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अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन
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(३०)
नहिं और काहुको तिरस्कार सो ठान, अपनेकों सबसों बड़ो नहीं सो मान । श्रत को प्रापति तें जाति तथा तप माहीं, बुद्धि तें बड़ो ह गरव करेकछ नाहीं ।
अर्थ-दूसरे का पराभव (अपमान) न करे, अपना अभिमान न करे, अधिक श्रुतलाभ (शास्त्र-ज्ञान) होने पर जाति, तपस्या और बुद्धि का मद न करे।
(३१)
अनजान तथा जान के कबहुं जो कोई, सो घरम-हीन कारज कछु कोनो होई। तो तुरंत बातें आतम लेय हटाई, पुनि दूजो वैसो काज न कर कदाई ॥
अर्थ-जान या अनजाने में कोई अधार्मिक कार्य हो जाय, तो अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा लेवे और दूसरी वार भूलकर भी वह कार्य न करे ।
(३२) छन्द- अनाचार जो सेवन कोनो सो आलोचन गुरु के पास,
न कछुछुपाव,न सबछुपाव, सवै जयारय कर प्रकाश । सदा पवित्र भावना वारो जाके सकल प्रकट हैं भाव, काहू में आसक्त नहीं जो इन्द्रिय-जेता सरल स्वभाव ॥
अर्थ-अनाचार का सेवन कर साधु उसे न छिपावे और न अस्वीकार करे । किन्तु सदा पवित्र और स्पष्ट रूप से अलिप्त रहकर गुरु के सामने कहै और जितेन्द्रिय बने अर्थात् भविष्य में वैसा कार्य न करे।।
चौपाई- नित आचार्य और गुरुजी की, वानी सफल कर विधि नीको ।
'तहति आदि कहि मुखतें गहई, तिहि अनुसार करम तें वहई ॥
अर्थ–साधु को चाहिए कि आचार्य महात्मा के वचन को सफल करे। वे जो प्रायश्चित्त (दण्ड) देवें उसे अपने वचनों से ग्रहण कर कार्य रूप से उस पर आचरण करे।
दोहा- जानि अपिर जग-जीवनो, मुकति-पंथ को जानि ।
मोगनि तें विनिवृत्त हो, निज आयुस मितमानि । अर्थ-मुमुक्षु साधु जीवन को अनित्य और अपनी आयु को परिमित जानकर तथा सिद्धिमार्ग का ज्ञान प्राप्त कर भोगों से निवृत्त होवे ।