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________________ प्रथम रतिवाक्या चूलिका २७७ को प्राप्त होता है, तब वह अनभिलषित नरकादि गतियों में जाकर अनेक प्रकार के दुःखों को भोगता है और फिर उसे अनेक भवों में भी बोधि (सम्यक्त्व एवं जिनधर्म) की प्राप्ति होना सुलभ नहीं है । (१५) निजहित करो । तातें चलित-चित्त मुनि जोय, सोच करहु निज मन में सोय । पल्योपम वा सागर - मान, सहे नरक में दुःख महान || तो यह मानव-जीवन केता, क्यों मनमें विकलप बहु लेता । यो विचार मन- चिन्ता हरो, संजम रत रह अर्थ- संयम में आने वाले आकस्मिक कष्टों से घबराकर संयम छोड़ने की इच्छा करने वाले साधु को इस प्रकार विचार करना चाहिए कि नरकों में अनेक बार उत्पन्न होकर मेरे इस जीव ने अनेक क्लेश एवं असह्य दुःख सहन किये हैं और वहां की पत्योपम और सागरोपम जैसी दुःखपूर्ण लम्बी आयु को भी समाप्त कर वहां से यहां निकल आया हूं तो फिर मेरा यह विषयाभिलाषरूप मानसिक दुःख तो है ही क्या ? नरकों के महा दुःखों में और इस घोड़े से मानसिक दुःखों में तो महाब अन्तर है । ऐसा विचार कर साधु को समभावपूर्वक वर्तमान में प्राप्त कष्ट सहन करना ही उचित है । चौपाई (१६) चौपाई - नहि यह दुख चिरकाल रहाथ, यदि मैं संजम में थिर रहूं, भोग-लालसा भी मिट जाय । तो अनन्त भव-दुःख न सहूं ॥ अर्थ – यह मेरा दु:ख चिरकाल नहीं रहेगा। जीवों की भोग-पिपासा अशाश्वत है । यदि वह इस शरीर के रहते हुए नहीं मिटी तो मेरे जीवन की समाप्ति के समय तो अवश्य ही मिट जायगी । ( अत: आज काम भोगों के प्रलोभन से या तजनित वेदना से घबड़ाकर संयमधर्म को नहीं छोड़ना चाहिए ।) (१७) चौपाई - जिसका आतम अतिदृढ़ होय, देह तर्ज पर धर्म न खोय । इंद्रिय उसे न विचलित करें, आंधी मेरु न डगमग करे || अर्थ --- जिसकी आत्मा इस प्रकार निश्चल (दृढ़ संकल्पयुक्त) होती है कि 'देह को त्याग देना चाहिए, पर धर्म-शासन को नहीं छोड़ना चाहिए, उस दृढ़प्रतिज्ञ
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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