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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
तीन करण अरु मन वच काय, जावजीव को त्याग कराय । निशि-भोजन से होऊ विरक्त, कारित अनुमोदन-संयुक्त ॥३॥ पूरव दोष ज लाग्यो होय, निदा गरिहा करि तजसोय । छठे व्रत में मैं इह भात, भया उपस्थित हूं जगतात ॥४॥
अर्थ - भन्ते, इसके पश्चात् छठे व्रत में रात्रि-भोजन से विरमण होता है। भगवन, मैं सर्व प्रकार के रात्रि-भोजन का प्रत्याख्यान करता हूं अशन (दाल-भात, रोटी आदि) पान (दूध, छांछ; जल आदि) खाद्य (मोदक, पकवान, सूखे मेवा आदि) स्वाद्य (लोंग, इलायची, ताम्बूलादि) इन चारों प्रकार के आहारों में से किसी भी प्रकार के आहार को मैं रात्रि में स्वयं नहीं खाऊंगा, दूसरे को नहीं खिलाऊंगा और खाने वाले अन्य जनों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से-मन से वचन से काय से-न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । भगवन्, मैं भूतकाल के रात्रि-भोजन-पाप से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं। भदन्त, मैं छठे व्रत में सर्व रात्रि-भोजन से निवृत्त होकर उपस्थित हुआ हूं।
(१७) दोहा-पंच महाव्रत छठा यह, निशि-भोजन-व्रत लेय। भगवन्, आत्म-हितार्थ मैं, विचरू तुझ पद सेय ॥
(१८) कवित्त
- विरत होय प्रत्याल्यात-पाप होय, भिक्षुणी या भिक्ष होय दिन में या रात में, · या सोवते, एकान्त जात आवते, अथवा अनेक जन होवें संग-साथ में । :: भित्ति शिला वृत्ति, ढेले गिट्टि आदि होय, लगी हो सचित्त रज चाहे हाथ-पांव में, पत्र हो सरजस्क या कोई देह-भाग होय तिनको विलेखनादि करे न ज्ञात भाव में॥ काठ खपाच लेय, सलाई तसु पुंज लेय, लोह खंड शस्त्रभंड से न भू विदारि है, ना करे घटनादि, विलेखन मर्दनादि और से हू उक्त काज करावं न सम्हारि है। विलेखनादि करते हू पुरुष को न कमी करे, अनुमोदन त्रिकरण त्रियोग से त्याग है, जाव-जीव पृथ्वी काय-घात न कमी कराय, करते हू अन्य को न घात अनुमोद है ।। चौपाई- पूरव दोष जु लाग्यो होय, निंदा गरिहा करि तजु सोय ।
पृथिवी-हिंसा तजि इह मांत, भया उपस्थित हूं जगतात ॥१॥