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अष्टम आचार - प्रणिधि अध्ययन
(५७)
कविस --
सोभित सिगार ते सरीर को सवारियो द, नारि हू के संग हेल-मेल होय जानो है । देह-पोव-कारक सरस सेवो भोजन को काम-भाव-कारक जु बल को बढ़ानो है । तालपुट नामक जो विसमि में महाविस, ताही के समान इन बातनि बखानी है । ताके हेतु, जाको हेत आतम-गवेसना सों, पुरुष प्रवीन जोई संजम सयानो है ॥ अर्थ - आत्म-कल्याण का अन्वेषण करने वाले पुरुष के लिए शरीर को विभूषित करना, स्त्री के साथ संसगं रखना और पौष्टिक रसवाला भोजन करना तालपुट विष के समान है । (जैसे तालपुट नाम का विष तालु के लगते ही प्राणों को हर लेता है, उसी प्रकार शरीर-विभूषादि उक्त अवगुण भी साधु के चारित्र का नाश कर देते हैं ।)
(५८-५९)
कवित
अंग प्रति अंग के सुडोलनि को ढंग बन्यो, बोलन सुरस, एते रमनी के मन आने न निहारे नीके, सुंदर विसय तामें प्रेम न प्रवेस कीजें, पूरन - गलन परिनाम पुद्गलनि को है,
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मन-हरन निहारनो । काम-राग- बाढ़न को राह-यह टारनो । आनत सरूप वाको जान के विचारतो । डार सो आसार, सार संजम सुधारनो ॥ अर्थ – स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग, सुन्दर आकार, मधुर बोली और कटाक्ष को न वे, क्योंकि ये सब काम-राग को बढ़ाने वाले हैं, पांचों इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में र्थात् शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में प्रेम न रखो - यह जानकर कि ये पूरणगलन-स्वभावी पुद्गलों के क्षण-भंगुर परिणाम हैं ।
(६०)
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कवित्त
आज कछु और रंग, काल कछु और ढंग ऐसो ई अथिर परिनाम पुद्गलनि को । जैसो है तेसो ही ताकों जान लीजे नोके कर, नारिसों निहार थान मूत हो मलनि को । तिसना को नमाय के, संतोष वृत्ति लाय हिये. विहरं विराग लिये तापसें टलनि कों । शान्ति के सरोवर में आत्म-सिनान भली, शीतल भयो है सिद्ध-रासि में रलनि कों ॥
अर्थ इन्द्रियों के विषयभूत शब्दादि पुद्गलों के परिणमन को, जैसा है वैसा
जानकर अपनी आत्मा को शीतल बनाकर तृष्णा-रहित हो विहार करे ।