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प्रकाशकीय
विशाल प्रासाद में जो स्थान- नींव का है, महावृक्ष में जो महत्व मूल-जड़ का है, आगमरूप महावृक्ष में वही स्थान-दशवकालिकसूत्र का है, इसलिए इसे चार मूल सूत्रों में द्वितीय स्थान प्राप्त है । यह सूत्र मुख्यत: आचारप्रधान है। और आचार ही द्वादशांग का सार है-अंगाणं कि सारो ? आयारो !-- आचार्य भद्रबाहु का यह कथन आचार या आचारांग की महत्ता को स्पष्ट करता है।
दशवकालिक सूत्र के छोटे-बड़े अनेक संस्करण अव तक हो चुके हैं। दीक्षा के बाद श्रमण शक्ष सर्वप्रथम इसी मूत्र को कंठस्थ करते हैं । आचार-विधि के परिज्ञान हेतु इस आगम का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है।
दशवकालिक सूत्र का संस्कृत छाया के साथ राजस्थानी काव्यमय यह अनुवाद अपने ढंग का पहला ही शुभ-प्रयत्न कहा जा सकता है। भाषा-पद्यों की शैली बड़ी मनोरम काव्यात्मक और हृदयग्राही है. उनके अध्ययन में मूल का-सा रमानुभव होता है। हिन्दी अनुवाद तो और भी सरल तथा हृदयग्राही है । परिशिष्ट भी अपने ढंग का संक्षिप्त होकर भी उपयोगी है। इस प्रकार गुरुदेव द्वारा प्रस्तुत यह सम्पादन सभी दृष्टियों से मौलिक एवं उपयोगी सिद्ध होगा।
गुरुदेव श्री मरुधरकेसरी जी महाराज स्थानकवासी जैन समाज की एक विरल विभति हैं। विद्वत्ता के साथ सरलता, गुणानुराग, शिक्षाप्रेम, समाजसेवा नथा समाज-संगठन की उदात्त उमंग आपके जीवन की अद्वितीय विशेषता है। आप वाणी के धनी हैं, बुद्धि के पुज हैं, ओजस्वी वक्ता और महान कवि हैं। आप अपने आप में एक संस्था ही क्या, संस्थाओं की एक केन्द्रीय शक्ति हैं। राजस्थान के अंचल में आप द्वारा संस्थापित-संप्रेरित सैकड़ों ही संस्थाएं कार्यशील हैं। जिनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैं