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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
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(२५) दोहा-ऊँचे नीचे कुलनि मुनि, नित विहर सममाय ।
नीचे कुलको लंधि के, ऊँचे में नहि जाय ॥ अर्थ--साधु सदा ऊंच और नीच कुल में अर्थात् धनवान और गरीब के घर में समुदान गोचरी करे । (अनेक घरों में थोड़ी-थोड़ी भिक्षा-अन्न-पान के लेने को समुदान गोचरी कहते हैं । गोचरी को जाते समय यदि पहिले गरीब गृहस्थ का घर मिले तो उसका उल्लंघन करके ऊसढ़-उच्छ्रत अर्थात् ऊंचे, बड़े और धनवान कुल में न जावे।
(२६)
पहरी- निजवृत्ति हि मन अदीन, नहि करहि खेद पंडित प्रवीन ।
भोजन में मोहित होय नाहिं, जान प्रमान, रत सोध-माहि ।।
अर्थ-भोजन में मूर्छा-गद्धिभाव नहीं रखता हुआ, आहार-पानी की मात्रा का ज्ञाता, आहार-गवेषणा में रत, पंडित ज्ञानी) मुनि दीन-भाव से रहित होकर गोचरी की गवेषणा करे । ऐसा करते हुए भी यदि कदाचित् भिक्षा न मिले तो विषाद न करे ।
(२७) पडरी-बहुभांति खाद्य अरु स्वाध आहि, राखे बनाय पर गेह माहि ।
बाकी इच्छा देवे न वाऽपि, पंडित न तहां कोपै कदापि ॥
अर्थ-गृहस्थ के घर में नाना प्रकार के और भारी परिणाम में खाद्य-स्वाद्य पदार्थ होते हैं, या बनाकर तैयार रख छोड़े हैं । यदि गहस्थ वे पदार्थ साधु को न देवे तो ज्ञानी साधु उस गृहस्थ पर कुपित न हो । किन्तु यह विचार करे कि यह गृहस्थ है, इसकी इच्छा हो तो देवे, या न देवे ।
(२८)
दोहा-असन वसन आसन सयन, पान दृगनि दरसाहिं ।
धनी न देतो लखि पर, कर कोप मुनि नाहि ॥ मर्ष-गृहस्थ के घर में शय्या, आसन, वस्त्र, भोजन और पान की वस्तुएं प्रत्यक्ष सामने रखी दिखाई देवें, फिर भी यदि वह न देवे तो संयमी साघु उस पर क्रोष न करे।
(२९) बोहा-जाचे नहिं बंदत लखे, बाल-वृद्ध नर नारि ।
अथवा इनसों नहिं कहै, वचन असाता-कारि ॥