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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
(१४-१५) चौपाई- नील कमल, के पदम जु कोई, कुमुद मालती-कुसुम जु होई ।
और हु सचित सुमन है जोई, तिहि छेदन करि देति जु होई॥ मुनिहि न कलपत अन-जल तेहा, देनहारि सों मुनि कह एहा ।
या प्रकार को अन-जल जोई, मोकों नहिं कलपत है सोई॥
अर्थ-कोई उत्पल (नील कमल), पद्म (लाल, गुलाबी कमल), कुमुद (श्वेत कमल), मालती या अन्य किसी सचित्त पुष्प का छेदन-भेदन कर कोई स्त्री (या पुरुष) भिक्षा देवे, तो वह भक्त-पान संयतों के लिए कल्पनीय नहीं है, इसलिए देनेवाली स्त्री (या पुरुष) से वह साधु कहे कि इस प्रकार का भक्त पान मेरे लिए नहीं कल्पता है अर्थात् मेरे ग्रहण करने के योग्य नहीं है।
चौपाई- नीलकमल के पदम जु कोई, कुमुद मालती-कुसुम जु होई ।
और हु सचित सुमन ह जोई, तिहि मरदन करि देति जु होई ॥ मुनिहि न कलपत अन-जल तेहा, देनिहारि-सों मुनि कह एहा ।
या प्रकार को अन-जल जोई, मोकों नहिं कलपत है सोई ।।
अर्थ-कोई उत्पल, पद्म, कुमुद, मालतो या अन्य किसी सचित्त पुष्प का संमर्दन (कुचल या रोंद) कर भिक्षा देवे, तो वह भक्त-पान संयतों के लिए कल्पनीय नहीं है, इसलिए मुनि देनेवाले से कह कि इस प्रकार का आहार-गान मेरे लिए नहीं कल्पता है।'
(१८-१९ २०) कवित्तकमल को कंद त्यों पलास हू को कंद होय, कुमुद की नाल-नील कज-नाल कहिये । कंजहू के तंतु त्यों सरसों नाल इल-खंड, एते हू सचित्त होंय तिनकों न गहिये । तर तुन अन्य हरियारी की कोंपल मई, अचित भई न, ताकों कैसे करि लहिये। मूंगादिको फलो काची, नई ज तुरंत ताची, देतो सों कहै कि ऐसो मोकू नाहिं चाहिये।
नोट-कुछ मूल प्रतियों में ये ही दोनों गाथाएं संफासिया (संस्पृश्य) पाठ के साथ भी मिलती हैं,
तदनुसार उक्त उत्पन्न आदि सचित्त पुष्पों का स्पर्श करके भी यदि कोई आहार देवे, तो साधु के लिए वह अकल्प है, अत: दनेवाली से निषेध कर देवे ।)