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छठा महाचारकथा अध्ययन
ममता सों होन
परमारथानुगत
रच्छक जसी अमल ज्यों रितु-प्रसना ससो लहे निरवान वा विमाननि
सदा उपशान्त, परिग्रह आतम-ज्ञान- लीन
बसत हैं ॥
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अर्थ - मोह-रहित यथार्थ तत्त्व के ज्ञाता, तप में संलग्न, सत्रह प्रकार के संयम के परिपालक, आर्जव गुण के धारक निर्ग्रन्थ मुनि अपने शरीर को कृश कर देते हैं, वे पुराकृत पापकर्म का नाश करते हैं और नवीन पापों को नहीं करते हैं । वे सदा उपशान्त, ममता-रहित, अकिंचन ( जिनके पास घनादि परिग्रह कुछ भी नहीं हैं ), आत्म-विद्या से युक्त, यशस्वी और त्राता मुनि शरद् ऋतु के चन्द्रमा के समान मलरहित होकर (सर्व कर्मों का नाश कर ) सिद्धि को प्राप्त होते हैं अर्थात् मोक्ष जाते हैं अथवा कर्मों के कुछ रहने पर वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं ।
- ऐसा मैं कहता हूं ।
छठा महाचारकथा अध्ययन समाप्त