिए चेव होइ परिआएं / दुब्बलअप्परिणामे अथिर अबहुस्सुए मूलं // 281 // ___ व्याख्या-यो मासादिकं षण्मासपर्यन्तं तपोऽतीतो-व्युत्क्रान्तः / किमुक्तं भवति-मासादिना षण्मासपर्यन्तेन तपसा यो न शुद्धथति, तपोग्रहणमुपलक्षणं देशच्छेदमपि योऽतीतो देशच्छेदेनापि यो न शद्धयतीति भावः / तस्य मूलं दीयते इति सर्वत्र सम्बध्यते / तथा 'असद्दहए' इति / अभद्दधानो नाम मिथ्यादृष्टिः / ततो योऽश्रद्दधान एव सन् व्रतेषु स्थापितः पश्चात् सम्यक्त्वं प्रतिपन्नः सन् सम्यगावृत्तो भवति तस्य मूलं देयम् / यथा गोविन्दवाचकस्य दत्तमिति / 'तवबलिए'त्ति / तपसा बलिको-बलिष्ठः तपोबलिकः / किमुक्तं भवति-महतापि तपसा यो न क्लाम्यति, यत्र तत्र स्वल्पे प्रयोजने तपः करिष्यामीति विचिन्त्य प्रतिसेवते / यद्वा पाण्मासिके तपसि दत्ते वदति-समर्थोऽहमन्यदपि तपः कर्तु तदपि मे देहीति तस्मिन् तपोबलिके मूलम् / 'पर्याये' इति यस्य च्छेदेन छिद्यमानः पर्यायो न पूर्यते स्तोकत्वात् / अथवा छेदपर्यायं यो न सम्यक श्रद्दधाति / यथा कोऽयमर्द्धजरतीयो न्यायः कियत पर्यायस्य छिद्यते कियन्नेति / यदि छिद्यते तर्हि मूलत एव छिद्यतां यदि वा न किमपीति / यदि वा वक्ति-रत्नाधिकोऽहं बहुकेऽपि परिछिन्ने पर्याये अस्ति मे दीर्घः पर्याय इति न किमपि छेत्स्यति तस्य सर्वस्यापि पर्याये हीनस्य पर्याये श्रद्धान रहितम्य पर्याये गर्वितस्य मूलम् / तथा यो बहुप्रायश्चित्तमापन्नोऽथ च धृति-संहननाभ्यां दुबलत्वात्तपः कतुमसमर्थस्तस्मिन् दुबले मूलम् / तथा अपरिणामत्वात् ब्रूते-यदेतत्तपः पाण्मासिकं युष्मामिर्मे दत्तमेतेन Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनवस्थाप्यस्वरूपम् 159 नाहं शुद्धयामि प्रायश्चित्तस्य बहुत्वात् तस्मिन्नपरिणामे मूलम् / तथा यो धृतिदुर्बलतया पुनःपुनः प्रतिसेवते तस्मिन्नस्थिरे-धृत्यवष्टम्भरहिते मूलम् / तथा अबहुश्रुतो-ऽगीतार्थः / अथवाऽनवस्थाप्यं पाराञ्चिकं वा आपन्नस्तस्य वाऽबहुश्रुततया तहानायोग्यता तस्मिन्नप्यबहुश्रुते मूलं दातव्यमिति।अभिहितं मूलाई प्रायश्चित्तम् / / अधुनाऽनवस्थाप्याहं तदाहउक्कोसं बहुसो वा पउद्दचित्तो वि तेणिअं कुणइ / पहरइ जो अ सपक्खे निरवेक्खो घोरपरिणामो॥ व्याख्या-उत्कृष्ट-उत्कृष्टवस्तुविषयं बहुशो वा-पौनःपुन्येन प्रदुष्टचित्तो वा-सक्क्लिष्टमनाः क्रोधलोभादिकलुषितमानसो यः स्तन्यं-साधर्मिकस्तैन्यं अन्यधार्मिकस्तैन्यं करोति / तत्र साधर्मिकाः साधवस्तेषां सत्कस्य द्रव्यतः सचित्तस्य शिष्यादेः / अचित्तस्योत्कृष्टोपध्यादेः / मिश्रस्योपधिसहितस्यशिष्यादेश्चौयं कुर्वन् / क्षेत्रतोऽन्यसंयतावगृहीतक्षेत्रे तदनुज्ञां विनाऽवतिष्ठमानः / कालतो दिवा वा रात्री वा / भावतो रागेण वा द्वेषेण वा / अन्यधार्मिकाः शाक्यादयो गृहस्था वा तेषां सत्कस्याहारोपधिशय्यादेः स्तैन्यं कुर्वाणेऽनवस्थाप्यः क्रियत इत्युत्तरगाथाऽवयवेन योगः / उत्तरार्द्धन च अत्र हत्थायालो गृहीतः / स च त्रिधा / अत्थायाणं दलमाणे हत्थालंब दलमाणे हत्थायालं दलमाणे अ / क्रमेणेषां व्याख्याअर्थादानं-द्रव्योपादानकारणमष्टाङ्गनिमित्तं तद्ददानः-प्रयुञ्जान इत्यर्थः / तत्र कथानकं वणिजावुज्जयिन्यां द्वौ प्रायः पृष्ट्वा गुरून् सदा / पणायमानौ पण्यौघः परमामृद्धिमीयतुः / / औज्झद् गुरूणां जामेयो भोगार्थी व्रतमन्यदा / ततस्तैः कृपयोचे स विनार्थैः किं करिष्यसि 1 // तथाहि वणिजौ तौ त्वं भणाऽथ मे प्रयच्छतम् / गुर्वादेशात्ततः सोऽपि गत्वा तौ भणति स्म तत् / 3 / अथैकः स्माह भोः ! कस्मा-दस्माकं द्रव्यसञ्चयः / शकुनी रूपकान् भद्र ! कुत्रापि हदतेऽत्र किम् / / 4 / अढौकयद् द्वितीयस्तु तस्याग्रे द्रविणं बहु / ऊचे चेदं गृहाण त्वं यथेच्छं सोऽपि चाग्रहीत् / / द्वितीयेऽब्दे स तैर्द्रव्य-प्रदः पृच्छन्न भण्यते / क्रीणीहि तृणकाष्ठादि स्थापयेश्च पुराद बहिः / 6 / द्वितीयकस्तु तैरुक्तः क्रीत्वा स्नेहं गुडं कणान् / वस्त्रकर्षासकाष्ठादीन् पुरमध्ये निघेहि भोः / 7 / वर्षारम्भे समस्तेषु च्छादितेष्वथ वेश्मसु / दग्धं सर्व पुरं जज्ञे तृणकाष्ठमहर्घता / 8 / प्राज्यं तदार्जयद् वित्तं गुरुजामेयवित्तदः / दग्धं सर्व द्वितीयस्य सोऽथाभ्येत्यावदद् गुरुम् / 9 / किं न ज्ञातमिदं पूज्यो गाढं मुष्टोऽहमैषमः / निमित्त्यूचे निमित्तं नः शकुनो हदतेऽत्र किम् ? / 10 / तथा अन्यथापि वा किश्चित् स्यात् कदाचित्कथश्चन / ततो रुष्टं गुरु ज्ञात्वात्यर्थं क्षमयति स्म सः // 15 // एवंविधार्थोपादानकारी आचार्यः स्वस्य महाव्रतान्यागेपरितुमभ्यर्थयमानोऽपि तद्दोष करणनिवृत्तोऽपि तत्र क्षेत्रे महाव्रतेषु न स्थाप्यते / तथा हस्तालम्ब इव हस्तालग्बस्तं ददानः / अशिवे पुररोधादौ तत्प्रशमनार्थमभिचारमन्त्रादीन प्रयुञ्जान इत्यर्थः / तथा हस्तेन ताडनं हस्तातोलस्तं ददानः / यष्टिमुष्टिलगुटादिमिरात्मनः परस्य च मरणभयनिरपेक्ष सपक्षे, चशब्दात् परपक्षे च घोरपरिणामो Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 यति-जीतकल्पे निर्दयो यः प्रहरति / एते त्रयोऽप्यनवस्थाप्याः क्रियन्ते / यदि वा आचार्यादीन् कोऽपि हिनस्ति ततस्त-मा रणेनापि तान् रक्षेत् / यदाह आयरिअस्स विणासे गच्छे अहवा वि कुलगणे संघे / पंचिंदिअवोरमणं पि काउं नित्थारणं कुज्जा / / एवं तु करितेणं अव्वुच्छित्ती कया उ तित्थंमि / जइ वि सरीरावाओ तहविह आराहओ सो उ / / यस्तु समर्थोऽप्यागाढे प्रयोजने न प्रगल्भते स विराधकः // तथाअभिसेओ सव्वेसु वि बहुसो पारंचिआवराहेसु / अणवठ्ठप्पावत्तिसु पसज्जमाणो अणेगासु // 283 // व्याख्या- इहाभिषेक-उपाध्यायः / स येषु येष्वपराधेषु पाराश्चिकमापद्यते तेषु बहुशः पाराश्चिकापराधेषु कृतेषु सर्वेष्वपि शुद्धिनिमित्तमनवस्थाप्यः क्रियते / यथा मिक्षोरनवस्थाप्यपाराश्चिके अपि प्राप्तस्य मूलमेव परमं प्रायश्चित्तं भवति / एवमुपाध्यायस्याप्यनवस्थाप्यमेव परमम् / तथा अनवस्थाप्यापत्तिषु अने.. कासु / अनवस्थाप्यापत्तिहेतवो येऽनेकाऽतिचारास्तेषु प्रसजन्-प्रसक्तो भवन्नुपाध्यायोऽनवस्थाप्यः क्रियते / / स चानवस्थाप्यः क्रियमाणः कस्मिन् कस्मिन् विषये क्रियत ? इत्याहकीरइ अणवठ्ठप्पो सो लिंगक्खित्तकालओ तवओ। लिंगेण दव्वभावे भणिओ पव्वावणाणरिहो // व्याख्या-क्रियते तथाविधापराधकारित्वान्महावतेषु लिङ्गे वा नाऽवस्थाप्य इत्यनवस्थाप्यः / स चतुर्धा-लिङ्गतः क्षेत्रतः कालतस्तपोविशेषतश्चेति / लिङ्गं द्विधा-द्रव्ये भावे च / तत्र द्रव्यलिङ्गं रजोहरणादि, भावलिङ्गं महाव्रतादि / अत्र चतुर्भङ्गी-द्रव्यलिङ्गेन भावलिङ्गेन चानवस्थाप्यः इत्येको भङ्गः / द्रव्यलिङ्गेनाऽनवस्थाप्यो, न भावलिङ्गेनेति द्वितीयः / भावलिङ्गेनानवस्थाप्यो, न द्रव्यलिङ्गेनेति तृतीयः / उभाभ्यामपि नानवस्थाप्य इति चतुर्थः / इह द्रव्यलिङ्गेन भावलिङ्गेन चानवस्थाप्यः प्रथमभङ्गस्थः प्रव्राजनान) भणितः // लिङ्गानवस्थाप्यादि चातुर्विध्यमेव विवृण्वन्नाह - . अप्पडिविरओसन्नो न भावलिंगारिहोणवठ्ठप्पो / जो जत्थ जेण दूसइ पडिसिद्धो तत्थ सो खित्ते // व्याख्या-अप्रतिविरतः-साधर्मिकान्यधार्मिकस्तैन्यात् प्रदुष्टचित्तत्वेनानिवृत्तः सपक्षपरपक्षप्रहरणोद्यतश्च निरपेक्षोऽनुपशान्तवैरो यः स द्रव्यभावलिङ्गाभ्यामनवस्थाप्यो-ऽनवस्थाप्य प्रथमभङ्गवर्ती क्रियते / हस्तालम्बदायी अर्थादानकारी वाऽवसन्नादिकश्च तत्तदोषानिवृत्तौ न भावलिङ्गाहः / अयं भावः-स द्रव्यलिङ्गी भवति. न भावलिङ्गमर्हति / भावलिङ्गमपेक्ष्यानवस्थाप्यतृतीयभगवर्ती भवतीत्यर्थः / द्वितीय - चतुर्थभङ्गौ पुनर्न सम्भवत इति / क्षेत्रतोऽनवस्थाप्यो यो यत्र क्षेत्र येन कर्मणा दृष्यते स तद्दोषकरण निवृत्तोऽपि तत्र क्षेत्रे प्रतिषिद्धो-महाव्रतेषु स्थापने निराकृतः / यथार्थादानकारी तत्रव क्षेत्रे महाव्रतेषु न स्थाप्यते / यतः पूर्वाभ्यासात्तं लोको निमित्तं पृच्छेत् / स च तं निमित्तज्ञानजमृद्धिगोवं सोढमक्षमः कदाचित् कथयेत् / ततोऽन्यत्र नीत्वोपस्थाप्यः / उत्तमार्थप्रतिपन्नस्य पुनस्तत्रापि-स्वस्थानेऽपि स्थितस्य महाव्रतारोपः कार्य एव / / उक्तौ लिङ्गक्षेत्रानवस्थाप्यौ कालतपोऽनवस्थाप्यावाह- . Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनवस्थाप्यस्वरूपम् जत्तिअमित्तं कालं तवसा उ जहन्नएण छम्मासा / संवच्छरमुकोसं आसायइ जो जिणाईणं // 286 / / व्याख्या-यो यावन्तं कालं दोषान्नोपरमते तावन्तं कालमनवस्थाप्यः क्रियते / तपसा त्वभवस्थाप्यो द्विधा-आशातनानवस्थाप्यः प्रतिसेवनानवस्थाप्यश्च / तत्र जिनादीनां-तीर्थकरसङ्घश्रुताचार्यमहर्द्धिकगणधराणामोशातनं यः कुर्यात् / यथा तीर्थकरैः सर्वोपायकुशलैरपि गृहवासत्यागादिकाऽतिकर्कशा देशना कृताः / यदि च गृहवासो न श्रेयान ततः किमिति स्वयं गृहवासे वसन्ति स्म भोगांश्च भुक्तवन्त ?इत्येवं तीर्थकृतोऽधिक्षिपेत् / सङ्घ च दृष्ट्वाऽवज्ञया वदेत्-हुं हुं दृष्टा मयाऽरण्येऽपि सङ्घाः शृगालश्वानवृ. कचित्रकादीनामिति / श्रुतं चैवमधिक्षिपति / यथा काया वया य ते चिअ पुणोवि ते च्चिअ पमाय अपमाया / मोक्खस्स देसणाए जोइसजोणिहिं किं कजं / / आचार्य च जात्यादिभिरधिक्षिपति / महर्द्धिकाश्च गणभृतो गौतमादयः, यो वा यस्मिन् युगे प्रधानभूतस्तान् , ऋद्धिरससातगौरवप्रसक्ताः कथका इव लोकाऽऽवर्जनोद्यता इत्यादिवाक्यैरधिक्षिपति आशातनातपोऽनवस्थाप्यः / स जघन्येन षण्मासान् उत्कषतः संवत्सरं यावत् तपः कुर्वन् कर्तव्यः / तावतो च तपसा क्षपिताऽऽशातनाजनितकर्मत्वात् तदूर्ध्व महाव्रतेषु स्थाप्यते / प्रतिसेवनानवस्थाप्यश्चोत्तरगाथायां वक्ष्यते // सा चेयम्वासं बारस वासां पडिसेवी कारणा उ सव्वोवि / थोवं थोवयरं वा वहिज मुंचिज वा सव्वं // 287 // - व्याख्या-प्रतिसेवी-प्रतिसेवनानवस्थाप्यः साधर्मिकाऽन्यधार्मिकस्तैन्याभ्यां हस्तातालादिभिश्च भवति / स च जघन्यतो वर्षम् उत्कृष्टतो द्वादश वर्षाणि / तदनन्तरं व्रतेषु स्थाप्यते / स चानवस्थाप्यः संहननादिगुणयुक्त एव क्रियते, अन्यस्य तु मूलमेव दीयते / तथा चोक्तं संघयणविरिअआगमसुत्तत्थविहीइ जो समग्गो अ / तवसी निग्गहजुत्तो पवयणसारे अ गहिअत्थे / तिलतुसतिभागमित्तो वि जस्स असुहो न विजई भावो / निज्जूहणारिहो सो सेसे निज्जूहणा नत्ति / एअगुणसंपउत्तो पावइ अणवट्ठमुत्तमगुणोहो। एअगुणविप्पहीणे तारिसगंमी भवे मूलं // तवसी-तपश्चरणवान् / निग्गहजुत्तो-जितेन्द्रियः / निज्जूहणारिहो-गच्छात्पृथक्करणाहः / अपवादतस्त्वनन्यसाध्यकुलगणसङ्घकार्यकारी / बहुजनसाध्यं च कार्य शृङ्गनादितमुच्यते, तत्साधकश्चायमित्यतः कारणात् सर्वोऽपि-द्विप्रकारोऽपि आशातनाप्रतिसेवनानवस्थाप्यतपो न कारयेदित्यर्थः। यस्त्वनवस्थाप्यतपः प्रतिपद्यते, तद्विधिमोहवंदइ न य वंदिज्जइ परिहारतवं सुदुच्चरं चरइ / संवासो से कप्पइ नालवणाईणि सेसाणि // 288 // व्याख्या-अनवस्थाप्यतपश्चरणकरणकालं यावत्स्वगणं गीतार्थे निक्षिप्याचार्य उपाध्यायो वो प्रशस्तेषु द्रव्यक्षेत्रकालभावेषु / तत्र द्रव्यतो वटादौ क्षीरघृक्षे / क्षेत्रत इक्षुशालिक्षेत्रकुसुमितवनखण्डप्रदक्षिणावर्त्तजलपद्मसरश्चैत्यगृहादिषु / कालतः पूर्वाह्ने / भावतः प्रशस्तेषु चन्द्रताराबलेसु सन्ध्यागतादिनक्षत्रवजमालोचनां प्रयुक्ते-स्वातिचारं प्रकाशयति / सन्ध्यागतादीनि चैतानि Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-जीतकल्पे संज्झागयं रविगयं विडेरं सग्गहं विलंबि च / राहुहयं गहमिन्नं च वज्जए सत्त नक्खत्ते / / तत्र लोकश्रीटीकाकारव्याख्या सूर्ययुक्तादनन्तरं नक्षत्रं सन्ध्यागतं / रविर्यत्र चारवशाद्वर्त्तते तद् रविगतं / यस्मिन्नक्षत्रे ग्रहो वक्रमुपयाति युद्धं वा विधत्ते तद्विड्डेरं / भौमादिक्रूरग्रहेरेवोपयुक्तं नक्षत्रं सग्रहं / सूर्यास्तकालेयन्नक्षत्रमुदेति तद्विलम्बितं / राहुणा मुखेनाक्रान्तं पुच्छेन वा तद् राहुहतं / अन्ये त्वाहुयस्मिन्नक्षत्रेग्रहणमासीत्तद्यावद् रविणा न युक्तं तावद् राहुहतमिति / यन्मध्यं ग्रहो विभिद्य निर्गच्छति तद्ग्रहभिन्नं / केचित्त्वेवं ब्रुवते जंमि रविनक्खत्ते ततो संज्झागयं तु चउदसमं / विडडेरं बीइज्ज होइ चउत्थं विलंबि च / / आलोचनानन्तरं च जघन्येन मासमुत्कर्षतः षण्मासादिकमनवस्थाप्यतपः प्रपद्यमाने आलोचनादायकः कायोत्सर्ग करोति / 'एअस्सायरिअम्स अणवटुप्पतवस्स निरुवसग्गनिमित्तं ठामि काउस्सग्गं अन्नत्थूससिएण' मित्यादि वोसिरामीति यावत् / चतुर्विशतिस्तवमनुचिन्त्य पारयित्वा चतुर्विशतिस्तवमुच्चार्याऽऽचार्यों वक्ति एस तवं पडिवज्जइ न किंचि आलवइ मा य आलवह / अत्तचिंतगस्स उ वाघाओ भे न कायव्यो। एष युष्मानालापयिष्यति युष्माभिरपि नालाप्यः / एष सूत्राी शरीरवाता वो न प्रक्ष्यति युष्माभिरपि न पृच्छयः / खेलमल्लकमात्रकादिकं वा नास्य ग्राह्यमर्पणीयं वा / उपकरणं परस्परं न प्रतिलेख्यं / भक्तपानं परस्परं न ग्राह्यं / सङ्घाटकेऽस्य न मिलनीयं / अनेन सहकमण्डल्यां न भोक्तव्यं / किमप्यनेन सार्द्ध न कार्य कार्यमिति / अधुना गाथारार्थः-प्रतिपन्नानवस्थाप्यतपाः शैक्षादीनपि वन्दते, न चासौ वन्द्यते / परिहारतपश्च-पारिहारिकसाधूनां तपः ग्रीष्मे चतुर्थषष्ठाष्टमानि / शिशिरे षष्ठाष्टमदशमानि / वर्षावष्टमदशमद्वादशानि जघन्यमध्यमोत्कृष्टानि / पारणके च निर्लेपभक्तमित्येवंरूपं सुदुश्चरं तपश्चरति / संवासःसहवासो गच्छेनास्य एकक्षेत्रे एकोपाश्रये एकस्मिन् पार्श्व शेषसाध्वपरिभोग्यप्रदेशे कल्पते, नालपनादीनि शेषाणीत्येष सङ्खपतोऽनवस्थाप्यविधिः // उक्तमनवस्थाप्याहं साम्प्रतं पाराञ्चिकमाह - तित्थयरपवयणे सुअं आयरिशं गणहरं महडिअं। आसायंतो बहुसो आभिनिवेसेण पारंची // 289 // व्याख्या- तीर्थकरादीन आशातयन्-हीलयन् आशातनापाराश्चिको भवति / प्रतिसेवनापाराश्चिकमाहजो उ सलिंगे दुट्ठो कसायविसएहिं रायवहगो अ / रायग्गमहिसिपडिसेवओ अ बहुसो पगासो अ॥ व्याख्या-इह प्रतिसेवनापाराश्चिकनिधा-दुष्टो मूढोऽन्योन्यं कुर्वाणश्च / यदाह पडिसेवणपारंची तिविहो सो होइ आणुपुव्वीए / दुढे अपमत्ते आनायवे अन्नमन्ने अ / / यश्च दुष्टः। स द्विधा-कषायतो विषयतश्च / पुनरेकैको द्विधा / सलिङ्ग त्ति / समानलिङ्गे-सपक्षे श्रमणश्रमणीरूपे, चकारात् परलिङ्गे च परपक्षे गृहस्थेऽन्यतोर्थिक वा / ततश्च सपक्षपरपक्षाभ्यां कषायदुष्टे Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाराश्चिकस्वरूपम् 163 विषयदुष्टे च चत्वारश्चत्वारो भङ्गा भवन्ति / तत्रैवं कषायदुष्टे भङ्गचतुष्टयं-सपक्षकषायदुष्टः परपक्षकषायदुष्टश्चेत्येको भङ्गः / सपक्षकषायदुष्टो, न परपक्षकषायदुष्ट इति द्वितीयः। न सपक्षकषायदुष्टः, परपक्षकषायदुष्ट इति तृतीयः / उभाभ्यामपि न दुष्ट इति चतुर्थः / शुद्धो भङ्गः / उक्तं च__ दुविहो अ होइ दुबो कसायदुट्ठो अ विसयदुट्ठो अ / दुविहो कसायदुट्ठो सपक्खपरपक्ख चउभङ्गो // तत्र सपक्षकषायदुष्टे चत्वायुदाहरणानि-सासवनाले, मुहणतए अ, सिहरिणि, उलूगच्छी / सोसवनालं ति सर्षपभर्जिका / साधुः कोपि गतो भिक्षा लब्ध्वा. सर्षपभर्जिकाम् / रुच्यां सुसंस्कृतां गृद्धोऽप्याचार्याणामढौकयत् // 1 // भुक्ता सर्वापि साचायः साधुश्चाक्रोशयत् स तान् / ततस्तैः क्षमितोप्युच्चै-रूचे भक्ष्यामि ते रदान् // 2 // गुरुणाऽचिन्ति मामेष मा वधदसमाधिनो / स्वगणेऽन्यमथाचार्य कृत्वा चागाद् गणान्तरे // 3 // मृतश्चानशनात्तत्र सोऽथ दुष्टोऽवदन् मुनीन् / गुरवः क्वागमन्नूचु-न विद्मोऽन्यतोऽथ सः // 4 // ज्ञात्वा तत्राऽगमत्तांश्चापृच्छत् सोधून गुरुः क मे। तैरूचेऽद्य मृतस्त्यक्तं श्मशानेऽस्ति च तद्वपुः / / गत्वा तत्राथ तद्दन्तान् स भनक्ति च वक्ति च / खादिष्यसि पुनः किं मे रच्यां सर्षपभर्जिकाम् // अन्यः कोऽपि मुनिलब्ध्वा मुखानन्तकमुज्ज्वलम् / गुरोरढौकयत्तच्चा-ददे तैः सोऽपि रुष्टवान् // 7 // " तदेवार्पयतोऽप्यस्य नाददे किं पुनर्निशि / तल्लास्यसीति जल्पन् स गुरुं गाढं गलेऽग्रहीत् / / 8 / / संमूढो गुरुरप्येनं ततो द्वावपि तौ मृतौ। साधुना केनचित्क्वापि लब्धा शिखरिणी शुभा / / 9 / / तथा निमन्त्रितस्तेन गुरुस्तां निखिलां पपौ। तं सोऽथाश्मानमुद्गीर्य हिंसन्नन्यैर्व्यवार्यत // 10 // तथाप्यनुपशान्ते च तस्मिन्ननशनं गुरुः / स्वगच्छ एव विदधे नोन्यं गच्छं जगाम सः // 11 // अस्तंगतेऽपि कोऽप्यर्के सीव्यन् गुरुभिरौच्यत / उलूकाक्षोऽसि मिक्षो ! त्वं स रुष्टो गुरुमूचिवान् // 12 // तदैवं वदतो द्वे अ-प्यक्षिणी उद्धराम्यहं / अथासौ गुरुणा गाढं क्षमितोऽपि न शान्तवान् // 13 // ततो रजोहृतेर्लोह-मयीमाकृष्य कीलिकाम् / रोषाध्मातः स दुष्टात्मा समुद्दधेऽक्षिणी गुरोः // 14 // ___ एते चत्वारोऽपि सोधवो दुष्टत्वाल्लिङ्गपाराश्चिकाः। परपक्षकषायदुष्टस्तु राजवधक उदायिनृपमारकवत् / विषयदुष्टे चैवं भङ्गचतुष्टयं-स्वलिङ्गी स्खलिङ्गीनों साध्वी सेवते 1, स्वलिङ्गी गृहिलिङ्गां नियं 2, स्वलिङ्गी अन्यलिङ्गिनी परिव्राजिकादिकाम् 3, अन्यलिङ्गी चान्यलिङ्गामिति 4, शून्योऽयं भङ्गः / तत्राद्यो विषयदुष्टः पावाणं पावयरो दिदिब्भासे वि सो न कायव्वो / जो जिणमुदं समणिं नमिऊण तमेव धरिसेइ // द्वितीयविषयदुष्टस्तु बहुशः-पौनःपुन्येन प्रकाशो-लोकविदितः राजाप्रमहिषीप्रतिसेवकः / अग्रमहिपोग्रहणोदन्यापि या काचिदिष्टा राज्ञस्तत्सेवकश्च, चशब्दायुवराजसेनापत्याद्यप्रमहिषीसेवकश्च / Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 यति-जीतकल्पे द्वावप्येतौ लिङ्गपाराञ्चिकौ / तृतीयविषयदुष्टस्यातिशयी लिङ्गं दद्यान्नान्यः / अनतिशयी तु तस्यापि लिङ्गपाराश्चिकमेव दत्त इत्यर्थः / अत्राह शिष्यः-सामान्यत्रोसेवकः साधुः किं न पाराश्चिकः ? उच्यतेबह्वपाया राजाद्यग्रमहिष्यः / तत्सेवने कुलगणसङ्घाचार्याणां प्रस्तार:-संहाररूपो निर्विषयता वा स्यात् / इतरत्रीषु पुनर्बतभङ्ग एव दोषः / दोषवतः एव चैकम्यापाय इति तस्य मूलम् || व्याख्यातो दुष्टपाराञ्चिको, मूढपाराञ्चिकमाहथीणद्धिमहादोसो अन्नुन्नासेवणापसत्तो अ। चरमठाणावत्तिसु बहुसो अ पसज्जए जो अ॥२९१।। व्याख्या-स्त्यानर्द्धिः-दर्शनावरणीयकर्मभेदरूपस्य निद्रापञ्चकस्य पञ्चमो भेदः / यदुदयेऽतिसक्लिष्टपरिणामाद्दिनदृष्टमर्थमुत्थाय प्रसाधयति केशवार्द्धबलश्च जायते / तदनुदयेऽपि च स शेषपुरुषेभ्यस्त्रिचतुर्गुणबलो भवति / इयं च प्रथमसंहननिन एव भवति / अयमेव च महान् देषो यस्य स त्यानर्द्धि महादोषः / अयं च मूढः प्रमत्तश्च कथ्यते / एते च पुद्गल-मोदक-हस्तिदन्त कुम्भकार-वटशाखासाधवः पश्च स्त्यानर्द्धयामुदाहरणानि / तद्यथा एकः कौटुम्बिको ग्रामे मांसमेवात्त्यनेकधा / श्रुत्वा धर्म स केषाश्चित् समीपे व्रतमग्रहीत् / / 1 / / विचरंश्च कचिद् ग्रामे महिषं पिशितार्थिमिः / विभिद्यमानमद्राक्षीत् ततोऽभूत्तत्र सस्पृहः / / 2 / / सोऽन्युच्छिन्नतदाकाङ्क्षो भुक्तो यातो बहिर्भुवम् / सूत्रस्य पौरुषीं चान्त्यां चक्रे सुप्तस्तथा निशि / / 3 / / जातस्त्यानचिरेषोऽथ गत्वा महिषमण्डलम् / हत्वकं भुक्तवान् शेष-मेत्य सद्मोपरि न्यधात् // 4 // इदृग् दृष्टः प्रगे स्वप्न इत्यालोचितवान् गुरोः / दिशो विलोकने तच्च मुनिमिमांसमीक्षितम् / / 5 / / सोऽथ स्त्यानर्द्धिमान् ज्ञात्वा लिङ्गपाराञ्चिकः कृतः / साधुभिक्षां भ्रमन् कोऽपि मोदकान् वीक्ष्य कुत्रचित् // 6 // चिरमैक्षिष्ट गृद्धस्तान-लब्ध्वाऽशेत तन्मनाः / जातस्त्यानर्द्धिरुत्थाय गत्वा तद्भवनं निशि // 7 // मित्त्वा कपाटमत्ति स्म मोदकानुतानथ / पात्रे भृत्वाश्रये प्राप्तः प्रातः स्वप्नं न्यवेदयत् / / 8 / / दृष्टाः पादोनपौरुष्यां ते पात्रप्रतिलेखने / लिङ्गपाराश्चिकः सोऽपि ततो गुरुभिरादधे / / 9 / / एकः साधुर्गतो मिक्षां त्रासितः करिणा ततः / पलायितः कथमपि तस्मिन् रुष्टश्च सुप्तवान् / / 10 / / जातस्त्यानर्द्धिरुत्थाय गत्वा व्यापाद्य तं गजम् / आनीय दन्तमुसले विन्यस्योपाश्रयोपरि // 11 // पुनः सुप्तः प्रगे स्वप्नं व्याचक्रेऽथ तपोधनैः / दृष्ट्वा दन्तान् स विज्ञातो लिङ्गपाराश्चिकः कृतः // 12 // गच्छे महति कस्मिंश्चित् प्रावाजीत कुम्भकारकः / सुप्तः स्त्यानर्द्धिभाग रात्रौ मृत्तिकाभ्यासतः स तु / / ___ समीपस्थितसाधूनां छेदं छेदं शिरांस्यधीः / एकान्ते न्यक्षिपत्तानि शिर्षाणि च वपूंषि च // 14 // शेषा अपमृता भूयः सुप्तः स्वप्नं प्रगेऽवदत् / मृतान् वीक्ष्याथ साधून स लिङ्गपाराश्चिकः कृतः॥१५॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165 पाराश्चिकस्वरूपम् वटस्याधोऽध्वना कश्चिद् भिक्षाचर्यां गतो मुनिः / भृतपात्रो वलन् वेगात् क्षत्तुड्ग्रीष्मार्कतापितः // 16 // तच्छाखायामास्फलितो रुष्टस्तस्यामसौ निशि / स्यानयुदयतो गत्वा भक्त्वा शाखां समागतः / / 17|| __विन्यस्योपाश्रयद्वारे सुप्तः स्वप्नं न्यवेदयत् / प्रातः स्त्यानर्द्धिमान् ज्ञात्वा लिङ्गपाराश्चिकः कृतः॥१८॥ केप्याहुः प्राग वनेभोऽभूत् सोऽथ स्त्यानर्द्धिमान्नरः / सञ्जातप्राग्भवाभ्यासाद्वटशाखां ततोऽभनक् / / 19 / / उक्तो मूढपाराश्चिकः / अन्योन्यकुर्वाणः पाराश्चिकस्तु 'अन्नोन्नासेवणापसत्तो अ' 'अन्योन्यं' पुरुषः पुरुषान्तरेण सह परस्परं मुखपायुप्रयोगतो मैथुनासेवायां प्रसक्तः / तथा चरमस्थानं-पाराश्चिकं तदापत्तिहेतवोऽतिचारास्तेषु बहुशः-पौनःपुन्येन यश्च प्रसजति-प्रसक्तो भवति स पाराश्चिकः क्रियत इत्यर्थः // एतदेवाहसो कीरइ पारचिअ लिंगाओ खित्तकालओ तवओ / संपागडपडिसेवी लिंगाओ थीणगिद्धि अ॥ ___ व्याख्या-पाराञ्चिकश्चतुर्धा-लिङ्गतः क्षेत्रतः कालतस्तपोविशेषतश्च / तत्र लिङ्गपाराश्चिके द्रव्यभावलिङ्गाभ्यां चतुर्भङ्गो / द्रव्यलिङ्गेन पाराञ्चिको भावलिङ्गेन च 1, द्रव्यलिङ्गेन पाराश्चिको, न भावलिङ्गेन 2, भावलिङ्गेन पाराश्विको, न द्रव्यलिङ्गेन 3, उभाभ्यामपि न पारोश्चिक इति चतुर्थः शुद्धः / तत्र सम्प्रकटप्रतिसेवी राजाग्रमहिष्यादिसेवकः स्त्यानर्द्धिमांश्च चशब्दादन्योन्यासेवनाप्रसक्तो राजवधकश्च / लिङ्गतः पाराचिको-द्रव्यभावलिङ्गाभ्यां पोराश्चिकः क्रियत इत्यर्थः / क्षेत्रपाराश्चिकं गाथाद्वयेनाहवसहि-निवेसण-पाडग-साहि-निओगपुर-देस-रजाओ। खित्ताओ पारची कुलगणसंघालयाओ वा॥ जत्युप्पन्नो दोसो उप्पज्जिस्सइ व जत्थ नाऊणं / तत्तो तत्तो कीरइ खित्ताओ खित्तपारची // 294 // व्याख्या-वसतिः प्रस्तावाद् प्रामः / निवेशनम्-एकनिर्गमप्रवेशद्वारो ग्रामयोरन्तराले द्वयादिगृहाणां सन्निवेशः / एवंविधस्वरूप एव ग्रामान्तर्गतः पाटकः / साही-शाखा शाखारूपेण श्रेणिक्रमेण स्थिता ग्रामगृहाणामेकतः परिपाटिः। नियोगपुरं-निश्चिता योगा-दिनकृत्यव्यापारा यस्य स नियोगो-राजा तस्य पुरं राजधानी / देशो-जनपदः / राज्यं-राष्ट्र / यावत्सु देशेष्वेकभूपतेराज्ञा तावद्देशप्रमाणम् / एषां द्वन्द्वस्तस्मात् क्षेत्रात् पाराश्चिकः / कुलगणसङ्घोलयाद्वा कुलगणसङ्घानामाऽऽ-सामस्त्येन यत्र क्षेत्रे लयनं-मिलनं तस्माद्वा / यत्र क्षेत्रे वसतिनिवेशनादिके उत्पन्नो दोषः पाराश्चिककारी उत्पत्स्यते वा यत्र तिष्ठतो दोषस्तद् ज्ञात्वा ततस्ततः क्षेत्रोत्क्षेत्रपाराञ्चिकः क्रियते // कालतपःपाराञ्चिकावाहजत्तिअमित्तं कालं तवसा पाचिअस्स वि स एव / कालोदुविगप्पस्स वि अणवठ्ठप्पस्स जो भणिओ। व्याख्या- 'सूचकत्वात् सूत्रस्य' यो यावन्तं कालमनुपशान्तदोषोऽनुपरतपाराश्चिकापत्तिहेत्वति. चारः स तावन्तं कालं कालपाराश्चिकः / तपसा पाराश्चिको द्विविधः-आशातनापाराश्चिकः प्रतिसेवनापाराश्चिकश्च / आद्यः प्रागुक्तरूपः / प्रतिसेवनापाराश्चिकनिधा-दुष्टः प्रमत्तोऽन्योन्यकुर्वाणश्च / आद्यान्त्य Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 यति-जीतकल्पे भेदौ प्रागुक्तरूपौ / प्रमत्तो-मूढः / स पञ्चधा-कषोय-विकथा-मद्ये-न्द्रिय-निद्राख्यैः प्रमादभेदैविस्तरेणाख्येयः। अस्य च तपःपाराञ्चिकस्य द्विविकल्पस्यापि स एव कालः-प्रमाणसमयो यः पूर्वमनवस्थाप्यस्यामिहितः / तस्य चेयं योजना आशातनातपःपाराश्चिकस्य जघन्येन षण्माला उ-कर्षेण वर्ष / प्रतिसेवनापाराञ्चिकस्य तु जघन्येन वर्षम् / उत्कर्षेण द्वादश वर्षाणि / तथा पाराश्चिकमप्यनवस्थाप्यमिव संहननादिगुणवत एव दीयते / तपोऽपि पारिहारिकाख्यमनवस्थाप्यस्येव पाराश्चिकस्यापि भवति / / प्रतिपन्नपाराचिकस्य साधोविधिमाहएगागी खित्तबहिं कुणइ तवं सुविउलं महासत्तो / अवलोअणमायरिओ पइदिणमेगो कुणइ तस्स // व्याख्या-एकाकी महासत्त्वो जिनकल्पिकप्रतिरूपः क्षेत्राद् बहिः स्थितः सुविपुलं पारिहारिकतपोरूपं तपः करोति / स च यत्र यत्र क्षेत्र आचार्यों विहरति ततस्ततः क्षेत्रादर्द्धयोजनं परिहत्य बहिः तिष्ठति / बहिः स्थितस्य च तस्याचार्यः प्रतिदिवसमवलोकनं करोति / सूत्रार्थों पौरुष्यो द्व अपि दस्त्वा तस्य समीपं याति / अर्थपौरुषीमदत्त्वा वा याति / अथवा द्वे अप्यदत्त्वा याति / अथाचार्यो दुर्बलः तत्समीपं गन्तुमक्षमः कुलगणादिकार्येण वा व्यापृतः ततो गोतार्थं शिष्यं तत्र प्रेषयति / तत्र आचार्य- . स्याचार्यप्रेषितस्य वा शिष्यस्य तत्समीपं गच्छतस्तत्समीपादागच्छतो वाऽपान्तराले साधवो भक्तं पानं चोपनयन्ति / पाराञ्चिकसाधुस्तु यद्यग्लानस्तदो स्वयमेव भक्तपानादिकमानयति / प्रतिलेखनामुदत्तनादिकं च करोति / अथ ग्लानः ततः तस्याचार्योऽन्यो वा साधुभक्तपानाधुपनयति / प्रतिलेखनामुद्वर्तनादिकं च करोति / सूत्रार्थेषु चाचार्योऽन्यो वा तस्य पृच्छायोमुत्तरमपि ददाति / एवमेतत्संक्षेपतः पाराश्चिक भणितम् / / पुनरनवस्थाप्यपाराश्चिकयोर्विशेषस्वरूपमाहअणवठ्ठप्पो तवसा तवपार'ची अ दो वि वुच्छिन्ना / चउद्दसपुव्वधर'मि धरति सेसाउ जा तित्थं // व्याख्या-तपोऽनवस्थाप्यस्तपःपाराश्चिकश्च चतुर्दशपूर्वधरे श्रीभद्रबाहुस्वामिनि द्वावपि व्यवच्छिन्नौ। शेषास्तु लिङ्गक्षेत्रकालानवस्थाप्यपाराञ्चिका यावत् तीर्थ धरन्ति-अनुव्रजन्ति भवन्तीत्यर्थः / / अथ साम्प्रतं केषां साधूनां कियन्ति प्रायश्चित्तानि भवन्तीति गाथाद्वयेन दर्शयन्नाहसामाइअसंजयाणं पच्छित्ता छेयमूलरहिअट्ठा / थेराण जिणाणं पुण तवअंतं छव्विहं होइ // 298 // व्याख्या-सामायिकसंयतानां स्थविराणां-स्थविरकल्पिकानां छेदमूलरहितानि शेषाण्यष्टौ प्रायश्चित्तानि भवन्ति / जिनानां-जिनकल्पिकानां पुनः सामायिकसंयतानां तपःपर्यन्तं षड्विधं प्रायश्चित्तं भवति / / छेओवट्ठावणिए पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि / थेराण जिणाणं पुण मूलंतं अट्टहा होइ // 299 // व्याख्या- छेदोपस्थापनीये संयमे वर्तमानानां स्थविराणां सर्वाण्यपि प्रायश्चित्तानि भवन्ति / जिनकल्पिकानां पुनर्मूलपर्यन्तमष्टधा भवति / एते गाथे 'दसविहमालोअणे' त्योदिगाथावृत्तौ पञ्चचारित्रविषयप्रायश्चित्तदर्शनाधिकारे पूर्वं व्याख्याते अपि सम्प्रति चारित्रद्वयसद्भावोत् तद्विषयप्रायश्चित्त - प्रतिपादकत्वेन सूत्रान्तर्गते कृते इति पुनर्व्याख्याते // एवं दशविधमपि प्रायश्चित्तं क्रमेण प्रदर्शितम् / / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगविधिविषयातिचारप्रायश्चित्तम - अथ साधूनां योगविधिविषयाति वारप्रायश्चित्तं गायत्रयेणोपदर्शयतिसमणुन्नसमुद्देसे दिणसमकाले अ कालि अस्सुद्धे / वमणे निसि वोसरणे वितहमणुट्ठाणकरणे अ॥ अइरित्तुसंघट्टीअ-भत्तपरिद्ववणि थंडिलाणं च / तह कालमंडलाणं च अपेहेणे कलहविकहासु // 301 // जोगेसु दिवसवुड्ढीति पंचमाईहिं सेसखलिएहिं / तिहिं विगइमउलिएहिं इअरेहिं पंच सत्तहि वा / / व्याख्या-समनुज्ञासमुद्देशयोः-अङ्गश्रुतस्कन्धानामनुज्ञासमुद्देशयोदिवसे काले अशुद्ध सति / योगप्रवेशानन्तरं दिनसमेषु दिनप्रमाणेषु कालेष्वसत्सु / वमने-वान्तौ / निशि व्युत्सजने-अकालसञ्ज्ञायाम् / वितथमनुष्ठानकरणे च-अन्यथा सतोऽनुष्ठानस्यान्यथाकरणे च / 'जोगेसु दिवसवुड्डी' इत्यप्रेतनगाथाऽवयवसम्बन्धादेतेषु सर्वेष्वपि पदेषु प्रत्येक योगमध्ये दिवसवृद्धिः स्यात् / तथाऽतिरिक्तमधिकीभूतं उत्संघट्टितं-संघट्टकात् स्फिटितम् एवंविधं यद्भक्तं तस्य परिष्ठापने / स्थण्डिलानाम्-उच्चारप्रस्रवणभूमिमात्रकादीनां कालमण्डलभूमीनां च अप्रतिलेखने / कलहे-रोषावेशविसंस्थुलभाषणादिरूपे साध्वादिभिः सह कृते / विकथासु विरुद्धासु स्यादिसम्बद्धासु कथासु च कृतासु प्रत्येकं योगमध्ये दिनवृद्धिर्भवति / / शेषस्खलितैः-शेषैरुक्तेभ्यो व्यतिरिक्तः स्खलितैरविधिरूपपदैरुत्कृष्टमध्यमजघन्यलक्षणस्त्रिभिः पञ्चभिरादिशब्दात् सप्तभिर्वा दिवसवृद्धिर्भवति / त्रिभिर्विकृतिमहुलिकनिरन्तरोगमध्ये दिवसवृद्धिर्भवति / इतरैः पुनर्महुलिकैः पञ्चभिः सप्तभिर्वा / / अत्र श्रीचन्द्रसूरिसमुद्धत 1450 ग्रन्थमितसामाचार्यन्तरगतप्रायश्चित्तप्रकारान्तरदर्शनायाहउस्संघट्टिअकम्मिअभोगे लेवाडसंनिही वमणे / थंडिलअपेह संखड कोहाइ महव्ययइआरे // 303 // परपरिवाए पेसुन्न आल पुत्थाइथुक्कभूपडणे / श्यहरचोले उग्गहफिडिए उवविद्वपडिकमणे // 304 // पडिकमणकालभोअण-उद्देसगमाइभूमिओहीणं / गुरुग अपेहे एगेगं आवस्सिनिसीहिआभंगे // 305 // ____ व्याख्या-योगमध्ये उत्संघट्टितभक्तादिपरिभोगे / आधाकर्मिकभक्तादिपरिभोगे / लेपकृद् द्रव्यसन्निधौ। वमने / स्थण्डिलानामप्रतिलेखने / सङ्खडे-कलहे। क्रोधादौ तथाविधक्रोधे, आदिशब्दात्तथाविधमानमायालोभेषु / महाव्रतातिचारे-पञ्चमहाव्रतरात्रिभोजनविरमणरूपमूलगुणातिचारे। परपरिवादे-परेषां दूषणभाषणेऽपि / पैशुन्ये-पिशुनत्वे प्रच्छन्नं परदोषप्रकटने / आलमभ्याख्यानं तत्प्रदाने / 'पुत्थाइथुक्कभूपडणे' इति पुस्तकादेः पुस्तकपट्टिकादेर्ज्ञानोपकरणस्य थुक्केन-निष्ठीवनेन भरणे भूपतने-प्रमादादिना भूमौ पातने, उपलक्षणत्वात् कक्षाप्रक्षेपे दुर्गन्धहस्तेन ग्रहणे च / रजोहरणे चोलपट्टे चावग्रहात स्फिटिते-ऽपगते / उपविष्टप्रतिक्रमणे -उपविष्टेन प्रतिक्रमणकरणे / प्रतिक्रमणकालभोजनोद्देशकादिभूभीनामप्रमार्जने उपधेरप्रतिलेखने च गुरुकाः / एतेषु सर्वेष्वपि गाथात्रयोपात्तेष्वपराधपदेषु चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चित्तं योगमध्येऽपि भवतीत्यर्थः / तथा आवश्यकी-नैषेधिकोभङ्ग पञ्चकं-पञ्चकाख्यं प्रायश्चित्तं भवति / / . अथ शास्त्रसमाप्त्यर्थमुपसंहारगाथामाह - Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 उपसंहारः इअ जीअनिसीहाई अणुसारेणं जईण पच्छित्तं / लेसेणं सपरट्ठा भणि सोहंतु गीअत्था // 306 // ___ व्याख्या- इति एवं प्रदर्शितप्रकारेण / जीतनिशीथाद्यनुसारेण / जीत-जीतकल्पः निशीथंकल्पाध्ययनम् , आदिशब्दात कल्पव्यवहाराध्ययनसामाचारीपरिग्रहः / एतेषां महाग्रन्थानामनुसारेण-अनुगमनेन, यथा एतेषु महाग्रन्थेषु प्रायश्चित्तं प्रतिपादित तथैवात्रापीत्यर्थः / यतीनां प्रायश्चित्तं लेशेन-अंशेन स्वपरार्थ-स्वपरहितनिमित्त भणितं-प्रतिपादितम् / इदं च यद्यपि परमागमानुसारेणैव भणितं तथापि गीतार्थाः श्रीनिशीथोदिछेदग्रन्थधारिणः शोधयन्तु-अपनयन्त्वत्र दूषणानि प्रमादादिजनितानि / अत्र च जीतकल्पसूत्रे पुरातनजीतकल्पसूत्रगता एव तद्रूपाः कियत्यो गाथाः सन्ति / कियत्यः पुनः श्रीनिशीथादिग्रन्थानुगतास्तद्रूपा एव / कियत्यस्तु श्रीनिशीथादिमहाग्रन्थगतार्थसार्थलेशलेशग्रहणेन प्रथिताः। कतिपयाः पुनः सुखप्रतिपत्त्यर्थं पुरातनजीतकल्पगतमुकुलितार्थविस्तारणेन विरचिताः, स्वल्पाः पुनः सुविहितजनाचीर्णजीतानुगतसामाचारीगताः / एतासां च गाथानां विवरणमपि प्रायस्तद्रूपमेव तत्तग्रन्वगतमत्र लिखितमस्तीत्यवगन्तव्यम् / इदं चैवंविधं जीतकल्पसूत्रं कालानुभावतः प्रायो निराधारपारमेश्वरप्रवचनाधारभूतैः निर्मलसयमकमलाहृदयालङ्कारहोरकल्पैः सकलसुविहितवातशिरोमणिभिः विश्वविख्यात-श्रीतपामहागच्छगगनाङ्गणनभोमणिभिः परमगुरु-श्रीसोमप्रभसूरिभिः पवित्रचारित्रैकतानमानसः मन्दतरमेधाधारणाधिगमविनेयजनानुग्रहार्थमेव अमुद्रसकलपरमागमसमुद्रमहाप्रयत्नेनावगाह्याऽमृतकल्पं प्रकटमकारीति // इति यतिजीतकल्पवृत्तिर्जगत्प्रतीतश्रीतपागच्छाधिराजसुविहितशिरोमणिभट्टारकप्रभुश्रीदेवसुन्दरसूरिशिष्यश्रीसाधुरत्नसूरिकृता // वर्षे तर्कशराब्धिचन्द्रगणिते 1456 श्रीविक्रमार्काद् गते गुर्वादेशवशाद्विलोक्य सकलाः कल्पादिशास्त्रावलीः / . सूरिश्रीयुतदेवसुन्दरगुरोः शिष्याग्रणीरातनोदेतां श्रीयतिजीतकल्पविवृति श्रीसाधुरत्नाह्वयः // प्रारुद्देशतो वृत्तौ ग्रन्थमानं विनिश्चितम् / सहस्राः पञ्च श्लोकानां शतैः सप्तभिरन्वितः / 5700 / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- _