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________________ (5) प्रायश्चित्त आपवानो अधिकार पण दरेक मुनिओने होतो नथी अने जेमने होय छे तेवा संविग्न गीतार्थ मुनिओनो पांच कक्षा छे. ते मुनिओ आ प्रमाणे-आगमव्यव० श्रुतव्यव० आज्ञाव्यव० धारणाव्यव० अने जीतव्यवहारी. प्रायश्चित्त प्रदानमां पांच प्रकारना व्यवहार छे. आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा अने जीतव्यवहार, आ पांच व्यवहारो आ ग्रंथमां पृ. 2 थी 9 सुधी वृत्तिकारे विस्तारथी वर्णव्या होवोथी अहिं फक्त नामनिर्देश करुं छं. - आ पांच व्यवहारमाना छेल्ला जीतव्यवहारना एक भागरूप जीतप्रायश्चित्तने वर्णवतो एक जीतकल्पसूत्र नामनो ग्रंथ छे. आ ग्रंथना कर्ता दुःषमान्धकारग्रस्तप्रवचनप्रदीपसम पुण्यनामधेय श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण छे. आ जीतकल्पना आधारे अनेक जीतकल्पो अने तेना उपविभागरूप जीतकल्पो पण रचाया छे. ते त्रण प्रकारे जोवा मले छे. 1 यतिजीतकल्प, 2 श्राद्धजीतकल्प, 3 लघुश्राद्धजीतकल्प. माहीती-जिनरत्नकोश ( वेलंकरकोश ) भाग. 1 पृ. 316 उपर त्रण जीतकल्प विषे उल्लेख मले छे. तेमांनी एक आ प्रस्तुत कृति छे. अन्य बे कृतिओ अनुक्रमे 132 अने 418 गाथात्मक छे अने पाटणना भंडारमा छे. श्राद्धजीतकल्प आ कृति आगमोद्धारक ग्रंथमाला ( ग्रंथांक 45) तरफथी प्रकाशित थइ चूकी छे अने कर्ता धर्मघोषसरि छे. लघुश्राद्धजीतकल्प-आ कृति विषे जैनग्रंथावली (पृ 56 ) मा उल्लेख छे, स्वोपज्ञवृत्तियुक्त तिलकाचार्यरचित 30 गाथात्मक छे, वृत्ति 115 श्लोक प्रमाण छे. पूर्वनिर्दिष्ट त्रणे जीतकल्पो पैकी दरेकनो विषय अनुक्रमे साधु अने श्रावकने लगता प्रायश्चित्त विषेनो छे. प्रस्तुत त्रण पैकी आ यतिजीतकल्पनुं जैनग्रंथावलीमां श्लोक प्रमाण 500 अने वृत्तिनु 5700 नु जणोवायु छे. अमने प्राप्त बे प्रति अनुसार आ कृति 306 गाथात्मक छे अने वृत्ति 5151 श्लोक प्रमाण छे. आम 549 श्लोकनो बे वच्चे फरक जणाय छे. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृती विद्यामंदिर तरफथी प्रकाशित केटेलोग भाग 4 ना प्रशस्ति आदि संग्रहना पेज 67 उपर आनी एक प्रशस्ति छे तेमां निर्देश 5770 श्लोकनो छे. आम 619 श्लोकनो फेर पडे छे. एक कृतिनी श्लोक संख्यामां आटलो फेर केम ? आ एक प्रश्न छे. आनो उत्तर अत्यार पूरतो एवो संभवे छे के कां तो आ संख्या गणवामां भूल थइ होय (1) अथवा संख्या लखवामा क्षति थइ होय (2) अथवा तो गद्यबद्ध कृतिनी श्लोकगणनारनी पद्धति वच्चे भेद रेखाओ होय ? आनुं विशेष संशोधन ए विद्वानोनुं कार्य छे. एटले तेओने आ संबंधे विचार करवानुं जणावी मूलकार ने वृत्तिकारना जीवनने स्पशुं छं. मूलकार-संसारमा जन्म अने मरण ए अस्वाभाविक नथी परंतु केटलीक व्यक्तिओ एवी उत्पन्न थती होय छे ने पोताना पवित्र कर्तव्यो द्वारा जीवनने उज्ज्वलता समर्प छे. एटलुंज नहिं परंतु बाह्य नश्वर शरीरनी विदाय बाद पण स्वसंपादित यशःकीर्तिरूप शरीर द्वारा अमर बने छे.
SR No.004416
Book TitleJai Jiya Kappo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages182
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size21 MB
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