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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
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अर्थ - इसी प्रकार उद्यान, पर्वत और वनों में जाकर और वहां खड़े वृक्षों को देखकर प्रज्ञावान् मुनि इस प्रकार न बोले कि ये वृक्ष राज-प्रासाद के योग्य हैं, यह खम्भे के योग्य है, यह तोरण के योग्य है और यह परिघ ( भोगल) आगल, नाव जलकुंडी. या छोटी नाव के योग्य है । ये वृक्ष पीढ़ा, चंगेर, हल, मयिक ( बोये हुए बीजों को ढकने वाला उपकरण), कोल्हू, नाभि ( पहिये का मध्य भाग) अथवा एरन के योग्य है । इन वृक्षों में आसन शयन यान और उपाश्रय के योग्य कुछ काष्ठ-भाग हैं, इस प्रकार की भूतोपघातिनी वृक्षादि को पीड़ा पहुंचाने वाली भाषा बुद्धिमान् साधुओं को नहीं बोलना चाहिए ।
दोहा
तथा उपवननि वनानि में देखि बड़े क्रम ए वचन पडरी ए बिरछ अर्ह वर जातिवंत, लघु दीरघ शाखा जात आहि,
पद्धरी
( ३० - ३१ )
अर्थ - तथा कभी उद्यान पर्वत या वनों में जावे तो वहां बड़े वृक्षों को देख कर (प्रयोजनवश कहना पड़े तो ) प्रज्ञावान भिक्षु इस प्रकार कहे - ये वृक्ष उत्तम जाति के हैं, लम्बे ऊंचे हैं, गोल हैं, बहुत विस्तार वाले हैं, शाखा प्रशाखाओं से युक्त हैं, सघन छायावाले हैं और दर्शनीय हैं ।
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सवैया
गये गिरिनि के थान । मुख उचरं मतिमान || दीरघ वृत बहु विस्तार वंत । 'देखन लायक' यों कहै ताहि ।।
(३२-३३)
फल पके खान- लायक पकाय, ए लेन-समय- लायक तथा य । तोड़न लायक कोमल जु आहिं, बुइ-भाग-जोग, यों कहे नाहि ॥
ए तक आम अहैं असमर्थ है गुठली जुत भूरि फला, या इनमें फल ऐसे हु है, बोलत तो अस दोस विना वच
फलानि के भारह कों सहिवे में, इन भूरि पके फल पावहिवे में | गुठली को बनाव वन्यों नह वे में, वाक विचार करे कहिवे में || अर्थ – (जिस प्रकार वृक्षों के विषय में सावद्य भाषा बोलने का निषेध है, उसी प्रकार फलों के विषय में भी सावद्य भाषा न बोले कि ) ये फल स्वतः पक गये हैं, अथवा ये पकाकर खाने के योग्य हैं, इस प्रकार न बोले । तथा ये फल वेलोचित ( अविलम्ब तोड़ने के योग्य) हैं, इनमें गुठली नहीं पड़ी है, ये दो टुकड़े (फांक) करने योग्य हैं, इस प्रकार न कहे । यदि प्रयोजन-वश कहना पड़े तो ये आम्रवृक्ष अब फलधारण करने में असमर्थ हैं, बहुनिर्वर्तित ( प्रायः निष्पन्न) फलवाले हैं, बहुसंभूत (एक साथ उत्पन्न बहुत फलवाले) हैं, अथवा भूतरूप (कोमल) हैं, इस प्रकार से कहे ।