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प्रस्तुत पुतक में"..
आचार और विचार श्रुत देवता की दो आंखें हैं। दशवकालिक, आचारांग आदि बागम आचारप्रधान हैं, सूत्रकृतांग, भगवती आदि विचार-प्रधान ।
प्रस्तुत सूत्र जैन श्रमण के आचार का मुख्य ग्रन्थ है, अतः इसे मूल आगमों में गिना गया है।
अहिंसा, जीवदया, भिक्षाविधि, वाक्यप्रयोग, विनय-व्यवहार तथा सामान्य आचार का सुन्दरतम एवं उपयोगी विवेचन प्रस्तुत सूत्र 'दशवकालिक' का विषय है।
आचार की शिक्षा देने वाला यह 'गागर में सागर' रूपी आगम है ।
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मूल्य : पन्द्रह रुपये मात्र
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मरुधरकेशरी
मुनि श्री मिश्रीमलजी
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दशवैकालिक
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भगवान महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष्य में
आर्य शय्यम्भव-संग्रषित
श्री द श वै का लिक सूत्र
[मूल-संस्कृतछाया-भाषापद्य-हिन्दी अनुवाद
विशेष परिशिष्ट समन्वित
संपादक प्रवर्तक, मरुधरकेसरी, आशुकविरत्न मुनि श्री मिश्रीमलजी महाराज
प्रकाशक :
श्री मरुधरकेसरी साहित्य-प्रकाशन समिति,
व्यावर [राजस्थान]
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द्रव्यसहायक
श्रीमान् शा० रतनलाल जी पारसमल जी चतर मेवाड़ी बाजार, ब्यावर (राजस्थान)
प्राप्तिस्थान
श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति पीपलिया बाजार, ब्यावर [राजस्थान ]
संप्रेरक
विद्याविनोदी श्री सुकनमुनि जी
प्रस्तावना लेखक
पं० हीरालाल जी शास्त्री, ब्यावर
मुद्रक
श्रीचन्द सुराना 'सरस' के लिए श्री विष्णु प्रिंटिंग प्रेस, आगरा
मूल्य : पन्द्रह रुपये सिर्फ, १५.००
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आशुकविरत्न, प्रवर्तक, गुरुदेव, मरुधर केसरी श्री मिश्रीमल जी महाराज
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प्रकाशकीय
विशाल प्रासाद में जो स्थान- नींव का है, महावृक्ष में जो महत्व मूल-जड़ का है, आगमरूप महावृक्ष में वही स्थान-दशवकालिकसूत्र का है, इसलिए इसे चार मूल सूत्रों में द्वितीय स्थान प्राप्त है । यह सूत्र मुख्यत: आचारप्रधान है। और आचार ही द्वादशांग का सार है-अंगाणं कि सारो ? आयारो !-- आचार्य भद्रबाहु का यह कथन आचार या आचारांग की महत्ता को स्पष्ट करता है।
दशवकालिक सूत्र के छोटे-बड़े अनेक संस्करण अव तक हो चुके हैं। दीक्षा के बाद श्रमण शक्ष सर्वप्रथम इसी मूत्र को कंठस्थ करते हैं । आचार-विधि के परिज्ञान हेतु इस आगम का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है।
दशवकालिक सूत्र का संस्कृत छाया के साथ राजस्थानी काव्यमय यह अनुवाद अपने ढंग का पहला ही शुभ-प्रयत्न कहा जा सकता है। भाषा-पद्यों की शैली बड़ी मनोरम काव्यात्मक और हृदयग्राही है. उनके अध्ययन में मूल का-सा रमानुभव होता है। हिन्दी अनुवाद तो और भी सरल तथा हृदयग्राही है । परिशिष्ट भी अपने ढंग का संक्षिप्त होकर भी उपयोगी है। इस प्रकार गुरुदेव द्वारा प्रस्तुत यह सम्पादन सभी दृष्टियों से मौलिक एवं उपयोगी सिद्ध होगा।
गुरुदेव श्री मरुधरकेसरी जी महाराज स्थानकवासी जैन समाज की एक विरल विभति हैं। विद्वत्ता के साथ सरलता, गुणानुराग, शिक्षाप्रेम, समाजसेवा नथा समाज-संगठन की उदात्त उमंग आपके जीवन की अद्वितीय विशेषता है। आप वाणी के धनी हैं, बुद्धि के पुज हैं, ओजस्वी वक्ता और महान कवि हैं। आप अपने आप में एक संस्था ही क्या, संस्थाओं की एक केन्द्रीय शक्ति हैं। राजस्थान के अंचल में आप द्वारा संस्थापित-संप्रेरित सैकड़ों ही संस्थाएं कार्यशील हैं। जिनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैं
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सादडो
श्री स्थानकवासी लोकाशाह जैन गुरुकुल, श्री स्थानकवासी वर्धमान आयम्बिल खाता, श्री स्थानकवासी जैनहितेच्छु कन्याशाला,
श्री स्थानकवासी जैन महावीर भवन, राणावास- श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन शिक्षणसंघ
श्री मरुधरकेसरी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, थानचन्द महता-कलाकेन्द्र, आचार्य श्री भूधर जैन औषधालय,
आचार्य श्री रघुनाथ जैन वाचनालय, सोजतसिटी-आचार्य श्री रघुनाथ जैन स्मृति राजकीय चिकित्सालय,
आचार्य श्री रघुनाथ जैन पुस्तकालय,
श्री वर्धमान जैन आम्बिल खाता, सोजतरोड- श्री महावीर मंडप,
(भगवान महावीर के जीवन की चित्रमय झांकी)
श्री नेमिचन्द्र बांठिया जैन व्याख्यानभवन बगडी- श्री मरुधर पारमार्थिक संस्था,
श्री केसर बाई अमरशाला, जैतारण--- श्री स्थानकवासी जैन गौशाला,
श्री मरुधरकेसरी स्थानकवासी जैन छात्रावास, चंडावल- श्री महावीर जैन गौशाला, जालौर- श्री महावीर जैन गोशाला,
श्री महावीर जैन उद्योगशाला, जोधपुर- श्री पारमार्थिक जैन महिला मंडल,
श्री जैन वुधवीर स्मारक मंडल, व्यावर-- श्री वर्धमान जैन आयम्बिल खाता,
श्री स्थानकवासी जैन स्वधर्मी सहायक ट्रस्ट,
श्री मरुधर केसरी साहित्य प्रकाशन समिति, थामला --. राजकीय जैन औषधालय, भरतपुर-- श्री स्थानकवासी बुधमुनि जैन छात्रावास ।
इस प्रकार गुरुदेव की प्रेरणा से राजस्थान के कोने-कोने में शिक्षा, सेवा एवं साहित्य की अखंड ज्योति प्रज्वलित हो रही है ।
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प्रस्तुत आगम का प्रकाशन हमारी संस्था का एक भव्य प्रयत्न है। यद्यपि अबतक लगभग ४०-४५ पुस्तकें संस्था से प्रकाशित हो चुकी हैं.-जिनमें 'मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रंथ' जैसा विशालकाय ग्रंथ और 'जनधर्म में तप : स्वरूप और विश्लेषण' जैसी शोध पुस्तकें भी हैं किन्तु आगम-प्रकाशन की हमारी चिरकालीन भावना अब इसी आगम से मूर्तरूप पकड़ रही है । इस प्रकाशन के पश्चात हम अति शीघ्र ही उत्तराध्ययन सूत्र तथा जैन कर्मसिद्धान्त का दुर्लभ एवं अपूर्व ग्रन्थ 'फर्मग्रन्थ" विस्तृत व्याख्या एवं महत्वपूर्ण भूमिकाओं के साथ पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करने का सकल्प कर रहे हैं । भगवान महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी वर्ष में हमारा यह प्रयत्न अपना ऐतिहासिक महत्व स्थापित करेगा और पाठकों को ज्ञान-पिपासा को परितृप्त करेगा, इसी आशा के साथ ....!
मंत्री
श्री मरुधरकेसरी साहित्य-प्रकाशन समिति
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आभार-दर्शन प्रस्तुत आगम 'दशवकालिकसूत्र' के प्रकाशन में श्रीमान् रतनलाल जी चतर ने पूर्ण अर्थसहयोग प्रदान कर संस्था के प्रकाशनों की परम्परा को सुदृढ़ बनाया है। एतदर्थ हम आपके आभारी हैं तथा आपके अनुकरणीय उदार सहयोग का हार्दिक अनुमोदन करते हैं।
आप एक सरलमना धार्मिक प्रकृति के सज्जन पुरुष हैं, देवगुरु के भक्त, निरभिमानी और मिलनसार हैं । अपने पुरुषार्थ एवं व्यापार-कुशलता से आपने लक्ष्मी भी अजित की है और कीति भी। आपके परिवार का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार
पिता-श्री विजयलाल जी चतर, माता-- श्रीमती नजरबाई, जन्म-वि० सं० १९८८, पोषसुदि ७, पडांगा (अजमेर) भाई-श्री प्रेमचन्द जी, पुत्र पारसमलजी, राजेन्द्र कुमार जी, पुत्रियां सज्जनकुंवर, उषा, ममता,
वि० सं० २००२ से आप ब्यावर में आड़त का व्यापार करते हैं । व्यापारिक प्रतिष्ठानों के पते इस प्रकार हैंज्यावर : १ चतर एण्ड कम्पनी,
फोन : 567 दुकान मेवाड़ी बाजार
557 घर
तार : पारस २ पारसमल पवनकुमार, मेवाड़ी बाजार,
३ घीसालाल कनकमल, मेवाड़ी बाजार, जयपुर- पारसमल एण्ड कंपनी
फोन : 76423 नई अनाजमंडी, चांदपोल,
तार: चतर
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उदार सहयोगी
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धर्मप्रेमी उदारचेता श्रीमान रतनलाल जी सा० चतर
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सेवा-परायण धर्मशीला श्रीमती उमरावकुवर बाई चतर [धर्मपत्नी श्री रतनलाल जी चतर]
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प्रस्तावना
-पं० हीरालाल जी शास्त्री मागमों के सम्बन्ध में श्वेताम्बर-परम्परा में दो मान्यताएं प्रचलित हैं
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक-परम्परा-११ अङ्ग, १२ उपांग, ४ मूल. २ चूलिकामूत्र, ६ छेद सूत्र और १० प्रकीर्णक–यों ४५ आगम मानती है ।
श्वेताम्बर स्थानकवासी व तेरापंथी-परम्परा ११ अंग, १२ उपाग, ४ मूल, ४ छेद, १ आवश्यक यों ३२ आगमों को प्रमाणभूत मानती है।
दशवकालिक-४ मूल आगमों में उत्तराध्ययन, दशवकालिक, नंदीसूत्र व अनुयोगद्वार आते हैं। दशवकालिक की संरचना आर्य शय्यंभव ने की है और यह श्वेताम्बर-परम्परा का आचारविषयक अत्यन्त उपयोगी तथा महत्वपूर्ण संकलन है। इसके आज तक अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं जो प्राकृत-संस्कृत टीकाओं तथा हिन्दी अर्थ-विशेषार्थ के साथ हैं । इनमें विशालकाय संस्करणों से लेकर मूलमात्र के लघु संस्करण भी सम्मिलित हैं । यह सूत्र जैन-परम्परा में सर्वाधिक प्रचलित है और प्रायः सभी साधु-साध्वी एवं अनेक वैरागीजन दीक्षित होने के पूर्व या पश्चात् इसको पढ़कर कण्ठस्थ रखते हैं एवं तदनुसार चलने का प्रयत्न करते हैं । निर्माण-काल से ही यह साधुजनों का सम्मान्य एवं अत्यन्त प्रिय ग्रन्थ रहा है। रचनाकाल के पश्चात् इस पर अनेक चूणियां, टीकाएँ, टब्बा और टिप्पण लिम्वे गये हैं। उनमें से कुछ का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
१. नियुक्ति- भद्रबाह द्वितीय ने दशवकालिक पर सर्वप्रथय नियुक्ति लिखी। यह पद्यात्मक है और इसकी गाथाओं का परिमाण ३७२ है। इसका रचना-काल विक्रम की पांचवी-छठी शताब्दी है।
२. भाष्य - यह पद्यात्मक व्याख्या है । इसकी भाष्य-गाथाएं केवल ६३ हैं । चर्णिकार अगस्त्यसिंह ने अपनी चणि में इसका कोई उल्लेख नहीं किया है। पर टीकाकार हरिभद्रसूरि ने भाष्य और भाष्यकार का अनेक स्थलों पर उल्लेख किया है । अतः इसकी रचना नियुक्तिकार के बाद और चूर्णिकार के पूर्व हुई है ।
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( १० )
हरिभद्रसूरि ने जिन गाथाओं को भाष्यगत माना है, वे चूर्ण में पाई जाती हैं, इससे ज्ञात होता है कि भाष्य-गाथाकार चूर्णिकार से पूर्व हुए हैं ।
इसकी रचना प्राकृत में की है । यह विद्वान् इसे विक्रम की छठी-सातवीं
३. प्रथम चूर्ण - आ० अगस्त्यसिंह ने सर्वाधिक मूलस्पर्शी एवं विशद है । इतिहासज्ञ शताब्दी के मध्य रचित अनुमान करते हैं ।
४. द्वितीय चूर्णि - जिनदास महत्तर ने इसे प्राकृत में लिखा है । इसका रचनाकाल विक्रम की सातवीं शताब्दी माना जाता है ।
५ विजयोदया टीका - यापनीय संघ के आचार्य अपराजितसूरि ने इसे संस्कृत में लिखा और अपनी मूलाराधना टीका में इसका उल्लेख किया है । अभी तक यह अनुपलब्ध है | अपराजितसूरि का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है ।
६. हारिणद्रीय वृत्ति - इसे याकिनीसूनु हरिभद्र ने संस्कृत में रचा है । इनका समय विद्वानों ने वि० सं० ७५७ से ८२७ तक का निश्चय किया है ।
तत्पश्चात विक्रम की तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में तिलकाचार्य ने पन्द्रहवीं शताब्दी में आचार्य माणिक्यशेखर ने सोलहवीं शताब्दी में विनयहंस ने, सत्तरहवीं शताब्दी मे श्री समयसुन्दर और श्री रामचन्द्रसूरि ने, अठारहवीं शताब्दी में श्री पायसुन्दर और श्री धर्मचन्द्र ने टीका, टब्बा आदि संस्कृत एवं गुजराती मिश्रित राजस्थानी भाषा में लिखे । इससे इसकी सार्वकालिक लोक-प्रियता सिद्ध है ।
श्रुत का उद्भव एवं दशर्वकालिक का उद्गम स्थान
।
यों तो भाव श्रुतज्ञान अनादि-निधन है । किन्तु कर्मभूमि में उसका प्रकाशन तीर्थंकरों के द्वारा होता है, अतः वह सादि भी कहा जाता है भगवान् महावीर ने कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् धर्म और उसके कारणभूत तत्त्वों की देशना की । इन्द्रभूति गौतम ने उसे सुनकर द्वादश अंगों में निबद्ध किया । उन्होंने समय-समय पर दिये गये समस्त प्रवचनों का समावेश आचारांग आदि बारह अंगों में किया, अत: वे अंगप्रविष्ट के नाम से प्रसिद्ध हुए
द्वादशाङ्ग श्रुत के साधु आचार के उपयोगी साराश को लेकर दशवैकालिकसूत्र की रचना की गई है। इसके विषय में दशवैकालिक नियुक्तिकार लिखते हैंआयपवायपुव्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नत्ती । कम्मप्पवायपुव्वा पिण्डस्स उ एसणा तिविहा ॥१६॥ सच्चप्पवायपुष्वा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धी उ । अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ ॥ १७ ॥
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अर्थात्- धर्मप्रज्ञप्ति या छज्जीवनिका नामक चौथा अध्ययन आत्मप्रवादपूर्व का नियूंढ या नियूं हण है, पिण्डषणा नामक पांचवां अध्ययन कर्मप्रवाद का, वाक्यशुद्धि नामक सातवां अध्ययन सत्यप्रवादपूर्व का नि' हण है और शेप सभी अध्ययन नवें प्रत्याख्यानपूर्व की तीसरी वस्तु के नियूं हण हैं। इसके साथ दशर्वकालिक के नियुक्तिकार यह भी लिखते हैं
बोओविय आएसो गणिपिडगाओ दुबालसंगाओ ।
एवं किर निज्जूढा मणगस्स अणुग्गहट्ठाए ॥१८॥ अर्थात् -- अपने पुत्र मनक के अनुग्रहार्थ आ० शय्यम्भव ने इसे पूरे द्वादशांगरूप गणिपिटक से नि' हण किया, एक ऐसी भी मान्यता है।
__ वर्तमान में दृष्टिवाद अंग अनुपलब्ध है। हां, दशवकालिक के समान उसके विभिन्न पूर्वो के आधार पर रचित अनेक खंड आगम और ग्रन्थ पाये जाते हैं। नामकरण
प्रस्तुत सूत्र के अगस्त्यणि में तीन नामों का उल्लेख है-दसकालिय (दशकालिक) बसवेयालिय (दशवकालिक) और दसवेतालिय (दशवतालिक) । यतः यह चतुर्दश पूर्वीकाल से आया हुआ है, अतः इसका नाम कालिक है और इसके दश अध्ययन हैं, अतः यह दशवकालिक है अथवा इसकी रचना का प्रारम्भ विकाल (अपराहुकाल) में हुआ और पूर्ति भी विकाल में हुई, अतः इसका नाम दशवकालिक है । वैकालिक इसलिए इसे कहा गया है कि गणधर पूर्वाह्न में आगमों की रचना करते हैं । किन्तु ग्रन्थकार का पुत्र मनक मध्याह्न काल में उनके पास पहुंचा था और उमे अल्पायुष्क जानकर उन्होंने काल व्यतीत करना उचित नहीं समझा और अपराह्नकाल में ही उसके सम्बोधनार्थ इसकी रचना प्रारम्भ कर दी थी। 'मरे नाम का कारण बतलाते हुए चर्णिकार कहते हैं कि यतः इमका दशवां अध्ययन .तालिक' नाम के वृत्त छन्द) में रचा गया है, अत: इगका नाम दशवतालिक
उपर्युक्त तीनों नामों में से पहिले और तीसरे नाम को छोड़कर दूसरे नाम से ही यह सूत्र जैनपरम्परा की सभी शाखाओं में प्रसिद्ध है।
सूत्रकार और सूत्र-निर्माण का निमित्त नन्दीसूत्र की पटटावली के अनुसार इसके रचियता आचार्य शय्यम्भव भगवान महावीर के चतुर्थ पट्टधर थे। जब ये गृहावास में थे, तव तीसरे पट्टधर प्रभवस्वामी के मन में विचार उत्पन्न हुआ कि मेरा पट्टधर होने के योग्य मेरे शिष्यों में कौन है ? उन्होंने अपने शिष्यों पर दृष्टि डाली, पर पट्टधर होने के योग्य किसी
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भी शिष्य को नहीं पाया । तब समीपवर्ती प्रदेशवासी गृहस्थों की ओर दृष्टि दौड़ाई और उन्हें राजगृह निवासी शय्यम्भव ब्राह्मण योग्य दृष्टिगत हुआ। वह अनेक विद्याओं का पारगामी था। प्रभवस्वामी ने अपने दो शिष्यों को उसके पास भेजा
और आचार्य के निर्देशानुसार उन्होंने शय्यम्भव के पास जाकर कहा- 'अहो कष्टमहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते परम्' । शय्यम्भव यह सुनकर सोचने लगा ये परम शान्त साधु असत्य नहीं बोल सकते । अवश्य ही इनके ऐसा कहने में कोई रहस्य है। वह तुरन्त अपने गुरु के पास गया और पूछा- असली तत्त्व क्या है ? गुरु ने कहा --- 'तत्त्व वेद है' । शय्यम्भव ने म्यान से तलवार निकालकर कहा- 'असली तत्त्व क्या है, वह बतलाइये, अन्यथा इसी तलवार से सिर उड़ा दूंगा।'
गुरु ने सोचा-वेदार्थ-परम्परा के अनुसार सिर कटने का अवसर आने पर तत्व बतला देना चाहिए । यह सोचकर उसने कहा-'तत्त्व आहत धर्म है।' शय्यम्भव उससे प्रतिबोध को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् वह ढूढ़ता हुआ प्रभवस्वामी के पास पहुंचा और उनसे तत्त्व का रहस्य सुनके अपनी गर्भवती पत्नी को छोड़कर २८ वर्ष की अवस्था में उनके पास दीक्षित हो गया।
इधर उनकी पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया और उसका नाम 'मनक' रखा। अब वह आठ वर्ष का हो गया, तब उसने एक दिन अपनी मां से पिता के विपय में पूछा । मां ने कहा--तेरे पिता तेरे गर्भस्थ काल में ही मुनि बन गये। वे आचार्य पद पर आसीन हैं और आजकल चम्पानगरी में विहार कर रहे हैं। मनक मां की अनुमति लेकर जब चम्पा पहुंचा, तब आचार्य शय्यम्भव शौच से निवृत्त होकर लौट रहे थे । अतः मार्ग में ही उनकी मनक से भेंट हो गई। उसे देखकर उनके मन में कुछ स्नेह जगा और उसने पूछा 'तू किसका पुत्र है ?' मनक ने कहा-'मैं शय्यम्भव ब्राह्मण का पुत्र हूं । आचार्य ने पूछा- अब तेरे पिता कहां हैं ? मनक ने उत्तर दिया . वे अव आचार्य हैं और चम्पा में विचर रहे हैं । आचार्य ने पूछा-तू यहां क्यों आया ? मनक ने कहा मैं भी उनके पास दीक्षा लूगा । यह कहकर उसने पूछा- क्या आप मेरे पिता को जानते हैं ? आचार्य ने कहा-वत्स, मैं उन्हें केवल जानता ही नहीं हूं, अपितु ये मेरे अभिन्न मित्र हैं। तू मेरे ही पास दीक्षा ले ले। मनक ने उनकी बात स्वीकार की और अपने स्थान पर आकर दीक्षा दे दी। यह भी संभव है कि उन्होंने पिता-पुत्र का सम्बन्ध बताकर संघ में उसे गुप्त रखने को कह दिया हो । आचार्य ने निमित्तशास्त्र से जाना कि यह अल्पायु है, केवल छह मास का जीवन शेष है । अतः उसे प्रबोध देने और अल्प समय में साधु के आचार का ज्ञान कराने के लिए द्वादशांग गणिपिटक से साधु-सम्बन्धी सभी विधि-निषेधात्मक तत्त्वों का नियूं हण (उद्धार) कर और उसे श्लोक-बढ़ करके मनक को पढ़ाया। यतः
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( १३ )
इसका प्रारम्भ अपराह्नकाल में हुआ और समापन भी अपराह्नकाल में हुआ. अतः इसका नाम वैकालिक पड़ा और इसके दश अध्ययन रचे गये, अतएव यह दशवकालिक के रूप से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ ।
आ० शय्यम्भव का समय और सूत्र - संकलन काल
भगवान महावीर के मुक्ति-गमन के पश्चात् सुधर्मास्वामी २० वर्ष तक पट्टधर रहे उनके पट्टधर जम्बूस्वामी हुए। उनका काल ४४ वर्ष रहा। उनके पट्ट पर प्रभवस्वामी आसीन हुए । उनका आचार्य काल ११ वर्ष का है। यह हम पहले बतला आये हैं कि उन्हें अपने उत्तराधिकारी के विषय में चिन्ता हुई और फलस्वरूप शय्यम्भव का सुयोग उन्हें प्राप्त हुआ ।
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प्रभवस्वामी का आचार्यकाल ११ वर्ष का है और शय्यम्भव के मुनिजीवन का समय भी ११ वर्ष का हैं । वे २८ वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे और २३ वर्ष आचार्य के पद पर रहे। इस प्रकार ( २८+११+२३६२) बासठ वर्ष की आयु भोगकर वे वीर नि० सं० ६८ में स्वर्गवासी हुए ।
उक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्रभवस्वामी के आचार्य होने के कुछ समय बाद ही शय्यम्भव मुनि बन गये थे, क्योंकि प्रभवस्वामी का आचार्य-काल और शय्यम्भव का मुनि-काल ११-११ वर्ष का समान है । वीर निर्वाण के ३६ वें वर्ष में शय्यम्भव का जन्म हुआ और वीर निर्वाण के ६४वें वर्ष तक वे घर में रहे । मुनि बनने के आठ या साढ़े आठ वर्ष के पश्चात् मनक के लिए दशीकालिक रचा गया । इस प्रकार दशवैकालिक का सकलन - काल वीर नि० सं० ७२ के लगभग सिद्ध ता है ।
शर्वकालिक का वर्ण्यविषय
भगवान महावीर अपने पास दीक्षा लेने वाले साधुओं को जो प्रारम्भिक उपदेश देते थे वहीं उपदेश आचार्य शय्यम्भव ने बड़े सुन्दर ढंग से इस सूत्र गुम्फित किया है। संक्षेप में कहा जाय तो इसमें साधुओं के आहार-विहार, बोल-चाल, रहन-सहन एवं संयम परिपालन का वर्णन हैं ।
अंतिम दो चूलिकाओं का गंभीरता से मनन करने पर ऐसा ज्ञात होता है कि उसकी रचना मनक के स्वर्गवास के पश्चात् अन्य साधुओं के हितार्थ हुई है ।
परवर्ती काल में रचित आचार - विषयक ग्रन्थों में इसका प्रभाव स्पष्ट efष्टगोचर होता है ।
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( १४ ) १ दुमपुफिया-इस अध्ययन में धर्म को उत्कृष्ट मंगल बताते हुए उसका
स्वरूप तथा उसकी आराधना करने वाले श्रमण की भिक्षा-विधि का सूचन
किया गया है। २ सामण्यपुव्वय--श्रमणधर्म में स्थिर रहने का उपदेश बड़ी ही रोचक शैली में
दिया गया है। ३ खुडिडयायार कहा---इसमें साधु के योग्य सामान्य आचार तथा अनाचार
का संक्षेप में वर्णन करते हुए अनाचार से दूर रहने का उपदेश है । ४ छज्जीवणिया -- इसमें षट्काया का स्वरूप बताकर पांच महाव्रतों का वर्णन
करते हुए मोक्षगति का क्रम बताया गया है । ५ पिण्डेसणा--इस अध्ययन में साधु की भिक्षाविधि का बड़ा ही सूक्ष्म एवं
उपयोगी विवेचन है। ६ महायारकहा इसमें साधु के आचार का विस्तृत वर्णन किया गया। ७ बक्कसुद्धि- इसमें भाषा का स्वरूप बताकर उसके गुण-दोषों का विस्तृत
विवेचन कर शुद्ध भाषा के प्रयोग की शिक्षा दी गई है। ८ आयारपणिही-आचार को उत्तम निधि बताते हुए उसकी रक्षा करने की
विशेष शिक्षा इस अध्ययन में है। ६ विणयसमाही--विनय ही धर्म का मूल है, इस सिद्धान्त को विविध रूपकों
व उपदेशों द्वारा समझाकर विनय का अत्यन्त सुन्दर विवेचन इस अध्ययन में है। स-निक्खू भिक्ष कोन होता है, उसमें क्या योग्यता तथा विशेषता होनी चाहिए, इसका वर्णन प्रस्तुत अध्ययन में है । रइवक्का पढम चूलिया संयम में रति (प्रीति) उत्पन्न कराने वाले वाक्यों
द्वारा हितशिक्षा का मधुर संचय इस अध्ययन में किया गया है। • विवित्तरिया चूलिका-दोषों से दूर रहता हुआ श्रमण आत्मगवेपणा के
मार्ग में कैसे बढे- इसका वर्णन प्रस्तुत चूलिका में है ।
इस प्रकार यह दशवकालिक की संक्षिप्त विषय-सूची है। विस्तृत विवरण पाठक आगे पढ़ेंगे ही।
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अनुक्रमणिका
.
. द्रुमपुष्पिका अध्ययन २ श्रामण्यपूर्वक अध्ययन ३ क्षुल्लकाचारकथा अध्ययन ४ षड्जीवनिका अध्ययन ५ पिडषणा अध्ययन ६ महाचारकथा अध्ययन ७ वाक्यशुद्धि अध्ययन
आचारप्रणिधि अध्ययन ६ विनय-समाधि अध्ययन १२ समिक्ष अध्ययन
रतिवाक्या प्रथम चूलिका विविक्तचर्यां द्वितीय चूलिका
१७४
२०४
२८०
परिशिष्टदशवकालिक के सुभाषित पारिभाषिक शब्द-कोष
२६३
२९७
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महावीर निर्वाण शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में भ. महावीर द्वारा प्ररूपित कर्म सिद्धान्त का विस्तृत सर्वांग विवेचन करने वाला
कर्मग्रन्थ भाग १ से ६ मूल, गाथार्थ, विशेष व्याख्या एवं महत्वपूर्ण टिप्पण
एवं परिशिष्ट के साथ शीघ्र ही प्रकाशितहो रहा है । सम्पूर्ण छह भाग का मूल्य ६०) प्रकाशक ... श्री मरुधर केसरी साहित्य प्रकाशन समिति, न्यावर
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श्री दशवैकालिक सूत्र (संस्कृत-छाया, हिन्दी पद्य व गद्य अनुवाद सहित)
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मूल
मूल
संस्कृत — धर्मो
पढमं दुमपुफिया अज्झयणं
(१)
धम्मो
तवो ।
मंगलमुक्किट्ठे अहिंसा संजमो देवा वि तं नमसंति, जस्स घम्मे सया मणो ॥
मूल
मङ्गलमुत्कृष्टं अहिंसा
देवा अपि तं नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा
(२)
जहा दुमस्स पुष्फेसु ममरो न य पुप्फं किलामेइ
सो य
संस्कृत —–—–— यथा द्रमस्य पुष्पेष
न च पुष्पं क्लामर्यात
संयमस्तपः ।
मनः ॥
भ्रमर
स च
आवियइ
पीणेह
रसं ।
अप्पयं ॥
आपिबति रसम् I
प्रीणयत्यात्मकम् ॥
(३)
जे लोए संति साहुणो । दाणमत्त सणे
रया ।।
एमेए समणा मुत्ता विहंगमा इव पुष्फेसु संस्कृत - एवमेते श्रमणा मुक्ता, ये लोके सन्ति साधवः । विहंगमा इव पुष्पेषु, दानभक्तैषणे
रताः ॥
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प्रथम द्रुमपुष्पिका अध्ययन
(१)
दोहा
उत्तम मगल धरम है, जाको मन नित धरम में,
संयम तप रु दयाहि । देवहु वंदत ताहि ॥
अर्थ - अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है। जिनका मन सदा धर्म में संलग्न रहता है उसे देव भी नमस्कार करते हैं ।
(२)
दोहा
अर्थ - जैसे भ्रमर वृक्ष के पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, किन्तु किसी पुष्प - म्लान नहीं करता है और अपने को भी तृप्त कर लेता है ।
दोहा
जैसे तरु के कुसुम में, सो पोखत हैं आपकों,
मधुप पियें रस आय । सुमनहं नाहि सताय ॥
(३)
ये साधू जन जगत में,
अहँ श्रमन गत-संग ।
दान भात सोधनहरत, ज्यों सुमननि में भृंग ॥
अर्थ – उसीप्रकार लोक में जो संग-मुक्त श्रमण साधु हैं, वे दाता के द्वारा दिये जाने वाले निर्दोष आहार के अन्वेषण में रत रहते हैं जैसे भ्रमर पुष्पों में ।
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दशवकालिकसूत्र
मूल- वयं च वित्ति लम्मामो, न य कोई उवहम्मइ ।
अहागडेसु रोयंति, पुप्फेसु भमरा जहा ।। संस्कृत- वयं च वृत्ति लप्स्यामहे न च कोऽप्युपहन्यते ।
यथाकृतेषु रीयन्ते पुष्पेषु भ्रमरा यथा ।।
महुगारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया ।
नाणापिडरया दंता, तेण बुच्चंति साहुणो ।। -त्तिबेमि संस्कृत- मधुकरसमा बुद्धा ये भवन्त्यनिश्रिताः । नानापिण्डरता दान्तास्तेनोच्यन्ते साधवः ।।
-इति ब्रवीमि ।
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प्रथम द्रुमपुष्पिका अध्ययन
दोहा- हम लहिहैं या रहनिकों, ज्यों नहिं कोउ दुखाहि ।
____ जया किये में विचरिहैं, जिमि अलि फूलनि माहि ॥
अर्थ-हम इस प्रकार से वृत्ति (भिक्षा) प्राप्त करेंगे कि किसी जीव का उपघात न हो। श्रमण यथाकृत-सहजरूप से बना--आहार लेते हैं जैसे भोरे फूलों से रस ।
वोहा- ज्ञानवन्त प्रतिबंध बिनु, जे मधुकर-सम होहिं ।
___दमी अनेकन पिंड-रत, साधु कहत तिनकोहि ।।
अर्थ-जो ज्ञानी पुरुष मधुकर के समान अनिश्रित है-किसी एक पर आश्रित नहीं है, नाना घरों के पिंड में रत है और इन्द्रिय-जयी है, वे अपने इन्हीं गुणों से स.धु कहलाते हैं, ऐसा मैं कहता हूँ।
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मूल
संस्कृत - कथं
पदे
मूल
मूल
संस्कृत
संस्कृत -- वस्त्र
मूल
संस्कृत
कहं न कुज्जा
पए पए
-
बीयं सामण्णपुव्वयं अज्कयणं
(१)
सामण्णं, जो कामे न निवारए । विसीयतो, संकष्पस्स
वसंगओ ॥
नु पदे
कुर्याच्छ्रामण्यं यः कामान्न विषीदन् सङ्कल्पस्य
(२)
वत्थगंधमलंकारं,
अच्छन्दा जे न भुजन्ति, न से
गन्धमलङ्कारं, स्त्रियः अच्छन्दा ये न भुञ्जन्ति न ते
इत्थीओ सयणाणि
चाइति
च ।
शयनानि त्यागिन इत्युच्यते ॥
(३)
जे य कन्ते पिए भोए, लद्ध
साहीणे चयइ भोए से, हु चाइ
लब्धान्
यश्च कान्तान् प्रियान् भोगान्, स्वाधीनस्त्यजति भोगान्, स एव
(४)
समया प्रेक्षया परिव्रजतः न सा मम नाप्यहमपि तस्या,
निवारयेत् ।
वशंगतः ॥
,
य ।
वच्चइ ॥
विपिट्ठिकुव्वई ।
त्ति वुच्चइ ॥
समाए हाए परिव्वयंतो, सिया मणो णिस्सरई बहिद्धा ।
न सा महं नो वि अहं पितोसे,
इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं ।।
विपृष्ठीकरोति । त्यागीत्युच्यते ॥
स्यान्मनो निःसरित बहिस्तात् । इत्येवं तस्या व्यपनयेद् रागम् ॥
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हितीय श्रामण्यपूर्वक अध्ययन
दोहा-कौन रीति संजम सजे ? काहि तर्ज न जोय ।
इच्छा के आधीन तो, पग-पग पीड़ित होय ॥ अर्थ-जो मनुष्य संकल्प के वश हो, पद-पद पर विषाद-ग्रस्त होता हो, और क.म-विषयानुराग का निवारण नहीं करता, वह श्रमणत्व का पालन कैसे करेगा?
बोहा-बसन गंध भूसन, सयन, रमनी गन चित चाहि ।
विनु अधीन भोगत नजो, त्यागी कहत न ताहि ।। अर्थ-जो वस्त्र, गन्ध, अलंकार स्त्रियों और पलंगों का परवश होने से (या उनके अभाव में) सेवन नहीं करता, वह त्यागी नहीं कहा जाता।
दोहा-सुन्दर प्यारे भोग लहि, देत पोठ जन जोय ।
निज अधीन भोजन तजे, त्यागी कहियत सोय ।। अर्थ-जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी उनकी ओर पीठ कर जा है और स्वाधीनता-पूर्वक भोगों का त्याग करता है, वह त्यागी कहा जाता है।
दोहा --मुनि विचरत सम वीठि सों, जो मन बाहिर जाय ।
वह न मोरि वा को न मैं, यों तिय राग हटाय ॥ अर्थ-समदृष्टि-पूर्वक विचरते हुए भी यदि कदाचित् यह मन बाहिर निकल जाय, तो यह विचार करे कि 'यह मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूँ।' इस प्रकार साधु स्त्री विषयक राग को दूर करे।।
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८
(५)
आयावयाही चय सोउमल्लं, कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिन्दाहि दोसं विणिएज्ज रागं, एवं सुही होर्हिसि संपराए । संस्कृत — आतापय त्यज सौकुमार्यं, कामान् काम क्रान्तं खलु दुःखम् । छिन्धि दोषं व्यपनय रागं, एवं सुखी भविष्यति सम्पराये ॥
मूल --
मूल
संस्कृत - प्रस्कन्दन्ति ज्वलितं ज्योतिषं घूमकेतु नेच्छन्ति वान्तकं भोक्तुं कुले जाता
1
मूल
(६)
जोई, धूमके
पक्खन्दे जलिय नेच्छति वन्तयं भोत, कुले जाया
मूल -
संस्कृत धिगस्तु
मूल
(७) घिरत्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीवियकारणा । वन्तं इच्छति आवेउ, सेयं ते मरणं भवे ॥
वान्तमिच्छस्थापातु,
अहं च मा कुले
संस्कृत - अहं च मा कुले
दशवेकालिकसूत्र
दुरासयं ।
अगन्धणे ||
(3)
दुरासदम् ।
अगन्धने ॥
तेऽयशः कामिन्, यस्त्वं जीवितकारणात् । श्रेयस्ते मरणं भवेत् ॥
भोयरायस्स, तं चsसि अन्धगवण्हणो ।
गन्धणा होमो,
संजमं
निहुओ चर ॥
भोजराजस्य
त्वं
गन्धनो भूव संयमं
चास्यन्धकवृष्णेः । निभृतश्चर ॥
(e)
जइ तं काहिसि भावं वायाविद्धोव्व हडो, संस्कृत - यदि त्वं करिष्यसि भावं या या द्रक्ष्यसि नारीः । वाताविद्ध इव essथरात्मा
भविष्यसि ||
जा जा दच्छसि नारिओ । अट्ठियप्पा
भविस्ससि ।।
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द्वितीय श्रामण्यपूर्वक अध्ययन
दोहा--आतप सहि तजि मृदुलता, जोति काम दुख जीति ।
द्वेष छेदि तजि राग कों, जगि सुख लहुं या रोति ।। अर्थ-अपने को तपा, सुकुमारता का त्याग कर । काम-वासना का अतिक्रम कर, इससे दुःख स्वयं दूर होगा । (संयम के प्रति) द्व पभाव को छेद और (विषयों के प्रति) राग भाव को दूर कर । ऐसा करने से तू संसार में सुखी रहेगा।
दोहा-जोति जलति दुसहा अनि, तामें परि जरि जाहिं ।
जाति-अगंधन-जात अहि, गहत वमित विस नाहिं ।। . अर्थ---अगंधन कुल में उत्पन्न सर्प जलती हुई विकराल अग्नि में प्रवेश कर राते हैं, परन्तु वमन किये हुए विप को वापिस पीने की इच्छा नहीं करते।
दोहा--- अजसकामि ! धिक्कार तुहि, जीवन कारन जोइ ।
पियो चहत है पमित कों, मरन भलो है तोइ । अर्थ-हे अयशःकामिन् ! धिक्कार है तुझे, जो तू भोगी जीवन के लिए वमन की हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है ? इससे तो तेरा मरना ही भला है।
दोहा..-उग्रसेन-धी मैं, तु हूँ समुदविजय को लाल ।
___ गंधन-कुल जनि होंहि हम, थिर संजम-पथ चाल ।
अर्थ-मैं भोजराज (उग्रसेन) की पुत्री हूं और तू अन्धकवृष्णि (समुद्र वजय) का पुत्र है । हम कुल में गन्धन सर्प के समान न हों। तू निभृत-स्थिर मनहो संयम का पालन कर।
बोहा-जो जो नारि निहारि है, जो तू करि है चाह ।
अपिर आतमा होयगो, जिमि हड पवन-प्रवाह ॥ अर्थ-यदि तू स्त्रियों को देखकर उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव करेगा, तो वायु से प्रेरित हड वृक्ष के समान अस्थिरात्मा हो जायेगा।
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१०
(१०)
मूल- तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाए
अंकुसेण जहा नागो,
धम्मे
संस्कृत — तस्याः स वचनं श्रुत्वा, संयतायाः अङ्क ुशेन यथा नागो, धर्मे
(११)
मूल
एवं करेन्ति विणियति
संबुद्धा, पंडिया
भोगेसु. जहा से
संस्कृत एवं कुर्वन्ति सम्बुद्धाः पण्डिताः विनिवर्तन्ते
भोगेभ्यो यथा स
[]
दशवैकालिकसूत्र
सुभासियं ।
संपडिवाइओ ।।
सुभाषितम् । सम्प्रतिपादितः ||
पaियक्खणा ।
पुरिसोत्तमो । —त्ति बेमि
प्रविचक्षणाः ।
पुरुषोत्तमः ।। - इति ब्रवीमि
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द्वितीय श्रामण्यपूर्वक अध्ययन
सोरठा-सो सुनि नोके बोल, वा संजमिनी के कहे ।
भी निज घरम अगेल, जिमि गज अंकुस के लगे ॥ अर्ष-संयमिनी राजुल के इन सुभाषित वचनों को सुनकर रथनेमि धर्म में वैसे ही स्थिर हो गया, जैसे अंकुश से हाथी शान्त हो जाता है ।
बोहा- ज्ञानवंत या विधि करत, बुध नु विचन्छन होय ।
विलग होय भव-भोग सों, जा विधि नर-वर सोय ॥ अर्थ-संबुद्ध, पण्डित और प्रविचक्षण पुरुष ऐसा ही करते हैं। वे भोगों से वैसे ही विनिवृत्त हो जाते हैं जैसे कि पुरुषोत्तम रथनेमि हुए । मैं ऐसा कहता हूँ।
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तइयं खुड्डयायारकहा अज्झयणं
(१) मूल- संजमे सुटिअप्पाणं, विप्पमुक्काण ताइणं ।
तेसिमेयमणाइण्णं, णिग्गंथाण महेसिणं ।। संस्कत--- संयमे सुस्थितात्मानां विप्रमुाक्तनां त्रायिणाम् ।
तेषामेतदनाचीर्ण निम्रन्थानां महर्षिणाम् ।।
मूल- उद्देसियं कीयगडं, नियागमभिहडाणि य ।
राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य बीयणे ।। सन्निही गिहिमत्त य, रायपिंडे किमिच्छए ।
संबाहणा दंतपहोयणा य, संपुच्छणा देहपलोयणाय ।। संस्कृत- औद्देशिकं क्रीतकृतं नित्याग्रमभिहतानि च ।
रात्रिभक्त स्नानं च, गन्धमाल्ये च बोजनम् ।। सन्निधिह्यमत्र च, राजपिण्डः किमिच्छकः । सम्बाधनं दन्तप्रधावनं च, संप्रच्छनं देहप्रलोकनं च ।।
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तृतीय क्षुल्लकाचारकथा अध्ययन
दोहा--संजम-थित बंधन रहित, जिय-रच्छक रिसिराज ।
तिनि निरग्रंथनि के इते, नहिं करिवे के काज ॥ अर्थ जो संयम में भली भांति से स्थित है, सर्व, संग से विमुक्त हैं और जोवों के रक्षक हैं, ऐसे निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए ये आगे कहे जानेवाले कार्य अनाचीर्ण अर्थात् अग्राह्य, असेव्य और अकरणीय हैं ।
(२-३) कवित्त-. मुनि के निमित्त कियो, दान देके जाहि लयो, न्योति दियो आनि दियो
राति को आहार है। न्हायवो सुगंध सेवो, फूलनि की माल लेवो, विजन चलाय लेवो वायु को विहार है। संग्रह को करिवो, गृही के पात्र माहि वो, खराजपिंड, दानशाला हू को दान टार है। मर्दन करानो दंत मंजन. कुसलप्रश्न, दर्पन को देखिवो ये दोष परिहार हैं।
___ अर्थ-औद्देशिक'- साधु के निमित्त बनाया गया, क्रोतकृत-साधु के लिए रीदा गया, नित्यान- निमंत्रित कर नित्य दिया जाने वाला आहार, अभिहृतदूर से सम्मुख लाया गया, रात्रिभक्त'-रात्रिभोजन, स्नान- नहाना, गन्ध- सुगन्धित द्रव्य सूचना या विलेपन करना, माल्य'- --माला पहिरना, वीजन-पंखा से हवा करना । सन्निधि - खाने की वस्तु का संग्रह करना- रात वासी रखना, गृहि-अमत्र'-गृहरथ के पात्र में खाना, राजपिंड'२ राजा के घर से भिक्षा लेना, किमिच्छक 13-क्या चाहते हो, यह पूछ कर दिया जानेवाला भोजनादि लेना। संबाधन ४ शरीर-मर्दन, दन्त-प्रधावन१५-दांत धोना, सप्रच्छन ६ गृहस्थ की कुशल पूछना अथवा संप्रोछन शरीर के अंगों को पोंछना, देहप्रलोकन ७-दर्पण आदि में शरीर को देखना।
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१४
मूल
मूल
संस्कृत
संस्कृत — अष्टापदश्च नालिका छत्रस्य धारणमनर्थाय । चकित्स्यमुपानही पादयोः, समारम्भश्च ज्योतिषः ॥ शय्यातरपिण्डश्च, आसन्दी पर्यङ्ककः । गृहान्तर निषद्या च गात्रस्योद्वर्तनानि च ॥ गृहिणी वैयावृत्त्यं, या च आजीववृत्तिता । तप्तानिवृतभोजित्वं,
आतुरस्मरणानि
च ॥
---
मूल -
(४–५–६ )
अट्ठावए य नाली य, छत्तस्स धारणट्ठाए ।
तेगिच्छं पाणहा पाए, गिहिणो वेयावडियं निव्वुडमोइत
तत्ता
सेज्जायर पड
च,
गिहंतर निसेज्जा य, गायस्सुव्वट्ठणाणि य ॥
,
समारंभं च जोइणो ॥
जाय आजीव वित्तिया । आउरस्सरणाणि य ॥
आसंदी पलियंकए ।
(3)
मूलए
सिंगवेरे य, उच्छुखंडे
अनिवुडे ।
कंदे मले य सच्चित्तं फले बीए य आमए ॥
मूलकं शृङ्गवेरं च, कन्दो मूलं च सचित्तं
दशर्वकालिक सूत्र
फलं
इक्षुखण्डमनिवृतम् । बीजं चामकम् ॥
(5)
सोवच्चले सिंधवे लोणे, रोमालोणे य सामुद्दे पंसुखारे य, कालालोणे य
संस्कृत -- सौवर्चलं सैन्धवं लवणं रूमालवणं सामुद्र पांशुक्षारश्च काललवणं
आमए ।
आमए ॥
चामकम् ।
चामकम् ।।
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१५
तृतीय क्षुल्लकाचारकथा अध्ययन
(४-५-६) कवित्तजुआ खेल, नाली-जुआ, छत्र को धरन सीस, वंदगी को करिवो र पान ही पहरियो । आगि को आरंभ, थान-दानी को अहार लैनो, पीढी खाट बैठियो, घरनि में ठहरियो । अंग को उबटनो, गृही की सेवा करिवो, स्वजाति को प्रकाश करिके ज पेट भरिवो । सचित्त मिश्रित भोग, आतुर है पूरव के भोगनि सुमरिवो ये दोस परिहरिवो ॥
___ अर्ष-अष्टापद१८-जुआ-शतरंज खेलना, नालिका - नाली से पासा डालकर जुआ खेलना, छत्र२०-छतरी धारण करना, चैकित्स्य२१-रोग की चिकित्सा (इलाज) करना, उपानत२२-पैरों में जूता पहिरना, ज्योतिःसमारम्मर 3 अग्नि जलाना, शय्यातरपिण्ड२४- स्थान देने वाले के घर से भिक्षा लेना, आसन्दीपर्य५ कुर्सी-पलंग आदि पर बैठना, गृहान्तरशय्या२६- भिक्षा लेते एपय गृहस्थ के घर बैठना, गात्र-उद्वर्तन"-शरीर का उबटन करना। गहिवैयावृत्त्य२०-गृहस्थ की वैयावृत्त्य करना, आजीव वृत्तित्ता--जाति कुल आदि बताकर भिक्षा प्राप्त करना. तप्तानिर्वतमोजित्व३°---अधपकी और सचित्त मिश्रित वस्तु को खाना, आतुर-स्मरण'—वीमारी आदि आतुरदशा में पूर्व-भुक्त भोगों का स्मरण करना।
दोहा . मूला आदा जीव-जुत, सेलरि के जे खंड ।
___ कंदमूल फल बीज ए, तर्ज सचित सब पिंड ॥
अर्थ- अनिवृत मूलक३२- सजीव मूली लेना या खाना, अनिवृत शृङ्गावर 33 सजीव अदरक लेना व खाना, अनिवृत इन खण्ड ४-- सजीव इच्छुखण्ड लेना व खाना २३५- सजीव कन्द लेना व खाना, सचित्तमूल-सजीव मूल लेना व खाना, मक फल - अपक्व फल लेना व खाना, आमकबीज--- अपक्व बीज लेना
. खाना।
कवित्त- साजी सिन्धु लोन, रोमा खार औ समुद्र-खार ।
ऊसर लवन काला लवन सचित्त है। अर्थ- आमक सौवर्चल-- अपक्व सज्जी खार लेना व खाना, आमक सैन्धव४० - अपक्व सेंधा नमक लेना व खाना, आमक रुमालवण' - अपक्व रोमा खार लेना व खाना, मामक सामुद्र-अपक्व समुद्री नमक लेना व खाना, आमक पांशुक्षार:- अपक्व ऊसर भूमि-जनित नमक का लेना व खाना, आमक काल लवण ४ .... अपक्व काला नमक लेना और खाना ।
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नाविकार, सूत्र
मूल- धूव-गेत्ति वमणे य, वत्थीकम्म विरेयणे ।
अंजणे दंतवणे य, गायम्भंग विभूसणे ॥ संस्कृत-- धूमनेत्र वमनं च वस्तिकर्म विरेचनम् । अञ्जनं दन्तवणं च गात्राभ्यंगविभूषणः ॥
(१०) मूल - सव्वमेयमणाइण्णं णिग्गंथाण महेसिणं ।
संजमम्मि य जुत्ताणं लहुभूयविहारिणं ।। संस्कृत- सर्वमेतदनाचीणं निर्ग्रन्थानां महर्षीणाम् ।
संयमे च युक्तानां लघुभूतविहारिणाम् ।।
मूल -- पंचासवपरिन्नाया, तिगुत्ता छसु संजया ।
पंच णिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो । संस्कृत -- पञ्चास्रवपरिज्ञातास्त्रिगुप्ताः षट्सु संयताः ।
पञ्चनिग्रहणा धीराः निन्या ऋजुदर्शिनः ।।
मूल- आयावयंति गिम्हेसु, हेमतेसू अवाउडा ।
वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया ॥ संस्कृत- आतापयन्ति ग्रीष्मेषु हेमन्तेष्वप्रावृताः ।
वर्षासु प्रतिसंलीनाः संयता सुसमाहिताः ।।
मूल-- परीसहरिऊदंता, धुयमोहा जिइंदिया ।
सम्वदुक्खप्पहीणट्ठा, पक्कमति महेसिणो । संस्कृत- परीषहरिपुदान्ता घुतमोहा जितेन्द्रियाः ।
सर्वदुःखप्रहाणार्थ प्रक्रामन्ति महर्षयः ।।
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१७
तृतीय क्षुल्लकाचारकथा अध्ययन
(९-१०) कवित्तषप न वमन औ वसतिक्रिया विरेचन अंजन वंतवन ए दोष वरजित है । देह को सिंगारिवो, व अलंकृत कारिवो ए दोष सब टारिवो मुनीनिकों उचित है। निर्धन्य महर्षि तप संजम में लगि रहे, लघुभूत हके जे विहार करें नित है। धन्य हैं महर्षि वे धन्य है आचरण तिन, पाप-टारि जो सदा ही धर्म-रत हैं।
अर्थ-धुमनेत्र४५.-धूम्रपान की नलिका रखना अथवा धूप देना, वमनरोग को दूर करने के लिए वमन करना, वस्तिकर्म -रोग की संभावना से बचने के लिए एवं उदर शोधन के लिए गुदाद्वार से तेल आदि चढ़ाना, विरेचन ८-जुलाब लेना, अंजन:-आँखों में अंजन लगाना, दन्तवण५०-दातुन करना, गात्र-अभ्यंगतैल-मर्दन करना, विभूषण५१– शरीर को अलंकृत करना। ये सब कार्य संयम में लीन एवं वायु के समान लाघवयुक्त होकर उन्मुक्त विहार करने वाले निग्रंथ महर्षियों के लिए अनाचीर्ण हैं, अर्थात् करने योग्य नहीं हैं।
(११-१२) कवित्तहिसा झूठ चोरी और कुसील परिपह ऐसे पंच आत्रवनि को जिननि जानि लोने हैं। मन वच काय ऐसी तीन हूँ गुपति गहैं, छहकाय हिंसा टारें संजम प्रवीने हैं। पंच इन्द्रो दमन करन है धरन धोर, निग्रन्थ सरल दीठ मोख पंथ चोने हैं। प्रोसम आताप सहें सोत में उघार रहैं, वर्षा में संवर गहैं साधु ध्यान कोने हैं ।
अयं-हिसादि पांच पापों को जानकर उनका परित्याग करने वाले, तीन गुप्तियों से गुप्त, छह काय जीवों के प्रति संयत, पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करने वाले र वीर निर्ग्रन्थ साधु ऋजुदर्शी अर्थात् सब पर समान दृष्टि रखने वाला मोक्षमार्गमें होते हैं।
(गाथा १२ का पद्य भाग पूर्व कवित्त के चतुर्थ चरण में समाविष्ट है।)
अर्थ -- सुसमाहित निम्रन्थ ग्रीष्म काल में सूर्य की आतापना लेते हैं, हेमन्तशीतकाल में खुले वदन रहते हैं और वर्षाकाल में प्रतिसंलीन अर्थात् एक स्थान पर या एकान्त में रहते हैं।
(१३)
दोहा-परिसह-अरि दमि मोह तजि, इंजिनि करी अधीन ।
करत पराक्रम रिसि महा, होन सकल दुख-हीन ॥ अर्थ- परीषहरूपी शत्रुओं का दमन करनेवाले, मोह-रहित जितेन्द्रिय महर्षि सर्व दुःखों के नाश के लिए पराक्रम करते हैं ।
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१८
मूल— दुक्कराइ केइत्थ
संस्कृत- दुष्कराणि
केचिदत्र
मूल
संस्कृत — क्षपयित्वा
(१४) करेत्ताणं, दुस्सहाइ सहेत्त य । देवलोएस, केई सिज्झन्ति नीरया ॥
दशवैकालिक सूत्र
कृत्वा दुःसहानि सहित्वा च ।
देवलोकेषु केचित् सिध्यन्ति नीरजसः ॥
"
(१५)
खवित्ता पुग्वकम्माई, संजमेण तवेण य । सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइणो
पूर्वकर्माणि संयमेन सिद्धिमार्गमनुप्राप्तास्त्रायिणः
[ ]
परिनिथ्बुडा ॥ त्ति बेमि
-
तपसा च ।
परिनिर्वृताः ॥
- इति ब्रवीमि
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तृतीय क्षुल्लकाचारकथा अध्ययन
(१४)
दोहा - बुसकर
करि, दुःसहनि
किते करम-रज रहित हुइ
सहि, कइक जात सुर लोग । सिद्धि संयोग ॥
लहत
अर्थ - दुष्कर तपों को करते हुए, दुःसह उपसर्गों और परीषहों को सहते हुए उन निर्ग्रन्थों में से कितने ही तो आयु पूर्ण कर देवलोक जाते हैं और कितने ही निर्ग्रन्थ नीरज - कर्मरज-रहित हो सिद्ध होते हैं ।
(१५)
दोहा संजम सों तपसों सुकति-पंथ प्रापत
अर्थ – संयम (संबर) एवं तप श्री-रक्षक संयमी मुक्ति मार्ग (मोक्ष) को प्राप्त कर लेते हैं ।
तथा पूर्व करम करि हान |
मये
रच्छक लह निरवान ॥
१६
LJ
के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करके वे
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चउत्थं छज्जीवणिया अज्झयणं
मूल- सुयं मे आउसं ! तेण भगवया एवमक्खायं-इह खलु छज्जी
वणिया णामायणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता सेयं मे अहिन्झि अज्झयणं
धम्मपन्नत्ती। संस्कृत- श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातं ---इह खलु
षड्जीवनिका नामाध्ययनं श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुप्रज्ञप्ता श्रेयो मेऽध्येतुमध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः ।
(२)
मूल- कयरा ब्लु सा छज्जीवणिया नामायणं समणेणं भगवया
महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता सेयं मे अहि
ज्जि अज्झयणं धम्मपन्नत्ती। संस्कृत- कतरा खलु सा षड्जीवनिका नामाध्ययनं श्रमणेन भगवता
महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुप्रज्ञप्ता श्रेयोमेऽध्येतुमध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः ।
मूल- इमा बलु सा छज्जीवणिया नामज्या समणेणं भगवया
महावोरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपत्नत्ता सेयं मे
२०
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
चौपाई- चिरंजीव, मैंने यों सुन्यो, वा भगवतने ऐसो मन्यो ।
निश्चयतें षट्जीवनिकाय, नामक जो यह हैं अध्याय ॥१॥ महावीर अमन जु भगवान्, काश्यपगोत्री ने यह जान। भली भांति सों भाल्यो याहि भली-भाँति परकास्यो ताहि ।।२।। .
सो पढ़नो उत्तम है मोय, धरम ज्ञान को पाठ जु सोय।
अर्थ-हे आयुष्मन्, मैंने सुना है उन भगवान् ने इस प्रकार कहा-निन्य प्रवचन में निश्चय ही षड्जीविनिका नामक अध्ययन काश्यपगोत्री श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रवेदित सु-आख्यात और सु-प्रज्ञप्त है। इस धर्म-प्रज्ञप्ति अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेयस्कर है।
चौपाई- निहचयतें षट् जीवनिकाय, नामक कौन अहे अध्याय ।
महावीर स्त्रमन जु भगवान, काश्यपगोत्री ने जो जान ॥१॥ भली भांति सों भाल्यो जाहि, भली-भांति परकास्यो आहि ।
सो पढ़नो उत्तम है मोय, धरम ज्ञान को पाठ ज होय ॥२॥
अर्थ-यह षड्जीवनिका नामक अध्ययन कौन-सा है जो काश्यपगोत्री श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रवेदित सु-आख्यात और सु-प्रज्ञप्त है, जिस धर्म-प्रज्ञप्ति अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेयस्कर है ? ।
चौपाई- निहवय तें षट्जीवनिकाय, नामक यह कहियत अध्याय ।
महावीर वमन जु भगवान, काश्यपगोत्री ने जो जान ||१||
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दशवकालिकसूत्र अहिज्जिउ अझयणं धम्मपन्नत्ती तं जहा.-- पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस इकाइया तस
काइया।
संस्कृत- इमा खलु सा एड्जीवनिका नामाध्ययनं श्रमणेन भगवता महा
वीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुप्रज्ञप्ता श्रेयो मेऽध्येतुमध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः । तद्यथा-पृथिवीकायिकाः अप्कायिकाः तेजस्कायिकाः वायुकायिकाः वनस्पतिकायिकाः त्रसकायिकाः ।
मूल- पुढवी चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता, अन्नत्थ सत्थ
परिणएणं। संस्कृत- पृथिवी चित्तवती आख्याता अनेक जीवा पृथक्सत्त्वा, अन्यत्र
शस्त्रपरिणतायाः।
मूल-
संस्कृत
आऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता, अन्नत्थ सत्थपरिणएणं। आपश्चित्तवत्यः आख्याता अनेकजीवा पृथक्सत्त्वा, अन्यत्र शस्त्रपरिणताभ्यः।
मूल- तेऊ चित्तमंतमाक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता, अन्नत्थ सत्थ
परिएणं। संस्कृत- तेजश्चित्तवत् आख्यातमनेकजीवं पृथक् सत्त्वम्, अन्यत्र शस्त्र
परिणतात् ।
मूल- वाऊ चित्तमंतमाक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता, अन्नथ सत्थ
परिणएणं। संस्कृत - वायुश्चित्तवान् आख्यातः अनेकजीवः पृथक्सत्त्वः, अन्यत्र शस्त्र
परिणतात् ।
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२३
चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
भली भांति से भाख्यो याहि, भली भांति परकास्यो आहि । सो पढ़नो उत्तम है मोय, धरम ज्ञान को पाठ ज सोय ॥२॥ वे हैं ये खट् जीव निकाय, पृथिवी जल अरु तेज ज काय ।
वायु और वनस्पतिकाय, छठा भेद प्रसकाय लहाय ॥३॥
अर्थ-षट्जीवनिका नामक अध्ययन--जो काश्यपगोत्री श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रवेदित, सु-आख्यात और सु-प्रज्ञप्त है, जिस धर्म-प्रज्ञप्ति अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेयस्कर है-वे छह जीवनिकाय इस प्रकार हैं-पृथिवीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक ।
दोहा- शस्त्र-घात को छोड़कर, पृथिवी कही सचित्त ।
रहहिं अनेकों जीव तह, भिन्न-भिन्न सब सत्त ॥ अर्थ-शस्त्राघात के सिवाय पृथिवी सचेतन कही कई है, उसमें अनेक जीव हैं और सबकी भिन्न-भिन्न सत्ता है।
(५)
दोहा- शस्त्र-घात को छोड़कर, जलको कहा सचित्त ।
रहहिं अनेकों जीव तह, भिन्न-भिन्न सब सत्त ॥ अर्थ-शस्त्राघात के सिवाय जल सचेतन कहा गया गया है, उसमें अनेक जीव हैं और सबकी भिन्न-भिन्न सत्ता है ।
बोहा- शस्त्र-घात को छोड़कर, कहि है अगनि सचित्त ।
रहहिं अनेकों जीव तह, भिन्न-भिन्न सब सत्त । अर्थ ---शस्त्राघात के सिवाय अग्नि सचेतन कही गई है, उसमें अनेक जीव हैं और सबकी भिन्न-भिन्न सत्ता है।
दोहा- शस्त्र-घात को छोड़कर वायू कही सचित्त ।
रहहिं अनेकों जीव तह, भिन्न-भिन्न सब सत्त । अर्ष-शस्त्राघात के सिवाय वायु सचेतन कही गई है, उसमें अनेक जीव हैं और सबकी भिन्न-भिन्न सत्ता है।
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दशवकालिक सूत्र
(क)
मूल- वसई चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढो सत्ता, अन्नत्य
सत्थ परिणएण। संस्कृत- वनस्पतिश्चित्तवान् आख्यातः अनेकजीवः पृथक्सत्वः, अन्यत्र
शस्त्रपरिणतात् । मूल- तं जहा-अग्गबीया मूलबोया पोरबोया खंधबीया बीयरुहा
सम्मुच्छिमा तणलया वणस्सइकाइया सबीया चित्तमंतमक्खाया
अणेगजीवा पुढो सत्ता अन्नत्य सत्य परिणएणं । संस्कृत- तद्यथा-अग्रबीजाः मूलबीजाः पर्वबीजाः स्कन्धबीजाः बीजरुहाः
सम्मूर्छिमाः तृणलताः वनस्पतिकायिकाः सबीजाः चित्तवन्त आख्याताः अनेकजीवाः पृथक्सत्त्वाः अन्यत्र शस्त्रपरिणतेभ्यः ।
मूल-
से जे पुण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा, तं जहा- अंडया पोयया जराउमा रसया संसेइमा सम्मुच्छिमा उमिया उबवाइया । जेसि केसिंचि पाणाणं अभिक्कंतं पडिक्कंतं संकुचियं पसारियं रुयं मंतं तसियं पलाइयं आगइ-गइविनाया जेय कोड-पयंगा जा य कुथु पिपीलिया सवे बेइंदिया सवे तेइंदिया सब्वे चरिदिया सव्वे पंचिदिया सवे तिरिक्खजोणिया सम्वे नेरइया सव्वे मण्या, सब्वे देवा सम्वे पाणा परमाहम्मिया एसो खलु छठ्ठो जोवनिकाओ तसकाओ ति पवच्चई।
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
२१
दोहा- शस्त्र-घात को छोड़कर, कहे वृक्षादि सचित्त ।
रहहिं अनेकों जीव तह, भिन्न-भिन्न हैं सत्त ॥ अर्थ-शस्त्राघात के सिवाय वनस्पति सचेतन कही गई है, उसमें अनेक जीव हैं और सबकी भिन्न-भिन्न सत्ता है । कवित्तअग्रबीज मलबीज पर्वबीज खंघबीज, बीजगह और ह सम्मच्छिम आनिये । तृण और लता आदि जाति हैं अनेकविध तिन सबही को सचित्त मानिये । कही सब वनस्पति अनेकनि जीवमई, भिन्न-भिन्न सबहो की सत्ता को निहारिये, शस्त्र-घात भये पाछे सबहिं अचित्त होय, ऐसो जिन-मासी तत्त्व मन में विचारिये ॥
अर्थ-अप्रबोज-कोरंटक आदि-जिनका बीज (उत्पादक अंश) ऊपर के अग्रभाग में हो, मूलबीज - उत्पल-कन्द आदि-जिनका बीज मूल (जड़) में हो, पर्वबीज - इक्षु आदि, जिनका पर्व (पोर) ही बीज रूप होता है, स्कन्धबीज-थूहर आदि, जिनका स्कन्ध ही बीजरूप होता है, बीजरूह-गेहूं आदि धान्य के बीज जिनसे अंकुर उत्पन्न होता है, समूच्छिम-लीलन-फूलन काई आदि जो बिना बीज के ही उत्पन्न हो, तृण-सभी जाति की घास, लता-पृथ्वी पर फैलने वाली और वृक्षादि पर लिपटने वाली बेलि-वल्लरी आदि । इस प्रकार जिनका मूल, स्कन्ध, पर्व, अग्रभाग और बीज आदि उत्पादक शक्ति से युक्त वनस्पति है, वह सर्व 'सबीज' कहलाती है। ये सभी सबीज वनस्पतियां चित्तमन्त-सचेतन या सचित्त कही गई है। उनमें अनेक जीव रहते हैं और उन सब जीवों की पृथक्-पृथक् सत्ता है।
जे पुन त्रस जीव वे हैं अनेक जाति अंडज पोतज जरायुज जानिये, रसज संस्वेदज सम्मूच्छिम उद्भिज औपपातिक भेद ये उनके ही मानिये। जो प्राणी सामें जाहिं भीति देखि पीछे हटें संकोचें ता पसारे अंग शब्द को करें हैं, इत जाहिं उतजाहिं भय देखि बोड़ जाहि, गति और आगति के ज्ञाता त्रस कहे हैं। ऐसे लट केंचु आदि अनेक बेईनोजोव, कुंथ-पिपीलिकादि तेइन्द्री जानिये, भौरे मक्खी मच्छरादि चउ इन्द्रियजीव, नारक मनुज देव पंचेन्द्री मानिये । जलचर थलचर नभचर पंचेन्द्री तियंच, सन्नी परमाधामी देव, या जो सुख चाहें हैं, ऐसे सभी त्रस जीव छठे प्रसकाय-मांहि, इहि भांति जिनेसुर देव ने गाये हैं।
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दशवकालिकसूत्र संस्कृत- अथ ये पुनरिमे अनेके बहवस्त्रसाः प्राणिनः, तद्यथा-अण्डजाः
पोतजाः जरायुजाः रसजाः संस्वेदजाः सम्मूच्छिमा उद्भिजाः औपपातिकाः । येषां केषाञ्चित् प्राणिनां अभिक्रान्तं प्रतिक्रान्तं सङ्क चितं प्रसारितं रुतं भ्रान्तं त्रस्तं पलायितं आगति-गतिविज्ञातारः ये च कीट-पतंगा याश्च कुन्थु-पिपीलिकाः सर्वे द्वीन्द्रियाः सर्वे त्रीन्द्रियाः सर्वे चतुरिन्द्रियाः सर्वे पञ्चेन्द्रियाः सर्वे तिर्यग्योनिकाः सर्वे नैरयिकाः सर्वे मनुजाः सर्वे देवाः सर्वे प्राणाः परमाधार्मिका । एष खल षष्ठो जीवनिकायस्त्रसकाय इति प्रोच्यते।
मूल · इच्चेसि छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारभेज्जा,
नेवन हि दंडं समारम्भावेज्जा दंडं समारंभंते वि अन्न न समणुजाणेज्जा. जावज्जीवाए तिविहिं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि, करंत पि अन्न न समणुजाणामि, तस्स भन्ते! पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं
वोसिरामि। संस्कृत- इत्येषां षण्णां जीवनिकायानां नैव स्वयं दण्डं समारभेत,
नैवान्यदण्डं समारम्भयेत्, दण्डं समारभमाणानंप्यन्यान् न समनुजानीयात् यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि ! तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गहें आत्मानं व्युत्सृजामि ।
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चतुर्थ षट्जीवनिका अध्ययन
अर्थ और ये बहुविध अनेक त्रस प्राणी हैं, जैसे-अण्डज-अंडों से उत्पन्न होने वाले मोर आदि, पोतज-जेर आदि आवरण के बिना उत्पन्न होने वाले हाथी आदि, जरायुज-जेर से वेष्टित उत्पन्न होने वाले गाय-भैंस आदि, रसज-दूध, दही आदि रसों में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म जन्तु (जर्स GERMS), संस्वेदक-पसीने से उत्पन्न होने वाले जू आदि सम्मूर्छिम बाहिरी इधर-उधर के जल-मिट्टी आदि के संयोग से उत्पन्न होने वाले कीट-- चींटी आदि, उद्भिक-पृथ्वी को भेदकर उत्पन्न होने वाले पतंगा आदि पंखवाले प्राणी, औपपातिज-उपपात जन्म से उत्पन्न होने वाले देव और नारकी। ये सभी जीव त्रसकाय हैं। अर्थात् जिन किन्हीं प्राणियों में सामने जाना, पीछे हटना, संकुचित होना, फैलना, शब्द करना, इधरउधर जाना, भय-मीत होना, दौड़ना ये क्रियाएं पाई जाती हैं और जो गति-आगति के ज्ञाता हैं, ऐसे सभी जीव त्रस कहलाते हैं। उनमें लट-केंचुआ आदि द्वीन्द्रिय जीव हैं, चींटी-चींटादि त्रीन्द्रिय जीव हैं, मक्खी-मच्छरादि चतुरिन्द्रिय जीव हैं, पांच इन्द्रियों वाले गाय-भैंस आदि सभी पशु और पक्षी आदि तिर्यग्योनिक, सर्व नारक, सर्व मनुष्य, सर्व देव (परमाधामी आदि असुर और सुर) ये सभी छठे त्रसकायिक जीव कहलाते हैं ।
(१०) दोहा- इत छह जीव निकाय का, स्वयं करे नहिं घात ।
नहीं करावे और सों, कभी जीव-संघात ॥१॥ परको करते देखकर, अनुमोदै न कटाप । जाव जीव प्रय करण से, छोड़े हिंसा पाप ॥२॥ मनसे बचसे काय से, करू न कराउ शूल' । करने की अनुमोदना, करू न कबहूं भूल ॥३॥ भूतकाल के दंश से, भगवन ! होउ निवृत्त ।
निंदा गरिहा करहि कं, होऊँ त्याग-प्रवृत्त ॥४॥ अर्थ-पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय ये पाँच पावरकाय तथा द्वीन्द्रियादि सकाय, इन छहों जीव-निकायों का स्वयं दण्ड-समारम्भ नहीं करे, दूसरों से दण्ड-समारम्भ नहीं करावे, और दण्ड-समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करे। यावज्जीवन के लिए इस प्रकार कृत, कारित, अनुमोदना इन तीन करणों से तथा मन, वचन, काय इन तीन योगों से न करूंगा, न कराऊंगा
और करने वाले अन्य की अनुमोदना भी नहीं करूंगा। हे भगवन्, मैं भुतकाल में किये जीवघातरूप दंड-समारंभ से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं। १ प्राण-पीड़न ।
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(११) पढमं अहिंसामहव्वयं
पढमे भंते ! महव्वए पाणाइवायाओ बेरमणं सव्वं भंते ! पाणाइवायं पच्चक्खामि - से सुहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा नेव सयं पाणे अइवाएज्जा, नेवन्न हि पाणे अइवायावेज्जा, पाणे अइवायंते वि अन्न न समणुजाणेज्जा, जावज्जीवाए तिर्वािह तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करोमि, न कारवेमि, करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते पडिक्कमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । पढमे भंते, महत्रए उवट्ठिओमि सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं । संस्कृत — प्रथमं भदन्त ! महाव्रते प्राणातिपाताद्विरमणम् । सर्वं भदन्त ! प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि --- अथ सूक्ष्मं वा बादरं वा त्रसं वा स्थावरं वा नैव स्वयं प्राणानतिपातयामि नैवान्यैः प्राणानतिपातयामि, प्राणानतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि । यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त, प्रतिकामामि निन्दामि गर्हे आत्मानं व्युत्सृजामि । प्रथमे भदन्त, महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मात् प्राणातिपाताद्विरमणम् ।
मूल --
,
दशवेकालिक सूत्र
(१२)
बिइयं मुसावायवमण महव्वयं
मूल- अहावरे दोच्चे मंते ! महत्वए मुसावायाओ वेरमणं सम्बं भंते! मुसावायं पच्चक्खामि से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा नेव सयं मुसं वएज्जा, नेवन्न हि मुलं वायावज्जा, मुसं वयंते वि अन्न ेन समणुजाणेज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेम करतं पि
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
(११)
प्रथम अहिंसा महाव्रत चौपाई- प्रथम महावत में भगवंत, प्राणि-घात से होऊ विरंत ।
भगवन्, तजू सकल जिय-घात, हों या सूक्ष्म धूल बहु भात ॥१॥ स्वयं करत नहिं उनका घात, नहीं कराऊ परसे घात । जो करते हैं पर अतिपात. अनुमोदन न करू जगतात ॥२॥ तीन योग शिकरण सम्हार, कर कभी नहिं जीव-संहार ।।
नहीं कराऊं प्राण-संहार, अनुमोदूं नहिं पर-संहार ॥३॥ दोहा- भूतकाल के घात से, भगवन् ! होऊ निवृत्त ।
निन्दा गरिहा करहिं के, होऊ त्याग-प्रवृत्त । पाई- प्रथम महावत में इह भात, भया उपस्थित हे जग-त्रात ।
यह हिंसा परिहार-स्वरूप, प्रथम महावत है व्रत-भूप ॥१॥ . अर्थ- भते, पहिले महाव्रत में प्राणातिपात से विरमण होता है । भगवन्, मैं सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान (त्याग करता है- सूक्ष्म या बादर (स्यूल), बस या बादर, जो भी प्राणी हैं उनके प्राणों का अतिपात (घात) मैं स्वयं नहीं करूंगा, दूसरों से नहीं कराऊंगा और प्राणघात करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से (मन से, वचन से, काय से) न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। भगवन्, मैं भूतकाल में किये जीवघात से निवृत्त होता हूं, उनकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं । इस प्रकार हे भगवन्, मैं प्राणातिपात (जीव-घात के ग के लिए उपस्थित हुआ हूं।
(१२) द्वितीय मषावादविरमण महाव्रत चौपाई- दुतिय महाव्रत में भगवन्त, मृषावाद से होऊं विरंत ।
भगवन् मषावाद सब तजू अप्रिय कटुक वचन नहिं कहूं ॥१॥ क्रोध लोभ और भय परिहास, ले इनका निमित्त का खास । बोलू स्वयं न मूठे वैन, नहीं बुलाऊं कर पर-सैन' ॥२॥
१
संकेत ।
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३०
दशवकालिकसूत्र अन्न न समणुजाणामि , तस्स मंते, परिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। दोच्चे भंते, महव्यए उवट्ठि
ओमि सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं । संस्कृत-- अथापरे द्वितीये भदन्त ! महाव्रते मृषावादाद्विरमणम् । सर्व भदन्त,
मृपावादं प्रत्याख्यामि-अथ क्रोधादा लोभाद्वा भयाद्वा हासाद्वा नैव स्वयं मृषा वदाभि, नवान्यम॒षा वादयामि मृषा वदतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त प्रतिक्रामामि निन्दामि गहें, आत्मनं व्युत्सृजामि । द्वितीये भदन्त ! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्माद् मृषावादा द्विरमणम् ।
(१३) तइयं अदिन्नदाणवेरमणं महव्वयं अहावरे तच्चे भंते ! महव्वऐ अविनादाणाओ वेरमणं सव्वं भंते अविनादाणं पच्चक्खामि-से गामे वा नगरे वा रणे वा अप्पं वा बहुं वा अणु वा थूलं वा, चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन्नं गेण्हेज्जा. नेवहिं अदिन्नं गेण्हावेज्जा, अदिन्नं गेण्हते वि अन्ने न समगुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाएं कारणं न करेमि, न कारवेमि, करतं पि अन्न न समणुजाणामि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । तच्चे भंते, महव्वए उवढिओमि सव्वाओ
अविनावाणाओ वेरमणं। संस्कृत- अथापरे तृतीये भदन्त ! महाव्रते अदत्तादानाद् विरमणम् ।
सर्व भदन्त, अदत्तादानं प्रत्याख्यामि-अथ ग्रामे वा नागरे वा
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
चौपाई
बोलत मृषा जो कोई होय. करू न अनुमोदन में सोय । तीन योग त्रिकरण बसाय, मृषावाद करूं न कराय || ३॥ अनुमोदन भी कभी न करिहूं, सत्य वचन में भाव जु रखिहूं । पूरब दोष जु लागो होय, निन्दा गरिहा कर तजु सोय ॥४॥ दुतिय महाव्रत में इह भांत, भया उपस्थित हूं जगत्रात । मृषावाद - परिहार स्वरूप, दुतिय महाव्रत है ये अनूप ॥ ५ ॥
अर्थ - मन्ते ! इसके पश्चात् दूसरे महाव्रत में मृषावाद से विरमण होता है । भगवन्, मैं सर्व मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हूं - क्रोध से, या लोभ से, भय से या हंसी से, मैं स्वयं असत्य नहीं बोलूंगा, दूसरों से असत्य नहीं बुलवाऊंगा और असत्य बोलने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । यावज्जीवन के लिए तीन करण और तीन योग से - मन से, वचन से, काय से मृपावाद न करूंगा, न कराऊंगा और मृपा (असत्य) बोलने वाले का अनुमोदन भी नही करूंगा । भगवन् मैं भूतकाल के मृपावाद से निवृत्त होता हूं. उसकी निन्दा करता हूं, गर्हा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं । भगवन्, इस प्रकार से मैं मृपावाद विरमरण स्वरूप दूसरे महाव्रत में उपस्थित हुआ हूं ।
――
(१३)
तृतीय अदत्तादानविरमण महाव्रत
३१
तृतीय महाव्रत में भगवन्त, चोरी से मैं होऊ विरंत । विन दी सर्व वस्तुएं तजूं, जिससे चौर्य दोष से बचूं ||१|| गिरी पड़ी हों ग्राम-मशार, वन नगरादिक देश-विसार । अल्प मूल्य हों या बहुमूल, लघु होवें या होवें थूल ॥२॥ हों संचित, या होय अचित्त, स्वयं गहूं नहि कभी अदत्त । कहूं न परसे लेने काज, गिरी पड़ी तुम लेहु समाज || ३ || चोरी करता जो भी होय, अनुमोदन मी करू न सोय | जाव जीव यों तीन प्रकार, मन वच काया से परिहार ॥४॥ पूरव दोष जु लाग्यो होय, निन्दा गरिहा करि तजु सोय ।
तृतिय महाव्रत में इह मांत, भया उपस्थित हूं, जगतात ॥५॥
अर्थ – भन्ते ! इसके पश्चात् तीसरे महाव्रत में अदत्तादान से विरमण होता
है । हे भगवन्, मैं सर्व अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूं - गांव में, नगर में या वन में कहीं भी अल्पमूल्य या बहुमूल्य, सूक्ष्म ( थोड़ी) या स्थूल ( बड़ी ) सचित्त या अचित्त, किसी भी प्रकार की अदत्त ( बिना दी ) वस्तु का मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा,
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दशवकालिक सूत्र अरण्ये वा स्वल्पं वा बहुं वा अणु वा स्थूलं वा चित्तवडा अचित्तवद्वा नव स्वयमदत्तं गृह्णामि, नवान्यरदत्तं ग्राहयामि, अदत्तं गृह्णतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि । यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हे आत्मानं व्युत्सृजामि । तृतीये भदन्त महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्माददत्तादानाद्विरमणम् ।
(१४)
चउत्थं मेहुणविरमणं महव्वयं मूल- अहावरे चउत्थे भंते ! महव्वए मेहुणाओ वेरमणं सव्वं भंते,
मेहुणं पच्चक्खामि-से दिव्वं वा, माणुसं वा, तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहुणं सेवेज्जा, नेवन हि मेहुणं सेवावेज्जा, मेहुणं सेवंते वि अन्न न समणुजाणेज्जा । जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवैमि करतं पि अन्न न समणुजानामि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि निदामि
गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । संस्कृत– अथापरे चतुर्थे भदन्त ! महाव्रते मैथुनाद् विरमणम् ! सर्व
भदन्त, मैथुनं प्रत्याख्यामि-अथ दिव्यं वा, मानुषं वा, तिर्यग्यो निकं वा-नैव स्वयं मैथुन सेवे, नैवान्यमैथुन सेवयामि, मैथुन सेवमानमप्यन्यान्न समनुजानामि यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेनमनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त, प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि । चतुर्थे भदन्त, महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्माद् मथुनाद् विरमणम् ।
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन दूसरे से अदत्त वस्तु का ग्रहण नहीं कराऊंगा, और अदत्त वस्तु ग्रहण करने वालों का कभी अनुमोदन भी नहीं करूंगा। यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से -मन से, वचन से, काय से-न चोरी करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। भगवन् मैं भूतकाल के अदत्तादान से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं। हे भगवन्, इस प्रकार से मैं अदत्तादान के त्यागरूप तीसरे महाव्रत में उपस्थित हुआ हूं।
(१४)
चतुर्थ मैथुनविरमण महाव्रत चौपाई- चौथे महाव्रत में भगवंत, मैथुन से मैं होऊ विरंत ।
भगवन, मंचन तीन प्रकार, उसका मैं करता परिहार ॥१॥ हो वह मानुष या पशु-संग, हो या देव-देवियों संग । सेऊं मैथुन स्वयं न देव, पर से भी न कराऊं सेव ॥२॥ जो जन मैथुन सेवन करें, उनको अनुमोदन परिहरें । जाव जीव यों तीन प्रकार, मन वच काया से परिहार ॥३॥ करूं न कराऊ मैथुन-सेव, अनुमोदन भी त्यागू देव । यो तिय-पुरुष मिथुन के काम, त्यागि बनू मैं शुद्ध ललाम ॥४॥ पूरव भोग जु भोगे होय, निदा गरिहा करि तर्नु सोय ।
चौथे महावत में इह भांत, भया उपस्थित हे जगतात ॥५॥
अर्थ-भन्ते, इसके पश्चात् चौथे महाव्रत में मैथुन से विरमण होता है। नगवन्, सब प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूं-देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी अथवा तिर्यंच-सम्बन्धी मैथुन का मैं स्वयं सेवन नहीं करूंगा, दूसरों से मथुन सेवन नहीं कराऊंगा और मैथुन सेवन करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। यावब्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से-मन, वचन, काय-से न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । भन्ते, भूतकाल में किये गये मैथुन-सेवन से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं. गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं । भगवन्, मैं चौथे महाव्रत में सर्व मथुन-सेवन से विरत होकर उपस्थित होता हूं।
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दशवकालिक सूत्र
पंचमं परिग्गहवेरमणं महव्वयं मूल- अहावरे पंचमे भंते ! महब्बए परिग्गहाओ वेरमणं सव्वं भंते
परिग्गहं पक्चक्खामि-से गामे वा नगरे वा रणे वा, अप्पं वा, बहुं वा, अणुवा थूलं वा, चित्तमंतं वा अचित्तमंत वा, नेव सयं परिग्गहं परिगेण्हेज्जा, नेवहिं परिग्गह परिगेव्हावेज्जा, परिग्गहं परिगेण्हते वि अन्न न समणुजाणेज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि, करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते, पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । पंचमे
भंते महव्वए उवढिओमि सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं । संस्कृत - अथापरे पंचमे भदंत ! महाव्रते परिग्रहाद्विरमणम् । सर्व भदन्त,
परिग्रहं प्रत्याख्यामि-अथ ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा अल्पं वा बहुं वा, अणु वा स्थूलं वा, चित्तवन्तं वा अचित्तवन्तं वा, नैव स्वयं परिग्रहं परिगृह्णामि, नवान्यः परिग्रहं परिग्राहयामि, परिग्रहं परिगृहृतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि, यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन-मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त, प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हे आत्मानं व्युत्सृजामि । पञ्चमे भदन्त, महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्माद् परिग्रहाद्विर• मणम् ।
छट्ठो राइ-भोयणावेरमणव्वयं अहावरे छठे भंते ! वए राईभोयणाओ बेरमणं सव्वं भंते, राइमोयणं पच्चक्खाम-से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा नेव सयं राइं भुजेज्जा. नेवन हिं राइं भुजावेज्जा राई भुजते वि अन्न न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
(१५) पंचम परिग्रहविरमण महाव्रत
चौपाई - पंचम महाव्रत में भगवंत, होऊ सब परिगह से विरंत । भगवन, परिग्रह विविध प्रकार, सबका में करता परिहार ॥१॥ वह हो ग्राम या नगर - मंझार, खेत बाग वन का विस्तार । अल्प सूक्ष्म जो आगम-मना, धन-धान्यादिक होवे घना ॥२॥ हो सचित्त या होय अचित्त, दासी-वास गृहादिक वित्त । नहीं स्वयं मैं परिग्रह गहूं, नहीं अन्य को प्रेरित करूं ॥ ३ ॥ परिग्रह को गहते जन जोय, करूं न अनुमोदन भी सोय । जाव जीव यों तीन प्रकार, मन वच काया से परिहार ॥४॥ पूरव दोष जु लाग्यो होय, निंदा गरिहा करि तजु सोय । पंचम महाव्रत में इह भांत, भया उपस्थित हूं जगजात ||५||
अर्थ – भन्ते, इसके पश्चात् पांचवें महाव्रत में परिग्रह से विरमण होता है । भगवन् मैं सर्व प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूं—गांव में, नगर में या अरण्य में कहीं भी अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त - किसी भी परिग्रह का ग्रहण मैं स्वयं नहीं करूंगा, दूसरों से परिग्रह का ग्रहण नहीं कराऊंगा और परिग्रह को ग्रहण करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से मन से, वचन से, काय से- न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले अन्य जनों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । भगवन्, मैं भूतकाल के परिग्रह से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं । मैं पांचवें महाव्रत में सर्व परिग्रह से निवृत्त होकर उपस्थित हुआ हूं ।
(१६)
छट्ठा रात्रि-भोजन- विरमण-व्रत
1
धरू रात्रि-भुक्ति को मैं परिहरु । अशन पान खाद्य अरु स्वाद्य, ये मेरे निशि में हैं त्याज्य ॥ १ ॥ नहीं खिलाऊं पर को कभी, रात्रि-अशन से बचिहूं तभी । निशि में खाने की मैं भूल
करूं न अनुमोदन
अघ -मूल ॥२॥
३५
चौपाई - अब भगवन्, छट्ठा व्रत
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३६
संस्कृत— अथापरे षष्ठे भदन्त ! व्रते रात्रिभोजनाद् विरमणम् । सर्वं भदंत, रात्रिभोजनं प्रत्याख्यामि -- अथ अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य ं वा नैव स्वयं रात्रो भुजे, नैवान्यान् रात्री भोजयामि, रात्री भुञ्जानानप्यन्यान् न समनुजानामि यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करेमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त, प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हे आत्मानं व्युत्सृजामि । षष्ठे भदन्त व्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्माद् रात्रिभोजनाद्विरमणम् ।
(१७)
इच्चेयाई पंच महत्वयाई राइभोयणवेरमणं छट्ठाई अत्तहियट्ट्याए उवसंपज्जित्ता णं विहरामि ।
मूल-
दशवेकालिक सूत्र
तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेम करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । छट्ठे भंते, वए उवट्ठिओमि सव्वाओ राइभोयणाओ वेरमणं ।
मूल-
(१८)
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय विरय-पडिहय-पच्चक्वायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सु वा जागरमाणे वा-से पुढविं वा भित्ति वा सिलं वा लेलु (लोट्ठ) वा ससरवखं वा कार्य ससरक्खं वा वत्थं हत्थेण वा पाएण वा कट्ठेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा सलागहत्थेण वा न आलिहेज्जा न विलिहेज्जा न घट्टज्जा न भिंदेज्जा अन्नं वा न आलिहावेज्जा न विलिहावेज्जा न घट्टावेज्जा न भिंवावेज्जा अन्न आलिहंतं वा विलिहतं वा घट्टतं वा भिवंतं वा न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
तीन करण अरु मन वच काय, जावजीव को त्याग कराय । निशि-भोजन से होऊ विरक्त, कारित अनुमोदन-संयुक्त ॥३॥ पूरव दोष ज लाग्यो होय, निदा गरिहा करि तजसोय । छठे व्रत में मैं इह भात, भया उपस्थित हूं जगतात ॥४॥
अर्थ - भन्ते, इसके पश्चात् छठे व्रत में रात्रि-भोजन से विरमण होता है। भगवन, मैं सर्व प्रकार के रात्रि-भोजन का प्रत्याख्यान करता हूं अशन (दाल-भात, रोटी आदि) पान (दूध, छांछ; जल आदि) खाद्य (मोदक, पकवान, सूखे मेवा आदि) स्वाद्य (लोंग, इलायची, ताम्बूलादि) इन चारों प्रकार के आहारों में से किसी भी प्रकार के आहार को मैं रात्रि में स्वयं नहीं खाऊंगा, दूसरे को नहीं खिलाऊंगा और खाने वाले अन्य जनों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से-मन से वचन से काय से-न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । भगवन्, मैं भूतकाल के रात्रि-भोजन-पाप से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं। भदन्त, मैं छठे व्रत में सर्व रात्रि-भोजन से निवृत्त होकर उपस्थित हुआ हूं।
(१७) दोहा-पंच महाव्रत छठा यह, निशि-भोजन-व्रत लेय। भगवन्, आत्म-हितार्थ मैं, विचरू तुझ पद सेय ॥
(१८) कवित्त
- विरत होय प्रत्याल्यात-पाप होय, भिक्षुणी या भिक्ष होय दिन में या रात में, · या सोवते, एकान्त जात आवते, अथवा अनेक जन होवें संग-साथ में । :: भित्ति शिला वृत्ति, ढेले गिट्टि आदि होय, लगी हो सचित्त रज चाहे हाथ-पांव में, पत्र हो सरजस्क या कोई देह-भाग होय तिनको विलेखनादि करे न ज्ञात भाव में॥ काठ खपाच लेय, सलाई तसु पुंज लेय, लोह खंड शस्त्रभंड से न भू विदारि है, ना करे घटनादि, विलेखन मर्दनादि और से हू उक्त काज करावं न सम्हारि है। विलेखनादि करते हू पुरुष को न कमी करे, अनुमोदन त्रिकरण त्रियोग से त्याग है, जाव-जीव पृथ्वी काय-घात न कमी कराय, करते हू अन्य को न घात अनुमोद है ।। चौपाई- पूरव दोष जु लाग्यो होय, निंदा गरिहा करि तजु सोय ।
पृथिवी-हिंसा तजि इह मांत, भया उपस्थित हूं जगतात ॥१॥
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दशवकालिक सूत्र तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्न न समणजाणामि । तस्स भंते, पडिक्कमामि निवामि
गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। संस्कृत- स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयत-विरत-प्रतिहत-पापकर्मा-प्रत्या.
ख्यात-पापकर्मा दिवा वा रात्री वा एको वा परिषद्-गतो वा सुप्तो वा जाग्रद् वा-अथ पृथिवीं वा भित्ति वा शिलां वा लेष्टु (लोष्ठ) वा ससरक्षं वा कायं ससरक्षं वा वस्त्रं हस्तेन वा पादेन वा काष्ठेन वा कलिञ्चेन वा अङ्गल्या वा शलाकया वा शलाकाहस्तेन वा-नालिखेत् न विलिखेत् न घट्टयेत् न भिन्द्यात्, अन्येन नालेखयेत् न विलेखयेत् न घट्टयेत् न भेदयेत्, अन्यमालिखन्तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा भिन्दन्तं वा न समनुजानीयात् यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन-मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त, प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हे आत्मानं व्युत्सृजामि ।
(१९) मूल- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय-विरय-परिहय-पच्चक्खाय
पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा-से उदगं वा ओसं वा हिमं वा महियं वा कर वा हरतणुगं वा सुद्धोदगं वा उदओल्लं वा कायं उदओल्लं. वत्यं ससिणिखं वा कार्य ससिणिद्धं वा वत्थं न आमुसेज्जा,न संफसज्जा, न आवोलेज्जा न पवीलेज्जा, न अक्खोडेज्जा, न पक्खोडेज्जा, न आयावेज्जा न पयावेज्जा, अन्नं न आमुसावेज्जा, न संफुसावेज्जा, न आवोलावेज्जा, न पवीलावेज्जा, न अक्खोडावेज्जा, न पक्खोडावेज्जा, न आयावेज्जा, न पयावेज्जा, अन्न आमुसंतं वा संफुसंतं वा, आवोलतं वा, पवीतं वा अक्खोडतं वा पक्खोडंतं वा आयावंतं वा पयावंतं वा न समणुजाणेज्जा
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चतुर्थ ममीकाका अध्ययन
३९ अर्थ-वह संयम (संयम में उपस्थित) विरत (हिंसादि से निवृत्त) प्रतिहतपापकर्मा (अतीतकाल-सम्बन्धी पापों का त्यागी) प्रत्याख्यात पापकर्मा (भविष्यत्काल के लिए पापों का त्यागी) भिक्ष या भिक्ष णी, दिन में या रात में, सोते या जागते, एकान्त में या परिषद् में-पृथ्वी भित्ति शिला, ढेले, सचित्त रज से संसृष्ट काय अथवा सचित्त रज से संसृष्ट वस्त्र का हाथ-पांव काष्ठ खपाच, अंगुली शलाका अथवा शलाका-समूह से स्वयं न आलेखन (कुरेदना) करे, न विलेखन (पुनः पुनः कुदेरना या खोदना) करे, न घट्टन (हिलाना-चलाना) करे और न भेदन (तोड़ना-फोड़ना) करे, इसी प्रकार दूसरे से न आलेखन करावे, न विलेखन करावे, न घट्टन करावे, और न भेदन करावे । तथा आलेखन विलेखन घट्टन या भेदन करने वाले अन्य पुरुष का अनुमोदन करे । यावज्जीवन के लिए नीन करण तीन योग से -- मन वचन काय से न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। हे भगवन, 4 भूतकाल में किये गये पृथ्वी-समारम्भ के पाप से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ।
(१६)
कवित्त-- संयत विरत होय, प्रत्याख्यात-पाप होय, भिक्षुणी या भिक्ष होय, दिन में या रात में, गगते । सोवते, अकेले जात आवते, अथवा अनेक जन होवें संग-साथ में। ‘ज ओसबिन्दु बर्फ कुंअरादि ओला गर्क, दूबा-बिन्दु नभो-अम्बु गीला वस्त्र आप में, गरा भी न स्पर्श करे, दाबे न निचोड़े ताहि, माड़े न सड़ावे ताहि सुखावे न धूप में। उक्त पाप कर नाहि, पर से कराय नाहि, करते है की अनुमोदना सदा त्याग है, मन वच काय आप त्रिकरण त्याग पाप, जल-घात से विमुक्त होय धर्म में पाग है। पूरव के जो दोष होंय, त्यागि तिन्हें शुद्ध होय, प्रतिक्रम कर आप आप ही निन्न है, गीं कर बार-बार भार पाप का जुटार, आतमा का आपमाहि व्युत्सर्ग कर है ॥
अर्थ-वह संयत विरत प्रतिहत-पापकर्मा और प्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्ष या भिक्ष णी दिन या रात में सोते या जागते, एकान्त में या परिषद् में उदक (कूप, तालाब आदि का जल) ओस (रात में आकाश से पड़ने वाली सूक्ष्म-बिन्दु) हिम (बर्फ या पाला) महिका (धूआधार कुहरा) करक (ओला-गड़ा) हरतणुक (भूमि से निकल
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दशवकालिकसूत्र जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि, करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स मंते, परि
कामि निवामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। सस्कृत- स भिक्ष र्वा भिक्षुकी वा संयत-विरत प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा
दिवा वा रात्री वा एकको वा परिषद्-गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा-अथ उदकं वा ओसं वा हिमं वा महिकां वा करकं वा हरतनुकं वा शुद्धोदकं वा उदकाद्रं वा कायं उदकाद्रं वा वस्त्र सस्निग्धं वा कार्य सस्निग्धं वा वस्त्रं- नाऽमृशेत्, न संस्पृशेत्, नाऽपीडयेत्, न प्रपीडयेत्, नाऽऽस्फोटयेत्, न प्रस्फोटयेत नाऽऽतापयेत, न प्रतापयेत, अन्येन नाऽऽमर्शयेत्, न संस्पर्शयेत्, नाऽपीडयेत्, न प्रपीडयेत्, नाऽऽस्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत्, नाऽतापयेत्, न प्रतापयेत्, अन्यमामृशन्तं वा, संस्पृशन्तं वा, आपीडयन्तं वा प्रपीडयन्तं वा, आस्फोटयन्तं वा, प्रस्फोटयन्तं वा, आतापयन्तं वा प्रतापयन्तं वा न समनुजानीयात् । यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन-मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त, प्रतिक्रामामि निन्दामि गहें आत्मानं व्युत्सृजामि ।
(२०) मूल- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय
पावकम्मे दिया वा राओ वा एगो वा परिसागओ वा सुत्त वा जागरमाणे वा - से अणि वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अच्चि वा जालं वा अलायं वा सुखागणि वा उक्कं वा न उजेज्जा, न घट्टज्जा, न उज्जालेज्जा, न निव्वावेज्जा अन्नं न उजावेज्जा, न घट्टावेज्जा, न उज्जालावेज्जा, न निव्वावेज्जा अन्न उंजंत वा घट्टतं वा उज्जालंतं वा निव्वावंतं वा न समणुजाणेज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं-मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि, करंतं पि अन्न न समणुजाणामि । तस्स मंते, पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
४१
कर हरी घास आदि पर आने वाले जल कण) शुद्धोदक ( आकाश से बरसने वाला जल) से भीगे शरीर अथवा जल से भीगे वस्त्र, जल से स्निग्ध शरीर, अथवा जल से स्निग्ध वस्त्र का न आमर्श (एक बार स्पर्श) करे, न संस्पर्श (बार-बार स्पर्श) करे, न आपन ( दबाना, एक बार निचोड़ना) करे, न प्रपीडन (बार-बार दबाना या निचोड़ना) करे, न आस्फोटन (थोड़ा या एक बार झटकना) करे न प्रस्फोटन ( बहुत या बार-बार झटकना) करे, न आतापन (धूप में एक बार या थोड़ा सुखाना) करे, न प्रतापन ( धूप में अनेक बार या बहुत देर तक सुखाना) करे। दूसरों से न जल-ओस आदि का आमर्श करावे, न संस्पर्श करावे, न आपीडन करावे, न प्रपीड़न करावे, न आस्फोटन करावे, न प्रस्फोटन करावे, न आतापन करावे, न प्रतापन करावे । आमर्श, संस्पर्श, आपीडन, प्रपीडन, आस्फोटन, प्रस्फोटन, आतापन या प्रतापन करने वाले का अनुमोदन न करे, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से मन से बचन
काय से न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । हे भगवन्, मैं भूतकाल में किये गये जल-समारम्भ के पाप से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्हा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हू ।
( २० )
कवित्त
संयत विरत होय, प्रत्याख्यात पाप होय, भिक्षुणी या भिक्ष होय, दिन में या रात में, जागते या सोवते, अकेले जात- आवते, अथवा अनेक जन होवें संग-साथ में । अर्गानि अंगारे मुर्मुर अच ज्वाला तारे, अलात शुद्ध अग्नि अथ उल्कादि अग्नि में, करं न उत्सेचन, घट्टनादि ना करें, बुझाय न दबाय ताहि, पाप तर्ज मन में ॥ उक्त पाप करें नाहि, पर से कराया नांहि करते हू की अनुमोदना सदा त्यागं है, मन वच काय आप त्रिकरण त्यागि पाप, अग्नि-घात से विमुक्त होय धर्म पागे है । पूरव के जे दोष होंय, त्यागि तिन्हें शुद्ध होय प्रतिक्रम कर आप आप ही कूं निन्दे है, गर्हा करि वार-बार, भार पाप का उतार आतमा का आप माँहि व्युत्सगं करें है ।। अर्थ - वह संयत, विरत, प्रतिहत- पापकर्मा, प्रत्याख्यात - पापकर्मा भिक्षु या भिक्षुणी, दिन में या रात में सोते या जागते, एकान्त में या परिषद् में - अग्नि
2
( लोह - पिण्ड में प्रविष्ट स्पर्शग्राह्य तेजस्) अगारे ( ज्वाला - धूम - रहित धधकते कोयले)
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४२
दशवकालिकसूत्र संस्कृत- स भिक्षुर्वा भिक्षुको वा संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा
दिवा वा रात्री वा एकको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा-अथ अग्नि वा अङ्गारं वा मुमुर वा अर्चिा ज्वालां वा अलातं वा शुद्धाग्नि वा उल्का वा-नोसिञ्चेत्, न घट्टयेत्, नोज्ज्वालयेत्, न निर्वापयेत्, अन्येन नोत्सेचयेत्, न घट्टयेत्, नोज्ज्वालयेत्, न निर्वापयेत्, अन्यमुसिञ्चन्तं वा घट्टयन्तं वा, उज्ज्वालयन्तं वा निर्वापपयन्त वा न समनुजानीयात्, यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन-मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त, प्रतिक्रामामि निन्दामि गहें आत्मानं व्युत्सृजामि।
(२१) मूल- से भिक्खू वा भिक्षुणी वा संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय
पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागो वा सुत्ते वा जागरमणे वा-से सिएण वा विहुयणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पिहुणेण वा पिहुणहत्येण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा मुहेण वा अप्पणो वा कार्य बाहिरं वा वि पुग्गलं न फुमज्जा न वोएज्जा अन्न न फुमावेज्जा नवीयावेज्जा अन्नं फुमंतं वा वीयंतं वा न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेण वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समगुजाणामि । तस्स भंते !
पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । संस्कृत- स भिक्ष र्वा भिक्षुकी वा संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा
दिवा वा रात्री वा एकको वा परिषद्-गतो वा सुप्तो वा जानद्वाअथ सितेन वा विधुवनेन वा ताल-वृत्त न वा पत्रण वा शाखया वा शाखाभलेन वा पेहुणेण वा पेहुणहस्तेन वा चेलेन वा चेलकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा आत्मनो वा कायं बाह्य वापि पुद्गलं न
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
४३
मुर (राख-भस्म आदि से ढकी अग्नि ) अचि (मूल अग्नि से विच्छिन्न ज्वाला, दीपक का अग्रभाग) ज्वाला (प्रदीप्ताग्नि से सम्बद्ध अग्नि- शिखा ) अलात ( अधजली लकड़ी की आग ) शुद्धाग्नि ( इन्धन - रहित अग्नि) उल्का ( आकाश से गिरने वाली गाज, बिजली आदि ) का न उत्सेचन ( सींचना, तेज करना) करे, न घट्टन ( अन्य काठ आदि से घर्षण - मर्दनादि) करे, न उज्ज्वालन ( पंखे आदि से आग को तेज करना) और न निर्वाण (बुझाना) करे । न दूसरों से उत्सेचन करावे, न घट्टन करावे, न उज्ज्वालन करावे, और. न बुझवावे । तथा उत्सेचन, घट्टन, उज्ज्वालन या निर्वाण करने वाले अन्य का अनुमोदन न करे । यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग सेमन से वचन से काय से न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । भगवन्, मैं भूतकाल में किये गये अग्नि समारम्भ के पाप से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्हा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं ।
(२१)
कवित्त
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फूंके
संयत विरत होय, प्रत्याख्यात पाप होय, मिक्षुणी या भिक्षु होय, दिन में या रात में, जागते या सोवते, अकेले जात आवते, अथवा अनेक जन होवें संग-साथ में । चंवर से या पखे से, बीजने या पात्र से, शाखा मोर- पिच्छकादि लेय आप हाथ में, वस्त्र से या हस्त से, मुख से या अन्य से, न हवा करे कभी काहू काल में ॥ उक्त पाप करं नाहि पर से कराय नाहि, करते हू की अनुमोदना सदा त्यागे है, मन वच काय आप त्रिकरण त्यागि पाप, वायु-घात से विमुक्त होय धर्म पागे है । पूरव के जे दोष होंय, त्यागि तिन्हें शुद्ध होय, प्रतिक्रम कर आप आप ही कूं निन्दे है, गर्हा करि बार बार, भार पाप का उतार आतमा का आप मांहि व्युत्सर्ग करे है ॥
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अर्थ - वह संयत विरत प्रतिहत पापकर्मा प्रत्याख्यात- पापकर्मा भिक्षु, या भिक्ष ुणी दिन में या रात में, सोते या जागते, एकान्त में या परिषद् में - चामर से, पखे से, वीजने से, पत्ते से, शाखा ( वृक्ष की डाली) से, शाखा भंग डालों के टुकड़े) से, मोर पंख से, मोर-पिच्छी से, वस्त्र से, वस्त्र के पल्ले से हाथ से या मुख से, अपने शरीर के पसीने को या बाहिरी धूल आदि को न स्वय फूंके न हवा करे, दूसरों से न फुंकावे, न हवा करावे, फूंकने वाले या हवा करने वाले अन्य पुरुष का अनुमोदन न करे, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से - मन से वचन से काय से- न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा ।
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दशवकालिक सूत्र फुत्कुर्यात् न व्यजेत्, अन्येन न फुत्कारयेत् न व्याजयेत्, अन्यं फूत्कुर्वन्त वा व्यजंत वा न समनुजानीयात् यावज्जोवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त, प्रतिक्रामामि निन्दामि गहें आत्मानं व्युत्सृजामि ।
(२२) मूल- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय
पावकम्मे विया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से बीएसु वा बीयपइट्ठिएसु वा रूढेसु वा रूहुपइट्ठिएसु वा जाएसु वा जायपइट्ठिएसु वा हरिएसु वा हरियपइट्ठिएसु वा छिन्ने सु वा छिन्नपइट्ठिएसु वा सच्चित्तकोलपतिनिस्सिएसु वा न गच्छेज्जा न चिट्ठज्जा न निसीएज्जा न तुय
टेज्जा अन्नं न गच्छावेज्जा न चिट्ठावेज्जा न निसीयावेज्जा न तुयट्टावेज्जा, अन्नं गच्छंतं वा चिट्ठतं वा निसीयंतं वा तुयट्टतं वा न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भन्ते! पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं
वोसिरामि। संस्कृत -- स भिक्ष र्वा भिक्ष को वा संयत-विरत प्रतिहत-प्रत्याख्यात पापकर्मा
दिवा वा रात्री वा एकको वा परिषद्गतो वा सृप्तो वा जाग्रद् वा--अथ बीजेषु वा बीजप्रतिष्ठितेषु वा रूढेषु वा रूढप्रतिष्ठतेषु वा जातेषु वा जातप्रतिष्ठितेषु वा हरितेषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा छिन्न षु वा छिन्नप्रतिष्ठतेषु वा सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु वा-न गच्छेत् न तिष्ठेत् न निधीदेत् न त्वग्वर्तेत, अन्यं न गमयेत् न स्थापयेत् न निषीदयेत् न त्वग्वर्तयेत् अन्यं गच्छन्तं वा तिष्ठन्तं वा
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन भगवन मैं भूतकाल में की गई वायकाय की विराधना के पाप से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता है।
(२२)
कवित्तसंयत विरत होय प्रत्याख्यात-पाप होय, भिक्ष णी या भिक्ष होय, दिन में या रात में, जागते या सोवते, अकेले जात आवते, अथवा अनेकजन होवें संग-साथ में । बीज रूढ़ जात आदि हरित सचित्त पत्र, शाखा खंध छाल फल-फूल में,
और हू अनेक भेद कहे जो हैं सूत्र-माहि, जीव रहें तिनके भी सर्व अंग मूल में । बोन होय, रूढ़ होय, जात या हरित होय, सचित्त पत्र शाखा आदि कोई
हरियाली हो इन पं रखे पीठ आसन फलक आदि, वस्त्र विस्तरादि अन्य कछु द्रव्य हो। इन पं न आवे जावे, बैठे सोवै नाहि कभी, घुन लगे काठ आदि का न उपयोग हो, बनस्पति जाति जेती, घात न करे कवापि, उनकी सुजतना में सदा सावधान हो। उक्त पाप कर नाहि, पर से कराय नाहि, करते हू की अनुमोदना सबा त्याग है, मन वच काय आप त्रिकरण त्यागि पाप वनस्पति-घात से विमुक्त धर्म पाग है। पूरव के जो दोष होंय, त्यागि तिन्हें शुद्ध होय प्रतिक्रम कर आप आप ही कू निन्दं है, गर्दा करि बार-बार भार पाप का उतार, आत्मा का आप मांहि व्युत्सर्ग कर है।
अर्थ-वह संयत, विरत, प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्षु या भिक्षुणी, दिन में या रात में, सोते या जागते, एकान्त में या परिषद् में- बीजों पर, बीजों पर रखी वस्तुओं पर, रूढ़ बीजों पर (वीज जब भूमि में से बाहर निकलता है, तब उसे रूढ़ कहा जाता है । यह बीज अंकुर के बीच की अवस्था है, अंकुर निकलने के पूर्व स्फुटित बीजों पर) रूढ़ बीजों पर रखी हुई वस्तुओं पर, जात (पत्ते आने की अवस्था वाली) वनस्पति पर, जात वनस्पति पर स्थिति वस्तुओं पर, हरित पर, हरित पर रखी वस्तुओं पर, छिन्न वनस्पति के अंगों पर, छिन्न वनस्पति के अंगों पर रखी वस्तुओं पर, अंडों पर, एवं घुन लगे सचित्त कोल आदि काठ पर न चले, न खड़ा रहे, न बैठे, न लेटे, दूसरों को न चलावे, न खड़ा करे, न बैठावे, न लेटावे तथा
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दशवकालिक सूत्र निषीदन्तं वा त्वग्वर्तमानं वा-न समनुजानीयात् यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हे आत्मानं व्युत्सृजामि ।
(२३) मूल - से भिक्खू वा मिक्खणी वा संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय
पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा-से कोलं वा पतंग वा कुथुवा पिवीलियं वा हत्थंसि वा पायंसि वा बाहुंसि वा ऊरुसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वत्थंसि वा पडिग्गहंसि वा रयहरणंसि वा गोच्छगंसि वा उंडगंसि वा बंडगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेज्जसि वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए तो संजयामेव पडिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय एगतमव
ज्जा, नो गं संघायमावज्जेज्जा। संस्कृत- स भिक्षुर्वा भिक्ष की वा संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा
दिवा वा रात्री वा एकको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद् वा -अथ कीटं वा पतङ्गवा कुन्थुवा पिपीलिकां वा हस्ते वा पादे वा बाहो वा उरी वा उदरे वा शीर्षे वा वस्त्रे वा प्रतिग्रहे वा रजोहरणे वा गुच्छके वा उन्दुके वा दण्डके वा पीठके वा फलके वा शय्यायां वा संस्तारके वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे उपकरणजाते ततः संयतमेव प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य प्रमृज्य प्रमृज्य एकान्तमपनयेत् नैनं संघातमापादयेत् ।
मूल-- अजयं चरमाणो उ पाण-भूयाई हिंसई ।
बंधइ पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ॥ संस्कृत- अयतं चरंस्तु प्राण - भूतानि हिनस्ति ।
बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ।।
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
चलने, खड़ा रहने, बैठने या लेटने वाले का अन्य पुरुष का न अनुमोदन करे, यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से-मन से वचन से काय से- न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। हे भगवन्. मैं भूतकाल में किये गये वनस्पति समारम्भ के पाप से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं।
(२३) कवित्तसंयत विरत होय प्रत्याख्यात-पाप होय, भिक्षुणी या भिक्ष होय, दिन में या रात में, जागते या सोवते, अकेले जात आवते, अथवा अनेक जन होवें संग साथ में। कोट हो, पतंग हो, कीड़ी हो या भौंरा हो, हाथ पांव बाहु आदि उर
उदर शीस में, बग्त्र पात्र पाद-प्रोंछन, पीठ या फलक पै, तिनको प्रतिलेख वह सदा सावधानी में। दोहा-परिमार्जन प्रति-लेखना, कर छोड़े एकान्त ।
कमी कर ना भूल से, जीवनि का संघात ॥१॥ अर्ष-संयत विरत प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्षु या भिक्षुणी दिन में या रात में, सोते या जागते, एकांत में या परिषद् में . कीट, पतंग, कुन्थु या पिपीलिका हाथ, पैर, बाहु, उरु (जांघ), उदर, शिर, वस्त्र, पात्र, रजोहरण, गोच्छग (पात्र को ढांकने का वस्त्र), उन्दुक, दण्डक (लकड़ी, डंडा), पीठ (बैठने का पीढ़ा, बाजौठ), फलक (लेटने का तख्ता) । शैय्या या संस्तारक (विस्तर) पर तथा इसी प्रकार के किसी अन्य उपकरण पर चढ़ जावे तो सावधानीपूर्वक धीरे-धीरे प्रतिलेखन कर, प्रमार्जन कर उन्हें वहां से हटा कर एकान्त में रख दे, किन्तु उनका संघात न करे
' जिससे उन प्राणियों को पीड़ा पहुंचे, ऐसी रीति से नहीं रखे ।
दोहा-अजतन तें चलतो हन, प्रानि भूत गन जोय ।
पाप करम ता करि बंध, ताको कटु फल होय ॥ अर्थ-अयतना-पूर्वक चलने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, उससे पाप कर्म का बन्ध होता है, वह उसके लिए कटु फल देने वाला होता है।
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दशवकालिक सूत्र
(२) मूल- अजयं चिट्ठमाणो उ पाणभूयाइ हिसई ।
बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ॥ संस्कृत- अयतं तिष्ठस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति ।
बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ।।
मूल- अजयं आसमाणो उ पाणभूयाई हिंसई ।
बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ॥ संस्कृत-- अयतमासमानस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति ।
बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥
(४)
मूल- अजयं सयमाणो उ पाणभूयाइ हिंसई ।
बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ॥ संस्कृत- अयतं शयानस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति ।
बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ।।
मूल ... अजयं मजमाणो उ पाणभूयाई हिंसई ।
बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कड़यं फलं ।। संस्कृत- अयतं भुजानस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ।।
__ (६) मूल - अजयं भासमाणो उ पाणभूयाइ हिंसई ।
बंधइ पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ॥ संस्कृत- अयतं भाषमाणस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति ।
बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ।।
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चतुर्थ षट्जीवनिका अध्ययन
दोहा-अजतन ते ठहर्यो हन, प्रानि भूत गन जोय ।
पाप करम ता फरि बंध, ताको कटुफल होय ॥ अर्थ-अयतनापूर्वक खड़ा होने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। उससे पापकर्म का बन्ध होता है। वह उसके लिए कटुक फल देने वाला होता है।
दोहा-अजतन तें बैठो हन, प्रानि मत गन जोय ।
पाप करम ता करि बर्षे, ताको कटुफल होय ।। . अर्थ-अयतनापूर्वक बैठने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। उससे पापकर्म का बंध होता है। वह उसके लिए कटुक फल देने वाला होता है।
बोहा-अजतन ते सूतो हनं, प्रानि भूत गन जोय ।
पाप करम ता करि बंधे, ताको कटुफल होय ॥ अर्थ-अयतनापूर्वक सोनेवाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। उससे पापकर्म का बंध होता है । वह उसके लिए कटुक फल देने वाला होता है।
दोहा -- अजतन त खातो हने, प्रानि भूत गन जोय ।
पाप करम ता करि बंध, ताको कटुफल होय।। अर्थ-अयतनापूर्वक भोजन करनेवाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा ...रता है। उससे पापकर्म का बन्ध होता है । वह उसके लिए कटुक फल देने वाला होता है।
बोहा-अनतन तें कहती हन, प्रानि भूत गन जोय ।
पाप करम ता करि बर्ष, ताको फटफल होय ।। अर्थ-अयतनापूर्वक बोलने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। उससे पापकर्म का बन्ध होता है । वह उसके लिए कटुक फल देने वाला होता है।
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दशवकालिक सूत्र
(७) मूल- कहं चरे कहं चिढे कहमासे कहं सए ।
कहं भुजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ॥ संस्कृत- कथं चरेत् कथं तिष्ठेत् कथमासीत् कथं शयीत ।'
कथं भुजानो भाषमाणः पापं कर्म न बध्नाति ॥
मूल- जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए ।
जयं भुजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ॥ संस्कृत .. यतं चरेद् यतं तिष्ठेद् यतमासीत यतं शयीत । यतं भुजानो भाषमाणः पापं कर्म न बध्नाति ॥ .
(९) मूल- सम्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाइ पासओ ।
पिहियासवस्स दंतस्स पावं कम्मं न बंधई ॥ संस्कृत- सर्वभूतात्मभूतस्य सम्यग् भूतानि पश्यतः । पिहितास्रवस्य दान्तस्य पापं कर्म न बध्यते ॥ - -
(१०) मूल- पढमं नाणं तओ बया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए ।
अन्नाणी कि काही किंवा नाहिइ छेय पावगं ।। संस्कृत- प्रथमं ज्ञानं ततो दया एवं तिष्ठति सर्वसंयतः ।
अज्ञानी कि करिष्यति, किं वा ज्ञास्यति छेक पापकम् ।।
मूल- सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावगं ।
उभयं पि जाणइ सोच्चा जं छेयं तं समायरे ॥ संस्कृत- श्रुत्वा जानाति कल्याणं श्रुत्वा जानाति पापकम् ।
उभयमपि जानाति श्रुत्वा यच्छेकं तत्समाचरेत् ॥
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
दोहा-किमि चलिये, किमि ठहरिये, किमि बैठिय, किमि सोय ।
किमि खाइय, किमि बोलिये, जासों पाप न होय ॥ अपं-कैसे चले, कैसे खड़ा हो, कैसे बैठे, कैसे सोये, कैसे खाये और कैसे बोले ? जिससे पापकर्म का बन्ध न हो ?
दोहा-जतन चलिय, ठहरिय जतन, जतन बैठि अब सोय ।
जतनहिं खाइय, भाखिये, तासों पाप न होय ॥ अर्थ-यतनापूर्वक चले, यतनापूर्वक खड़ा हो, यतनापूर्वक बैठे, यतनापूर्वक सोवे, यतनापूर्वक खावे और यतनापूर्वक बोले । इससे पाप कर्म नहीं बंधता है।
चौपाई- निज समान सब जीवनि जान, जीवनि पै सम दीठ तु माने ।
___ आनव-रोधी, बमी तु होई, पाप करम बंधत नहिं कोई ॥
अर्थ-जो सब जीवों को अपने समान मानता है, जो सब जीवों को सम्यक् दृष्टि से देखता है, जो आस्रव का निरोधक है, और इन्द्रियों का दान्त (निग्राहकजयी) है, उसके पाप कर्म का बन्ध नहीं होता है। .
(१०) दोहा-प्रथम मान पाऊँ क्या, यों सब संजति पाप ।
अज्ञानी कैसे करे, का जाने पुन-पाप ॥ अर्थ-पहिले ज्ञान, तत्पश्चात् दया, इस प्रकार से सब संयती संयम में स्थित होते हैं । अज्ञानी क्या करेगा? वह क्या जानेगा कि क्या श्रेय है और क्या पाप है ?
बोहा -सुनि जाने कल्याण कों, सुनि हो जाने पाप ।
मुनि के जाने दुहुनिकों, जो हित कर सु माप । म-जीव सुनकर कल्याण को जानता है, और सुनकर ही पाप को जानता है । कल्याण और पाप दोनों ही सुनकर जाने जाते हैं । इनमें से जो श्रेय हो, उसी का आचरण करना चाहिए।
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दशवकालिकसूत्र
(१२) मूल- जो जीवे वि न याणाइ अजीवे वि न याणई ।
जीवाजीवे अयाणंतो कहं सो नाहिइ संजमं ।। संस्कृत- यो जीवानपि न जानाति अजीवानपि न जानाति ।
जीवाजीवानजानन् कथं स ज्ञास्यति संयमम् ।।
मूल- जो जीवे वि वियाणाइ अजीवे वि वियाणई ।
जोवाजोवे वियागंतो सो हु नाहिइ संजमं ॥ संस्कृत -- यो जीवानपि विजानाति अजीवानपि विजानाति । जीवाजीवान् विजानन् स हि शास्यति संयमम् ।।
(१४) मूल- जया जीवे अजोवे य दो वि एए वियाणई ।।
तया गई बहुविहं सव्व जीवाण जाणई । संस्कृत- यदा जीवानजीवांश्च द्वावप्येतो विजानाति ।
तदा गति बहुविधां सर्व जीवानां जानाति ॥
मूल-- जया गई बहुविहं सबजीवाण जाणई ।
तया पुण्णं च पावं च बंधं मोक्खं च जाणई। संस्कृत- यदा गति बहुविधां सर्वजीवानां जानाति ।
तदा पुण्यं च पापं च बन्धं मोक्षं च जानाति ॥
मूल- जया पुग्णं च पावं च बंषं मोक्खं च जाणई ।
तया निविविए मोए जे विश्वे जे प माणुसे ।। संस्कृत- यदा पुण्यं च पापं च बन्धं मोक्ष च जानाति ।
तदा निर्विन्ते भोगान् यान् दिव्यान् यांश्च मानुषान् ॥
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
(१२)
दोहा - जो जीवहु जाने नहीं, अरु जीव-अजीव न जानतो सो
अर्थ - जो जीवों को भी नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं जानता, वह जीव और अजीव को न जानने वाला संयम को कैसे जानेगा ?
अजीबहु न जान । संजम किम जान ||
(१३)
दोहा - जो जीवहु को जानई. अरु अजीव हूं जान । जीव-अजीर्बाह जानतो, सो संजम हूं जान ॥
•
अर्थ- जो जीवों को भी जानता है और अजीवों को भी जानता है, वहीजीव और अजीव दोनों को जाननेवाला ही संयम को जान सकेगा ।
(१४)
दोहा - जाने जीव अजीव जब, दोऊ जानत
जोय । तब बहुविध गति जानई, सब जीवनिकों सोप ॥
अर्थ- जब मनुष्य जीव और अजीव इन दोनों को जान लेता है, तब वह सब जीवों की बहुविध गतियों को भी जान लेता है ।
(१५)
दोहा - जब बहुविध गति जान ही, सब जीवनिकों जान ।
तब जाने बंध रु मुकति, पुन्य-पाप पहिचान ॥
दोहा
अर्थ- - जब मनुष्य सब जीवों की बहुविध गतियों को जान लेता है, तब वह पुण्य-पाप बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है ।
"
(१६)
- जब जाने बंध रु मुकति, तब सुर-नर के भोग सब
५३
पुन्य
पाप पहिचान ।
लेत असार सु जान ।।
अयं - जब मनुष्य पुण्य-पाप बन्ध और मोक्ष को जान लेता है, तब जो
भी देवों और मनुष्यों के भोग हैं, उनसे विरक्त हो जाता है ।
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.. दशवकालिक सूप
मूल- जया निविदिए भोए जे विव्वे जे य माणुसे ।
तया चयइ संजोग सम्मितर - बाहिरं ॥ संस्कृत- यदा निर्विन्ते भोगान् यान् दिव्यान् यांश्च मानुषान् ।
तदा त्यजति संयोगं साभ्यन्तर • बाह्यम् ।।
मूल- जया चयइ संजोगं सम्मितर . बाहिरं ।'
तया मुंडे भवित्ताणं पब्वइए अणगारियं ।। संस्कृत- यदा त्यजति संयोगं साभ्यन्तर · बाह्यम् । तदा मुण्डो भूत्वा प्रव्रजत्यनगारताम् ॥
(१९) मूल- जया मुंडे भवित्साणं पब्वाइए अणगारियं । ::
तया संवरमुक्किट्ठ धम्मं फासे अणुतरं ॥ संस्कृत- यदा मुण्डो भूत्वा प्रव्रजत्यनगारताम् । ... तदा संवरमुत्कृष्टं धर्म स्पृशत्यनुत्तरम् ।
(२०) मूल- जया संवरमुक्किट्ठ धम्मं फासे अणुतरं ।।
... तया धुणइ कम्मरयं अबोहिकलुसं कां॥ संस्कृत- यदा संवरमुत्कृष्टं धर्म स्पृशत्यनुत्तरम् । . . . . . तदा धुनाति कर्मरजः अबोधि - कलुषं कृतम् ।।
(२१) मूल- जया धुणइ कम्मरयं अबोहिकलुसं कडं । .. . तया सव्वत्तगं नाणं वंसणं चाभिगच्छई ॥ संस्कृत- यदा धुनाति कर्मरजः अबोधि - कलुषं कृतम् ।।..
तदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाभिगच्छति ।।
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
बोहा-जब सुर-नर के भोग जे, जान असार बुलेत । ।
तब बाहिर भीतर हुके, संजोगनि तजि देत ।।..: अर्थ-जब मनुष्य दैविक और मानुषिक मोगों से विरक्त हो जाता है, तब वह भीतरी और बाहिरी संयोग को त्याग देता है ।
दोहा-जब बाहिर भीतर है के, संयोगनि तजि देत । .. ..
तब मुखित हूं के गहै, पद अनगार सहेत ।। . अर्थ-जब मनुष्य भीतरी और बाहिरी सब संयोग को त्याग देता है, तब वह मुंडित होकर अनगार (साधु) वृत्ति को स्वीकार करता है।
(१९) दोहा-जब मुंडित ह के गहै, पद अनगार सहेत ..
तब महान संवर परसि, परम धरम को लेत ॥ . , अर्थ-जब मनुष्य मुडित होकर अनगार-वृत्ति को स्वीकार करता है तब वह उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है।
(२०) बोहा-जब महान संवर परसि, परम धरम को लेत ।
तब अबोधि पातक मई, झटक करम-रज देत ।। अर्थ-जब मनुष्य उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है, ।ब वह अबोधि (अज्ञान और मिथ्यात्व) रूप पाप-द्वारा संचित कर्म-रज को धुन डालता है।
(२१). बोहा-जब अबोधि पातक मई, मटकि करम-रज देत ।
तब सब व्यापी शान मर दरसन को पा लेत॥ अर्थ-जब वह अबोधि रूप पाप-द्वारा संचित कर्म-रज को धुन डालता है, तब वह सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है।
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५६
दशवकालिकसूब
(२२) जया सव्वत्तगं नाणं दसणं चामिगच्छाई ।
तया लोगमलोगं च जिणो नाणह केवली ॥ संस्कृत- यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाभिगच्छति । तदा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली ॥
(२३) मूल- जया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली ।
तमा जोगे निमित्ता सेलेसि परिवज्जई ॥ संस्कृत- यदा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली ।
तदा योगान् निरुध्य शैलेशी प्रतिपद्यते ।।
मूल- जया जोगे निमित्ता सेलेसि परिवज्जई ।
तया कम्मं वित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरओ ॥ संस्कृत- यदा योगान् निरुध्य शैलेशी प्रतिपद्यते । तदा कर्म क्षपयित्वा सिद्धि गच्छति नीरजाः ।।
(२५) मूल- जया कन्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरओ ।
तया लोगमत्थयत्यो सिद्धो हवइ सासओ ॥ संस्कृत- यदा कर्म क्षपयित्वा सिद्धि गच्छति नीरजाः । तदा लोकमस्तकस्थः सिद्धो भवति शाश्वतः ॥
(२६) सुहसायगस्स समणस्स सायाउलगस्स निगामसाइस्स ।
उच्छोलणापहोइयस्स दुलहा सुग्गइ तारिसगस्स ॥ संस्कृत- सुखस्वादकस्य श्रमणस्य साताकुलकस्य निकामशायिनः ।
उत्क्षालनाप्रधाविनः दुर्लभा सुगतिस्तादृशकस्य ।।
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चतुर्ष पजीवनिका अध्ययन
(२२) दोहा-जब सब व्यापी मान अर, बरसन को पा लेत ।
तब जानत जिन केवली, लोक अलोक-समेत ॥ अर्थ-जब वह सर्वत्र-गामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है, तब वह केवली जिन होकर लोक और अलोक को जान लेता है।
(२३) दोहा--जब जानत जिन केवली, लोक अलोक समेत ।
तब जोगनिकों रोकिके, गिरि घिरता पा लेत ।। अर्थ-जब वह केवली जिन होकर लोक-अलोक को जान लेता है, तब वह योगों का निरोधकर शैलेशी (पर्वत-सदृश स्थिर) अवस्था को प्राप्त होता है।
(२४) बोहा-जब जोगनिकों रोकि के, गिरि-थिरता पा लेत ।
तब करमनि को नास करि, नीरज शिवपद लेत ॥ अर्थ-जब वह योग का निरोध कर शैलेशी अवस्था पा लेता है, तब वह कर्मों का क्षय कर नीरज (कर्म-रज-विमुक्त, हो सिद्धि को प्राप्त करता है।
(२५)
दोहा-जब करमनि को नास करि, नीरज शिव पद लेत ।
तब सु लोक-सिर पिति लिये, सास्वत सिद्ध सुवेत ॥ अर्थ-जब वह कर्मों का क्षय कर रज-विमुक्त सिद्धि को प्राप्त करता है, तब वह लोक के मस्तक पर स्थित शाश्वत सिद्ध होता है।
(२६) चौपाई-- सुल-आस्वादक श्रमण जु होई, साता को उतकंठित जोई ।
आगम-वचन लघि बहु सोवै, जो विनु जतन धरन-कर धोवै ।। गारव तीनों जाके होंय, श्रमण-क्रिया में शिथिल जु सोय ।
ऐसो होय आचरन जाको य उत्तम गति दुर्लभ है ताको ॥
अर्थ-जो श्रमण सुख का रसिक, साता के लिए आकुल, अकाल में सोनेवाला और हाथ-पैर आदि को बार-बार धोने वाला होता है, उसके लिए सुगति दुर्लभ है।
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दशकालिका
(२७)
मूल- तवोगुणपहाणस्स उज्जुमइ . तिजमारयन्स ।
परोसहें जिणंतस्स सुलहा सुग्गइ तारिसगस्स ॥ संस्कृत-- तपोगुणप्रधानस्य ऋजुमति-क्षान्तिसंयमरतस्य ।
परीषहान् जयतः सुलभा सुगतिस्तादृशकस्य ।
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मूल - पच्छा वि ते पयाया खिप्पं गच्छंति अमर-भवणाई।
जेसि पिओ तवो संजमो य ांती य बंभचेरं च ॥. संस्कृत- पश्चादपि ते प्रयाताः क्षिप्रं गच्छन्ति अमर भवनानि ।
येषां प्रियं तपः संयमश्च क्षान्तिश्च ब्रह्मचर्य च ॥
मूल- इच्चेयं . छज्जोवणियं. सम्मट्ठिी सया जए । . दुलहं लमित्त सामण्णं कम्मुणा न विराहेज्जासि ॥
- तिबेमि संस्कृत- इत्येतां षड्जीवनिकां सम्यग्दृष्टिः सदा यतः । दुर्लभं लब्ध्वा श्रामण्यं कर्मणा न विराधयेत् ॥ .
-इति ब्रवीमि
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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
(२७) चौपाई- जिन में तप-प्रधान गुन पावै, सरलमतो संगम रति लावें ।
खमी परीसह-विजयी जोई, सुलम सुगति ऐसनिको होई ॥
अर्थ-जो श्रमण तपोगुण में प्रधान, सरल मति, क्षान्ति तथा संयम में रत और परीषहों को जीतने वाला होता है, उसके लिए सुगति सुलभ है।
(२८) दोहा-जिनको तप संजम क्षमा, शील हिये ते भाय ।
पाछे हू दीक्षित भये, अमर-भवन ते नाय ।। अर्ष-जिन्हें तप, संयम, क्षमा और ब्रह्मचर्य प्रिय हैं, वे शीघ्र ही देव-भवनों (स्वर्ग) को प्राप्त होते हैं, भले ही वे पिछली अवस्था में प्रवजित हुए हों।
बोहा-लहिके दुरलभ समनता, ए खट जीवनिकाय ।
। सदा जतन सम-वरसि रखि, विकरन ते न सताय ।।:: . .:.
अर्थ-दुर्लभ श्रमण भाव को प्राप्त कर सम्यक् दृष्टि और सदा सावधान श्रमण इस षड्जीवनिकाय की कर्मणा-मन वचन और काय से विराधना न करे । ऐसा मैं कहता हूं।
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पंचमं पिंडेसणा अज्झयणं
(पढमोद्दे सो)
(१) मूल- संपत्ते भिक्खकालम्मि असंभंतो अमुच्छिो ।
इमेण कमजोगेण भत्त-पाणं गवेसए॥ संस्कृत- सम्प्राप्ते भिक्षाकाले असंभ्रान्तोऽमूर्च्छितः । अनेन क्रमयोगेन भक्त-पानं गवेषयेत् ।।
(२) मूल- से गामे वा नगरे वा गोयरग्गगो मुणो ।
चरे मन्दमणुब्धिगो अवक्खित्तण चेयसा ॥ संस्कृत- स ग्रामे वा नगरे वा गोचराग्रगतो मुनिः ।
चरेन्मन्दमनुद्विग्नः अव्याक्षिप्तेन चेतसा ।।
मूल- पुरओ जुगमायाए पेहमाणो महिं चरे ।
बज्जतो बीय-हरियाई पाणे य दगमट्टियं ॥ संस्कृत- पुरतो युगमात्रया प्रेक्षमाणो महीं चरेत् ।
वर्जयन् बोज-हरितानि प्राणांश्च दक-मृत्तिकाम् ।।
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पंचम पिण्डैषणा अध्ययन
(प्रथम उद्देशक)
दोहा-समय पायके भीख को भ्रांति-रहित विनु राग । .
या विधि खान रु पान कों, ढूंढन में मुनि लाग ॥ अर्थ-मिक्षा का काल प्राप्त होने पर मुनि भ्रान्ति-रहित एवं मूरिहित होकर आगे बतलाये जाने वाले क्रम-योग से भक्त-पान की गवेषणा करे ।
(२)
दोहा-गयो गोचरी-काज मुनि, पुर गामादिक-माहि ।
पलं मंद, उबवेग-विन, इत उत चित न चलाइ ॥ अर्थ-ग्राम या नगर में गोचरी के लिए गया हुआ वह मुनि धीमे-धीमे, द्वेग-रहित एवं विक्षेप-रहित शान्त-चित्त होकर ईर्या-समिति-पूर्वक चले।
बोहा-आगे को जोवत चल, निज-तनु के परमान ।
बीज हरित को परिहरि, बंतु, जल हु मृतिकान ॥ वर्ष-सामने युग-प्रमाण चार हाथ भूमि देखता हुआ, बीज, हरियाली (वनस्पति), द्वीन्द्रियादि प्राणी, सचित्त जल और सचित्त मिट्टी को बचाता हुमा चले।
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दशवकालिक सूत्र
ओवायं विसमं खाणु विज्जलं परिवज्जए ।
संकमेण न गच्छिज्जा विज्जमाणे परक्कमे ॥ संस्कृत- अवपातं विषमं स्थाणु विज्जलं परिवर्जयेत् ।
संक्रमेण न गच्छेत् विद्यमाने पराक्रमे ॥
मूल- पवते व से तत्थ पक्खलंते व संजए ।
हिंसेज्ज पाण-भूयाई तसे अदुव थावरे ॥ संस्कृत- प्रपतन् वा स तत्र प्रस्खलन् वा संयतः ।
हिंस्यात् प्राण-भूतानि बसानथवा स्थावरान् ।।
III III 1:11
मूल- तम्हा तेण न गच्छिजा संजए सुसमाहिए ।
सइ अनेण मग्गेण जयमेव परक्कमे ॥ संस्कृत- तस्मात्तेनं न गच्छेत् संयतः सुसमाहितः । सत्यन्यस्मिन् मार्गे यतमेव पराक्रमेत् ॥
(७) मूल- इंगालं छारियं रासिं तुसरासिं च गोमयं ।
ससरहिं पाएहिं संजो तं न इकम्मे ॥ संस्कृत- आगारं क्षारिकं राशि तुषराशि च गोमयम् ।
ससरक्षाभ्यां पादाभ्यां संयतस्तं नाकामेत् ।।
मूल- न चरेन्ज वासे वासंते महियाए व पड़तीए । . महावाए व वायंते तिरिच्छसंपाइमेसु वा॥ संस्कृत- न चरेद् वर्षे वर्षति महिकायां वा पतन्त्याम् ।
महावाते वा वाति तिर्यक्-संपातेषु वा ॥
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
(४)
चौपाई - गड्ढा विसम पंथ परिहरई, ठूंठ तथा कादे तें टरई । सरिताविक उलधि नहिं जावं, छतो पंथ दूजो जो पावं ॥
अर्थ - दूसरे अच्छे मार्ग के होते हुए गड्ढे, ऊबड़-खाबड़ भू-भाग, कटे हुए सूखे पेड़ या अनाज के डंठल और पंकिल (कीचड़ - युक्त) मार्ग को टाले तथा संक्रम (जल या गड्ढे को पार करने के लिए काष्ठ या पाषाण - रचित पुल) के ऊपर से न जावे ।
(५)
जो संजमी गॅल यहि धावं, सो आखड़े तथा परि जावं । प्रानि भूत की हिंसा करई, त्रस अथवा थावर संहरई ॥ अर्थ - मार्ग से जाते हुए साधु का यदि वहां पैर फिसल जाय अथवा खड्ढे में गिर जाय, तो द्वीन्द्रियादि त्रस प्राणियों की तथा एकेन्द्रिय स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है । अर्थात् ऐसे मार्ग से चलने पर आत्म-पीड़ा और जीव-विराधना की संभावना रहती है ।
चौपाई
चौपाई - तातें ऐसे पंथ न जाये, और पंथ जोलों वह पावं,
(६)
संजत जो समाधि मन लावं । जतनवंत वाही मग जावे ॥
अर्थ – इसलिए दूसरे मार्ग के होते हुए सुसमाहित (सावधान) संयमी साघु उक्त मार्ग से नहीं जावे । यदि कदाचित् दूसरा अच्छा मार्ग न हो तो उस मार्ग से ft यतनापूर्वक जावे ।
(७)
सोरठा- छार र तुस ढेर, गोबर और जु कोयला ।
रज- साने पग फेर, इनको लंघन नह करं ॥
-
६३
अर्थ – संयमी मुनि सचित्त रज से भरे हुए पैरों से कोयले, राख, भूसे और गोबर के ढेर को लांघ कर न जावे ।
(4)
दोहा - बरखा बरसत नहि चलं, कुहरा परतहु नाहि ।
महावात के बाजते, परत पतंग न जाहि ॥
अर्थ - वर्षा बरस रही हो, कुहरा गिर रहा हो, महावायु चल रही हो और मार्ग में पतंगिया आदि अनेक प्रकार के जीव इधर-उधर उड़ रहे हों तो ऐसे समय में साधु गोचरी के लिए न जावे ।
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दशवकालिक सूत्र
मूलं- न चरेज्ज वेससामंते बंभचेरवसाणुए ।
बंभयारिस्स तस्स होज्जा तत्थ विसोतिया ॥ संस्कृत- न चरेद् वेशसामन्ते ब्रह्मचर्यवशानुगः ।
ब्रह्मचारिणो दान्तस्य भवेत्तत्र विस्रोतसिका।
मूल- अणायणे चरंतस्स संसग्गोए अभिक्खणं ।
होज्ज वयाणं पीला सामण्णम्मि य संसओ॥ संस्कृत- अनायतने चरतः संसर्गेणाभीक्ष्णम् ।
भवेद् व्रतानां पीडा श्रामण्ये च संशयः ॥
मूल- तम्हा एवं वियाणित्ता बोसं दुग्गइवड्ढणं ।
वज्जए . मुणी एगंतमस्सिए । संस्कृत- तस्मादेतद्विज्ञाय दोषं दुर्गतिवर्धनम् । वर्जयेद् वेशसामन्तं मुनिरकान्तमाश्रितः ।।
(१२) मूल- साणं सूइयं गाविं दित्तं गोणं हयं गयं ।
संडिग्मं कलहं जुद्ध दूरओ परिवज्जए॥ संस्कृत-- श्वानं सूतिका गां दृप्तं गां हयं गजम् ।
संडिन्भं कलहं युद्ध दूरतः परिवर्जयेत् ।।
(१३)
मूल
अपना
इंबियाणि संस्कृत- अनुन्नतो
इन्द्रियाणि
नावणए अप्पहि→ अणाउले । जहाभागं दमइत्ता मुणी चरे॥ नावनतः अप्रहृष्टोऽनाकुलः । यथाभागं दमयित्वा मुनिश्चरेत् ।।
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
चौपाई- ब्रह्मचर्य के धारनहारे, वेश्या के पड़ोस को टारे ।
बान्त ब्रह्मचारी मन माही, वा पल विकृत चित्त है जाही॥
अर्थ-ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ब्रह्मचारी साधु वेश्याओं के मुहल्ले में गोचरी को न जावे । क्योंकि वहां जानेवाले दान्त (इन्द्रिय-जयी) साधु के भी विस्रोतसिका हो सकती है, अर्थात् चित्त चंचल हो सकता है।
चौपाई- वेश्यादिक के पान अजोगा, छिन छिन मये तासु संजोगा ।
व्रतनि मांहि पीड़ा उपजाही, ह संदेह नमनता-माही ।।
अर्थ-- अनायतन (अयोग्य स्थान) में विचरण करने वाले साधु के (वेश्याओं को मुहल्ले में बार-बार आने-जाने से) उनके संसर्ग होने के कारण व्रतों की पीड़ा (विनाश) और श्रमणपने में संशय हो सकता है।
(११)
बोहा-तातें याकों जानि के, दुरगति-बादन दोस ।
मुनि इकंत-धारी त पातर - पंच - परोस । अर्थ-इसलिए इसे दुर्गति बढ़ाने वाला दोष जानकर एकान्त (मोक्षमार्ग) का अभिलाषी मुनि वेश्याओं के मोहल्ले में गोचरी के लिए न जावे, किन्तु उपर जाने का परित्याग करे ।
(१२) बोहा- मत्त बलद, सिसु-खेल-पल, सुरभि प्रसूता स्वान ।
हय गय कलह र समर के, तजिय दूरतें पान । अर्थ- जहाँ कुत्ता हो, नव-प्रसूता (थोड़े समय की व्याई हुई) गाय हो, उन्मत्त बैल हो, मदोन्मत हाथी और घोड़ा हो, जहां बच्चे खेल रहे हों, जहां पर कलह और युद्ध हो रहा हो, ऐसे स्थानों को दूर से ही परित्याग करे ।
(१३) बोहा-नहिं हरसित, नहिं आकुलित, नत उन्नत हुइ नाहि ।
नपाभाग इंद्रियनि बमि, मुनि विचर मग-माहि ॥ अर्थ-मूनि न उन्नत होकर (ऊंचा मुख कर), न अवनत होकर (बहुत मक कर), न हर्षित होकर और न व्याकुल होकर यथायोग्य इन्द्रियों का दमन कर चले।
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दशवकालिकसूत्र (१४) दवदवस्स न गच्छज्जा भासमाणो य गोयरे ।
हसंतो नाभिगच्छेज्जा कुलं उच्चावयं सया ॥ संस्कृत- द्रवं द्रवं न गच्छेत् भाषमाणश्च गोचरे ।
हसन् नाभिगच्छेत, कुलमुच्चावचं सदा ॥
मूल- आलोयं थिग्गलं दारं संधिं दगमवणाणि य ।
चरंतो ण विणिज्झाए संकट्ठाणं विवज्जए॥ संस्कृत- आलोकं थिग्गलं द्वारं सन्धिं दकभवनानि च ।
चरन् न विनिध्यायेत् शङ्कास्थानं विवर्जयेत् ॥
(१६) मूल-- रणो गिहवईणं च रहस्सारक्खियाण य।
संकिलेसकरं ठाणं दूरओ परिवज्जए॥ संस्कृत-- राज्ञो गृहपतीनां च रहस्यारक्षिकाणाञ्च । संक्लेशकरं स्थानं दूरतः परिवर्जयेत् ॥
(१७) मूल- पडिकुठं कुलं न पविसे मामगं परिवज्जए ।
अचियत्तंकुलं न पविसे चियत्त पविसे कुलं । संस्कृत -- प्रतिक्रुष्टं कुलं न प्रविशेत् मामकं परिवर्जयेत् । अचियत्त कुलं न प्रविशेत् नियत्त प्रविशेत् कुलम् ।।
(१८) मूल- साणीपावारपिहियं अप्पणा नावपंगुरे ।
कवाडं नो पणोल्लेज्जा ओग्गहंसि अजाइया । संस्कृत-- शाणी - प्रावार - पिहितं आत्मना नापवृणुयात् ।
कपाटं न प्रणोदयेत् अवग्रहे अयाचित्वा ।।
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
६७
(१४) दोहा-गोचरि सट सट नहिं चले, बोलत हँसत न जाहि ।
सदा कहूं नाव नहीं, ऊंच-नीच कुल माहिं ।। अर्ष-गोचरी के समय साधु दड़बड़ करता-दौड़ता हुआ न जावे । हंसता हुआ और बोलता हुआ भी न जावे । किन्तु सदा ऊंच-नीच ग्राह्य कुल में ईर्यासमिति पूर्वक गोचरी के लिए जावे ।
बोहा-भोत, रोखा, द्वार पुनि, संधि नोर-घर जान ।
इनहि न जोव चालतो, त्यागै शंका-यान । अर्ष-भिक्षा के लिए घूमता हुआ साधु आलोक (जाली-झरोखे), पिग्गल (टीवाल के छेद) द्वार, सन्धि (भीतों का जोड़ अथवा चोरों के द्वारा किये गये भीत के छेद) और जल-भवन (पानी रखने का स्थान) को टकटकी लगाकर न देखे और इन जैसे सभी शंका के स्थानों के देखने का परित्याग करे।
बोहा-भूप-भवन, गृहपति-भवन, रक्षक रहस जु आहि ।
दुख-दायक जो थान सो तर्ज दूरतें ताहि ॥ गोचरी के लिए जाता हुआ मुनि राजा का महल, गृहपतियों के भवन, कोटपाल आदि आरक्षकों के निवास और रहस्य (गुप्त) स्थान का दूर से ही परित्याग करे।
(१७) पाई- कुल निषिद्ध में धसिए नाहीं, जिहि वरज्यो ह तजिए ताहीं ।
नेह-रहित कुल प्रविसिय नाही, प्रविसिय प्रीतिवंत कुल-माहीं॥ ___ अर्थ-मुनि प्रतिऋष्ट (शास्त्र-निषिद्ध) कुल में प्रवेश न करे, मामक (गृहस्वामी द्वारा मना किये) घर में न जावे, प्रीति और प्रतीति रहित कुल में भी प्रवेश न करे । किन्तु प्रीति और प्रतीति वाले कुल में ही गोचरी के लिए प्रवेश करे ।
दोहा-सन-पट या चिकतें ढक्यौ, नहीं उधार द्वार ।
विनु आयसु के आप ही, खोले नहीं किवार ।।
अर्ष-मुनि गृहस्वामी की आज्ञा के बिना सन-पाट से या चिक आदि से उके द्वार को न उघाड़े और न किवाड़ों को खोले ।
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दशवकालिकसूत्र
(१६)
मूल- गोयरग्गपविट्ठो उ वच्चमुत्तं न धारए ।
ओगासं फासुयं नच्चा अन्नविय वोसिरे ॥ संस्कृत- गोचराग्रप्रविष्टस्तु वर्षोमूत्रं न धारयेत् ।
अवकाशं प्रासुकं ज्ञात्वा अनुज्ञाप्य व्युत्सृजेत् ॥
(२०) मूल- नीयदुवार तमसं कोहगं परिवज्जए ।
अचक्खुविसओ जत्थ पाणा दुप्पडिलेहगा । संस्कृत- नीचद्वारं तमो (मयं) कोष्ठकं परिवर्जयेत् । अचक्षुर्विषयो यत्र प्राणाः दुष्प्रतिलेख्यकाः ।।
(२१) मूल- जत्थ पुप्फाई बीयाई विप्पइण्णाई कोट्ठए ।
अहुणोवलित उल्लं दठूण परिवज्जए । संस्कृत- यत्र पुष्पाणि बीजानि विप्रकीर्णानि कोष्ठके । अधुनोपलिप्तमाद्रं दृष्ट्वा परिवर्जयेत् ॥
(२२) मूल- एलगं दारगं साणं वच्छगं वावि कोट्ठए ।
उल्लंधिया न पविसे विऊहित्ताण व संजए । संस्कृत- एडकं दारकं श्वानं वत्सकं वापि कोष्ठके । उल्लंघ्य न प्रविशेत् व्यूह्य वा संयतः ।।
(२३) मूल- असंसत पलोएज्जा नाइदूरावलोयए ।
उप्फुल्लं न विणिज्झाए निय?ज्ज अयंपिरो॥ संस्कृत- असंसक्त प्रलोकेत नातिदूरमवलोकेत ।
उत्फुल्लं न विनिध्यायेत् निवर्तेताजल्पिता ।।
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
(१९) बोहा - बाधा ले मल-मूत्र को, गोचरि काज न जाय ।
___ उपज, लखि निरदोस पल, तज सु मायसु पाय ॥
मर्ष-गोचरी के लिए गया हुआ साधु मल-मूत्र की बाधा न रखे। (मलमूत्र की बाधा से रहित होकर के गोचरी के लिए जावे। फिर भी यदि कदाचित् मल-मूत्र की बाधा आ जाय तो) प्रासुक स्थान को देख, उसके स्वामी की अनुमति लेकर वहां मल-मूत्र का त्याग करे।
(२०) बोहा-लघु दुवार कोठा तज, अंधकार जहं छाय । .. कठिन प्रानि को पेलनो, जहां दोठि नहिं जाय ।
अर्थ-जहां चक्षु का विषय न होने के कारण प्राणी भली भांति देखे न जा सके, ऐसे बहुत नीचे लघु द्वार वाले अन्धकार पूर्ण कोठे में जाकर गोचरी लेने का त्याग करे।
(२१) बोहा-जा कोठे में कुसुम अरु, बीज बीखरे होंय ।
गीलो, अब हो को लिप्यो, देखि छोडिये सोय ॥. अर्ष-जिस कोठे में या कोठे के द्वार पर पुष्प-बीज आदि विखरे हुए हों, उसे तथा तत्काल के लिये हुए गीले मकान को देख कर मुनि वहां जाने का त्याग करे ।
(२२) दोहा-अज बालक बछरा सुनी, रहे जु कोठे बैठ ।
तिनहि लंधि वा दूर करि, संजति तहां न पैठ॥ अर्थ-जिस कोठे के द्वार पर भेड़-बकरी, बालक, कुत्ता, बछड़ा हो, अथवा इसी प्रकार का कोई दूसरा जानवर हो तो उन्हें उल्लंघन करके या हटाकर साधु घर में प्रवेश न करे।
(२३) बोहा-लखे नहीं अति लीन है, तक दूरतें नाहि ।
खिले दृगनि देख न कछु, अरु' अदीन निकसाहि ॥
१ पाठान्तर-'विन देखे निकसाहि' ।
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नाकालिन सत्र
.
(२४) मूल- अइभूमि न गच्छेज्जा गोयरग्गगो मुणी ।
कुलस्स भूमि जाणित्ता मियं भूमि परक्कमे ॥ संस्कृत- अतिभूमि न गच्छेत् गोचराग्रगतो मुनिः । कुलस्य भूमि ज्ञात्वा मितां भूमि पराक्रमेत् ।।
(२५) मूल- तत्थेव पडिलेहेज्जा भूमिभागं वियक्खणो ।
सिणाणस्स य बच्चस्स संलोगं परिवज्जए । संस्कृत- तव प्रतिलिखेत् भूमिभागं विचक्षणः ।
स्नानस्य च वर्चसः संलोकं परिवर्जयेत् ॥
(२६) मूल- बगमट्ठियआयाणं बीयाणि हरियाणि य ।
परिवज्जतो चिट्ठजा सव्विवियसमाहिए । संस्कृत- दक-मृत्तिकाऽऽदानं बीजानि हरितानि च । परिवर्जयंस्तिष्ठेत्
सर्वेन्द्रियसमाहितः ॥
(२७) मूल- तत्य से चिट्ठमाणस्स आहरे पाण-भोयणं ।
अकप्पियं न इच्छज्जा पडिगाहेज्ज कप्पियं ॥ संस्कृत- तत्र तस्य तिष्ठतः आहरेत् पाण-भोजनम् ।
अकल्पिकं न इच्छेत् प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकम् ।।
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
अर्ष-गोचरी के लिए गया साधु किसी की ओर आसक्ति-पूर्वक न देखे, घर के भीतर दूर तक लम्बी नजर डालकर भी न देखे तथा आंखें फाड़-फाड़कर-टकटकी लगाकर नहीं देखे । यदि वहां भिक्षा न मिले तो कुछ भी नहीं बोलता हुआ, दीनता न दिखलाता हुआ वहां से वापिस लौट आवे ।
(२४) बोहा-गोचरि-कारन मुनि गयो, अतिभूमहिं नहिं जाहि ।
कुल-भूमिहि पहिचानि के, मित भूमिहि अवगाहि ॥ अर्थ-गोवरी के लिए गया हुआ मुनि अतिभूमि में अर्थात् गृहस्थ की मर्यादित भूमि से आगे उसकी आज्ञा के बिना न जावे । किन्तु कल की भूमि को जानकर जिस कुल का जैसा आचार हो, वहां तक की परिमित भूमि में ही जावे ।
(२५) बोहा–प्रतिलेखन तित ही कर, भूमि-भाग पटु होइ ।
न्हान-भवन बरचसहु कों, नहिं अवलोके सोइ ॥ अर्थ-विचक्षण (देश-काल और शास्त्र-मर्यादा का ज्ञाता) मुनि उस सीमित या मर्यादित भूमि में ही भू-भाग का प्रतिलेखन करे अर्थात् उस भूमि को पूज कर खड़ा रहे । जहाँ से स्नान और शौच का स्थान दिखाई पड़े, उसका त्याग करे।
(२६) वोहा -- जल मृतिका को आगमन, बीज हरित को छोर । ___साधी सब इन्द्रियनि जिन, मुनि ठहरै तहिं ठोर।।
अर्थ-सब इन्द्रियों को वश में रखता हुआ समाधिवन्त मुनि सचित्त जल और सचित्त मिट्टी-युक्त स्थान को, बीजों को और हरियाली को छोड़कर खड़ा रहे।
(२७) बोहा-ता पल पं ठहरयो मुनी, गहै जु भोजन-पान ।
नहिं अजोग को संग्रहै, गहै जोग निज जान । अर्थ - वहां खड़े हुए मुनि के लिए कोई भोजन-पान देवे तो अकल्पनीय को ग्रहण न करे, किन्तु कल्पनीय (ग्रहण करने के योग्य) को ही ग्रहण करे ।
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दशवकालिकापून
आहरतो सिया तत्य परिसाडेज्ज भोयणं ।
देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं॥ संस्कृत- आहरन्ती स्यात्तत्र परिशाटयेद् भोजनम् । ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ।।
(२९) मूल- सम्मद्दमाणी पाणाणि बीयाणि हरियाणि य ।
असंजमार नच्चा तारिसं परिवज्जए । संस्कृत- सम्मर्दयन्ती प्राणान् बीजानि हरितानि च । असंयमकारों ज्ञात्वा तादृशं परिवर्जयेत् ।।
(३०-३१) मूल- साहटु निक्सवित्ताणं सच्चित्तं घट्टियाण य ,
तहेय समणवाए उदगं संपणोलिया ॥ आगाहइत्ता चलइत्ता आहरे पाण-भोयणं ।
देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥ संस्कृत- संहृत्य निक्षिप्य सचित्तं घट्टयित्वा च ।
तथैव श्रमणार्थं उदकं संप्रणुद्य ।। अवगाह्य चालयित्वा आहरेत् पान-भोजनम् । ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ।।
(३२) मूल- पुरकम्मेण हत्येण बव्वोए भायणेण वा ।
बेतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं॥ संस्कृत- पुरःकर्मणा हस्तेन दा भाजनेन वा ।
ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ॥
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
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(२८) बोहा-तित इत उतकों गरती, परस भोजन जोइ ।
देनहारि सों यों कहै, ऐसो चहिय न मोह ॥ अर्थ-साधु के लिए आहार-पानी देती हुई स्त्री यदि कदाचित् आहार-पानी को भूमि पर गिरावे तो मुनि उस देने वाली से कहे कि इस प्रकार का आहार-पानी मेरे लिए नहीं कल्पता है, अर्थात् मेरे ग्रहण करने के योग्य नहीं है।
(२९) दोहा-बीज हरित प्रानीनि कों मरदन करती होइ ।
जानि असंजम-कारिनी, देति तर्ज मुनि सोय ॥ .. अर्थ-यदि प्राणियों को, बीजों को और हरियाली को कुचलती-रौंदती हुई
त्री आहार-पानी को देवे तो साधु उसे असंजम-कारिणी जानकर उससे आहार-पानी नहीं लेवे।
(३०-३१) चौपाई- ऐसेइ मनि-हित सचित मिलाई, वा सचित्त पर अचित्त रखाई।
पोसि हिलाय नीर-अवगाही, भोजन-पान जु देय चलाई। देनहारि-सों मुनि कह ऐसो, मोको नहिं कल्पित है तेसो ।
'सो मैं यह आहार न लेऊ, कल्प जो, ताही को सेऊ ॥' __ अर्थ-- एक वर्तन में से दूसरे बर्तन में निकाल कर, सचित्त वस्तु को अचित्त वस्तु के साथ मिलाकर, या सचित्त पत्रादि के ऊपर रखकर, सचित्त को हिलाकर, घड़े आदि से भरे जल को हिलाकर, पानी में से चलकर, आंगन आदि में ढले हुए जल 7 निकाल कर साधु के लिए आहार-पानी देवे तो उस देने वाली से कहे कि ऐसा हार-पानी मेरे लिए नहीं कल्पता है।
(३२) सोरठा- पहिले किये सदोस, हाय कुरछि भाजन तथा ।
कहे जु रही परोसि, ऐसो कल्पत मोहि नहि ॥ अर्थ-पुराकर्म-कृत' हाथ से, करछी से या वर्तन से भिक्षा देने वाली स्त्री से कहे कि ऐसा आहार मेरे लिए नहीं कल्पता है।
१ पाठान्तर-'यह कल्पै नहिं मोइ'। २ साधु को भिक्षा देने के लिए पहिले सचित्त जल से हाथ-कलछी आदि का धोना
या अन्य इसी प्रकार का आरम्भ करना पुराकृत-कर्म कहलाता है।
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दशर्वकालिक सूत्र
(३३-३४) मूल- एवं उदओल्ले ससिणिद्ध ससरक्खे मट्टिया ऊसे ।
हरियाले हिंगुलए मणोसिला अंजणे लोणे ।। गेल्य वणिय सेडिय सोरठ्ठिय पिट्ठकुक्कुस कए य ।
उक्कट्ठमसंसठे संसठे चेव बोधव्वे ॥ संस्कृत- एवमुदकाद: सस्निग्धः ससरक्षो मृत्तिका ऊषः ।
हरितालं हिंगुलिकं मनःशिला अञ्जनं लवणम् ।। गैरिकं वर्णिका-सेटिका-सौराष्ट्रिका-पिष्टं कुक्कुसकृतश्च । उत्कृष्टमसंसृष्टः संसृष्टश्चैव बोद्धव्यः ।।
(३५)
मूल- असंसद्रुण हत्येण दवीए भायणेण वा ।
दिज्जमाणं न इच्छेज्जा पच्छाकम्मं जहिं भवे ॥ संस्कृत- असंसृष्टेन हस्तेन दा भाजनेन वा ।
दीयमानं नेच्छेत् पश्चात्कर्म यत्र भवेत् ।।
मूल- संसट्ठण य हत्थेण दवीए भायणेण वा ।
दिज्जमाणं पडिच्छेज्जा जं तत्थेसणियं भवे ॥ संस्कृत--- संसृष्टेन च हस्तेन दा भाजनेन वा । दीयमानं प्रतीच्छेत् यत्तत्रैषणीयं भवेत् ।।
(३७) मूल- दोण्हं तु भुजमाणाणं एगो तत्थ निमंतए ।
दिज्जमाणं न इच्छेज्जा छंदं से पडिलेहए । संस्कृत- द्वयोस्तु भुजानयोरेकस्तत्र निमन्त्रयेत् ।
दोयमानं न इच्छेत् छन्दं तस्य प्रतिलेखयेत् ॥
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पंचम पिण्डेषण अध्ययन
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छप्पय
(३३-३४) जल भीने अरु चीकने, सचित्त रज-भरे होय कर, मिट्टि खार हरताल, लवन हिंगुल मनसिल-भर । अंजन फिटफरि गेर चून भूसीसों सान,
सेत पीत मृत्तिका लगी कर सों जो जान ॥ फल-खंड हाथ व्यंजन लिए, व्यंजन अलिपित जो रहै,
या विधि लखि दोस निवारिफं, मुनि अदोस अन-जल गहै ।।
अर्थ · इसी प्रकार जल से आई हाथ से, स्निग्ध हाथ से, तथा सचित्त रजकण, मृत्तिका, क्षार, हरिताल, हिंगुल, मैनसिल, अंजन, नमक, गेरु, पीली मिट्टी, सफेद मिट्टी, फिटकरी, तत्काल पीसा हआ आटा, तत्काल कटी हुई धान, उसके भूसे या छिलके और फल के छोटे टुकड़ों या हरे पत्तों के रस से सने हुए कलछी और वर्तन से भिक्षा देनेवाली स्त्री से कहे कि इस प्रकार आहार-पान मेरे लिए नहीं कल्पता है।
दोहा-असंसृष्ट कर कुरछि-सों, भाजन सों जो वेतु ।
ताहि न चाहै होत जो, पच्छाकरम को हेतु ॥ अर्थ-जहां पश्चात्-कर्म का प्रसंग हो, वहां असंमृष्ट (भक्त-पान से अलिप्त) हाथ, कलछी और बर्तन से दिया जाने वाला आहार मुनि न लेवे । (जिस वस्तु का हाथ आदि पर लेप लगने पर उसे पीछे धोना पड़े, उसे पश्चात्कर्म दोप कहते हैं।)
दोहा संसृष्टे कर कुरछि अरु, भाजन सों जो देय ।
होय तहां निरदोस तो पहन कर मुनि सोय ॥ अर्थ-संसृष्ट-भक्त-पान से लिप्त हाथ, कलछी और बर्तन से दिया जाने वाला आहार यदि एपणीय हो तो मुनि ले लेवे ।
(३७)
चौपाई- दो जन भोजन करते होंय, एक बुलावे मनि को जोय ॥
जो दूजे का भाव न होय, मुनि तस असन गहै नहि कोय ।
अर्थ-जिस घर में दो व्यक्ति भोजन कर रहे हों. उनमें से यदि एक व्यक्ति निमंत्रण करे अर्थात् आहार लेने के लिए प्रार्थना करे (परन्तु दूसरा चुप रहे) तो मुनि वहां आहार न ले । दूसरे के अभिप्राय को देखे, यदि उसे साधु को देना अप्रिय लग रहा हो तो न ले और प्रिय लगता प्रतीत हो तो ले ले।
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दशवकालिकसूत्र
(३८) मूल- दोण्हं तु भुजमाणाणं दो वि तत्थ निमंतए ।
दिज्जमाणं परिच्छेज्जा जं तत्थेसणियं भवे॥ संस्कृत-- द्वयोस्तु भुजानयोः द्वावपि . तत्र निमन्त्रयेयाताम् । दीयमानं प्रतीच्छेत् यत्तत्रषणीयं भवेत् ।।
(३९) मूल- गुम्विणोए उन्नत्थं विविहं पाण-भोयणं ।
मुज्जमाणं विवज्जेज्जा मुत्तसेसं पडिच्छए । संस्कृत- गुर्विण्या उपन्यस्तं विविधं पान-भोजनम् । भुज्यमानं विवर्जयेत् भुक्तशेषं प्रतीच्छेत् ॥
(४०-४१) मूल
सिया य समणवाए गुग्विणी कालमासिणी । उठ्ठिया वा निसीएज्जा निसन्ना वा पुणुट्ठए । तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पियं ।
देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ संस्कृत- स्याच्च श्रमणार्थं गुर्विणी कालमासिनी ।
उत्थिता वा निषीदेत निषण्णा वा पुनरुत्तिष्ठेत् । तद् भवेद् भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ।।
(४२-४३) मूल- थणगं पिज्जेमाणी दारगं वा कुमारियं ।
तं निक्खिवित्त, रोयंतं आहरे पाण-भोयणं॥ तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पिय । वितियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
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(३८)
बोहा-खावन हारे बोय जो, ताहि निमंत्रन देय ।
जो तह होय अदोस तो, सो दोनों मुनि लेय ॥ अर्ष-उस घर में भोजन करने वाले दोनों ही व्यक्ति यदि निमंत्रित करें तो मुनि उस दिये जाने वाले आहार को यदि एषणीय हो तो ले ले।
__ (३६) बोहा-गरमवती निज-हित रचे बहुविध भोजन-पान ।
तिनहिं तजे, भोगे बर्च तिनहि गहै मुनि जान ॥
अर्थ-गर्भिणी स्त्री द्वारा स्व-निमित्त बनाया हुआ विविध प्रकार का अशनपान वह खा रही हो तो मुनि उसके लेने का त्याग करे। हां, खाने के बाद यदि अनुच्छिष्ट-बच जाय तो ले लेवे ।।
(४०-४१) चौपाई- पूरे मासनि गरभिन कोई, बैठे उठे साधु-हित सोई ।
अथवा बहुरि खरी सो होई, संजति-जोग न अन-जल सोई । या प्रकार देतिहि कह सोई, ऐसो नहिं कलपत है मोई ।
सो मैं यह आहार न लेऊ, कल्पै जो ताही को सेऊ ॥
अर्थ-कालमासवती (पूरे दिन वाली) गर्भिणी स्त्री खड़ी हो और श्रमण को भिक्षा देने के लिए कदाचित् बैठे, अथवा बैठी हो और खड़ी हो जाये तो उसके द्वारा दया जाने वाला भक्त-पान संयमी जनों के लिए अकल्पनीय है। इसलिए मुनि देनेनाली उस गभिणी से कहे कि यह अशन-पान मेरे लिए नहीं कल्पता है।
(४२-४३) चौपाई- बालक बालिकाहि पय पावति, रोवति तिनहि गरि जो मावति ।
देने लगे जल-मोजन जोई, मुनिकों नहिं कलपत है सोई॥ देनहारि-सों कह मुनि सोई, ऐसो नहि कलपत है मोई ।
सो मैं यह आहार न लेऊ, कल्प जो ताही को सेऊ ॥
मर्ष-बालक या बालिका को स्तन-पान कराती हुई स्त्री उसे रोते हुए छोड़कर नीचे रखकर भोजन-पान लावे और देने लगे तो वह भोजन-पान संयतों के
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दशवकालिक सूत्र संस्कृत- स्तनकं पावयन्तो दारकं वा कुमारिकाम् ।
तं (तां) निक्षिप्य रुदन्तं आहरेत् पान-भोजनम् ।। तद् भवेद् भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ॥
(४४) मूल-- जं भवे भत्त - पाणं तु कप्पाकप्पम्मि संकियं ।
बेतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ संस्कृत- यद् भवेद् भक्तपानं तु कल्प्याकल्प्ये शङ्कितम् ।
ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ।।
मूल- दगवारएण पिहियं नोसाए पीढएण वा ।
लोढण वा वि लेवेण सिलेसेण व केणइ ॥ तं च उम्मिदिया देज्जा समणहाए व दावए ।
देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ संस्कृत- 'दगवारएण' पिहितं 'नीसाए' पीठकेन वा ।
'लोढेण' वापि लेपेन श्लेषेण वा केनचित् ।। तच्चोद्भिद्य दद्यात् श्रमणार्थं वा दायकः । ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ॥
मूल- असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा ।
जं जाणेज्जा सुणेज्जा वा दाणट्ठा पगडं इमं ॥ तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अप्पियं ।
दंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिस ॥ संस्कृत- अशनं पानकं वापि खाद्य स्वाद्य तथा ।
यज्जानीयात् शृणुयाद्वा दानार्थ प्रकृतमिदम् ॥ तद् भवेद् भक्त पानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ॥
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि उरा देने वाली स्त्री से कहे कि ऐसा आहारपान मुझे नहीं कल्पता है ।
चौपाई - कल्प्य अकल्पनीय वा होई, देहारि-सों मुनि कह सोई,
(४४)
यों संकित जल- भोजन जोई । ऐसो नह कलपत है मोई ॥
चौपाई
अर्थ - जो भक्त पान कल्प और अकल्प की दृष्टि से शंका-युक्त हो, उसको देने वाली स्त्री से कहे - ऐसा आहार -पान मेरे लिए नहीं कल्पना है ।
( ४५ – ४६ )
जल-घट पाहन पेसनि ढाका, लोढा लेप लाख करि ढाका । पोढा तथा और कछु होइ, ढकित उघारि साधु-हित सोई ॥ dनहारि - सों कह मुनि सोई, ऐसो नहीं कल्पत है मोई । सो मैं यह आहार न लेऊ, कल्पं जो ताही कूं सेऊ ॥
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ะ
ऐसो नहि कलपत है मोई । कल्पे जो ताही कू सेऊ ॥
अर्थ - जल- कुम्भ, चक्की पीठ, लोढा, मिट्टी का लेप ओर लाख आदि श्लेप द्रव्यों से पिहित ( ढंके, लिपे और मूंदे हुए) पात्र का श्रमण के लिए मुंह खोलकर यदि कोई स्त्री आहार देवे या किसी से दिलावे तो उस देने वाली स्त्री से साघु कहे कि ऐसा आहार मेरे लिए नहीं कल्पता है । भावार्थ-साधु के देने के लिए उस समय किये गये उक्त कार्य दोषकारक हैं ।
(४७-४८)
: पाई - खाद्य स्वाद्य भोजन अरु पाना, दाना हेतु-कृत, सुना कि जाना । ऐसो भोजन पान जु माहो, सो संजति कों कलपत नाहीं ॥
नहारि सों कहि मुनि सोई, सो में यह माहार न लेऊं,
अर्थ 'यह अशन, पानक ( पेय वस्तु), खाद्य और स्वाद्य पदार्थ दानार्थ तैयार
किया हुआ है । यह मुनि जान लेवे, तो वह भक्तपान संयतों के लिए कल्पनीय नहीं है, इसलिए उस देनेवाली स्त्री से मुनि कहे कि ऐसा आहार मेरे लिए नहीं कल्पता है ।
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2
.
दशवकालिक सूत्र (४६-५०) मूल- असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा ।
जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा पुण्णट्ठा पगडं इमं ॥ तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पियं ।
वितियं पडियाइक्ले न मे कप्पइ तारिसं॥ संस्कृत- अशनं पानकं वापि खाद्य स्वाद्य तथा ।
यज्जानीयात् शृणुयाद्वा पुण्यार्थं प्रकृतमिदम् ।। तद् भवेद् भक्त पानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षोत न मे कल्पते तादृशम् ।।
(५१-५२) मूल- असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा ।
जं जाणेज्जा सुणेज्जा वा वणिमट्ठा पगडं इमं ॥ तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पियं ।
देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं॥ संस्कृत- अशनं पानकं वापि खाद्य स्वाद्य तथा ।
यज्जानीयात् शृणुयाद्वा वनीपकार्थ प्रकृतमिदम् ।। तद् भवेद् भक्त-पानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ।।
(५३-५४) मूल- असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा ।
जं जाणेज्जा सुणेज्जा वा समणट्ठा पगडं इमं ॥ तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पियं ।
बेतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ संस्कृत- अशनं पानकं वापि खाद्य स्वाद्य तथा ।
यज्जानीयात् शृणुयादा श्रमणार्थ प्रकृतमिदम् ।। तद् भवेद् भक्त पानं तु संगतानामका कम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ॥
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चौपाई - खाद्य स्वाध भोजन अरु पाना, पुण्य-हेतु-कृत सुना कि जाना ।
ऐसो भोजन पान जु आही, सो संजति को कलपत नाहीं॥ देनहारि-सों कह मुनि सोई, ऐसो नहिं कलपत है मोई ।
सो मैं यह आहार न लेऊ, कल्पं जो ताही कू सेऊ ॥
अर्थ ----यह अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य पदार्थ पुण्यार्थ तैयार किया हुआ है, यह बात मुनि जान लेवे या सुन लेवे तो वह भक्त-पान संयतों के लिए अकल्पनीय है। इसलिए मुनि देने वाली स्त्री से कहे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए नहीं कल्पता है।
(५१-५२) चौपाई- खाध स्वाध भोजन अरु पाना, जाचक-हित-कृत सुना कि जाना।
ऐसो भोजन-पान जु आहो, सो संजति को कलपत नाहीं॥ देनहारि-सों मुनि कह सोई, ऐसो नहिं कलपत है मोई ।
सो मैं यह आहार न लेऊ, कल्पै जो ताही . सेऊ ॥
अर्थ-यह अशन पानक, खाद्य और स्वाद्य पदार्थ वनीपकों (भिखारियों) के लिए तैयार किया हुआ है, यह बात मुनि जान ले या सुन लेवे तो वह भक्त-पान संयतों के लिए अकल्पनीय है। इसलिए मुनि उसे देने वाली स्त्री से कहे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए नहीं कल्पता है ।
(५३-५४) चौपाई- खाध स्वाध भोजन अरु पाना, श्रमण-हेतु-कृत सुना कि जाना ।
ऐसो भोजन-पान जु आही, सो संजत को कलपत नाहीं॥ देनहारि-सों मुनि कह सोई, ऐसो नहिं कलपत है मोई ।
सो मैं यह आहार न लेऊ, जो कल्पै ताही कू सेऊ ॥
अर्ष यह अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य पदार्थ श्रमणों के लिए तैयार किया हुआ है, यह बात मुनि जान ले या सुन लेवे तो वह भक्त-पान संयतों के लिए अकल्पनीय है । इसलिए मुनि उसे देने वाली स्त्री से कहे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए नहीं कल्पता है।
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दशवकालिकसूत्र (५५-५६) उद्दे सियं कोयगडं पूईकम्मं च आहडं । अझोयर पामिच्चं मोसजायं च वज्जए॥ उग्गमं से पच्छेज्जा कस्सट्ठा केण वा कडं ।
सोच्चा निस्संकियं सुद्धं पडिगाहेज्जा संजए । संस्कृत- औद्देशिकं क्रोतकृतं पूतिकर्म चाहृतम् ।
अध्यवतर प्रामित्यं मिश्रजातं च वर्जयेत् ॥ उद्गमं तस्य पृच्छेत् कस्याएं केन वा कृतम् । श्रुत्वा निःशङ्कितं शुद्ध प्रतिगृह्णीयात् संयतः॥
(५७-५८) मूल- असणं पाणगं वावि खाइमं साइमं तहा ।
पुप्फेसु होज्ज उम्मीसं बीएसु हरिएसु वा॥ तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पियं ।
बैंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं॥ संस्कृत- अशनं पानकं वापि खाद्य स्वाद्य तथा । पुष्पर्भवेदुन्मिश्र
बीजहरितर्वा । तद् भवेद् भक्त-पानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ।।
(५६-६०) असण पाणगं वावि खाइमं साइमं तहा । उदगम्मि होज्ज निक्खित्त उत्तिगपणगेसु वा॥ तं भवे मत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पियं । बेतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥
-मूल
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
(५५-५६) चौपाई- मुनि-निमित्त जो होय बनायो, अथवा बेके दाम मंगायो ।
अधकरमी अबोस में सान्यो, प्रामादिक तें मुनि-हित आन्यो । मुनि-सुधि आये और मिलायो, वीन निबल से छीन जु पायो । निज-हित, मुनि-हित मेलि बनायो, यो सन्देह जु मुनि-मन आयो। तो मुनि पूछे उद्गम ताको, काके काज, कियो किहि याको । संका-हीन सुन जो ताही, प्रहै साधु, नाहीं तो नाहीं ॥
अर्थ-औद्देशिक (साधु के उद्देश्य से बनाया गया), क्रीतकृत (दाम देकर खरीदा गया), पूतिकर्म (आषाकर्म-मिश्रित आहार), आहृत (पर घर या प्रामान्तर से लाया गया), अध्यवतर (अपने लिए आहार बनाते समय साधु की याद आने पर उसमें और अधिक बनाया गया) प्रामित्य (दूसरों से उधार लिया गया आहार), मिश्रजात (अपने लिए बनाये जा रहे आहार में साधु के लिए और अधिक चावल
आदि मिलाना) आहार साधु के लिए त्याज्य है । साधु दाता से आहार का उद्गम पूछे कि यह किसलिए बनाया है, किसने बनाया है ? दाता का उत्तर सुनकर यदि शंका दूर हो जाय और आहार शुद्ध ज्ञात हो तो साधु उसे ग्रहण करे, अन्यथा नहीं।
(५७--५८) चौपाई-बाय स्वाय भोजन अरु पाना, सुमन बीज हरितनि सों साना ।
ऐसो भोजन पान जु आही, संजति कों कलपत सो नाहीं ॥ देनहारि-सों मुनि कह सोई, ऐसो नहिं कलपत है मोई । सो मैं यह आहार न लेऊ, जो कल्प ताही कू सेऊ॥
अर्थ-यदि अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य पुष्प-बीज और हरियाली से उन्मिश्र हों तो वह भक्त-पान संयतों के लिए अकल्पनीय है, इसलिए मुनि देनेवाली स्त्री से कहे कि ऐसा आहार मेरे लिए कल्पता नहीं है।
(५६-६०) चौपाई-बाय स्वाय भोजन अह पाना, जल सजीव पर रखा जु जाना ।
कोरी नगरे पर पा होई. मुनिहिं न कलपत अन-जल सोई।। देनहारि-सों मुनि कह सोई, ऐसो नहिं कलपत है मोई । सो मैं यह आहार न लेऊ, जो कल्प ताही सेकं ॥
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दशवकालिकसूत्र संस्कृत- अशनं पानकं वापि खाद्य स्वाद्य तथा ।
उदके भवेन्निक्षिप्तं उत्तिंग-पनकेषु वा ।। तद् भवेद् भक्त पानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ।।
(६१-६२) मूल- असणं पाणगं वावि खाइमं साइमं तहा ।
तेउम्मि होज्ज निक्खित्तं तं च संघट्टिया दए । तं भवे भत्त पाणं तु संजयाण अकप्पियं ।
देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ संस्कृत- अशनं पानकं वापि खाद्य स्वाद्य तथा ।
तेजसि भवेन्निक्षिप्तं तच्च संघव्य दद्यात् ।। तद् भवेद् भक्त पानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ।।
(६३-६४)
मूल- एवं उस्सक्किया ओसक्किया उज्जालिया पज्जालिया
निव्वाविया । उस्सिचिया निस्संचिया ओवत्तिया ओयारिया दए । तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पियं ।
देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ संस्कृत- एवमुत्ष्वक्य अवष्वक्य उज्ज्वाल्य प्रज्वाल्य निर्वाप्य ।
उत्सिच्य निषिच्य अपवर्त्य अवतार्य दद्यात् ।। तद् भवेद् भक्त-पानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ।।
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
___ अर्ष-यदि अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य पदार्थ पानी, उत्तिंग (कीटिका नगर) और पनक (लीलन-फूलन) पर निक्षिप्त (रखा हुआ) हो तो वह भक्त-पान संयमी जनों के लिए अकल्पनीय होता है । इसलिए मुनि देने वाली स्त्री से कहे कि ऐसा आहार मेरे लिए नहीं कल्पता है।
(६१-६२)
चौपाई- खाद्य स्वाध भोजन जल जोई, आगी-ऊपर रख्यो ज होई ।
अथवा ताहि परसि करि देई, मुनिहिं न कलपत अन-जल तेई॥ देनहारि-सों मनि कह सोई, ऐसो नहिं कलपत है मोई । सो मैं यह आहार न लेऊ, जो कल्पै ताही के सेऊ ।।
अर्थ-यदि अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य अग्नि पर रखा हुआ हो और उसका (अग्नि का) स्पर्श कर देवे तो वह भक्त-पान संयतों के लिए अकल्पनीय है। इसलिए मुनि देनेवाली स्त्री से कहे कि ऐमा आहार मेरे लिए नहीं कल्पता है ।
(६३---.६४)
है में इंधन डार, अथवा निकार कर, अलप बहुत काठ चूल्हे में गिराय के, आगि को बुझाय, ताप थित पात्र ह तें कछु अन्न कों निकार छींटा पानी को दिराय के। आगि-थित अन्न ताको आन पात्र-मांहि डार, आगि ते ऊतारि पात्र देत मुनिराय के, ऐसो अन-पानी सो तो साधु के न जोग जानी, देती सों कहै कि ऐसो नाहीं
मेरे लायके। अर्थ-इमी प्रकार चूल्हे में इन्धन डालकर, चूल्हे रो इन्धन निकालकर, चूल्हे को उज्ज्वलित कर (सुलगा कर), प्रज्वलित (प्रदीप्त) कर, बुझाकर, आग पर रखे हुए पात्र में से आहार निकालकर, पानी का छींटा देकर पात्र को टेढ़ा कर, उतार कर देवे तो वह भक्त-पान संयमी जनों के लिए अकल्पनीय है, इसलिए मुनि देनेवाली स्त्री से कहे कि यह आहार मेरे लिए नहीं कल्पता है ।
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८६
मूल
मूल
(६५-६६ )
संस्कृत — भवेत् काष्ठं शिला वापि स्थापितं
होज्ज कट्ठे सिलं वावि संकमट्ठाए
ठवियं
न तेण भिक्खू गच्छेज्जा
गंभीरं शुसिरं चैव
मूल
न तेन भिक्षुर्गच्छेद् गम्भीरं शुषिरं चैव
संक्रमार्थं तच्च
इट्टालं वावि एगया ।
तं च होज्ज चलाचलं ॥ दिट्ठो तत्थ असंजमो ।
सव्वयिसमाहिए ॥
इट्टालं
संस्कृत — निश्रण फलकं पीठं
(६७-६८-६९ )
वापि एकदा |
भवेच्चलाचलम् ।।
दृष्टस्तत्रासंयमः ।
सर्वेन्द्रियसमाहितः ।।
दशर्वकालिक सूत्र
निस्सेण फलगं पीढं
उस्तवित्ताणमारहे ।
मंच कोलं च पासायं समणट्ठाए व दावए ॥ दुरूहमाणी पवडेज्जा हत्थं पायं वा लूसए । पुढविजीवे वि हिंसेज्जा जे य तन्निस्सिया जगा ॥ एयारिसे महादोसे जाणिऊण महेसिणो ।
तम्हा मालोहडं भिक्खं
न पडिगेण्हंति संजया ॥
उत्सृत्य
आरोहेत् ।
मञ्चं कीलं च प्रासादं श्रमणार्थं वा दायक: (का) ।। आरोहन्ती प्रपतेत् हस्तं पादं वा लूषयेत् । पृथिवी जीवान् विहिंस्यात् यांश्च तन्निश्रितान् 'जगा' ॥ एतादृशान् महादोषान् ज्ञात्वा
महर्षयः । संयताः ॥
तस्मान्मालापहृतां भिक्षा न प्रतिगृह्णन्ति
(७०) आमं छिन्न
आभगं
कंद मूलं पलंबं वा तु बागं सिंगवेरं च संस्कृत -- कंद मूलं प्रलम्बं वा आमं छिन्न तुम्बकं शृङ्गवेरं च आमकं
व सन्निरं ।
परिवज्जए ॥
वा सन्निरम् । परिवर्जयेत् ॥
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
(६५-६६) सर्वया- ईट सिला लकराजु थपे कछु, पावस में मग चालन चाही,
वे पिर नाहिं उगामग डोलत, तो तिहि पंयतें संत न जाही। देख्यो असंजम ऐसन तें, अनह गहरे मग पोले तनाही,
जो परवीन सब इदरीन को, कोन है लीन समाधि के मांही।
अर्थ-यदि कमी काठ, शिला या ईंट के टुकड़े संक्रमण (जल या कीचड़ पार करने) के लिए रखे हुए हों और वे चलाचल हों तो सर्वेन्द्रियों की सावधानी वाला साधु उन पर होकर न जावे । इसी प्रकार वह प्रकाश-रहित और पोली भूमि से न जावे, भगवान् ने वहां पर असंयम (प्राणि-घात और आत्म-विराधन) देखा है ।
(६७-६८-६९) दोहा-पीढ पाटिया पलंग वा, नोसेनी हि उठाइ ।
मनि-हित ऊंचे घरि चढ़, देनहारि जो जाइ । दुखसों चढ़ती गिर पर, कर पग डार तोर । भूमि-काय-जीवनि हने, जो ठहरै तिहि ठोर ।। ऐसो मोटो दोस लखि, साधु महारिसि जेय ।
तातें पंकति-रचनि करि, लाई भोख न लेय ॥ अर्थ ---श्रमण के लिए दाता निसनी, फलक या पीठ को ऊंचा कर मंचान स्तम्भ और प्रासाद पर चढ़ भक्त-पान लावे तो साधु उसे ग्रहण न करे। क्योंकि
सैनी आदि से चढ़ती हुई स्त्री गिर सकती है और हाथ-पैर टूट सकते हैं । उसके गरने से नीचे दबकर पृथ्वी की तथा पृथ्वी के आश्रित अन्य जीवों की विराधना हो सकती है । अतः ऐसे महादोषों को जानकर महर्षि संयमी मालापहृत (कारी मंजिल से सीढ़ी आदि चढ़कर लाई हुई) वस्तु की भिक्षा नहीं लेते हैं ।
(७०) दोहा-कंद मूल फल अपक जे, छेदित पत्ता साग ।
___ आवा लोको (घीया) साक ए, सचित जानि मुनि त्याग ।
अर्थ-अपक्व कन्द, मूल, फल छिला हुआ, पत्ती का शाक, तुम्बाक (लौकाघीया) और अदरक का मुनि परित्याग करे ।
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55
(७१–७२)
सत्त चुण्णाई कोलचण्णाई
सक्कुल फाणियं पूयं अन्नं वावि fararaमाण पसढं रएण देतियं पडियाइक्खे न मे
मूल- तहेव
संस्कृत — तथैव
मूल
सक्तुचूर्णानि कोलचूर्णानि फाणितं पूपं अन्यद्वापि
शष्कुली विक्रीयमाणं प्रसृतं रजसा ददतीं प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते
मूल- बहुअट्ठियं
संस्कृत— बह्वस्थिकं
पुद्गलं अस्थिकं तिन्दुकं बिल्वं
( ७३–७४ )
पुग्गलं अणिमिसं वा बहुकंटयं ।
अत्थियं तिदुयं विल्लं उच्छुखंड व सिंबल ॥ अप्पे सिया भोयणजाए बहुउज्झिय धम्मिए । देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥
आवणे ।
तहाविहं ॥
परिफासियं ।
कप्पइ तारिसं ॥
तहेबुच्चावयं संसेइमं
दशवैकालिकसूत्र
आपणे ।
तथाविधम् ॥
परिस्पृष्टम् । तादृशम् ॥
अल्पं स्याद् भोजनजातं बहु उज्झित
ददतीं
प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते
(७५---७६-७७ )
-
अनिमिषं वा बहुकण्टकम् । इक्षुखण्डं वा शिम्बिम् ॥
धर्मकम् ।
तादृशम् ||
जं जाणेज्ज चिराधोयं मईए
पडिपुच्छिऊण सोच्चा वा अजीवं परिणयं नच्चा अह संकियं भवेज्जा आसाइत्ताण
वारधोवणं ।
पाणं अदुवा चाउलोदगं अहुणाधोयं विवज्जए ॥
दंसणेण वा ।
जं च निस्संकियं भवे ॥ पडिगाहेज्ज
संजए ।
रोयए ।।
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८९
पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
(७१-७२) सवैया- रेनु-सचित्त-सने सतुमा, बदरी फल के करि चूरन नाले,
ढोल्यो भयो गुड, त्यों तिल पापरि, पूआ पमूह सु जीरन दाखे । दीखत में सबके धरिके वह, बेचन-काज बजार में राखे, ऐसो आहार हमें कलप नहिं बवनहारि सों संत सु भाखे ।
अर्थ-इसी प्रकार सत्तू, बेरों का चूर्ण, तिल-पपड़ी, गीला गुड़ (राव), पूजा तथा इसी प्रकार की दूसरी वस्तुएं जो बेचने के लिए दुकान में रखी हों, परन्तु बिकी न हों, रज (धूलि) से स्पृष्ट (लिप्त) हो गई हों, तो मुनि उन्हें देती हुई स्त्री से कहे कि ये वस्तुए हमें नहीं कलपती हैं।
(७३-७४) चौपाई- बहु गुठली पुदगल फल जानो, अनिमिष वा बहु कटक ठानो ।
अस्थिक तिन्दुक बिल्व प्रमानो, सेलरि-खंड साल्मली मानो । दोहा-- जामें थोरो खावनो, बहुत डारनो होय ।
देती सों मुनि यों कहै, यह कलप नहिं मोय ।। अर्थ-बहु-अस्थिक (बहुत बीजों वाला फल, जैसे सीताफल), पौद्गल (फलविशेष-जिसमें गदा या दल अधिक हो), अनिमिष (अननासफल), आस्थिक (वह फल जिसमें मोटे रेशे हों), तिन्दुक (तेन्दू का फल), विल्व (बेल का फल), गन्ने की गंडरी और शिम्बी (सेमफली) आदि ऐसे पदार्थ-जिनमें खाने का भाग थोड़ा हो और डालना अधिक पड़े-देती हुई स्त्री से मुनि कहे कि ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है।
(७५-७६-७७) चौपाई- ऊंच नीच पानी पुनि तैसे, अथवा गुड़ घट धोवन ऐसे ।
कठवति-धोवन, चावल-पानी, तजे तुरत के धोए जानी ।। बहुत समय के धोए जाने, जो मति दें, देखन ते मान । पूछ बहुरि सुनि के ह सोई, बिन सन्देह संत जो होई ॥ जानि अजीव-भाव-गत ताही, पहन कर संजति सो चाही । अचि आदि शंका जो होई, स्वाद लेय जान पुनि सोई ॥
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दशवकालिकसूत्र संस्कृत- तथवोच्चावचं पानं अथवा वार - घोवनम् ।
संस्वेदजं (संसेकजं) तण्डुलोदकं अधुना-धोतं विवर्जयेत् ।। यज्जानीयाच्चिराद् धोतं गत्या दर्शनेन वा । प्रतिपृच्छ य श्रुत्वा वा यच्च निःशङ्कितं भवेत् ॥ अजीवं परिणतं ज्ञात्वा प्रतिगृह्णीयात् संयतः । अथ शङ्कितं भवेत् आस्वाद्य रोचयेत् ।।
(७८) मूल- थोवमासायणट्ठाए हत्थगम्मि बलाहि मे ।
मा मे अच्चविलं पूइं नालं तण्हं विणितए ॥ संस्कृत- स्तोकमास्वादनार्थ हस्तके देहि मे । मा मे अत्यम्लं पूर्ति नालं तृष्णां विनेतुम् ॥
(७६) मूल- तं च अच्चविल पूई नालं तण्हं विणेत्तए ।
देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ संस्कृत- तच्चात्यम्लं पूर्ति नालं तृष्णां विनेतुम् । ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ।।
(८०-८१) मूल- तं च होज्ज अकामेणं विमणेण पडिच्छयं ।
तं अप्पणा न पिवे नो वि अन्नस्स दावए । एगंतमवक्कमित्ता अचित्त पडिलेहिया ।
जयं परिठ्ठवेज्जा परिठ्ठप्प पडिक्कमे ॥ संस्कृत- तच्च भवेदकामेन विमनसा प्रतीप्सितम् ।
तद् आत्मना न पिबेत् नो अपि अन्यस्मै दापयेत् ॥ एकान्तमवक्रम्य अचित्तं प्रतिलेख्य । यतं परिस्थापयेत् परिस्थाप्य प्रतिकामेत् ।।
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
अर्थ-उच्च-जल (जिसका रूप, रस, गन्ध अच्छा हो), अवच-जल (जिसका रूप, रस, गन्ध अच्छा न हो) अथवा वार-धोवन (गुड़ के घड़े का धोवन) संसेदिम (आटे का घोवन), चावल का धोवन, यदि अधुनाघौत (अभी तत्काल का धोया हुआ) जल हो तो उसे मुनि नहीं लेवे । अपनी बुद्धि से या देखने से, पूछकर या सुनकर जान ले कि यह धोवन चिरकाल का है और निःशंकित हो जाय तो उसे जीव-रहित और परिणत जानकर संयमी मुनि ले लेवे । यह जल मेरे लिए उपयोगी होगा या नहीं-ऐसा सन्देह हो तो उसे चखकर लेने का निश्चय करे।
(७८) परी- थोरो सो चाखन हेतु एह, मेरे हानि पर नोर देह ।
अति खाटो सड़ियल मति स होय, जो प्यास बुझाइ सकत न मोय ॥
अर्थ-दाता से कहे-चखने के लिए थोड़ा-सा जल मेरे हाथ में दो। बहुत खट्टा, दुर्गन्ध-युक्त और प्यास बुझाने में असमर्थ जल लेकर मैं क्या करूंगा ? .
(७६) पद्धरी- अति खाटो सड़ियल नीर होय, नहिं प्यास बुझावन-सकत सोय ।
तो वेनहारि-सों कहै सोय, ऐसो नहिं कलपत नोर मोय ।।
अर्थ-यदि वह जल बहुत खट्टा, दुर्गन्ध-युक्त और प्यास बुझाने में असमर्थ हो, तो देती हुई स्त्री से कहे कि ऐसा यह जल मुझे नहीं कल्पता है।
(८०-८१) रो- ऊपर जु कह्यौ तस नीर होय, विनु मन, विनु इच्छा गहेउ सोय ।
यो साधु आप नहिं कर पान, दूजे हू कों नहि फर दान ।। विनु जीव ठोर एकान्त जाय, करिके पडिलेहन जतन लाय । वह नीर परठि ता और देय, तिहि परठि प्रतिक्रमणहि करेय ।।
अर्थ-यदि वह जल अनिच्छा या असावधानी से लिया हो तो उसे न स्वयं पीवे और न दूसरे साधुओं को देवे । किन्तु एकान्त में जा, अचित्त भूमि को देख, यतनापूर्वक उसे परिस्थापित करे। परिस्थापित करने के पश्चात अपने स्थान में जाकर प्रतिक्रमण करे।
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दशवकालिकसूत्र
१८२-८३) मूल
सिया य गोयरग्गगओ इच्छेज्जा परिभोत्त यं । कोगं भित्तिमूलं वा पडिलेहिताणं फासुयं ॥ अणुनवेत्त मेहावो पडिच्छन्नम्मि संवडे ।
हत्थगं संपमज्जिता तत्थ भुजेज्ज संजए॥ संस्कृत-- स्याच्च गोचराग्रगतः इच्छेत् परिभोक्तुम् ।
कोष्ठकं भित्तिमूल वा प्रतिलेख्य प्रासुकम् ।। अनुज्ञाप्य मेधावी प्रतिच्छन्ने संवृते । हस्तकं संप्रमृज्य तत्र भुजीत संयतः ॥
(८४-८५-८६) मूल- तत्थ से भुजमाणस्स अट्ठियं कंटओ सिआ ।
तण-कट्ठ सक्करं वावि अन्नं वावि तहाविहं ॥ तं उक्खि वित्त न निक्खिवे आसएण न छड्डए । हत्थेण तं गहेऊणं एगंतमवक्कमे॥ एर्गतमवक्कमित्ता अचितं पडिलेहिया ।
जयं परिट्ठवेज्जा परिठ्ठप्प पडिक्कमे ॥ संस्कृत-- तत्र तस्य भुजानस्य अस्थिकं कण्टकः स्यात् ।
तृण-काष्ठ-शर्करा वापि अन्यद्वापि तथाविधम् ।। तद् उत्क्षिप्य न निक्षिपेत् आस्यकेन न छर्दयेत् । हस्तेन तद गृहीत्वा एकान्तमवक्रामेत् ।। एकान्तमवक्रम्य अचित्त प्रतिलेख्य । यतं परिस्थापयेत् परिस्थाप्य प्रतिक्रामेत् ।।
(८७-८८) चूल- सिया य भिक्खू इच्छेज्जा संज्जमागम्म भोत्त यं ।
सपिंडपायमागम्म उडयं पडिलेहिया ॥ विणएण पविसित्ता सगासे गुरुणो णो । इरियावहियमायाय आगओ य पडिक्कमे ॥
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
(८२-८३) पहरी-- जो संत गोचरी-हेतु जाय, तित ही भोजन को कर चाय ।
तो सूनो घर वा भीति पाय, ता मूल प्रामु थल परिलिहाय । मतिवंत संत आज्ञा हि पाय, सो ढकित थान उपयोग लाय । मलि-मातिहिं हापनि कों सुझारि, तिहिं ठौर कर संजति अहार ।।
अर्थ-गोचरी के लिए गया हुआ मुनि कदाचित आहार करना चाहे तो प्रासुक कोठा या भीति के मूल-भाग को देखकर, उसके स्वामी से अनुज्ञा लेकर ऊपर से छायावाले एवं संवृत्त (पार्श्व भाग से आवृत्त) ऐसे स्थल पर बैठे और हस्तक (पूजनी) से शरीर एवं स्थान का प्रमार्जन कर मेधावी संयत यहां भोजन करे ।
(८४-८५-८६) परी-तित करत तासु आहार जोय, गुठली तृन कंटक काठ होय ।
कंकर वा सो और कोय, ताकों उठाय फैके न सोय ॥ भलि-भांति परि एकान्त जाय, एकान्त जाय महि अचित पाय । पडिलेहन करि जतना-समेत, परठे सु परठि प्रतिक्रमन लेत ॥
अर्थ-वहाँ भोजन करते हुए मुनि के आहार में गुठली, कांटा, तिनका, काठ का टुकड़ा, कंकड़ या इसी प्रकार की कोई दूसरी वस्तु निकले तो उसे उठाकर न फेंके, मुंह से न थके किन्तु हाथ में लेकर एकान्त में जावे । एकान्त में जाकर उचित भूमि को देख, यतना-पूर्वक उसे परिस्थापित करे । परिस्थापित करने के पश्चात अपने स्थान में आकर प्रतिक्रमण करे ।
(८७-८८) पडरी- जो चहै उपाश्रय मांहि आय, भोजन करतो संअति सुभाय ।
तो सुध आहार-जुत तहां आय, भोजन को भूमि हि पडिलिहाय ।। गुरु के समीप संजति सुजान, परवेस कर अति विनय आन । इरियापथिका करि करह ध्यान, पडिकमे जयाविधि के प्रमान ।।
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दशवकालिकसूत्र संस्कृत- स्याच्च भिक्षुरिच्छेत् शय्यामागम्य भोक्तुम् ।
सपिण्डपातमागम्य 'उडुयं' प्रतिलेख्य ॥ विनयेन प्रविश्य सकाशे गुरोमुनिः । ऐर्यापथिकीमादाय आगतश्च प्रतिकामेत् ।।
(८६ --६०) मूल- आभोएत्ताण नीसेसं अइयारं जहक्कम ।
गमनागमणे चेव भत्त-पाणे व संजए॥ उज्जुप्पन्नो अणुब्विग्गो अव्वक्खित्तण चेयता ।
आलोए गुरुसगासे जं जहा गहियं भवे ॥ संस्कृत- आभोग्य निःशेषं अतिचारं यथाक्रमम् ।
गमनागमने चैव भक्त-पाने च संयतः॥ ऋजुप्रज्ञः अनुद्विग्नः अव्याक्षिप्तेन चेतसा । आलोचयेद् गुरुसकाशे यद् यथा गृहीतं भवेत् ।।
(९१-९२-९३) मूल- न सम्मयालोइयं होज्जा पुग्विं पच्छा व जं कडं ।
पुणो पडिक्कमे तस्स बोसो चितए इमं ॥ अहो जिणेहि असावज्जा वित्ती साहूण देसिया । मोक्खसाहणहेउस्स साहुदेहस्स धारणा ।। णमोक्कारेण पारेता करेता जिणसंथवं ।
सज्झायं पट्टवेत्ताणं वीसमेज्ज खणं मुणी ।। संस्कृत- न सम्यगालोचितं भवेत् पूर्व पश्चाद्वा यत्कृतम् ।
पुनः प्रतिक्रामेत्तस्य व्युत्सृष्टश्चिन्तयेदिदम् ।। अहो जिनः असावद्या वृत्तिः साधुभ्यो देशिता । मोक्षसाधनहेतोः साघुदेहस्य धारणाय ॥ नमस्कारेण पारयित्वा कृत्वा जिनसंस्तवम् । स्वाध्यायं प्रस्थाप्य विश्राम्येत् क्षणं मुनिः ।।
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
६५
अर्थ-कदाचित् भिक्षु शय्या (उपाश्रय) में आकर भोजन करना चाहे तो भिक्षा सहित वहां आकर स्थान की प्रतिलेखना करे । उसके पश्चात् विनयपूर्वक उपाश्रय में प्रवेश कर गुरु के समीप उपस्थित हो 'ईर्यापथिकी' सूत्र को पढ़कर प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) करे।
(८९-९०) पडरो-- आवन-जावन की क्रिया माहि, अरु भात-पानि-हित लगे ताहि ।
क्रम-पूर्वक सो संजति सुजान, अतिचार अखिल उर धर ध्यान ॥ सो सरल बुद्धि, उद्वेग-हीन, अविचलितचित्त संजति प्रवीन । गुरु-निकट निवेदन कर तेह, निहिं भांति • पदारथ गहे जेह ॥
मर्ष-आने-जाने में और भक्त-पान लेने में लगे समस्त अतिचारों को यथाक्रम से याद कर, ऋजुप्रज्ञ (सरल-बुद्धि) और अनुद्विग्न (उद्वेग-रहित) साधु विक्षेपरहित चित्त से गुरु के समीप आलोचना करे । जिस प्रकार से भिक्षा ली हो उसी प्रकार से गुरु को कहे।
(६१-६२-६३) परी भलि-मांति निवेदन भयो जोन, पहिले पाछे वा किये तीन ।
पुनि कर प्रतिक्रम तासु सोप, पुनि ध्यान चितवन कर जोय ॥ दोहा -- अहो दिखाई जिननि ने मुनि की राह अदोस ।
साधु-देह धारन तवा, कारन साधन मोख ॥ नमोकार कहि ध्यान तज, जिन-संस्तव पढ़ि लेय ।
पूरन करि सन्माय मुनि, छिन विसरामहि सेय ।। अर्थ-सम्यक प्रकार से आलोचना न हुई हो अथवा पहिले-पीछे की हो (आलोचना का क्रमभंग हुआ हो) उसका फिर प्रतिक्रमण करे । पुनः शरीर को स्थिर कर यह चिन्तवन करे-अहो, कितना आश्चर्य है-जिनदेव ने साधुओं की मोक्षसाधना के हेतुभूत संयमी शरीर की धारणा के लिए निर्दोषवृत्ति का उपदेश दिया है। इस चिन्तनमय कायोत्सर्ग को नमस्कार-मंत्र के द्वारा पूर्ण कर जिन-संस्तव (चतुर्विशति तीर्थंकरों की स्तुति) करे । फिर स्वाध्याय की प्रस्थापना (प्रारम्भ) करे । पुनः क्षणभर विश्राम करे ।
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दशवकालिकसूत्र
(९४) मूल- वीसमंतो इमं चिते हियमढें लाभमठिओ ।
जइ मे अणुग्गहं कुज्जा साहू होज्जामि तारिओ ॥ संस्कृत- विश्राम्यन् इमं चिन्तयेत, हितमर्थं लाभार्थिकः । यदि मेऽनुग्रहं कुर्यु: साधवो भवामि तारितः॥
(६५-६६) मूल- साहवो तो चियत्तण निमंतेज्ज जहक्कम ।
जेइ तत्थ केइ इच्छज्जा तेहिं सद्धि तु भुजए । अह कोइ न इच्छेज्जा तओ भुजेज्ज एक्कओ ।
आलोए भायणे साहू जयं अपरिसाडयं ॥ संस्कृत- साधूस्ततः 'चियत्तण' निमन्त्रयेद् यथाक्रमम् ।
यदि तत्र केचिदिच्छेयुः तैः सार्धं तु भुजीत ।। अथ कोऽपि नेच्छेत, ततः भुजीत एककः । आलोके भाजने साधुः यतमपरिशाटयन् ।।
() मूल- तित्तगं व कडुयं व कसायं अविलं व मुहरं लवणं वा ।
एय लद्धमन्नपउत्तं महु-घयं व मुंजेज्ज संजए । सस्कृत- तिक्तकं वा कटुकं वा कषायं अम्लं वा मधुरं लवणं वा । एतल्लन्धमन्यार्थप्रयुक्तं मधु-घृतमिव भुजीत संयतः ।।
(E८-६९) मूल- अरसं विरसं वावि सूइयं वा असूइयं ।
उल्लं वा जइ वा सुक्कं मंथु - कुम्मास - भोयणं । उप्पण्णं नाइ होलेज्जा अप्पं पि बहु फासुय । मुहालद्धं मुहाजीवी भुजेज्ज दोसवज्जिय ॥
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
परी- विभाम करत चितं स एह, हित-हेतु लाभ निज हेतु तेह ।
जो करइ छपा मुनिराज कोइ, जल-असन गहें उखरै मोह ।।
अर्ष-विश्राम करता हुआ मुक्ति लाभ का इच्छुक मुनि इस हितकर अर्थ का चितन करे-यदि आचार्य और साधु मुझ पर अनुग्रह करें तो मैं निहाल हो जाऊं और समझू कि उन्होंने मुझे भवसागर से तार दिया।
पारी-तब साधुन को अति प्रीति लाय, क्रमसों सु निमन्त्रन कर ताय ।
उनमें तें इच्छा करह कोय, तिन संग कर भोजनहिं सोय ॥ जो कर न इच्छा और कोय, तो कर अकेलो भोज सोय । संजति प्रकास जुत पात्र-माय, जतननि जीमे नहि महि गिराय ॥
अर्थ-वह प्रेमपूर्वक साधुओं को यथाक्रम से निमंत्रण दे। उन निमंत्रित साधुओं में से यदि कोई साधु भोजन करना चाहे तो उनके साथ भोजन करे । यदि कोई साधु भोजन न करना चाहे तो खुले पात्र में यतनापूर्वक नीचे नहीं डालता हुमा अकेला ही भोजन करे।
(९७)
परी-तीखो कड़वो वा जुत कसाय, बाटो मीठो लूनो जु आय ।
जौरन-हित कोनो जो अहार, मान्यो आगम आज्ञानुसार ।। संयति सो भोगे शान्ति मान, मान मधु अथवा घृत समान । जो मिला मुझे निज विधि-समान, उसमें ही है मम बहु कल्यान ।।
अर्थ-गृहस्थ के लिए बना हुआ तिक्त, कटुक, कषाय (कसला) खट्टा, मीठा या नमकीन जो भी आहार उपलब्ध हो, उसे संयमी मुनि मधु-घृत के समान समझकर खावे।
(९८-९९) कवित्तविधि सॉ मिल्यो है आन, अरस विरस जान, सूचित-असूचित सरस सूखो जसो है, पोरन को चूरन, उरबह के वालिया, सरस है थोरो तथा नीरस धनेरो है। साहू की न निदा कर, विन ही बसीले चर, विना कोक होलेके महार आन्यो ऐसो है. प्रामुक महार माहि वामें कोक बोस नाही, त्यागी मुनिराज ताहि मोगें जान तेसो है।
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दशवकालिकसूत्र
संस्कृत- अरसं विरसं वापि सूपितं (प्य) वा असूपितम् (प्यम्) ।
आद्रं वा यदि वा शुष्कं मन्थु-कुल्माष - भोजनम् ।। उत्पन्नं नाति होलयेत, अल्पं वा बहु प्रामुकम् । मुधालब्धं मुधाजीवी भुञ्जीत दोषवर्जितम् ।।
(१००) मूल- दुल्लहा उ मुहादाई मुहाजोवी वि दुल्लहा । मुहादाई मुहाजोवो वो वि गच्छंति सोग्गई ॥
-त्तिबेमि संस्कृत- दुर्लभास्तु मुधादायिनः मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः ।
मुधादायिनो मुधाजीविनः द्वावपि गच्छतः सुगतिम् ॥
-इति ब्रवीमि
पिंडेसणा पढमो उई सो सम्मत्तो।
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पचम पिण्डेषणा अध्ययन
अर्थ-मुषाजीवी (अनासक्त भाव से जीने वाला) मुनि अरस या विरस, व्यंजन-सहित या व्यंजन-रहित, आर्द्र या शुष्क, मन्थु (वेर का चूर्ण) और कुल्माष (उड़द के वाकले) आदि जैसा भी भोजन विधि पूर्वक प्राप्त हो, उसकी निन्दा न करे । निर्दोष आहार अल्प या अरस होते हुए भी बहुत और सरस होता है । इसलिए उस मुषालब्ध (निरीहवृत्ति से प्राप्त) और दोष-वर्जित आहार को समभाव से खावे ।
. (१००) चौपाई- दुरलभ जो विनु स्वारथ देई, दुरलभ जो विनु स्वारथ लेई ।
निस्पृह मन भिक्षुक अरु दानी, सुगति जाहि ए दोनों प्रानी ॥
अर्थ-मुधादायी (निःस्पृह भाव से देने वाला) दाता दुर्लभ है, ओर मुधाजीवी (निःस्पृह वृत्ति से जीवित रहने वाला) पात्र भी दुर्लभ है । मुधादायी दाता, मुधाजीवीसुपात्र ये दोनों सुगति को प्राप्त होते हैं । ऐसा मैं कहता हूं।
पिडषणा अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त ।
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पंचमं पिंडेसणा अज्झयणं (बीओ उद्देसो)
(१) मूल- पडिग्गहं संलिहिताणं लेव-मायाए संजए ।
दुगंधं वा सुगंध वा सव्वं भजे न छड्डए । संस्कृत- प्रतिग्रहं संलिह्य लेप-मात्रया संयतः । दुर्गन्धं वा सुगन्धं वा सर्वं भुजीत न छर्देत् ।।
(२) सेज्जा निसोहियाए समावन्नो व गोयरे ।
अयावयट्ठा भोच्चाणं जइ तेणं न संथरे । संस्कृत- शय्यायां नषेधिक्यां समापन्नो वा गोचरे ।
अयावदर्थं भुक्त्वा णं यदि तेन न संस्तरेत् ॥
मूल
मूल- तओ काणमुन्न भत्त-पाणं गवेसए ।
विहिणा पुव उत्तण इमेणं उत्तरेण य॥ ततः कारणे उत्पन्ने भक्त-पानं गवेषयेत् । विधिना पूर्वोक्तेन अनेन उत्तरेण च ॥
१०.
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पंचम पैण्डेषणा अध्ययन
(द्वितीय उद्देशक) ।
पडरी-मलि भांति पोंछि के पात्र सोय, सुरमित दुगंध-जुत कछु जु होय ।
सब भोग लेय, नहि लेप-मात्र संजति सो राखं लग्यो पात्र ।।
मर्ष-साधु पात्र में लगे हुए लेप-मात्र को-चाहे वह दुर्गन्ध-युक्त हो, अथवा चाहे सुगन्ध-युक्त हो, उस सबको अंगुली से पोंछकर खा जाय, किन्तु कुछ भी न छोड़े।
(२) पडरी-पानक, मषवा स्वाध्याय-पान, जो गयो गोचरी हेतु लान ।
भोग्यो, षु अपूरन है आहार, नहिं सरधो इते ते लख कार ॥
अर्ष-गोचरी के लिए गया हुआ मुनि उपाश्रय या स्वाध्याय-स्थान में, आकर उस लाये हुए आहार को खावे । यदि वह पर्याप्त न हो तो (क्या करे, यह कहते हैं ।)
पडरी- तो कारन की उतपति हि पाय, फिर अन-जल खोज साघु जाय ।
पूरव माली ता विधि-प्रमान, अथवा यह उत्तर विधि हि ठान ।
मर्ष-तब वह साधु ऐसा प्रसंग उपस्थित होने पर पुनः पूर्वोक्त उद्देशक में कही हुई विधि से, अथवा इस आगे कही जाने वाली विधि से पुनः भक्त-पान की गवेषणा करे।
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दशवकालिकसूत्र
मूल- कालेण निक्खमे भिक्खु कालेण य पडिक्कमे ।
अकालं च विवज्जित्ता काले कालं समायरे ॥ संस्कृत- कालेन निष्कामेद् भिक्षु कालेन च प्रतिक्रामेत् ।
अकालं च विवर्ण्य काले कालं समाचरेत् ॥
मूल- अकाले चरसि भिक्खू कालं न पडिलेहसि ।
अप्पाणं च किलामेसि सन्निवेशं च गरिहसि ॥ संस्कृत- अकाले चरसि भिक्षो, कालं न प्रतिलिखसि । आत्मानं च क्लामयसि सन्निवेशं च गर्हसे ॥
(६) मूल- सइ कालो चरे भिक्खू, कुज्जा पुरिसकारियं ।
अलाभो त्ति न सोएज्जा तवो ति - अहियासए ॥ ... संस्कृत- सति काले चरेद् भिक्षुः कुर्यात् पुरुषकारकम् ।
'अलाभ' इति न शोचेत् तप इति अधिसहेत ।
मूल- तहेवुच्चावया पाणा भत्तट्ठाए समागया ।
त उज्जुयं न गच्छेज्जा जयमेव परक्कमे ॥ संस्कृत- तथैवोच्चावचाः प्राणाः भक्तार्थं समागताः । तहजुकं न गच्छेत् यतमेव पराक्रमेत् ॥
(८) मूल- गोयरग्गपविट्ठो उ न निसीएज्ज कत्थई । ...
कहं च न पबंधेज्जा चिठ्ठित्ताण व संजए॥ संस्कृत - गोचराग्र प्रविष्टस्तु न निषीदेत् कुत्रचित् ।
कथां च न प्रबध्नीयात् स्थित्वा वा संयतः ।।
'
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
परी-निकले तब संजति समय हेर, परवेस कर लखि समय फेर ।
असमय कों वरज भिक्ष सोय, आचरै समय को समय जोय ॥
अर्थ भिक्षु भिक्षा काल के समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय पर लौट आये । अकाल को छोड़कर जो कार्य जिस समय का हो, उसे उसी समय करे ।
परी- विनु समय चलत हो भिक्षु आप, नहिं समय निहारत कच्छ आप ।
निज मातम कों करि दुखित जोय, फिर बुरो कहत हो गांव सोय ॥
अर्थ-हे भिक्षो, तुम अकाल में जाते हो, और काल की प्रतिलेखना नहीं करते, अर्थात् गोचरी के समय का ध्यान नहीं रखते हो, अतः तुम अपने आपको क्लान्त (खेद-खिन्न) करते हो और संन्निवेश (गाँव) की भी निन्दा करते हो। (कि इस गांव में आहार नहीं मिलता)।
वोहा-छते काल मुनिवर चर, कर सु पौरुस चाहि ।
जो न मिले, सोच न तो, सहै जानि तप ताहि ।। अर्थ-भिक्षु भिक्षा-काल में भिक्षा के लिए जावे, पुरुषकार (पुरुषार्थ परिश्रम) करे, फिर भी यदि भिक्षा न मिले तो उसका सोच न करे, किन्तु आज सहज में ही तप हो गया, ऐसा विचार कर भूख को समभाव से सहन करे ।
दोहा-ऊंच-नीच पंछी-प्रमुख, जुटे जीव अन-हेत ।
तिन सनमुख जावै नहीं, निकस जतन - समेत ॥ अर्थ-इसी प्रकार गोचरी के लिए जाते समय मार्ग में चुग्गा चुगने के लिए आये हुए हंस-कबूतर आदि ऊंच जाति के और काक-गिद्ध आदि नीच जाति के प्राणी एकत्र जुटे हों, तो उनके सन्मुख न जावे, किन्तु जिस प्रकार से उन्हें त्रास न पहुंचे उस प्रकार से यतना-पूर्वक जावे ।
चौपाई-- संजति गयो गोचरि हि जोय, काहू थल बैठे नहिं सोई ।
अथवा बैठि सु कोठक थानक, कहत लगै नहिं कोई कथानक ।
अर्थ-गोचरी के लिए गया हुआ साधु न कहीं बैठे और न कहीं खड़ा रहकर कथा-वार्ता आदि ही करे ।
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दशवकालिकसूत्र
मूल- अग्गलं फलिहं वारं कवार वावि संजए ।
अवलंबिया न चिट्ठज्जा गोयरग्गगो मुणी॥ संस्कृत--- अर्गला परिघं द्वारं कपाटं वापि संयतः ।
अवलम्ब्य न तिष्ठेत् गोचराप्रगतो मुनिः ॥
मूल
(१०-११) समणं माहणं वावि किविणं वा वणीमगं । उवसंकंतं भत्ता पाणहाए व संजए॥ तं अइक्कमित्त न पविसे न चिठे चक्खु-गोयरे ।
एगंतमवक्कमित्ता तत्य चिट्ठज्ज संजए॥ संस्कृत- श्रमणं ब्राह्मणं वापि कृपणं वा वनीपकम् ।
उपसंक्रामन्तं भक्तार्थ पानार्थ वा संयतः ॥ तमतिक्रम्य न प्रविशेत् न तिष्ठेत् चक्षुर्गोचरे । एकान्तमवक्रम्य तत्र तिष्ठेत् संयतः॥
(१२) मूल- वणीमगस्स वा तस्स दायगस्सुमयस्स वा ।
अप्पत्तियं सिया होज्जा लहुत्त पवयणस्स वा ।। संस्कृत- वनीपकस्य वा तस्य दायकस्योभयो ।
अप्रीतिकं स्याद् भवेत् लघुत्वं प्रवचनस्य वा॥
मूल- पडिसेहिए व दिने वा तो तम्मि नियत्तिए ।
उवसंकमेन भत्तट्ठा पाणगए व संजए॥ संस्कृत- प्रतिषिद्धे वा दत्ते वा ततस्तस्मिन् निवृत्त ।
उपसंक्रामेद् भक्तार्थ पानार्थ वा संयतः॥
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
चौपाई- आगल परिघ दुआर-किवारा, गहि करि के इनको धारा ।
ठहर नहीं संजती सोई, गोचरि-हंतु गयो है जोई।।
अर्ष-गोचरी के लिए गया हुआ साधु आगल-भोगल को, फलक (किवाड़ों को रोकने वाला काठ) को, द्वार को अथवा किवाड़ को अवलम्बन कर कहीं पर नहीं ठहरे।
(१०-११) चौपाई- ब्राह्मण नमन कुपन वा कोई, जो वरिख बुख पोरित होई ।
ए अन-जल को कारन पाई, जतन करत जोए मुनिराई । तिन को लंघिन कर प्रवेसा, दीखत में ठहरे नहि लेसा ।
तब एकान्त पान को जाई, तैसी ठौर साघु ठहराई॥
अर्थ-भक्त या पान के लिए उपसंक्रमण करते हुए (घर में जाते हुए) श्रमण (बौद्ध साधु), ब्राह्मण, कृपण अथवा वनीपक (भिखारी) को लांघ कर संयमी मुनि गृहस्थ के घर में प्रवेश न करे। गृहस्वामी और श्रमण आदि की आंखों के सामने खड़ा भी न रहे, किन्तु एकान्त में जाकर वहां खड़ा रहे।
(१२) चौपाई- जाचक वा दानी वा दोई, कर अप्रीति भावना कोई ।
अथवा जिन-प्रवचन-लघुताई, होय तहां जो सन्मुख जाई॥
अर्थ-उक्त भिक्षओं को लांघकर घर में प्रवेश करने पर उन भिक्षाथियों को, गृहस्वामी को अथवा दोनों को अप्रीति हो सकती है, और जिन-प्रवचन की लघुता होती है।
(१३) बोहा-दिये, नटे वा तिन हटे, तिनको निपटं मोर ।
असन-पान-हित संचर, तब संजति ता ओर ॥ मर्ष-गृहस्वामी द्वारा उन याचकों को भिक्षा दे देने पर अथवा निषेध कर देने पर जब वे याचक गृहस्थ के घर से लौटकर चले जावें, तब साधु भोजन या पान के लिए वहां जावे।
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(१४---१५) मूल- उप्पलं पउमं वावि कुमुयं वा मगदंतियं । .
अन्न वा पुप्फ सच्चित्त तं च संलुचिया दए । तं भवे भत्त-पाणं तु सजयाण अकप्पियं ।
देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ संस्कृत- उत्पलं पद्म वापि कुमुदं वा मगदन्तिकाम् ।
अन्यद्वा पुष्पसचित्त तच्च संलुच्य दद्यात् ।। तद्भवेद् भक्त-पानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ।।
__(१६---१७) मूल- उप्पलं पउमं वावि कुमुयं वा मगदंतियं ।
अन्नं वा पुप्फ सच्चित्तं तं र समद्दिया दए । तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पियं ।
देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ संस्कृत- उत्पलं पद्म वापि कुमुदं वा मगदन्तिकाम् ।
अन्यद्वा पुष्प सचित्त तं च समृद्य दद्यात् ।। तद् भवेद् भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ।।
(१८-१६-२०) मूल- सालुयं वा विरालियं कुमुदुप्पलनालिय ।
मुणालियं सासवनालियं उच्छुखंड अनिव्वुडं ॥ तरुणगं वा पवालं रुक्खस्स तणगस्स वा । अन्नस्स वा वि हरियस्स आमगं परिवज्जए॥ तरुणियं वा छिवाडि आमियं भज्जियं सई । दंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
(१४-१५) चौपाई- नील कमल, के पदम जु कोई, कुमुद मालती-कुसुम जु होई ।
और हु सचित सुमन है जोई, तिहि छेदन करि देति जु होई॥ मुनिहि न कलपत अन-जल तेहा, देनहारि सों मुनि कह एहा ।
या प्रकार को अन-जल जोई, मोकों नहिं कलपत है सोई॥
अर्थ-कोई उत्पल (नील कमल), पद्म (लाल, गुलाबी कमल), कुमुद (श्वेत कमल), मालती या अन्य किसी सचित्त पुष्प का छेदन-भेदन कर कोई स्त्री (या पुरुष) भिक्षा देवे, तो वह भक्त-पान संयतों के लिए कल्पनीय नहीं है, इसलिए देनेवाली स्त्री (या पुरुष) से वह साधु कहे कि इस प्रकार का भक्त पान मेरे लिए नहीं कल्पता है अर्थात् मेरे ग्रहण करने के योग्य नहीं है।
चौपाई- नीलकमल के पदम जु कोई, कुमुद मालती-कुसुम जु होई ।
और हु सचित सुमन ह जोई, तिहि मरदन करि देति जु होई ॥ मुनिहि न कलपत अन-जल तेहा, देनिहारि-सों मुनि कह एहा ।
या प्रकार को अन-जल जोई, मोकों नहिं कलपत है सोई ।।
अर्थ-कोई उत्पल, पद्म, कुमुद, मालतो या अन्य किसी सचित्त पुष्प का संमर्दन (कुचल या रोंद) कर भिक्षा देवे, तो वह भक्त-पान संयतों के लिए कल्पनीय नहीं है, इसलिए मुनि देनेवाले से कह कि इस प्रकार का आहार-गान मेरे लिए नहीं कल्पता है।'
(१८-१९ २०) कवित्तकमल को कंद त्यों पलास हू को कंद होय, कुमुद की नाल-नील कज-नाल कहिये । कंजहू के तंतु त्यों सरसों नाल इल-खंड, एते हू सचित्त होंय तिनकों न गहिये । तर तुन अन्य हरियारी की कोंपल मई, अचित भई न, ताकों कैसे करि लहिये। मूंगादिको फलो काची, नई ज तुरंत ताची, देतो सों कहै कि ऐसो मोकू नाहिं चाहिये।
नोट-कुछ मूल प्रतियों में ये ही दोनों गाथाएं संफासिया (संस्पृश्य) पाठ के साथ भी मिलती हैं,
तदनुसार उक्त उत्पन्न आदि सचित्त पुष्पों का स्पर्श करके भी यदि कोई आहार देवे, तो साधु के लिए वह अकल्प है, अत: दनेवाली से निषेध कर देवे ।)
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दशवकालिकसूत्र संस्कृत- शालूकं वा विरालक कुमुदोत्पलनालिकाम् ।
मृणालिकां सर्षपनालिकां इक्ष खण्डमनितम् ॥ तरुणकं वा प्रवालं वृक्षस्य तृणकस्य वा । अन्यस्य वापि हरितस्य आमकं परिवर्जयेत् ।। तरुणां वा छिवाडि आमिकां भर्जितां सकृत् । ददतीं प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ।।
(२१-२२-२३-२४) मूल- तहा कोलमस्सिन्न वेणुयं कासवनालियं ।
तिलपप्पडगं नोमं आमगं परिवज्जए। तहेव चाउलं पिट्ठ वियर्ड वा तत्तनिन्ड । तिलपिट्ठ पूइ पिनांग आमगं परिवज्जए । कविठें माउलिंगं च मूलगं मूलगत्तियं । आमं असत्थपरिणयं मणसा वि ण पत्थए । तहेव फलमंथूणि बोयमं)णि जाणिया ।
बिहेलगं पियालं च आमगं परिवज्जए । संस्कृत- तथा कोल मनुत्स्विन्नं वेणुकं काश्यपनालिकाम् ।
तिल पर्पटकं नीमं आमकं परिवर्जयेत् ॥ तथैव चाउलं पिष्टं विकटं वा तप्तनिवृतम् । तिलपिष्टं पूति पिण्याकं आमकं परिवर्जयेत ॥ कपित्थं मातुलिङ्ग च मूलकं मूलकर्तिकाम् । आमामशस्त्र · परिणतां मनसा पि न प्रार्थयेत ॥ तथैव फलमन्थन् बीजमंथून ज्ञात्वा । विभीतकं प्रियाल च आमकं परिवर्जयेत् ॥
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
अर्थ - शालूक (कमल-कन्द), विरालिय (पलासकन्द), कुमुद-नाल, उत्पलनाल, मृणाल (कमल तन्तु-दंडनाल), सर्षप-नाल (सरसों का पत्रयुक्त नाल), इक्षखण्ड (गन्ने की गंडेरी), ये सब अनिवृत अर्थात् शस्त्र-परिणत या अग्निपक्व न हों तो साधु ग्रहण न करे । तथा वृक्ष के या तृण के, अथवा किसी प्रकार की किसी भी हरितकाय के कच्चे पत्ते अथवा कच्ची कोंपल आदि जो सचित्त हों तो उन्हें साधु त्याग करे । तथा जिसके बीज नहीं पके हैं ऐसी सेम, मूग, मटर आदि की फली जो कच्ची हो, अथवा एक बार भूनी हुई फली हो-जिसमें पकने या नहीं पकने की शंका हो - तो ऐसी फली आदि को देनेवाली स्त्री से साधु कहे कि ऐसी वस्तु मुझे नहीं कल्पती है। भावार्थ-साधु को किसी भी प्रकार की सचित्त वस्तु प्राप नहीं है।
(२१-२२-२३-२४) कवित्ततैसे ई न ताचे काचे बेर वंस करेला औ श्रीपर्णी के फल तिल-पापरी को तजिये, नोमफल तंदुल को आटो औ धोवन नीर सचित भयो सो उन्ही उपक वरजिये । तिल सरसों को खल, कोट मातुलिग फल, मूला, मूली-मूल, काचे मनसों न भजिये, त्यों ही फल-चूर बीज-चूर औ पियाल फल बहेरा वरजिये औ सचित समझिये।
अर्थ - इसी प्रकार जो उबाला हुआ न हो वह बेर, वंश-कटीर, करेला, काश्यप-नालिका (श्री पीफल या कसेरु) तथा अपक्क तिलपपड़ी और कदम्ब-फल इन सभी कच्चे या अनग्निपक्व का साधु त्याग करे। इसी प्रकार चावल आदि का काल का पिसा हुआ आटा, पूरी तरह न उबला पानी, तिलका पिष्ट (तिलकूटा),
ई-साग और सरसों की खली अपक्व का परित्याग करे। अपक्व और शस्त्र से अपरिणत कपित्य (कैथ, कवीट) बिजौरा, मूला और मूली के गोल टुकड़े को मनसे भी इच्छा न करे । इसी प्रकार अपक्व फल-मन्यु (फलों का चूर्ण) और बीजमन्यु (बीजों का चूर्ण), बहेड़ा और प्रियाल फल (अचार की चिरोंजी) का भी त्याग करे ।
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दशवकालिकसूत्र
(२५) मूल- समुयाणं चरे भिक्खू , कुलं उच्चावयं सया ।
नीयंकुलमइक्कम्म ऊसढं नाभिधारए । संस्कृत- समुदानं चरेद् भिक्षां कुलं उच्चावचं सदा ।
नीचं कुलमतिक्रम्य उच्छृतं नाभिधारयेत् ॥
__ (२६) मूल-- अदीणो वित्तिमेसेज्जा न विसोएज्ज पंडिए ।
अमुच्छिओ भोयणम्मि मायने एसणारए॥ संस्कृत- अदीनो वृत्तिमेषयेत् न विषीदेत पण्डितः । अमूच्छितो भोजने मात्रज्ञ एषणारतः ।।
(२७) मूल-- बहुं परघरे अस्थि विविहं खाइमसाइमं ।
न तत्थ पंडियो कुप्पे इच्छा देज्ज परो न वा ॥ संस्कृत- बहु परगृहेऽस्ति विविधं खाद्य स्वाद्यम् । .. न तत्र पण्डितः कुप्येत इच्छा दद्यात् परो न वा ।।
(२८) मूल- सयणासण - वत्थं वा भत्त-पाणं व संजए ।
अतस्स न कुप्पेज्जा पच्चक्खे वि य दोसओ॥ संस्कृत- शयनासन - वस्त्रं वा भक्त-पानं वा संयतः । अददते न कुप्येत प्रत्यक्षेपि च दृश्यमाने ।
(२९) मूल- इत्थियं पुरिसं वावि उहरं वा महल्लगं ।
बंदमाणो न जाएज्जा नो य णं फरसं वए॥
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
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(२५) दोहा-ऊँचे नीचे कुलनि मुनि, नित विहर सममाय ।
नीचे कुलको लंधि के, ऊँचे में नहि जाय ॥ अर्थ--साधु सदा ऊंच और नीच कुल में अर्थात् धनवान और गरीब के घर में समुदान गोचरी करे । (अनेक घरों में थोड़ी-थोड़ी भिक्षा-अन्न-पान के लेने को समुदान गोचरी कहते हैं । गोचरी को जाते समय यदि पहिले गरीब गृहस्थ का घर मिले तो उसका उल्लंघन करके ऊसढ़-उच्छ्रत अर्थात् ऊंचे, बड़े और धनवान कुल में न जावे।
(२६)
पहरी- निजवृत्ति हि मन अदीन, नहि करहि खेद पंडित प्रवीन ।
भोजन में मोहित होय नाहिं, जान प्रमान, रत सोध-माहि ।।
अर्थ-भोजन में मूर्छा-गद्धिभाव नहीं रखता हुआ, आहार-पानी की मात्रा का ज्ञाता, आहार-गवेषणा में रत, पंडित ज्ञानी) मुनि दीन-भाव से रहित होकर गोचरी की गवेषणा करे । ऐसा करते हुए भी यदि कदाचित् भिक्षा न मिले तो विषाद न करे ।
(२७) पडरी-बहुभांति खाद्य अरु स्वाध आहि, राखे बनाय पर गेह माहि ।
बाकी इच्छा देवे न वाऽपि, पंडित न तहां कोपै कदापि ॥
अर्थ-गृहस्थ के घर में नाना प्रकार के और भारी परिणाम में खाद्य-स्वाद्य पदार्थ होते हैं, या बनाकर तैयार रख छोड़े हैं । यदि गहस्थ वे पदार्थ साधु को न देवे तो ज्ञानी साधु उस गृहस्थ पर कुपित न हो । किन्तु यह विचार करे कि यह गृहस्थ है, इसकी इच्छा हो तो देवे, या न देवे ।
(२८)
दोहा-असन वसन आसन सयन, पान दृगनि दरसाहिं ।
धनी न देतो लखि पर, कर कोप मुनि नाहि ॥ मर्ष-गृहस्थ के घर में शय्या, आसन, वस्त्र, भोजन और पान की वस्तुएं प्रत्यक्ष सामने रखी दिखाई देवें, फिर भी यदि वह न देवे तो संयमी साघु उस पर क्रोष न करे।
(२९) बोहा-जाचे नहिं बंदत लखे, बाल-वृद्ध नर नारि ।
अथवा इनसों नहिं कहै, वचन असाता-कारि ॥
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दशवकालिकसूत्र संस्कृत- स्त्रियं पुरुषं वापि डहरं वा महान्तम् । ___ वन्दमाणो न याचेत नो चैनं परुषं वदेत् ।।
(३०) मूल- जे न वंदे न से कुप्पे वंदिओ न समुक्कसे ।
एवमन्ने समाणस्स सामण्णमणुचिट्ठई । संस्कृत- यो न वन्दते न तस्मै कुप्येत वन्दितो न समुत्कर्षेत् । एवमन्वेषमाणस्य
श्रामण्यमनुतिष्ठति ॥
(३१-३२) मूल- सिया एगइओ लद्ध लोभेण विणिगृहई ।
मा मेयं वाइयं संतं बठूर्ण सयमायए । अत्तद्वगुरुओ लुडो बहुं पावं पकुब्बई ।
दुत्तोसओ य से होइ निव्वाणं च गच्छई ।। संस्कृत- स्यादेकको लब्ध्वा लोभेन विनिगूहते ।
मामेदं दर्शितं सत् दृष्ट्वा स्वयमादद्यात् ।। आत्मार्थगुरुको लुब्धः बहुं पापं प्रकरोति । दुस्तोषकश्च स भवति निर्वाणं च न गच्छति ।।
मूल
सिया एगइओ लबु विविहं पाण-भोयणं । भद्दगं महगं मोच्चा विवणं विरसमाहरे ॥ जाणंतु ता इमे समणा आययट्ठी अयं मुणी । संतुट्ठो सेवई पंतं लहवित्ती सुतोसओ। पूयणट्ठी जसोकामी माण- सम्माण - कामए । बहुं पसई पावं मायासल्लं च कुब्बई ॥
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
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अर्थ - वन्दना करते हुए किसी भी स्त्री या पुरुष, बालक या वृद्ध से साधु किसी भी प्रकार की याचना न करे । तथा आहारादि न देने पर उससे कठोर वचन न कहे ।
(३०)
ठहरई ॥
चौपाई - नह नमते पर रोस न आनं, बंदन तें महिमा नहिं मानं । या प्रकार अन्वेषण करई, ताको संजम अचल अर्थ — जो गृहस्थ वन्दना न करे, उस पर क्रोध न करें और यदि राजामहाराजा आदि बड़े पुरुष वन्दना करें तो अभिमान भी न करे । इसप्रकार गोचरी का अन्वेषण करनेवाले साधु का श्रमणपना निर्मल और स्थिर रहता है ।
( ३१ - ३२ )
चोपाई - कबहूं कोई अकेलो संजति, करं सरस अइस अहारनिताकों ढाके, ऐसो लोभ गुरु को यह दिखलाऊं जोई, वे सब लेयं, बेय नहि मोई । सो पेटार्थी है निज धापी, करं पाप बहु धर्म-ऊपापी ॥ सो संतोष होन ही होई, जाय सकं निरवान न सोई । तातें साधु बने संतोषी, न्यायवृत्ति सों निज तन-पोषी ॥
भोजन की प्रापति । ऊपज्यों जाके ॥
अर्थ - कदाचित् कोई एक मुनि सरस आहार पाकर उसे आचार्य आदि को दिखाने पर वह स्वयं न ले लेवे – इस लोभ से छिपा लेता है तो वह पेटार्थीअपना ही पेट भरने वाला लोभी साधु बहुत पाप का उपार्जन करता है । ऐसा असं.षी साधु निर्वाण (मोक्ष) नहीं पा सकता ।
(३३ – ३४ – ३५)
चोपाई- जो पे आप अकेलो जाई, विविध पान भोजन कों पाई ।
भले भले चुन आपहि खावं, विवरन विरस लिये थल आवै ॥
ऐसे भाव हिये वह आनं, ए सब स्रमन संतोषी सुतोष मुनि एहा, रूक्षवृत्ति अस असार जो भक्षणहारो, खरो पूजार्थी जस- वांछक जोई, चहे बहुत पाप अर्जन सो करई, माया सो पार्क कैसे निरबान, जाके
मोहि यों जाने । वरजित सुख - नेहा ।। मुकति-पद- इच्छन- हारो । मान-सम्मानि सोई ॥ सल्ल अपन- उर धरई । है ऐसा छल-मान ॥
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दशवकालिकसूत्र संस्कृत- स्यादेकको लब्ध्वा विविधं पान-भोजनम् ।
भद्रकं भद्रकं भुक्त्वा विवर्ण विरसमाहरेत् ।। जानन्तु तावदिमे श्रमणा आयतार्थी अयं मुनिः । सन्तुष्टः सेवते प्रान्तं रूक्षवृत्तिः सुतोषकः ।। पूजनार्थी यशोकामी मान - सन्मान - कामकः । बहु प्रसूते पापं मायाशल्यं च करोति ।।
मूल-- सुरं वा मेरगं वावि अन्न वा मज्जगं रसं ।
ससक्खन पिबे भिक्खू जसं सारक्खमप्पणो॥ संस्कृत- सुरां वा मेरकं वापि अन्यद्वा माद्यकं रसम् । स्व-(स) साक्ष्यं न पिबेद् भिक्षुः यशः संरक्षन्नात्मनः ।।
(३७) मूल- सिया एगइओ तेणो न मे कोइ वियाणई ।
तस्स पस्सह दोसाइं निर्या च सुणेह मे ॥ संस्कृत- पिबति एककः स्तेन न मां कोपि विजानाति ।
तस्य पश्यत दोषान् निकृति च शृणुत मम ।।
मूल- वड्ढई सोंडिया तस्स माया मोसं च भिक्खुणो ।
अयसो य अनिव्वाणं सययं च असाहुया ।। संस्कृत- वर्धते शौण्डिता तस्य माया मृषा च भिक्षोः ।
अयशश्चानिर्वाणं सततं च असाधुता ॥
मूल- णिच्चुव्वेगो जहा तेणो अत्तकम्मेहि दुम्मई ।
तारिसो मरणंते वि नाराहेइ संवरं ॥ संस्कृत- नित्योद्विग्नो यथा स्तेनः टात्मकमा दुर्मतिः ।
तादृशो मरणान्तेऽपि नाराधयति संवरम् ।।
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
११५
अर्थ — कदाचित् कोई एक मुनि विविध प्रकार के भोजन-पान पाकर और कहीं एकान्त में बैठकर अच्छे-अच्छे पदार्थ खाकर विवर्ण और विरस आहार को स्थान पर यह सोचकर लाता है कि 'ये श्रमण मुझे बड़ा आत्मार्थी और मोक्षार्थी समझें', संतोषी और प्रान्त (असार) भोजी समझें, रूखा-सूखा खाने वाला और प्राप्त जिस किसी भी वस्तु से सन्तुष्ट होने वाला समझें । तो वह पूजा का आर्थी यश का वांछक और मान-सन्मान की कामना करने वाला मुनि बहुत पाप का उपार्जन करता है और माया- शस्य को करता है ।
(३६)
और हू, जे मादक रस आहि ।
निज जस राखत साखि जुत, भिक्षुक पीवै नाहि ॥
दोहा - मदिरा मेरक
अर्थ - अपने संयम का संरक्षण करता हुआ साधु सुरा (जौ आदि की पिट्ठी से बनी मदिरा), मेरक (महुआ से बनी मदिरा) या अन्य किसी प्रकार का रस आत्मसाक्षी से न पीवे ।
(३७)
दोहा -पियं अकेलो चोर जो, मोहि न जानत कोय ।
लखिय, दोस तसु हाल पुनि, मोसों सुनिये सोय ॥
अर्थ – यहां मुझे कोई भी नहीं जानता है, यह विचारता हुआ यदि कोई अकेला मुनि एकान्त में स्तेनवृत्ति से ( चोरी-छिपे ) मदिरा को पीता है, तो उसके दोषों को देखो और मैं उसके मायाचार को कहता हूं सो सुनो ।
(३८)
दोहा-कपट झूठता मिक्ष के, लोलुपता बढ़ि जाय । अजस अतोस असाधुता, ताके सदा
रहाय ॥
अर्थ – मदिरा पान करनेवाले साधु के उन्मत्तता, मायाचारिता, मृषावादिता अपयश, अतृप्ति और असाधुता – ये दोष उत्तरोत्तर बढ़ने लगते हैं ।
( ३९ )
दोहा - उच्चट्यौ रहत सु चोर जिमि, कुमति करन निज तेइ । मरनंत हु तेसो कहूँ, सकत न संबर सेइ ॥
अर्थ - वह दुर्मति अपने दुष्कर्मों से चोर के समान सदा उद्विग्न रहता है । मदिरा - पायी मुनि मरणान्त-काल में भी संवर की आराधना नही कर पाता है । ( प्रत्युत दारुण दुष्कर्मों का आस्रव करता है) ।
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दशवकालिक सूत्र
मूल- आयरिए नाराहेइ समणे यावि तारिसो ।
गिहत्था वि गं गरहति जेण जाणति तारिसं ॥ संस्कृत- आचार्यान्नाराधयति श्रमणानपि तादृशः । गृहस्था अप्येनं गहतं येन जानन्ति तादृशम् ।।
(४१) मूल - एवं तु अगुणप्पेही गुणाणं च विवज्जओ ।
तारिसो मरणंते वि नाराहेइ संवरं ॥ संस्कृत- एवं तु अगुणप्रेक्षी गुणानां च विवर्जकः । तादृशो मरणान्तेऽपि नाराधयति संवरम् ।।
(४२) मूल- तवं कुम्वइ मेहावी पणीयं बज्जए रसं ।
मज्जपमायविरओ तवस्सी अइउक्कसो॥ संस्कृत-- तपः करोति मेधावी प्रणीतं वर्जयेद् रसम् ।
मद्यप्रमादविरतः तपस्वी अत्युत्कर्षः ॥
मूल- तस्स पस्सह कल्लाणं अणेगसाहुपूइयं ।
विउलं अत्थसंजुत्त कित्तइस्सं सुणेह मे ॥ संस्कृत - तस्य पश्यत कल्याणं अनेकसाघुपूजितम् । विपुलमर्थसंयुक्त कीर्तयिष्ये शृणुत मम ॥
(४४) मूल- एवं तु गुणप्पेही अगुणाणं विवज्जो ।
तारिसो मरणते वि आराहेइ संवरं ॥ संस्कृत- एवं तु गुणप्रेक्षी अगुणानां विवर्जकः ।
तादृशो मरणान्तेपि आराधयति संवरम् ।।
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पंचम पिछेषणा अध्ययन
(४०) चौपाई- आचारजन अराधत ऐसो, बमनहुं को सेवत नहिं तसो । . .
गृही लोग हू गरहत वाकों, भली भांति जे जानत जाकों ।।
अर्थ-ऐसा मद्यपायी साधु न तो आचार्य की आराधना कर पाता है और न श्रमणों की भी । गृहस्थ भी उसे शराबी जानते हैं, इसलिए वे भी उसकी गर्दा-निन्दा करते हैं।
(४१) बोहा-या विधि जे अवगुन भजें, तजं सु गुन गन जेय ।
मरनंत हु तेसो कहूं, संवर सकत न सेय ।। अर्ष-इस प्रकार से अवगुणों का सेवन करने वाला और गुणों का त्याग करने वाला मुनि मरणान्त-काल में भी संवर की आराधना नहीं कर पाता है । (प्रत्युत महा दुष्कर्मों का आस्रव करता है ।)
(४२) चोपाई- बुद्धिमान तपकों आचर, सरस मधुर भोजन परिहर ।
मद प्रमाद राचे नहिं जोय, अति उत्कृष्ट तपस्वी सोय ॥
अर्थ-किन्तु जो बुद्धिमान तपस्वी साधु मधुर पौष्टिक रस का त्याग करता है, मद्य-पान से विरत और प्रमाद से रहित होता है, वह अति उत्कृष्ट साधु है ।
(४३)
चौपाई - देखहु तुम ताके कल्यान, विविध साधु-पूजित सो जान ।
बहुत अरब जस-संजुत तेह, गुन वरनों-मोसों सुनि लेह ।।
अर्थ-ऐसे उक्त उत्कृष्ट साधु का अनेक साधु-जनों से प्रशंसित विशाल, अर्थसंयुक्त कल्याण स्वयं देखो और मैं उनका कीर्तन करूंगा सो सुनो।
बोहा-या विधि जो गुन-गन मज, तज सु औगुन जेय ।
मरनंत हु तेसो मुनो, सके सु संवर सेय ।। अर्थ-इस प्रकार गुणों का सेवन करने वाला और अवगुणों का वर्जन करने वाला शुद्ध भोजी साघु मरणान्त-काल में भी संवर की आराधना करता है।
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११८
दशवकालिकसूत्र
आयरिए आराहेइ समणे यावि तारिसो ।
गिहत्था वि णं पूर्यति जेण जाणंति तारिसं ॥ संस्कृत- आचार्यानाराधयति श्रमणांश्चापि तादृशः ।
गृहस्था अप्येनं पूजयन्ति येन जानन्ति तादृशम् ।।
मूल- तव तेणे वय तेणे स्वतेणे य जे गरे ।
आयार-भावतेणे य कुव्वह 'देवकिन्विसं ॥ संस्कृत- तपस्तेनः वचःस्तेनः रूपस्तेनस्तु यो नरः ।
आचार-भावस्तेनश्च करोति दैव-किल्विषम् ।।
मूल- लक्षण वि देवत्तं उववन्नो देवकिदिवसे ।
तत्था वि से याणाइ कि मे किच्चा इमं फलं ॥ संस्कृत- लब्ध्वापि देवत्वं उपपन्नो देवकिल्विषे । तत्रापि स न जानाति किं मे कृत्वा इदं फलम् ॥
(४८) मूल- तत्तो वि से चइत्ताणं लम्भिही एलमूययं !
नरयं तिरिक्खजोणि वा बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥ संस्कृत- ततोऽपि स च्युत्वा लप्स्यते एडमूकताम् ।
नरकं तिर्यग्योनि वा बोधिर्यत्र सुदुर्लभा ।।
(४६) मूल- एयं च दोसं वळूणं नायपुत्तण
अणुमायं पि मेहावी माया-मोसं संस्कृत- एनं च दोषं दृष्ट्वा ज्ञातपुत्रण
अणुमात्रमपि मेधावी माया-मृषा
भासियं । विवज्जए ।
भाषितम् । विवर्जयेत् ।।
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
चौपाई- माचारजह अराधत ऐसो, बमनहुं को पुनि सेवत सो। .. .
गृही लोग ह पूजत ताकों, भली भांति जे जानत जाकों ॥ . अर्ष-उक्त गुणों का धारक साधु आचार्य की आराधना करता है और श्रमणों की भी । गृहस्थ भी उसे शुद्धभोजी मानते हैं और इसलिए वे उसकी पूजा करते हैं।
चौपाई - वचन-चोर तप-चोर कोई, रूप-चोर पुनि जो नर होई ।
भाव-चोर आचार हु चोरा, लहै देव किलविस-गति घोरा ॥
अर्ष-जो साधु तप का चोर, वाणी का चोर, रूप (वेष) का चोर, आचार का चोर और भाव का चोर होता है वह किल्विषिक देव-योग्य कर्म करता है, अर्थात् मरकर किल्विषिक जाति के नीच देवों में उत्पन्न होता है।
(४७) चौपाई . तहां देवगति हूं को पाई, उपज देव किलविसी जाई ।
तहं हन जानि सकत सो भावा, 'का करिके यह फल मैं पावा' । अर्थ-किल्विषिक देवों उत्पन्न होकर और देवपर्याय पाकर भी वहां वह यह नहीं जान पाता कि यह मेरे किस कर्म का फल है ?
(४८) चोपाई-- वा गति तें चर्षि के पुनि वहई, मेस - मूक - मानवता लहई ।
नारक वा तिरित को जोनी, जहाँ बोधि दुरलभ है-होनी ।।
अर्थ- उस देवपर्याय से च्युत होकर यहां मनुष्य गति में आकर एडमूकता अर्थात् भेड़ों के समान गूगेपन को प्राप्त करता है, अथवा तिर्यंचगति में जन्म लेता है
और (पुनः पाप करके) नरक में जाता है जहाँ पर बोधि (सम्यक्त्व) की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है।
चौपाई -- या प्रकार वूषन लखि एई, जातपुत्र ने वरने जेई ।
माया मिरषावाद लगारा, वरजें बुद्धिमान अनगारा ॥
अर्थ-इस प्रकार के दोषों को देखकर ज्ञातपुत्र महावीर ने कहा - मेधावी मुनि अणुमात्र भी माया-मषा न करें अर्थात् न मायाचार करें और न झूठ बोलें।
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१२०
दशकालिकसूत्र
मूल- सिक्विऊण भिक्खेसणसोहि संजयाण पुराण सगासे। ___ तत्थ भिक्खू सुप्पणिहिदिए तिव्वलज्ज गुणवं विहरेन्जासि ।।
-त्ति बेमि संस्कृत- शिक्षित्वा भिक्षषणाशुद्धि संयतानां बुद्धानां सकाशे । तत्र भिक्ष : सुप्रणिहितेन्द्रियः तीव्रलज्जो गुणवान् विहरेत् ॥
-इति ब्रवीमि
पंचमं पिसणा अजायणं सम्मत
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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
१२१ (५०) कवित्तभली भांति जीति जिन इंद्रिय अधीन कोनी, तीव लाज लोनी गुन संजम के जामें है, ऐसो वह साधु सो अराधे उन संजतिकों, संजति महान तत्त्व के ज्ञान जुठाम हैं। भली भांति सीख लेय भीख सोधिवे की रीति, ताकों वह जानिके अनंद उर पाये हैं, ताके अनुसार तब गहत आदि करत विहार विचरत गणवंत जस गाये हैं।
अर्थ-संयत और बुद्ध श्रमणों के समीप भिक्षेपणा की विशुद्धि सीख कर सुप्रणिहित-इन्द्रिय अर्थात् जितेन्द्रिय और एकाग्र चित्त वाला भिक्ष उत्कृष्ट संयम और गुण से सम्पन्न होकर विचरे । इस प्रकार मैं कहता हूं।
पंचम पिडेषणा अध्ययन समाप्त
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छठें महायारकहा अज्झयणं
(१-२) मूल- नाण-दसणसंपन्न संजमे य तवे रयं ।
गणिमागमसंपन्न उज्जाणम्मि समोसढं ॥ रायाणो रायमच्चा य माहणा अदुव खत्तिया ।
पुच्छंति निहुअप्पाणो कहं मे आयारगोयरो॥ संस्कृत- ज्ञान-दर्शनसम्पन्न संयमे च तपसि रतम् ।
गणिमागमसम्पन्नं उद्याने समवसृतम् ॥ राजानो राजामात्याश्च ब्राह्मणा अथवा क्षत्रियाः । पृच्छन्ति निभृतात्मानः कथं भवतामाचारगोचरः ।।
मूल
तेसि सो निहुओ दंतो सव्वभूयसुहावहो ।
सिक्खाए सुसमाउत्तो आइक्खइ वियक्खणो॥ संस्कृत- तेभ्यः स निभृतो दान्तः सर्वभूतसुखावहः ।
शिक्षया सुसमायुक्तः आख्याति विचक्षणः ।।
मूल- हंदि धम्मस्थकामाणं निग्गंथाणं सुणेह मे ।
आयारगोयरं भीम सयलं दुरहिदिव्यं ॥ संस्कृत- हंदि धर्मार्थकामनां निर्ग्रन्थानां शृणुत मम । आचारगोचरं भीमं सकलं दुरधिष्ठितम् ।।
१२२
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छठा महाचारकथा अध्ययन
(१-. २) दोहा ज्ञान तथा दरसन-सहित, तप संजम में लीन ।
आगम में परवीन जे, गणि उपवन-आसीन । सिनसों पूछत अमल-मति, महिपति महिप-प्रधान ।
द्विज वा क्षत्रिय, आपको को अचारन-विधान ।। अर्थ-ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत, आगम-सम्पदा से युक्त प्राणी को उद्यान में समवसृत (आया हुआ) देख, राजा और राज-मंत्री, ब्राह्मण और क्षत्रिय उनसे नम्रता-पूर्वक पूछते हैं - 'आपके आचार का विषय कैसा है ?'
(३) चौपाई- तिनसों वह एकान्त उपासी, मुनि बमसील अमय सुख-रासी ।
सकल जंतु-हित-कारक स्वामी, सत्-शिक्षा-संजुत शिव-गामी ।। परम प्रवीन कहत यहि भांती, अहो अहो पृच्छक-गन-पांती ।
सनो सुनो भो भविजन स्वच्छा, तुमरी यह हितकर पृच्छा ।।
अर्थ :- ऐसा पूछे जाने पर वे स्थिरात्मा, इन्द्रियदमी, सब प्राणियों के लिए सुखावह शिक्षा में समायुक्त और विचक्षण गणी उनसे कहते हैं
(४) चौपाई- धरम-अरब-इच्छुक निरपन्या, मो सों सुनो तिननको पंथा ।
आचार हु गोचर अति बांको, सब ही कठिन अराधन जाको॥
अर्ष हे देवानुप्रियो, श्रुत-चारित्र रूप धर्म और मोक्षरूप अर्थ के अभिलाषी निप्रन्थ मुनियों का समस्त आचार-गोचर-जो कि कर्मरूप शत्रुओं के लिए भयंकर है, तथा जिसे धारण करने में कायर पुरुष घबराते हैं, उसका मैं वर्णन करता हूं, सो तुम लोग सावधान होकर सुनो।
१२३
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१२४
दशवकालिकसूत्र
मूल- नन्नत्थं एरिसं वृत्त जं लोए परमदुच्चरं ।
विउलट्ठाणमाइस्स न भूयं न भविस्सई ।। संस्कृत- नान्यत्र ईदृशमुक्त यल्लोके परमदुश्चरम् ।
विपुलस्थानभागिनः न भूतं न भविष्यति ।।
मूल- सखड्डगवियत्ताणं वाहियाणं च जे गुणा ।
अखंडफुडिया कायव्या तं सुणेह जहा तहा ॥ संस्कृत-- सक्षुल्लकव्यक्तानां व्याधितानां च ये गुणाः ।
अखण्डा स्फुटिताः कर्तव्याः तान् शृणुत यथा तथा ॥
मूल
दस अट्ठ य ठाणाई जाइं बालोवरज्माई । तत्थ अन्नयरे ठाणे जिग्गंथत्ताओ भस्सई ॥ वयछक्कं कायछक्कं अकप्पो गिहिमायणं । पलियंकं निसज्जा य सिणाणं सोहवज्जणं ॥
संस्कृत-- दशाष्टौ च स्थानानि यानि बालोऽपराध्यति ।
स्टान्यतरामद स्थाने निर्ग्रन्थत्वाद् अश्यति । व्रतषट्कं कायषट्कं अकल्पो गृहिभाजनम् । पर्यको निषद्या च स्नानं शोभा-वर्जनम् ॥
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छठामाचारका अध्ययन
१२५
चौपाई- बहुत पान-सेविन को सो, पंच परम दुसचर है तसो ।
लोक हु में अस भयो न होई, को नहीं दूजे पल कोई ।। ___ अर्थ-मानव-जगत् के लिए इस प्रकार का अत्यन्त दुष्कर आचार निर्ग्रन्थदर्शन के अतिरिक्त कहीं नहीं कहा गया है। मोक्ष स्थान की आराधना करने वाले के लिए ऐसा आचार अतीत में न कहीं था और न कहीं भविष्य में होगा।
चौपाई- जे अखंड अस्फुट करनीया, बाल-वृद्ध रोगिहुँ धरनीया।
ते गुन जा प्रकार करि होई, ता प्रकार सों सुनिये सोई॥
अर्थ-बाल-वृद्ध, स्वस्थ और अस्वस्थ सभी मुमुक्ष ओं को जिन गुणों की आराधना अखण्ड एवं निर्दोष रूप से करनी चाहिए, उसे यथातथ्य रूप से सुनो।
(७-८) चौपाई- अष्टादश थानक ए जानी, इनकरि दूषित होत अयानो ।
तिनमें एक हु थानक पाई, साधुपने से च्युत ह जाई ॥ दोहा-ब्रत अरु काया- षटक ये, वा अकल्प गहि पात्र ।
पलंग निषछा स्नान औ, शोभा नहि लवमात्र ॥ ये अट्ठारह थान है, इनसे बचि मुनिराज ।
लहु शिवपद को लेत है, हैकर जग-सिर-ताज ॥ वे अट्ठारह स्थान इस प्रकार हैंकवित्तसा' मुठ चोरी औकुसील परिग्रह' अरु, राति' को अहार छार पालें छह बात है, तो पय पावक' पवन हरियारीस१३, एती खट काया को आरंभ वरजत हैं। हो के भाजन' हू में भोजन कबहु न करे, पलंग१४ प्रमुख गृहि-आसन'" तजत हैं, सनान' सरीर-सोमा" और जो अकल्पनीय," तिनकों गहै न संत संजय सजत हैं।
अर्थ- जो विवेक-विलुप्त व्यक्ति संपूर्ण अष्टादश स्थानों की तथा किसी भी एक स्थान की विराधना करता है, वह साघुता के सर्वोच्च पद से संभ्रष्ट हो जाता है। सच्चा साधु छह व्रतों तथा षट्काय के जीवों का पालन करे तथा अकल्पनीय पदार्थ, गृहस्थों के पात्रों में भोजन, पर्यख पर बैठना, गृहस्थों के घरों में एवं गृहस्थों के आसनों पर बैठना, स्नान करना और शरीर की विभूषा करना-ये सब सर्वथात्याग देता।
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१२६
मूल-
संस्कृत — तत्रदं प्रथमं अहिंसा निपुणं
मूल
(e)
तत्थिमं पढमं ठाणं महावीरेण अहिंसा निउणं विट्ठा सम्बभएस
मूल
जावंति लोए
मूल
ते
जाणमजाणं वा
सध्वे जीवा वि इच्छंति तम्हा पाणिवहं घोरं
संस्कृत — यावन्तो लोके प्राणाः
स्थानं महावीरेण दृष्टा सर्वभूतेषु
संस्कृत — आत्मार्थं परार्थं वा
मृषावादश्च
अविश्वासश्च
दशवैकालिकसूत्र
थावरा |
( १० – ११ ) पाणा तसा अदुव न हणे णो वि घायए ॥ जीविउ न मरिज्जिउ । निग्गंथा वज्जयंति णं ॥
देसियं ।
संजमो ॥
त्रसा अथवा स्थावराः ।
न हन्यान्नोऽपि घातयेत् ॥ जीवितु
तान् जानन्नजानन् वा सर्वे जीवा अपीच्छन्ति न मतुम् । तस्मात् प्राणिवधं घोरं निग्रन्था वर्जयन्ति णं ॥ (१२-१३ ) अप्पणट्ठा परट्ठा वा कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुसं बूया नो वि मुसावाओ य लोगम्मि अविस्सासो य भूयाणं
अन्नं वयावए ॥
सव्व साहूहि तम्हा मोसं
देशितम् ।
संयमः ॥
क्रोधाद्वा यदि वा भयात् ।
हिंसकं न मृषा ब्रूयात् नोऽप्यन्यं वादयेत् ॥
सर्वसाधुभिर्गर्हितः ।
लोके भूतानां तस्मान्मृषा विवर्जयेत् ॥
गरहिओ । विवज्जए ॥
(१४-१५)
चित्तमं तमचित्त
वा अप्पं वा जइ वा बहु । पि ओग्गहंसि
दंतसोहणमेतं
अजाइया ॥
तं अप्पणा न गेव्हंति नो वि गेण्हावए परं । अनं वा गेहमाणं पि नाणुजाणंति
संजया ॥
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छठा महाचारकथा अध्ययन
(e)
दोहा - तिनमें पहिलो थानक एहा, बेली निपुन अहिंसा सोई,
महावीर उपदेस्यो जेहा । सब भूर्तान में संजम होई ॥
अर्थ- भगवान महावीर ने उन अठारह स्थानों में पहिला स्थान अहिसा का कहा है । इसे उन्होंने अनन्त सुखों को देने वाली के रूप में देखा है । सर्वप्राणियों के प्रति संयम रखना अहिंसा हैं ।
( १०-११ )
जन्तु जहान । तथा अनजान ॥
दोहा चर अथवा बावर अहें, जेते हमें हनावे तिनहं नहि, जान सकल जंतु जीवन चहैं, मरन चहै नहि कोय । घोर प्रानिवध ताहितें, वरजत संजति लोय ॥
१२७
अर्थ - लोक में जितने भी त्रस अथवा स्थावर प्राणी हैं, निर्ग्रन्थ साधु जान या अजान में न उनका हनन करे और न पर से करावे ।
सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए जीव-घात को भयानक जानकर निर्ग्रन्थ उसका त्याग करते हैं ।
( १२ - १३ ) चौपाई - अपने तथा अपर के हेतु, कोप-काज वा डर के हेतु । परपीड़क असत्य नह कहिये, नह पर सों कहलाना चहिये ।। मृषा वचन हू लोकनि माहीं, सब साधुनि करि निन्दित आहीं । सबको अविसवास - विस्तारन, मृषावाद तजिये तिहि कारन ॥
अर्थ - निग्रन्थ साधु को चाहिए कि वह अपने या दूसरों के लिए क्रोध से, या भय से पर-पीड़ाकारक एवं असत्य वचन न बोले और न दूसरों से बुलवाये । इस लोक में मृषावाद सब साधुओं द्वारा गर्हित ( निन्दित ) है । और वह प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है । अतः निर्ग्रन्थ साधुजन असत्य न बोलें ।
( १४–१५ )
चौपाई - चेतन तथा अचेतन कोई अधिक होय, अलप हु वा होई । तृण हू ले न दंत-शोधन को, विनु जाचे अधिकारी जन को ।। गहे न आप साधुजन ताकों, और हु कों न गहावहि वाकों । और हु बाकों गहि ले ही, ते न मलो जानत हैं तेही ॥
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दशवकालिकसूत्र.
१२८ संस्कृत- चित्तवदचित्तं वा अल्पं वा यदि वा बहु ।
दन्तशोधनमात्रमपि अवग्रहे अयाचित्वा । तदात्मना न गृह्णन्ति नापि ग्राहयन्ति परम् । अन्यं वा गृह्णन्तमपि नानुजानन्ति संयताः ।।
(१६-१७) मूल- अबंभचरियं घोरं पमाय दुरहिट्टियं ।
नायरंति मुणी लोए भयाययणवज्जिणो॥ मूलमेयमहम्मस्स
महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गं निग्गंथा बज्जयंति णं ॥ संस्कृत- अब्रह्मचर्य घोरं प्रमादं दुरधिष्ठम् ।
नाचरन्ति मुनयो लोके भेदायतनवर्जिनः ।। मूलमेतद् अधर्मस्य महादोषसमुच्छ यम् । तस्मात् मैथुनसंसर्ग निन्था वर्जयन्ति ।।
(१८-१९) मूल- विडमुम्भेइमं लोणं तेल्लं सप्पि च फाणियं ।
न ते सन्निहिमिच्छंति, नायपुत्त - वोरया ॥ लोमस्सेसो अणुफासो मन्ने अन्नयरामवि ।
जे सिया सनिहीकामे गिही पब्बइए न से॥ संस्कृत- विडमुद्भद्य लवणं तैलं सर्पिश्च फाणितम् ।
न ते सन्निधिमिच्छंति ज्ञातपुत्र - वचोरताः ।। लोभस्यषोऽनुस्पर्शः
मन्येऽन्यतरदपि । यः स्यात्सन्निधिकामः गृहो प्रवजितो न सः ।।
(२०-२१) मूल- जंपि बत्थं व पायं वा कंबलं पायपुछणं
तं "पि संजम-लज्जट्ठा धारंति परिहरंति य॥ न सो परिग्गहो वृत्तो नायपुत्तण ताइणा । मुच्छा परिगहो वृत्तो इइ वृत्त महेसिणा ॥
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छठा महाचारकथा अध्ययन
१२६
अर्थ-संयमी मुनि सजीव या निर्जीव, अल्प या बहुत वस्तु को, यहां तक कि दांतों का मल-शोधन करने के लिए तिनके को भी उसके स्वामी की आज्ञा के बिना स्वयं ग्रहण नहीं करते, दूसरों से भी ग्रहण नहीं कराते और ग्रहण करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करते हैं ।
( १६ - १७)
बोहा
कौ थोक । मुनि लोक ॥
चौपाई - ब्रह्मचर्य भंजन भयकारी, जो प्रमाद सेवन, हित-हारी । भेद-थान-वरजक जगमाहीं, मुनिवर ताहि आचरत नाहीं ॥ यह अधर्म को मूल है, महादोष यातें मैथुन- संग को, वरजत हैं अर्थ — भेदस्थानकवर्जी - पापभीरु मुनि संसार में रहते हुए भी दुः सेव्य तथा प्रमादभूत रौद्र अब्रह्मचर्य का कदापि आचरण नहीं करते हैं । यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है तथा महादोषों का समूह है, इसलिये निर्ग्रन्थ इस मैथुन के संसर्ग का सर्वथा परित्याग करते हैं ।
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(१८-१९)
दोहा -- विड़ वा सागर- लोन घी, तिनको संचय न हि चहत, यह लोभहि की लगन है, वासी राखे सो गृही, अर्थ - जो ज्ञातपुत्र महावीर के वचनों में रत हैं, वे मुनि विडलवण (गोमूत्र आदि में पकाकर तैयार किया नमक ), उद्भेद्य लवण (समुद्र के पानी से बनाया गया सामुद्री नमक), तेल, घी और फाणित ( द्रव गुड़) को संग्रह करने की इच्छा नहीं करते । जो भी संग्रह किया जाता है, वह लोभ का ही प्रभाव है, ऐसा मैं मानता हूं । जो श्रमण किंचिन्मात्र भी संग्रह करने की इच्छा करते हैं, वह गृहस्थ हैं, प्रव्रजित नहीं । अर्थात् संग्रह का अभिलाषी पुरुष साधु कहलाने के योग्य नहीं है ।
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चोपाई
गलित गुडादि सनेह । वीर-वचन रत जेह ॥ मानत और हु लोय । सो संजति न हि होय ॥
( २० - २१ )
जदपि वसन भाजन विधि नाना, कंबल पग-पूंछन परिमाना । ते परिहरत करत मुनि धारन, केवल संजम - लाज - निवारन ॥ ताहि 'परिग्रह' कहि न पुकारो, ज्ञात-पुत्र जग-रच्छन- हारो । ममताभाव परिग्रह भाख्यौ, ऐसो महरिसिनि ने आल्यौ ॥
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दशवकालिकसूत्र संस्कृत- यदपि वस्त्र वा पात्र वा कम्बलं पादप्रोञ्छनम् ।
तदपि संयम-लज्जार्थं धारयन्ति परिदधते च ॥ न स परिग्रह उक्तः ज्ञातपुत्रेण त्रायिणा (तायिना) । मूर्छा परिग्रह उक्त इत्युक्तं महर्षिणा ।।
(२२) मूल- सव्वत्थुवहिणा बुद्धा संरक्षणपरिग्गहे ।
अवि अप्पणो वि देहम्मि नायरति ममाइयं ॥ संस्कृत- सर्वत्रोपधिना बुद्धाः संरक्षणाय परिगृह्णन्ति । अप्यात्मनोऽपि देहे नाचरन्ति ममायितम् ।।
(२३) मूल- अहो निच्चं तवोकम्मं सव्वबुद्धहि वणियं ।
जा य लज्जासमा वित्ती एगभत्तं च भोयणं । संस्कृत- अहो नित्यं तपःकर्म सर्वबुद्धवर्णितम् । या च लज्जासमा वृत्तिः एकभक्तं च भोजनम् ।।
(२४-२५-२६) मूल- सन्ति मे सुहमा पाणा तसा अदुव थावरा ।
जाई रामओ अपासंतो कहमेसणियं चरे।। उवउल्लं बोयसंसत पाणा निवडिया महि । विया ताई विवज्जेज्जा रामो तत्थ कहं चरे ॥ एयं च दोसं बठूणं नायपुत्तण भासियं ।
सव्वाहारं न भुजति निग्गंथा राइमोयणं । संस्कृत- सन्तीमे सूक्ष्माः प्राणाः असा अथवा स्थावराः ।
यान् रात्री अपश्यन् कथमेषणीयं चरेत् ।। उदका बीजसंसक्तं प्राणाः निपतिता मह्याम् । दिवा तान् विवर्जयेद् रात्री तत्र कथं घरेत् ।। एनं च दोषं दृष्ट्वा ज्ञातपुत्रेण भाषितम् । सर्वाहारं न भुञ्जते निम्रन्था रात्रिभोजनम् ।।
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छठा महाचारकथा अध्ययन
१३१
अर्थ-जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और पाद-पोंछन रजोहरण आदि हैं, उन्हें मुनि संयम की रक्षा के लिए और लज्जा का निवारण करने के लिए ही रखते और उनका उपयोग करते हैं । अतः सब जीवों के रक्षक भगवान् महावीर ने वस्त्र आदि को परिग्रह नहीं कहा है, किन्तु मूर्छा या गृद्धिभाव को परिग्रह कहा है, ऐसा महर्षि गणधर ने कहा है।
(२२)
चौपाई- संजम-राखन-कारन लोनी, सब विधि उपधि ग्रहन जो कीनी ।
तामें, तथा आपने तन में, नहिं आनत ममता मुनि मन में ।
अर्थ-प्रबुद्ध मुनि सर्वत्र उपधि को संयम की रक्षा के लिए ही ग्रहण करते हैं, किन्तु मूर्छा भाव से नहीं । और तो क्या, वे संयमी मुनि अपने देह पर भी ममत्व भाव नहीं रखते हैं।
(२३) चौपाई- अहो नित्य तप ही को करनो, सकल बुद्ध देवनि करि वरनो ।
एक वेर भोजन को करनो, संजम समवृत्ती को धरनो।
अर्थ-अहो, सभी बुद्धों ने श्रमणों के लिए नित्य तप:कर्म (तप का अनुष्ठान) संयम के अनुकूल वृत्ति अर्थात् शरीर का पालन करने और एक वार भोजन करने का उपदेश दिया है।
(२४.-२५-२६) बोहा- ए प्रानी सूच्छम अहैं, अचर तथा चर देह ।
कैसे तिनहिं न लखत मुनि, भख अबोस हि तेह ॥ चौपाई- बीज-मिल्यो, जल-भीनो भोजन, पृथिवी ऊपर परे जंतु-गन ।
दिन में हू वरजत है ऐसे, तिनमें चरै राति में कैसे।। रिठा- ऐसो बोस निहार, सातपुत्र ने जो कह्यौ ।
सब ही भांति आहार, नहिं निग्रंथ निसि में करै ॥ अर्थ-जो त्रस और स्थावर सूक्ष्म प्राणी हैं उन्हें रात्रि में नहीं देखता हुआ निम्रन्थ ईर्यासमिति-पूर्वक कैसे चल सकता है ? जल से गीले और बीजयुक्त भोजन तथा पृथ्वी पर पड़े हुए प्राणी, उन्हें दिनमें तो आंखों से देखकर बचाया जा सकता है, किन्तु रात्रि में उनकी रक्षा करते हुए कैसे चला जा सकता है ? (इस प्रकार साधु के रात्रि-विहार और रात्रि-भोजन दोनों का निषेध है ।) ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ने इस हिंसात्मक दोष को देखकर कहा-जो निम्रन्थ होते हैं वे रात्रि-भोजन नहीं करते हैं और चारों प्रकार के सभी आहारों का रात्रि में त्याग करते हैं अर्थात् रात्रि में किसी भी प्रकार का भोजन नहीं करते हैं।
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१३२
( २७ – २८ – २४)
मूल- पुढविकायं न हिंसंति मणसा वयसा कायसा ।
करणजोएण संजया
तिविण पुढविकायं विहिंसंतो हिंसई तसे य विविहे पाणे
चक्खसे
दुग्गइवड्ढणं ।
तम्हा एवं वियाणित्ता दोसं पुढविकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए ॥
संस्कृत - पृथ्वीकायं न हिंसंति मनसा वचसा कायेन | करणयोगेन संयताः सुसमाहिताः ॥
त्रिविधेन
पृथ्वीकार्य
विहिंसन् हिनस्ति तु तदाश्रितान् । सांश्च विविधान् प्राणान् चाक्षुषांश्चाचाक्षुषान् । तस्मादेनं विज्ञाय दोषं दुर्गतिवर्धनम् । पृथ्वीकायं समारम्भं यावज्जीवं वर्जयेत् ॥ (३०-३१-३२)
मूल
दशवेकालिकसूत्र
उ
य
सुसमाहिया ॥
तयस्सिए ।
अचक्खुसे ||
आउकार्य न हिसंति मणसा वयसा तिविहेण करणजोएण संजया
आउ कार्य
विहितो हिंसई उ
चक्खुसे
य
तसे य विविहे पाणे तम्हा एयं वियाणित्ता वोसं
आउकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए ॥
कायसा ।
सुसमाहिया ॥
तपस्सिए ।
अचक्खुसे ||
दुग्गइवड्ढणं ।
संस्कृत - अप्कायं न हिसंति मनसा वचसा कायेन । करणयोगेन संयताः सुसमाहिताः ॥
त्रिविधेन अप्कायं विहिंसन् हिनस्ति तु तदाश्रितान् ।
सांश्च विविधान् प्राणान्
तस्मादेनं
अप्कायसमारम्भं
चाक्षुषांश्चाचाक्षुषान् ॥
विज्ञाय दोषं दुर्गतिवर्धनम् । यावज्जीवं वर्जयेत् ॥
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छठा महाचारकथा अध्ययन
(२७-२८-२९) बोहा-मनतें वचत कायतें, हनें न पृथिवी काय ।
संजति त्रिकरन जोगतें, जो सुसमाधित भाय ॥ हिसत पृथिवी काय कों, हने विविध प्रस अंत । नैन स-बीठ अदीठ जे, आत्रित तास रहंत ॥ तातें ऐसो दोस लखि, दुरगति-वरधन-हार ।
भूमिकाय आरम कर, आजीवन परिहार ॥ अर्ष-सुसमाधिवन्त साधु मन, वचन, काय रूप त्रिविध योग से और कृत, कारित, अनुमोदन रूप तीन करण से पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं करते, दूसरों से नहीं करवाते और करनेवालों की अनुमोदना भी नहीं करते हैं। पृथ्वीकाय की हिंसा करता हुआ मनुष्य उसके आश्रित के चाक्ष ष (आंखों से दिखनेवाले) और अचाक्षुष (आंखों से नहीं दिखने वाले) ऐसे त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। इसलिए इसे दुर्गतियों का बढ़ानेवाला दोष जान कर साधू यावज्जीवन के लिए पुथ्वीकाय के समारम्भ का त्याग करे ।
(३०-३१-३२) दोहा-मनतें वचतें कायतें, हने नहीं जलकाय ।
संजति त्रिकरन जोगते, जे सुसमाधित भाय ॥ हिसत ह जलकाय कों, हन विविध जल-जंत । नैन स-दीठ अदीठ जे, आत्रित तासु रहंत ॥ तातें ऐसो दोस लखि, दुरगति - वर्षन - हार ।
कर नीर-आरंभ को, आजीवन परिहार ।। अर्थ- सुसमाधिवन्त साधु मनसे, वचनसे, कायसे-इस त्रिविध योग से और कृत कारित अनुमोदना रूप त्रिकरण से जलकाय को हिंसा नहीं करते हैं । जलकाय की हिंसा करता हुआ मनुष्य उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षष (दृश्य) और अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । इसलिए इसे दुर्गतिवर्धक दोप जानकर मुनिजन यावज्जीवन के लिए जलकाय के समारम्भ का त्याग करे।
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दशवकालिकसूत्र
(३३-३४-३५-३६) मूल- जायतेजं न इच्छंति पावगं जलइत्तए ।
तिक्खमन्नयरं सत्यं सव्वओ वि दुरासयं ॥ पाईणं पडिणं वा वि उड्ढं अणुविसामवि । अहे दाहिणओ वावि बहे उत्तरओ वि य॥ भूयाणमेसमाधाओ हव्यवाहो न संसो । तं पईव पयावा संजया किं चि नारमे ॥ तम्हा एवं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवड्ढणं ।
तेउकायसमारंभं जावज्जीवाए वज्जए । संस्कृत- जाततेजसं नेच्छन्ति पावकं ज्वालयितुम् ।
तीक्ष्णमन्यतरच्क्षस्त्रं सर्वतोऽपि दुराश्रयम् ॥ प्राच्या प्रतीच्यां वापि ऊर्ध्वमनुदिक्ष्वपि । अधो दक्षिणतो वापि दहेदुत्तरतोऽपि च ॥ भूतानामेष आघातो हव्यवाहो न संशयः । तं प्रदीपप्रतापार्थं संयताः किञ्चिन्नारम्भन्ते ॥ तस्मादेनं परिज्ञाय दोषं दुर्गतिवर्धनम् । तेजस्कायसमारम्भं यावज्जीवं वर्जयेत् ।।
(३७-३८-३६--४.) मूल- अनिलस्स समारम् बुद्धा मन्नति तारिसं ।
सावज्जबहुलं चेय नेयं ताईहिं सेवियं ॥ तालियंटेण पत्तण साहाविहुयणेण वा । न ते वीइउमिच्छंति वीयावेऊण वा परं ॥ जंपि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुछणं । न ते वायमुईरंति जयं परिहरंति य॥ तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवड्ढणं । वाउ कायसमारंभं जावज्जीवाए बज्जए ।
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छठा मा चारकथा अध्ययन
(३३ – ३४–३५–३६)
सबतें दुसह तेज-जुत आगी, पद्धरी- पूरव अथवा पच्छिमेह होय, दच्छिन उत्तर कित हूं निहार, पावक है प्राननि को प्रहार दीपक वा तापन हेतु याहि,
चौपाई - पाप रूप अरु तीच्छन जोई, सकल अंग आयुध - सम सोई । जलिवो नह चाहत मुनि त्यागी ॥ अध करध वा विदिसा हु कोय | यह परसि करति सब जारि छार ॥ यामें कछु संसय नह निहार । संजति किंचित हू गहे नाहि ॥ दुरगति वर्धन - हार । परिहार ॥
तातें ऐसो दोस लखि, करं अगनि आरंभ को, आजीवन
दोहा
अर्थ-संयमी मुनि कभी भी अग्नि को जलाने की इच्छा नहीं करते हैं क्योंकि यह पापकारी है । यह अन्य शस्त्रों की अपेक्षा अति तीक्ष्ण शस्त्र है और सर्व ओर से दुराश्रय है अर्थात् उसे सहन करना अति कठिन है । यह पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व और अधोदिशा में तथा विदिशाओं में रहे हुए जीवों को जलाती है । निश्चय से यह हव्यवाह (अग्नि) जीवों के लिए भारी आघात पहुंचाती है, इसमें कोई संशय नहीं है । साधु इससे प्रकाश पाने और शरीर तपाने के लिए इसका कुछ भी आरम्भ न करे । यह अग्नि जीव विघातक है, यह दुर्गति-वर्धक महादोष-कारक है, ऐसा जानकर संयमी यावज्जीवन के लिए अग्निकाय के समारम्भ का त्याग करे ।
(३७-३८-३६–४० )
दोहा
पचरी - आरंभ अनिलको ता- समान मानत है पूरन जे खटकाया के जान आहि, लखि बहु सदोस सेवं तालविजन लें पत्र तें, साख-धुननतें विजनौ चहे न औरतें, पद - पूछन कंबल तथा पवन न धेरत इनहु तें, जतन निधारत तातें ऐसो दोस लखि, दुरगति - वर्धन कर अनल आरंभ को, आजीवन
ज्ञानवान | न आहि ॥
होय । लोय ॥
विजवानो मुनि भाजन वसन जु होय ।
सोय ॥
·
हार । परिहार |
१३५
अर्थ — तीर्थंकर भगवन्त वायु के समारम्भ को अग्नि समारम्भ के समान ही पापकारक मानते हैं । यह वायु -समारम्भ प्रचुर सावद्य-युक्त है । अतः षट्काय के रक्षक साधुओं ने वायु का कभी समारम्भ नहीं किया है । इसलिए वे तालवृन्त ( बीजन),
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१३६
दशवकालिकसूत्र
संस्कृत- अनिलस्य समारंभ बुद्धा मन्यन्ते तादृशम् ।
सावद्यबहुलं चनं नैनं त्रायिभिः सेवितम् ॥ तालवृन्तेन पत्रण शाखाविधुवनेन वा । न ते बीजितुमिच्छन्ति बीजयितुं वा परेण ।। यदपि वस्त्र वा पात्रं वा कम्बलं 'ताजम् । न ते वातमुदीरयन्ति यतं परिदधते च॥ तस्मादेनं परिज्ञाय दोषं गीतवर्धनम् । वायुकायसमारम्भं यावज्जीवं वर्जयेत् ॥
(४१-४२-४३) वणस्सई न हिसंति मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥ वणस्सई विहि संतो हिंसई उ तयस्सिए । तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य मचक्खुसे ।। तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवड्ढणं ।
वणस्सइसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए । संस्कृत- वनस्पति न हिंसन्ति मनसा वचसा कायेन ।
त्रिविधेन करणयोगेन संयताः सुसमाहताः॥ वनस्पति विहिंसन् हिनस्ति तु तदाश्रितान् । वसांश्च विविधान् प्राणान् चाक्षुषांश्चाचाक्षुषान् ॥ तस्मादेनं विज्ञाय दोषं दुर्गतिवर्धनम् । वनस्पतिसमारम्भं यावज्जीवं वर्जयेत् ।।
(४४-४५-- ४६) मूल- तसकायं न हिंसंति मणसा वयसा कायसा ।
तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया । तसकायं विहिसंतो हिंसई उ तयस्सिए । तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचल से ॥ तम्हा एवं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवढणं । तसकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए॥
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छठा महाचारकथा अध्ययन
१३७
पत्र, शाखा (वृक्ष - डाली) और पंखे से हवा करना तथा दूसरों से हवा कराना नहीं चाहते हैं । जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और पाद प्रोंछन हैं उसके द्वारा वे वायुकाय की उदीरणा नहीं करते, किन्तु यतनापूर्वक उसका उपयोग करते हैं । इसलिए वायुकाय के इस समारम्भ को दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनिजन यावज्जीवन के लिए वायुकाय के समारम्भ का त्याग करते हैं ।
दोहा
( ४१–४२ – ४३ )
हनं
मनतें वचतें कायतें, हनं न हरिता काय । संजति त्रिकरन जोगतं, जे हिंसत हरिता काय कों, नैन स दीठ अदीठ जे, तातें ऐसो दोस लखि, करं हरित आरंभ को,
माय ॥
सुसमाधित विविध त्रस जंत ।
आलित
रहंत ॥
तासु दुरगति वरधन - हार ।
आजीवन
परिहार ॥
-
अर्थ - - सुसमाधिवन्त साघुजन मन से, वचन से, काय से, इन तीन योगों से तथा कृत कारित अनुमोदना इन तीन करणों से वनस्पति की हिंसा नहीं करते हैं । वनस्पति की हिंसा करता हुआ मनुष्य उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष ( अदृश्य ) स और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर साधु यावज्जीवन के लिए वनस्पति के समारम्भ का त्याग करे ।
(४४–४५ --- ४६)
कायतें, हनं नहीं
दोहा - मनते वचतं सजति त्रिकरण जोगते, जे सुसमाधित हिसत हू सकायकों, हनं विविध त्रस नेन स दीठ अदीठ जे, आस्त्रित
तातें ऐसो दोस लखि, कोजे त्रस आरंभ को,
प्रसकाय ।
भाय ॥
जंत ।
तासु रहंत ॥
दुरगति वरघन हार । आजीवन
परिहार ॥
-
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१३८
दशवकालिकसूत्र संस्कृत- त्रसकायं न हिसति मनसा वचसा कायेन ।
त्रिविधेन करणयोगेन संयताः सुसमाहिताः॥ त्रसकायं विहिंसन् हिनस्ति तु तदाश्रितान् । वसांश्च विविधान् प्राणान् चाक्ष षांश्चाचाक्ष षान् ।। तस्मादेनं विज्ञाय दोषं दुर्गतिवर्धनम् । त्रसकाय समारंभं यावज्जीवं वर्जयेत् ।।
(४७-४८) मूल- जाइ चत्तारिऽभोज्जाइं इसिगाहारमाईणि ।
ताइ तु विवज्जतो संजमं अणुपालए । पिंड सेज्जं च वत्थं च चउत्थं पायमेव य ।
अकप्पियं न इच्छेज्जा पडिगाहेज्ज कप्पियं ।। संस्कृत- यानि चत्वार्यभोज्यानि ऋषिणाऽहारादीनि ।
तानि तु विवर्जयन् संयममनुपालयेत् ॥ पिंडं शय्यां च वस्त्रं च चतुर्थ पात्रमेव च । अकल्पिकं नेच्छेत् प्रतिगृह्णीयात्कल्पिकम् ॥
(४९-५०) मूल- जे नियागं ममायंति कोयमुद्दे सियाहडं ।
वहं ते समणुजाणंति इय वृत्तं महेसिणा ॥ तम्हा असण-पाणाई कोयमुद्दे सियाह ।
वज्जति ठियप्पाणो णिग्गंथा धम्मजोविणो॥ संस्कृत- ये नित्या ममायन्ति क्रोतमोद्देशिकाहृतम् ।
वधं ते समनुजानन्ति इत्युक्त महर्षिणा ।। तस्मादशनपानादि क्रोतमौद्देशिकाहृतम् । वर्जयन्ति स्थितात्मानः निर्ग्रन्था धर्मजीविनः ।
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छठा महाचारकथा अध्ययन
१३९
अर्ष-सुसमाधिवन्त साधुजन मन से, वचन से, काय से, इन तीनों योगों से, कृत कारित अनुमोदना इन तीन करणों से त्रसकाय की हिंसा नहीं करते हैं । त्रसकाय की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्ष ष (दृश्य), अचाक्षष (अदृश्य) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है । इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर संयमी मुनि यावज्जीवन के लिए त्रसकाय के ममारम्भ का त्याग करे ।
(४७ - ४८) नाराचछन्द- अकल्पनीय साघु के अहार आदि चार जे,
मुनित्व को अराषिये, तिन्हें निवार गर जे । महार सेज वाससी चतुर्य पात्र जानिये,
अकल्पनीय ना चहै सु कल्पनीय आनिये ॥ अर्थ-ऋषि के लिए जो चार अकल्पनीय पिण्ड (आहार-पान) शय्या (वसति) वस्त्र और पात्र हैं, वह उनका त्याग करे और संयम का अनुपालन करे। किन्तु जो कल्पनीय पिण्ड, शव्या, वस्त्र और पात्र हों, उन्हें ही ग्रहण करे।
नाराचछन्द
(४६-५०) जु नित्त ही निमंत्रियो. तथा निमित्त तें कियो, तथा चु दाम दे लियो, जुआन थान पे दियो । गहै अहार ए तिन्हें महर्षि ने कही यहै, संहार प्रानि-पान को वहै स्वचित्त सों चहै। अहार पान मोल के निमित्त के जु आन के, दिये सुटार देत हैं, सु या प्रकार जान के । सधर्म जे जियो करें, अधर्म से जियें नहीं,
परिग्रहै न संग्रहै रहै स्थिरात्म जे सही ॥ अर्थ-जो नित्यान (नित्य ही आदरपूर्वक निमन्त्रित कर दिया जाने वाला), क्रीत (साधु के निमित्त खरीदा गया), औद्देशिक (साधु के निमित्त बनाया गया) और आहृत (साधु के निमित्त दूर से लाया गया) आहार ग्रहण करते हैं, वे प्राणिवध का अनुमोदन करते हैं. ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है। इसलिए धर्मजीवी और संयम में स्थित साधु क्रीत, औद्देशिक और आहृत अशन-पान आदि का त्याग करते हैं।
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दशवकालिकसूत्र (५१-५२-५३) मूल- कंसेसु कंसपाएसु कुडमोएसु वा पुणो ।
मुंजतो असणपाणाइं आयारा परिभस्सइ॥ सीओवग समारंभे मत्तधोयण छड्डणे । जाई छन्नन्ति भूयाइं दिट्ठो तत्थ असंजमो॥ पच्छाकम्मं पुरेकम्मं सिया तत्थ न कप्पई ।
एयमढं न भुजति निगंथा गिहिमायणे । संस्कृत- कांस्येषु कांस्यपात्रेषु कुण्डमोदेषु वा पुनः ।
भुजानोऽशनपानादि आचारात् परिभ्रश्यति ॥ शीतोदक-समारम्भ
अमत्रधावनच्छर्दने । यानि क्षण्यन्ते भूतानि दृष्टस्तत्रासंयमः॥ पश्चात्कर्म पुराकर्म स्यात्तत्र न कल्पते । एतदर्थं न भुञ्जन्ते निग्रन्था गृहिभाजने ॥
. (५४–५५) मूल- आसंदी . पलियंकेसु मंचमासालएसु वा।
अणायरियमज्जाणं आसइत्त सइत्त. वा॥ नासंदी - पलियंकेसु न निसेज्जा पोढए ।
निग्गंथाऽपडिलेहाए बुद्धपुत्तमहिठ्ठगा । संस्कृत- आसन्दी - पर्यङ्कयोः मञ्चाशालकयोर्वा ।
अनाचरितमार्याणां आसितुं शयितुं वा ।। नासन्दी-पर्यङ्कयोः न निषद्यायां न पीठके । निर्ग्रन्थाः अप्रतिलेख्य बुद्धोक्ताधिष्ठातारः ।।
(५६-५७) मूल- गंभीर - विजया एए पाणा दुप्पडिलेहगा ।
आसंदी पलियंका य एयमझें विवज्जिया ॥ गोयरग्गपविठ्ठस्स निसज्जा जस्स कप्पई । इमेरिसमणायारं आवज्जइ अबोहियं ॥
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छठा महाचारकथा अध्ययन
(५१-५२-५३) नाराचछन्द- कटोरिका ज़ कांसि की कि थाल कासि को लिये,
तथैव कुंर माटि को अहार तासु में किये। पुनश्च पान हू किये गृहस्थ भाजनानि में, मुनी अचारतें सुभ्रष्ट होत हैं जहान में ॥ अरंभ शीत नीर को परे जु पात्र घोवते, मरंत जन्तु यों तहाँ असंजमाहि जोवते । तहां न कल्पनीय पूर्व पच्छकर्म ओगते,
तदर्थ ही निग्रन्थ ना गृहस्थ-पात्र भोगते । अर्थ- जो गृहस्थ के कांसे के प्याले-कटोरे, कांसे का थाल आदि पात्र अथवा मिट्टी आदि के बने कुड आदि में रखे-परोसे गये- अशन-पान आदि को खाता-पीता है, वह श्रमण साधु के आचार मे भ्रष्ट होता है । क्योंकि उक्त पात्रों को सचित्त जल से धोने में और उस धोवन के फेंकने से प्राणियों की हिंसा होती है। ज्ञानियों ने वहां असंयम देखा है । गहस्थ के पात्र में भोजन करने पर पश्चात्कर्म (पीछे पात्रों का धोना-मांजना) और पुरःकर्म (साधु के भोजन से पूर्व उनके लिए पात्रों को धोना आदि) की संभावना है । यह निर्ग्रन्थ के लिए कल्प्य नहीं है, इसलिए वे गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करते हैं।
(५४-५५) चौपाई- भद्रासन पलंग चौपाई, आसालक आसन सुखदाई ।
इन पर बैठे सोये जोई, अनाचरित आर्यनि को होई॥ बुद्ध-वचन-आराधन-हारे, कारन ते कबहुक जो धारे ।
पलंग पीठ गादी भद्रासन, विन प्रतिलेखे ग्रहै न आसन ।
अर्थ-आर्य मुनिजनों के लिए आसन्दी (वेत की वनी कुर्सी, मूढा), पलंग, मांचा और आसालक (सहारेवाला आसन पर बैठना या सोना अनाचाररूप है। ज्ञानियों की आज्ञा के अनुसार कार्य करने वाले निर्ग्रन्थ अपने योग्य आसन्दी, पलंग, आसन और पीढ़े का प्रतिलेखन किये बिना उन पर न बैठे और न सोवे ।
(५६-५७) चौपाई- ए सब आसन तम-जुत आही, मुसकिल सों प्रतिलेखे जाही ।
याते आसंदी र पलंगा, आदिन कों बरजत है संता ।। गोचरि-हेतु गयो घर माही, चित जिहि बैठि रहन को चाही। ऐसो अनाचार-जत होई, फल अबोध पावत है सोई॥
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१४२
संस्कृत - गम्भीर विजया एते प्राणा सन्दी पर्यङ्कश्च एतदर्थं
गोचराप्रविष्टस्य निषद्या
एतादृशमनाचारं
आपद्यते
मूल -
विवत्ती
वणीमग
अगुती कुसीलवड्ढणं
(५८-५९)
बंभचेरस्स पाणाणं अवहे वहो । पडिग्धाओ पडिकोहो अगारिणं ॥
बंभचेरस्स इत्थीओ या वि संकणं ।
ठाणं दूरओ
परिवज्जए ||
संस्कृत - विपत्तिब्रह्मचर्यस्य
वनीपकप्रतिघातः
ब्रह्मचर्य कुशीलवर्धनं
मूल- तिन्हमन्नयरा गल्स
जराए
अभिभूयस्स
संस्कृत - त्रयाणामन्यतरकस्य
जरयाऽभिभूतस्य
दसर्वकालिकसूत्र
स्थानं दूरतः
(६०)
निसेज्जा
बाहियस्स
दुष्प्रतिलेख्यकाः । विवर्जिती ॥
यस्य कल्पते ।
अबोधकम् ॥
प्राणानां च वधे वधः ।
प्रतिक्रोधोऽगारिणाम् ॥
स्त्रीतश्चापि शङ्कनम् । परिवर्जयेत् ॥
जस्स कप्पई ।
तव सिणो ॥
निषद्या यस्य कल्पते । व्याधितस्य तपस्विनः ॥
(६१ --- ६२-६३-६४ )
सिणाणं जो उ पस्थए ।
जढो
हवइ संजमो ॥
घसासु
मूल- बाहिओ वा अरोगी वा वीक्jतो होइ आयारो सन्तिमे सुहमा पाणा जे उ भिक्खू सिणायंतो तम्हा ते ण सिणायंति जावज्जीवं वयं घोरं सिणाणं अदुवा कक्कं लोद्धं गायस्सुव्वट्टणट्ठाए नायरंति
सोएण
मिलुगासु य । विडे प्पिलावए ॥
उसिणेण वा ।
असिणाण महिट्ठगा ॥
पउमगाणि य । कयाइ वि ॥
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छठा महाचारकथा अध्ययन
१४३
अर्थ आसन्दी आदि गंभीर छिद्रवाले होते हैं, उनमें रहे हुए प्राणियों का प्रतिलेखन करना कठिन होता है । इसलिए आसन्दी और पलंग आदि पर बैठना या सोना वर्जित किया है । भिक्षा के लिए गया हुआ जो मुनि गृहस्थ के घर में बैठता है, वह आगे कहे जाने वाले अबोधि-कारक अनाचार को प्राप्त होता है ।
(५८-५९)
चौपाई - ब्रह्मचरज पर विपदा आवं, प्रानि हनं संजम हनि जावं । जाचक जन बाधा पुनि पावे, घर-स्वामी हिय रोस भरावं ॥ नारी जन शंका हिय लहई । दूरहि तं तजिये यह कामा ||
ब्रह्मचरज की बाड़ न रहई, यह कुसील- बाढ़न को ठामा,
अर्थ – गृहस्थ के घर में बैठने से ब्रह्मचर्य को विपत्ति ( हानि ), प्राणियों का वध होने पर संयम का घात, भिखारियों के अन्तराय और घर वालों को क्रोध उत्पन्न होता है । शयनासनों पर बैठनेवाले मुनि का ब्रह्मचर्य असुरक्षित होता है, और स्त्रियों के संपर्क से लोगों को साधु के ब्रह्मचर्य में शंका उत्पन्न होती है । गृहस्थ के आसनों पर बैठना कुशीलवर्धक स्थान है, इसलिए मुनि इसका दूर से ही परित्याग करें
1
(६०)
जाकी बेह जरा त जीरन, जो घिरचो है
रोग को पोरन । के तपसी, तीननि में कोई, गृह बैठन में दोस न होई ॥
अर्थ – जो साधु जरा से ग्रस्त हो, रोग से घिरा हो और दीर्घ तपस्वी हो, तो
-
न तीनों में से कोई भी साधु (निर्बलता के कारण थकान मिटाने के लिए) गृहस्थ के घर में बैठ सकता है ।
चौपाइ
चौपाई
बोहा
(६१-६२ - ६३–६४)
सोई ॥
रोगी तथा अरोगी होई, स्नान करन चाहत है जोई । तो आचार उलंघन होई, संजमहीन कहावत पोली भूमि दराउन माहीं, ए सूक्षम प्राणो गन आहीं । स्नान करत जद्यपि जल प्रासुक, तिनह बहावत है वह भिक्षुक ।। तायें ते नहि म्हावत धीरा, सोरे वा ताते हू नीरा । आजीवन मोसन प्रन-कारी, विनु सिनान विचरत व्रत धारी ॥ न्हान तथा तन कबटन, कबहुँ आचरत नाहि । चंदन केसर कुंकुमह, लोधादिक न लगाहि ॥
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१४
दशवकालिकसूत्र संस्कृत- व्याधितो वा अरोगी वा स्नानं यस्तु प्रार्थयते ।
व्युत्क्रान्तो भवत्याचारस्त्यक्तो भवति संयमः ॥ संतीमे सूक्ष्माः प्राणाः घसासु भिलुगासु च । यांस्तु भिक्षुः स्नान् विकटेनोत्प्लावयति । तस्मात्त न स्नान्ति शीतेनोष्णेन वा। यावज्जीवं व्रतं घोरं अस्नानाधिष्टातारः ।। स्नानमथवा कल्कं लोध्र पद्मकानि च । गत्रस्योद्वर्तनाथ नाचरन्ति कदाचिदपि ॥
(६५-६६-६७) मूल- नगिणस्स वा वि मुस्स दोहरोमनहसिणो ।
मेहुणा उवसंतस्स कि विभूसाए कारियं ॥ विभूसावत्तियं भिक्खू कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसारसायरे घोरे जेणं पडइ दुरुत्तरे।। विभूसावत्तियं चेयं बुद्धा मन्नति तारिस ।
सावज्जबहुलं चेयं नेयं ताईहिं सेवियं ।। संस्कृत- नग्नस्य वापि मुण्डस्य दीर्घरोमनखवतः ।
मैथुनादुपशान्तस्य किं विभूषया कार्यम् ॥ विभूषा प्रत्ययं भिक्षुः कर्म बध्नाति चिक्कणम् । संसारसागरे घोरे येन पतति दुरुत्तरे ॥ विभूषाप्रत्ययं चेतः बुद्धा मन्यन्ते तादृशम् । सावद्यबहुलं चैतत् नैतत् प्रायिभिः सेवितम् ।।
(६८-६९) मूल- खति अप्पाणममोहसिणो
तवे रया संजम अज्जवे गुणे । धुणंति पावाई पुरेकडाई
नवाई पावाई न ते करेंति ॥
A
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छठा महाचारकथा अध्ययन
१४५
अर्थ-जो रोगी या निरोग साधु स्नान करने की अभिलाषा करता है, उसके आचार का उल्लंघन होता है और उसका संयम नष्ट हो जाता है। स्नान करने की भूमि पोली हो या दरार-युक्त हो तो उसमें सूक्ष्म प्राणी होते हैं । प्रासुक जल से स्नान करने वाला भिक्ष भी उन्हें जल से प्लावित कर देता है । (इससे उनकी हिंसा अवश्य होती है ।) इसलिए मुनि ठंडे या गर्म जलसे स्नान नहीं करते हैं । वे जीवनपर्यंत घोर अस्नानव्रत का पालन करते हैं। मुनि शरीर का उबटन करने के लिए कल्क (चन्दनादि सुगन्धी द्रव्यों का चूर्ण), लोध्रवृक्ष का चूर्ण, पिट्ठी और कमल-केसर आदि का उपयोग भी नहीं करते हैं।
(६५-६६-६७) सर्वया- नग्न सरीर सुमुडित सोस बड़े नख रोम को धारन हारे ।
काम-विकार भयो उपशांत सु क्यों सिनगार विभूसन धारे ॥ जो मनगार लगै सिनगार में बांधत कर्म सचोकन मारे ।
जातें परं भवसागर भीम में दुष्कर जासु को पायनो पारे । चौपाई- लोन बिभूषा में मन ऐसो, बुद्ध देव मानत है तेसो ।
बहुत दोस-पूरित है जोई, त्राता संत न सेवत सोई॥
अर्थ-नग्न शरीर रहने वाले, द्रव्य-भाव से मुडित मस्तक और दीर्घ रोम और नखवाले तथा मैथुन-सेवन से उपशान्त चित्तवाले मुनि को शरीर-शोभा से क्या प्रयोजन है ? शरीर-शोभा से साधु चिकने (दारुण) कर्म को बाँधता है, उससे वह दस्तर संसार सागर में गिरता है। शरीर की शोभा में संलग्न मनको ज्ञानी पुरुष
भूषा के सदृश हो चिकने कर्म के बन्धन का हेतु मानते हैं, यह शरीर-शोभा बहुत धिक सावद्य-प्रचुर है । यह छह काय के त्राता मुनियों द्वारा आसेवित नहीं है । (अतः साधु को शरीर-शोभा करने का विचार भी मन में नहीं लाना चाहिए।)
कवित्त --
(६८-६९) मोहमति नासी, दृष्टि विमल प्रकासी, भए
संजय सरलता में, तपस्या में रत हैं। पूरव के पाप तोरे, नये पाप नहीं जोरे,
आतम विशुद्ध करिवे को करें कृत हैं।
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संस्कृत
दशवकालिकसूत्र सओवसंता अममा अकिंचणा
सविज्जविज्जाणुगया जसंसिणो। उउप्पसन्न विमले व विमा सिद्धिं विमाणाइ उर्वति ताइणो॥
-त्तिबेमि क्षपयन्त्यात्मानममोहदर्शिनः
तपसि रताः संयममार्जवे गुणे। धुन्वन्ति पापानि पुराकृतानि
____नवानि पापानि न ते कुर्वन्ति । सदोपशान्ता अममा अकिञ्चना
स्वविद्याविद्यानुगता यशस्विनः । ऋतुप्रसन्ने विमल इव चन्द्रमा
सिद्धि विमानानि उपयान्ति त्रायिणः ।।
-इति ब्रवीमि
छठं महायारकहा अजायणं सम्मतं
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छठा महाचारकथा अध्ययन
ममता सों होन
परमारथानुगत
रच्छक जसी अमल ज्यों रितु-प्रसना ससो लहे निरवान वा विमाननि
सदा उपशान्त, परिग्रह आतम-ज्ञान- लीन
बसत हैं ॥
१४७
अर्थ - मोह-रहित यथार्थ तत्त्व के ज्ञाता, तप में संलग्न, सत्रह प्रकार के संयम के परिपालक, आर्जव गुण के धारक निर्ग्रन्थ मुनि अपने शरीर को कृश कर देते हैं, वे पुराकृत पापकर्म का नाश करते हैं और नवीन पापों को नहीं करते हैं । वे सदा उपशान्त, ममता-रहित, अकिंचन ( जिनके पास घनादि परिग्रह कुछ भी नहीं हैं ), आत्म-विद्या से युक्त, यशस्वी और त्राता मुनि शरद् ऋतु के चन्द्रमा के समान मलरहित होकर (सर्व कर्मों का नाश कर ) सिद्धि को प्राप्त होते हैं अर्थात् मोक्ष जाते हैं अथवा कर्मों के कुछ रहने पर वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं ।
- ऐसा मैं कहता हूं ।
छठा महाचारकथा अध्ययन समाप्त
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सत्तम वक्कसुद्धि अज्झयणं
मूल- चउण्हं खलु भासाणं परिसंखाय पन्न ।
बोण्हं तु विणयं सिक्खे दो न मासेज्ज सब्यसो॥ संस्कृत- चतसृणां खलु भाषाणां परिसंख्याय प्रज्ञावान् ।
द्वाभ्यां तु विनयं शिक्षेत दे न भाषेत सर्वशः।
मूल- जा य सच्चा अवत्तव्वा सच्चा-मोसा य जा मुसा ।
जा य बुद्ध हिंऽणाइना न तं भासेज्ज पनवं ॥ संस्कृत- या च सत्या अवक्तव्या सत्या-मृषा च य मृषा । या च बुद्ध रनाचीर्णा न तां भाषेत प्रज्ञावान् ।
(३-४) मूल- असच्चमोसं सच्चं च अणवज्जमकक्कसं ।
समुप्पेहमसंविद्ध गिरं मासेज्ज पनवं ॥ एयं च अट्ठमन्नं वा जं तु नामेइ सासयं ।
स भासं सच्चमोसं पि तं पि धीरो विवज्जए। संस्कृत- असत्यामृषां सत्यां च अनवद्यामकर्कशाम् ।
समुत्प्रेक्ष्य असंदिग्धां गिरं भाषेत प्रज्ञावान् । एवं चार्थमन्यं वा, यस्तु नामयति शाश्वतम् ।। स भाषा सत्यामृषा अपि तामपि धीरो विवर्जयेत् ।।
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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
(१)
लोटक- चतुभेद कहे खलु बानिय के, मतिमान भली विधि जानिय के । तु के वरतावनि सोखि घरं, दुयकों सब भाँति नहीं उच्चरं ॥१॥
अर्थ - प्रज्ञावान् मुनि चारों भाषाओं को जानकर दो के द्वारा विनय (शुद्ध वचन प्रयोग) सीखे और दो को सर्वथा न बोले ।
(२)
तोटक सच है, पर बोलन जोग नहीं, सच-झूठ, तु केवल झूठ कही । जिनदेव न सेवन जाहि करो, न कहै मतिवंत जु बानि बुरी ॥
अर्थ – जो अवक्तव्य-सत्य, जो सत्य- मृषा, जो मृषा और जो (असत्यामृषा ) भाषा बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण ( आचरण करने के अयोग्य ) कही है उसे प्रज्ञावान् मुनि न बोले ।
(३–४)
रोला छन्द - सत्य तथा व्यवहार दोष-वजित कोमल पुनि,
लखि के संशय-रहित भने भाषा मति-धर मुनि । ऐसे अरथ रु और हु जे अविचल सुख-हारक, बोल सुसत वा झूठ वह हु वरजं धृति-धारक ।।
अर्थ - प्रज्ञावान् मुनि असत्यामृषा ( व्यवहारभाषा ) और सत्य भाषा- जो
उसे सोच-विचार कर बोले । वह धीर अथवा इसी प्रकार के दूसरे अर्थ को प्रति(मोक्ष) की विघातक है, चाहे वह सत्याअमृषा (मिश्र) भाषा हो अथवा सत्यभाषा हो, उसे सत्य महाव्रतधारी बुद्धिमान् साधु न बोले ।
अनवद्य ( निर्दोष) मृदु और सन्देह-रहित हो, पुरुष सावद्य और कर्कशता-युक्त अर्थ को, पादन करने वाली जो भाषा, शाश्वत सुख
१४६
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१५०
दशवकालिकसूत्र
मूल- वितहं पि तहामुत्ति जं गिरं भासए नरो ।
तम्हा सो पुट्ठो पावणं किं पुण जो मुसंवए । संस्कृत-- वितधामपि तथा मूर्ति यां गिरं भाषते नरः ।
तस्मात् स स्पृष्टः पापेन किं पुनर्यो मृषावदेत् ।।
मल
तम्हा गच्छामो बक्खामो अमुगं वा जे भविस्सई । अहं वा गं करिस्सामि एसो वा गं करिस्सई। एवमाई उ जा भासा एसकालम्मि संकिया ।
संपयाईमठे वा तं पि धीरो विवज्जए । संस्कृत- तस्माद् गच्छामो वक्ष्यामोऽमुकं - वा - नो - भविष्यति ।
अहं वेदं करिष्यामि एष वेदं करिष्यति ॥ एवमादिस्तु या भाषा एष्यत्काले शङ्किता । साम्प्रतातीतार्थयोर्वा तामपि धीरो विवर्जयेत् ।।
(८-६ --१०) मूल- अईयम्मि य कालम्मो पच्चुप्पन्नमणागए ।
जमढं तु न जाणेज्जा एयमेयं तु नो वए॥ अईयम्मि य कालम्मी पच्चुप्पन्नमणागए । जत्थ संका भवे तं तु एयमेयं तु नो वए । अईयम्मि य कालम्मी पच्चुप्पन्नमणागए ।
निस्संकियं भवे त तु एयमेयं ति निदिसे ॥ संस्कृत- अतीते च काले प्रत्युत्पन्नानागते ।
यमर्थ तु न जानीयात् 'एवमेवदिति' नो वदेत् ।। अतीते च काले प्रत्युत्पन्नानागते । यत्र शङ्का भवेत्तत्त, 'एवमेवदिति' नो वदेत् ॥ अतीते च काले प्रत्युत्पन्नानागते । निःशङ्कितं भवेद्यत्त 'एवमेतदिति' निर्दिशेत् ॥
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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
१५१
अजवारप को रूप जवारप, देखि जपारय आले ॥
सो नर बातें पाप हि परसं का फिर मुठ जु भात ॥ अर्थ जो पुरुष सत्य दिखने वाली असत्य वस्तु का आश्रय लेकर बोलता है अर्थात् पुरुष वेषधारी स्त्री को पुरुष कहता है, उससे भी वह पाप से स्पृष्ट होता है, तो फिर उसका क्या कहना जो साक्षात् मृषा (झूठ) बोले ? अर्थात् उससे तो प्रबलतर पाप कर्म का बन्ध होगा ही।
(६-७) कवित्ततातें 'हम जायगे' वा भासन करेंगे ऐसे, अथवा 'अमुकं काज होयगो हमारे यो। 'ऐसो मैं करूंगो' तथा 'करंगो हमारे यह', इत्यादिक भाषा जे हैं तिन्हें न उचारे यों। जो हैं होनहार अब तामें संकनीय सो तो, त्यों ही भूत वर्तमान संकित निवारे यो। प्रवचन बीच कहे वचन विचारे सदा, धोरवान मुनि कहे वचन विचारे यो ।
___ अर्थ-इसलिये 'हम जायेंगे' 'कहेंगे', 'हमारा अमुक कार्य हो जायगा', मैं यह करूंगा, अथवा यह व्यक्ति यह कार्य करेगा, यह और इस प्रकार की दूसरी भाषा जो भविष्य-सम्बन्धी होने के कारण (सफलता की दृष्टि से) शकित हो, अथवा वर्तमान और अतीतकाल-सम्बन्धी अर्थ के बारेमें शंकित हो, उसे भी धीर वीर पुरुष न बोले ।
(८-६-१०) चौपाई- भत भविष्यत कालहु माहीं, अथवा वर्तमान को छाहीं।
जौन अर्थ को जानं नाही, तो न कहें यह यों ही आही॥ भूत भविष्यत कालनि माहीं, अथवा वर्तमान को छाहीं। जा थल में कछु है संदेह, 'यह यों ही है' कहे न येह ॥ भूत भविष्यत कालहु माही, अथवा वर्तमान को छाहीं ।
जा पल में कछु नाहिं संबेह, 'यह यों ही हैं' कहिये येह ॥
अर्थ-- भूत, वर्तमान और भविष्य काल-सम्बन्धी जिस अर्थ को सम्यक् प्रकार से न जाने उसे 'यह इस प्रकार ही है, ऐसा न कहे । भत. वर्तमान और भविष्य काल सम्बन्धी जिस अर्थ में शंका हो, उसे 'यह इस प्रकार ही है', ऐसा न कहे । किन्तु भूत, वर्तमान और भविष्य काल-सम्बन्धी जो अर्थ निःशंकित हो, अर्थात् जिसके विषय में पूर्ण निश्चय हो उसके विषय में 'यह इस प्रकार ही है' ऐसा कहे ।
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१५२
मूल
मल -
संस्कृत - तथैव परुषा भाषा
(११)
मूल
तहेव
फरसा भासा
गुरुभूओवधाइणी ।
सच्चा विसा न वत्तव्वा जओ पावस्स आगमो ॥
गुरुभूतोपघातिनी ।
सत्यापि सा न वक्तव्या यत पापस्य आगमः ॥
( १२ – १३ – १४ )
काणेति पंडगं पंडगे त्ति वा ।
तेणं चोरे त्ति नो वए ॥ जेवहम्मई ।
न तं भासेज्ज पनवं ॥ साणे वा वसुले त्तिय । नेवं भासेज्ज पन्नवं ॥
तहेब काणं बाहियं वा वि रोगि ति
एएन आयामावदोन्न
तहेव होले गोले ति दमए दुहए वावि
वट्ठेण परो
संस्कृत -- तथैव काणं 'काण' इति
व्याधितं वापि रोगोति एतेनान्येन वार्थेन
दशवंकालिकसूत्र
आचारभावदोषज्ञो
तथैव 'होल' 'गोल' इति
'द्रमको '
दुर्भगश्चापि
अज्जिए पज्जिए वावि पिउस्सिए भायणेज्ज ति हले हले ति अन्न त्ति होले गोले वसुले त्ति नामधिज्जेण णं बूया जहारिहमभिगिज्ज
पण्डकं 'पण्डक' इति वा । स्तेनं 'चोर' इति नो वदेत् ॥ परो
हन्यते ।
( १५ – १६ – १७ )
न तं भाषेत प्रज्ञावान् ॥
'श्वा' वा 'वृषल' इति च । नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥
अम्मो माउस्सिय त्तिय । धूए नत्त लिए त्तिय ।। भट्टे सामिणि गोमिणि । इत्थियं नेवमालवे ॥ इत्थोगोत्तरेण वा पुणो । आलवेज्ज लवेज्ज वा ॥
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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
(११) बौपाई- त्यों ही जो कठोर है वानी, गुरु भूतनि उपघातनि जानी ।
सत्य हुवात कहिय नहिं सोई, जातें पातक आवन होई॥ .
अर्थ-इसी प्रकार परुष (कठोर) भारी प्राणियों का घात करने वाली सत्य भाषा भी न बोले, क्योंकि इससे पाप कर्म का आगमन होता है।
(१२- -१३-१४) कवित्तत्यों ही कानोकानेकों,नपुसक को नपुंसक', रोगीहू कों रोगो'चोरहू को'चोर'मासे ना। ऐसे और बन जातें पीड़ित परायो होय, आचार-दोषज्ञ बुध मुखतें निकासे ना। 'ऐ गंवार', 'अहो गोल' 'अहो श्वान', 'अरे जार"अमुक अमागे ऐसे भासे रसना से ना। येवा ऐसे आन वैन आनन पै आनकर, बुद्धिमान साघु निज भद्रता विनासे. ना ॥
अर्थ-इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर न कहे । आचार (वचन-नियमन) सम्बन्धी भावदोष (चित्त के प्रद्वेष) को जानने वाला प्रज्ञावान् पुरुष उक्त प्रकार की, अथवा इसीकोटि की दूसरी भाषा–जिससे दूसरे के हृदय को चोट लगे--न बोले। इसीप्रकार बुद्धिमान् मुनि 'रे होल, रे गोल, ओ कुत्ता, वृषल (दुराचारिन्), अरे द्रमक (कंगाल), अरे दुर्भग (अभागे, इत्यादि कठोर शब्द किसी पुरुप से कभी न कहे ।
(१५-१६-१७) कवितदादी तथा नानी पड़दादी पड़नानी मात, मौसी भुमा भानजी यों नारिन पुकार ना। पुत्री पोती हले हले अन्ने भट्टे ठाकुरानी, गोपी गॅवारनी दासी कुलटा उचार ना। जाको सो नाम है विल्यात तासों तसो बोल गोत्रसों उचारे विचार तजि गरे ना। जयाजोग देख भाल गुन दोस को विचार बोले एक वार, वार वार अविचारे ना ।।
अर्थ - हे आयिके (हे दादी, हे नानी) हे, प्रायिके (हे परदादी, हे परनानी), हे अम्ब (मात), हे मौसी, हे बुआ, हे भानजी, हे पुत्री, हे पोती, हे हले (सखी), हे हली, हे अन्ने, हे भट्ट, हे स्वामिनि, हो गोभिनि (गवालिन), हे होले, हे गोले, हे वृपले (दुराचारिणि) इस प्रकार से स्त्रियों को सम्बोधित न करे। किन्तु यथायोग्य
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१५४
दशवकालिकसूत्र संस्कृत- आर्यिके प्रार्यिके वापि अम्ब मातृष्वसः इति च ।
पितृष्वसः भागिनेयि इति दुहितः नप्तृके इति च ॥ हले हला इति 'अन्ने' इति भट्टे स्वामिनि गोमिनि । होले गोले वृषले इति स्त्रियं नैवमालपेत् ॥ नामधेयेन तां बयात् स्त्रीगोत्रेण वा पुनः । यथाहमभिगृह्य
आलपेत् लपेद् वां ॥
(१८-१९-२०) मूल- अज्जए पज्जए वावि बप्पो चुल्लपिउ ति य ।
माउला भाइणेज्ज ति प्रत्ते नत्त णिय ति य॥ हे हो हले त्ति अन्ने त्ति भट्टा सामिय गोमिए । होल गोल वसुले त्ति परिसं नेवमालवे ।। नामधेज्जेण गं बूया पुरिसगोत्तण वा पुणो ।
जहारिहमभिगिज्ज आलवेज्ज लवेज्ज वा ॥ संस्कृत- आर्यक प्रार्यक वापि वप्तः क्ष ल्लपितः इति च ।
मातुल भागिनेय इति पुत्र नप्त इति च ।। हे भो हल इति अन्न इति भट्ट स्वामिक गोमिक । होल गोल वृषल इति पुरुषं नवमालपेत् ।। नामधेयेन तं ब्रयात्, पुरुषगोत्रेण वा पुनः । यथार्हमभिगृह्य आलपेत् लपेत् वा।।
(२१) मूल- पंचिदियाण पाणाणं एस इत्थी अयं पुमं ।
जाव ण विजाणेज्जा ताव जाइ ति आलवे ॥ संस्कृत- पञ्चेन्द्रियाणां प्राणानां एषा स्त्री अयं पुमान् ।
यावत्तां(तं) न विजानीयात् तावत् 'जातिः' इत्यालपेत् ।।
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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
१५५ (अवस्था, देश, ऐश्वर्य आदि की अपेक्षा से) गुण-दोष का विचार कर एकवार या आवश्यक हो तो अनेकवार उन्हें उनके नाम या गोत्र से आमंत्रित करे-सम्बोधन करे और सन्मान-पूर्ण प्रिय वचन से बुलावे ।
(१८-१६-२०) कवित्तबाबा परदादा पिता चाचा मामा भागिनेय, पुत्र पौत्र आदि नाम संबोधन कोजे ना। हे भो हल अन्न भट्ट स्वामी गोमी होल गोल. हे वसुल आदि नर-संबोधन दीजे ना। नामतें पुकारे वाकों, तथा नर-गोत्र हो त, जथाजोग बोलवे में दूसन गहीजे ना। देखि गुन दोस एक वार तथा अनेक वार, बोलिये विचार अविचार ते वहीजे ना ।।
अर्थ-हे आर्यक (हे दादा, हे नाना), हे प्रार्यक (हे परदादा, हे परनाना), हे पिता, हे चाचा, हे मामा, हे भानजा. हे पुत्र, हे पोता, हे हल (मित्र) हे अन्न, हे भट्ट, हे स्वामिन्, हो गोमिन्, हे होल, हे गोल, हे वृषल, इस प्रकार से बोलकर पुरुष को सम्बोधित न करे । किन्तु यथायोग्य (अवस्था, देश, ऐश्वर्य आदि की अपेक्षा से) गुण-दोष का विचार कर एक वार या अनेक वार उन्हें नाम से या गोत्र से सम्बोधित कर सम्मानपूर्ण प्रिय वचन से बुलावे ।
(२१) बोहा- पचेन्द्रिय प्रानीनिमें 'यह नर' वा 'यह नारि'।
जो लगि यह नहिं जानिए. तो लगि'जाति' उचारि॥ अर्थ-पंचेन्द्रिय प्राणियों के विषय में जब तक यह स्त्री है, अथवा यह पुरुष है, ऐसा निश्चयपूर्वक न जान लेवे, तब तक उनकी 'जाति' का उल्लेख करके ही बोले कि यह गोजाति का पशु है, यह अश्वजाति का पशु है ।
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१५६
दशवकालिकसूत्र
(२२-२३) मूल- तहेव मणुस्सं पसु पक्विं वावि सरीसिवं ।
थूले पमेइले बसे पाइमे ति नो वए । परिवुड्ढे ति गं बूया बूया उचिए ति य ।
संजाए पीणिए वावि महाकाए ति आलवे ॥ संस्कृत- तथैव मनुष्यं पशु पक्षिणं वापि सरीसपम् ।
स्थूलः प्रमेदुरो वध्यः पाक्यः इति च नो वदेत् ॥ परिवृद्ध इत्येनं ब्रूयाद् ब यादुपचित इति च । संजातः प्रीणितो वापि महाकाय इत्यालपेत् ।।
(२४-२५) मूल- तहेव गाओ दुमाओ बम्मा गोरहग ति य ।
वाहिमा रहजोग ति नेवं भासेज्ज पन्नवं ॥ जुवं गवे ति गं बूया घेणु रसवय ति य ।
रहस्से महल्लए वावि वए संवहणे ति य॥ संस्कृत- तथैव गावो दोह्याः, दम्या गोरहगा' इति च ।
वाह्या रथयोग्या इति नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ।। युवागौरित्येनं बयात् धेनु 'रसदा' इति । ह्रस्वो वा महान् वापि वदेत संवहन इति च ॥
(२६-२७-२८-२९) तहेव गंतुमुज्जाणं पव्ययाणि वणाणि य । रुक्खा महल्ल पेहाए नेवं भासेज्ज पनवं ।। अलं पासायखभाणं तोरणाणं गिहाण य । फलिहग्गलनावाणं अलं उदगदोणिणं ।। पोढए चंगवेरे य नंगले मइयं सिया । जंतलठ्ठो व नामो वा गंडिया व अलंसिया।। आसणं सयणं जाणं होज्जा वा किंचुवस्सए । भूओवधाइणि भासं नेवं भासज्ज पनवं ॥
मूल
4
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१५७
सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
(२२-२३) बोहा- त्यों मानव पशु पछि को, सरपाविक को वापि ।
'मोटो' 'मेदुर' 'बध्य' वा, 'पाक्य' न कहे कदापि ॥ 'परिवधित' 'उपचित' तथा, 'प्रीणित' वा 'संजात' ।
'महाकाय' आदिक कहे, बोस-रहित जो बात ॥ अर्ष-इसी प्रकार मनुष्य, पशु, पक्षी और सांप को देखकर यह स्थूल (मोटा) है, प्रमेदुर (बहुत चर्बीवाला) है, वध्य (मारने योग्य) है, अथवा वाहन (गाड़ी आदि में जोतने के योग्य) है, अथवा पाक्य (पकाने के योग्य) है, या पात्य (काल प्राप्त है, देवतादि के बलि देने योग्य) है, ऐसा न कहे । यदि कदाचित प्रयोजन वश बोलना ही पड़े तो उसे स्थूल को 'परिवृद्ध', प्रमेदुर को 'उपचित', वध्य या वाह्य को 'संजात' या 'प्रीणित' और पाक्य या पात्य को 'महाकाय' बोल सकता है।
(२४-२५) बोहा- त्यों ही 'बोहन-जोग गौ', बलव दमन के जोग ।
'भार-बहन, रव-जोग' यों, कहै न मति-घर लोग ॥ 'गौ रसदा' बलदहि युवा, लघु वा कहै महान ।
अथवा संवाहन कहै, दोस-रहित जो वान ॥ अर्थ-इसी प्रकार प्रज्ञावान् मुनि ये गायें दुहने योग्य हैं, ये बैल दमन करने के योग्य हैं, हल में जीतने के योग्य हैं, भार-वहन करने के योग्य हैं, और रथ योग्य हैं, इस प्रकार न बोले । किन्तु यदि प्रयोजन-वश बोलना ही पड़े तो बैल 'जवान' है, यह कहा जा सकता है, गाय रसदा (दूध देने वाली) है यों कहा जा सकता है । बैल छोटा है, या बड़ा है अथवा धुरा संवहन करने वाला है ऐसा कहा जा सकता है।
(२६-२७-८-२६) पोहा- तथा उपवननि, बनानिमें गये गिरिन के माहि।
देखि बईम ए वचन, बुद्धिमान कह नाहि ॥ कवितराज-गेह, बम-जोग, तोरन के जोग यह, भवन के जोग, परिघ के जोग जानिये । भागल के जोग, नाव-जोग डोंगी-जोग यह, चौकी वा चंगेरी हल-जोग या कों मानिये। मड़ा जंत्र-लाठी नामो एरन-परन-जोग, मासन-सयन-यान-जोग वा प्रमानि ये। पा को कछ होयगो उपासरे में मतिमान, गातें गोव-हानी वैसी बानी ना बसानिये ॥
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१५८
संस्कृत - तथैव
-
महतः प्रेक्ष्य नैवं भाषेत
वृक्षान् अलं प्रासाद-स्तम्भाभ्यां तोरणेभ्यो
मूल
परिघार्गल नोभ्यः
पीठकाय 'चंगवेराय' च यन्त्रयष्ट्य वा नाभये वा आसनं शयनं यानं भूतोपघातिनीं
मूल- तहेब
गत्वोद्यानं पर्वतान् वनानि च ।
प्रज्ञावान् ।।
गृहेभ्यश्च ।
उदकद्रोण्यै ॥
संस्कृत - तथैव
दशर्वकालिकसूत्र
गंतुमुज्जाणं पव्वयाणि वणाणि य । रुक्खा महल्ल पेहाए एवं भासेज्ज पनवं ॥ जाइमंता इमे रुक्खा बीहवट्टा पयायसाला विडिमा वए वरिसणि
महालया । ति य ॥
अलं लाङ्गलाय 'मयिकाय' स्यात् । गण्डिकायै वा अलं स्यात् ॥ भवेद्वा किञ्चिदुपाश्रये । भाषां नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥
(३०-३१)
गत्वोद्यानं पर्वतान् वनानि च ।
वृक्षान् महतः प्रेक्ष्य एवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥ जातिमन्त इमे वृक्षाः दीर्घवृत्ताः महान्तः । विटपिनः वदेद दर्शनीया इति च ।।
प्रजातशाला
(३२-३३)
तहा फलाई
पक्काई पायखज्जाई नो वए । वेलोइया ' टालाई असंथडा इमे अंबा बहुसंभूया
वेहिमाइ त्ति नो वए ॥ बहुनिवट्टिया फला । भूयरुव त्ति वा पुणो ॥
वएज्ज
संस्कृत - तथा फलानि पक्वानि वेलोचितानि टालानि
असंस्कृता इमे आम्राः बहुसंभूता
वदेद्
पाकखाद्यानि नो वदेत् । वेध्यानि इति नो वदेत् ॥ बहुनिर्वर्त्तितफलाः ।
भूतरूपा इति वा पुनः ॥
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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
१५६
अर्थ - इसी प्रकार उद्यान, पर्वत और वनों में जाकर और वहां खड़े वृक्षों को देखकर प्रज्ञावान् मुनि इस प्रकार न बोले कि ये वृक्ष राज-प्रासाद के योग्य हैं, यह खम्भे के योग्य है, यह तोरण के योग्य है और यह परिघ ( भोगल) आगल, नाव जलकुंडी. या छोटी नाव के योग्य है । ये वृक्ष पीढ़ा, चंगेर, हल, मयिक ( बोये हुए बीजों को ढकने वाला उपकरण), कोल्हू, नाभि ( पहिये का मध्य भाग) अथवा एरन के योग्य है । इन वृक्षों में आसन शयन यान और उपाश्रय के योग्य कुछ काष्ठ-भाग हैं, इस प्रकार की भूतोपघातिनी वृक्षादि को पीड़ा पहुंचाने वाली भाषा बुद्धिमान् साधुओं को नहीं बोलना चाहिए ।
दोहा
तथा उपवननि वनानि में देखि बड़े क्रम ए वचन पडरी ए बिरछ अर्ह वर जातिवंत, लघु दीरघ शाखा जात आहि,
पद्धरी
( ३० - ३१ )
अर्थ - तथा कभी उद्यान पर्वत या वनों में जावे तो वहां बड़े वृक्षों को देख कर (प्रयोजनवश कहना पड़े तो ) प्रज्ञावान भिक्षु इस प्रकार कहे - ये वृक्ष उत्तम जाति के हैं, लम्बे ऊंचे हैं, गोल हैं, बहुत विस्तार वाले हैं, शाखा प्रशाखाओं से युक्त हैं, सघन छायावाले हैं और दर्शनीय हैं ।
-
सवैया
गये गिरिनि के थान । मुख उचरं मतिमान || दीरघ वृत बहु विस्तार वंत । 'देखन लायक' यों कहै ताहि ।।
(३२-३३)
फल पके खान- लायक पकाय, ए लेन-समय- लायक तथा य । तोड़न लायक कोमल जु आहिं, बुइ-भाग-जोग, यों कहे नाहि ॥
ए तक आम अहैं असमर्थ है गुठली जुत भूरि फला, या इनमें फल ऐसे हु है, बोलत तो अस दोस विना वच
फलानि के भारह कों सहिवे में, इन भूरि पके फल पावहिवे में | गुठली को बनाव वन्यों नह वे में, वाक विचार करे कहिवे में || अर्थ – (जिस प्रकार वृक्षों के विषय में सावद्य भाषा बोलने का निषेध है, उसी प्रकार फलों के विषय में भी सावद्य भाषा न बोले कि ) ये फल स्वतः पक गये हैं, अथवा ये पकाकर खाने के योग्य हैं, इस प्रकार न बोले । तथा ये फल वेलोचित ( अविलम्ब तोड़ने के योग्य) हैं, इनमें गुठली नहीं पड़ी है, ये दो टुकड़े (फांक) करने योग्य हैं, इस प्रकार न कहे । यदि प्रयोजन-वश कहना पड़े तो ये आम्रवृक्ष अब फलधारण करने में असमर्थ हैं, बहुनिर्वर्तित ( प्रायः निष्पन्न) फलवाले हैं, बहुसंभूत (एक साथ उत्पन्न बहुत फलवाले) हैं, अथवा भूतरूप (कोमल) हैं, इस प्रकार से कहे ।
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वशवकालिकसूत्र (३४-३५) मूल- तहेवोसहोरो पक्काओ नोलियाओ छवीइ य ।
लाइमा मज्जिमाओ ति पिहखज्ज ति नो बए । रूढा बहुसंभूया थिरा ऊसढा वि य ।
गम्भियाओ पसूयाओ ससाराओ ति आलवे ॥ संस्कृत- तथैवोषधयः पक्वाः नीलिकाश्छविमत्यः ।
लवनीया भर्जनीया इति पृथुखाद्या इति नो वदेत् ।। रूढा बहुसम्भूताः स्थिरा उच्छता अपि च । गर्भिताः प्रसूताः ससारा इत्यालपेत् ।।
(३६-३७) मूल- तहेव संखडि नच्चा किच्चं कज्ज ति नो वए ।
तेणगं वावि वझे ति सुतित्थ ति य आवगा। संखांड संखडि बूया पणियट्ठ ति तेणगं ।
बहुसमाणि तित्थाणि आवगाणं वियागरे ॥ संस्कृत । तथैव संस्कृति ज्ञात्वा कृत्यं कार्यमिति नो वदेत् ।
स्तनकं वापि वध्य इति सुतीर्था इति चापगा।। संस्कृति संस्कृति ब्रूयात् पणितार्थ इति स्तेनकम् । बहुसमानि तीर्थानि आपगानां व्यागृणीयात ।
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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
(३४-३५) सर्वया- पाकि रहे यह औषधि धान, तथा इनमें छवि श्यामल छाई,
खूनन-सायक, भूनन-लायक, खानन-लायक, आधि पकाई। ऐसे सदोष कर नहि मासन, यों जिनशासन ऐति जमाई,
है मुनि-नायक वायक की यह रीति विचारन लायक भाई ॥ कवितऐसे कहं धाननि में आनन उचारन को आन बने कारन तो ऐसे कछु कहिये, विढ़ मये अंकुर, अधिक निसपना भये, पिर मये धान, ऐसे देखन में लहिये । 'विघ्ननि त बचि गये, सिटे नहि कड़े अजों, सिट्टे कढ़ि आये ऐसे देखनि में लहिये, सिट्टान में बीजह परे हैं, ऐसे दोस-हीन, हिंसा-भावहीन वैन आनन सों कहिये ।।
अर्थ-इसी प्रकार ये औषधिया पक गई हैं, ये अपक्व हैं, ये छवि (फली) वाली हैं, ये काटने के योग्य हैं, ये भूनने के योग्य हैं, ये चिड़वा-होला-बनाकर खाने के योग्य हैं, इस प्रकार न बोले । (यदि कार्यवश बोलना ही पड़े तो) औषधियां अंकुरित हैं, निष्पन्न-प्राय हैं, स्थिर हैं, ऊपर उठ गई हैं, भुट्टों से रहित हैं, भुट्टों के सहित हैं, धान्य-कण-युक्त हैं, इस प्रकार से बोले ।
(३६-३७) बोहा- जाने जीमनवार कहुं, लों न कहैं मुनि लोग ।
यह कारज माछी महै, अथवा करनहिं जोग ।। तथा चोर लखि 'चोर यह' मारन लायक आहि ।
तिरन-जोग नीके नदी, ऐसे उचरे नाहि ।। अरिल्लजीमनवार हि कहिये जीमनवार है, चोरहि कहिये स्वारथ-साधन-हार है। प्राननि को दुख देत अरष को धारिये, 'सरिता समतल तीर' आदि उचारिये ।।
अर्थ -- इसी प्रकार संखडि (जीमनवार और मृत्युभोज) को जानकर 'ये कृत्य करणीय हैं, चोर मारने के योग्य है और नदी सुतीर्थ (उत्तम घाटवाली) है, इस प्रकार न कहे । (यदि प्रयोजनवश कहना पड़े तो) तो संखड़ी को संखड़ी बोले, चोर को पणितार्थ (धन के लिए प्राणों की बाजी लगाने वाला) कहै और नदी का घाट प्रायः समतल है, ऐसा कहे।
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दशवकालिकसूत्र
(३८-३९) मूल- तहा नईओ पुण्णाओ कार्यातज्जं ति नो वए ।
नावाहि तारिमाओत्ति पाणिज्ज ति नो वए । बहुवाहडा अगाहा बहुसलिलुप्पिलोबगा ।
बहुवित्थडोदगा यावि एवं भासेज्ज पन्नवं । संस्कृत- तथा नद्यः पूर्णाः कायतार्या इति नो वदेत् ।
नोभिस्तार्या इति प्राणिपेया इति नो वदेत् ।। बहुप्रभृता अगाधा बहुसलिलोत्पीडोदका । बहुविस्तृतोदकाश्चापि एवं भाषेत प्रज्ञावान् ।
(४०-४१) मूल- तहेव सावज्जं जोगं परस्साए निट्ठियं ।
कीरमाणं ति वा नच्चा सावज्ज न लवे मुणो॥ सुकडे ति सुपक्के ति सुछिन्न सुहडे मरे ।
सुनिट्ठिए सुलढे ति सावज्जं वज्जए मुणी॥ संस्कृत- तथैव सावद्य योगं परस्यार्थाय निष्ठितम् ।
क्रियमाणमिति वा ज्ञात्वा सावद्य न लपेन्मुनिः॥ सुकृतमिति सुपक्वमिति सुच्छिन्न सुहृतं मृतम् ।
सुनिष्ठित सुलष्टमिति सावध वर्जयेन्मुनिः ।। १ टिप्पणी-सुकृतं-अन्नादि, सुरक्वं-घृतपूर्णादि, सुच्छिन्न-पत्र
सुहृतं-शाकादेस्तिक्ततादि, सुमृतं घृतादि सक्तुसूपादौ, सुनिष्ठितं रस ५ निष्ठांगतम्, सुलष्टं शोभनं शाल्यादि-अखण्डोज्ज्वलादि प्रकारैरेवमन्यदपि से वर्जयेन्मुनिः । (उत्तराध्ययन ११३६ सर्वार्थसिद्धिटीका) यद्वा सुष्ठकृतं यदनेनारात. प्रतिकृतम् । सुपक्वं पूर्ववत् । सुच्छिन्नोऽयं न्यग्रोधद्र मादिः, सुहृतं-कन्दर्पस्य धनं चौरादिभिः, सुमृतोऽयं प्रत्यनीकधिग्वर्णादिः, सुनिष्ठितोऽयं प्रासादादिः सुलष्टोऽयं करितुरगादिरिति सामान्येनैव सावद्य वचो वर्जयेत्मुनिः। निरवद्यतु सुकृतमनेन धर्मध्यानादि, सुपक्वमस्य वचनविज्ञानादि, सच्छिन्न स्नेहनिगडादि, सुहृतोऽयमुत्पाबाजयितु कामेभ्यो निजकेभ्यः शैक्षिकः समृतमस्य पण्डितमरणेन, सुनिष्ठितोऽयं साध्वाचारे, सुलष्ठोऽयं दारको व्रतग्रहणस्येत्यादिरूपम् ।
-उत्तराध्ययन, नेमिचनवृत्ति ११३६
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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
( ३८-३९)
दोहा तथा नदी जलसों मरी, तरी तरी सों चाहि । करन-तरन, जिय-पियन के जोग कहे यों नांहि ॥ बहुत भरी गहरी नदी, विथरी जल विस्तार । अपर नदी लोपी खरी बुध उचरे सुविचार ||
१६३
अर्थ - तथा नदियां भरी हुई हैं, शरीर के द्वारा पार करने के योग्य हैं, नौका के द्वारा पार करने योग्य हैं और तट पर बैठे हुए प्राणी उनका जल पी सकते हैं, इस प्रकार न कहे । यदि प्रयोजन के वश कहना ही पड़े तो बुद्धिमान् साधु इस प्रकार कहे कि ये नदियां बहुत भरी हुई हैं, अगाध हैं, बहुसलिला हैं, दूसरी नदियों के द्वारा जल का वेग बढ़ रहा है और बहुत विस्तीर्ण जलवाली हैं ।
(४० – ४१ )
दोहा - कियो गयो, जावत कियो, कियो जायगो जाहि । जोग स पाप, परार्थ सो, लखि भाखं मुनि नाँहि ।। भलो कियो, पचियो मलो, छेद्यो भलो जु याहि । भलो हरयो, यह मल मरयो, यों उचरं मुनि नांहि ॥ भल विनास याको भयो, भली विवाह एह । ऐसे बोल सबोस जे, मुनिवर वरजं तेइ ॥
अर्थ - इस प्रकार दूसरे के लिए भूतकाल में किये गये, वर्तमान काल में किये जा रहे और भविष्य काल में किये जानेवाले सावद्ययोग (पापयुक्त) व्यापार को जानकर मुनि सावद्य वचन न बोले कि यह प्रीतिभोज आदि कार्य अच्छा किया, अथवा यह सभा भवन आदि अच्छा बनवाया, यह भोजन या तेल आदि अच्छा पकाया, यह भयकर वन काट दिया सो अच्छा किया, इस कंजूस का धन चोर चुरा ले गये सो अच्छा हुआ, वह दुष्ट मर गया सो अच्छा हुआ, इस धनाभिमानी का धन नष्ट हो गया सो उत्तम हुआ, यह कन्या जवान है, अतः विवाह करने के योग्य है, इस प्रकार के सावध वचन साघु न बोले । किन्तु इस प्रकार के निरवद्य वचन बोले कि इसने बुद्ध मुनियों की अच्छी सेवाशुश्रूषा की, इस मुनि ने ब्रह्मचर्य का अच्छा पालन किया, अमुक मुनि ने सांसारिक स्नेह बन्धनों को अच्छी तरह काट दिया है, यह मुनि उपसर्ग के समय भी ध्यान में खूब दृढ़ रहा, अथवा इस तत्त्वज्ञ मुनि ने उपदेश द्वारा शिष्य का अज्ञान दूर कर दिया, अमुक मुनि को अच्छा पंडितमरण प्राप्त हुआ कि इस अप्रमादी मुनि के सर्व कर्मों का नाश हो गया, अमुक मुनि की क्रिया बहुत सुन्दर है, इस प्रकार की निर्दोष भाषा को मुनि बोले ।
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१६४
दशवकालिकसूत्र
मूल-- पयत्तपक्के ति व पक्कमालवे
पयत्त छिन्न ति व छिन्नमालवे । पयत्तलठ्ठत्ति कम्महेउअं
पहार गाढ ति व गाढमालवे ।। संस्कृत- प्रयत्नपक्वमिति वा पक्वमालपेत्
प्रयत्लछिन्नमिति वाछिन्नमालपेत् । प्रयत्नलष्टमिति वा कर्महेतुकं
गाढप्रहारमिति वा गाढमालपेत् ।।
मूल- सव्वुक्कसं परग्यं
अवक्कियमवत्तव्वं संस्कृत- सर्वोत्कर्ष परार्घ
अविक्र यमवक्तव्यं
वा अउलं नत्थि एरिसं ।
अचियत्तं चेय नो वए । वा अतुलं नास्ति ईदृशम् ।
'अचियत्त' चैव नो वदेत् ॥
मूल- सव्वमेयं वइस्सामि सब्वमेयं ति नो बए ।
अणुवीइ सव्वं सम्वत्य एवं भासेज्ज पनवं ॥ संस्कृत- सर्वमेतद् वदिष्यामि सर्वमेतदिति नो वदेत् ।
अनुविविच्य सर्वं सर्वत्र एवं भाषेत प्रज्ञावान् ।
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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
१६५ कुछ आचार्य इन सुकृत आदि पदों का इस प्रकार से अर्थ करते हैं—सुकृतभोजन आदि बहुत अच्छा बनाया है, सुपक्व-बहुत अच्छा पकाया है, सुच्छिन्न-घेवर आदि बहुत अच्छा छेदा है, सुहृत-पत्र-शाक आदि की तिक्तता को बहुत अच्छा हरण किया है, मृत-दाल या सत्त आदि में घी आदि बहुत अच्छा भरा है - समाया है, सुनिष्ठित-बहुत अच्छा रस निष्पन्न हुआ है, सुलष्ट-चावल आदि बहुत इष्ट है, इस प्रकार के सावध वचन मुनि नहीं बोले ।
(४२) छन्द- यह प्रयत्न सों गयो पकायो, ऐसो कहे पके के हेत,
यह प्रयत्न करि छेवन कोनो, ऐसो छेवे को कह देत । पालनीय कन्या प्रयत्न सों कहै जु दीक्षित होय उदार,
नहिं तो कहै कर्म को कारन, गाढ प्रहार हि गाढ प्रहार॥
अर्ष-यदि कदाचित् इनके विषय में बोलना पड़े तो सुपक्व को प्रयत्न-पक्व कहे, छिन्न वनादि के विषय में प्रयत्न-छिन्न कहे, कन्या के विषय में यह कन्या प्रयत्न से सावधानीपूर्वक पालन-पोषण की गई है, अथवा यदि कन्या दीक्षा ले ले -तो संयम को उत्तम रीति से पाल सकती है, कर्महेतुक शृगारादि-क्रियाओं को कर्मबन्ध का कारण कहे, तथा गाढ़ प्रहार को यह घाव बहुत गहरा है, इस प्रकार से कहे।
(४३) सबसे उत्तम यही वस्तु है, अथवा बड़े मोल को आहि, अथवा अतुलनीय है यह तो, या सम कहूँ दूसरी नांहि । नहीं बंचवे जोग महै यह, अथवा अकथनीय यह आहि,
प्रीति तथा अप्रीति कारिनी है यह ऐसो कहिये नाहि ।
अर्थ-यह वस्तु सर्वोत्कृष्ट है, यह बहुमूल्य है, यह अतुलनीय है, यह अभी बेचने योग्य नहीं है. इसका गुण अवर्णनीय है, यह अचिल्य है, इस प्रकार गृहस्थ से बात नहीं करे।
(४४) दोहा- हूँ, यह सब कहि देउंगो, तुम कहियो यह सारि ।
यों न कहै सब ठोर बुध, कहै सब सु विचार ॥
अर्ष-(यदि कोई सन्देश कहलाए तब) मैं यह सब कह दूंगा, (किसी को सन्देश देता हुआ) यह पूर्ण है-ज्यों का त्यों है-इस प्रकार न कहे । सब स्थानों में (सब प्रश्नों में) पूर्वोक्त सब वचन-विधियों का अनुचिन्तन कर प्रज्ञावान् मुनि उस प्रकार से बोले-जिस प्रकार से कि कर्मबन्ध न हो ।
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१६६
मूल
संस्कृत - सुक्रीतं वा सुविक्रीतं इदं गृहाण इदं मुञ्च
मूल
(४५)
सुक्कीयं वा सुविक्कीयं अकेज्जं केज्जमेव वा । पणियं नो वियागरे ॥
इमं गेव्ह इमं मुच
मूल -
दशर्वकालिकसूत्र
(४६)
अप्पग्धे वा महग्घे वा कए वा विक्कए वि वा । पणिय समुत्पन्न अणवज्जं
वियागरे ॥
संस्कृत — अल्पार्धे वा महार्घे वा क्रये वा विक्रयेऽपि वा । समुत्पन्ने अनवद्यं व्यागृणीयात् ॥
पण्यार्थे
मूल- तहेवासंजयं
अक्रेयं क्रेयमेव वा । पण्यं नो व्यागुणीयात् ॥
(४७)
धीरो आस एहि करेहि वा । सय चिट्ठ वयाहि त्ति नेवं भासेज्ज पन्नवं ॥
संस्कृत - तथैवासंयतं
धीरः आस्व एहि कुरु वा । शेष्य तिष्ठ व्रज इति नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥
( ४८ - ४९ )
असाहू लोए वुच्चंति साहूणो ।
साहुत्ति साहं साहु त्ति आलवे ॥
संजमे य तवे रयं ।
संजयं
सामावे ॥
बहवे इमे
न लवे असाहूं नाण- दंसणसंपण्ण
एवं गुण समाउत
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१.६७
सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
(४५) रोला- भलो मोल यह लयो, भलो तुम बेचि दियो वह,
नहीं विसाहन-जोग, विसाहन जोग अहै यह। पहन करो यह माल, बेच याको तुम डारो,
ऐसे बचन अजोग, मुने ! तुम नाहि उचारो॥
अर्ष-सुक्रीत-तुमने यह माल खरीद लिया सो अच्छा किया, सुविक्रीततुमने अमुक माल बेच दिया सो ठीक किया, यह वस्तु अकेय-- खरीदने के योग्य नहीं है, अथवा यह केय-खरीदने के योग्य है, यह वस्तु इस समय खरीद लो, क्योंकि इसमें आगे चलकर लाभ होगा, इस समय यह वस्तु बेच डालो, क्योंकि आगे जाकर इसमें नुकसान होगा, इस प्रकार साधु न बोले ।
(४६) बोहा-अलप तथा बहुमोल के, क्रय-विक्रय कों लीन ।
पणित-हेतु-उतपत्ति भये, कहिये दोस-विहीन ॥ अर्थ-अल्पमूल्य या बहुमूल्य माल के लेने या बेचने के प्रसंग में मुनि अनवद्य (निर्दोष) वचन बोले । (क्रय-विक्रय से विरत मुनियों का इस विषय में कई अधिकार नहीं है, इस प्रकार कहे।)
(४७) बोहा-आव, जाव, अथवा ठहर, बैठ मोउ कर एह ।
यो न असंजति सों कहै, धोरवंत मति-गेह ॥ अर्थ- इसी प्रकार धीर और प्रज्ञावान् मुनि असंयत गृहस्थ से बैठ जा, आ जा, अमुक कार्य कर, सो जा, ठहर जा, खड़ा हो जा, चला जा, इस प्रकार न कहे।
(४८-४६) बोहा- ये असाधु बहु जगत में, कहे जात हैं साष ।
कहै न साधु असाष कों, कहै साधुकों साधु । मान-सहित दर्शन-सहित, संजम - तप - अनुरक्त । 'साधु' कहै वा संजतिहिं, जो इन गुन से युक्त ।
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दशवकालिकसूत्र संस्कृत- बहव इमे असाधवः लोके उच्यन्ते साधवः ।
न लपेदसाधु साघुरिति साधु साधुरित्यालपेत् ।। ज्ञान • दर्शनसम्पन्नं संयमे च तपसि रतम् । एवं गुणसमायुक्तं संयतं साधुमालपेत् ॥
मूल- देवाणं मणुयाणं च तिरियाणं च बुग्गहे ।
अमुयाणं जओ होउ मा वा होउ त्ति नो वए । संस्कृत- देवानां मनुजानांच तिरश्चां च व्यग्रहे । अमुकानां जयो भवतु मा वा भवतु इति नो वदेत्।।
(५१) मूल- वाओ वुळं वा सोउण्हं खेमं धायं सिवं ति वा ।
कयाणु होज्ज एवाणि मा वा होउ त्ति नो वए । संस्कृत-- वातो वृष्टं वा शीतोष्णं क्षेमं 'धाय' शिवमिति वा । कदा नु भवेयुरेतानि मा वा भवेयुरिति नो वदेत्।।
(५२) तहेव मेहंव नहं व माणवं
न देव देवे ति गिरं वएज्जा । सम्मुच्छिए उन्नए वा पओए
वएज्ज वा बुट्ठ बलाहएत्ति ॥ सस्कृत- तथैव मेघं वा नभो वा मानवं न देव देव इति गिरं वदेत् । सम्मूछितः उन्नतो वा पयोदो वदेद्वा वृष्टो बलाहकः ।।
(५३) मूल- तलिक्खे ति गं बूया गुज्माणुचरिय ति य ।
रिद्धिमंतं नरं विस्स रिखिमंत ति मालवे ।। संस्कृत- अन्तरिक्षमिति तद् ब्र याद् गुह्यानुचरितमित च ।
ऋद्धिमंत नरं दृष्ट्वा ऋद्धिमान् इति आलपेत् ॥
मूल
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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
मर्ष-ये बहुत सारे असाधु लोक (जन-साधारण) में साघु कहलाते हैं । किन्तु प्रज्ञावान् मुनि असाधु को साधु न कहे, किन्तु जो साधु हो उसे ही साधु कहे । जो ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न हो, संयम और तप में निरत हो, ऐसे गुणों से संयुक्त संयमी को ही साधु कहे।
(५०) दोहा-सुरनि नरनि तिरजंच में, रन होवत जो आहि ।
अमुकनि की जय हो न हो, ऐसे उचरं नाहि ॥ अर्थ-देव, मनुष्य और तिर्यंचों (पशु-पक्षियों) का आपस में विग्रह (युद्ध या कलह) होने पर अमुक की विजय हो और अमुक की विजय न हो, इस प्रकार साधु न कहे।
(५१) दोहा—वात वृष्टि हिम घाम अरु, खेम सुकाल कल्यान ।
कब हुई हैं, वा होउ मति, ऐसी कहै न वान ॥ अर्थ--वायु, वर्षा, सर्दी, गर्मी, क्षेम, सुभिक्ष और शिव (कल्याण) ये कब होंगे, अथवा ये न हों तो अच्छा हो, इस प्रकार साधु नहीं बोले ।
(५२) दोहा-मेघ मनुज नमकों तथा, देव 'देव' उचर न ।
चढ्यौ बढ्यो घन वरसिवे, कहै बलाहक वैन । अर्थ इसी प्रकार मेघ, नभ (आकाश) और मनुष्य के लिए ये देव हैं' ऐसी वाणी न बोले । किन्तु मेघ सम्मूच्छित हो रहा है (ऊपर चढ़ रहा है), उमड़ रहा है, अथवा झुक रहा है या बलाहक (मेघ) बग्म गया है, इस प्रकार बोले ।
(५३) दोहा - अंतरिक्ष नभ सो कहै, सुरगन-सेवित एह ।
रितिवंत नर हेरि के, रिविवंत कहि देह ॥ अर्थ - नभ और मेघ को अन्तरिक्ष अथवा गुह्यानुचरित (देव-सेवित) कहे । ऋद्धिमान् मनुष्य को देखकर 'यह ऋद्धिमान् पुरुष है' ऐसा कहे ।
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१७०
दशवकालिकसूत्र (५४) तहेब सावज्जणुमोइणी गिरा
ओहारिणी जा य परोवधायिणी । से कोह लोह भयसा व माणवो
न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ॥ तथैव सावद्यानुमोदिनी गीः
अवधारिणी या च परोपघातिनी । सक्रोध-लोभ भयेन वा मानवो
न हसन्नपि गिरं वदेत, ॥
संस्कृत
मूल
सवक्कसुद्धि समुपेहिया मुगि
गिरं च दुळं परिवज्जए सया । मियं अदुळं अणुवीइ भासए
सयाण मज्झे लहई पसंसणं । सवाक्यशुद्धि समुत्प्रेक्ष्य मुनि
गिरं च दुष्टां परिवर्जयेत्सदा । मितामदुष्टां अनुविविच्य भाषकः
सतां मध्ये लभते प्रशंसनम् ।
संस्कृत
मूल
भासाए दोसे य गुणे य जाणिया
तोसे य दुठे परिवज्जए सया । छसु संजए सामणिए सया जए
वएज्ज बुद्धे हियमाणुलोमियं ॥ भाषायाः दोषांश्च गुणांश्च ज्ञात्वा
तस्याश्च दुष्टायाः परिवर्जकः सदा । षट्सु संयतः श्रामण्ये सदा यतः
वदेद् बुद्धो हितमानुलोमिकीम् ॥
संस्कृत
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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
१७१ (५४) सवैया- पानि जु निश्चय संसय कारनि, पापनि को अनुमोदन-हारी,
जामें बस पर-हानि सवा, वह प्राणनि-घात-करावन-हारी। कोपत लोभते वा मयतें अरु, हासतें हास-विनोद विचारी, सो कबहुँ न कहै मुखते मुनि, जो निज-आतम को उपकारी॥
अर्थ - इसी प्रकार सावद्य का अनुमोदन करनेवाली, निश्चयकारी, संशय करने वाली और जीवघात करनेवाली भाषा को मुनि नबोले । तथा क्रोध से, भय से, लाभ से और हास्य से भी दूसरों की हंसी करता ह न बोले ।
(५५) छंद- भली भांति सवचन शुद्धिको आलोचन करके मुनि धीर,
बरज सदा दुष्ट वाणी को जातें होय औरकों पीर । हिये विचारि वचन मिल बोले जामें दूषण कछू न होय, गुणी साधु सज्जन लोगनि में सदा प्रशंसा पावै सोय ॥
अर्थ- वह मुनि वाक्यशुद्धि को भली भांति से समझकर सदोष वाणी का सदा परिहार करे । किन्तु हित, मित और प्रिय वाणी सोच-विचार कर बोले । ऐसा बोलने नाला साधु सज्जनों के मध्य में सदा प्रशंसा पाता है।
(५६) वानी के गुन दोस जानि के सवा दुष्ट वच वरजन हार, षट विधि जीव-विघातक-वर्जक जतनसील जो है अनगार । श्रमण भाव राखन में उद्यत, रहत सदा ज्ञानी सविचार,
बोल वचन सकल-हितकारी, जामें दूसन नाहि लगार ॥
अर्थ - भाषा के दोषों और गुणों को जानकर दोष-पूर्ण भाषा को सदा बोलना छोड़े और छह काय के जीवों के प्रति संयम रखने वाला, श्रामण्य में सदा सावधान रहनेवाला प्रबुद्ध संयत हितकारी और प्राणियों के अनुकूल भाषा बोले ।
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१७२
मूल
संस्कृत
(५७)
परिवभासी
सुसमाहिईदिए अणिस्सिए ।
चक्कायाव गए
स गिद्धणे धुम्नमलं पुरेकडं आराहए लोगमिणं तहा परं ॥
परीक्ष्य भाषी सुसमाहितेन्द्रियोऽ पगतकषायचतुष्कोऽनिश्रितः ।
स निर्द्धय धन्नमलं पुराकृत आराघयेल्लोकमिमं तथा परम् ॥
| सत्तम वक्कसुद्धि अज्झयणं सम्मत ।
दशर्वकालिकसून
-त्ति बेमि
- इति ब्रवीमि
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सप्तम वाक्य शुद्धि अध्ययन
(५७)
१७३
कविस
कीनी बस जोई है,
करि के परख पूरी बोलत विमल जैन इन्द्रिय-समूह जीति कोह मान माया लोह चारिउँ कसाय टारी जाके प्रतिबन्ध कोऊ रह्यो नहीं कोई है। पूरव के कीने कर्म-मल को चुनन कर आतम सों दूरि करि देत साधु सोई है, यहां जस पावे, उत उत्तम गतीकों जायें, इह परलोक सो अराध लेत बोई है।
अर्थ — गुण-दोष की परख कर बोलने वाला, इन्द्रियों को जीतनेवाला, चारों कषायों से रहित, अनिश्रित ( सांसारिक प्रपंचों से मुक्त, मध्यस्थ ) साघु पूर्वकृत पापमल को नष्ट कर इस लोक तथा परलोक दोनों की सम्यक प्रकार आराधना करता है, अर्थात् कर्मक्षय कर सिद्धलोक को प्राप्त करता है ।
ऐसा मैं कहता हूं।
| सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन समाप्त |
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मूल.
संस्कृत - आचार - प्रणिधि
तं
मूल
-
अट्ठमं आयारपणिही अज्कयणं
(१)
आयारपहि लद्ध जहा कायव्य भिक्खुणा । तं भे उदाहरिस्सामि आणुपुव्विं सुणेह मे ॥ लब्ध्वा यथा कर्तव्यं भिक्षुणा । शृणुत मे ॥
आनुपूर्व्या
मूल -
भवद्भ्यः उदाहरिष्यामि
संस्कृत - पृथिवीदकाग्निमारुताः
मूल
पुढवि दग अर्गाणि मारु य तसा य पाणा जीव त्ति
(२)
संस्कृत - तेषामक्षणयोगेन
तणरुक्ख
इइ वृत्तं
तृणवृक्षाः
त्रसाश्च प्राणाः जीवा इति इत्युक्तं
(३) तेसि अच्छणजोएण निच्चं होयब्वयं सिया । कायवक्केण एव भवइ संजए ॥
मणसा
सबीयगा ।
महेसिणा ॥
नित्यं भवितव्यं
मनसा काय वाक्येन एवं भवति
(४ - ५ )
सबीजकाः ।
महर्षिणा ॥
१७४
स्यात् । संयतः ॥
मेव भिदे
न संलिहे ।
पुढव मिति सिलं लेलु तिविहेण करण जोएण संजए सुसमाहिए ॥ सुद्धपुढबीए न निसिए ससरक्खम्मि य आसणे । पर्माज्जन्तु निसीएज्जा जाइत्ता जस्स ओग्गहं ॥
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अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन
बसन्ततिलका
माचार नामक निधान महान नीको, सो पाय के उचित जो फरनो मुनी को। · सो आपसों क्रम-समेत हि भाखि हों सों, ह सावधान सुनिये वह आप मोसों ॥
___ अर्ष-आचार-प्रणिधि अथवा सदाचार के भंडार स्वरूप साधुत्व को पाकर के भिक्षु को जिस प्रकार से जो कार्य करना चाहिए, यह मैं आपको कहूंगा सो क्रमपूर्वक मुझ से सुनो।
(२)
बोहा पुहवि पानि पावन पवन, तन तरु बीजहु जेह ।
बस ये प्रानी जीव है, कह्यौ महारिषि पेह ।। अर्थ-पृथिवी, उदक (जल), अग्नि, वायु, तृण-वृक्ष और बीजरूप वनस्पतिकाय तथा त्रस प्राणी, ये सब जीव हैं, इस प्रकार महर्षि महावीर ने कहा है।
दोहा ---तिनके संग रखनी सदा, हिंसा-हीन सुनोति ।
मनसों वचसों कायसों, होत साधु यह रीति ।। अर्थ-भिक्ष, को मन, वचन और काय से उक्त पट्काय जीवों के प्रति अहिसक होना चाहिए । इस प्रकार अहिंसक वृत्ति साधु ही संयत या संयमी होता है।
(४-५) दोहा- भूमि भीति सिल ईट खंड, भेदै घस न कोय ।
संजति त्रिकरण - जोगसों, जो समाधि-युत होय ॥ चौपाई- सचित घरनि पर बैठिय नाही, त्यों आसन रज लागी जाही । अधिकारी को आयसु लेकर, पूजन करि बैठे ता ऊपर ।।
१७५
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१७६
संस्कृत -- पृथिवीं भित्ति शिलां लेष्टुं नैव भिन्द्यान्न संलिखेत् । त्रिविधेन करण-योगेन संयतः सुसमाहितः ॥ शुद्धपृथिव्यां न निषीदेत् ससरक्षे च आसने । निषीदेत याचित्वा यस्यावग्रहम् ॥
प्रमृज्य
मूल -
मूल -
संस्कृत - शीतोदकं
उष्णोदकं
सेवेत शिलावृष्टं हिमानि च । तप्तप्रासुकं प्रतिगृह्णीयात् संयतः ॥ उदकाद्र मात्मनः कायं नैव प्रोञ्छेत् न संलिखेत् । समुत्प्रेक्ष्य तथाभूत ं नैनं संघट्टयेन्मुनिः ॥
(5)
इंगालं अर्गाणि अच्च अलायं वा सजोइयं । न उंजेज्जा न घटेज्जा नो णं निव्वावए मुणो ॥ अलातं वा सज्योतिः । निर्वापयेन्मुनिः ।।
घट्टयेत् नैनं
(e)
पत्तेण साहावियणेण या । बाहिरं वा वि पोग्गलं ॥
दशवैकालिकसूत्र
( ६–७) सीओदगं न सेवेज्जा सिलावुट्ठ हिमाणि य । उसिणोदगं तत्तफासं पडिगाहेज्ज संजए ॥ उदउल्लं अप्पणी कायं समुप्पेह
मूल
न
संस्कृत — अङ्गारमग्निमर्चिः नोत्सिञ्चन्न
मूल
नेव पुंछे न संलिहे । तहाभूयं नो णं संघट्टए मुणी ॥
तालियंटेण
न वीएज्ज अप्पणो कार्य संस्कृत— तालवृन्तेन पत्रण शाखा-विधुवनेन
वा ।
न व्यजेदात्मनः कार्यं बाह्य वापि पुद्गलम् ॥ (१०) तणरुक्खं न छिदेज्जा फलं मूलं व कस्सई । आयगं विविहं बीयं मणसा वि न पत्थए । संस्कृत - तृणवृक्षं न छिन्द्यात् फलं मूलं च कस्यचित् । आमकं विविधं बीजं मनसापि न प्रार्थयेत ॥
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अष्टम आचार - प्रणिधि अध्ययन
१७७
अर्थ - संयम की आराधना में समाधिवन्त साघु सचित्त पृथ्वी को, भीत को, शिला को, मिट्टी के ढेले को तीन करण और तीन योग से न तो उन्हें भेदे ( टुकड़ा करे और न घिसे । अर्थात् उन पर लकीर आदि न करे । वह शुद्ध ( शस्त्र से अपरिणत) पृथ्वी पर और सचित्त रज से संसृष्ट (भरे हुए) आसन पर न बैठे । अचित पृथ्वी का प्रमार्जन कर और उसके स्वामी से आज्ञा लेकर बैठे ।
( ६--७)
चौपाई - संजति सीतल जल नह सेवे, हिम हिम-उपलनि कों नहि लेवे । तपि के अचित भयो जो होई, ऊन्हो उबक गहीजे सोई ॥ सचित-सलिल-भीगी निज काया, तो न मले पूंछं मुनिराया । वैसी भांति देखि काया को, किंचित परसह करं न ताको ॥ अर्थ-संयमी साधु शीतल जल, ओले, बरसात का जल और हिम (बर्फ)
का सेवन न करे ! तप कर जो प्रासुक हो गया है वैसा जल ग्रहण करे । जल से भीगे अपने शरीर को न पोंछे और न मले । शरीर को भीगा हुआ देखकर उसका स्पर्श न करे ।
(5)
चौपाई - अर्गानि लोह-गत वा अंगारो, ज्वाल जोति-जुत काठ विचारो । नाह धोंके, न कर संघरसन, नहि मुनि वाको करे निवारन ||
अर्थ – मुनि अंगार, अग्नि, अच और ज्योति - सहित अलात (जलती लकड़ी) न प्रदीप्त करे, न स्पर्श करे और न बुझाये ।
(2)
पत्रतें, वा तथा वीजं
दोहा
-ताल- व्यजनतें
बाहिज पुदगल कों
मुनि तालवृन्त के पंखे से, बीजने से, पत्र या शाखा से अपने शरीर को हवा न करे । इसी प्रकार बाहिरी पुद्गल (गर्म दूध आदि) को ठंडा करने के लिए भी हवा न करे ।
तरु-डाल हिलाय ।
नहि निज काय ॥
(१०)
बोहा- - तर तृन को फल मूल कों, बहुविधि बीज सजीव को,
छेवन करें न कोय । चित हुन चाहे सोय ||
अर्थ – साधु तृण (घास ) वृक्षादि को तथा किसी वृक्षादि के फल और मूल
को तथा नाना प्रकार के सचित्त बीजों की मन से भी इच्छा न करे ।
१२
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१७८
दशवकालिकसूत्र
(११) गहणेसु न चिट्ठज्जा बीएसु हरिएसु वा ।
उदगम्मि तहा निच्चं उत्तिगपणगेसु वा॥ संस्कृत- गहनेषु न तिष्ठेद् बीजेषु हरितेषु वा ।
उदके तथा नित्यं उत्तिंगपनकेषु वा ।।
मूल- तसे पाणे न हिंसेज्जा वाया अदुव कम्मुणा ।
. उवरओ सव्वभूएसु पासज्ज विविहं जगं॥ संस्कृत- सान् प्राणान् न हिंस्यात् वाचा अथवा कर्मणा ।
उपरतः सर्वभूतेषु पश्येद् विविधं जगत् ।।
मूल- अट्ठ सुहुमाई पहाए जाइ जाणित्त, संजए ।
बयाहिगारी भूएसु आस चिट्ठ सएहि वा॥ संस्कृत- अष्टो सूक्ष्माणि प्रेक्ष्य यानि ज्ञात्वा संयतः । दयाधिकारी भूतेषु आस्व उत्तिष्ठ शेष्व वा ।।
(१४-१५) कयराई अट्ठ सुहुमाइं जाई पुच्छेज्ज संजए । इमाइ ताई मेहावी आइक्खेज्ज वियक्खणो॥ सिणेहं पुप्फ सुहम च पाणुत्तिगं तहेव य ।
पणगं बीयं हरियं च अंडसुहुमं च अमं ॥ संस्कृत- कतराणि अष्टौ सूक्ष्माणि यानि पृच्छेत्संयतः ।
इमानि तानि मेधावी आचक्षीत विचक्षणः ।। स्नेहं पुष्प-सूक्ष्मं च प्राणोत्तिंग तथैव च । पनकं बीज-हरितं च अण्डसूक्ष्मं चाष्टमम् ।।
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अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन
१७६
दोहा- बैठे नहिं वन गहन विच बीज हरित पं जाय ।
उबग उत्तिग हु पनक पै नहिं कदापि ठहराय ॥ अर्ष-मुनि गहन वनों में, वन निकुजों में, बीजों पर, हरियाली पर, जलव्याप्त भूमि पर, उत्तिग (सर्प के छत्राकार वाली वनस्पति) पर, पनक (अनन्तकायिक काई, लीलन-फूलन) पर खड़ा न हो, न बैठे और न सोवे ।
(१२) बोहा- जंगम जीव हनै नहीं, वचन करम करि कोय ।
सब जीवन में वंड विनु, लखे विविध जग सोय ॥ - अर्ष-मुनि वचन और काय से त्रस प्राणियों की हिंसा न करे । सब जीवों के घात से दूर रहकर जगत के सर्व प्राणियों को अपने समान देखे ।
F
बोहा- जिनहिं जानि 'संजति' बने, जीवदया अधिकारि ।
बैठे ठहरे सोवही, सूक्षम आठ निहारि ॥ अर्ष-संयमी मुनि आठ प्रकार के सूक्ष्म शरीर वाले जीवों को देखकर अर्थात् उनका बचाव कर बैठे, खड़ा हो और सोवे। इन आठ प्रकार के सूक्ष्म शरीर वाले जीवों को जानने पर ही कोई मनुष्य सब जीवों की दया का अधिकारी होता है।
(१४-१५) आठ सूक्ष्म वे कौन है, पूछत संजति जेह ।
कहत विचच्छन तिनहिं को, हे मतिधर वे येई॥ कवित्तमोस हिम धंध आदि, जल स्नेह सूक्षम हैं, बड़ उम्बरादि ते हैं सूक्ष्म सुमननि में। कुंयुमा प्रमुख छोटे जतु प्रानि सूक्षम हैं, कोड़ी नगरादि हैं उत्तिग सूक्ष्म गन में। लोलन फूलन सोई पनक सूक्षम जानो, तुष मुष आदि बीज सूक्ष्म गिनो मन में। भूमि-रंगवारी हरियारी, सो हरित सूक्ष्म, माखी कीट मावि अडे अंड-सूक्षमन में।
अर्ष-१ स्नेह पुष्प . ओस, बर्फ, कुहरा, ओला और भूमि से निकलने वाली जलबिन्दु, २ पुष्प सूक्ष्म-बड़, ऊंवर, पीपल आदि के फूल और इन जैसे ही अन्य दुर्लक्ष्य जीव वाले फूल फल; ३ प्राण सूक्ष्म-अनुन्धरी, कुन्थु आदि प्राणी जो चलने पर ज्ञात हों, स्थिर रहने पर दुज्ञेय हों; ४ उतिग सूक्ष्म-कीड़ी नगरादि, चीटियों
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१८.
दशवकालिकसूत्र
मूल- एवमेयाणि जाणिता सव्वभावेण संजए।
अप्पमत्तो जए निच्चं सम्बिंदिय समाहिए। संस्कृत- एवमेतानि ज्ञात्वा सर्वभावेन संयतः ।
अप्रमत्तो यतेत् नित्यं सर्वेन्द्रियसमाहितः ।।
(१७) मूल- धुवं च पडिलेहेज्जा जोगसा पायकंबलं ।
सेज्जमुच्चारभूमि च संथारं अदुवासणं ॥ संस्कृत- ध्रवं च प्रतिलेखयेत् योगेन पात्र-कम्बलम् ।
शय्यामुच्चारभूमि च संस्तारमथवासनम् ।।
मूल- उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाण जल्लियं ।
फासुयं परिलहिता परिठ्ठावेज्ज संजए॥ संस्कृत- उच्चारं प्रस्रवणं वेलं शृंघाण - जल्लिकम् । प्रासुकं प्रतिलेख्य परिष्ठापयेत् संयतः ।।
(१९) मूल- पविसित्तु परागारं पाणट्ठा भोयणस्स वा।
जयं चिढ़े मियं भासे ग य स्वेसु मणं करे॥ संस्कृत- प्रविश्य परागारं पानार्थं भोजनाय वा।
यतं तिष्ठेन्मितं भाषेद् न च रूपेषु मनः कुर्यात् ।।
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अष्टम आचार - प्रणिधि अध्ययन
१८१
के बिल आदि; ५ पनक सूक्ष्म - अनेक वर्ण की काई, लीलन-फूलन आदि; ६ बीज सूक्ष्म- तुषमुख, सरसों आदि के अग्रभाग पर होने वाले सूक्ष्म जीव; ७ हरित सूक्ष्मभूमि से तत्काल निकलने वाला दुर्ज्ञेय अंकुर और ८ अंड सूक्ष्म - मधु मक्खी, कीड़ी, मकड़ी आदि के अंडे, ये आठ प्रकार के सूक्ष्मशरीर जीव हैं ।
बोहा
अर्थ - सब इन्द्रियों से सावधान साधु इस प्रकार इन सूक्ष्म जीवों को सब प्रकार से जानकर अप्रमत्त भाव से उनकी यतना करे ।
चौपाई
(१६)
या विधि इनको जानि के, संजति सर्वाह प्रकार । इंद्रिय-जयी, करं जतन सब वार ।
सावधान
दोहा -
अर्थ - मुनि प्रतिदिन निश्चित रूप से यथासमय पात्र, कम्बल, शय्या, उच्चारभूमि ( मल-मूत्र उत्सर्ग का स्थान ) संस्तारक (विस्तर) और आसन का प्रतिलेखन करे ।
(१७)
वसन सयन भाजन अरु आसन, अरु उच्चार भूमि संचारन । योग-सहित प्रतिलेखन कीजे, नित निश्चित, बाधा नह दीजे ।
बोहा
(१८)
अचित अवनि प्रतिलेख मुनि, कफ मल मूत पसेव । नासा - मल आदिक तहां, परठि जतन-जुत देय ॥
अर्थ-संयमी मुनि जीव-रहित प्रासुक भूमि का प्रतिलेखन कर वहां उच्चार :ल), प्रस्रवण (मूत्र), श्लेष्म (कफ), शृंघाण ( नासिका - मल ) एवं जल्ल ( शरीर के अन्य मल) का उत्सर्ग करे ।
(१९)
करि प्रवेस पर भवन में, जल-भोजन को लंन । जतनहि ठहरे, मित कहै, रूप देखि चित्त दं न ॥
अर्थ – मुनि जल या भोजन के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करके उचित स्थान में खड़ा रहे, परिमित बोले और वहां स्त्री आदि के रूप को देखकर उनमें मन को चंचल न करे ।
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१८२
मूल -
--
संस्कृत- बहु
बहु सुणेह
न य बिट्ठे सुयं सव्वं
शृणोति
न च दृष्टं श्रुतं
मूल- सुयं वा जइ वा
मूल
मूल- निट्ठाणं पुट्ठो वा वि
संस्कृत - निष्ठानं
पृष्ठो
(२०) कर्णोहि बहु अच्छोहि पेच्छइ । भिक्खू अक्खाउमरिहइ ॥
बह्वक्षीभिः प्रेक्षते । भिक्षुराख्यातुमर्हति ॥
न य केणइ उवाएणं
कर्णेः
सर्वं
संस्कृत - श्रुतं वा यदि वा दृष्टं न लपेदोपघातिकम् । केनचिदुपायेन गृहियोगं समाचरेत् ॥
न च
दशनै कालिक
(२१)
बिट्ठ न लवेज्जोवधाइयं ।
गिहिजोगं समायरे ॥
संस्कृत - न च भोजने
अप्राकं न
निर्यू ढरसं वाप्यपृष्ठो वा
(२२) रसनिज्जूढं भद्दगं पावगं ति वा । अपुट्ठो वा लाभालाभं न निद्दिसे ॥
भद्रकं पापकमिति वा ।
लाभालाभं न निर्दिशेत् ।।
(२३)
न य भोयणम्मि गिद्धो चरे उछं अयंपिरो ।
अफासूयं न भुजेज्जा
कीय मुद्देसियाह ॥
दुगुच्छमजल्पिता ।
गृद्धश्चरे भुञ्जीत क्रीतमौद्द शिकाहृतम् ॥
(२४)
मूल - सन्निहि च न कुव्वेज्जा अणुमायं पि संजए । असंबद्धे हवेज्ज जगनिस्सिए ||
मुहाजीवी
संस्कृत - सन्निधि च न कुर्यादणुमात्रमपि संयतः । असंबद्धो
मुधाजीवी
भवेब्जगनिश्रितः
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१८३
अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन
(२०) दोहा- काननि सों बहुतक सुन, बहुत निहार नेन ।
जोग न सब देख्यो सुन्यौ, मुनिको कहती वैन ।। अर्थ-साधु कानों से बहुत-सी भली-बुरी बातें सुनता है और आंखों से बहुत-सी भली-बुरी वस्तुएं देखता है। किन्तु देखी और सुनी सब बातें किसी से कहना साधु के लिए योग्य नहीं है।
' (२१) चौपाई- उपधात की बात कछु होई, देखी सुनी कह नहिं सोई ।
करि उपाय कोऊ मन-माने, नहिं संबंध गही सों ठाने । अर्थ-सुनी अथवा देखी हुई बात यदि औपघातिक (किसी प्राणी को द्रव्य या भाव रूप से पीड़ा पहुंचाने वाली) हो तो साधु न कहे। और किसी भी उपाय (कारण) से गृहस्थ के योग्य कार्य का आचरण न करे।
(२२) चौपाई- भोजन सब गुन-संजुत होई, अथवा रस-विहीन ह कोई।
भलो बुरो पावं नहिं पार्व, पूछ अनपूछ न बतावै ।। अर्थ-यह आहार सरस है अथवा नीरस है, यह भोजन भला है या बुरा है, यह बात किसी के पूछने पर, या बिना पूछे ही न बतावे। तथा आज आहार का लाभ हुआ है, या नहीं हुआ है, इसे भी किसी से न कहे ।
(२३) चौपाई- नहि भोजन में अतिरति लावै, मौनवंत विचर सम भाव ।
क्रोत उद्देसिक सनमुख लाव, अप्रासुक अस अन्न न खावै॥ अर्थ-भोजन में अतिगृद्ध (लोलुपी) होकर विशिष्ट घरों में नहीं जावे, किन्तु चालता-रहित होकर उञ्छ (अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा) आहार (भोजन-पान) लवे । अप्रासुक (सचित्त), क्रीत (खरीदा हुआ) और आहृत (सामने लाया हुआ) आहारादि न ग्रहण करे और न खावे ।
(२४) चौपाई- संजति संनिधि रंच न रालो, न हि संबंध गृहिन संग राले।
रहित प्रपंच जीवनो जाको,सो सब जग को, सब जगवाको। अर्थ-संयमी साधु अणुमात्र भी भोज्य वस्तु का संचय न करे । किन्तु मुधाजीवी (निःस्वार्थ भाव से जीवित रहने वाला) और असंवद्ध (गृहस्थों के प्रपंच से मुक्त या अलिप्त) रहकर जग-निश्रित रहे । अर्थात् जनपद पर निर्भर रहे एवं त्रस और स्थावर की रक्षा करे ।
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दशवकालिकदून
(२५) मूल- लूहवित्ती सुसंतुळे अप्पिच्छे सुहरे सिया।
आसुरत्तं न गच्छेज्जा सोच्चाणं जिणसासणं ॥ संस्कृत- रुक्षवृत्तिः सुसन्तुष्टो ऽल्पेच्छः सुमरः स्यात् ।
आसुरत्वं न गच्छेत् श्रुत्वा जिनशासनम् ॥
मूल- कण्णसोक्वेहि सद्देहि पेम नाभिनिवेसए।
दारुणं कक्कसं फासं कारण अहियासए । संस्कृत- कर्णसौख्येषु शाब्देषु प्रेम नाभिनिवेशयेत् । दारुणं कर्कयां स्पर्श कायेनाध्यासीत ॥
(२७) मूल- गृहं पिवासं दुस्सेज्नं सोउण्हं अरई भयं ।
अहियासे अव्वहिओ देहे दुक्खं महाफलं ॥ संस्कृत- क्षुधां पिपासां दुःशय्यां, शीतोष्णमरति भयम् ।
अध्यासीताव्यथितो देहे दुःखं महाफलम् ॥
(२८)
मूल- अत्यंगम्मि
आहारमाइयं संस्कृत- अस्तंगते
आहारमादिकं
आइच्चे पुरत्याय अणुग्गए।
सव्वं मणसा वि न पत्थए । आदित्ये पुरस्ताच्चानुदगते ।
सर्व मनसापि न प्रार्थयेत् ॥
आदि
(२६)
मूल- अतितिणे अचवले अप्पमासी मियासणे।
हवेज्न उयरे ते थोवं लक्षु न खिसए॥ संस्कृत- ‘अतितिणः' अचपलोड ल्पभाषी मिताशनः ।
भवेदुदरे दान्तः स्तोकं लब्ध्वा न खिसयेत् ॥
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अष्टम बाचार-प्रणिधि अध्ययन
१८५
(२५) गोपाई- अलप चाह पोरे ते मरई, कक्ष खाय तोष हिय धरई।
कोप भाव कबहुं नहि करई, सुनि जिन-शासन भवतें उरई ।। अर्व-साधु रुक्ष वृत्ति (रूखे-सूखे भोजन पर निर्वाह करने वाला) होकर भी सदा सन्तुष्ट रहे । अल्प इच्छा वाला हो, सुभर (अल्प अन्न-पान से उदर भरने वाला) हो और जिन-शासन को सुनकर अर्थात् उसका ज्ञाता होकर किसी के आसुरक्त (क्रोध भाव को प्राप्त) न हो।
(२६) चौपाई- सुनिके शब्द श्रवण-सुखदाई, मान नहीं प्रेम ता माही।
पारन कर कस-फरस तु होई, कर सहन काया ते सोई॥
मर्ष-कानों के लिए सुखकर शब्दों को सुनकर उनमें प्रेम न करे और दारुण-कर्कश शब्दों को सुनकर उनमें द्वेष न करे, किन्तु काया से उन्हें सहन करे।
(२७) चोपाई- भूख-पियास सेज दुखकारी, सीत-ताप मरती भय मारी।
सह बीनता को बिनु लाये, मिले महाफल देह दुखाये ॥
अर्थ-क्षुधा, पिपासा, दुःशय्या (विषम भूमि पर सोना), शीत, उष्ण, अरति और भय को अव्यथित चित्त से सहन करे । क्योंकि देह के दुख सहन करना महान् फल का (कर्म-निर्जरा का) कारण है।
(२८) हा- अस्तंगत मादित्य का, जब लों उदय न होय ।
माहाराविक सर्व की, मनसा कर (चहै) न कोय ॥
मर्ष-सूर्य के अस्तंगत हो जाने से लेकर पुनः पूर्व दिशा में जब तक पुनः उदय न हो, तब तक रात्रि के समय आहारादि की मन से भी इच्छा न करे ।
(२९) चौपाई- नहिं अलाम को कह रिसाई, चपल न होय,अलप उचराई ।
उदर-समन होवे, मित खाव, अलप पाय नहि कुरो बता ॥
अर्थ-आहार न मिलने अथवा अरस मिलने पर तुन-तुनावे नहीं और न चपलता ही प्रकट करे। अल्प-भाषी, मित-भोजी और उदर का दमन करने वाला हो और थोड़ा आहार मिलने पर खिसियावे नहीं । (किन्तु सब दशाओं में शान्त रहे ।)
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१८६
दशवकालिकसूत्र
(३०) मल- न बाहिर परिभवे अत्ताणं न समुक्कसे ।
सुयलामे न मजेज्जा जच्चा तवसि बुद्धिए । संस्कृत- न बाह्य परिभवेदात्मानं न समुत्कर्षयेत् ।
श्रुत लाभे न माद्यत, जात्या तपस्वि-बुद्ध,या ।।
मूल- से जाणमजाणं वा कटु आहम्मियं पयं ।
संवरे खिप्पमप्पाणं बोयं तं न समायरे ॥ संस्कृत- अथ जानन्न जानन् वा कृत्वा धार्मिकं पदम् । संवृणुयात् क्षिप्रमात्मानं द्वितीयं तं न समाचरेत् ।।
(३२) मूल- अणायारं परक्कम्म नेव गृहे न निण्हवे ।
सुई सया वियडभावे असंसत्ते जिइदिए । संस्कृत-- अनाचारं पराक्रम्य नैव गुहेत न निन्हुवीत ।
शचिः सदा विकटभावो ऽसंसक्तो जितेन्द्रियः ।।
(३३) मूल- अमोहं वयणं कुज्जा आयरियस्स महप्पणो ।
तं परिगिज्य वायाए कम्नुणा उववायए ॥ संस्कृत- अमोघं वचनं कुर्यादाचार्यस्य
महात्मनः। तत्परिगृह्य वाचा कर्मणोपपादयेत् ॥
मूल- अधुवं जीवियं नच्चा सिद्धिमग्गं वियाणिया।
विणियटेज्ज भोगेसु आउ परिमियमप्पणो॥ संस्कृत- अघ्र वं जीवितं ज्ञात्वा सिद्धिमार्ग विज्ञाय ।
विनिवर्तेत भोगेभ्यः आयुः परिमिति मात्मनः
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अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन
१८७
(३०)
नहिं और काहुको तिरस्कार सो ठान, अपनेकों सबसों बड़ो नहीं सो मान । श्रत को प्रापति तें जाति तथा तप माहीं, बुद्धि तें बड़ो ह गरव करेकछ नाहीं ।
अर्थ-दूसरे का पराभव (अपमान) न करे, अपना अभिमान न करे, अधिक श्रुतलाभ (शास्त्र-ज्ञान) होने पर जाति, तपस्या और बुद्धि का मद न करे।
(३१)
अनजान तथा जान के कबहुं जो कोई, सो घरम-हीन कारज कछु कोनो होई। तो तुरंत बातें आतम लेय हटाई, पुनि दूजो वैसो काज न कर कदाई ॥
अर्थ-जान या अनजाने में कोई अधार्मिक कार्य हो जाय, तो अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा लेवे और दूसरी वार भूलकर भी वह कार्य न करे ।
(३२) छन्द- अनाचार जो सेवन कोनो सो आलोचन गुरु के पास,
न कछुछुपाव,न सबछुपाव, सवै जयारय कर प्रकाश । सदा पवित्र भावना वारो जाके सकल प्रकट हैं भाव, काहू में आसक्त नहीं जो इन्द्रिय-जेता सरल स्वभाव ॥
अर्थ-अनाचार का सेवन कर साधु उसे न छिपावे और न अस्वीकार करे । किन्तु सदा पवित्र और स्पष्ट रूप से अलिप्त रहकर गुरु के सामने कहै और जितेन्द्रिय बने अर्थात् भविष्य में वैसा कार्य न करे।।
चौपाई- नित आचार्य और गुरुजी की, वानी सफल कर विधि नीको ।
'तहति आदि कहि मुखतें गहई, तिहि अनुसार करम तें वहई ॥
अर्थ–साधु को चाहिए कि आचार्य महात्मा के वचन को सफल करे। वे जो प्रायश्चित्त (दण्ड) देवें उसे अपने वचनों से ग्रहण कर कार्य रूप से उस पर आचरण करे।
दोहा- जानि अपिर जग-जीवनो, मुकति-पंथ को जानि ।
मोगनि तें विनिवृत्त हो, निज आयुस मितमानि । अर्थ-मुमुक्षु साधु जीवन को अनित्य और अपनी आयु को परिमित जानकर तथा सिद्धिमार्ग का ज्ञान प्राप्त कर भोगों से निवृत्त होवे ।
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१८८
मूल
संस्कृत — बलं स्थाम च प्रेक्ष्य क्षेत्रं कालं च विज्ञाय
मूल
(३५)
बलं थामं च पेहाए
खेत
कालं च विनाय
मूल-
जरा जाव न जाविदिया न संस्कृत - जरा यावन्न पीडयति व्याधिर्यावन्न
संस्कृत — क्रोधं मानं च वमेच्चतुरो
मूल
सद्धामा रोग्गमप्पणो ।
तहप्पहाणं निजु जए ॥
श्रद्धामारोग्यमात्मनः ।
तथात्मानं नियुं जीत ॥
(३६)
पोलेइ वाही जाव न बड्ढई । हायंति ताव धम्मं समायरे ॥
वर्धते ।
यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते तावद्धर्मं समाचरेत् ॥
मूल- कोहो पीई
दशवेकालिकसूत्र
(३७)
कोहं माणं च मायं च लोभं च पाववड्ढणं । वमे चत्तारि दोसे उ हियमध्वणो ॥
इच्छंतो
मायां च लोभं च
दोषांस्तु इच्छन्
पापवर्धनम् । हितमात्मनः ॥
(३८)
पणासेइ माणो विजयनासणो ।
माया मित्ताणि नासेइ लोहो सव्वविणासणो ॥
संस्कृत - क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति मानो
माया मित्राणि नाशयति लोभः ( ३९ )
उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे । मायं चज्जवभावेण लोभं संतोसओ
जिणे ॥
विनयनाशनः ।
सर्वविनाशनः ॥
संस्कृत - उपशमेन हन्यात् क्रोधं मानं मार्दवेन मायां च ऋजुभावेन लोभं सन्तोषतो
जयेत् ।
जयेत् ।
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अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन
दोहा- बल पिरता को देखिके, पता, निज आरोग्य ।
क्षेत्रकाल लखि आत्म को, कर नियत ता-योग्य ।।
अर्ष-अपने बल, पराक्रम, श्रद्धा और आरोग्य को देखकर तथा क्षेत्र और काल को जानकर साधु अपने आपको मुक्ति के मार्ग में लगावे ।
मोतियादाम छन्द-.
जब लगि आनि जरा न बबाय, जब लगि व्याधि नहीं बढ़ जाय । जब लगि इंद्रिय हारिन खाय, तब लगि धर्म अराधहु धाय ।।
अर्ष-जब तक जरा (बुढ़ापा) पीड़ित न करे, जब तक व्याधि (रोग) न बढ़े और जब तक इन्द्रियां क्षीण न हों, तब तक धर्म का आचरण करे ।
(३७) छप- क्रोध मान माया तजि देव, लोम पाप-बढ़ावन-हार ।
पारि दोस दूर करि देवं, मातम-हित-चिता चित-धार॥
अर्थ-- क्रोध मान माया और लोभ ये चारों कषाय पाप को बढ़ाने वाले हैं। अतः अपना हित चाहने वाला पुरुष इन चारों दोषों को छोड़े।
(३८) बोहा- क्रोध विनास प्रीति को, विनय विनास मान ।
माया भेट मित्रता, लोभ कर सब हान ॥ अर्थ . क्रोध प्रीति का नाश करता है मान विनय का नाश करने वाला है, माया मित्रों का विनाश करती है और लोभ इन सबका (प्रीति, विनय और मित्रता का) नाश करने वाला है।
(३९) छब- हने कोप को शान्ति-शस्त्र से, कोमलता से जीते मान ।
सरलपने से माया मारे, जीते लोमतोष उर मान ।
मर्ष-उपशमभाव से क्रोध का विनाश करे, मार्दवभाव से मान को जीते, आर्जवभाव से माया को जीते और सन्तोष से लोभ को जीते ।
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१६०
मूल
संस्कृत
मूल
संस्कृत
--
मूल
मूल
(४०)
कोहो य माणो य अणिग्गहीया
संस्कृत — योगं
माया य लोभो य पवड्ढमाणा ।
कसाया
मूलाइ पुणम्भवस्स ॥ मानश्चानिगृहीतो
लोभश्च
प्रवर्धमानौ ।
कृत्स्नाः कषायाः
सिञ्चन्ति मूलानि पुनर्भवस्य ॥
चत्तारि एए कसिणा
सिचंति
क्रोधश्च
माया च
चत्वार एते
युक्तश्च
(४१) राइणिएसु विणयं पउ जे,
ध्रुवसीलयं सययं न हावएज्जा । कुम्मोव्व अल्लीण-पलीण-गुत्तो,
परक्कमेजा तव संजमम्मि ||
निहं च न बहुमन्नेज्जा संपहासं मिहो कहाहिं न रमे रामाय संस्कृत - निद्रां च न बहु मन्येत संप्रहासं मिथः कथासु न रमेत स्वाध्याये
-
रात्निकेषु विनयं प्रयुञ्जीत
कूर्म
ध्रु वशीलतां सततं न हापयेत् । इवालीन- प्रलीन - गुप्तः पराक्रमेत् तपः
संयमे ॥
(४२)
विवज्जए ।
रओ सया ॥
(४३) जोगं च समणधम्मम्मि जुंजे अणलसो जुत्तो य समणधम्मम्मि
च
श्रमणधर्मे श्रमणधर्मे,
दशबैकालिकसूत्र
विवर्जयेत् ।
सदा ॥
रतः
धुवं ।
अट्ठ लहइ अणुत्तरं ॥ युञ्जीतानलसो ध्र ुवम् । अर्थं लभतेऽनुत्तरम् ।।
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अष्ठम आचार प्रणिधि अध्ययन
भुजंग प्रयात छन्द- नहीं क्रोध औ मानको जो निवार,
तथा लोम माया जु पावं प्रसार । पुनर्जन्म के वृक्ष को सर्वदाई,
रहे सींचते ये चार ही कसाई॥ ___ अर्थ-निग्रह नहीं किये हुए क्रोध और मान, तथा बढ़ते हये माया और लोभ ये चारों कषाय पुनर्जन्मरूपी संसार-वृक्ष की जड़ों का सिंचन करते हैं।
(४१) मालिनीछन्द--
अधिक रतन-धारी आर्य आचार्य वारी, तिन विनय प्रचारी होय आज्ञानुसारी। सतत अटलधारी शीलता को संभारी, बनिय न पथचारी तासुमें ह्रासकारी ॥ कमठगति संभारी देहको गुप्ति वारी, करिय तिहि प्रकारी पापते रक्षवारी । तप संजम सुधारी यत्न कीजे अपारी, यह कृति सुखकारी मोक्ष को देन-हारी ॥
अर्ष -- रत्नाधिक अर्थात् दीक्षा में अपने से बड़े, चारित्र वृद्ध और ज्ञानवृद्ध गुरुजनों में सदा विनय का प्रयोग करे। अपने अठारह हजार शील के भेदों की कभी हानि न होने देवे । कूर्म (कछुआ) के समान आलीन-गुप्त (अपने अंगोपांगों को सुरक्षित रखने वाला) और प्रलीन-गुप्त (कारण उपस्थित होने पर सावधानी से प्रवृत्ति करने वाला) बने तथा तप और संयम में पराक्रम करे ।
(४२) पाई-- निद्रा को बहुमान न बीजे, अधिक हास को त्याग करीजे ।
वृथा कथा में राचे नाही, रहिये रत स्वाध्यायनि मांहीं ॥
अर्थ-निद्रा को बहु मान न दे वे, अधिक हास-परिहास का त्याग करे, स्त्री कथा आदि विकथाओं न रमे और स्वाध्याय में सदा संलग्न रहे।
(४३)
चौपाई- आलस-रहित सु उद्यत भावे, श्रमण-धरम में जोग लगावे ।
धमण-धरम-संजुगत जु अहई, परमारथ उत्तम सो लहई॥
अर्थ-मुनि आलस्य-रहित होकर श्रमण-धर्म में अपने मन, वचन, काय योग को लगावे । (जिस क्रिया का जो समय हो उसमें वह उसे अवश्य करे ।) श्रमण धर्म में संलग्न मुनि अनुत्तर फल को अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त होता है ।
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१९२
पशवकालिकसूत्र
(४) मूल- इह लोग-पारत्तहियं जेणं गच्छह सोग्गई।
बहुस्सुयं पनवासेन्जा पुज्जत्वविणिन्छयं ॥ संस्कृत- इहलोक-परत्र - हितं येन गच्छति सुगतिम् ।
बहुश्रुतं पर्युपासीत पृच्छेदर्थविनिश्चयम् ।।
मूल- हत्यं पायं च कायं च पणिहाय जिइंथिए ।
अल्लोणगुत्तो निसिए सगासे गुरुणो मुणी॥ संस्कृत- हस्त पादं च कायं च प्रणिधाय जितेन्द्रियः । आलीनगुप्तो निषीदेत सकाशे गुरोमुनिः ॥
(४६) मूल- न पक्खाओ न पुरओ ने व किच्चाण पिट्ठयो ।
न य उ समासेज्जा चिठेजा गुरुणंतिए । संस्कृत- न पक्षतो न पुरतो नैव कृत्यानां पृष्ठतः । न च उरुं समाश्रित्य तिष्ठेद् गुर्वन्तिके ॥
(४७) मूल- अपुच्छिओ न भासज्जा भासमाणस्त अंतरा ।
पिट्टिमसं न खाएज्जा माया - मोसं विवज्जए । संस्कृत-- अपृष्टो न भाषेत भाषमाणस्यान्तरा ।
पृष्ठमांसं न खादेत् माया-मृषा विवर्जयेत् ॥
मूल- अप्पत्तियं जेण सिवा मासु कुप्पेज्ज वा परो ।
सव्यसो तं न भासेज्जा भासं अहियगामिणि ।। संस्कृत- अप्रीतिर्येन स्याद् आशु कुप्येद्वा परः ।
सर्वशस्तां न भाषेत भाषा महितगामिनीम् ॥
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अष्टम भाचार-प्रणिषि अध्ययन
१॥ (४४) तोटकछन्द-इह लोक तथा परलोक-हितं, जिहितें जिय जावत है सुगतं ।
तिहि हेतु उपासिय भूरि-भूतं, तब पूछिय तत्त्व विनिश्चित तं ।
अर्ष-जिसके द्वारा इहलोक और परलोक में हित होता है, मृत्यु के पश्चात सुगति प्राप्त होती है, उसकी प्राप्ति के लिए वह बहुध त-सम्पन्न साधु की पर्युपासना करे, अर्थ का निश्चय करने के लिए प्रश्न करे।
(४५) तोमरब-इन्द्रिय-जयो मुनिराय, उपयोग कों परताय ।
कर बरन तनु सिमिटाय, गुरु निकट बैठे जाय ॥
अर्ष-जितेन्द्रिय मुनि हाथ, पैर और शरीर को संयमित कर अलीन (न अतिदूर और न अति निकट) एवं गुप्त (मन और वाणी से संयत) होकर गुरु के समीप बैठे।
तोमरछन्द- गुरु के न आगे आय, बैठे न पाछे जाय ।
पाखें न बंध अड़ाय, बैठे सु उचित सुभाय ॥ मर्च-गुरुजनों के बराबर न बैठे, आगे और पीछे भी न बैठे । गुरु के समीप उनके उरु से अपना उरु मिलाकर (जांघ से जांघ सटा कर) अथवा अपने पैर पर पैर रखकर न बैठे। किन्तु विनयपूर्वक उचित आसन से बैठे।
(७) - विनु पूछे नहि बोले, बोल रहे हैं तिननि बोध नहि बोले।
पीठ दुरो नहिं बोले, कपट-समेत मृषा हु न बोले ॥
अर्थ-साधु को चाहिए कि गुरु के पूछे बिना स्वयं न बोले, जब गुरु किसी अन्य से बातचीत कर रहे हों तब बीच में न बोले, पृष्ठ-मांस न खावेअर्थात् किसी की पीठ पीछे निन्दा न करे तथा मायाचार और मृषावाद को छोड़े।
(४८) रवोडता-निहित अहेत बढ़ि जावत है, सुनि कोप-भाव पर जागत है।
सवाति ताहिकबहुं न मने, बहवानि जो कि हित हानि जने ॥
मर्च-जिससे अप्रीति और अप्रतीति उत्पन्न हो, तथा दूसरा शीघ्र कुपित हो जाय ऐसी अहितकर भाषा सर्वथा न बोले ।
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१६४
दशवकालिकसूत्र
(४६) मूल- विठं मियं असंविद्ध परिपुत्र वियं जियं ।
अयंपिरमणुविग्गं भासं निसिर अत्तवं ॥ संस्कृत --. दृष्टां मितामसंदिग्धां प्रतिपूर्णा व्यक्तां जिताम् ।
अजल्पाकीमनुद्विग्नां भाषां निसृजेदात्मवान् ।।
मूल- आयारपन्नत्तिधरं विदिव्यायमहिज्जगं ।
वायविक्खलियं नच्चा न तं उवहसे मुणो॥ संस्कृत- आचारप्रज्ञप्तिधरं
दृष्टिवादाभिज्ञम् । वाग्विस्खलितं ज्ञात्वा न तमुपहसेन्मुनिः ।।
मूल- नक्खत्तं सुमिणं जोगं निमित्त मत भेसजं ।
गिहिणो तं न आइक्खे भूयाहिगरणं पर्य। संस्कृत- नक्षत्र स्वप्नं योगं निमित्तं मंत्र-भेषजम् ।
गृहिणस्तनाचक्षीत भूताधिकरणं पदम् ।।
(५२) मूल- अन्नहूँ पगडं लयणं भएज्ज सयणसाणं ।
उच्चारभूमिसंपन्नं इत्थीपसु विवज्जियं ॥ संस्कृत- अन्यार्थ प्रकृतं लयनं भजेत शयनासनम् ।
उच्चारभूमिसम्पन्न स्त्रीपशुविवर्जितम् ॥
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अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन
१६५ (४) बसन्ततिलका
शंका-विहीन, मित दर्शित होय जोई, जानी भई प्रगट औ परिपूर्ण होई। उद्वेग-वजित अजल्पन शीलवानी, ऐसी उचारण कर मुनि आत्मज्ञानी॥
अर्थ-आत्मज्ञानी साधु प्रत्यक्ष देखी हुई, परिमित असन्दिग्ध और पूर्वापर सम्बन्ध-सहित परिपूर्ण और व्यक्त (स्पष्ट) अर्थवाली, परिचित, वाचालता-रहित तथा अन्य को उद्वेग नहीं करने वाली भाषा को बोले ।
(५०) उपेनवजा- आचार-प्राप्ति हु के धरया, जे दृष्टि गावाहु के पढ़या।
चूक तिन्हें बोलन बीच पार्व, मुनी उन्हों की न हंसी उड़ावै ॥ ___ अर्थ-आचारांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति आदि के ज्ञाता, अथवा आचार-धर (वाक्यप्रयोग का ज्ञाता) तथा दृष्टिवाद अंग का अथवा नयवाद का अध्ययन करने वाला भी मुनि यदि कदाचित् बोलते समय प्रमाद-वश वचन बोलने में चूक जाय तो मुनि उसकी चूक जानकर उसका उपहास न करे।
(५१) कवित्त नक्षत्र-विचार विद्या शुभाशुभ स्वप्न ज्ञान, वशीकरणादि योग कबहुं न गहिये । भविष्य कथन सोई निमित्त कहावै ताते, मंत्रनि त भेषज दूर रह्यो चहिये । इनके किये ते भूत प्रानी को असाता होय, ऐसो ई विचार निज मानस में लहिये । पछे अनपूछे आप इनसों विलग रहै, ऊपर कहे ते काह गृही सो न कहिये।
अर्थ-नक्षत्र-योग, स्वप्न-फल, वशीकरणयोग, निमित्त-प्रतिपादन, मंत्र-प्रदान व भेषज-निरूपण ये सब जीवों की हिंसा के स्थान हैं। इसलिए मुनि गृहस्थों को इनके फलाफल आदि न बतावे ।
(५२)
मरिल्ल
कियो और के काज लयन सो सेइये, आसन तथा सयन ह वैसे लेइये । जो उच्चार भूमि सों संजुत होय हो, नारी-पशुसों होन गहे घर सोय हो ।
अर्ष - जो अन्य के लिए बनाये गये हों, अर्थात् गृहस्थ ने अपने लिए बनाये हों, साधु के लिये न बनाये हों, ऐसे तथा जो उच्चारभूमि से सम्पन्न हो । जिसमें मल-मूत्रादि के छोड़ने के लिए समुचित स्थान हो, जहां पर स्त्री, पशु और नपुंसक मादि न रहते हों. ऐसे लयन (पर्वतों में उत्खनित लेन एवं अन्य भवन आदि) में साधु निवास करे और वहीं सोवे और उठे-बैठे।
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१६६
दशवकालिकसूच
(५३) मूल- विवत्ता य भवे सेज्जा नारीणं न लवे कहं।
गिहिसंथवं न कुज्जा कुज्जा साहूहि संथवं ।। संस्कृत-- विविक्ता च भवेच्छय्या नारीणां न लपेत्कथाम् ।
गृहिसंस्तवं न कुर्यात् कुर्यात् साधुभिः संस्तवम् ॥
(५४) मूल- जहा कुक्कुडपोयस्स निच्चं कुललो भयं ।
एवं ए बंभयारिस्स इत्थीविग्गहमो भयं ॥ संस्कृत- यथा कुक्कुटपोतस्य नित्यं कुललतो भयम् ।
एवं खलु ब्रह्मचारिणः स्त्रीविग्रहतो भयम् ।।
मूल- चित्तमित्ति न निज्झाए नारिं वा सुअलंकियं ।
भक्सर पिव बठूर्ण दिदिठ पडिसमाहरे ॥ संस्कृत- चित्रभित्ति न निध्यायेन्नारों वा स्वलंकृताम
भास्करमिव दृष्ट्वा दृष्टिं प्रतिसमाहरेत् ।।
मूल- हत्थ-पाय-पडिच्छिन्न कण्ण-नास-विगप्पियं ।
अवि वाससई नारिं बंभयारी विवज्जए । संस्कृत- हस्त-पादां प्रतिच्छिन्न, कर्ण-नासाम् विकल्पितं ।
अपि वर्षशतीं नारी ब्रह्मचारी विवर्जयेत्॥
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अष्टम बाचार-प्रणिधि अध्ययन
(५३) मरिल्ल
जो वह पानक अननि सोहीन हों, केवल एकाको मुनि आसीन हो। नारिन के संगकपा आदिनाहि उचर, कर साषसों परिचय गृहिसों नहि करें।
अर्ष-यदि वह रहने का स्थान विविक्त (जन-शून्य एकान्त) हो, अर्थात् वहां पर साधु अकेला हो, तो स्त्रियों के साथ कथा-वार्तादि न करे एवं वहां पर उन्हें धर्मकथादि भी न सुनावे । तथा गृहस्थों के साथ अतिपरिचय भी न करे। किन्तु साधुओं के साथ ही परिचय प्राप्त करे।
(५४) .बोहा- अरन-सिखा-सिसु को जया, नित विलांव सों मोति ।
ब्रह्मचारि कों तिपनि भय, तिय-तनु तिहि रोति ॥ वर्ष-जिस प्रकार मुर्गे के बच्चे को बिल्ली से सदा भय रहता है, इसी प्रकार ब्रह्मचारी साधु को स्त्री के शरीर से सदा भय-भीत रहना चाहिए ।
(५५)
कवित्तनीति पचितारे भये चित्र-वाह रमनी के, नीके वीठि करिके न तिनकों निहारिये । भूसन वसन सिनगार सों सजी है तोय, ताप निज बोठि को कदापि न पसारिये। जो 4 अनयास विनु जनिई संजोग-वस, दोठि परिजाय ताकों तुरत निवारिये,। जैसे तेजवान मान-प्रतिभा परत आन. दृगनि को दीठि त्यों तुरन्त दूर टारिये ।
अर्थ-स्त्रियों के चित्रों से चित्रित भित्ति को, या आभूषणों से अलंकृत स्त्री । अनुराग से टक-टकी लगाकर न देखे । यदि उन पर दृष्टि पड़ जाय तो ब्रह्मचारी साधु अपनी दृष्टि को तुरन्त पीछे उसी प्रकार खींच लेवे-जैसे कि चमकते सूर्य पर पड़ी अपनी दृष्टि को लोग तत्काल खींच लेते हैं।
(५६) कवित्तजाके हाथ पांव के छेदन भये हैं अंग, नाक औ करन नास करने में आये हैं। बरस सतेक हू को आय पहुंची है माय, घनित सरीर पोर देखि दुख पाये हैं। ऐसी हू गिलानि-गेह ताहकों निवारि दूर, ब्रह्मवतधारी जति निकट न जाये हैं। ता पै जो सुरूपवारी सुनैनी नवीना नारी, तासों बचिवे को दिन ही बताये हैं।
___ अर्ग-जिसके हाथ-पैर कटे हुए हों, जो कान-नाक से विकल हो ऐसी सौ वर्ष की आयु वाली भी बूढ़ी नारी से ब्रह्मचारी दूर रहे।
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१९८
दशवकालिकसूत्र
(५७) मूल- विभूसा इत्यिसंसग्गी पणीय रसभोयणं ।
नरस्सत्तगवेसिस्स विसं तालउड जहा ।। संस्कृत- विभूषा स्त्री-संसर्गः प्रणीत-रस-भोजनम् ।
नरस्यात्मगवेषिणो विषं तालपुटं यथा ॥
(५८---५९) मूल- अंग-पच्चंग-संगणं
चारल्लवियपेहियं । इत्थीणं तं न निज्माए काम- राग - विवढ्डणं । विसएसु मणुन्ने सु पेमं नाभिनिवेसए।
अणिज्चं तेसिं विनाय परिणामं पोग्गलाण उ ।। संस्कृत- अङ्ग-प्रत्यंग-संस्थानं चारुल्लपितप्रेक्षितम् ।
स्त्रीणां तन्न निध्यायेत् काम-राग-विवर्धनम् ।। विषयेषु मनोज्ञेषु प्रेम नाभिनिवेशयेत् । अनित्यं तेषां विज्ञाय परिणाम पुद्गलानां तु ।।
(६०) सूल- पोग्गलाण परीणामं तेसिं नच्चा जहा तहा।
विणीयतहो विहरे सीईभूएण अप्पणा ॥ संस्कृत- पुद्गलानां परिणामं तेषां ज्ञात्वा यथा तथा ।
विनीतवृष्णो विहरेत् शीतीभूतेनात्मना।
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अष्टम आचार - प्रणिधि अध्ययन
(५७)
कविस --
सोभित सिगार ते सरीर को सवारियो द, नारि हू के संग हेल-मेल होय जानो है । देह-पोव-कारक सरस सेवो भोजन को काम-भाव-कारक जु बल को बढ़ानो है । तालपुट नामक जो विसमि में महाविस, ताही के समान इन बातनि बखानी है । ताके हेतु, जाको हेत आतम-गवेसना सों, पुरुष प्रवीन जोई संजम सयानो है ॥ अर्थ - आत्म-कल्याण का अन्वेषण करने वाले पुरुष के लिए शरीर को विभूषित करना, स्त्री के साथ संसगं रखना और पौष्टिक रसवाला भोजन करना तालपुट विष के समान है । (जैसे तालपुट नाम का विष तालु के लगते ही प्राणों को हर लेता है, उसी प्रकार शरीर-विभूषादि उक्त अवगुण भी साधु के चारित्र का नाश कर देते हैं ।)
(५८-५९)
कवित
अंग प्रति अंग के सुडोलनि को ढंग बन्यो, बोलन सुरस, एते रमनी के मन आने न निहारे नीके, सुंदर विसय तामें प्रेम न प्रवेस कीजें, पूरन - गलन परिनाम पुद्गलनि को है,
१९६
मन-हरन निहारनो । काम-राग- बाढ़न को राह-यह टारनो । आनत सरूप वाको जान के विचारतो । डार सो आसार, सार संजम सुधारनो ॥ अर्थ – स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग, सुन्दर आकार, मधुर बोली और कटाक्ष को न वे, क्योंकि ये सब काम-राग को बढ़ाने वाले हैं, पांचों इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में र्थात् शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में प्रेम न रखो - यह जानकर कि ये पूरणगलन-स्वभावी पुद्गलों के क्षण-भंगुर परिणाम हैं ।
(६०)
-
कवित्त
आज कछु और रंग, काल कछु और ढंग ऐसो ई अथिर परिनाम पुद्गलनि को । जैसो है तेसो ही ताकों जान लीजे नोके कर, नारिसों निहार थान मूत हो मलनि को । तिसना को नमाय के, संतोष वृत्ति लाय हिये. विहरं विराग लिये तापसें टलनि कों । शान्ति के सरोवर में आत्म-सिनान भली, शीतल भयो है सिद्ध-रासि में रलनि कों ॥
अर्थ इन्द्रियों के विषयभूत शब्दादि पुद्गलों के परिणमन को, जैसा है वैसा
जानकर अपनी आत्मा को शीतल बनाकर तृष्णा-रहित हो विहार करे ।
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२००
मूल
संस्कृत - यया श्रद्धया निष्क्रान्तः
तामेवानुपालयेद्
मूल
संस्कृत
मूल
जाए सढाए निक्खंतो
तमेव अणुपालेज्जा
संस्कृत
(६१)
गुणे
गुणे
(६३)
सज्झाय सज्झाणरयस्स
विशुध्यते
(६२)
तबंचिमं
संजमजोगयं
च,
सज्झाय जोगं च सया अहिट्ठए । सूरे व सेनाए समत्तमाउहे अलमप्पणो होइ अल परेसिं ॥
तपश्चेदं संयमयोगं
च
स्वाध्याययोगं च सदाऽधिष्ठेत् । शूर इव सेनया समाप्तायुधे
saमात्मने
भवत्यलंपरेभ्यः ।।
परिणदुत्तमं ।
आयरियसम्मए ॥
पर्यायस्थानमुत्तमम् ।
आचार्यसम्म ॥
ताइणो
अपावभावस्स तवे
रयस्स ।
विसुजाई जं सि मलं पुरेकडं समोरियं रुप्पमलं व जोइणा ॥
स्वाध्याय-सद्ध्यान रतस्य
શશિ ક
त्रायिणोऽपापभावस्य तपसि रतस्य । यत्तस्य मलं पुराकृतं समीरितं रूममेट ज्योतिषा ॥
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अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन
(६१) सबैया
जा सरधा करिके बगते निकस्यो तजि और कुटुम्ब के नाते, संगति को पद पायो भलो जिहि हेतु रहँ अमरेस उम्हाते । पूज्य अचारज-सम्मति-संजुत जे गुन है तिनमें रहि राते,
वा सरधा को कर परिपालन ते घरनी पर धन्य कहाते ।। अर्ष-जिस श्रद्धा से उत्तम प्रव्रज्यारूप स्थान की प्राप्ति के लिए साधु घर से निकला है, उसे उसी श्रद्धा से आचार्य-सम्मत गुण का पालन करना चाहिए।
(६२) चौपाई- तप संजम को जोग अराधे, नित स्वाध्याय जोग सो साथै। .
आयुध पूर सूर जिम सोई, निज-रक्षक पर-हंता होई॥
अर्थ-जो तप संयम-योग और स्वाध्याय-योग में सदा प्रवत्त रहता है, वह अपनी और दूसरों की रक्षा करने में उसी प्रकार समर्थ होता है, जिस प्रकार कि सेना से घिरा हुआ परन्तु आयुधों से सुसज्जित शूरवीर ।
चौपाई- सत अध्ययन ध्यान शुभ माही, जो बाता नित लीन रहाही।
पापभाव सों है जो न्यारो, जाकों तप अति लागत प्यारो॥ पूरब किये करम मल जेते, ताके सब धुपि जावत ते ते ।
जैसे रूपा फूकि तपाये, होत विशुद्ध अगनि में लाये।
अर्थ-स्वाध्याय और सद्-ध्यान में लीन, त्राता (जीव-रक्षक), निष्पाप मन वाले और तप में रत मुनि का पूर्व मंचित कर्म-मल उसीप्रकार भस्म हो जाता है, जिस प्रकार कि अग्नि द्वारा तपाये गये सोने का मल भस्म हो जाता है।
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२०२
दशवकालिकसूत्र
(६४) से तारिसे बुक्ससहे जिईविए
सुए, जुत्ते अममे अकिंचणे । पिरायई कम्मघणम्मि अवगए
कसिणग्मपुगवगमेव चंदिमा।
-त्ति बेमि
संस्क्रत
स तादृशो दुःखसहो जितेन्द्रियः,
श्रु तेन युक्तोऽममोकिंचनः । विराजते कर्मघनेपगते
कृत्स्नाभ्रपुटापगमे इव चन्द्रमाः॥
-इति ब्रवीमि
. मट्ठमं मापार पणिही अन्मायणं सम्मत्त ।
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अष्टम आचार - प्रणिधि अध्ययन
(६४)
कवित
तेसो वह समन सहे या देह दुःखनि को, इब्रिन के जीतन में परम प्रवीनो है, आगम वचन जाके हिय में वचन लागे, ममता- विहीन परिग्रहतें विहीनो है । कारे कारे बादल करम करि डारे दूर, शोभातें विराजमान ऐसो भाव लीनो है, बादल पटल मानो सकल विलग भए, रोहिनी-रमन ने प्रकाश प्रिय कीनो है ।
२०३
अर्थ — जो पूर्वोक्ति गुणों से युक्त है, दुःखों को सहन करने वाला है, जितेन्द्रिय है, श्रुतवान् है, ममता-रहित और अकिंचन है, वह कर्म रूपी बादलों के दूर होने पर उसी प्रकार शोभित होता है, जिस प्रकार कि समस्त मेघ-पटल से विमुक्त पूर्णमासी का चन्द्र शोभता है ।
अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन समाप्त ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
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मूल
संस्कृत
मूल
―
संस्कृत
नवम विणयसमाही अज्मयणं
( पढम उद्देसो)
(१)
पंजा व कोहा व मयप्पमाया गुरुस्सगासे विजयं न सिक्खे । सो चेब उ तस्स अभूइभावो फलं व कीयस्स वहाय होइ ॥ स्तम्भाद्वा क्रोधाद्वा मायाप्रमादाद्
गुरु-सकाशे विनयं न शिक्षेत । स चंव तु तस्याभूतिभावः फलमिव कोचकस्य वधाय भवति ॥ (२) जे यावि मंदि त्ति गुरु विइत्ता डहरे इमे अप्पसुए त्ति नच्चा । होलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा
करेंति आसायण ते गुरूणं ॥
ये चापि 'मन्द' इति गुरु विदित्वा 'डहरोऽयं' 'अल्पश्रुत' इति ज्ञात्वा । हीलयन्ति मिथ्या प्रतिपद्यमानाः
कुर्वन्त्याशातनां
२०४
गुरूणाम् ॥
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
( प्रथम उद्दे शक )
(१)
जाति विद्या बुद्धि आदि मद के अधीन भयो, त्यों ही कोप कपटकै पायके विकास कों, सेवा-भाव साधवे की विनय अराधवे की, सीखकों न सीखे पाय गुरु के सकास करें। ताकी ज्ञान आदि सवगुनन की सम्पदा कों करत विनास अविनीत-पनो तास को; आपको हरज होत आपने किये ही देखो वांस को विनास करे जैसे फल बांस को ॥
अर्थ- जो मुनि गर्व, क्रोध, माया या प्रमाद-वश गुरु के समीप विनय की शिक्षा नहीं लेता, वही उसके विनाश के लिए होती है । जैसे - कीचक (बांस) का फल उस के ही विनाश के लिए होता है ।
(२)
-पाई - मम्बजानि गुरु कों जन जेई, बाल अलप श्रुत यों लखि लेई । प्रहि मिध्यापन होलत ताही, ते गुरु आसातना कराही ॥
अर्थ- जो मुनि गुरु को - यह मन्द ( बुद्धि - हीन) है, यह अल्पवयस्क और अल्पश्र ुत है - ऐसा जानकर उसके उपदेश को मिथ्या मानते हुए उसकी अवहेलना करते हैं, वे गुरु की आसातना (विराधना) करते हैं ।
२०५
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२०६
मूल -
संस्कृत
मूल
3
संस्कृत
मूल
संस्कृत
(३)
पगईए मंदा वि भवंति एगे डहरा वि य जे सुयबुद्धोववेया । गुणसुट्ठिअप्पा
आयारमंता जे होलिया सिहिरिव भास कुज्ज। ॥
प्रकृत्या मन्दा अपि भवन्त्ये के
डहरा अपि च ये श्रुतबुद्धयुपेताः । अचाखते गुणसुस्थितात्मानो
ये हीलिताः शिखीव भस्म कुर्युः ॥
जे यावि नागं
आसायए
(४)
डहरं ति नच्चा से अहियाय होइ ।
एवायरियं पि हु हीलयंतो नियच्छई जाइपहं खु मंदे ॥ ये चापि नागं डहर इति ज्ञात्वा
आशातयेयुस्तस्या हिताय भवति । एवमाचार्यमपि खलु हीलयन्
निर्गच्छति जातिपथं खलु मन्दः ॥ (५) आसीबिसो यावि परं सुरुट्ठो
कि जीवनासाओ परं नु कुज्जा । आयरियपाया पुण अप्पसना अबोहि आसायण णत्थि मोक्खो ||
आशीविषश्चापि परं
कि जीवनाशात्यरं न
आचार्यपादाः
सुरुष्टः
कुर्यात् ।
पुनरप्रसन्नाः अबधिमाशातनया नास्ति मोक्षः ॥
दशवेकालिक सूत्र
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
(३)
चीपाई - प्रकृति-मंद होवत है कोई, अल्पवय हु भूत-मति-धर होई ॥
जे आचारवन्त गुनवाना, होलत जारत अगनि समाना ॥ अर्थ – कोई आचार्य वयोवृद्ध होते हुए भी स्वभाव से ही मन्दबुद्धि होते हैं और कई अल्पवयस्क होते हुए भी श्रुत और बुद्धि से सम्पन्न होते हैं । आचारवान् और गुणों में सुस्थितात्मा आचार्य - भले ही फिर वे मन्दबुद्धि हों या प्राश, किन्तु अवज्ञा प्राप्त होने पर गुणराशि उसी प्रकार भस्म कर डालते हैं, जैसे कि अग्नि ईंधन को ।
(४)
चौपाई छेड़त सिसु लखि सरर्पाह कोई, तासु अहित-कारक सो होई । या विधि गनिनि न गन्य जु गनई, जनम-पंथ-पंथिक सो बनई ॥
अर्थ - 'यह सर्प छोटा है' ऐसा जानकर जो कोई उसकी आशातना करता है, अर्थात् उसे लकड़ी आदि से सताता है, वह उसके अहित के लिए होता है। इसी प्रकार अल्पवयस्क आचार्य की भी अवहेलना करने वाला मन्दबुद्धि संसार में परिभ्रमण करता है ।
चौपाई
-
२०७
आसोविस अहि अति गनि रूठं अबोधि
(५)
रिसि पाई, प्राण-हानि बढ़ि कहा कराई । उपजाहीं, आसातन तें मुकती नाहीं ॥
अर्थ - आशीविष सर्प अत्यन्त
क्रुद्ध होने पर भी 'जीवन- नाश' से अधिक क्या अहित कर सकता है ? अर्थात् और कुछ नहीं कर सकता । किन्तु आचार्यपाद अप्रसन्न होने पर अबोधि ( मिध्यात्व एवं अज्ञान) करते हैं । ( जिससे संसार बढ़ता है ।) अतः गुरु की आशातना से मोक्ष नहीं मिलता है ।
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२०६
मूल
संस्कृत
मल -
मूल :
S
संस्कृत
(६)
पावगं जलियमवक्कमेज्जा आसीदिसं वा विहु कोव एज्जा ।
जो वा विसं खायह जीवियट्ठी एसोवमासायणया
गुरूणं ॥
यः पावकं ज्वलितमपकामे
यः
दाशी विषं वापि खलु कोपयेत् ।
यो वा विषं खादति जीवितार्थी एषोपमाशातनया
गुरूणाम् ॥
(७)
सिया हु से पावय नो डहेज्जा आसोविसो वा कुविओ न मक्खे । सिया बिसं हालहलं न मारे,
न यावि मोक्खो गुरुहीलगाए ॥ स्यात् खलु सः पावको न दहेत्,
आशीविषो वा कुपितो न भक्षयेत् । स्यात् विषं हलाहलं न मारयेत् न चापि मोक्षो
गुरुहीलनया ॥
(5)
जो पव्वयं सिरसा भेत्त मिच्छे सुतं व सोहं पडिबोहएज्जा । वा दए सत्ति अग्गे पहारं एसोवमासायणया
गुरूणं ॥
पर्वतं शिरसा भेत्त मिच्छेत् सुप्तं वा सिंहं प्रतिबोषयेत् ।
यो वा ददीत शक्त्यन े प्रहारं एषोपमाऽशातनया
गुरुणाम् ॥
दशर्वकालिकसूत्र
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२०३
(६) चौपाई- जलत अनल पर पावत सोई, आसीविसहि खिजावत सोई।
जीवन-हेतु हलाहल खावै, जो गुरु-आसातना करावं ॥
अर्थ-जो जलती अग्नि को लांघना चाहे, आशीविष सर्प को कुपित करे और जीने की इच्छा से विष को खावे (तो जैसे वह विनष्ट होगा) यही उपमा गुरुओं की आशातना की है । अर्थात् जैसे उक्त कार्य उसके विनाश के लिए हैं उसी प्रकार गुरु की आशातना भी उसकी विघातक है।
चौपाई- जलत अनल वर वाहि न जार, आसीविस रिसिकरि नहि मार।
विस हु हलाहलतें वचि जावं, पं गुरु-होलक मुकति न पावै ॥
अर्थ--आग लांघने वाले को संभव है कि वह न जलावे, संभव है कि आशीविष सर्प कुपित होने पर भी न खावे, और यह भी संभव है कि खाया हुआ हलाहल विष भी न मारे । परन्तु गुरु की अवहेलना से मोक्ष संभव नहीं है।
चौपाई - जो सिरसों गिरि फोरन चाव, जो जन सूतो सिंह जगावै ।
सकति-धार पर अंग प्रहार, जो गुरु-आसातन मन धार ।।
अर्थ-यदि कोई शिर से पर्वत का भेदन करना चाहे। अथवा सोते सिंह को ..वे या तीक्ष्ण शक्ति के अग्रभाग पर पाद-प्रहार करे, तो वह अपना ही घात करता है, इसीप्रकार गुरु की आशातना से मनुष्य अपना ही सत्यानाश करता है।
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२१०
मूल
संस्कृत-
मूल
संस्कृत ---
मूल
संस्कृत
(e)
सोसेण गिरि पि भिन्दे
सिया हु
सिया हु सोहो कुविओ न भक्ले । सिया न भिदेज्ज व सतिभग्गं
न यावि मोक्लो गुरुहीलगाए ।
स्यान्न
स्यात्खलु शीर्षेण गिरिमपि भिन्द्यात् स्यात्खलु सिंहः कुपितो न भक्षेत् । भिन्द्याद्वा शक्त्यग्र न चापि मोक्षो गुरुहीलनया ॥ (१०)
आयरियपाया पुण अप्पसन्ना अबोहि आसायण नत्थि मोक्खो । अणाबाह सुहाभिकंली गुरुप्प सायाभिमुहो
सम्हा
रमेज्जा ॥
आचार्य पादाः
पुनरप्रसन्नाः
अबोधिमाशातनया नास्ति मोक्षः ।
तस्मादनाबाघसुखाभिकांक्षी गुरुप्रसादाभिमुखो
(११)
जहाहिबग्गी जलणं नमंसे
एवायरियं
रमेत ॥
नाणाहुईमंतपयामिसितं । उचिट्ठएन्ना अनंतनाणोवगओ वि संतो ॥
यथाऽहिताग्निर्ज्वलनं नमस्येद्
नानाहुतिमन्त्रपदाभिषिक्तम् ।
एवमाचार्यमुपतिष्ठेत अनन्तज्ञानोपगतोऽपि
सन् ॥
दशर्वकालिकसूत्र
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
(e)
चोपाई - वरु सिर तें गिरि-भेदन होई, फोपेउ केहरि भवं न जोई ।
सकति लगे हु न अंग छिबाबे, पं गुरु-होलक मुकति न पावै ॥ अर्थ- संभव है कोई शिर से पर्वत को भी भेद डाले, संभव है, सिंह कुपित होने पर भी न खावे और यह भी संभव है कि शक्ति का अग्रभाग भी उसका भेदन
न करे परन्तु गुरु की अवहेलना से मोक्ष संभव नहीं है ।
(१०)
चौपाई - गणि रुठे अबोधि उपजाही, आसातन तें मुकली नाहीं । गुरु प्रसाद सनमुख सो रहई ॥
तातें जो अबाध सुख चहई,
२११
अर्थ - आचार्यपाद के अप्रसन्न होने पर बोधि-लाभ नहीं होता अर्थात् गुरु की आशातना से मोक्ष नहीं मिलता है । इसलिए मोक्ष सुख चाहने वाले मुनि को गुरु कृपा पाने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए ।
(११)
चौपाई- विविधमंत्र आहुति अभिषिक्ता, वंबत अगनि अर्गानि के भक्ता । आचारज सेहय विधि सोई, जो निज ज्ञान अनन्त हु होई ॥
---
अर्थ - जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण नाना आहुति और मंत्र पदों से अभिषिक्त अग्नि को नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य को चाहिए कि अनन्त ज्ञान-सम्पन्न होते हुए भी आचार्य की विनयपूर्वक सेवा करे ।
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२१२
मूल
संस्कृत—
मूल -
संस्कृत
मूल
(१२)
पड जे ।
जस्संतिए धम्मपयाई तस्संतिए वेणइयं सक्कारए सिरसा पंजलीओ कार्याfग्गरा भो मणसा य णिच्चं ॥
यस्यान्तिके धर्मपदानि शिक्षेत
तस्यान्तिके वैनयिकं प्रयुञ्जीत । सत्कुर्वीत शिरसा प्राञ्जलिकः कायेन गिरा भो मनसा च नित्यम् ॥ (१३)
लज्जा दया संजम बंभचरं
सिक्वे
कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं । मे गुरु सययमणुसासयति ते हं गुरु सययं पूययामि ॥
लज्जा दया संयमो ब्रह्मचर्यं
कल्याणभागिनः विशोधिस्थानम् ।
ये माँ गुरवः सततमनुशासन्ति
तानहं गुरून् सततं पूजयामि ॥ (१४-१५)
जहा निसंते तवणच्चिमाली पभासई केवल भारहं तु । एवायरिओ सुयसीलबुद्धि ए
विरायई सुरमज्मे ब इंदो ॥
जहा ससी को मुद्द जोगजुत्तो तारागणपरिबुडप्पा
नक्खत्त
·
खे सोहई विमले अम्ममुक्के एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे ॥
1
दशर्वकालिकसूत्र
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२१३
(१२) चौपाई- जाके निकट धरम पद धारे, ताके निकट विनय संचारे ।
सिर-अंबुलि-जुत आवर करई, नित मन वचन करम अनुचरई॥
अर्थ-जिस गुरु के समीप धर्म-पदों को सीखे, उसके समीप विनय का प्रयोग करे। शिरको झुका कर, हाथों को जोड़कर काया, वाणी और मन से उसका सदा सत्कार करे।
कवित्तनिन्दा-भय-रूप लाज, अनुकम्पारूप दया, जीवनि की रक्षा सोई संजम कहा है। तथा 'ब्रह्मचरज' ये चारो कर्म-मल हारी, थान सो कल्यान-भागी जन के बताव है। जोई गुरु सदा ऐसो सासन करत मोक, 'वा गरुकों सदा मैं तो पूचं ऐसो चार्य है। सोई है विनीत सोई है है जगजीत सोई, शिष्य सदा भक्ति-भरे ऐसे भाव भाव है।
अर्थ-लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य कल्याणभागी साधु के लिए विशोधि स्थल है । जो गुरु मुझे उनकी सतत शिक्षा देते हैं, उनकी सदा पूजा करता हूँ।
(१४-१५) छंद मुक्तादाम
जया निसि-नास भए पर सूर, प्रकासत भारत को भरपूर । आचारज त्यों श्रुत-शील मती हि, लसै जिमि देवनि देव-पतीहि ।। विना घन निर्मल पाय अकास, कर ससि कौमुदि संग प्रकास । नखत्रनि तारनि के गन-माहि, लखै गनि त्यों मुनि लोकनि माहि॥
अर्थ-जैसे रात्रि के अन्त होने पर दिन में तपता हुआ सूर्य सारे भारतवर्ष को प्रकाशित करता है, वैसे ही श्रत, शील बुद्धि से संम्पन्न आचार्य विश्व को प्रकाशित करता है । और जिस प्रकार देवों के मध्य में इन्द्र शोभा पाता है उसी प्रकार
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दशकालिकसूत्र
२१४
संत
यथा निशान्ते तपन्नर्चिमाली
प्रभासते केवनं भारतं तु । एवमाचार्यः श्रुतशीलबुद्धया
विराजते सुरमध्य इव चन्द्रः ।। यथा शशी कौमुदीयोगयुक्तो
नक्षत्र-तारागणपरिवृतात्मा । खे शोभते विमलेनमुक्ते
एवं गणी शोभते भिक्षुमध्ये ।।
मूल
संस्कृत--
महागरा आयरिया महेसी ___ समाहिजोगे सुयसीलबुद्धिए । संपाविउकामे अणुतराई
आराहए तोसए धम्मकामी ॥ महाकरान् आचार्यान् महर्षिणः
समाषियोगस्य श्रुतशीलबुद्धया । सम्प्राप्तुकामोऽनुत्तराणि
आराधयेत्तोषयेद्धर्मकामी ।।
(१७) सोच्चाण मेहावी सुभासियाई
सुस्सूसए मायरियमप्पमत्तो । आराहइत्ताण गुणे अणेगे
से पावई सिद्धिमणुत्तरं ॥ -त्ति बेमि श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि
शुभ षयेत् आचार्यान् अप्रमत्तः । आराध्य गुणान् अनेकान्
सः प्राप्नोतिसिद्धिमनुत्तराम् ।। - इति बबीमि नवम विषय-माही अनायणे पामो उद्देतो समत्त ।
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२१५
साधुओं के बीच में आचार्य शोभता है। जिस प्रकार मेघ-मुक्त निर्मल आकाश में नक्षत्र और तारागण से परिवृत्त शरद् चन्द्र शोभा पाता है, उसी प्रकार भिक्षुओं के बीच में गणी शोभा पाता है ।
(१६)
कवित
ज्ञान आदि रत्ननि की खान ही महान जान, महारिसि आचारज उत्तम उपाधिये । ध्यान हू तं श्रुतके अभ्यास हू तं शील हू लें, बुद्धिहू विशुद्ध करि वाकी सेव साधिये । जासों बढ़ि उत्तम नहीं है कोऊ काहू बल, ऐसी मुकती को लंनों चाहे जो अवाधिये । कामना घर है जी पे धर्म को अराधवे की, उनको प्रसन्न कीजे, उनको अराधिये ॥
अर्थ - अनुत्तर ज्ञान आदि गुणों की संप्राप्ति की इच्छा रखने वाला मुनि कर्मनिर्जरा का अर्थी होकर समाधियोग, श्रुत, शील और बुद्धि के महान आकर (खानि) मोक्ष की एषणा करनेवाले आचार्य की आराधना करे और उन्हें प्रसन्न करे ।
छंद मुक्तादाम
(१७)
सुभाषित कों सुनिके मतिवान, अचारज सेव अनालस ठान । अनेकनि नेक गुनानि अराध, अनुसर पावत मोक्ष अबाध ॥
अर्थ — मेधावी मुनि इन सुभाषितों को सुनकर अप्रमत्त रहता हुआ आचार्य
की शुश्रूषा करे । इस प्रकार अनेक गुणों की आराधना कर अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त करता है ।
ऐसा मैं कहता हूँ |
नवम विनय-समाधि अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त |
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मूल
संस्कृत
मूल
नवम विणयसमाही अज्कयणं
(बीओ उद्दे सो)
मूलाओ
(१-२ ) खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाओ पच्छा समुर्वेति साहा 1 साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता
तओ से पुष्कं च फलं रसो य ॥ एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मोक्खो । जेण किति सुय सिग्धं निस्सेसं चाभिगच्छई ॥
मूलात्स्कन्धप्रभवो
संस्कृत-
शाखाः ।
स्कन्धात्पश्चात्समुपयन्ति शाखाभ्यः प्रशाखा विरोहन्ति पत्राणि ततस्तस्य पुष्पं च फलं च रसश्च ।।
एवं धर्मस्य
येन कीर्ति
द्र मस्य
विनयो मूलं परमस्तस्य मोक्षः । तं श्लाघ्यं निःशेषं चाधिगच्छति ॥ (३)
दुव्वाई नियडी
जे य चंडे मिए थद्ध बुज्झइ से अविणीयप्पा कट्ठे सोयगयं
यश्च चण्डो मृगः स्तब्धो दुर्बादी निकृतिः उते सोऽविनीतात्मा काष्ठं स्रोतोगतं
२१६
सढे |
जहा ॥
शठः ।
यथा ॥
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
(द्वितीय उद्देशक)
(१--२) कवित मूल उतपन्न भये पेड़ उतपन्न होत; पेड़ के पार्छ तर-साखा उपजति है, सालातें प्रसाला पुनि पत्र उपजत आन, ताप फूल फल रस हू की उतपति है। तैसे ई विनय-मूल धरम-तरु को अहे, परम सुरस-रूप ताकी सिख गति है, विनयत कीरति विनय ही तें श्रुत-गति, विनय तें सकल बढ़ाई हू मिलति है ॥
अर्थ-वृक्ष के मूल के स्कन्ध उत्पन्न होता है, स्कन्ध के पश्चात् शाखाएं आती हैं, शाखाओं में से प्रशाखाएं निकलती हैं । उसके पश्चात् पत्र, पुष्प फल और रस होता है । इसी प्रकार धर्म का मूल विनय है और उसका अन्तिम फल मोक्ष है। विनय के द्वारा मुनि कीर्ति, श्लाघा (प्रशंसा), श्रुत और समस्त इष्ट तत्त्वों को प्राप्त होता है।
अरिल्लजो क्रोधी मति-हीन गरव में लीन है, कपटी बचन कठोर र संजम हीन है। वहे वहै अविनीत सृष्टि को सोर में, जैसे काठ वहंत स्रोत के नोर में ॥
____ अर्थ-जो चण्ड (क्रोधी), मृग (मूर्ख, अज्ञ). स्तब्ध (मानी), अप्रियवादी, मायावी और शठ है वह अविनीतात्मा संसार के स्रोत (प्रवाह) में वैसे ही प्रवाहित होता रहता है जैसे कि नदी के स्रोत में पड़ा हुमा काठ बहता रहता है।
२१७
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२१६
मूल
संस्कृत-
---
मूल --
मूल
संस्कृत
(४)
विजयं पि जो उवाएणं चोइओ दिव्यं सो सिरिमेज्जति दंडेण
--
विनयमपि य उपायेन चोदितः दिव्यां स श्रियमायान्तीं दण्डेन
( ५-६ )
संस्कृत - तथैवाविनीतात्मान
दृश्यन्ते
तथैव
दृश्यन्ते
तहेव
दोसंति
अविणीयप्पा उववज्झा हया गया ।
तहेव दीसंति दुहमेहंता अभिगमुट्ठिया ॥ सुविणीयप्पा उववज्झा हया गया । सुहमेहता इढिपत्ता महायसा ॥
दशवेकालिकसूत्र
कुप्पई नरो । पहिए |
तहेव
दीसंति
कुप्यति नरः । प्रतिषेधति ॥
उपवाह्या हया गजाः ।
दुःखमेधमानाः अभियोग्यमुपस्थिताः ॥ मुविनीतात्मान उपवाह्या या गजाः । सुखमेधमानाः ऋद्धि प्राप्ता महायशसः ॥
(७–८) अविणोयप्पा लोगंसि नर-नारिओ ।
विगलितेंदिया ||
दुहमेहंता छाया दंड-सत्थ परिजुष्णा असम्भ वयणेहि य । कलुणा विवन्नछंश खुप्पिवासाए - परिगया ||
-
नायः ।
तथैवाविनीतात्मानो लोके नर दृश्यन्ते दुःखमेघमाना 'छाता' विकलितेन्द्रियाः ।। दण्ड-शस्त्राभ्यां परिजीर्णाः
वचनश्च ।
असभ्य विपन्नच्छन्दसः क्षुत्पिपासया परिगताः ।।
करुणा
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
अरिल्स -
-
(४)
विनय धरम में प्रेरित काहु उपायतें, जो जन कोपित होवत होन सुभाय तें । दिव्य रमा को आवति को वह मानवी, ताड़त दंड दिलाय सही वह मानवी ॥
२१६
अर्थ - विनय में उपाय के द्वारा भी प्रेरित करने पर जो कुपित होता है, वह आती हुई दिव्य (स्वर्ग) लक्ष्मी को दण्डे से रोकता है ।
(५- ६)
अरिल्ल
त्यों सेनापति आदिन के गज घोर हैं, ते दुख पावत हैं देखन में आवते, त्यों सेनापति आदिन के गज घोर हैं, करते सुख के भोग सु देखे जावही,
आतम में अविनीतपनो धरि जो रहें । सेवा सहत करूर दंड पुनि पावते || आतम में सुविनीतपनो धरि जो रहें । रिद्धि हु पावत जगत बड़ो जस गावही ॥
अर्थ -- जो उपवाह्य (सवारी और युद्ध के काम में आने वाले) घोडे और हाथी अविनीत होते हैं. वे सेवाकाल में दुःख भोगते हुए देखे जाते हैं । किन्तु जो उपवाह्य घोड़े और हाथी सुविनीत होते हैं वे ऋद्धि और महान यश को पाकर सुख को भोगते हुए देखे जाते हैं ।
(७–८)
रिल्ल
तसे ही या जग में जे नर नार हैं, जिनके आतम में नहि विनय विचार है । होन सु देले जात हैं । अजोग सुनें अपमान ते
क्षत-विक्षत हो देह, तथा दुख पात हैं, दंड आयुधनि व्याकुल होय ते प्रान त, भरे दीनता-भाव परे पर-हाथ हैं, भूो प्यासे पीड़ित देखे जात हैं ।।
इन्द्रिय-गनते कडुए बैन
अर्थ - लोक में जो पुरुष और स्त्री अविनीत होते हैं, वे क्षत-विक्षत या दुर्बल, इन्द्रिय-विकल, दण्ड और शस्त्र के प्रहारों से जर्जर, असभ्य वचनों के द्वारा तिरस्कृत, करुण, परवश, भूख और प्यास से पीड़ित होकर दुख को भोगते हुए देखे जाते हैं ।
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२२०
मूल- तहेव दीसंति
संस्कृत — तथैव दृश्यन्ते
मूल
मूल -
मूल
तहेव
दीसंति
संस्कृत -- तथैवाविनीतात्मानो
दृश्यन्ते
तथैव
दृश्यन्ते
मस्कृत
तव
दीसंति
-
संस्कृत - ये
(2)
सुविणीयप्पा लोगंसि नर-नारिओ । सुहमेहता इटिं पत्ता महायसा ॥
दशवैकालिकसूत्र
नर
नार्यः ।
सुविनीतात्मानो लोके सुखमेधमाना ऋद्धि प्राप्ता महायशसः ।।
( १० - ११)
अविणीयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा ।
दुहमेहंता अभियोगमुट्ठिया ॥ सुविणीयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा । सुहमेहंता इटिं पत्ता महायसा ॥
-
देवा यक्षाश्च गुह्यकाः । दुःखमेधमाना आभियोग्यमुपस्थिताः ॥ सुविनीतात्मानो देवा यक्षाश्च गृह्यकाः । सुखमेधमाना ऋद्धि प्राप्ता महायशसः ।। (१२) जे आयरिय- उवज्झायाणं सुस्सुसा arjकरा । तेसि सिक्खा पवति जलसित्ता इव पायवा ॥
आचार्योपाध्याययोः
सुश्रूषावचनकराः । तेषां शिक्षा प्रवर्धन्ते जलसिक्ता इव पादपाः ॥ ( १३ – १४ ) अप्पणट्ठा परट्ठा वा सिप्पा णेउणियाणि य । गिहिणो उवभोगट्ठा इह लोगस्स कारणा ॥ जेण बंध वहं घोरं परियावं च दारुणं । सिक्खमाणा नियच्छंति जुत्ता ते ललिइंदिया ॥
आत्मार्थं
परार्थं वा शिल्पानि नैपुण्यानि च ।
गृहिण
उपभोगार्थं इहलोकस्य कारणाय ।।
येन बन्धं वधं घोरं परितापं च दारुणम् ।
शिक्षमाणा नियच्छन्ति युक्तास्ते
ललितेन्द्रियाः ॥
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२२१
(e)
अरिल्ल
तसे ही या जग में जे नर-नार हैं, जिनके आतम में सत विनय विचार है । करते सुख के भोग सु देखे जावहीं, रिद्धि हु पावत, जगत बड़ो जस गावही॥
अर्थ-लोक में जो पुरुष या स्त्री सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान यश को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं।
(१०-११) बोहा- तथा आत्म-अविनीत जे गुह्यक यक्ष रु देव ।
दोसत हैं दुख भोगते, करत पराई सेव ॥ तथा आत्म-सुविनीत जे, गुह्यक देव ह यक्ष ।
लिये रिति अरु जस महा, सुख भोगत प्रत्यक्ष ॥
अर्थ-जो देव, यक्ष और गुह्यक (भवनवासी देव) अविनीत होते हैं, वे सेवाकाल में दुःख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं। किन्तु जो देव, यक्ष और गुह्यक सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान यश को पाकर सुख भोगते हुए देखे जाते हैं।
(१२) पडरी- जो जन आचारज उपाध्याय, सेवत सत वननि सों सुभाय ।
तिनको शिक्षा इम बढ़त जात, जल सींचत ज्यों तरुवर बढ़ात ॥ अर्थ-जो साधु आचार्य और उपाध्याय की सुश्रूषा और आज्ञा-पालन करते उनकी शिक्षा जल से सींचे गये वृक्ष के समान बढ़ती है।
(१३-१४) परी- अपने अथवा और के हेत, पटुपनो शिल्प-शिक्षा-समेत ।
इह लोक-अराधन भोग-माय, सोहौं जु गृही जन मन लगाय ॥ तिनमें लगि वे कोमल सरीर, सोलत-वेला पावं मु पोर । बध बन्ध तथा परिताप जोर, गुरुदेव भयानक अरु कठोर ।।
अर्ष-जो गृहस्थ अपने दूसरों के लिए इह लौकिक उपभोग के निमित्त शिल्प और कला-नैपुण्य सीखते हैं, वे शिल्प ग्रहण करने में लगे हुए पुरुप ललितेन्द्रिय (कोमल सुकुमार शरीर) होकर भी शिक्षा-काल में घोर बन्ध, वध और दारुण परिताप (सन्ताप) को प्राप्त होते हैं।
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२२२
दशवकालिकसूत्र
(१५) मूल- तेवि तं गुरु पूति तस्स सिप्पस्स कारणा ।
सक्कात नमसंति तु निद्देसवत्तिणो।। सस्कृत- तेऽपि तं गुरु पूजयन्ति तस्य शिल्पस्य कारणाय ।
सत्कुर्वन्ति नमस्यन्ति तुष्टा निर्देशवर्तिनः ।।
मूल- किं पुण जे सुयग्गाही अणंतहियकामए ।
आयरिया चं वए भिक्षु तम्हा तं नाइवत्तए । संस्कृत- किं पुनर्यः श्रुतग्राही अनन्तहितकामकः । आचार्या यद् वदेयुः भिक्षुस्तस्मात्तन्नातिवर्तयेत् ।।
(१७-१८) मूल- नीयं सेज गइं ठाणं नीयं च आसणाणि य ।
नीयं च पाए वंवेज्जा नीयं कुज्जा य अंजलि ॥ संघट्टइत्ता कारणं तहा उवहिणामवि ।
खमेह अवराहं मे वएन्ज न पुणो ति य॥ संस्कृत- नीचां शय्यां गतिं स्थानं नीचं चासनानि च ।
नीचं च पादौ वन्देत नीचं कुर्याच्चाञ्जलिम् ॥ संघट्य कायेन तथोपधिनापि । क्षमस्वापराधं मे वदेन्न पुनरिति च ॥
मूल- दुग्गओ वा पओएणं चोइओ बहई रहं ।
एवं दुम्बुद्धि किच्चाणं वृत्तो कुत्तो पकुव्बई ॥ संस्कृत- दुर्गतो वा प्रतोदेन चोदितो वहति रथम् ।
एवं दुर्बुदिः कृत्यानां उक्त उक्तः प्रकरोति ।।
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२२३ (१५) परी- ते हू ता गुरु को करत सेव, ता शिल्प-कला के हेतु एव ।
सत्कार करत अर परत पाय, आज्ञा-वश-वर्तत मुक्ति माय ।
अर्थ-वे जन भी उस शिल्प-कला के लिए उस गुरु की पूजा करते हैं, सत्कार करते हैं, नमस्कार करते हैं और सन्तुष्ट होकर उसकी आज्ञा का पालन करते हैं।
(१६) पडरी-फिर कहा, करत श्रुत-ग्रहण जोय, चाहत अनन्त-हित वह न जोय ।
यातें आचारज जो कहत, नहिं करें उलंघन ताहि संत ॥
अर्थ - जो श्र त-ग्रहण करने वाला और अत्यन्त हितस्वरूप मोक्ष का इच्छुक है उसका फिर कहना ही क्या है । इसलिए आचार्य जो कहे, भिक्षु उसका उल्लंघन न करे।
(१७-१८) कवित्तनीची सेज नीची गति, नीचोई निवास गहै. आसन हू नीचो गुरुदेव ज ते गहिये, नीचे मुकि चरन-कमलकों नमन कोजे, नोचे नमि शीस निज अंजुली हू लहिये। काया उपकरन गुरु के जो परस भये ताप कर जोर ऐसे नन होय रहिये, अहो भगवाद, अपराध मेरो क्षमा करो, 'अब न करू गो ऐसो' ऐसे कछु कहिये।
अर्थ- साधु को चाहिए कि वह आचार्य से नीची अपनी शय्या रखे, नीची गति करे, नीचे खड़ा रहे, नीचा आसन रखे, नीचा होकर आचार्य के चरणों की वन्दना करे और नीचा होकर अंजलि करे (हाथ जोड़े) । अपनी काया से तथा उपकरणों से एवं किसी दूसरे प्रकार से आचार्य का स्पर्श हो जाने पर शिष्य इस प्रकार कहे-भगवन् ! आप मेरा अपराध क्षमा करें, मैं फिर ऐसा नहीं करूंगा।
(१९) सविलंबित
बलद ज्यों बिगरेल सुभाय के, चपत चाबुक ताड़न पाय के।
रव चलावत, त्यों सिख दुर्मती, करत काज कहाय कहाय के ।
अर्ष-जैसे दुष्ट बैल चाबुक आदि से प्रेरित होने पर रथ को वहन करता है, वैसे ही दुर्बुद्धि शिष्य आचार्य के बार-बार कहने पर कार्य करता है ।
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दशवकालिकसूत्र
(२०) मूल- आलवंते लवंते वा न निसज्जाये पडिस्सुणे ।
मोत गं आसणं धोरो सुस्सूसाए पडिस्सुणे ॥ संस्कृत- आलपन्तं लपन्तं वा न निषद्यायां प्रतिशृणुयात् । मुक्त्वाऽऽसनं धीरः शुश्रूषया प्रतिशृणुयात् ।।
(२१) मूल- कालं छंबोवयारं च पडिलेहिताण हेहि ।
तेण तेण उवाएण तं तं संपग्विायए॥ संस्कृत- कालं छन्दोपचारं च प्रतिलेख्य हेतुभिः । तेन तेन उपायेन तत्तत्संप्रतिपादयेत् ।।
(२२) मूल- विवत्ती अविणीयस्स संपत्ती विणियस्स य ।
जस्सेयं बुहमओ नायं सिक्खं से अभिगच्छइ ।। संस्कृत- विपत्तिरविनीतस्य सम्पत्तिविनीतस्य च ।
यस्यतद्विधा ज्ञातं शिक्षा सोऽभिगच्छति ॥
मूल
जे यावि चंडे मइ इढिगारवे
पिसुणे नरे साहस होणपेसणे। आबवने विणए अकोविए
असंविभागी न हु तस्स मोक्खो॥ यश्चापि चण्डो मतिऋद्धिगौरवः
पिशुनो नरः साहसो हीनप्रेषणः । अष्टधर्मा विनयेऽकोविदो
संविभागी न खलु तस्य मोक्षः ॥
संस्कृत
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२२५
(२०) द्रुतविलंबित
कषित एक तथा बहु वेर के, थित स्व-आसन शासन ना सुन'।
तनि तुरंतिहिं आसन धोर सो, विनय-संजुत वैनन को सुन ।
अर्थ-बुद्धिमान शिष्य गुरु के एक बार या बार-बार बुलाने पर कभी भी बैठा न रहे. किन्तु आसन को छोड़कर शुश्रू पा के साथ उनके वचन को स्वीकार करे।
(२१) दूतविलंबित
समय को गुरु के उरभाव कों, तिम हि सेवन के उपचार हो ।
लखि भली विधि तासु उपावकों, करत काज तथा अनुसार ही ॥
अर्थ-ऋतुओं के काल को, हृदय के अभिप्राय को और आराधना की विधि को हेतुओं से जानकर उस-उस उपाय के द्वारा उस-उस प्रयोजन को पूरा करे ।
(२२)
दुतविलवित
विपति होत सदा अविनीत कों, तिमहिं संपति होत विनीत कों।
जिन लिये यह दोनऊ जान हैं. सु जन पावत सुंदर ज्ञान हैं ।।
अर्थ-अविनीति शिष्य को विपत्ति प्राप्त होती है और विनीत शिष्य को संपत्ति प्राप्त होता है, ये दोनों बातें जिसने जान ली हैं, वही शिष्य शिक्षा को प्राप्त होता है।
कवित्तचंड है सुभाव जाको क्रोध को अधिकता तें, रिद्धि को बड़ाई जाको बुद्धि में समानी है, चारी को करया खोटो साहस धरैया तथा गुरु के वचन नहिं मानं अभिमानी है। धर्म सों अजान त्यों न विनय सुजान सोई वजित विभाग, मति स्वारय सों सानी है, नाही जन माहीं ऐसे औगुन परे हैं आन, कैसे हू मुफति ऐसो पावत न प्रानी है।
__ अर्ग- जो नर चण्ड है, जिसे बुद्धि और ऋद्धि का गर्व है, जो पिशुन (चुगलखोर) है, साहसिक है जो गुरु की आज्ञा का यथासमय पालन नहीं करता, धर्म के स्वरूप को नहीं जानता, विनय से अपरिचित है और साथी साधुओं को लाये भोजन में से विभाग कर नहीं देता है, उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता है।
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२२६
मल
दशवकालिकसूत्र
(२४) मल- नि सवत्तो पुण जे गुरुणं
सुयत्थधम्मा विणयम्मि कोविया । तरित ते ओहमिणं दुरुत्तरं खवित्त कम्मं गइमुत्तमं गया॥
- ति बंमि संस्कृत- निर्देशवर्तिनः पुनर्ये गुरूणां
श्रुतार्थधर्माणो विनये कोविदाः। ती ते ओघमिमं दुरुत्तरं क्षपयित्वा कर्म गतिमुत्तमां गताः॥
-इति ब्रवीमि नवम विणय-समाही मनायणे बीओ उद्दे सो सम्मत्त ।
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२२७
(२४) कवित्त
गुरु अनुसासन में वह अनुसार सबा, आगम घरमह के ज्ञाता अति नीके है, बिनय धरम हू में परम प्रवीन भये, जिनमें सुलन्छ सारे सहज जती के हैं। दुस्तर जगत-जलनिधि को तरत तेई, करत विनास सब करम कृती के है, हुये अरु होवत है, होहिंगे ऐसे जना प्रापत करैया परमोत्तम गती के हैं।
अर्ष-जो गुरु के आज्ञाकरी हैं, जिनने धर्म का स्वरूप सुना और जाना है, जो विनय में कोविद (चतुर हैं), वे साधु इस दुस्तर संसार-समुद्र को तरकर और कर्मों का क्षयकर उत्तम गति को प्राप्त होते हैं ।
ऐसा मैं कहता हूँ। नवम विनय-समाधि अध्ययन में द्वितीय उद्देशक समाप्त ।
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नवम विणयसमाही अज्झयणं
(तइयो उद्देसो)
भूल
संस्कृत--
आयरियं अग्गिमिवाहियग्गी
सुस्सूसमाणो पडिजागरेज्जा । आलोइयं इंगियमेव नच्चा
जो छंदमाराहयइ स पुज्जो॥ आचार्यमग्निमिवाहिताग्निः
शुश्रूषमाणः प्रतिजागृयात् । आलोकितं इंगितमेव ज्ञात्वा यश्छन्दमाराधयति स पूज्यः ॥
(२) आयारमट्ठा विणयं पउंजे
सुस्सूसमाणो परिगिजस वक्कं । जहोवइठें अभिकंखमाणो
गुरु तु नासाययई स पुज्जो ॥ आचारार्थ विनयं प्रयुञ्जीत
शुश्रूषमाणः परिगृह्य वाक्यम् । यथोपदिष्टमभिकांक्षन् गुरु तु नाशातयति स पूज्यः ।।
२२८
मूल
संस्कृत
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नवम विनयसमाधि अध्ययन
(तृतीय उद्देशक)
बेतालछन्द- अगनिहोत्री करत जैसे अगनि को सनमान,
आचार्य की आराधनामें त्यों धरै अवधान । दोठ-इंगित सों हिये के भाव को लखि जोय,
__ करत सेवा भलो विधि सों पूज्य सोई होय ।। अर्थ-जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण अग्नि की शुश्र षा करता हुआ सदा जागरूक (सावधान) रहता है, वैसे ही जो साधु आचार्य की शुध पा करता हुआ सदा सावधान रहता है, जो आचार्य के आलोकित (अवलोकन-दृष्टि) और इंगित (हृदय के अभिप्राय) को जानकर जो तदनुकूल उनकी आराधना करता है, वह साधु पूज्य है।
वेतालछन्द- करन हेतु आचार-प्रापति करइ विनय-प्रयोग,
गहत गुरु के वचन कों मवचन के संजोग । जया गुरु उपदेश दोनों चहत करनों सोय,
खेद उपजावै न गुरु को पूज्य सोई होय ।। अर्थ-जो साधु पांच प्रकार के आचार की प्राप्ति के लिए विनय का प्रयोग करता है, आचार्य की शुश्रुषा करता हुआ उनके वचनों को ग्रहण कर उपदेश के अनुसार आचरण करता है और जो गुरु की किसी भी प्रकार से आशातना नहीं करता है, वह पूज्य है।
२२६
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२३०
मूल
संस्कृत
मूल
संस्कृत
मूल
संस्कृत----
राइणिसु
(३) विणयं पउंजे
डहरा विय जे परियाय जेट्ठा ।
नियत्तणे वट्टई
सच्चवाई
ओवायवं वक्ककरे स पुज्जो ॥
रात्निकेषु
विनयं प्रयुञ्जीत
डहरा अपि ये पर्याय ज्येष्ठाः । सत्यवादी
वर्त
अवपातवान् वाक्यकरः स पूज्यः ।। (४)
अन्नायउ छं चरई विसुद्ध जवणट्ठया समुयाणं च निच्चं । नो परदेवएज्जा लद्ध न विकत्थयई स पुज्जो ॥
अलद्धयं
अज्ञातोञ्छं
नीचत्वे
जो
अलब्ध्वा
य
चरति विशुद्ध
यापनार्थं समुदानं च नित्यम् ।
संथार
•
न परिदेवयेत्
लब्ध्वा न विकत्थते स पूज्यः ॥ (५) सेज्जासण - भत्तपाणे
अपिच्छया अइलाभे वि संते । एवमप्पाणऽमितोसएज्जा
संतोसपाहारए स पुज्जो ॥
शय्यासन
भक्तपाने अल्पेच्छताऽतिलाभेऽपि सति ।
: एवमात्मानमभितोषयेत् सन्तोषप्राधान्यरतः
स
संस्तार
-
पूज्यः ॥
नावजाले सूत्र
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नवम विमय-समाधि अध्ययन
बेतालछन्द- होय जिनमें अधिक गुन, तिनमें विनय वरताय,
बालवयह प्रथम दीक्षा लई जिनने माय । नम्रता सों सदा वरतं सत्यभाषी सोय,
प्रनत भावनि सों रहै मुनि पूज्य सोई होय ॥ अर्थ-जो अल्पवयस्क होने पर भी दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ हैं, उन पूजनीय साधुओं के प्रति जो विनय का प्रयोग करता है, जो नम्र व्यवहार करता है, जो सत्यवादी है, जो गुरु के समीप सदा रहता है और गुरु की आज्ञा का विनय-भक्ति से गलन करता है, वह साधु पूज्य है।
बेतालछन्द- कुल अजानहु तें सदा गहि अलप अलप महार,
उचित रीतिहु ते निवाहत राह संजम सार । जो न पाये तो नहीं कछु सोच मानत जोय,
पाय के वरन नहीं कछ, पूज्य सोही होय ॥ अर्थ-जो साधु जीवन-यापन के लिए अपना परिचय न देते हुए विशुद्ध सामुदायिक उञ्छ (भिक्षा) की सदा चर्या करता है, जो भिक्षा न मिलने पर खेद नहीं करता और मिलने पर अपनी श्लाघा (प्रशंसा) नहीं करता है, वह साधु पूज्य है।
(५) बेतालछन्द . सयन-आसन पान-मोजन, त्यों संचारक जोय,
बहुत पाये हू हिये जिहिं अलप इच्छा होय । या प्रकार जु आतमा में तोष मानत जोय,
मुल्य मानत जो संतोसहि, पूज्य मो ही होय ॥ अर्थ – संस्तारक, शय्या, आसन, भक्त और पान का अधिक लाभ होने पर भी जिसकी इच्छा अल्प होती है, जो आवश्यकता से अधिक नहीं लेता, जो इस प्रकार जिस किसी भी वस्तु से अपने आपको सन्तुष्ट कर लेता है और जो सन्तोषप्रधान जीवन में निरत है, वही साधु पूज्य है।
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दशवकालिकसूत्र
२३२
(६) सक्का सहे आसाए कंटया
अओमया उच्छहया नरेणं । अणासए जो उ सहेज्ज कंटए
वईमए कण्णसरे स पुज्जो॥ शक्याः समाशयः कण्टकः
अयोमया उत्सहमाणेण नरेण । अनाशया यस्तु सहेत कण्टकान्
वाङ्मयान् कर्णशरान् स पूज्यः ।।
संस्कृत
मूल
मुहत्तदुक्खा हु हवंति कंटया
अओमया ते वि तओ सुउद्धरा । वाया • दुरुत्तागि दुखराणि
वेराणुबधीणि महाभयाणि ॥ मुहूर्तदुःखास्तु भवन्ति कण्टकाः
अयोमयास्तेऽपि ततः सूद्धराः । वाग • दुरुक्तानि दुरुद्धराणि
वैरानुबन्धीनि महाभयानि ॥
संस्कृत
मूल
समावयंता वयणाभिघाया
कणंगया दुम्मणियं जणंति । धम्मो ति किच्चा परमग्गसूरे
जिइ दिए जो सहई स पुज्जो॥ समापतन्तो वचनाभिघाताः
कर्णंगता दौर्मनस्यं जनयन्ति । धर्मेति कृत्वा परमाग्रसूरोः
जितेन्द्रियो यः सहते स पूज्यः ।।
संस्कृत
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
(६)
अरथ की करि आस, होत समरथ सहनकों जो लोह-कटक- त्रास । करन के सर वचन मय जे कठिन कंटक होय, विनहि आसाके सके सहि, पूज्य सो ही होय ||
वंतालछन्द - अरथ इच्छुक पुरुष जैसे
वेतालछन्द
अर्थ - पुरुष धन आदि की आशा से लोहमय कांटों को सहन कर लेता है, परन्तु जो किसी भी प्रकार की आशा के बिना कानों में प्रवेश करते हुए वचन रूपी काँटों को सहन करता है, वह साधु पूज्य है ।
(७)
२३३
लोह के कंटक लागत ते कछु कालहि पीर करं तन माहीं, जो कछु यत्न करें तिनको तब तो सहजे तनसों कढ़ि जाहीं । वाक्य कहे कड़ए जु कठोर उघारन तो सहजं तिन नाहीं,
वर के बंधन हार अहैं वह घोर भयंकर हू पुनि आहीं ॥ अर्थ — लोहमयी कांटे अल्पकाल तक दुःखदायी होते हैं और वे शरीर में से सरलतापूर्वक निकाले जा सकते हैं । परन्तु दुर्वचन रूपी कांटे सहज में नहीं निकाले जा सकते । तथा वे वैर की परम्परा को बढ़ाने वाले और महा भयानक होते हैं ।
(८)
वेतालछन्द - दुखद वैन प्रहार को जब जूथ आवत होय,
लवन में परवेस करि मन धरम ताकों जानके मट परम
करत खेदित सोय । अगुआ जोय, इंद्रिय-जयो जो सहत उनकों, पूज्य सोई होय ॥
अर्थ -- सर्व ओर से आते हुए वचन के प्रहार कानों में पहुंचकर दौर्मनस्य उत्पन्न करते हैं । जो शूरवीर व्यक्तियों में अग्रणी जितेन्द्रिय पुरुष 'इन्हें सहन करना
1
मेरा धर्म है' यह मानकर उन्हें सहन करता है, वह साधु पूज्य है ।
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२३४
मूल
संस्कृत
मूल -
संस्कृत
मूल
संस्कृत -
अवण्णवायं
परम्मुहस्स पच्चक्सओ परिणीयं च भासं । ओहारिणि अप्पियकारिणि च भासं न भासेज्ज सया स पुज्जो ॥
अवर्णवाद
(e)
पराङ्मुखस्य
प्रत्यक्षतः प्रत्यनीकां च भाषाम् ।
च
च
अवधारिणीमप्रियकारिणीं
गुण :
भाषां न भाषेत सदा स पूज्यः ॥
(१०)
अलोलुए
अक्कुहए
अपिसुणे आवि नो भावए नो वि य भावियप्पा अकोउहल्लो य सया स पुज्जो ॥
अलोलुपोऽकुहको माय
विज्ञाय
अपिशुनश्चापि अदोनवृत्तिः । नो भावयन्नो अपि च भावितात्मा अकौतूहलश्च सदा स पूज्यः ॥ (११) गुणेहि साहू अगुणेहि साह गिण्हाहि साहु-गुण मुंचऽसाहू । वियाणिया अप्यगमप्पणं
जो रागदोसेहि समो स पुज्जो ॥
साघुरगुणैरसाधुः
गृहाण साधु गुणान् मुञ्चासाधून् । आत्मकमात्मकेन
यो राग-द्वेषयोः समः स पूष्यः ।
अमाई
अदोणवित्ती ।
दशवैकालिकसूत्र
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२३५
वेतालछन्द- काहु के सनमुख पीठ पीछे करत निवा जो न,
पर-विरोधिनि तथा निश्चित भनत भाखा को न । तथा अप्रियकारिणी नहि कहत उकती कोय,
सदा ऐसो वरतई जन पूज्य सोई होय ॥ अर्थ-जो किसी के पीछे उसका अवर्णवाद नहीं करता, जो सामने विरोधी वचन नहीं कहता, जो निश्चयकारिणी और अप्रियकारिणी भाषा को नहीं बोलता, वह पूज्य है।
(१०) वेतालछन्द- लोम में नहिं लगन जाकी, इन्द्रजाल-विहीन,
छल न धार, चारि टार, गहत वृत्ति अबीन । और सों नहिं जस करावत, आप करत न सोय,
कौतुकनि में रत नहीं जन, पूज्य सो हो होय ॥ अर्थ-जो रस-लोलुप नहीं होता, जो इन्द्र-जाल आदि के चमत्कार नहीं दिखाता, जो माया नहीं करता, जो चुगली नहीं खाता, जो दीनभाव से याचना नहीं करता, जो दूसरों से अपनी प्रशंसा नहीं करवाता, जो स्वयं भी अपनी प्रशंसा नहीं करता और जो कौतूहल नहीं करता, वही साधु पूज्य है ।
(११) वेतालछन्द- साषु होवत सद् गुननि तें, औगननि हि असाघु,
तजि असाधुपनो तथा प्रहि साधुके गुन साधु । आप ही सों आपको उपदेश-दाता जोय,
राग-द्वेष हु में रहै सम, पूज्य सो हो होय ॥ अर्थ- मनुष्य सद्गुणों से साधु होता है और असद्गुणों से असाधु होता है। इसलिए हे भिक्षो, साधुओं के गुणों को ग्रहण कर और असाधुओं के गुणों को छोड़ । आत्मा को आत्मा से जानकर जो राग और द्वेष में समभाव रहता है, वही साधु पूज्य है।
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२३६
दशवकालिकसूत्र
मूल
(१२) तहेव डहरं व महल्लगं वा
इत्थी पुमं पव्वइयं निहिं वा । नो होलए नो वि य खिसएज्जा
च कोहं च चए स पज्जो॥ तथव डहरं च महान्तं वा
स्त्रियं पुमान्सं प्रवजितं गृहिणं वा । नो होलयेन्नो अपि च खिसयेत्
स्तम्भं च क्रोधं च त्यजेत् स पूज्यः ।
संस्कृत
जे माणिया सययं माणयंति
जत्तण कण्णं व निवेसयंति । ते माणए माणरिहे तवस्सी
जिईदिए सच्चरए स पुज्जी॥ ये मानिताः सततं मानयन्ति
यत्नेन कन्यामिव निवेशयन्ति । तन्मानयेन्मानाहीतपस्विनो
जितेन्द्रियान सत्यरतान स पूज्यः ।।
संस्कृत-
मूल
तेसि गुरूणं गुणसागराणं
सोच्चाण मेहावि सुभासियाई। चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो
चउक्कसायावगए स पुज्जो ॥ तेषां गुरूणां गुणसागराणां
श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि । चरेन्मुनिः पञ्चरतस्त्रिगुप्तः
अपगतकषायचतुष्कः स पूज्यः ।।
संस्कृत
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२३७ (१२) बेतालछन्द- बाल हो या पुट हो, हो पुरुष अथवा नार,
प्रवजित हो या गृहस्थ हो, हो विज्ञ अथ बगवार । सुमिरन कराके कुकृत की लज्जित कर नहिं कोय,
मान अर जो क्रोध छोड़े पूज्य सो ही होय ॥ अर्थ-बालक या वृद्ध स्त्री या पुरुष, प्रबजित या गृहस्थ को दुश्चरित की याद दिलाकर जो लज्जित नहीं करता, उनकी निन्दा नहीं करता तथा जो गर्व और क्रोध का त्याग करता है, वही साधु पूज्य है।
(१३) बेतालछन्द- मान जिनको करत ते नित करत ताको मान,
सुता जसे जतन सों थिर करत उत्तम धान । मान-लायक गनिन कों माने तपस्वी जोय,
सत्य-रत इन्द्रिय-जयो जग-पूज्य सोई होय ॥ अर्थ- अभ्युत्थान आदि के द्वारा सम्मानित किये जाने पर जो शिष्यों का सदा सन्मान करते हैं, उन्हें श्रत ग्रहण के लिए प्रेरित करते हैं, पिता जैसे अपनी कन्या को यत्न-पूर्वक योग्य कुल में स्थापित करता है, वैसे ही जो आचार्य अपने शिष्यों को योग्य मार्ग में लगाते हैं, उन माननीय तपस्वी, जितेन्द्रिय और सत्यव्रतनिरत आवार्य का जो सन्मान करता है, वही साधु पूज्य है।
(१४) बेतालछन्द- सुगुन रत्ननि के जु सागर, तिन गुरुनि के जोय,
सुखद वनि को स्त्रवण करि बुद्धिमान जु होय । पंच व्रत-रत, गुपति-त्रय-जत चरत मुनिवर जोय,
टारि चार कसाय कों, जग-पूज्य सो हो होय ॥ अर्थ-जो मेधावी मुनि उन गुण-सागर गुरुजनों से सुभाषित सुनकर उनका आचरण करता है, पांच महाव्रतों में रत मन, वचन, काय से गुप्त रहता है तथा क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों को दूर करता है वही साधु पूज्य है।
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२३.
दशकालिकसूत्र
गुरुमिह सययं पडियरिय मुणी
जिगमयनिउणे अभिगमकुसले । पणिय रयमलं पुरेकर्ड
भासुरमउलं गई गओ ॥
-त्ति बेमि
संस्कृत
गुरुमिह सततं प्रतिचर्य मुनिः
जिनमतनिपुणोऽभिगमकुशलः । धूत्वा रजोमलं-पुराकृतं
भास्वरामतुला गतिगतः॥
-इति ब्रवीमि
नवम विषयसमाही अनायणे तइनो उद्देसो सम्मत्त ।
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२३६
रोलाछन- जो मुनि गुरुको सेव करत मलि मांति निरन्तर,
बोगिन-मत-परवीन, कुसल, अभिगम-सेवा-पर। पूरब-कृत रज-करम ध्वंस करि सो हित कामी,
अतुलनीय भास्वती सिडिगति को हस्वामी ॥ अर्ष-इस लोक में गुरु की निरन्तर सेवा कर, जिनमत में निपुण और अभिगम (विनय-प्रतिपत्ति) में कुशल साधु पूर्वकृत रज और मल (द्रव्य और भावकर्म) को दूर कर प्रकाशमान अनुपम सिद्धगति को प्राप्त होता है।
ऐसा मैं कहता हूं। नवम विनयसमाधि अध्ययन में तृतीय उद्देशक समाप्त ।
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मूल -
मूल
नवम विणयसमाही अज्झयणं (चउत्थो उद्देसो)
संस्कृत -- श्र ुतं मया आयुष्मन् तेन भगवता एवमाख्यातम् - इह खलु स्थविरैर्भगवद्भिश्चत्त्वारि विनयसमाधि स्थानानि प्रज्ञप्तानि ।
(१)
सुयं मे आउस तेण भगवया एवमक्खायं - इह खलु थेरेहि भगवंतेहि चत्तारि विणयसमाहिठाणा पन्नत्ता ।
मूल -
(२)
कयरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहि चत्तारि विजयसमाहिठाणा
पन्नत्ता ।
संस्कृत - कतराणि खलु तानि स्थविरैर्भगवद्भिश्चत्वारि विनयसः स्थानानि प्रज्ञप्तानि ।
(३)
इमे खलु तेथेरेहिं भगवंतहि चत्तारि विणयसमाहिठाणा पन्नत्ता । तं जहा - विजय : माही, सुयसमाही, तवसमाही आयारसमाही ।
,
विणए सुए अ तवे आधारे निच्चं पंडिया । अभिरामयति अप्पाणं जे भवंति जिड़ दिया ||
२४०
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
(चतुर्थ उद्देशक)
(१)
चौपाई- आयुष्मन, मैंने यह सुना, उन भगवान् ने ऐसा मना ।
चार विनय के समाधिस्थान, कहे थविर श्री वीर भगवान् ।।
अर्थ-हे आयुष्मन्, मैंने सुना है उन भगवान् ने इस प्रकार कहा-इस निर्ग्रन्थप्रवचन में स्थविर भगवन्त ने विनय-समाधि के चार स्थानों का प्रज्ञापन किया है।
चौपाई- सो वे कौन हैं चारों थान, जिससे हो मेरा कल्यान ।
करहु कृपा मो पर गुरुदेव, कहहु जासतें लहुँ सुख एव ।।
अर्थ-वे विनय-समाधि के चार स्थान कौन से हैं, जिनका स्थविर भगवन्त ने प्रज्ञापन किया है।
चौपाई- जिन्हें कहा स्थविर भगवंत, व चारों थानक इह भंत ।
विनय और श्रुत को नु समाधि, तपसमाधि, आचार-समाधि ।। दोहा- विनय और अत में तथा, तप में वा आचार ।
इनमें रत इन्द्रिय-जयी, पंडित गुणी विचार । पुतविलम्बित
विनय में श्रत में तप में तथा, मुनि अचारहु में निज-आत्म में। रहत है जु रमावत सर्वदा, वह जितेन्द्रिय होवत परिता ।।
२४१
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२४२
दशवकालिक सूत्र संस्कृत- इमानि खलु तानि स्थविरैर्भगवद्भिश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि
प्रज्ञप्तानि । तद्यथा-विनयसमाधिः, श्रुतसमाधिः, तपःसमाधिः, आचारसमाधिः । विनये श्रुते तपसि आचारे नित्यं पण्डिताः। अभिरामयन्ति आत्मानं ये भवन्ति जितेन्द्रियाः ।।
मूल- चम्विहा खलु विणयसमाही भवइ। तं जहा-अणुसासिज्जतो
सुस्सूसइ, सम्म संपडिवज्जइ, वेयमाराहयइ, न य भवइ अत्तसंपग्गहिए, चउत्थं पयं भवइ । भवइ य इत्थ सिलोगोपेहेइ हियाणुसासणं
सुस्सूसइ तं च पुणा अहिए। न य माणमएण मज्जइ
विणयसमाही आयट्ठिए॥ संस्कृत- चतुर्विधः खलु: विनयसमाधिर्भवति । तद्यथा-अनुशास्यमानाः
शुभ षते, सम्यक् सम्प्रतिपद्यते, वेदमाराधयति, न च भवति सम्प्रगृहीतात्मा चतुर्थं पदं भवति । भवति चात्र श्लोकःस्पृहयति हितानुशासन
शुश्रूषते तच्च पुनरधितिष्ठति । न च मान मदेन माद्यति
विनयसमाधावायतार्थिकः ।।
मूल
चविहा खलु सुयसमाही भवइ । तं जहा-सुयं मे भवित. त्ति अज्झाइयव्य भवइ । एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्य भवइ । अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । ठिओ परं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवह। चउत्थंपय भवइ। भवइ य इत्थ सिलोगोनाणमेगग्गचित्तो य ठिओ ठावयई परं । सुयाणि य अहिज्जित्ता रओ सुयसमाहिए ॥
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२४३
.. अर्थ-विनय-समाधि के वे चार प्रकार ये हैं जिनका स्थविर भगवान ने प्रज्ञापन किया है। जैसे-विनयसमाधि, श्रुतसमाधि, तपसमाधि और आचारसमाधि।
जो जितेन्द्रिय होते हैं वे पंडित पुरुष अपनी आत्मा को सदा विनय में, श्रत में, तप में और आचार में लीन किये रहते हैं।
(४)
चौपाई-- विनय समाधि चार परकार, गुरु-अनुशासन, श्रवण-विचार ।
अनुशासन सम्यक् स्वीकार, नानाराधन निरहंकार ।। हित-अनुशासन चाहै जोय, शुश्रूषा करि पाल सोय ।
हो प्रमत्त जो विनयस्थान, कर कभी नहिं वह अभिमान । अरिल्ल-
हित-अनुशासन सुनिवे की इच्छा करं, सादर सुनिके बहुरों बाकों अनुसरं । नहि मतवारो होय मान मद पायके, विनय समाधी सेय चित चाय के ॥
अर्थ-विनयसमाधि चार प्रकार की है। जैसे-(१) शिष्य आचार्य के अनुशासन को सुनना चाहता है, (२) अनुशासन को सम्यक् प्रकार से स्वीकार करता है, (३) वेद (ज्ञान) की आराधना करता है अथवा अनुशासन के अनुकूल आचरण कर आचार्य की वाणी को सफल बनाता है, और (४) आत्मोत्कर्ष (गर्व) नहीं करता। यह चौथा पद है । इस विषय में जो श्लोक है, उसका यह अर्थ है----
मोक्षार्थी मुनि (१) हितानुशासन की अभिलाषा करता है, (२) अनुशासन को ग्रहण करता है, (३) तदनुकूल आचरण करता है, और (४) मैं 'विनयसमाधि में कुशल हूं' इस प्रकार का गर्व कर उन्मत्त नहीं होता है।
(५) चौपाई- श्रतसमाधि चार परकार, श्रुत मेरे हो पाठ-विचार ।
__मन थिर हो, निज में रत रहू, पढ़कर पर को थापन करू । रोलाछन्द--- पावत सम्यक ज्ञान चित्त ह होत ठिकाने, आप धरम पिरु होय तथा औरनिको ठान। करि नीके अध्ययन श्रुतनि को होवत नाता, श्रुतसमाधि के विर्षे रहत जाकरिमन राता। बोहा- जान-प्राप्ति, एकापता, थिर हो, पर कुंकराय ।
यह विचार भूत को पढ़, श्रुत-समाधि कहलाय ।।
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૨૪૪
दशवकालिकसूत्र संस्कृत- चतुर्विधा खलु श्रुतसमाधिर्भवति । तद्यथा-श्रुतं मे भविष्यती.
त्यध्येतव्यं भवति । एकाग्रचित्तो भविष्यामीत्यध्येतव्यं भवति । आत्मानं स्थापयिष्यामीत्यध्येतव्यं भवति । स्थितः परं स्थापयिष्यामीत्यध्येतव्यं भवति, चतुर्थं पदं भवति । भवति चात्र श्लोकःज्ञानमेकाग्रचित्तश्च स्थितः स्थापयति परम् । श्रु तानि चाधीत्य रतः श्रुतसमाधौ ॥
मूल- चउन्धिहा खलु तवसमाही भवइ । तं जहा-नो इहलोगट्ठयाए
तवमहिठ्ठज्जा, नो परलोगव्याए तवमहिछेज्जा । नो कित्तिवग्णसद्दसिलोगठ्याए तवमहिछेज्जा, नन्नत्य निज्जरठ्याए तवमहिछेज्जा। चउत्थं पय भवइ । भवइ य इत्थ सिलोगोविविह गुण तवोरए य निच्चं
भवइ निरासए निज्जरदिए। तवसा धुणइ पुराणपावगं
__ जुत्तो सया तवसमाहिए। संस्कृत- चतुर्विधः खलु तपःसमाधिर्भवति । तद्यथा नो इह लो
तपोऽधितिष्ठेत् । नो परलोकार्थ तपोधितिष्ठेत् । नो कीत्तिव.. शब्दश्लोकार्थं तपोधितिष्ठेत्। नान्यत्र निर्जरार्थात तपोऽधितिष्ठेत् चतुर्थ पदं भवति । भवति चात्र श्लोकःविविधिगुणतपोरतश्च नित्यं भवति निराशको निर्जरार्थिक. । तपसा धुनोति पुराणपापकं युक्तः सदा तपःसमाधिना ।।
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२४५ अर्थ श्रुतसमाधि चार प्रकार की है। जैसे- (१) 'मुझे अत प्राप्त होगा' इसलिए अध्ययन करना चाहिए, (२) 'मैं एकाग्रचित्त होऊंगा' इसलिए अध्ययन करना चाहिए, (३) 'मैं अपनी आत्मा को धर्म में स्थापित करूंगा' इसलिए अध्ययन करना चाहिए, (४) और 'मैं धर्म में स्थित होकर दूसरों को उसमें स्थापित करूंगा' इसलिए अध्ययन करना चाहिए । यह चौथा पद है। इस विषय में जो श्लोक है, उसका यह अर्थ है
___ अध्ययन से ज्ञान प्राप्त होता है, चित्त एकाग्र होता है, धर्म में स्वयं स्थित होता है और दूसरों को स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रत का अध्ययन कर अतसमाधि में रत होता है।
चौपाई- तपसमाधि चार परकार, उभय लोकहित तप नहिं धार ।
कोत्ति-हेतु नहिं तप को धार, कर्म-झरन-हित तप को धार ॥ मरिल्ल .. विविधि गुननि जुत तप में जो लवलीन है. चहत निर्जरा और चाह करि होन है । तप पर पाप पुरातन काटत जात है, तपसमाधि में लग्यो रहत दिनरात है। दोहा- विविधि तपोगण-रत रहे, भवतें होय विराग ।
करे कर्म की निर्जरा तपसमाधि में लाग ।। अर्थ- तप:समाधि चार प्रकार की है। जैसे (१) इहलोक के लाभ के लिए तप नहीं करे, (२) परलोक के लाभ के लिए तप नहीं करे, (३) कीति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए, अर्थात् किसी प्रकार की कीत्ति, नामवरी और प्रसिद्धि के लिए तप नहीं करे । (४) किन्तु केवल कर्मों की निर्जरा के लिए तप करे । यह चौथा पद है । इस विषय में जो श्लोक है, उसका अर्थ इस प्रकार है
विविधि गुणयुक्त तप में रत रहता हुआ मुनि इहलौकिक और पारलौकिक सुखों के लिए आशा न करे, किन्तु केवल कर्म-निर्जरा के लिए तप करे। इस प्रकार के तप से वह पर्व मंचित कमों को नष्ट कर देता है। अतः साधु तपःसमाधि में सदा संलग्न रहे।
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२४६
दशवैकालिकसूत्र
(७)
मूल - चउब्विहा खलु आयारसमाही भवइ । तं जहा -नो इहलोगट्ठयाए आयारम हिट्ठेज्जा, नो परलोगट्ट्याए आधारम हिट्ठेज्जा, नो कित्तिवण्ण सहसिलोगट्ट्याए आयार महिट्ठेज्जा, नन्नत्य आरतेहि ऊहिं आयारम हिट्ठेज्जा । चउत्थं पयं भवइ । भवइ य इत्य सिलोगो
परिपुष्णाययमार्याट्ठिए ।
जिणवयणरए अतितिने आयारसमाहिसंबुडे भवइ य दंते भावसंधए ॥ संस्कृत —- चतुर्विधः खलु आचारसमाधिर्भवति । तद्यथा - नो इहलोकार्थमाचारमधितिष्ठेत् नो परलोकार्थमाचारमधितिष्ठेत्. नो कीर्त्तिवर्णशब्दश्लोकार्थमाचारमधितिष्ठेत्, नान्यत्रार्हतेभ्यो हेतुभ्य आचारमधितिष्ठेत् । चतुर्थं पदं भवति । भवति चात्र श्लोकःजिन वचनरतो ऽतिन्तिणः प्रतिपूर्ण आयातमायतार्थिकः । आचारसमाधि संवृतो भवति च दान्तो भावसन्यकः ॥
(5) मूल— अभिगम चउरो समाहिओ सुविसुद्धो सुसमाहियप्पओ । विउलहिय सुहावहं पुणो कुब्बइ सो पयखेममप्पणो ॥
संस्कृत — अभिगम्य चतुरः समाधीन् सुविशुद्धः सुसमाहितात्मकः । विपुलहित सुखावहं पुनः करोति स पदं क्षममात्मनः ॥
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
(७)
अरिल्ल
चविधि है आचारसमाधि भव्य हो, नहीं कीर्ति के अर्थ जु पालन कीजिए, हरिगीतकछंद - जिन-वचन में रत रहत जो,
परिपूर्ण आगम ज्ञान में, आचार -जनित समाधि सों
इहलोक - परलोक - निमित नहि पाल हो । जिन-भासित निज कार्जाह धारन कीजिये ॥
कटु कहत हूं कटु नहि कहै, अति चाह शिवपद को गहै । सवरित आतम कीन है, इंद्रिय-दमन में रमन करि सो करत सुकति अधीन है ।
२४७
अर्थ आचारसमाधि चार प्रकार की है। जैसे - ( १ ) इहलोक के लाभ के लिए आचार को पालन नहीं करना चाहिए, (२) परलोक के लाभ के लिए आचार का पालन नहीं करना चाहिए, (३) कीति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए भी आचार का पालन नहीं करना चाहिए किन्तु ( ४ ) अरहन्त भगवन्त के द्वारा उपदिष्ट हेतुओं के लिए अर्थात् संवर और निर्जरा के लिए आचार का पालन करे, इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी कारण से आचार का पालन साधु को नहीं करना चाहिए । यह चौथा पद है। इस विषय में जो श्लोक है, उसका अर्थ इस प्रकार है
जो जिनवचन में रत है, तुन-तुनाता नहीं है ( बकवास नहीं करता), सूत्रार्थ से परिपूर्ण है और अत्यन्त शिक्षार्थी है, वह आचारसमाधि के द्वारा संवृत होकर इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला साधु भाव सन्धक (मोक्ष को निकट करने वाला) होता है ।
(5)
संजम लोन है ।
हरिगीत कछन्द - यहि भांति सों विनयादि चारि समाधि कों चित चीन है । भलि भाँति अपने आपकों जिन कियो अत्यन्त हित सुख- देनहारो करन जो कल्यान को । सो साधु पावत है सही, वह परम पद निरवान को ॥
अर्थ- - इस प्रकार जो चारों समाधियों को जानकर सुविशुद्ध और सुसमा - हित चित्त वाला होता है, वह अपने लिए विपुल हितकर और सुखकर मोक्ष को पाता है ।
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२४८
मूल
जाइ मरणाओ मुच्चई
सिद्ध वा भवइ सासए
संस्कृत — जातिमरणान्मुच्यते
दशर्वकालिकसूत्र
(e)
इत्थंथं च चयइ सव्वलो । देवे वा अप्परए महढिए ।
इत्थंस्थं च त्यजति सर्वशः ।
सिद्धो वा भवति शाश्वतो देवो वाल्परजा महर्षिकः ॥
नवम विनय-समाही अझयणे चउत्यो उद्दे सो सम्मतो ।
0
-त्ति बेमि
- इति ब्रवीमि
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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२४९
हरिगीतक- विनयादि साधि समाधि के गुन, छुटत जनम क मरन सों,
सब माति अथवा नरक आदि रु टरत दुरगति-परन सों। पर अचल पावत सिडको, अथवा करम का बधि रहे,
तो अलप मोही, महासंपति देवगति को लहत हैं। अर्थ-जो साधु इन चारों प्रकार के समाधि स्थानों का पालन करता है, वह जन्म-मरण से मुक्त होता है, नरक आदि दुर्गतियों से छूट जाता है । वह या तो उसी भव से सिद्धपद पाता है अथवा अल्प कर्मवाला महधिक देव होता है।
ऐसा मैं कहता हूं। नवम विनय-समाधि अध्ययन का चतुर्थ उद्देशक समाप्त ।
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दसम स भिक्खु अज्झयणं
(१)
निक्खम्ममाणाए बुद्धवयणे
निच्चं चित्तसमाहिओ हवेज्जा । इत्थीण वसं न यावि गच्छे
वंतं नो पडियायई जे स भिक्खू । निष्क्रम्याज्ञया बुद्धवचने
नित्यं समाहितचित्तो भवेत् । स्त्रीणां वशं न चापि गच्छेद् ___ वान्तं न प्रत्यादत्त यः स भिक्ष:।।
संस्कृत
मूल
पुढवि न खणे न खणावए ___सीओदगं न पिए न पियावए । अगणिसत्यं जहा सुनिसियं
तं न जले न जलावए जे स भिक्खू ॥ संस्कृत- पृथ्वी न खनेन्न खानयेत्, शीतोदकं न पिबेन पाययेत् ।
अग्निशस्त्रं यथा सुनिशितं तन्न ज्वलेन ज्वलयेद्यः स भिक्षु ।।
मूल
अनिलेण न वीए न बीयावए
हरियाणि न छिदे न छिदावए । बीयाणि सया विवज्जयंतो
सच्चित नाहारए जे स भिक्खू ।
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दशम समिक्षु अध्ययन
त्रिभंगीछन्द- जिन-शासन मान्यो जग दुख जान्यो बंधन भान्यो कढि मायो,
भगवत को वानी आनद-खानी नित मन मानी हरखायो । रमनी-छवि छाई, जो लखि पाई, ताहि लुभाई नहिं जावं,
वमि दीनी जाकों पिये न ताकों, मिक्षक वाकों श्रुत गावं ॥ अर्थ-जो तीर्थकर के उपदेश से घर से निकलकर और प्रवजित होकर निग्रन्थ प्रवचन में सदा समाहित चिन (समाधि-युक्त मनवाला) होता है, जो स्त्रियों के वश में नहीं होता, जो वमन किये हुए को वापिस नहीं पीता अर्थात् छोड़े हुए भोगों का पुनः सेवन नहीं करता है, वह भिक्षु है ।
(२)
चौपाई- पृषिवी को नहिं खन खनाव, शोत सलिल नहिं पिय पियावं ।
तीख अगनि सय जार न जोई, जरवावे नहि, भिक्षक सोई।
अर्थ-जो पृथिवी को न स्वयं खोदता है और न दूसरों से खुदवाता है, जो शीत (सचित्त) जल न स्वयं पीता है और न दूसरों को पिलवाता है, शस्त्र के समान सुतीक्ष्ण अग्नि को न रवयं जलाता है और न दूसरों से जलवाता है, वह भिक्षुक है।
चौपाई-- पवनह को बीजे न विजाब, हरिता को छेद न छिदावे ।
बरजत सदा बीजकों जोई, सचित न खावं मिन क सोई॥
अर्थ-जो पंखे आदि से न स्वयं हवा करता है और न दूसरों से कराता है, जो हरितकाय का छेदन न स्वयं करता है और न दूसरों से कराता है, जो बीजों का
.
२५१
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२५२
सस्कृत- अनिलेन न व्यजेन्न व्यजयेद् हरितानि न छिन्द्यान्न छेदयेत् । बीजानि सदा विवर्जयन् सचित्त नाहरेद्यः स भिक्ष: ॥
वहणं
मूल
संस्कृत -
मूल
संस्कृत
मल -
तम्हा
हननं
तस्मादौ शिकं
रोइय
पंच
थावराण होइ पुढवितणकट्ठनिस्सियाणं । उद्द सियं न भुजे
it for पए न पयावए जे स भिक्खू ॥
त्रस-स्थावराणां
भवति
पृथ्वीतृणकाष्ठनिश्रितानाम् । न भुञ्जीत
नो अपि न पचेन्न पाचयेद्यः स भिक्षुः ॥
(५)
पञ्च
तस
रोचयित्वा
अह
(४)
नायपुत वयणे
अत्तसमे मन्नोज्ज छप्पि काए ।
-
य फासे महव्वयाई पंचासव संवरे जे स भिक्खू ॥
चत्तारि मे
ज्ञातपुत्रवचनं
आत्मसमान् मन्येत षडपि कायान् । स्पृशेन्महाव्रतानि
च
पञ्चास्रवान् संवृणुयाद्यः स भिक्षु ॥
(६)
सया कसाए धुवजोगी य हवेज्ज बुद्धवयणे ।
दशवेकालिकसूत्र
निज्जायस्वरए
गिहिजोगं परिवज्जए जे स भिक्खू ॥
संस्कृत - चतुरो वमेत्सदा कषायान् ध वयोगी च भवेद् बुद्धवचने । अघनो निर्जातरूपरजतो गृहियोगं परिवर्जयेद्यः स भिक्षुः ॥
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दशम सभिल अध्ययन
२५३ सदा वर्जन करता है अर्थात् उनके स्पर्श से दूर रहता है और जो सचित्त का आहार नहीं करता, वह भिक्षु है।
छन- पृथिवी तुन काठ में रहे, जीव चराचर को विनास होई ।
उहिष्ट भोजन न लहे, न पचे, न पचावे जमिन तोई ॥
अर्थ-भोजन बनाने में पृथिवी, तृण और काष्ठ के आश्रय में रहे हुए त्रस और स्थावर जीवों का वध होता है, अतः जो औद्देशिक (अपने निमित्त बना हुआ) भोजन नहीं खाता तथा जो न स्वयं पकाता है और न दूसरों से पकवाता है, वह भिक्षु है।
(५)
छन्द- रुचि मानि ज वीर-वानि में, आप समान छकाय जान जोई ।
पंच आनव संवरे सही, पंच महावत-लीन भिक्ख सोई॥
अर्थ-जो ज्ञात-पुत्र के वचन में श्रद्धा रखकर छहों कायों के जीवों को अपने समान मानता है, जो पांच महाव्रतों का पालन करता है और जो पांच आस्रवों का संवरण करता है, वह भिक्ष है।
छन्द- तजि चार कसाय को सदा जोग दृढ़ो जिन-वन-लीन होई ।
पर धन स्वर्ण रूप्य ना, गेहिक-जोग त जु मिनु होई ॥
अर्थ-जो क्रोध. मान, माया और लोभ इन चारों कषायों का परित्याग करे, जो निम्रन्थ प्रवचन में ध्र वयोगी है (अटल श्रद्धा रखने वाला और दैनिक छहों आवश्यकों का नियमपूर्वक पालन करने वाला है), जो निर्धन है, सुवर्ण और चांदी से रहित है, जो गृहियोग (लेन-देन, क्रय-विक्रय आदि) का वर्जन करता है, वह मिल है।
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२५४
दशवकालिकसूत्र
मल
सम्मद्दिठी सया अमूढे
अस्थि हु नाणे तवे संजमे य । तवसा धुणइ पुराण पावगं
मणवयणकायसंवुडे जे स भिक्ख ।। संस्कृत- सम्यग्दृष्टिः सदाऽमूढोऽस्ति खलु ज्ञानं तपः संयमश्च । तपसा धुनोति पुराणपावकं सुसंवृतमनोवाक्कायः यः स भिक्षुः ।।
(८) मूल- तहेव असणं पाणगं वा
विविहिं खाइम-साइमं लभित्ता । होही अट्ठो सुए परे वा
तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ॥ संस्कृत- तथवाशनं पानकं वा
विविधं खाद्य स्वाद्य लब्ध्वाः । भविष्यत्यर्थः श्वः परस्मिन् वा तं न निदध्यान निधापयेद्यः स भिक्षुः ।।
(8) मूल
तहेव असणं पाणगं वा
विविहं खाइम - साइमं लभित्ता । छदिय साहम्मियाण भुजे
मोच्चा सज्झायरए य जे स भिक्खू ।। तथैवाशनं पानकं वा
विविधं खाद्य स्वाद्य लब्ध्वा । छन्दयित्वा साधर्मिकान् भुजीत,
भुक्त्वा स्वाध्यायरतश्च यः स भिक्षु ।।
संस्कृत
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दशम सभिक्षु अध्ययन
२५५
(७)
छन्द- समीठ सदा अमूढ जो, संजम मान तपे विसासि होई ।
तपसों नसि पाप-पूर्व के संवृत जासु विजोग मिनु सोई॥
अर्थ-जो सम्यकदर्शी है, जो सदा अमूढ़ है, जो ज्ञान, तप और संयम के अस्तित्व में आस्थावान है, जो तप के द्वारा पुराने पापों को नष्ट करता है, जो मन, वचन और काय से सुसंवृत है, वह भिक्ष है ।
() चोपाई- चार प्रकार आहारहिं पाई कल वा परसों भागि हैं याही ।
यों चहि वासि न राखत जोई, न हिं रखवावत मिन क सोई॥
अर्थ-जो पूर्वोक्त विधि से विविध प्रकार के अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार को प्राप्त कर 'यह कल या परसों काम आयगा', इस विचार से संचय नहीं करता है और न दूसरों से संचय करवाता है, वह भिक्ष है।
चौपाई- चार प्रकार अहारहि पाई, समधरमिन निमंत्रि के खाई ।
पुनि प्रवचन-पाठहि रत होई, या विधि कर मिन है सोई॥
अपं-पूर्वोक्त प्रकार से विविधि अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार को प्राप्त कर जो अपने मार्मिकों को निमंत्रित कर उनके साथ भोजन करता है और जो भोजन कर चुकने पर स्वाध्याय में रत रहता है, वह भिक्ष है।
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२५६
मूल
संस्कृत
मूल
संस्कृत
-
मूल
संस्कृत
न य बुग्गाहियं नय कुप्पे
संजम
कहं कहेज्जा
निहुइ दिए पसंते । ध्रुवजोगजुत्त
उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू ॥
न च वैग्रहिकों कथां कथयेन्न च कुप्येन्निभृतेन्द्रियः प्रशान्तः । संयमत्र, वयोगयुक्तः
उपशान्तोऽविहेडको यः स भिक्षुः ॥
जो
(११)
ह गामकंटए पहारतज्जणा जो य । संपहासे
सम सुहदुक्खसहे य जे स भिक्ख
11
यः सहते खलु ग्रामकण्टकान् प्रहार तर्जनाश्च ।
आक्रोश भय भैरव - शब्द संप्रहासान्
समसुख-दुःख सहश्च यः स भिनः ॥
:
(१२)
पडिवज्जिया मसाणे
सहइ
अक्कोस
भय भैरव सद्द
·
-
(१०)
पडिमं
..
नो भायए भय-भेरवाई दिस्स ।
9
विविह गुण तवोरए य निच्च
प्रतिमां
न सरीरं चाभिकखई जे स भिक्खू ॥
विविध
प्रतिपद्य श्मशाने.
नो विमेति भय-भैरवानि दृष्ट्वा ! गुणतपोरतश्च नित्यं
न शरीरं चाभिकांक्षति यः स भिक्षुः ।
दशर्नकालिकसूत्र
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दसम सभिक्षु अध्ययन
(१०)
चौपाई - कलह-कारिनी बात न कहई, कोप न करें, शान्त जो रहई ।
अचल जोग संजम में जोरं, इन्द्रिय उद्धत होय न जाके, रहत भाव उपशान्तनि जोई,
उचित बातकों कबहुँ न तोरें ॥ मन में शान्ति वसे है ताके । इन्द्रिय-जयो भिक्षु है सोई ॥
अर्थ - जो कलह-कारी कथा नहीं करता, जो कुपित नहीं होता, जिसकी इन्द्रियां अनुद्धत हैं, जो प्रशान्त है, संयम में ध्रुवयोगी है, उपशान्त है, और जो दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता वह भिक्षु है ।
(११)
कवित्त
इंद्रिनि के कांटे ऐसे सहत दुखद जोग, कटुक कठोर कुवचन हू सहावे हैं, कोऊ धमका औ डरावं तऊ सहे ताहि, करं मारपीट तोऊ नाम न लहावं है । भैरव आविक मय-कारक सबद घोर, अट्टहास आदि त्रासवास हू गहाव है, सुख अरु दुःख दोऊ सहत समान भाव इच्छुक मुकति के ते मिक्षक कहावें है ।
"
२५७
अर्थ - जो श्रोत्रादि इन्द्रियों को कांटे के समान चुभने वाले कठोर वचन, प्रहार और ताड़ना तर्जनादि को समभावपूर्वक सहन करता है, जो अत्यन्त भय को उत्पन्न करने वाले भूत- बैताल के शब्दों को, उनके अट्टहासों को सहन करता है। तथा सुख और दुख को समभाव पूर्वक सहन करता है, वह भिक्षु है ।
१ (२)
छन्द -- प्रतिमा गहि के मसान में भैरव-भीति लखे डरं न जोई । नित लीन तप औ गुननिमें, देह ह को नहिं चाह भिक्षु सोई ।।
आकांक्षा नहीं करता है, वह भिक्षु है ।
S
अर्थ जो श्मशान में प्रतिमायोग को ग्रहण कर अत्यन्त भयानक दृश्यों को देखकर नहीं डरता, जो नाना प्रकार के मूल गुणों और उत्तरगुणों में तथा तपों में निरत रहता है और जो मरणान्तक भय आ जाने पर भी शरीर के बचाने की
१७
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२५८
मूल
संस्कृत
मूल
संस्कृत
मूल
संस्कृत
(१३)
असह वोसट्ठ चतदेहे अक्कुट्ठे व हए व लूसिए वा । पुढविसमे मुणी हवेज्जा
अनियाणे अकोउहल्ले य जे स भिक्खू ॥
असकृद् व्युत्सृष्ट त्यक्तदेह आकृष्टो वा हतो वा लूषितो वा । पृथ्वीसमो मुनिर्भवेदनिदानो
कीतूहलो यः स भिक्षुः ॥
( १४)
अभिभूय काएण परीसहाई समुद्धरे जाइपहाओ अप्पयं । वित्त जाईमरणं महम्भय तवे रए सामणिए जे स भिक्ख ॥ कायेन परिषहान्
अभिभूय
समुद्ध रेज्जातिपथादात्मकम् । जातिमरणं महाभयं
तपसिरतः श्रामण्ये यः स भिक्षः ।
(१५)
विदित्वा
हत्थसंजए
वायसजए
अज्झप्परए
सुसमाहियप्पा
सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्ख 11
हस्तसंयतः
वाक्संयतः
पायसंजए
संजईदिए ।
अध्यात्मरतः
पादसंयतः
संयतेन्द्रियः ।
सुसमाहितात्मा
सूत्रार्थं च विजानाति यः स भिक्षुः ॥
Card कालिकसूत्र
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वशन समिक्ष अध्ययन
नाराषछन्द- सदेव बेह-राग को जु त्याग ही किये रहे,
कुवाक्य मार-पीट, बेह-घाव ह भए सहै। मही-समान है मुनी निदान-हीन होय है,
त कुतूहलानि को सु मिन होत सोय है ॥ ___ अर्थ-जो मुनि बार-बार देह का व्युत्सर्ग और त्याग करता जो गाली सुनने, पीटे और काटे जाने पर भी पृथ्वी के समान सब कुछ सहता है जो निदान नहीं करता और जो कौतूहल-रहित है, वह भिक्ष है।
(१४) छन्द-- परीसहानि को जीति बेहसों, जनम-पंय सों आत्म-उतरे ।
भय महालखी जन्म-मृत्यु को नमनता तपोलोन मिन सो ॥
अर्ष-जो शरीर से परीषहों को जीतकर (सहन कर) जाति-पथ (संसार) से अपना उद्धार कर लेता है, जो जन्म-मरण को महा भयकारी जानकर श्रमण-सम्बन्धी तप में रत रहता है, वह भिक्ष है।
छन्द- कर-संजती पाय-संजती वचन-संजती इंद्रि-संजती ।
रत अध्यात्म में, शान्त आतमा, लखत सूत्र के अर्थ भिक्ष सो॥
अर्थ-जो हाथों से संयत है, पैरों से संयत है, वाणी से संयत है, इन्द्रियों से संयत है, जो अध्यात्म में रत है, जो भली-भांति समाधिस्थ है तथा जो सूत्र और अर्थ को यथार्थ रूप से जानता है, वह भिक्ष है।
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२६०
दशवकालिकसूत्र
मूल
सस्कृत
उपधौ
उबहिम्मि अमुच्छिए अगिद्ध
अन्नायउछ पुलनिप्पुलाए । कय-विक्कयसन्निहिओ विरए सव्वसंगावगए य जे स भिक्ख ॥
अमूञ्छितोशृद्धोज्ञातोञ्छं पुलोनिष्पुलाकः । क्रय-विक्रयसन्निधितो विरतः सर्वसङ्गापगतो यः स भिक्षः ॥
(१७) अलोलभिक्खु न रसेसु गिद्धे
उंछ चरे जीविय नाभिकंखे । इड्डिं च सक्कारण पूयणं च ___चए ठियप्पा अगिहे जे स भिक्खू ॥ अलोलो भिक्ष न रसेषुगृद्ध
उञ्छं चरेज्जीवितं नाभिकांक्षेत् । ऋद्धि च सत्कारणं पूजनं च
त्यजति स्थितात्माऽनिभो यः स भिक्षुः ।।
मूल
संस्कृत
मूल--
न परं वएज्जासि अयं कुसीले
जेणनो कुप्पेज्ज न तं वएज्जा । जाणिय पत्तेयं पुण्ण-पावं
अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्ख ॥ न परं वदेदयं कुशीलो
येनान्यः कुप्येन्न तं वदेत् । ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्य-पापमात्मनं
न समुत्कर्षयेद्यः स भिक्ष : ।
संस्कृत
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दशम समिक्षु अध्ययन
(१६)
चोपाई - उपधि-हीन, ना मूरछा लहै, अलख वंश में
संजम सार - हा दान न गहै, कछु र नहि संधि के तथा सार सजम को संभालमें रहे,
चौपाई
गोचरि गहै । क्रय-विक्रय सों दूर ही रहे । भिक्षु सगसों मुक्त सर्वथा । भिक्षु सोही जिन-मार्ग में ॥
अर्थ – जो मुनि वस्त्र पात्रादि उपधि ( उपकरणों) में मूच्छित नहीं है, जो गृद्धि-रहित है, जो अज्ञात घरों से भिक्षा ग्रहण करता है, जो संयम को दूषित करने वाले दोषों का कभी सेवन नहीं करता है, जो क्रय-विक्रय और संग्रह नहीं करता है और जो सर्व प्रकार के परिग्रह से रहित हूं वह भिक्षु है ।
(१७)
लुब्ध भावसों ना कछु चहै । संजम-हीन ना जीवन चहै ॥ पूजा कीर्ति भाव परिहारं । कपट तर्ज सो भिक्ष, अहे ॥
रत रसानि में जो नहि रहे, अलल गोत्रतं गोचरी गहे, ऋद्धि और सत्कार न चाहे, आत्म ज्ञान में थिर जो रहे,
२६१
अर्थ - जो भिक्षु लोलुपता रहित है, रमों में गृद्ध नहीं है, जो उञ्छचारी है
( अज्ञातकुलों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेता है), जो असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करता, जो ऋद्धि सत्कार और पूजा भी नहीं चाहता, जो स्थितात्मा है और मायारहित है, वह भिक्षु है ।
(१८)
चौपाई - पर्राह ना कहे 'यो कुशील है' करत जो कछू पुन्य-पाप को, निज समुत्कर्ष जो न प्रगट करं,
कुपित होन के वैन ना कहै । फल लहै वह आप आपको || विनयभाव सवा मन में धरं । निज महत्व को जो न मान हो, मद-विहीन जो भिक्षु है वही ॥
अर्थ -- जो किसी भी दूसरे व्यक्ति से 'यह कुशील (दुराचारी है), ऐसा वचन
नहीं कहता, जिसे सुनकर दूसरा कुपित हो, ऐसे वचन भी नहीं बोलता, जो प्रत्येक
जीव के पुण्य-पाप को जानकर उनकी ओर ध्यान न देकर अपने ही दोषों को दूर करता है और जो अपने आपको सबसे बड़ा मानकर अभिमान नहीं करता, वह भिक्ष कहलाता है ।
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२६२
दशवकालिकसूर (१९) न जाइमत्ते नय स्वमत्त
न लाभमत्त न सुएण मत्ते। मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता
धम्ममाणरए जे स मि संस्कृत- न जातिमत्तो न च रूपमत्तो न लाभमत्तो न श्रुतेन मत्तः । मदान् सर्वान् विवय॑ धर्मध्यानरतो यः स भिक्षः ।।
(२०) पवेयए अज्जपयं महामुणी
धम्मे ठिो ठावयई परं पि । निक्खम्म बज्जेज्ज कुसीलालगं
न यावि हस्सकुहए जे स भिक्ख ॥ संस्कृत- प्रवेदयेदार्यपदं महामुनिधर्म
स्थितः स्थापयति परमपि । निष्क्रम्य वर्जयेत् कुशीललिगं ___ न चापि हास्य कुहको यः स भिक्ष ः॥
(२१) मूल- तं देहवासं असुइं असासयं
सया चए निच्च हियट्ठियप्पा । छिदित्त जाईमरणस्स बंधणं
उवेइ भिक्ख अपुणागमं गई।
संस्कृत -- तं देहवासमशुचिमशाश्वतं सदा त्येन्नित्यहितः स्थितात्मा। छित्वा जातिमरणस्य बन्धनमुपैति भिक्षरपुनरागमां गतिम् ॥
- इति अबीमि बसम एभिक्खु अजायणं समत्त ।
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दशम सभिक्ष अध्ययन
२६३
(१६) कवित्तमेरी जाति ऊंची और नीचे सब मोतें केते, ऐसो 'जातिमद' तामें मत आँन रहिये, त्यों ही 'मैं सुरूपवारों' ऐसो रूप-मद तज, प्रापति को मान 'लाम-मद' ह गहिये । मेरे अतमान बड़ो, ऐसो 'शु तमद' तर्ज, याही विधि सारे मद त्याग किये चहिये, इनकों न आन कर, धरत धरम ध्यान धर्म सों करत रति "भिक्षक' सो कहिये।
___ अर्थ- जो जाति का मद नहीं करता, जो रूप का मद नहीं करता, जो लाभ का मद नहीं करता, जो श्रुत का मद नहीं करता, जो सब मदों का त्याग कर धर्मध्यान में रत रहता है, वह भिक्षु है ।
(२०) कवित्तजाके आचरन कीने आतम अमल होत, ऐसो आर्य-उपदेश आप नित करत है, पाप-पंथ टारि आप घरम में थित भये, औरनि को थापन की वाट ह बहत है। जगत निकसि के जोगी को सरूप लोनो, भोगी से कुसोलभाव फर ना गहत है, हास औ कुतूहल को करत न महामुनि, ऐसो ढंग जाको ताको 'मिन क' कहत है ।।
___ अर्थ ---जो महामुनि आर्यपद (धर्मपद) का उपदेश करता है, जो स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरे को भी धर्म में स्थित करता है, जो प्रवजित होकर कुशीललिंग को छोड़ देता है और जो दूसरों को हंसाने के लिए कौतूहल-पूर्ण चेष्टा नहीं करता, वह भिक्ष है।
कवित्तसासतो न भासत, कुवासना को रास महा, त्रास को विनास, देह-वास दुखदाई है, ताको नित तजत, भजत हित आतमा को, सजत सकल भय-हरन उपाई है। जनम-निकंदन के कंबन के बंधन को, करिके निकंदन अनंद उमगाई है, भिक्षु ऐसी पावन परम गति पावत है, जाबत जहाँ सो फेर आवत न जाई है।
अर्थ .. अपनी आत्मा को सदा शाश्वत हित में सुस्थित रखने वाला भिक्ष इस अशुचि और अशाश्वत देह-वास को सदा के लिए त्याग देता है और वह जन्ममरण के बन्धन को छेदकर जहां से फिर आगमन नहीं है, ऐसी अपुनरागम गति अर्थात् सिद्ध गति को प्राप्त होता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
दशम सभिक्ष अध्ययन समाप्त ।
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पढमा रइवक्का चूलिया मूल- इह खलु भो, पव्वइयेणं उप्पन्नदुक्खेणं संजमे अरइसमावन्नचित्तेणं
ओहाणुप्पेहिणा अणोहाइएणं चेव हयरस्सि-गयंकुसं-पोय-पागाभूयाई इमाई अट्ठारस ठाणाइ सम्मं संपडिलेहियव्वाई
भवंति। संस्कृत- इह खलु भोः, प्रबजितेन उत्पन्नदुःखेन संयमेऽरतिसमापन्नचित्तन
अवधानोत्प्रेक्षिणा अनवधावितेन चैव हयरश्मि-गजानुष पोतपताकाभूतानि इमान्यष्टादशस्थानानि सम्यक् संप्रतिलेखितव्यानि भवन्ति ।
तं जहा... (१) हं भो दुस्समाए दुप्पजीवी। (२) लहुस्सगा इत्तरिया गिहीणं कामभोगा। (३) भुज्जो य साइबहुला मणुस्सा। (४) इमे य मे दुक्खे न चिरकालोबछाई भविस्सइ (५) ओमजण पुरक्कारे। (६) वंतस्स य पडियाइयणं!
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प्रथम रतिवाक्या चूलिका चौपाई- जो प्रवजित हो मोहाधीन, तजन चहै संजम नर दीन ।
संजम-तजन पूर्व मुनिराय, निम्नलिखित थानक मन लाय ।। इनके चित संबर होय, गिरता साधु तुरत थिर होय । जैसे गज अंकुश-वश होय, या लगाम-वस वाजी होय ।। ज्यों ध्वज-वश नौका थिर होय, त्योंही डिगता मुनि थिर होय । तात आत्मन, भाव लगाय, इनको सुमरं नित चित्त लाय ।।
मर्ष-भो मुमुक्षओ, दीक्षा लेने के बाद शारीरिक या मानसिक दुःख उत्पन्न होने से संयम में अरति भाव उत्पन्न हो जाय, अर्थात संयम-मार्ग में चित्त न लगे,
और संयम को छोड़कर गृहस्थाश्रम में वापिस जाने की इच्छा जागृत हो जाय तो संयम छोड़ने से पूर्व निम्नलिखित अठारह स्थानों का भली-भाँति विचार करना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार लगाम से चंचल घोड़ा वश में आ जाता है, अंकुश से मन्दोमत्त हाथी वश में आ जाता है और समुद्र की उत्ताल तरंगों से गोते खाती हुई नाव जैसे पतवार से स्थिर हो जाती है, उसी प्रकार वक्ष्यमाण अठारह स्थानों के विचार करने पर चंचल और डांवाडोल साधु का चित्त भी संयम में पुन: स्थिर हो जाता है।
वे अठारह स्थान इस प्रकार हैंचौपाई- (१) अहो विकट यह दूसम काल, कठिनाई से जीविका चाले ।
(२) गृहीजनों के काम जु भोग, अलपसार, लघुकाल संजोग । (३) अबकं मनुज कुटिल अति घनें, माया-मूर्छा में वे सनें । (४) यह मेरा दुख चिर थिर नाहीं, अवधि पूर्ण भये यह तो जाही। (५) संजम तजि जो घर में जाय, नोच जननि की सेव कराय । (६) तजि मुनि पद जो घर में जाय, वमन किये को सोपी जाय ।
२६५
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दशवकालिकसूत्र
(७) अहरगइ वासोवसंपया। (८) दुल्लमे खलु भो गिहोणं धम्मे गिहिवासमज्से वसंताणं । (९) आयके से वहाय होइ। (१०) संकप्पे से वहाय होइ। (११) सोवक्केसे गिहवासे निरुवक्केसे परियाए। (१२) बंधे गिहवासे, मोक्खे परियाए। (१३) सावज्जे गिहवासे, अणवज्जे परियाए । (१४) बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा। (१५) पत्तेयं पुण्ण-पावं। (१६) अणिच्चे खलु भो मणुयाण जोविए कुसग्गजलबिदुचंचले। (१७) बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं। (१८) बहुं च खलु भो, कडाणं कम्माणं पुब्धि दुच्चिण्णाणं,
दुप्पडिक्कताणं वेयइत्ता मोक्खो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता। अट्ठारसम पयं भवइ । भवइ य इत्थ सिलोगो।
संस्कृत- तद्यथा
(१) हं हो दुःषमायां दुष्प्रजीविनः । (२) लघुस्वका इत्वरिका कामभोगाः । (३) भूयश्च सातिबहुला मनुष्याः । (४) इदं च मे दुख न चिरकालोपस्थायि भविष्यति । (५) अवमजनपुरस्कारः। (६) वान्तस्य प्रत्यापानम्।
७) अधरगतिवासोपसंपदा। (८) दुर्लभः खलु भो गृहिणां धर्मो गृहवासमध्ये वसताम् । (6) आतङ्कस्तस्य वधाय भवति । (१० सङ्कल्पस्तस्य वधाय भवति । (११) सोपक्लेशो गृहवासः, निरुपक्लेशः पर्यायः ।
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२६७
प्रथम रतिवाक्या चूलिका
(७) संजम तजि जो घर में जाय, मानों नरक-निवास कराय । (८) गहवासी के दुर्लभ सोय, संजम घरम-फरसना होय ॥ (९) गेही के अनेक आतंक, जिनसे मरने में नहि संक । (१०) गेही के संकल्प अनेक, रहे न जिससे कछ विवेक । (११) दलेश-युक्त है गहावास, क्लेश-रहित है मोक्ष-निवास । (१२) है निवासघर बन्धन रूप, मुनि-पदवी है मोका-स्वरूप ।। (१३) है सावध गह-आवास, औ निरवध साघु-पद-वास । (१४) हैं अति तुच्छ जगत के भोग, करें सदा ही पाप-संजोग ।। (१५) सबके पुण्य-पाप हैं भिन्न, कोई सुखी, कोई दुख-खिन्न । (१६) यह अनित्य जन-जीवन जान, चल कुशाप्र-जल-बिन्दु समान ।। (१७) मैंने इससे पूर्व अनेक, किये पाप हैं बिना विवेक । (१८) हैं विकराल पूर्व कृत पाप, देते जो अति हैं सन्ताप ।।
भोग विनु मुकतो नहिं होय, भोगते ही मुफती होय ।
तातें तप से कर्म खिपाय, ज्ञानी जन सट शिवपद पाय ।। अर्थ-वे अठारह स्थान इस प्रकार हैं(१) हे आत्मन्, इस दु.षम काल का जीवन ही दु:खमय है। (२) इस दुःपम काल में गहस्थ लोगों के काम-भोग तुच्छ और अल्पकालीन हैं।
(३) और इस दुःषम काल के मनुष्य प्रायः बड़े कपटी और दूसरों को ठगने वाले होते हैं।
(४) मुझे जो दु.ख उत्पन्न हुआ है वह चिरकाल तक नहीं रहेगा।
(५) संयम को छोड़कर गृहस्थाश्रम में जाने वालों को नीच से भी नीच जनों की सेवा और खुशामद करनी पड़ती है। (यह बात अपमानकारक है।)
(E) संयम को छोड़कर गहस्थाश्रम में जानेवालों को वमन अर्थात् त्याग किये हुए पदार्थों का पुनः सेवन करना पड़ता है। (यह घणित कार्य है।)
(७) संयम को छोड़कर गृहस्थाश्रम में जाना मानो नरकगति में जाने की तैयारी करना है।
(८) हे आत्मन्, गृह-वास के मध्य में वसने वाले गृहस्यों के लिए धर्म का गलन करना निश्चय ही बहुत दुर्लभ है । (कठिन है ।।
(९) यह शरीर रोगों का घर है, जो रोग जीव के मरण के लिए कारण हैं।
(१०) गृहस्थाश्रम में इष्ट वियोग और अनिष्ट • संयोग से सदा संकल्प. विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं, वे भी जीव के घात के लिए कारण होते हैं
(११, गृहस्थाश्रम क्लेश-युक्त है और संयम-पर्याय क्लेश-रहित है।
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२६८
दशकालिकसूत्र (१२) बन्धो गृहवासः, मोक्षः पर्यायः । (१३) सावद्यो गृहवासः अनवद्यः पर्यायः । (१४) बहुसाधारणा गृहिणां कामभोगाः । (१५) प्रत्येकं पुण्यपापम् । (१६) अनित्यं खलु भो, मनुजानां जीवितम् । कुशाग्र जलबिन्दु
चञ्चलम् । (१७) बहु च खलु भो पापकर्म प्रकृतम् । (१८) पापानां खलु भो, कृतानां कर्मणां पूर्व दुश्चीर्णानां दुष्प्रति
क्रान्तानां वेदयित्वा मोक्षः, नास्त्यवेदयित्वा, तपसा वा शोषयित्वा । अष्टादशपदं भवति । भवति चात्र श्लोक- ।
मूल- जया य चयई धम्म अणज्जो भोगकारणा ।
से तत्थ मुछिए बाले आयइं नावबुज्नइ ॥ संस्कृत-- यदा च त्यजति धर्म अनार्यो भोगकारणात् ।
स तव मूच्छितो बाल आयति नावबुध्यते ।
(२) मूल- जया ओहाविओ होइ इंदो वा पडिओ छमं ।
सव्वषम्म - परिभट्ठो स पच्छा परितप्पइ ।। संस्कृत- यदाऽवधावितो भवति इन्द्रो वा पतितः क्षमाम् ।
सर्वधर्म . परिभ्रष्टः स पश्चात्परितप्यते ॥
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प्रथम रतिवाक्या चूलिका
२६६ (१२) गृहस्थाश्रम बन्धनरूप है और संयम-पर्याय मोक्षरूप है अर्थात् कर्मबन्धनों से छुड़ानेवाली है।
(१३) गृहावास सावध (पाप)-रूप है और संयम-पर्याय निरवद्य (निष्पाप) है। (१४) गृहस्थों के काम-भोग बहुत साधारण (तुच्छ) हैं।
(१५) प्रत्येक प्राणी के पुण्य-पाप अलग-अलग हैं, अर्थात् सभी जीव अपनेअपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार सुख और दुःख भोगते हैं।
(१६) हे आत्मन्, मनुष्यों का जीवन कुशा के अग्रभाग पर ठहरे हुए जल की बिन्दु के समान अति चंचल है अर्थात् क्षण-भगुर है ।
(१७) हे आत्मन्, निश्चय ही तूने बहुत पापकर्म किये हैं, जिनके उदय से तेरे मन में पवित्र संयम को त्यागने के भाव उत्पन्न हो रहे हैं।
(१८) और हे आत्मन , खोटे भावों से तथा मिथ्यात्व आदि से उपार्जन किये हुए पूर्वकाल के पाप-कमों का फल भोगने के बाद ही उनसे मोक्ष होगा, अर्थात् उनसे छूट सकेगा । कर्मों का फल भोगे बिना मोक्ष संभव नहीं है अथवा तप के द्वारा कर्मों का क्षय करने पर ही मोक्ष होता है। (अतः संयम में स्थिर रहो) यह अठारवां पद है।
इस विषय में श्लोक इस प्रकार हैं --.
चौपाई- जब तजं धर्म कोई अजान, मोगों के कारण गतिवान ।
तब नहीं उसे है कछू ज्ञान, कैसा होगा भावी विधान ।
अर्थ-जब कोई अनार्य (अज्ञानी) पुरुष भोगों के कारण संयम-धर्म को छोड़ता है, तब काम-भोगों में भूच्छित (आसक्त) हुआ वह अज्ञानी अपने आगामी काल का जरा भी विचार नहीं करता है कि भविष्य में मुझे इस पतन से कैसे और कौन से दुःख भोगने पड़ेंगे।
चौपाइ- जिमि च्युत इन्द्र स्वर्ग त होय, सुमरि पूर्व वैभव दुखि होय ।
तिम संजम व्युत जति जब होय, पश्चात्ताप कर है सोय ।।
अर्थ-जिस प्रकार स्वर्गलोक से च्यवकर पृथ्वी पर उत्पन्न होनेवाला इन्द्र अपनी पूर्व ऋद्धि को याद कर पश्चात्ताप करता है, उसी प्रकार संयम से पतित हुआ साधु सर्व धर्मों से भ्रष्ट हो जाता है और तब वह पीछे पश्चात्ताप करता है।
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२७०
दशवकालिकसूत्र
मूल- जया व वंदिमो होइ पच्छा होइ अदिमो ।
देवया व चुया ठाणा स पच्छा परितप्पइ ।। संस्कृत- यदा च वन्द्यो भवति पश्चाद् भवत्यवन्द्यः ।
देवतेव च्युता स्थानात् स पश्चात् परितप्यते ॥
मूल- जया य पूइमो होइ पच्छा होइ अपूइमो ।
राया व रज्जपमठो स पच्छा परितप्पइ ॥ संस्कृत- यदा च पूज्यो भवति पश्चाद् भवत्यपूज्यः ।
राजेव राज्यप्रभ्रष्टः स पश्चात् परितप्यते ।।
मूल- जया य माणिमो होइ पच्छा होइ अमाणिमो ।
सेट्ठिम्य कवडे छूढो स पच्छा परितप्पइ ॥ संस्कृत- यदा च मान्यो भवति पश्चाद् भवत्यमान्यः ।
श्रेष्ठीव कर्वटे क्षिप्तः स पश्चात् परितप्यते ।।
मूल- जया य थेरओ होइ समइक्कंतजोव्वणो ।
मच्छोव्य गलं गिलिता स पच्छा परितप्पइ ॥ संस्कृत--- यदा च स्थविरो भवति समतिक्रान्तयौवनः ।
मत्स्य इव गलं गिलित्वा स पश्चात् परितप्यते ।।
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प्रथम रतिवाक्या चूलिका
२७१
चौपाई- जिमि व्युत देव स्वर्ग तें होय, वन्दनीय रहे नहिं कोय ।
तिनि संजम-बुत जति जब होय, पश्चात्ताप कर है सोय ।। संजम जब लों तब लों बंध, संजम विनु वह होय अवंद्य ।
देव थान-चुत जैसे होय, पश्चात्ताप कर है सोय ॥
अर्ष- जब तक साधु संयम में रहता है, तब तक वह सब लोगों का वन्दनीय होता है किन्तु संयम को छोड़ने के पश्चात वही अवन्दनीय हो जाता है। जैसे अपने स्थान से च्युत देव पश्चात्ताप करता है, उसी प्रकार वह संयम-भ्रष्ट माधु भी पीछे पश्चात्ताप करता है।
चौपाई- संजम जब लों तब लों पूज्य, संजम बिनु वह होय अपूज्य ।
राज्य-भ्रष्ट राजा ज्यों होय, पश्चात्ताप कर है सोय ॥
अर्थ-जब तक साधु संयम में रहता है तब तक वह लोगों से पूजनीय होता है। किन्तु संयम छोड़ देने के बाद वह अपूजनीय हो जाता है । जैसे राज्य-भ्रष्ट राजा पश्चात्ताप करता है, उसी प्रकार वह साधु संयम से भ्रष्ट हो जाने के बाद पश्चात्ताप करता है।
चोपाई . संजम जब लों तब लो मान्य, संजमु बिनु वह होय अमान्य ।
गांव पड़ो सेठी जिम रोय, पश्चात्ताप कर है सोय ॥
अर्ष जब तक साधु संयम में रहता है, तब तक सब लोगों का माननीय होता है। किन्तु संयम से भ्रष्ट होने के बाद वह अमाननीय हो जाता है । जिस प्रकार नगर से भ्रष्ट हुआ सेठ छोटे से गांव में रहता हुआ पश्चात्ताप करता है उसी प्रकार संयम से भ्रष्ट हुआ वह साधु भी पीछे पश्चात्ताप करता है।
चोपाई संजम तजि जब बूढ़ा होय, तब निन्दा अति पावं सोय ।
कांटा निगल मत्स्य ज्यों होय, पश्चात्ताप कर है सोय ॥
अर्ष-जिस प्रकार लोहे के कांटे पर लगे हुए मांस को खाने के लिए मछली उस पर झपटती है, किन्तु गले में कांटा फंस जाने से पश्चात्ताप करती हुई मृत्यु को प्राप्त होती है, उसी प्रकार संयम से भ्रष्ट हुआ साधु यौवन अवस्था के बीत जाने पर जब वृद्धावस्था को प्राप्त होता है तब वह पश्चात्ताप करता है।
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२७२
भूल
संस्कृत — यदा च कुकुटुम्बस्य
मूल -
मूल --
संस्कृत
संस्कृत - पुत्र दारपरिकीर्णो
मूल -
जया य कुकुडंवस्स कुततीहि विहम्मद | हत्थी व बंधणे बद्धो स पच्छा परितप्पड़ ॥
मूल
(७)
कुप्तभिर्विहन्यते ।
हस्तीव बन्धने बद्धः स पश्चात् परितप्यते ॥
(-)
मोहसंताणसंत ।
पुतदारपरिकिणो पंकोसन्नो जहा नागो स पच्छा परितप्पह ॥ मोहसन्तानसन्ततः ।
पङ्कावसन्नो यथा नागः स पश्चात् परितप्यते ॥
(ह)
अज्ज आहं गणी हूं तो भावियप्पा जइ हं रमंतो परियाए सामण्णे
अद्य तावदहं गणी अभविष्यं भावितात्मा पर्याये श्रामण्ये
यद्यहमरंस्ये
संस्कृत — देवलोकसमानस्तु रतानामरतानां
(१०)
देवलोगसमाणो उ परियाओ
रयाणं
अरयाण तु
दशर्वकालिकसूत्र
अमरोवमं
च
बहुस्सुओ । जिणदेसिए ||
बहुश्रुतः ।
जिनदेशिते ॥
महेसिणं । महानिरयसारिलो ॥
(११)
रयाण
जाणिय सोक्खमुत्तमं परियाए तहारयाणं । निरवोपमं जाणिय बुक्खमुत्तमं रमेज्ज तम्हा परियाय पंडिए ।
पर्यायो महर्षिणाम् । महानरकसदृशः ॥
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प्रथम रतिवाक्या चूलिका
२७३
चौपाई- संजम तजि कुटुम्ब में जाय, धन विन चितित बहुत रहाय ।
बंधन-बढ हस्ति-सा होय, पश्चात्ताप कर है सोय ।।
अर्थ-विषयभोगों के मोह-जाल में फंसकर संयम से पतित होने वाले साधु को जब खोटे कुटुम्ब की प्राप्ति होती है, तब वह आतंध्यान करता हुआ अनेक प्रकार की चिन्ताओं से उसी प्रकार दुखी होकर पश्चात्ताप करता है, जिस प्रकार कि बन्धन में बंधा हुआ हाथी दुखी होकर पश्चात्ताप करता है।
(८) चौपाई-पुत्र-नारि के मोह-वशाय, चिन्तित पीड़ित नित्य रहाय ।
पंक-पतित गज के सम होय, पश्चात्ताप कर है सोय ॥ ___ अर्ष-पुत्र-स्त्री आदि से घिरा हुआ और मोह-पाश में फंसा हुआ वह संयमभ्रष्ट साधु कीचड़ में फंसे हुए हाथी के समान पीछे बार-बार पश्चात्ताप करता है।
(९) चौपाई- यदि न साघुपद तजता तब, होता बहुश्रुत ज्ञानी अब ।
__ जिन-उपदिष्ट श्रमण-पर्याय, पालन कर आचार्य कहाय ।।
अर्थ-संयम से पतित हुआ साधु इस प्रकार से विचार करता है कि यदि मैं साधुपन न छोड़ता और भावितात्मा होकर (आत्म-भावना कर) जिनेश्वर देव द्वारा उपदिष्ट श्रमणपर्याय का पालन करता रहता तो आज बहुश्रुत ज्ञाता होता और आज मैं आचार्य होता।
चौपाई -- जो महर्षि संजमरत रहें, देव-लोक-सम सुखिया रहें ।
संजम-विरत रहें जो लोय, वे नारिक-सम दुखिया होय ॥
अर्थ-जो महर्षि संयम में रत रहते हैं, उनके लिए संयम-पर्याय देवलोक के सुखों के समान आनन्द-दायक है। किन्तु संयम में अरति (अरुचि) रखनेवालों को वही संयम-पर्याय नरक के समान दुखदायी प्रतीत होती है।
(११) चौपाई- संयम-रत सुर-सम सुख पावें, अरती नरकोपम दुख पावै ।
यह निश्चय कर संजम-लोन, रहते हैं पंडित परवीन ।।
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२७४
दशवकालिकसूत्र
संस्कृत
अमरोपमं ज्ञात्वा सौख्यमुत्तमं
रतानां पर्याये तथाऽरतानाम् । निरयोपमं ज्ञात्वा दुःखमुत्तमं
रमेत तस्मात्पर्याये पण्डितः ।।
धम्माउ भट्ठे सिरिमोववेयं
जन्नग्गि विज्झामिवप्पतेयं । होलंति गं दुग्विहियं कुसोलं
बादुद्धिवं घोरविसं व नागं ॥ धर्माद् भ्रष्टं श्रियो व्यपेतं
यज्ञाग्नि विध्यातमिवाल्पतेजसम् । हीलयन्ति एनं दुर्विहितं कुशीलाः
उद्धृतदंष्ट्र घोर विमिव नागम् ॥
संस्कृत
(१३) इहेव धम्मो अयसो अफित्ती
दुन्नामधेनं च पिहुज्जगम्मि । चुयस्स धम्माउ अहम्मसेविणो
संमिन्नवित्तस्स य हेट्टओ गई। इहैवाधर्मोऽयशोऽकीर्ति
दुर्नामधेयं च पृथगजने । च्युतस्य धर्मादधर्मसेविनः
मंभिन्नवृत्तस्य चाधस्ताद् गतिः।।
संस्कृत
मूल
म जित्त भोगाई पसन्स चेयसा
तहाविहं कट्ट असंजमं बहु । गई च गच्छे अणभिज्मियं बुहं
बोही य से नो सुलहा पुणो पुणो ।
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प्रथम रतिवाक्या चूलिका
२७५
अर्थ- संयम में रत रहने वाले महर्षियों के लित्र संयम-पर्याय देवलोक के समान उत्तम सुखदायक है, ऐसा जानकर तथा संयम में अरुचि रखने वालों को वही संयम नरक के घोर दुःखों ने समान दुःखदायी प्रतीत होता है, ऐसा जानकर बुद्धिमाद साधु को संयममार्ग में ही रमण करना चाहिए ।
(१२)
चौपाई - यज्ञ अगनि जब ही बुझ जाय, कोई न उसको नमन कराय : डा निकल नाग की जांय, तब कोई भी भय ना खाय ॥ त्यों तप-तेज-रहित मुनि होय, जब संजम च्युत होवे सोय । पापी जन भो निन्दा करें, सबहि ठौर अपमान कु धरै ॥ अर्थ - यज्ञ की अग्नि जब तक जलती है तब तक उसे पूज्य समझकर अग्निहोत्री ब्राह्मण उसे प्रणाम करता है, किन्तु जब वह बुझकर तेज रहित हो जाती है, तब उसे कोई नमस्कार नहीं करता, प्रत्युत उसकी राख को उठाकर बाहर फेंक देते हैं । तथा जब तक सांप के मुख में विषयुक्त दाढ़े रहती हैं, तब तक सब लोग उससे डरते हैं किन्तु दाढ़ें निकल जाने पर कोई उससे नहीं डरता । इसी प्रकार साधु जब तक संयम- स्थिर एवं तप के तेज से संयुक्त रहता है, तब तक सब उसका विनयसम्मान करते हैं । किन्तु जब वह संयम से भ्रष्ट होकर अयोग्य आचरण करने लगता है, तब हीनाचारी लोग भी उसका तिरस्कार करने लगते हैं ।
(१३)
चोपाई - संजमच्युत की निन्दा होय, अपयश और अकीरति होय । हो बदनामी इस हो लोक, दुरगति पाव सो परलोक ॥। अर्थ- संयमधमं से पतित अधर्म का सेवन करने वाला, ग्रहण किये हुए व्रतों को खंडित करने वाला साधु इस लोक में अधर्म, अपयश और अपकीति को प्राप्त होता है और साधारण लोगों में भी बदनामी एवं तिरस्कार को प्राप्त होता है तथा परलोक में नरकादि नीच गतियों में उत्पन्न होकर असह्य दु:ख भोगता है ।
(१४)
चौपाई - संजम पतित भोग को भोग, मूर्च्छा-वश करि पाप-संजोग । दुरगति में दुख भोगं जाय, समकित रतन न फेर लहाय ॥ अर्थ — तीव्र लालसा एवं गृद्धिभावपूर्वक भोगों को असंयम - पूर्ण निन्दनीय कार्यों का आचरण करके जब वह
भोगकर तथा बहुत से संयम भ्रष्ट साघु कालधर्म
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२७६
दशवकालिकसूत्र
संस्कृत
भुक्त्वा भोगान् प्रसह्यचेतसा
तथाविधं कृत्वाऽसंयम बहुम् । गति च गच्छेदनभिध्यातां दुःखां
बोधिश्च तस्य नो सुलभा पुनः पुनः ।।
मूल
इमस्स ता नेरइयस्स जंतुणो
दुहोवणीयस्स किलेसवत्तिणो । पलिओवमं झिज्जइ सागरोवमं
किमंग पुण मज्म इमं मणोदुहं ॥ अस्य तावन्नारकस्य जन्तोः
उपनीतदुःखस्य क्लेशवृत्तेः । पल्योममं क्षीयते सागरोपमं
किमङ्ग पुनर्ममेदं मनोदुःखम् ।।
संस्कृत
मूल
न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई
असासया भोग पिवास जंतुणो । न चे सरीरेण इमेण वेस्सई
अविस्सई जीवियपज्जवेण मे॥ न मे चिरं दुःखमिदं भविष्यति
अशाश्वती भोग पिसासा जन्तोः । न चेच्छरीरेणानेनापैष्यति
अपेष्यति जीवित-पर्यवेण मे ।।
संस्कृत
जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ
चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं । तं तारिसं नो पयलेति इंदिया
उतवाया व सुदसणं गिरि ॥
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प्रथम रतिवाक्या चूलिका
२७७
को प्राप्त होता है, तब वह अनभिलषित नरकादि गतियों में जाकर अनेक प्रकार के दुःखों को भोगता है और फिर उसे अनेक भवों में भी बोधि (सम्यक्त्व एवं जिनधर्म) की प्राप्ति होना सुलभ नहीं है ।
(१५)
निजहित करो ।
तातें चलित-चित्त मुनि जोय, सोच करहु निज मन में सोय । पल्योपम वा सागर - मान, सहे नरक में दुःख महान || तो यह मानव-जीवन केता, क्यों मनमें विकलप बहु लेता । यो विचार मन- चिन्ता हरो, संजम रत रह अर्थ- संयम में आने वाले आकस्मिक कष्टों से घबराकर संयम छोड़ने की इच्छा करने वाले साधु को इस प्रकार विचार करना चाहिए कि नरकों में अनेक बार उत्पन्न होकर मेरे इस जीव ने अनेक क्लेश एवं असह्य दुःख सहन किये हैं और वहां की पत्योपम और सागरोपम जैसी दुःखपूर्ण लम्बी आयु को भी समाप्त कर वहां से यहां निकल आया हूं तो फिर मेरा यह विषयाभिलाषरूप मानसिक दुःख तो है ही क्या ? नरकों के महा दुःखों में और इस घोड़े से मानसिक दुःखों में तो महाब अन्तर है । ऐसा विचार कर साधु को समभावपूर्वक वर्तमान में प्राप्त कष्ट सहन करना ही उचित है ।
चौपाई
(१६)
चौपाई - नहि यह दुख चिरकाल रहाथ, यदि मैं संजम में थिर रहूं,
भोग-लालसा भी मिट जाय । तो अनन्त भव-दुःख न सहूं ॥ अर्थ – यह मेरा दु:ख चिरकाल नहीं रहेगा। जीवों की भोग-पिपासा अशाश्वत है । यदि वह इस शरीर के रहते हुए नहीं मिटी तो मेरे जीवन की समाप्ति के समय तो अवश्य ही मिट जायगी । ( अत: आज काम भोगों के प्रलोभन से या तजनित वेदना से घबड़ाकर संयमधर्म को नहीं छोड़ना चाहिए ।)
(१७)
चौपाई - जिसका आतम अतिदृढ़ होय,
देह तर्ज पर धर्म न खोय । इंद्रिय उसे न विचलित करें, आंधी मेरु न डगमग करे ||
अर्थ --- जिसकी आत्मा इस प्रकार निश्चल (दृढ़ संकल्पयुक्त) होती है कि 'देह को त्याग देना चाहिए, पर धर्म-शासन को नहीं छोड़ना चाहिए, उस दृढ़प्रतिज्ञ
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२७८
संस्कृत
मूल
संस्कृत
यस्यैवमात्मा तु भवेन्निश्चितः त्यजेद्देहं न खलु धर्मशासनम् । तं तादृशं न प्रचालयन्तीन्द्रियाणि उपयद् वाता इव सुदर्शनं गिरिम् ।। (१८)
इन्वेव संपत्सिय बुद्धिमं नरो आयं उवायं विविहं वियाणिया । वाया अमाणसेणं तिगुत्तिगुतो जिणवयणमहिट्ठिनासि ॥
काएण
इत्येवं संदृश्य बुद्धिमान् नरः
आयमुपायं विविधं विज्ञाय । कायेन वाचाथ मानसेन त्रिगुप्तिगुप्तो जिनवचनमधितिष्ठेत्
पढमा रहबक्का चूलिया सम्मठे ।
[]
दशवेकालिकसूत्र
- त्ति बेमि
- इति ब्रवीमि
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प्रथम रतिवाक्या चूलिका
२७६
साघु
को ये इन्द्रियां उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकती हैं, जिस प्रकार कि वेगवाली गांधी सुदर्शनमेरु को विचलित नहीं कर सकती है।
(१२)
चोपाई - तातें ज्ञानी एम विचार, लाभ-अलाभ हिये अवधार ।
Moto
मन वच तन की गुपति करेय, जिनवानी का आश्रय लेय ॥ निज आतम में अब पिर होहु, संजम तें मत भूल चलेहु । मानुष भव को लाहा लेहु, अविचल शिवपद शीघ्र ही लेह ॥
अर्थ - इस प्रकार बुद्धिमान मनुष्य सम्यक् पर्यालोचन कर तथा विविध प्रकार
के लाभ और उनके साधनों को जानकर मन वच काय गुप्ति से गुप्त (सुरक्षित) होकर जिन वचनों का आश्रय लेवे ।
ऐसा मैं कहता हूं ।
प्रथम रतिवाक्या चूलिका समाप्त ।
!!
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विइया विवित्तरिया चूलिया
(१) मूल- चूलियं तु पवक्खामि सुयं केवलिभासियं ।
जं सुणितु सपुत्राणं घम्मे उप्पज्जए मई॥ संस्कृत- चूलिकां तु प्रवक्ष्यामि श्रुतां केवलिभाषिताम् । यां श्रुत्वा सपुण्यानां धर्मे उत्पद्यते मतिः ॥
(२) मूल
अणुसोय : पठिए बहुजणम्मि पडिसोयलद्ध
लक्खेणं । पडिसोयमेव
अप्पा दायव्वो होउ कामेणं ॥ संस्कृत- अनुश्रोत. प्रस्थिते बहु जने प्रतिस्रोतो लब्धलक्ष्येण ।
प्रतिस्रोत एवात्मा दातव्यो भवितुकामेन ॥
अणुसोय सुहो लोगो
पडिसोओ आसवो सुविहियाणं । अणुसोओ
संसारो पडिसोओ तस्स उत्तारो॥ संस्कृत- अनुस्रोतः सुखो लोकः प्रतिस्रोतः आस्रवः सुविहितानाम् ।
अनुस्रोतः संसारः प्रतिस्रोतस्तस्योत्तारः ॥
२८०
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द्वितीय विविक्तचर्या चूलिका
चौपाई- अब मैं कहूं चूलिका सार, जो जिन-भाषित ज्ञान-भंडार ।
सुन कर जिसे पुण्य-धर जीव, धर्म में धारै मती अतीव ।।
अर्थ-मैं केवली जिनदेव भाषित और आचार्यों से सुनी चूलिका को कहूंगा, जिसे सुनकर पुण्यवान जीवों की धर्म में बुद्धि उत्पन्न होती है ।
चौपाई- बहु जन विषय-भोग-अनुकुल, गमन करें लक्ष्य-प्रतिकूल ।
जब जन विषय-मोग-प्रतिकूल, गमन करें पावें भव-कूल ।।
अर्ष-अधिकतर लोग स्रोत के (भोग-मार्ग के) अनुकूल प्रस्थान (गमन) कर रहे हैं किन्तु जो मुक्त होना चाहना है जिसे प्रतिस्रोत (विषय-भोग के प्रतिकूल) मार्ग में गमन करने का लक्ष्य प्राप्त है, जो विषय-भोगों से विरक्त हो संयम की आराधना करना चाहता है, उसे अपनी आत्मा को स्रोत के प्रतिकुल ले जाना चाहिए अर्थात् विषय-भोगों में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए।
चौपाई- सुखी होंय जन भोग सुभोग, सुखी होंय जानी तप-योग ।
भोग-योग बाढ़े संसार, तपोयोग से हो भव-पार ॥
अर्थ-जन-साधारण स्रोत के अनुकूल चलने में सुख मानते हैं। किन्तु जो सुविहित साधु हैं वे तप साधना रूप प्रतिस्रोत चलने में सुखी होते हैं । आस्रव (इन्द्रिय-विजय) प्रतिस्रोत होता है । अनुस्रोत संसार है (जन्म-मरण की परम्परा है)
और प्रतिस्रोत उसका उतार है अर्थात् जन्म-मरणरूप संसार से पार होना है।
२८१
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२८२
दशवकालिकसूत्र
(४)
मूलतम्हा आयार परक्कमेण
संवरसमाहिबहुलेणं । चरिया गुणा य नियमा य
होति साहूग बव्वा । संस्कृत- तस्मादाचारपराक्रमेण संवरसमाधिबहुलेन ।
चर्या गुणाश्च नियमाश्च भवन्ति साधूनां द्रष्टव्याः ॥
मूल
अणिएयवासो समुयाणचरिया
अन्नायछ पारिक्कया य । अप्पोवही कलह विवज्जणा य
विहारचरिया इसिणं पसत्था । अनिकेतवासः समुदानचर्या
अज्ञातोञ्छं प्रतिरिक्तता च । अल्पोपधिः कलहविवर्जना च
विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्ता ।
संस्कृत--
इण्ण ओमाण विवज्जणा य
ओसन्न विगहडमलपाणे । संसट्ठकप्पेण चरेज्ज भिक्खू
तज्जायसंसट्ठ जई जएज्जा ॥ संस्कृत- आकीर्णावमानविवर्जना चोत्सन्नदृष्टाहतभक्तपानम् ।
संसष्ट कल्पेन चरेद् भिक्षुस्तज्जातसंसष्टे यतिर्यतेत ।।
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द्वितीय विविक्तचर्या चूलिका
(४) चौपाई- जो चार पराकमवत, संवर साध समाधि लगंत ।
पुनि गुण-नियमों में रत रहें, परिषह दुख वे सब ही सहें । ____ अर्ष-इसलिए व्रताचरण में पराक्रम करने वाले, संवर में सदा समाधि रखने वाले साधुओं को मुनि-चर्या के गुणों और यम-नियमों की ओर देखना चाहिए ।
चौपाई- घर तजि अनियत-वास कराय, बहु अजान घर भिक्षा लाय ।
उपधि अल्प, एकान्त-निवास, कलह छोड़ विचर ऋषि खास ॥
मर्ष-अनिकेत-निवास (गृह-वास का त्याग कर अनियत घर में रहना), समुदानचर्या (अनेक कुलों से भिक्षा लेना), अज्ञात कुलों से भिक्षा लेना, एकान्त-वास करना, उपधि (वस्त्र-पात्र आदि) का अल्प रखना और कलह का त्याग करना, यह विहारचर्या (जीवन-प्रवृत्ति) ऋषियों के लिए प्रशस्त है।
(६) चौपाई- पंक्ति-भोज का अरान न लेय, आकोरण अवमान तजेय ।
___ जो बाता दे सो ही लेय, असंसृष्ट कर-पात्र तजेय ॥
अर्थ-अकीर्ण (जहां बहुत भीड़-भाड़ हो ऐसा) भोजन, अवमान (जहां गिनती से अधिक खाने वालों की उपस्थिति हो, अर्थात् भोज्यसामग्री कम हो और खाने वाले अधिक हों, ऐसा) भोजन का विवर्जन करे, दृष्टस्थान से लाये गये भक्त-पान का ग्रहण साधुओं के लिए श्रेष्ठ है, संसृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा लेवे। अर्थात जो हाथ या पात्र दाल आदि से लिप्त हो, उसी हाथ या पात्र से आहार लेवे । दाता जो वस्तु दे रहा है, उसी से लिप्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेने का साधु यत्न करे।
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२६४
दशवकालिकसूत्र
मूल- अमज्जमंसासि अमच्छरीया
अभिक्खणं निविगई गया य । अभिक्खणं काउस्सग्गकारी
समायजोगे पयओ हवेज्जा ।। संस्कृत- अमद्यमांसाशी अमत्सरी च अभीक्ष्णं निर्विकृतिं गतश्च ।
अभीक्ष्णं कायोत्सर्गकारी स्वाध्याययोगे प्रयतो भवेत् ।।
सूल
न पडिन्नवेज्जा सयणासणाई
सेज्जं निसेज्जं तह भत्तपाणं । गामे कुले वा नगरे व देसे
ममत्तभावं न कहिं पि कुज्जा ।। न प्रतिज्ञापयेच्छयनासनानि
शय्यां निषद्यां तथा भक्तपानम् ।। ग्रामे कुले वा नगरे वा देशे
ममत्वभावं न क्वचित्कुर्यात् ॥
संस्कृत-
गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा
अभिवायणं वंदण पूयणं च । असंकिलिजेंहि समं वसेज्जा
मुणी चरित्तस्स जो न हाणी ।। संस्कृत- गृहिणो वैयावृत्यं न कुर्यादभिवादनं वन्दनं पूजनं च ।
असंक्लिष्टः समं वसेन्मुनिश्चारित्रस्य यतो न हानिः ।।
मूल
न वा लभेज्जा निउणं सहायं
गुणाहियं वा गुणो समं वा । एक्को वि पावाई विवज्जयंतो
विहरेन्ज कामेसु असज्जमाणो॥
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द्वितीय विविक्तचर्या चूलिका
२८५ (७) चौपाई- मय-मांस-स्यागी मुनिराय, विकृति-रहित भोजन चित लाय ।
पुनि पुनि कायोत्सर्ग करेय, ध्यान, शास्त्र-स्वाध्याय करेय ॥
अर्थ-- मद्य-मांस का अभोजी साधु बार-बार विकृतियों (दूध, दही आदि) को न खाये, मात्सर्य-रहित रहे, बार-बार कायोत्सर्ग करे तथा स्वाध्याय और ध्यानयोग में प्रयत्नशील रहे।
चौपाई- विचरत साधु न शपथ कराय, गृहिजन को ऐसा बतलाय ।
मासन-शयन न पर को दोजे, जब लौटू तब मुझको दोजे । प्राम नगर कुल देश-मंझार, ममता भाव न रखे लगार ।
नि:स्पृह भाव रख करे विहार, वीतरागता हिय में धार ॥
अर्ष- साधु विहार करते समय गृहस्थ को ऐसी प्रतिज्ञा न दिलावे कि यह शयन, आसय, उपाश्रम आदि जब मैं लौटकर आऊं, तब मुझे ही देना (और को मत देना) । इसी प्रकार भक्तपान भी मुझे ही देना, ऐसी प्रतिज्ञा भी न करावे । ग्राम, कुल, नगर या देश में कहीं भी ममता-भाव न रखे।
चोपाई- गेही का अभिवादन वन्दन, वैयावृत्य करे ना पूजन ।
पलेश-रहित सन्तों के संग, विधरं ज्यों व्रत रहे अभंग ।।
अर्थ-साधु गृहस्थ का वैयावृत्य न करे, उसका अभिवादन, (स्वागत), वन्दन और पूजन न करे । मुनि को सदा संक्लेश-रहित साधुओं के साथ रहना चाहिए, जिससे चारित्र की हानि न होवे।
(१०) चौपाई- बहुगुणि, सम-गुणि नाहिं मिलाय, तो एकाको साघु रहाय ।
विचरं पापों से रहि दूर, संयम-रत रहकर भर-पूर ॥ अर्ष-यदि कदाचित अपने से अधिक गुणी अथवा अपने समान गुणवााल
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२८६
दशवकालिकसूत्र संस्कृत- न वा लभेत निपुणं सहायं गुणाधिकं वा गुणतः समं वा।
एकोऽपि पापानि विवर्जयन् विहरेत्कामेष्वसज्जन ॥
मूल
संवच्छरं चावि परं पमाणं
वीयं च वासं न तहिं बसेज्जा । सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू
सुत्तस्स अत्थो जह आणवेह ॥ संस्कृत - संवत्सरं वापि परं प्रमाणं द्वितीयं च वर्ष न तत्र वसेत् । सूत्रस्य मार्गेण चरेद् भिक्ष : सूत्रस्याओं यथा ज्ञापयति ।।
(१२) जो पुवत्तावररत्तकाले
संपिक्खई अप्पगमप्पएणं । कि मे कडं किं च मे किच्चसेसं
कि सक्कणिज्जं न समायरामि ॥ संस्कृत- यः पूर्वरावापररात्रकाले
संप्रेक्षते आत्मकमात्मकेन । किं मया कृतं किं च मे कृत्यशेषं
कि शकनीयं न समाचरामि ।।
भूल-.
कि मे परो पासइ किं व अप्पा
कि वाहं खलियं न विवज्जयामि । इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो ____ अगागयं नो परिबंध कुज्जा । किं मम परः पश्यति किं वात्मा
किं वाहं स्खलितं विवर्जयामि । इत्येवं
सम्यगनुपश्यन् __ अनागतं नो प्रतिबन्धं कुर्यात् ।।
संस्कृत
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द्वितीय विविक्तचर्या चूलिका
२८७
निपुण साथी न मिले तो पापकर्मों का परिहार करता हुआ और काम-भोगों से अनासक्त रहता हुआ साघु अकेला ही विहार करे ।
(११)
मास अधिक जहं वासा होय । चौमासा न तहां पुनि करे ||
चौपाई - चौमासा इक पूरा दोय मास अन्तर विन
होय, करे,
अर्थ - जिन गांव या नगर में मुनि वर्षाकाल में चार मास और शेष काल में एक मास रह चुका हो, दो चातुर्मास और दो मास का अन्तर किये बिना मुनि को नहीं रहना चाहिए । साघु सूत्र ( आगम) मार्ग से चले और सूत्र का अर्थ जैसी आज्ञा दे, उसी प्रकार से चले ।
(१२)
चौपाई -- पूरब और अपर निशिकाल, आत्मालोचन करे संभाल । कीना क्या करना क्या शेष रहा प्रमाद-वश मुझ से शेष ||
अर्थ - जो साघु रात्रि के पहिले और पिछले पहर में अपने आप अपना आलोचन करता है कि मैंने क्या किया और क्या कार्य करना शेष है । वह कौन-सा कार्य है, जिसे मैं कर सकता हूं, पर प्रमाद-वश नहीं कर रहा हूं ।
(१३)
चोपाई - लवं अन्य क्या मेरो भूल, देखूं या अपनी ही भूल । कौन चूक मैं तजी न अबलों, यों विचार अब तो मैं संभलों ॥ आगे का निदान नह करे, वर्तमान ममता परिहरे । निन्दा गहरा मुनि नित करे, शान्तभाव रख नित ही विचरे ॥
अर्थ - क्या मेरे प्रमाद को कोई देखता है, अथवा अपनी भूल को मैं स्वयं देख लेता हूं। वह कौनसी चूक है, जिसे मैं नहीं छोड़ रहा हूं ? इस प्रकार भली-भांति से आत्म-निरीक्षण करता हुआ साधु अनागन का प्रतिबन्ध न करे, अर्थात् न असंयम में बंधे और न आगे के लिए निदान करे ।
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२८८
- मूल
संस्कृत
-
मूल -
संस्कृत
मूल
संस्कृत
(१४)
जत्येव पासे कह दुप्पउत्तं काएण वाया अदु माणसेणं । तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा आइओ खिप्पमिव क्खलीणं ॥
यत्र व पश्येत्क्वचिदुष्प्रयुक्त कायेन वाचाऽथ मानसेन । तत्रव धीरः प्रतिसंहरेदाकीर्णकः क्षिप्रमिव खलिनम् ॥
(१५) जोग जिड़ दियस्स
धिमओ सप्पुरिसस्स निच्चं ।
जस्सेरिया
तमाहु लोए feबुद्धजीवी सो जीवइ
यस्येशा योगा जितेन्द्रियस्स
धृतिमतः तमाहर्लोके
सत्पुरुषस्य नित्यम् । प्रतिबुद्धजीविनं
स जीवति संयमजीवितेन ||
संजमजीविएणं ॥
(१६) अप्पा खलु सययं रक्aिroat
सव्वदिह सुसमाहिहि । अरक्खिओ जाइपहं उवेइ
सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ॥
दशवैकालिकसूत्र
=
आत्मा खलु सततं रक्षितव्यः सर्वेन्द्रियैः सुसमाहितैः । अरक्षितो जातिपथ मुपैति सुरक्षितः सर्वदुःखेभ्यो मुच्यते ॥
विइया विवित चरिया चूलिका सम्मत्ता |
-त्ति
- इति ब्रवीमि
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द्वितीय विविक्तचर्या चूलिका
(१४)
मन वच काय कुवृत्ति लबेय, तुरत साधु मन में संभलेय । खींचत जाति - अश्वलगाम, सावधान चाले सुललाम ॥ अर्थ – जहां कहीं भी मन, वचन और काया को दुष्प्रवृत्त होता हुआ देखे, तो धीर वीर साधु को तुरन्त वहीं संभल जाना चाहिए । जैसे कि उत्तम जाति का घोड़ा लगाम को खींचते ही संभल जाता है ।
चौपाई
चौपाई -
-
(१५)
जिसके ऐसा योग रहाय, सावधान सो मुनि कहलाय । संयम से जीवित वह रहे, धीर जितेन्द्रिय उसको कहें ॥
अर्थ - जिस जितेन्द्रिय, धैर्यवान् सत्पुरुष की योग साधना इस प्रकार की होती है, वह लोक में प्रतिबुद्धिजीवी कहा जाता है और वही संयमी जीवन के साथ जीता है ।
(१६)
निज आतम में तन मन धरे । सुरक्ष ॥ दूरहि रहो ।
जन्म-मरण पावे असुरक्ष, वुलसे छूट यातें मुनि, संयम-रत रहो, विषय-भोगत जिससे होवे बेड़ा पार, पहुँचो शिव सुख के आगार ॥
सदा
लौपाईं - होय जितेन्द्रिय रक्षा करे,
१६
२८९
अर्थ - अतएव इन्द्रियों को अपने वश में करके साधु को अपने आत्मा की
सदा रक्षा करनी चाहिए। क्योंकि अरक्षित आत्मा जाति-पथ (जन्म-मरण के मार्ग ) को प्राप्त होता है और सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है ।
ऐसा मैं कहता हूं ।
द्वितीय विविक्तचर्या चूलिका समाप्त ।
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उपसहार
चौपाई- स्वामि सुधर्मा गति जे अहई, निज सुशिष्य बंबू को कहई । जो कछु सुन्यो वीर जिन पाहीं, सो हों कहीं और कछु माहीं।
शिखरिणी अहिंसा सिद्धान्तं यदि सुजन कान्तं भवि-हितं, गुणानामागारं सुखब मतिसारं हवि घृतम् । मुनीनामाचारं विमलमतिचार सुचरितं, ततो बोषातीतं सुगतिरमणी तं बरयति ।
प्रन्थ-परिचय दोहा- बरावकालिक सूत्र में, आल्यो मुनि-आचार ।
मांति-मांति मासित कियो, संजति को व्यवहार ॥१॥ 'सज्जमव' गनिवर सुघर, निज सुत 'मनिक' निहार । अलप आयु षटमास लखि, आगम निरति अपार ॥२॥ सूत्र अन्य को मथि करि, संत - पंच • नवनीत । काढ़ि पढ़ायो सुतनि कों, रह्यो सुगहि मुनि-रीत ॥३॥ मन ही राख्यो भाव सब, पिता पूत को प्यार । जब वा सुतने तनु तज्यो, बही नयन - जल - धार ॥४॥ तब सब सावुनि ने कहा, 'नाय, कहा यह बात' ? तब गनिनें परगट कही, हुतो यह तनु - जात ॥५॥ तब सानि विनती करी, 'नाथ, कहो कि न आप । रखते उनको लाड़ से, यह हम-मन अति ताप' ॥६॥ तब गनिवर ऐसे कही, 'हम जो करत प्रकास । होतो तुमरे प्यार ते, वाको काज विनास' ॥७॥
२९०
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उपसंहार
२९१
बिनु संबन सेवन किये, बिन तप कोने तात ? क्यों कटते बाके करम, नेक विचारह बात' ॥८॥ तब सबने ऐसे कही-'धन्य धन्य - प्रभु बाप ॥ भव-भय - मंजन - हार हो, आपहि सांचे बाप ॥॥ ऐसे बया- निधान • कृत, यह आगम को सार । संत पुरुष धारन करत, तुरत लहत भव-पार ॥१०॥ संगति के व्यवहार को है यह उत्तम पंप । 4 गृहस्थ हू जो गहै, सहज बहै सत-पंच ॥११॥ हिसादिक पुरगुन तजे, मज सकल गुन सार ।। सरल विनय-संजुत रहे, लहै अवस भव-पार ॥१२॥
भाषा पत्रकार का निवेदन सो प्राकृत में पाठ है, टीका टवा अनेक । बब बानी के पदनि में, अब लग हुतो न एक ॥१॥ श्रीयुत मिश्रीमल्ल मुनि, मोसों आयसु बीन । तब मैं आगम-वचन गहि, पब-रचना यह फोन ॥२॥ कलुक पाठ अनुसार है, भली भांति अनुवाद । कहूँ कछुक विस्तार करि, सहन गयो अत-स्वाद ॥३॥ सार भाव सरबत गयो, विसम बद्यौ कछु नाहिं । चक होय सो करि कृपा, साघु सुधारहिं ताहि ॥४॥ उपाध्याय श्री आत्म मुनि-तिलक-माष्य कृत एक । ताके अधिक अधार सों, विरच्यो सहित विवेक ॥६॥ गगन नंद विधि इंदु पर, दीपावलि दिन पाय । जोध नगर में यह बन्यो, मारवार के मांग ॥६॥
प्राम कुचेरा-वासि हुं मापुर अमृतलाल । 'भाषा - भूषण' तिन करी, छंदोबड रसाल ।
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दशवकालिक के मूल पदों व हिन्दी पद्यों का विवरण अध्ययन नाम अध्ययन पत्र संख्या अध्ययन नाम अध्ययन पच संख्य १ द्रमपुष्पिका
५ ९ विनयसमाधि प्रथम उद्देशक १७ २ श्रामण्यपूर्वक
, द्वितीय उद्देशक २३ ३ क्षुल्लकाचार कथा १५ , तृतीय उद्देशक १५ षड्जीवनिका पद्य सः
" पिच सू० ७ ५ पिण्डषणा प्रथम उद्देशक १.० १० स भिक्ष
, द्वितीय उद्देशक ५० प्रथम रतिवाक्या चूलिका महाचार कथा वाक्य-शुद्धि आचार-प्रणिधि
द्वितीय विविक्तचर्या
" चतुर्थ उद्देशक (गद्य सू० ७
गद्य सू० १८
५७
___ संख्या
छन्द नाम दोहा चौपाई
हिन्दी पर संख्या क्रम १८२ १५ २३५ १६
१७
छन्द नाम पोटक मार्या मालिनी उपेन्द्रवजा मोतियादाम
mm
कवित्त
"
r
ur
वेताल
१ २० ६ २१
.
२२
.
सोरठा सर्वया छप्पय नाराच पद्धरी तोमर अरिल्ल द्र तविलम्बित त्रिभंगी शिखरिणी वियोगिनीवत्
२ २३ १२ २४
.
हरिगीतिका गोपिकागीतिवत रोला वसन्ततिलका लावणीवत् जिहितें अन्य
१ २७
कुल-५१८ पच
२६२
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ઘણેશ,
सुभाषित पारिभाषिक शब्द-कोश
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- शवैकालिक के सुभाषित
१ धम्मो मंगलमुक्किट्ठ ।
२ अच्छंदा जे न भुजंति न से चाइत्ति बुच्चइ ।
३ साहीणे चयइ भोए से हु चाइ त्ति वुच्चइ । ४ पढमं नाणं तओ दया ।
५ सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणड पावगं । ६ दुल्लहा हु मुहादाई मुहाजीवी वि दुल्लहा । ७ काले कालं समायरे ।
८ अलाभो त्ति न सोएज्जा, तवो त्ति अहियासए । e अदीणो वित्तिमेसेज्जा
१० अहिंसा निउणं दिट्ठा सव्वभूएस संजमो ।
११ जे सिया सन्निही कामे गिही पव्वइए न से ।
१२ मुच्छा परिग्गहो वृत्तो ।
१३ सच्चा वि सा न वत्तब्वा जओ पावस्स आगमो ।
१४ वएज्ज बुद्ध हियमाणुलोमियं ।
१५ मियं भासे ।
१६ आसुरत्तं न गच्छेज्जा ।
१७ देहे दुक्खं महाफलं ।
१८ सुयलाभे न मज्जेज्जा ।
१६ से जाणमजाणं वा कट्टु आहम्मियं पयं । संवरे खिष्पमप्पाण बीयं तं न समायरे ॥
२० अणायारं परकम्म नेव गूहे न निण्हवे । २१ जरा जाव न पीलेइ वाही जाव न वड्ढई । जाविदिया न हायंति ताव धम्मं समायरे ॥
२६५
१०१
२२
२३
४|१०
४|११
५।१।१००
५।२२४
५।२६
५।२।२६
६८
६११८
७।११
७५६
८१६
८२५
८२७
८१३०
८।३२
८३२
८।३५
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२९६
दशवकालत
८.४६
२२ कोहं माणं च मायं च लोहं च पाववडणं ।
बमे चत्तारि दोसे उ इच्छंतो हियमप्पणो । ८.३६ २३ कोहो पीई पणासेइ माणो विणयनासणो ।
माया मित्ताणि नासेइ लोहो सव्वविणासणो॥ ८३७ २४ उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे ।
मायं चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥ ८.३८ २५ राइणिएसु विणयं उजे ।
८.४० २६ निदच न बहुमन्नेज्जा ।
८.४१ २७ बहुस्सुयं पज्जुवासेज्जा।
८.४३ २८ अपुच्छिओ न भासेज्जा भासमाणस्स अंतरा।
૪૬ २६ पिट्ठिमंसं न खाएज्जा ।
८।४६ ३० दिळं मियं असंदिद्ध पडिपुन वियं जियं । अयंपिरमणुन्विग्गं भासं निसिर अत्तवं ।।
८४८ ३१ आयारपन्नत्तिधरं दिठिवायमहिज्जगं ।
वइविक्खलियं नच्चा न तं उवहसे मुणी ॥ ३२ कुज्जा साहूहिं संथवं।
चा५२ ३३ न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए। ३४ सुस्सूसए आयरियमप्पमत्तो।
६।१।१७ ३५ धम्मस्स विणओ मूलं ।
६२।२ ३६ असंविभागी न हु तस्स मोक्खो।
२।२२ ३७ मुहुत्तदुक्खा हु हवंति कंटया अओमया ते वि तो सुउद्धरा।
वायादुरुत्तणि दुरुद्धराणि वेराणुबंधीणि महन्मयाणि ॥ ३७ ३८ गुणेहि साहू अगुणेहिसाहू ।
६३११ ३६ सुयं मे भविस्सइ त्ति अज्झाइयव्वं ।
सू० ६।४१५ ४० एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं । सू० ६।४५ ४१ निज्जरठ्याए तवमहिढेज्जा ।
सू० ६।४६ ४२ वंतं नो पडियायई।
१०१ ४३ अत्तसमे मनेज्ज छप्पिकाए।
१०१५ ४४ नेय वुग्गहियं कहं कहेज्जा ।
१०।१० ४५ पुढवि-समे मुणी हवेज्जा। ४६ अत्ताणं न समुक्कसे।
१०१८ ४७ मणुयाण जीविएकुसग जलबिंदु चंचले । चू० सू० १११६ ४८ चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं ।
चू० १११७
१०११३
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मूल शब्द
अहभूमि
अडवाय
अक्खोड
अगंधन (सर्प)
अचियत्त
अज्झोयर
अणा इष्ण
अणाइन्न
अणिमिस
हि
अणुजाण
अनुस्सिन
अणोहाइव
अन्नायउ छ
अपठि
अरइ
पारिभाषिक शब्द कोश
स्थल
५।१।२४
सू० ४।११
" ४।१६
२६
५।१।१७
५१/५२
३|१|१०
७२
५।१।७३
१०।१३
६ । १४
५२ २१
च० १०१
हिन्दी अर्थ
वह स्थान जहां पर भिक्षुओं का जाना मना हो ।
नाश करना, वियुक्त करना ।
थोड़ा या एक बार झाड़ना ।
वह सांप जो वमन किये (काटे गये) विष को मंत्रवादी द्वारा प्रेरित किये जाने पर भी वापिस नहीं चुसता, भले हो अग्नि प्रवेश करना पड़े ।
अप्रीतिकर या अप्रतीतिकर
वह भोजन जो गृहस्थ द्वारा मुनि के निमित्त अधिक पकावे |
साधुओं के योग्य नहीं करने वाले कार्यं । जिसका आचरण नहीं किया गया ।
अननास फल ।
छल - रहित
अनुमोदन करना ।
अग्नि द्वारा नहीं उबाला गया ।
संयम से बाहर नहीं गया हुआ ।
अपना परिचय दिये बिना अपरिचित घरों से
थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेने वाला ।
| ६|३|४
१०।१६
५।१।१३
उत्सुकता - रहित ।
८।३७ अरति मोहनीय के उदय से उत्पन्न होने वाली
मानसिक अप्रीति ।
२६७
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________________
२९८
मल्लीन-पलीण-गुत्त अविहेडम
असपर असंविमागि
असच्चमोसा
मसत्य परिणय
दशवकालिकसूत्र ८।४० इन्द्रिय और मन से संयत । ११० अविहेठक, दूसरों का तिरस्कार नहीं करने
वाला। ७.३३ असंस्तृत, फल-भार धारण करने में असमर्थ । ६।२।२२ सधर्मा श्रमणों को भक्त-पान का समुचित
विभाग नहीं करने वाला। ७३ असत्यामषा, व्यवहारभाषा, जो न सत्य हो
और न असत्य, ऐसी आमंत्रणी, आज्ञापिनी
भाषा। ५।१।२३ वह वस्तु-जिसकी सचित्तता किसी विरोधी
वस्तु द्वारा नष्ट न हुई हो। ५॥१९८ असूपिक, व्यंजन रहित । १४ यथाकृत, गृहस्थ द्वारा अपने लिए बनाया गया
भोजन । चू० २।१४ आकीर्णक, उत्तम जाति का घोड़ा। ३६ आतुरस्मरण, आतुर अवस्था में पहले भोगे हुए
भोगों का स्मरण करना। ७.५६ आनुलोमिका, अनुकूल भाषा । चू० १११ शीघ्रघाती रोग । ५।२।३४ आयतार्थी, मोक्षार्थी ।
६।२।४ भाचार-गोचर, क्रिया-कलाप । 5 ३३५ १६.५३ आदि
भद्रासन, बिना तकिये का आसन ।
अहागर
आइन्सम
बाउरस्सरण
आणुलोमिया आयंक आपछि मायार-गोयर आसंदी
भासब
११०५ आस्रव, कमों का मात्मा में आना।
आसायणा
बासालय
आहियग्गि
चु० २-३ इन्द्रिय-विजय-युक्त-प्रवृत्ति । ९।१२ आदि गुरु का अपमान, असभ्य व्यवहार ।
६।५३ आशालक, तकिया वाली कुर्सी। ६।१११ आहिताग्नि, अग्नि का उपासक, अग्नि को ३१ सदा प्रज्वलित रखनेवाला ब्राह्मण । ५१६५ ईंट का टुकड़ा। चू० ११ इत्वरिक, अल्पकालिक । ५।२८ ऐपिथिकी, गमनागमन-सम्बन्धी प्रतिक्रमण
क्रिया ।
इहाल इत्तरिय हरियावहिया
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परिशिष्ट : शब्दकोष
२६१
इहलोग
उंछ
उक्कट्ठ उक्का
उत्तिग उबगबोणी उहसिय उप्पिलोवगा
उम्मिय उन्भेइय उववन्न
उबहि
उस्सक्किया उस्सिचिया
८४३ आदि इहलोक, वर्तमान जीवन । S८.२३
नाना घरों से लिया हुआ थोड़ा आहार । ११०।१७ ५॥१॥३४ फलों के सूक्ष्म खंड, पत्तों के टुकड़े। सू० ४।२० उल्का, वह ज्योतिपिंड जिसके गिरने के साथ
चमकती रेखा दिखाई देती है। ५११५६
शप कीड़ी नगरा, जन्तु विशेष ।
७।२७ उदकद्रोणी, जल की कुंडी। ३१२ आदि साधु के उद्देश से बना आहार । ७.३९ दूसरी नदियों द्वारा जिसका वेग बढे ऐसी
नदी। सू० ४६ भूमि को फोड़कर निकलने वाला जीव ।
६।१३ समुद्र के पानी से बना नमक । ६।२।५,६ राजा आदि की सवारी में काम आने वाला वाहन ६।२१ आदि वस्त्र, पात्रादि उपकरण ।
५११६६ जलते हुए चूल्हे में ईधन डालकर । ५।१६३ अधिक भरे पात्र में से कुछ निकालकर । (श।२५ उच्च, ऐश्वर्य-सम्पन्न । । ७।३५ ऊपर उठा हुआ।
५।२।४८ भेड़ के समान गंगापन । १३ आदि आहार आदि की खोज करना । ५।११३६ आदि निर्दोष भक्त-पान । चू० सू० १११ नीच मनुष्य । चू० २१६ वह जोमनवार- जिसमें थोड़े लोगों के लिए
भोजन बनाया गया हो और खानेवाले अधिक
आ जावें। ५॥१०६३ आग पर रखे पात्र को नीचे उतार कर । शश६३ औपघातिक, चोट पहुंचाने वाला। ५१६३ अग्नि पर रखे अन्न को दूसरे पात्र में डालकर। सू० ४६ उपपात जन्मवाले देव-नारकी।
५।११४ अवपात, गड्ढा, उतार ।। चू० ११७ अवसन्न, निमग्न, डूबा हुआ।
ऊसढ
एलयमूयया एवणा एसणिय बोमजण ओमाण
मओयायरिया मोवघाइय मोवत्तिया मोववाइय मोवाय मोसन्न
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३००
मास भविष्ठा.
महाविन
ओहारिणी
कायतिन्ज
कालमासिणी
कासव-नालिया
कोयगड
कुंडमोय
फुक्कुल
कुतति
कुम्मास
फुललओ
फुसील
केज्ज
कोल
1.
संघीय
लोण
खाइम
खाण
बेल
गंडिया
गंणा (सर्प)
गंभीरविजय
च २।६ चु० १ श्लो० ६
सावधानीपूर्वक देखकर लाया हुआ । साघुत्व से पतित ।
Re
रावणी, निश्चयात्मक भाषा ।
७३८ कायतार्य, तैरकर पार करने योग्य ।
पूर्णगर्भवती |
श्रीपर्णी वृक्ष का फल ।
५१४०
५२ २१
८३।१
५।१।५५
६।५०
५।११३४
चू० १ श्लोक ७
५।१।६८
८५३
६।५८
१०1१८
७४५
सू० ४।३२
५२ २१
२१
{
चू० २।१४ ५।१।४७ आदि
दशवेकालिकसूत्र
क्रीतकृत, साधु के लिए खरीदा हुआ।
कांडे के आकार या हाथी के पैर के आकार
वाला मिट्टी का बरतन ।
धान्य- कण-युक्त तुष, भूसा ।
कुतृप्ति, दुश्चिन्ता ।
५।१।४७ आदि
८।१८
७।२८
२१८
कुल्माष, उड़द ।
कुललकस्, बिल्ली से ।
निन्द्य आचरण वाला ।
क्रेय, खरीदने के योग्य |
घुन ।
बेर, बोर ।
स्कन्ध, वृक्ष का तना, जिससे शाखाएं निक
लती हैं ।
सू० ४।८ स्कन्धबीज, वह वनस्पति जिसका स्कन्ध ही
बीज हो ।
खलिन, घोड़े की लगाम ।
खादिम, खाद्य, खाजा आदि खाने के योग्य
पदार्थ |
स्थाणु कुछ ऊपर उठा हुआ वृक्ष का कटा ठूंठ । क्ष्वेल, श्लेष, कफ ।
गंडिका, अहरन, ऐरन ।
सांपों की वह जाति, जो वमन किये विष को वापिस पी ( चूस लेता है, गन्धन कहलाती है । ६।५५ ऊँचे छेदवाला ।
1
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________________
परिशिष्ट : शब्द-कोश
गल
चू० १ श्लो० ७ वंशी, मछली फंसाने का कांटा।
८।११ गहन, वन, वृक्ष-निकुंज। गाम-कंटन
१०।११ ग्राम-कंटक, कांटों के समान चुभने वाले इन्द्रिय
विषय । गाया-भंग
३९ गात्राम्यंग, शरीर की मालिश । गिहतर-निसेम्जा
२५ घर के भीतर बैठना, दो घरों के बीच में
बैठना। गिहि-मत
३१३ गृहामत्र, गृहस्थ का वरतन, पात्र । गुज्जग
१२२।१० गुह्यक, यक्ष, देव । गुज्झाणुचरिय
७.५३ गुह्यकानुचरित, आकाश । गोच्छग
सू० ४।२३ पात्र ढांकने के वस्त्र को साफ करने का वस्त्र । गोण
५।१।१२ बैल । गोभि
७।१९ गोमान , पुरुष की प्रशंसा-सूचक शब्द । गोभिणी
७१६ गोमिनी स्त्री की प्रशंसा-सूचक शब्द । गोरहग
७२४ बल। घसा
६।६१ पोली जमीन । चंगबेर
७२८ काष्ठ पात्र, काठ की प्याली। चाउलोग
श१७५ चावल का धोवन ।
११११. प्रीतिकर या प्रतीतिकर । चुल्लपिउ
७१८ पिता का छोटा भाई, काका, चाचा। छविय
१०६ निमंत्रित कर ।
६५१ हिंसा करना । छविडय
७.३४ फली-युक्त। छाय
१७ जिसके शरीर में कशाघात से घाव हो गये हों,
भूखा। छारिय
५।१७ क्षार-(राख) सम्बन्धी । छिवाड़ी
।२।२० मूग आदि की फली।। चू० १ श्लो० ५ क्षिप्त फेंका हुआ, बन्दी किया हुआ।
४ श्लो० ११, ११ क्षेय, हित । जंतलट्ठि
२८ यंत्र-यष्टि, कोल्हू की लकड़ी, लाट । जगनिस्सिय
८।२६ जीव-रक्षा में तत्पर ।
१९५
व्य
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________________
३०२
दशवकालिकसूत्र
पुगमाया मुसिर सोसइत्ता
टाल
तन्जायसंसट्ठ तत्तनिपुर तत्तफासुप तिरिच्छ संपाइम
तुपट तेगिच्छा
५।१६ आदि यज्ञ।
८।१८ शरीर का मैल ।
६३४ यापन, जीवन-निर्वाह । ६।११४ आदि जाति-पथ, संसार ।
५।११३ युगमात्रा, चार हाथ-प्रमाण ।
५५११६६ शुषिर, पोला। चू० १ सू० १ सुखाकर । ७.३२ कोमल फल, गुठली उत्पन्न होने से पहिली
अवस्था का फल। २६ तज्जातसंसृष्ट, सजातीय द्रव्य से लिप्त । ५।२।२२ गर्म होकर ठंडी हुई वस्तु ।
६ तपाकर निर्जीव हुमा पदार्थ । ५।१८ उड़कर आ गिरने वाले छोटे जन्तु । ५।१७० कद्द फल, तू बा। सू० ४।२२ सोना, करवट लेना।
३।४ रोग की चिकित्सा करना। S६११ १६।३।१२ स्तम्भ, अहंकार।
का ६।२।३ गर्वोन्मत्त। ५२१११५ ईट आदि से रोका हुआ द्वार ।
३।३ दांत घोना।
३९ दातुन करना। ५२१११५ जल-गृह ।
गीली मिट्टी, कीचड़। ॥१३६ ७४२४ दम्य, दमन करने के योग्य, बोझा ढोने के
योग्य। ५।१।१४ जल्दी या उतावल से चलना । ५।१।३२
कड़छी, दाल आदि परोसने का चम्मच । १५॥१॥३५-३६
५।२।३१ दर्शित, दिखाया हुआ।
७.२४ दोहए, दुहने के योग्य । ५।२।३२ दुस्तोषक, जो सहज में सन्तुष्ट न हो।
बंग
पिग्गल बन्तपहोयणा
बगमट्टिया
कुत्तोसम
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________________
घाय
परिशिष्ट : शब्द-कोश दुष्परिकत चू. १ सू०१ जिसका प्रतिक्रमण न किया हो। दुम्मणिय __३८ दौर्मनस्य, खोटी मनोवृत्ति । दुरहिदिव्य
६४ दुरधिष्ठित, दुर्धर । बुग्विहिय चु० १ श्लोक १२ विधि-विधान से प्रतिकूल आचरण । बुस्सेन्जा
८।२७ सोने की विषमभूमि । बेह-पलोयणा
३३ दर्पण आदि में शरीर देखना। ७.५१ सुभिक्ष ।
(४२० घण
१९ झाड़ना, हिलाना।
।६।६७ धुवजोगि
१०६ मन, वचन, काय की स्थिर प्रवृत्ति वाला। विसीलया
८।४. ध्र व-आचरण, शील के अठारह हजार भेदों
का पालन । धूमकेउ
श६ अग्नि । धूवत्ति
८॥४. धूमनेत्री, धूम पीने की नली, चिलम । नंगल
७।२८ लाङ्गल, हल । नत् गिय
७.१८ नाती, बेटी का बेटा, घेवता । नत णिया
७।१५ नातिनी, बेटी की बेटी, घेवती। नाणापिट
११५ अनेक घरों से लाया भोजन । नालीय
३।४ पासा डाल कर खेला जानेवाला जुआ । লিত
६।२१४ नियन्त्रण करना। निगामसाई
४।२६ काल-मर्यादा से अधिक सोने वाला। ३।११ इन्द्रिय और मन का निग्रह करने वाला। ८।३२ मुकर जाना।
७.५७ झाड़कर। निप्पुलाम
१११६ निप्पुलाक, निर्दोष । निर्यात
५।२।३७ निकृति, वंचना, माया।
३२ नित्याग्र, निमंत्रित कर नित्य दिया जाने वाला
६।४८ भोजन-पानादि। मिरासय १४ सू०६ श्लो०४ निराशक, प्रतिफल की आशा न रखने वाला। निब्बग्यि
६।२४ निपतित गिरा हुआ। निसंत
९।१।१४ निशान्त, प्रभातकाल । निसिर
८।४८ बाहर निकालना। निसोहिया
शरार निषीधिका, स्वाध्यायभूमि ।
नियाग
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________________
३०४
दशवकालिकसूत्र
निस्सिय निहा निहुम नोसा पइरिक्कया पोम पंग पंसुखार पक्खोड
पच्छाकम्म
पन्जय पज्जिया पहागा
पडिमाय पडिकुछ पडिग्गह
१०४ निश्रित, आश्रित । १०८ संचय कराना।
निश्चल, स्थिर चित्त वाला। २११४५ चक्की का पाट । चू० २।५ प्रतिरिक्तता, एकान्तता । ।२।१६ प्रतोद, चाबुक । ७।१२ पंडक, नपुंसक ।
३०८ ऊपर का खार, नोनी मिट्टी। सू० ४।१९ बार-बार झटकना। ५।१३५ साधु को भिक्षा देने के बाद सचित्त जल से ६।५२ हाथ धोना आदि कार्य । ७।१८ परदादा, परनाना ।
७।१५ परदादी, परनानी। चू० १ ० १ पताका, पतवार ।
१०१ वापिस पीना (वापिस लेना) ५।१।१७ निषिद्ध । १२७ आदि प्रतिग्रह, ग्रहण करना।
५॥११३६ ५।११३८
६।३३ प्रतीचीन, पश्चिम दिशा-सम्बन्धी । २१०२८ आदि निषेध करना। चू० १ सू०१ वापिस पीना या वापिस लेना।
५॥१॥२५ प्रतिलेखन करना, निरीक्षण करना ।
५।२।५ चू० २।२।३ प्रतिस्रोत, भोग-विरक्ति । ५।१२५६ पनक, काई, साधारण निगोदिया जीववाली ८।११ वनस्पति । ७।४५ पण्य, बेचने योग्य वस्तु । ७।३७ पण्यार्थ, स्वार्थसिद्धि के लिए अपने प्राणों को
खतरे में डालनेवाला, या प्राणों की बाजी
लगाकर बेंच-खरीद करनेवाला। ५॥११८ बोलना।
लेना।
परिच्छ पडिण पडिमाइक्स पडियाइयण परिलेह
पडिसोय
पणग
पणिय पणिय
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________________
परिशिष्ट : शब्द-कोष
३०५
पमेइल पयत्तलठ्ठ पयावंत परग्य पवील पाणहा पाणिपन्जा
७/२२ प्रसाद।
७४२ प्रयत्न से सुन्दर किया गया । सू० ४१६ बार-बार सुखाता हुआ।
७।४३ पराय, बहुमूल्य । ४ सू० १६ निचोड़ना।
३०४ उपानह, जूता। ७।३७ प्राणिपेया, तट पर बैठे प्राणियों के द्वारा पीने
योग्य जल वाली नदी। ५॥१॥५५ साधु को देने के लिए उधार लिया अन्न-पान । ७।३२ पाकखाद्य-भूसे आदि में रखकर पकाने के
बाद खाने योग्य फल । ८।४३ परत्र, परलोक। ५।१।१८ प्रावार, कम्बल आदि ओढ़ने का वस्त्र ।
७।१५ पितृस्वसा, पिता की बहिन, बुना। ६४७ अन्नपिंड, भोजन ।
पामिन्च पायखज्ज
पावार पिउस्सिय
पिड
(५१॥३३ पिष्ट, आटा।
पिट्ठ पिटिठमंस पिण्णाग पियाल पिहुखज्ज पिहुजण
।२।२२ ८।४६ चुगली। ।।२२ तिल-सरसों आदि की खली। ५।२।२४ चिरोंजी।
७.३४ पृथुखाद्य, चिवड़ा बनाकर खाने योग्य । चु० १ श्लो० १३ साधारण मनुष्य ।
४।सू० २१ मोर पंख। ४।सू२१ मोर-पिच्छी।
५।६ पुरुषकारिता, पुरुषार्थ, उद्योग । 5॥१॥३२ पुरः कर्म, भिक्षा देने के पूर्व सचित्त जल से । ६५३ हाथ आदि धोना । १०।१६ उन्मत्त, पागल ।
पिहुण
पिहुणहत्य पुरिसकारिया पुरेकम्म
पुल
१५।।२२ पूर्ति, दुर्गन्ध-युक्त।
पूइकम्म
५।११५५ वह भोजन आदि, जिसमें साधु के लिए बनाये
भोजन आदि का अंश मिला हो।
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________________
पोय पोयय पोरबीय
(118
फलिह
फाणिय
कुम
बहुदिव्य बहुनिवटिम बहुवाहर बहुसंभूय
दशवकालिकसूत्र चू० १ श्लो० ४ पूज्य ।
५।१७१ पूप, पुआ।
२।४ प्रेक्षा, दृष्टि । ८.५३ पोत, बच्चा। ४।सू० ६ पोतज, जरा-रहित उत्पन्न होने वाला। ४।०८ पर्व बीज, जिसकी पोर ही बीज हो, ऐसे गन्ना
आदि। ५।११६७ फलक, तख्ता, काठ का पाटिया । १७२७
१९ परिध, दरवाजे का आगल। ६५.११७१ 1 ६१७
फाणित, राव, द्रव-गुड़। ४ासू० २१ फूकना।
७।१८ बाप, पिता। ७।५२ बलाहक, मेघ । ५।१७३ बहुत बीज या नसा-जालवाला। ७.३३ गुठली वाला फल ।
७.३६ अधिकांश भरा हुआ। १७॥३३ जिस वृक्ष के अधिक फल पक गये हों। २७.३५
६।१७ कृत्रिम नमक । ५।११७३ बिल्व, बेल का फल । २२।२४ विभीतक, बहेडा । ४।सू०८ बीजरुह, बीज से होने वाली वनस्परि
७.३४ भर्जनीय, भूनने के योग्य । १३३ आदि भक्त, भोजन। ६५।२।३३ भद्रक, भला, श्रेष्ठ व्यक्ति ।
८।२२ ७।१८ भागिनेय, बहिन का पुत्र, भानजा । ७।१५ भागिनेया, बहिन की पुत्री, भानजी। ६।६१ भूमि की दरार, फटी हुई जमीन । ७।३३ भूतरूप, वह वृक्ष-जिसके फलों में गुठली न
पड़ी ही। ६।१५ संयम-मंग के स्थान का त्यागी ।
बिहेलग बीयसह मन्जिम भत्त भद्दा माइणेन्ज माइणज्जा भिलुगा भूयत्व
भेयाययणवनि
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________________
परिशिष्ट : शब्द-कोश
महअ
मंच
मं
मगदंतिया
मणोसिला
मल्ल
महग्घ
महल्ल
महागर
महिया
महुगार
माउल
माउस्सिया
मायण्ण
मालोहड
मिहोकहा
मीसजाय
मृणालिया
मुम्मुर
मुहाजीवी
मुहाबाई
मुहालय
मूलग
मूलगत्तिया
३०७
७२८ मतिक, बोये हुए बीजों को ढांकने का एक काष्ठ-उपकरण, खेती का एक औजार ।
मंचान ।
खाट ।
[५११६७
५।१।६७
६।५३
५१८
५।२।१४, १६
५।१।३३
३१२
माला ।
७१४६ महार्घ्य, बहुमूल्य ।
७/२६
હા
|१|१६
४।सू० १६
५।१८
११५
७।१६
७।१५
५२३
५।२।२६
बेर आदि का चूर्णं ।
मोगरे का फूल, मालती - पुष्प |
मनसिल ।
५।२।१८
४ सू० २०
१।६६ - १००
{xipice-198 {शाहE
८२४
५।१।१००
५।१।६६
महान, बड़ा-बूढ़ा |
महान आकार, महान गुणों की खान ।
मिहिका, कुहरा, धूअर ।
५।१।६६ ऊपरी मंजिल से लाया हुआ भक्तन्पान ।
८४१ रहस्यपूर्ण या एकान्त की बात ।
५।१।५५
भौंरा ।
मातुल, मामा ।
मातृस्वसा, मां की बहिन, मौसी ।
भक्त - पानादि की मात्रा का जानकर ।
गृहस्थ व साधु के लिए मिश्रित पकाया भोजन ।
कमल नालिका |
मुर्मुर, अग्निकण-युक्त राख ।
निदान या आसक्ति-रहित जीने वाला ।
फल की इच्छा किये बिना देनेवाला ।
मंत्र-तंत्रादि किये बिना प्राप्त ।
५।२।२३
मूला, मूली ।
५।२।२३ मूली की फांक ।
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________________
३०८
वशवकालिकात्र
मरेग
रसदया रसनिन्जट रसय रस्सि
राइगिय
रापिट रोमालोण लयण
लहस्सग
लाइन
सूस
५।२।३६ पहली बार खींचा गया मद । ४ सू० २३ रजोहरण, ओषा।
७.२५ दूध देने वाली।
।२१ रस-सहित । ४ सू०६ रस में उत्पन्न होने वाला जीव । चू• १ सू०१ रश्मि, लगाम ।
११।१६ गुप्त स्थान । र ७२५ ह्रस्व, छोटा । 5८४. रालिक, पूज्य, दीक्षा-ज्येष्ठ ।
३ ३२३ राजा का आहार । ३८ खान का नमक ।
८५१ घर। चू० १ ० १ लघुस्वक, तुच्छ ।
७.३४ जवणीय, काटने के योग्य । ५।१।६८ तोड़ना। [४ सू० १८ २५ मिट्टी का ढेला।
र ३८ आदि लवण, नमक ।
६।६३ लोध्र एक सुगंधित द्रव्य । ५।१।२२ बछड़ा। ५२११५१ कृपण, कंजूस । ५२।१. वनीपक, कृपण । ५॥१३४ वर्णिका, पीली मिट्टी।
३९ वस्तिकर्म, एनिमा लेना। ७.१४ ७१४ वृषल, शूद्र, पुरुष का अपमान-सूचक अव्यय । ७।१६ वषला, शूद्रा, स्त्री का अपमान-सूचक अव्यय । ५॥१७५ गुड़ के घड़े का धोया हुआ पानी।
६।५ विपुल स्थानभागी, संयमसेवी । ___७३१ विटपी, वृक्ष। २२।१८ पलाश का कन्द, क्षीर विराली वनस्पति ।
४
गा
।
लोण
लोत
बणिमय वणीमग पणिया वत्यिकम्म
वसुल
बसुला पारघोषण विउलटलाणमा पिरिम बिरालिया
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परिशिष्ट : शब्द-कोष
विसोतिया
बियण
वीयावेउण
बेहिम
सहकाल
संकम
संडि
संधाय
संडिम
संपर
संचार
संपणोल्लिया
संसठकप्प
संसेइम
संसेहम
सक्कुलि
सत्यपरिणय
सन्निर
सन्निवेस
सबीय, सवीयग
समद्दिया
सम्मुच्छिम
सरीसिव
सविज्जविज्जा
५११९ ४ सू० ११
{annel, clic
६।३७ हवा करने के लिए ।
७३२ दो टुकड़े या फांक करने के योग्य फल ।
२६
स्मृतिकाल, भिक्षा का उचित समय ।
५२०११४
पुल, जल को लांघने के लिए रखा काठ या
पत्थर ।
७।३६-३७
संस्कृति, भोज, जीमनवार ।
४० २३
संघात, एक जगह अवस्थान ।
५।१।१२
बालकों के खेलने का स्थान ।
५२२ तृप्त होना, निर्वाह करना ।
८।१७ विस्तर, बिछोना ।
{ हाशम
१३०
चू० २२६
४। सू० ६
५।१।७५
५।१।७१
४।०४ से ८
चित्त-विलुप्ति, संयम से मन का मुड़ना ।
विधुवन, पंखा ।
५ १।७०
५।२।५
४। सू० ८
२२६
सू० ४। सू० ८
४1०
२०६
हिलाकर ।
संसृष्टकल्प, भोज्य वस्तु से लिप्त कड़छी आदि से आहार लेने की विधि ।
संस्वेदज, पसीने से उत्पन्न होने वाला जीव ।
संसेकिम, आटे का धोवन ।
शष्कुलि, तिलपपड़ी ।
शस्त्रपरिणत, विरोधी वस्तु के द्वारा अचित्त की हुई वस्तु । शाक-भाजी |
गांव |
बीज आदि दश अवस्थाओं से युक्त वनस्पति । मर्दन कर, कुचल कर ।
बिना बीज के ऊगने वाली वनस्पति । बिना गर्भ के इधर-उधर के पुद्गल-परमाणुओं
के सम्मेलन से उत्पन्न होने वाला जीव ।
७/२२ सरीसृप, सांप आदि पेट के बल से सरकने वाले जीव । ६०६९ आत्मविद्या का ज्ञान ।
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________________
३१०
ससरक्स
साइम
साण
साणी सालुय
सासवनालिया सिंगवेर सिंधव सिंवलि सिलेग्ग सिहि सुखपुढवी सुखागणि सुखोबग सुनिदिव्य सुलट्ठ सुहह
दशकालिकसूत्र । ४सू० १८ सचित्त रज-युक्त । ११।१७ आदि ४सू० १६ आदि स्वादिम, स्वाद युक्त मेवा आदि पदार्थ । ।१।१२, २२ श्वान, कुत्ता।
७१६ अपमान-सूचक शब्द । ५।१।१८ सन की बनी चिक ।
५।२।१८ कमल का कन्द । ६३६ आदि सावद्य, पाप-युक्त ।
५।२।१८ सरसों की नाल । ३१७ आदि शृंगबेर, अदरक ।
२८ सेंधा नमक । ५।११७३ सेम की फली। ६।४ सू० ६७ प्रशंसा।
३ शिखि, अग्नि । . ८५ शस्त्र-अपरिणत सचित्त पृथ्वी । ४।सू० २० धूम और ज्वाला-रहित अग्नि । ४|सू० १६ अन्तरिक्ष जल ।
७।४५ बहुत अच्छा पकाया गया। ७।४१ बहुत सुन्दर। ७४१ बहुत अच्छा हरण किया हुआ ।
८।२५ सुभर, अल्प आहार से तृप्त होने वाल. ५।१९८ सूपिक, मसालेदार व्यंजन । ५।१।१२ नव-प्रसूता।
३१५ साधु जिसके घर में रहे उसका आहार । श।३८ मदिरापान की आसक्ति, उन्मत्तता । ५।११३४ सौराष्ट्र की मिट्टी, गोपीचन्दन ।
३८ संचल या संचुर नमक ।। ६।४ सम्बोधनार्थक अव्यय ।
२६ जल में उत्पन्न होने वाली वनस्पति । २१८३ हस्तक (रुमाल) मुखवस्त्रिका। ४।सू० १९ भूमि को भेदकर निकले जल-बिन्दु ।
सुइय
सेन्जायर-पिट सोंग्या सोरठ्यिा सोबच्चल
हत्यग
हरतणग
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परिशिष्ट :शब्द-कोश
हस्स-कुहम हाभ
७.१६ मित्र का सम्बोधन । ७.१६ स्त्री का सम्बोधन । ६.३४ अग्नि । १०।२० हंसाने के लिए कुतूहल-पूर्ण चेष्टा करनेवाला। 1८३५ क्षीण होना।
1८।४० ६४ सू० १६ हिम, पाला, तुषार ।
१६
1७१४ पुरुष का अपमान-सूचक शब्द । 1१६
७।१६ स्त्री का अपमान सूचक शब्द ।
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________________ हमारे मत्वपूर्ण प्रकाशन अप्राप्य 10) 1 श्री मरुधर केसरी अभिनन्दन ग्रंथ 2 पाण्डव यशोरसायन (महाभारत) 3 श्री मरुधर केसरी ग्रंथावली भाग 1 4 , भाग 2 5 जैनधर्म में तप : स्वरूप और विश्लेषण 6 जीवन ज्योति 7 साधना के पथ पर 8 प्रवचन प्रभा 9 धवल ज्ञान धारा 10 प्रवचन सुधा 11 संकल्प विजय 12 सप्त रत्न 13 मरुधरा के महान संत 14 हिम्मत विलास 15 सिंहनाद 16 बुध-विलास भाग 1 17 , भाग 2 18 श्रमण सुरतरु चार्ट 19 मधुर पंचामृत 20 तकदीर की तस्वीर (श्रीपाल चरित्र) 21 तीर्थंकर महावीर 22 कर्मग्रन्थ (भाग 1 से 6 तक) 2 cscccee6666 (प्रेस में श्री मरुधर केसरी साहित्य-प्रकाशन समिति पोपलिया बाजार (ब्यावर)