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________________ नवम विनय-समाधि अध्ययन (६) अरथ की करि आस, होत समरथ सहनकों जो लोह-कटक- त्रास । करन के सर वचन मय जे कठिन कंटक होय, विनहि आसाके सके सहि, पूज्य सो ही होय || वंतालछन्द - अरथ इच्छुक पुरुष जैसे वेतालछन्द अर्थ - पुरुष धन आदि की आशा से लोहमय कांटों को सहन कर लेता है, परन्तु जो किसी भी प्रकार की आशा के बिना कानों में प्रवेश करते हुए वचन रूपी काँटों को सहन करता है, वह साधु पूज्य है । (७) २३३ लोह के कंटक लागत ते कछु कालहि पीर करं तन माहीं, जो कछु यत्न करें तिनको तब तो सहजे तनसों कढ़ि जाहीं । वाक्य कहे कड़ए जु कठोर उघारन तो सहजं तिन नाहीं, वर के बंधन हार अहैं वह घोर भयंकर हू पुनि आहीं ॥ अर्थ — लोहमयी कांटे अल्पकाल तक दुःखदायी होते हैं और वे शरीर में से सरलतापूर्वक निकाले जा सकते हैं । परन्तु दुर्वचन रूपी कांटे सहज में नहीं निकाले जा सकते । तथा वे वैर की परम्परा को बढ़ाने वाले और महा भयानक होते हैं । (८) वेतालछन्द - दुखद वैन प्रहार को जब जूथ आवत होय, लवन में परवेस करि मन धरम ताकों जानके मट परम करत खेदित सोय । अगुआ जोय, इंद्रिय-जयो जो सहत उनकों, पूज्य सोई होय ॥ अर्थ -- सर्व ओर से आते हुए वचन के प्रहार कानों में पहुंचकर दौर्मनस्य उत्पन्न करते हैं । जो शूरवीर व्यक्तियों में अग्रणी जितेन्द्रिय पुरुष 'इन्हें सहन करना 1 मेरा धर्म है' यह मानकर उन्हें सहन करता है, वह साधु पूज्य है ।
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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