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________________ दशम सभिल अध्ययन २५३ सदा वर्जन करता है अर्थात् उनके स्पर्श से दूर रहता है और जो सचित्त का आहार नहीं करता, वह भिक्षु है। छन- पृथिवी तुन काठ में रहे, जीव चराचर को विनास होई । उहिष्ट भोजन न लहे, न पचे, न पचावे जमिन तोई ॥ अर्थ-भोजन बनाने में पृथिवी, तृण और काष्ठ के आश्रय में रहे हुए त्रस और स्थावर जीवों का वध होता है, अतः जो औद्देशिक (अपने निमित्त बना हुआ) भोजन नहीं खाता तथा जो न स्वयं पकाता है और न दूसरों से पकवाता है, वह भिक्षु है। (५) छन्द- रुचि मानि ज वीर-वानि में, आप समान छकाय जान जोई । पंच आनव संवरे सही, पंच महावत-लीन भिक्ख सोई॥ अर्थ-जो ज्ञात-पुत्र के वचन में श्रद्धा रखकर छहों कायों के जीवों को अपने समान मानता है, जो पांच महाव्रतों का पालन करता है और जो पांच आस्रवों का संवरण करता है, वह भिक्ष है। छन्द- तजि चार कसाय को सदा जोग दृढ़ो जिन-वन-लीन होई । पर धन स्वर्ण रूप्य ना, गेहिक-जोग त जु मिनु होई ॥ अर्थ-जो क्रोध. मान, माया और लोभ इन चारों कषायों का परित्याग करे, जो निम्रन्थ प्रवचन में ध्र वयोगी है (अटल श्रद्धा रखने वाला और दैनिक छहों आवश्यकों का नियमपूर्वक पालन करने वाला है), जो निर्धन है, सुवर्ण और चांदी से रहित है, जो गृहियोग (लेन-देन, क्रय-विक्रय आदि) का वर्जन करता है, वह मिल है।
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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