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छठा महाचारकथा अध्ययन
(१-. २) दोहा ज्ञान तथा दरसन-सहित, तप संजम में लीन ।
आगम में परवीन जे, गणि उपवन-आसीन । सिनसों पूछत अमल-मति, महिपति महिप-प्रधान ।
द्विज वा क्षत्रिय, आपको को अचारन-विधान ।। अर्थ-ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत, आगम-सम्पदा से युक्त प्राणी को उद्यान में समवसृत (आया हुआ) देख, राजा और राज-मंत्री, ब्राह्मण और क्षत्रिय उनसे नम्रता-पूर्वक पूछते हैं - 'आपके आचार का विषय कैसा है ?'
(३) चौपाई- तिनसों वह एकान्त उपासी, मुनि बमसील अमय सुख-रासी ।
सकल जंतु-हित-कारक स्वामी, सत्-शिक्षा-संजुत शिव-गामी ।। परम प्रवीन कहत यहि भांती, अहो अहो पृच्छक-गन-पांती ।
सनो सुनो भो भविजन स्वच्छा, तुमरी यह हितकर पृच्छा ।।
अर्थ :- ऐसा पूछे जाने पर वे स्थिरात्मा, इन्द्रियदमी, सब प्राणियों के लिए सुखावह शिक्षा में समायुक्त और विचक्षण गणी उनसे कहते हैं
(४) चौपाई- धरम-अरब-इच्छुक निरपन्या, मो सों सुनो तिननको पंथा ।
आचार हु गोचर अति बांको, सब ही कठिन अराधन जाको॥
अर्ष हे देवानुप्रियो, श्रुत-चारित्र रूप धर्म और मोक्षरूप अर्थ के अभिलाषी निप्रन्थ मुनियों का समस्त आचार-गोचर-जो कि कर्मरूप शत्रुओं के लिए भयंकर है, तथा जिसे धारण करने में कायर पुरुष घबराते हैं, उसका मैं वर्णन करता हूं, सो तुम लोग सावधान होकर सुनो।
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