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________________ भी शिष्य को नहीं पाया । तब समीपवर्ती प्रदेशवासी गृहस्थों की ओर दृष्टि दौड़ाई और उन्हें राजगृह निवासी शय्यम्भव ब्राह्मण योग्य दृष्टिगत हुआ। वह अनेक विद्याओं का पारगामी था। प्रभवस्वामी ने अपने दो शिष्यों को उसके पास भेजा और आचार्य के निर्देशानुसार उन्होंने शय्यम्भव के पास जाकर कहा- 'अहो कष्टमहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते परम्' । शय्यम्भव यह सुनकर सोचने लगा ये परम शान्त साधु असत्य नहीं बोल सकते । अवश्य ही इनके ऐसा कहने में कोई रहस्य है। वह तुरन्त अपने गुरु के पास गया और पूछा- असली तत्त्व क्या है ? गुरु ने कहा --- 'तत्त्व वेद है' । शय्यम्भव ने म्यान से तलवार निकालकर कहा- 'असली तत्त्व क्या है, वह बतलाइये, अन्यथा इसी तलवार से सिर उड़ा दूंगा।' गुरु ने सोचा-वेदार्थ-परम्परा के अनुसार सिर कटने का अवसर आने पर तत्व बतला देना चाहिए । यह सोचकर उसने कहा-'तत्त्व आहत धर्म है।' शय्यम्भव उससे प्रतिबोध को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् वह ढूढ़ता हुआ प्रभवस्वामी के पास पहुंचा और उनसे तत्त्व का रहस्य सुनके अपनी गर्भवती पत्नी को छोड़कर २८ वर्ष की अवस्था में उनके पास दीक्षित हो गया। इधर उनकी पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया और उसका नाम 'मनक' रखा। अब वह आठ वर्ष का हो गया, तब उसने एक दिन अपनी मां से पिता के विपय में पूछा । मां ने कहा--तेरे पिता तेरे गर्भस्थ काल में ही मुनि बन गये। वे आचार्य पद पर आसीन हैं और आजकल चम्पानगरी में विहार कर रहे हैं। मनक मां की अनुमति लेकर जब चम्पा पहुंचा, तब आचार्य शय्यम्भव शौच से निवृत्त होकर लौट रहे थे । अतः मार्ग में ही उनकी मनक से भेंट हो गई। उसे देखकर उनके मन में कुछ स्नेह जगा और उसने पूछा 'तू किसका पुत्र है ?' मनक ने कहा-'मैं शय्यम्भव ब्राह्मण का पुत्र हूं । आचार्य ने पूछा- अब तेरे पिता कहां हैं ? मनक ने उत्तर दिया . वे अव आचार्य हैं और चम्पा में विचर रहे हैं । आचार्य ने पूछा-तू यहां क्यों आया ? मनक ने कहा मैं भी उनके पास दीक्षा लूगा । यह कहकर उसने पूछा- क्या आप मेरे पिता को जानते हैं ? आचार्य ने कहा-वत्स, मैं उन्हें केवल जानता ही नहीं हूं, अपितु ये मेरे अभिन्न मित्र हैं। तू मेरे ही पास दीक्षा ले ले। मनक ने उनकी बात स्वीकार की और अपने स्थान पर आकर दीक्षा दे दी। यह भी संभव है कि उन्होंने पिता-पुत्र का सम्बन्ध बताकर संघ में उसे गुप्त रखने को कह दिया हो । आचार्य ने निमित्तशास्त्र से जाना कि यह अल्पायु है, केवल छह मास का जीवन शेष है । अतः उसे प्रबोध देने और अल्प समय में साधु के आचार का ज्ञान कराने के लिए द्वादशांग गणिपिटक से साधु-सम्बन्धी सभी विधि-निषेधात्मक तत्त्वों का नियूं हण (उद्धार) कर और उसे श्लोक-बढ़ करके मनक को पढ़ाया। यतः
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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