________________ प्रस्तावना णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदि-जगत्पूज्य त्रिलोकवंद्य प्रभुना शासनने पामीने भव्यजीवो उत्तरोत्तर आत्मिकगुणो विकसावीने शुद्धनिर्मल निरतिचार संयमनु पालन करी अष्टकर्मनो क्षयकरी मुक्तिने प्राप्त करे छे आत्मिकगुणोना विकासमा जो कोइ पण बाधरूप होय तो ते कर्म छे अने तेना मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय अने योग आ पांच हेतुओ छे. आ पांच हेतुथी ओत्मा शुभाशुभ कर्मनो बंध करे छे अने आत्माना गुणना विकासनी गति स्थगित थाय छे अथवा धीमी पडे छे. आ पांच हेतुमां पण ज्यां सुधी मिथ्यात्व होय छे त्यां सुधी तो आत्मानी विकासनी गति घणी मंद होय छे. मिथ्यात्व गया बाद तेमां सुधारो थाय छे अविरति गया वाद घणां कर्मो लागता बंध थाय छे. आ उत्तरोत्तर प्रमाद, कषाय अने योगना जवाथी आत्मगुणो वधु जल्दी प्रगट थाय छे, योगना गया बाद तो सर्वथा कर्मबंध थतो ज नथी, एटले आत्मा अकर्मा बने छे, अने तुरत आत्मो सिद्ध, बुद्ध, मुक्त थाय छे, अने आ द्वारा ते अनंत ज्ञानदर्शन-चारित्र-सुख विगेरेनी प्राप्ति करे छे. कर्मथी सर्वथा मुक्त थएलो आत्मा सर्वार्थसिद्ध विमानथी 12 योजन दूर उपर रहेल सिद्धशिलाथी एक योजनना छट्ठा भागरूप लोकनो अंते जइने स्थिर थाय छे आत्माना आ विकासनी श्रेणीने शास्त्रीय दृष्टिए 'चतुर्दश-गुणस्थानक' नामथी संबोधाय छे. सर्व प्रथम सम्यक्त्वनी प्राप्ति अने सम्यक्त्व बाद सर्व प्रथम विरतिनी प्राप्तिमा आत्माने घणो समय लागे छे. पांचमां गुणठाणे आत्मा विरति ( देशविरति ) नो स्वीकार करे छे. (छटे गुणठाणे सर्वविरति ) त्यारबाद नव गुणस्थानक चढ्या बाद आत्मा संपूर्ण अकर्मा बने छे. विरति बाद आत्माने जो बाधक होय तो प्रमाद, कषाय अने योग. आ त्रणथी पण आत्मानो घणो विकास अटके छे, अने आ त्रगने वश थइने आत्मा मिथ्यात्व, अविरतिमां पण चाल्यो जाय छे तेमज नरकनिगोदरूप संसारचक्रमां अटवाइ जवानी घणी संभावना होय छे. निरतिचार चारित्रना पालनमां कोइ बाधरूप होय तो मुख्य आ त्रण छे. अनादिकालनी देवो अने कर्मनी बहुलताने लीधे आत्मा संयममा क्यारेक स्खलित थाय छे, आवा समये आ विकासनी गति अटकी न जाय अने आत्मा तरत पोतानी क्षति सुधारी ले ते माटे अने आ पापजन्य मलिनताने दूर करवा माटे तरत एवं कांइक कर जोइए जेथी मलिनतो दूर थाय अने आत्मा बीजी वार वधु उपयोग राखो कर्मक्षय तरफ आगल वधे. आ माटे परम श्रेष्ठ गुरुवर्यनी समक्ष अंतःकरणपूर्वक थएला दोषनी आलोचना करवी जोइए अने ते पापथी मुक्त थवा आचार्य महाराज जे कांइ तप आदि आपे ते करवू जोइए. आने प्रायश्चित्त कहेवाय छे जो के योग्य आचार्य महाराज समक्ष आत्मनिंदा-गर्हापूर्वक थएल दोषनुं उद्घाटन करवू जोइए. एनाथी आत्मानी शुद्धि थाय छे. परंतु पुनः ते दोषनी पुनरावृत्ति न थाय माटे गुरु समक्ष प्रायश्चित्त करवू जोइए परंतु गुरुसमक्ष दोषनी आलोचना वगर प्रायश्चित्त करवामां आवे तो तेनाथी आत्मानी शुद्धि थती नथी (जेमके लक्ष्मणा साध्वी).