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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
दोहा-किमि चलिये, किमि ठहरिये, किमि बैठिय, किमि सोय ।
किमि खाइय, किमि बोलिये, जासों पाप न होय ॥ अपं-कैसे चले, कैसे खड़ा हो, कैसे बैठे, कैसे सोये, कैसे खाये और कैसे बोले ? जिससे पापकर्म का बन्ध न हो ?
दोहा-जतन चलिय, ठहरिय जतन, जतन बैठि अब सोय ।
जतनहिं खाइय, भाखिये, तासों पाप न होय ॥ अर्थ-यतनापूर्वक चले, यतनापूर्वक खड़ा हो, यतनापूर्वक बैठे, यतनापूर्वक सोवे, यतनापूर्वक खावे और यतनापूर्वक बोले । इससे पाप कर्म नहीं बंधता है।
चौपाई- निज समान सब जीवनि जान, जीवनि पै सम दीठ तु माने ।
___ आनव-रोधी, बमी तु होई, पाप करम बंधत नहिं कोई ॥
अर्थ-जो सब जीवों को अपने समान मानता है, जो सब जीवों को सम्यक् दृष्टि से देखता है, जो आस्रव का निरोधक है, और इन्द्रियों का दान्त (निग्राहकजयी) है, उसके पाप कर्म का बन्ध नहीं होता है। .
(१०) दोहा-प्रथम मान पाऊँ क्या, यों सब संजति पाप ।
अज्ञानी कैसे करे, का जाने पुन-पाप ॥ अर्थ-पहिले ज्ञान, तत्पश्चात् दया, इस प्रकार से सब संयती संयम में स्थित होते हैं । अज्ञानी क्या करेगा? वह क्या जानेगा कि क्या श्रेय है और क्या पाप है ?
बोहा -सुनि जाने कल्याण कों, सुनि हो जाने पाप ।
मुनि के जाने दुहुनिकों, जो हित कर सु माप । म-जीव सुनकर कल्याण को जानता है, और सुनकर ही पाप को जानता है । कल्याण और पाप दोनों ही सुनकर जाने जाते हैं । इनमें से जो श्रेय हो, उसी का आचरण करना चाहिए।