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________________ ८९ पंचम पिण्डेषणा अध्ययन (७१-७२) सवैया- रेनु-सचित्त-सने सतुमा, बदरी फल के करि चूरन नाले, ढोल्यो भयो गुड, त्यों तिल पापरि, पूआ पमूह सु जीरन दाखे । दीखत में सबके धरिके वह, बेचन-काज बजार में राखे, ऐसो आहार हमें कलप नहिं बवनहारि सों संत सु भाखे । अर्थ-इसी प्रकार सत्तू, बेरों का चूर्ण, तिल-पपड़ी, गीला गुड़ (राव), पूजा तथा इसी प्रकार की दूसरी वस्तुएं जो बेचने के लिए दुकान में रखी हों, परन्तु बिकी न हों, रज (धूलि) से स्पृष्ट (लिप्त) हो गई हों, तो मुनि उन्हें देती हुई स्त्री से कहे कि ये वस्तुए हमें नहीं कलपती हैं। (७३-७४) चौपाई- बहु गुठली पुदगल फल जानो, अनिमिष वा बहु कटक ठानो । अस्थिक तिन्दुक बिल्व प्रमानो, सेलरि-खंड साल्मली मानो । दोहा-- जामें थोरो खावनो, बहुत डारनो होय । देती सों मुनि यों कहै, यह कलप नहिं मोय ।। अर्थ-बहु-अस्थिक (बहुत बीजों वाला फल, जैसे सीताफल), पौद्गल (फलविशेष-जिसमें गदा या दल अधिक हो), अनिमिष (अननासफल), आस्थिक (वह फल जिसमें मोटे रेशे हों), तिन्दुक (तेन्दू का फल), विल्व (बेल का फल), गन्ने की गंडरी और शिम्बी (सेमफली) आदि ऐसे पदार्थ-जिनमें खाने का भाग थोड़ा हो और डालना अधिक पड़े-देती हुई स्त्री से मुनि कहे कि ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है। (७५-७६-७७) चौपाई- ऊंच नीच पानी पुनि तैसे, अथवा गुड़ घट धोवन ऐसे । कठवति-धोवन, चावल-पानी, तजे तुरत के धोए जानी ।। बहुत समय के धोए जाने, जो मति दें, देखन ते मान । पूछ बहुरि सुनि के ह सोई, बिन सन्देह संत जो होई ॥ जानि अजीव-भाव-गत ताही, पहन कर संजति सो चाही । अचि आदि शंका जो होई, स्वाद लेय जान पुनि सोई ॥
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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