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________________ दशम समिक्षु अध्ययन त्रिभंगीछन्द- जिन-शासन मान्यो जग दुख जान्यो बंधन भान्यो कढि मायो, भगवत को वानी आनद-खानी नित मन मानी हरखायो । रमनी-छवि छाई, जो लखि पाई, ताहि लुभाई नहिं जावं, वमि दीनी जाकों पिये न ताकों, मिक्षक वाकों श्रुत गावं ॥ अर्थ-जो तीर्थकर के उपदेश से घर से निकलकर और प्रवजित होकर निग्रन्थ प्रवचन में सदा समाहित चिन (समाधि-युक्त मनवाला) होता है, जो स्त्रियों के वश में नहीं होता, जो वमन किये हुए को वापिस नहीं पीता अर्थात् छोड़े हुए भोगों का पुनः सेवन नहीं करता है, वह भिक्षु है । (२) चौपाई- पृषिवी को नहिं खन खनाव, शोत सलिल नहिं पिय पियावं । तीख अगनि सय जार न जोई, जरवावे नहि, भिक्षक सोई। अर्थ-जो पृथिवी को न स्वयं खोदता है और न दूसरों से खुदवाता है, जो शीत (सचित्त) जल न स्वयं पीता है और न दूसरों को पिलवाता है, शस्त्र के समान सुतीक्ष्ण अग्नि को न रवयं जलाता है और न दूसरों से जलवाता है, वह भिक्षुक है। चौपाई-- पवनह को बीजे न विजाब, हरिता को छेद न छिदावे । बरजत सदा बीजकों जोई, सचित न खावं मिन क सोई॥ अर्थ-जो पंखे आदि से न स्वयं हवा करता है और न दूसरों से कराता है, जो हरितकाय का छेदन न स्वयं करता है और न दूसरों से कराता है, जो बीजों का . २५१
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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