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छठा महाचारकथा अध्ययन
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अर्ष-सुसमाधिवन्त साधुजन मन से, वचन से, काय से, इन तीनों योगों से, कृत कारित अनुमोदना इन तीन करणों से त्रसकाय की हिंसा नहीं करते हैं । त्रसकाय की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्ष ष (दृश्य), अचाक्षष (अदृश्य) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है । इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर संयमी मुनि यावज्जीवन के लिए त्रसकाय के ममारम्भ का त्याग करे ।
(४७ - ४८) नाराचछन्द- अकल्पनीय साघु के अहार आदि चार जे,
मुनित्व को अराषिये, तिन्हें निवार गर जे । महार सेज वाससी चतुर्य पात्र जानिये,
अकल्पनीय ना चहै सु कल्पनीय आनिये ॥ अर्थ-ऋषि के लिए जो चार अकल्पनीय पिण्ड (आहार-पान) शय्या (वसति) वस्त्र और पात्र हैं, वह उनका त्याग करे और संयम का अनुपालन करे। किन्तु जो कल्पनीय पिण्ड, शव्या, वस्त्र और पात्र हों, उन्हें ही ग्रहण करे।
नाराचछन्द
(४६-५०) जु नित्त ही निमंत्रियो. तथा निमित्त तें कियो, तथा चु दाम दे लियो, जुआन थान पे दियो । गहै अहार ए तिन्हें महर्षि ने कही यहै, संहार प्रानि-पान को वहै स्वचित्त सों चहै। अहार पान मोल के निमित्त के जु आन के, दिये सुटार देत हैं, सु या प्रकार जान के । सधर्म जे जियो करें, अधर्म से जियें नहीं,
परिग्रहै न संग्रहै रहै स्थिरात्म जे सही ॥ अर्थ-जो नित्यान (नित्य ही आदरपूर्वक निमन्त्रित कर दिया जाने वाला), क्रीत (साधु के निमित्त खरीदा गया), औद्देशिक (साधु के निमित्त बनाया गया) और आहृत (साधु के निमित्त दूर से लाया गया) आहार ग्रहण करते हैं, वे प्राणिवध का अनुमोदन करते हैं. ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है। इसलिए धर्मजीवी और संयम में स्थित साधु क्रीत, औद्देशिक और आहृत अशन-पान आदि का त्याग करते हैं।