Book Title: Agam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र हिन्दी भाषानुवाद सहित. विपाक सूत्र - बाल ब्रह्मचारी पंडित मुनि श्री अमोलक ऋषिजी महाराज कृत राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी जौहरी प्रसिद्ध कर्ता - दक्षिण हैदराबाद निवासी. अमूल्य. जैन शास्त्रोद्धार मुद्रालय सोकंदराबाद ( दक्षिण. अग NAWA प्रत १० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमल्यशास्त्र दानदाता. FERENCE जैन स्थम्भ दानवीर जैन प्रभावक धर्म धुरंधर सबECERRC-RREEEE 15329 WALAPRASA SHAD S.JWAL जन शास्त्रोदार मुद्रालय, सिकंदराबाद, दाक्षण.) स्व राजा बहादुर लाला मुखदेव सहायजी. जौहरी मस.१९२०. वर्गस्थ स.१९७४. ForP990 लारा ज्वालाप्रसादजी, जौहरी. जन्म सं.१९५० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ eNasabase पत्याधिकारी addesakal Mastesde sesta उपकारी-महात्मा Namadamastak - -- ५०.. gyanmandir@HODASTHAN परम पूज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के शुध्धाचारी पूज्य श्री खुषा ऋषिजी 27 महाराज के शिष्यवर्य स. तपस्वीजी श्री केवल H ऋषिजी महाराज आप श्रीने मुझे साथ ले महा परि-13 श्रम से हैद्राबाद जैसा बडा क्षेत्र साधुमार्गिय धर्म में प्रसिद्ध किया व परमोपदेश से रानाबहादुर दानवीरलाला मुखदेव सहायजी ज्याला प्रसादजी को धर्मप्रेमी बनाये. उनके प्रतापसे ही शास्त्राद्धारादि महा कार्य हैद्राबाद में हुए. इस लिये इस कार्य के मुख्याधिकारी आपही हुए. जो जो भव्य । जीपों इन शास्त्र द्वारा महालाभ प्राप्त करेंगे ये भापही के कृतज्ञ होंगे. परम पुज्य श्री कहाननी ऋषिजी महाराज की सम्प्राय के कवियरेन्द्र महा पुरुष श्री-तिलोक ऋषिजी महाराज के पाटवीय शिष्य वर्य, पूज्यपाद गुरू वर्य श्री रतऋषिजी महाराज ! आपश्री की आज्ञामे ही शास्त्रोद्धारका कार्य स्त्रीकार किया और भाष के परमाशिर्वाद से पूर्ण करसका इस लिये इस कार्य के परमोपकारी महात्या आप ही हैं. आप का उपकार केवल मेरे पर ही नहीं परन्तु जो जो भव्यों इन शास्त्रोद्वारा लाभ प्राप्त करेंगे उन सबपर ही होगा. yasaheshsanasalaM RAISIS सामोस 18 HENRNA दास-अमोल अपि RAS AND For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ५ %83 आभारी-महात्मा AR| BIREN हिन्दी भाषानुवादक कच्छ देश पावन कर्ता मोटी पक्ष के परम पूज्य श्री कर्मसिंहजी महाराज के शिष्यवर्य महात्मा कविवर्य श्री नागचन्द्रजी महाराज! इस शास्त्रोद्धार कार्य में आयोपान्त आप श्री प्राचिन शुद्ध शास्त्र, हुंडी,गुटका और समय २पर ] भावश्यकीय शुभ सम्मति द्वारा मदत देते रहनेसेही में इस कार्य को पूर्ण कर सका. इस लिये केवल में ही नहीं परन्तु जो जो भव्य इन शास्त्रोद्वारा | । साम प्राप्त करेंगे वे सब ही आप के प्रभारी शुद्धाचारी पूज्य श्री खूबा ऋषिजी महाराज के शिष्यवर्य,आर्य मुनि श्री चेना ऋषिजी महाराज शिष्यवर्य बालब्रह्मवारी पण्डित मनि श्रीअमोलक ऋषिजी महाराज आपने बडे साहस से शास्त्रोद्धार जैसे महा परिश्रम वाले कार्य का जिस उत्साहसे स्वीकार किया था उस ही उत्साह से तीन वर्ष जितने स्वल्प समय में अहर्निश कार्य को अच्छा बनाने के शुभाशय से सदैव एक भक्त भोजन और दिन के सात घंटे लेखन में व्यतीत कर पूर्ण किया. और ऐमा सरल बनादिया कि कोई भी हिन्दी भाषज्ञ सहज में समज सके, ऐसे 'ज्ञानदान के महा उपकार तल दवे हुओ हम आप के बडे अभारी हैं... संघकी तर्फ मे. होंगे. . 182928 आपका अमोल प्राषिHREE MH मुम्वदेव महाय बाला प्रसाद Rame For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B ) माय.मपिटलMO ONSIBI9 और भी-सायदाना भपनी छत्ती ऋद्धि का त्याग कर हैद्रागद सीकम्माबादमें दीक्षाधारक बाल ब्रह्मचारी पण्डित मुनि श्रीअमोलक ऋषिजीके शिष्यवर्य ज्ञानानंदी श्री देव ऋषिमी. चैय्यात्यी श्री राज ऋषिजी. तपस्वी श्री उदय ऋषिजी और विद्याविलासी श्री मोहन ऋषिजी. इन चारों मुनिवरोंने गुरु आज्ञाका बहुमानसे स्वीकार कर आहार पानी आदि मुखोपचार का संयोग मिला. दोपहर का व्याख्यान, मसंगीसे वार्तालाप,कार्य दक्षता व समाधि भाव से सहाय दिया जिस से ही यह महा कार्य इतनी शीघ्रता से लेखक पूर्ण सके. इस लिये इस कार्य पाक उल मुनिवरों का भी बडा उपकार है. HARE पंजाब देश पावन करता पृज्य श्री सोहनलालजी, महात्मा श्री मात्र मुनिजी, शतावधानी श्री रत्तचन्द्रजी,तपस्सीजी माणकचन्दजी,कवीवर श्री अमीऋषिजी,सुवक्ता श्री दौलत ऋषिजी.पं. श्री नथमलजी.पं.श्री जोरावरमल मी. कविवर श्री नानचन्द्रजी.पवर्तिनी सतीजी श्री पार्वतीजी.गुणज्ञसतीजी श्री रंभाजी-धोराजी सर्वज्ञ भंडार, भीना सरवाले कनीरामजी बहादरमल जी बाँठीया, सीवडी भंडार, कुचेरा भंडार, इत्यादिक की तरफ से शास्त्रों व सम्मति द्वारा इस कार्य को बहुत सहायता मिली है. इस लिये इन का भी बहुत सपकार मानते हैं. S या का सखदेव सहाय पाला प्रमाद जट मधदेव महाव पालापमाद rs For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ला प्रERE दक्षिण हैद्राबाद निवासी जौहरी वर्ग में श्रेष्ट दृढ! दानवीर राजा बहादुर लालाजी साहेब श्री सुखदेव सहायजी मालामनादजी! ___ मापने साधु सेवा के और ज्ञान दान जैसे महाकान को भी बन जैन माधुमार्गीय धर्म के परम माननीय प परम आदरणीय बत्तीम शास्त्रों को हिन्दी भाषानुगद सहित छपाने को रु. २००००, का बर्थकर अमूल्य देना स्वीकार किया और शेष युद्धारंभ ले सब वस्तु के भाव में वृद्धि होने से रु. ४०००० के पर्व में भी काम पूरा होनेका संभव नहीं होते भी आपने उसही उत्साह से कार्य को समाप्त कर सबको अमूल्य महालाभ दिया, यह आप की उदारता साधुमार्गीयों की भौरव दर्शक व परमादरणीय है ! दाबाद सिकन्दावाद व पंच 3B3BE%MNSKRREN अवश्यकीय सूचना : शोबाला (काठियावाड) निवासी मणीलाल पशीयलाल को शास्त्रोदार कार्यालय का मेनेजर था और जो शाहीद्धार जसे महा उपकारी | और धार्मक कार्य के हिसाब को संतोष जनक | और विश्वाशनीय ढंग से नहीं समझा सकने के | सबब से हमको पूर्ण अविश्वाश होगया और आप सुद घबरा कर विगा इजाजत एक दम चलागया इसलिये जो प्रेश अरूबार भरै धार्मीक कार्य के में लिये मणीलाल को देना चाहाथा वो उसकी ममाणिकता और घोटाला देखकर उस को नही देते हवे आग्रा निवासी नैनपथप्रदर्शक | aमासिक के प्रसिद्ध कर्ता बाबू पदम सिंघ जैनको धार्मिक कार्य निमित्त दिया गया है सर्व सज्जन इस अखबार से फायदा उठाचे PRATISEXराका प्रशाद - n a ton international For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 28 विपाक मूत्र 8438 48848 एकादश विपाक विपाकसूत्र की प्रस्तावना. प्रणम्य श्रीजिनाधीशं,सद्गुरून नमो नमः॥विक सूत्र स्यवार्तिकं,कुरुते बाल बोधकः ॥१॥ श्री जिनेश्वर भगवान् को आर गुरु महाराज को सावनय वंदना नमस्कार कर के एका दश अंग जो श्री विपाक सूत्र है उस के अर्थ का अल्पज्ञों को मुख से अवबोध कराने के लिये हिन्दी अनुवाद लिखता हुं ॥ ६॥ दशमा अंग प्रश्नब्याकरण सूत्र में तो आश्रय संवर का स्वरूप समजाया. आश्रव दुःख रूप और संवर सुखरूप होता है. इस लिये इग्यारवा अंग विपाक सूत्र में दो प्रकार के पाक ( सुख दुःख रूप) कथन कहते हैं. अर्थात्-जैसे अफीमादि का कटुपाक भोगवते दुःख रूप होता है ऐसे ही पाप कर्म के कटु फल भोगवते दुःख रूप होते हैं और जैसे मिष्टान्नादि भोगवते सुख रूप होता है वैसेही मिष्ट के मिष्ट फल भोगवते सुख रूप होते हैं. इस कथन को दश २ दृष्टान्तों कर के विस्तार पूर्वक इस सूत्र में समजाया गया है. कहते हैं कि जिस प्रकार माता पिता मृत्यु के अवसर में अपने घर का सार पदार्थ मुपुत्र को बताते हैं तैसे ही श्री महावीर महापिता ने अन्तिम समय में *चारो ही तीर्थ को इस विशक सत्रका फरमान चारो तीर्थ रूप पुत्रको किया है. इस सूत्र के दो श्रुतस्कन्ध है यथा-१ दुःख विपाक और २ सुख विपाक. एकेक श्रुतस्कन्ध के दशअध्ययनो, यों दोनों के सब २०३। अध्ययन हैं. इस का उतारा मुख्यता में तो कच्छ देश पावन कर्ता महात्मा श्री नागच 'नी प्रस्तावना 428948 - For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक पालनमचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिजी महाराज की तरफ से प्राप्त हुई धनपतसिंह बाबू की छपाइ हुई प्रत पर से किया है और गौणता में मेरे. पास की दो प्रतों पर से किया है. छयस्थता के योग से अशुद्धीयों गई हैं सो शुदकर पढीये.. विपाकसूत्र की अनुक्रमणिका. . प्रथम श्रुतस्कन्ध. - ७ समम अध्ययन उम्बरदत्त कुमार का ११ प्रथम मध्यवन-मृगालोदिया का ८ अष्टम अध्ययन-सौर्यदचमच्छी का १२ द्वितीय अध्ययन-रजित कुमार का ९ नवम अध्ययन-देवदत्ताराणी का १३ तृतीय अध्ययन-अमम्गसेन चोरका १० दशम अध्ययन-अंजूराणी का १४ चतुर्व अध्ययन-कट कुमार का २ द्वितीय श्रुतस्कन्छ E५पंचम अध्ययन-बहस्पति दरका १०२ १श्यम अध्ययन-सुबाहु कुमार का १४२ ६ षष्टम अध्ययन-मन्दीसेण कुमार का ११० . आमे नवही अध्ययन संक्षिप्त है। परम पुज्य श्री कहानी ऋषिमहाराज के सम्मंदायके वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलकऋषिजी में सीर्फ तीन वर्ष में ३२ ही शाखों का हिंदी भाषानुवाद किया, उन ३२ ही शास्त्रों की १०००• १००० प्रतों को सीर्फ पांचही वर्ष में छपवाकर दक्षिण हैद्राबाद निवासी राजा बहादूरलाला.. मुखदेवसायजी न्वालाप्रसादनी ने सब को अमूल्य मम दिया है। प्रकाशक राणाबहादुर गला मुखदेवसहायजी-मार्गमसादनी For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ reg Has...66666.368 A86864646....... . .....00A 57-579585505500 5902575/315AMA5237-52447692457251-5352-51ACHA MESSARETVU TRIOSIXE LOK GeneCROIDCtextSXSIX EXESISTRING MMAVAN ३.04 Sàiờời bởờiờờiữ lửi tủ tỡiểờiờ giớiờ 00 00 00 00 000000000 giờ 20 test 498एकादशमांग-विपाक मूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध 488+ ॥ एकादशमाङ-विपाक सूत्रम् ॥ ॥ प्रथम-श्रुतस्कन्ध ॥ * प्रथम अध्यायनम् . तेणंकालेणं तेणंसमएणं चंपारणाम णयरीहोत्था वण्णओ ॥ १ ॥ तएणं चंपाएणरीए उत्तरपुरिच्छिम दिसीभाए एस्थणं पुण्णभद्देणामं चेइएहोत्थावण॥२॥तेणंकालेणं तेणं उल काल चौथे भारे में उस समय जिस वक्त यह भाव प्रवर्तते थे तब चम्पा नाम की नगरी थी, उसका वर्णन उपवाइ मूत्र से जानना ॥ १ ॥ उस चम्पा नगरी के उत्तर और पूर्व दिशा के विभाग में ईशान है कौन में यहां पूर्णभद्र नाम का चैत्य था इस का भी वर्णन उववाद सूत्र से जानना ॥२॥ उन काल उस nnnnwwwwnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnrgriwwwwwwws दुःखविपाक का-पहिला अध्ययन-मृगापुत्रका + wwwwwwAN For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अजसुहम्मेणामं अणगारे जाई संपण्णे वण्णओ, चउदसपुब्बी चउनाणोवगए पंचहि अणगार साह सद्धिं संपरिखुडे पुवाणुपुचि चरमाणे जाव जेणेव पुण्णभद्देचेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ ॥ ३ ॥ परिसाणिग्गया धम्मंसोचा निसम्म जामवदिर्सि पाउन्भया तमिवदिसिं पडिगया !!४॥ तेणंकालणं तेणंसमएणं अज्जसुहमरस अंतेवासी अन जंबूणामं अणगारे सत्तुस्सेहे जहा गोयमसामी तहा जाव झाणकोट्टोवगए विहरइ ॥ ५ ॥ तएणं अज जंबूणाम समय में श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी के शिष्य, आर्य सुधर्मा स्वामी नाम के अनगार-साधु उत्तम जातिवन्त इत्यादि गुनों का वर्णन उववाइ स्त्र से जानना, चउदे पूर्व के पाठी चार ज्ञान सहित पांच सो माधुओं के साथ परिवरे हुवे पूर्वानुपूर्व चलते हुवे यावत् जहां पूर्णभद्र नाम का चैत्य, गीचे युक्त था. पतहां पधारे, यथा प्रतिरूप साधु को कल्पनीय वस्तु का अवग्रह-आज्ञा ग्रहणकर संयम तपसे आत्मा भावते, विचरने लगे ॥ ३ ॥ परिषदा दशनार्थ आई, धर्मकथा-व्याख्यन श्रवण कर अपधारकर जिस दिशा से आई थी, उसदिशा पीछीगइ ॥ ४ ॥ उस काल उस समय में आर्य सुधर्मा स्वामी के शिष्य आर्य जम्बू स्वामी नाम के अनगार-साधु सात हाथ के ऊंचे यावत् जैसे गौतम स्वामी का भगवती सूत्र में वर्णन चला है तैसे यावत् ध्यान कोष्टक में धर्म ध्यान ध्याते हुवे विचर रहे थे ॥ ५ ॥ तब वे आर्य रकाशक-गाजारहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 48+ एकादशमांग विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध Page अणगारे जायसड्ढे जाव जेणेव अज हम्मे अणगारे तेणेव उवागए तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करेइ त्तावंदइणमंसइ वंदित्ता णमंसित्ताजाव पज्जवासइ,एवं वयासीजइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दसमस्स अंगस्स पण्हावागरणाणं अयमट्रे पण्णत्ते, एक्कारसमस्सणं भंते ! अंगम विवाग सुयक्खंधस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्टे पण्णत्ते ? ॥ ६ ॥ तएणं अजसुहम्म अणगारे जंबूअणारं एवं वयासी-एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं एक्कारसमरस अंगस्स विवागसुथरस दोसुयखंधा पण्णत्ता, तंजहा-दुहविवागाय, सुहजम्बू नाम के अनगार को प्रश्न पूछने की श्रद्धा उत्पन्न हुई यावत् जहां आर्य मुधर्मा स्वामी थे, तहां, आये, आकर तीन वक्त दोनों हाथ जोड प्रदक्षिणावर्त फिराकर वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार करके यावत् सेवा करते हुवे यों कहने लगे-यदि अहो भगवन् ! श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी यावत् मुक्ति पधारे उोंने दशवा अंग प्रश्न व्याकरण का तो उक्त अर्थ कहा वह मैंने श्रवण किया, अहो न भगवन् ! इग्यारवा अंग विपाक सूत्र का श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी यावतू मुक्ति पधारे उनोंने कैसा अर्थ कहा है ? ॥ ६ ॥ तब वे आर्य सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से इस प्रकार कहने लगे-यों निश्चय है * जम्बू ! श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी यारत् मुक्ति पधारे उनोंने इग्यारया अंग विपाक भूत्र के दो। दुःख विपाकका पहिला अध्ययन-मृगापुत्रका For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी चित्रागय, ॥ ७ ॥ पढमरणं भंते ! सुखंधरस दुहविवागाणं रुमणणं जाय संपतेणं अट्ठे पण ? || ८ || तरणं सुहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वयासी एवं खल जंबू ! समणेणं आईगरेणं जाव संपत्तेणं दुहविशगाणं दसअज्झयणा पण्णा, तंजा - १ मियापुते, २ उज्झियए, ३ अभग्ग, ४ मगडे, ५ वहस्सइ, ६ नंदी, उंबर, ८ सोरियदत्तेय, ९ देवदत्ताय, १० अंजय ॥ ९ ॥ इणं भंते ! मिणेणं आईगरणं जात्र संपत्तेणं दुहवित्रागाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता तंजहा मियापुत्ते जात्र अंजूय, श्रुतस्कन्ध कहे हैं, उन के नाम --- १ दुःख विपाक और २ सुख विपाक ॥ ७ ॥ अहां भगवन् ! प्रथम श्रुतस्कन्ध दुःख विपाक के श्रमण भगवन्त यावत् मुक्ति पधारे उनोंने क्या अर्थ कहा है ? ॥ ८ ॥ तब वे सुधर्मा अनगार जम्बू अनगार से यों कहने लगे-यों निश्चय हे जम्बू ! श्रमण भगवन्त धर्म की आदि के करता यावत् मुक्ति पधारे उनोंने दुःख विपाक के दश अध्ययन कहे हैं. महावीर स्वामी उन के नाम का ६ नंदीवृधन कुमार का, ७ और १० अंजू कुमारी का || १ | १ मृगापुत्र का, २ उज्झित कुमार का, ३ अभंगसेन चोर का, ४ सकट कुमार का ५ बहस्पति कुमार उम्बरदत्त कुमार का, ८ सौर्यदत्त कुमार का, यदि अहो भगवन् ! श्रमण भगवन्त महावीर के करता यावत् मुक्ति पधारे उनोंने दुःख विपाक के दश अध्याय कहे हैं तथा 9 For Personal & Private Use Only ९ देवदत्ता रानी का, स्वामी धर्म की आदि मृगापुत्र का यावत् * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्व मलदज़ासी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ एकादशांग विपाकपुत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध पढमरणं भंते ! अज्झयणस्स दुहविवागणं समर्पणं जाव संपत्तेर्ण के अड्डे पण्णत्ते ? ॥ १ ० ॥ तएण से सुहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं व्यासी एवं खलु जंबू ! काणं ते समएणं मियगामे णयरेहोत्था वण्णओ ॥ ११ ॥ तरसणं मियगामरस' गरस्त बहिया उत्तरपुच्छि मे दिसीभाए चंदणपायचे णामं उज्जाणेहोत्था, सञ्चय वष्णओ ॥ १२॥ तत्थणं चंदणपायवस्त बहुभुज्झदेसभाए, सुहमस्स जक्खस्स जक्खा - तणे हीस्था, चिराईए जहा पुण्णभद्दे || १३ || तत्थणं मियगामे नगरे विजए नामं खत्तिए रायापरिवसई वण्णओ ॥ १४ ॥ तस्सणं विजयस्स खतियस्स मियाणामं देवी अंजू कुमारी का, अहां भगवन् ! इन में से प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? || १० ।। तब वे अनगार जम्बू अनगार से यों कहने लगे---यों निश्चय अहो जम्बू ! उस काल उस समय में नाम का नगर था वर्णन उचाइ सूत्र से जानना ॥ ११ ॥ उस मृगाग्राम नगर के बाहिर ईशान कौन में चंदनपादप नाम का उद्यान था, वह सर्व (छडी) ऋतु में सुखकारी वर्णन योग्य था ||१२||| उस चंदनपादप उद्यान के मध्य में सुधर्मा यक्ष का यक्षायतन ( मंदिर ) था, वह पूराना यावत् जैसा पूर्ण (भद्र यक्ष का वर्णन उवाइ सूत्र में चला है तैमा इस का भी जानना || १३ | उस मृगाग्राम नगर में विजय नाम का क्षत्रीय राजा राज्य करता था, वह वर्णन योग्य था ॥ १४ ॥ उल विजय राजा के मृगादेवी | For Personal & Private Use Only दुःखविपाक का पहिला अध्ययन-मृगापुत्रका Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होत्था अहीणवण्णओ ॥ १५॥ तस्सणं विजयखत्तियस्स पुत्ते मियाएदेवीए अत्तए मियापुत्तेणामं दार एहोत्था-जाइ अंधे, जाइए, जाइबहिरे, जाइपंगुले, हुंडेय वायवे, 15 पत्थिणं तस्स दारगस्स-हत्थावा, पायावा, कण्णावा, अच्छिवा, णासावा, केवलभे तसिं अंगोवंगाणं आगिती आगिमित्ते ॥१६॥ तएणं सा मियादेवी तं मियापुत्तदारणं है रहस्सियं भूमिघरंसि रहसिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी२ विहरइ ॥ १७ ॥ तत्थणं मियागामे जयरे एगे जाइ अंधे पुरिसे परिवसइ, सेणं एगेणं सचक्खु तेणं पुरिसेणं अर्थ नाम की रानी थी. वह प्रतिपूर्ण अंग की धारक सुरूपा यावन् वर्णन योग्य थी ॥१५॥ उस विजय क्षत्री का पुत्र मृगादेवी का आत्मन मृगापुत्र नाम का कुमार था, वह जन्म से अन्धा, जन्म से मुक्का [ बोबडा ] जन्म मे बहिरा, जन्म से पांगुला, हुंडक मंस्थानवाला, बात कफ पित्तादि रोग युक्त था. उस बच्चे के हाथ पांव कान आंख नाक नहींथे फक्त अंगोपांगके चिन्ह मात्र-आकार मात्रथे परंतु प्रसिद्ध नहीं देखातेथे॥११॥ तब वह मृगादेवी उस मृगा पुत्र को छिपाकर भूपी घर (भोंयारे) में गुप्त रखकर गुप्त आहार पनी देती हुइ विचरती थी ॥ १७ ॥ उस मगाग्राम नगर में एक जन्म का अन्धा पुरुष रहता था, उप्त के एक पुरुष चक्षुधाला आगे को दंड (लकडी) ग्रहण करता हुवा ले जाता था, उस अन्ध पुरुष के [समस्तक के बाल बिखरे हुये थे, उस के शरीर वस्त्रादि की मलीनता कर उसे मक्षिकाओंने घेर रखा था, बादक-बालब्रह्मचारी मुनि प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * For Personal & Private Use Only www.anerary.org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ | HT एकादशमांग विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध art manimarnmarnnnnnnnnnnnnnwww पुरओ दंडएणं पगडिजमणे २ फुटहडाहडसीसे मच्छिया चडगर पहकरेणं अणिजमाणमग्गे मियागामे णयरे गिहेगिहे कालवडियाए वित्तिं कप्पमाणे विहरइ ॥१८॥ तेणंकालेणं तेणंसमएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए परिसानिग्गया॥१९॥ तएणं से विजए खत्तिए इमीसे कहाए लट्ठ समाण जहा कूणिए तहा णिग्गए जाव पज्जुवासइ ॥ २० ॥ तएणं से अंधे पुरिसे तं महाजणसइंच जाव सुणेता, तं पुरिसं एवं वयासी-किन्नं देवाणप्पिया! अजमियगामे इंदमहंतिश जाव निगच्छइ ? ॥ २१ ॥ तएणं से पुरिसे तं जाइ अंध पुरिसं एवं वयाती-णो खलु देवाणुप्पिया उस के पीछे २ मक्खीओं जाती थी, वह अन्ध उस मृगा ग्राम नगह में घरोघर भिक्षा के लिये दीनवृति से आजीविका करता हुवा विचरता था ॥ १८ ॥ उप काल उस समय में श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी पधारे चंदनपादाप बगीचे में यथा उचित अवग्रह ग्रहण कर विचरते थे, दर्शनार्थ परिषदा आई ॥ १९ ॥ तब उस" विजय क्षत्री राजा को भगवन्त पधारने की खबर लगी, जिस प्रकार कोणिक राजा भगवंत के दर्शन करने आया था तैसे बह भी आया ॥ २० ॥ तब वह अन्ध पुरुष उन दर्शनार्थ जाते हुवे बहुत लोगों का शब्द मुनकर, चक्षुवाले पुरुष से यों कहने लगा-हे देवानुप्रिय ! आज मृगाग्राम नगर में क्या इन्द्रोत्सव यावत् जिम के लिये इतने पुरुष जाते हैं ? ॥ २१ ॥ तब वह चक्षुबाला पुरुप उप्त जाति अन्ध पुरुष से दुःख विपाक का पहिला अध्ययन-मृगापुत्र का । For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ ११ अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी इंदमहेइ जाव निग्गए एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे जाव विहरइ, तएणं एए जाव निगच्छा ॥ २२ ॥ तएणं से अंध परिसे तं परिसं एवं बयासी-गच्छमोणे देवाणप्पिया! अम्हेवि समणे भगवं जाव पज्जवासामा ॥ २३ ॥ तएणं से सचक्ख परिसे जाइ अंध परिसे परओ दंडएणं पगडिजमाणे २ जेणेव समणे भगवं महावीर तेणेव उवागच्छई २ ता, तिवखतो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ त्ता बंदइ नमसइ वंदइत्ता नमसइत्ता जाव पज्जुवासई॥ २४ ॥ तएणं समणं भगवं महावगैरे विजयस्स तीसेय धम्म परिकहइ, जाव परिसा पडिग्गया, विजए विगए ॥ २५ ॥ तेणंकालेणं यों कहने लगा-हे देवानुप्रिय ! आज इन्द्र महोत्सव आदि कुछ नहीं है परंतु श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी पधारे हैं उन के दर्शन करने के लिये यह बहुत से लोगों जाते हैं ॥२२॥ तब वह अन्ध पुरुष सचक्षु पुरुष मे यों कहने लगा. अहो देवानुप्रिय! आन भी श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी के दर्शन करने चले. यावत् सेवा करेंगे ॥ २३ ॥ तब उस जाति अन्ध पुरुष का उस सचक्षु पुरुषने आगे को द धरन कर नहां श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी थे तहां आया, आकर तीन वक्त हाथ जोड प्रदक्षिणावर्त फिगर वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार कर सेवा भक्ति करने लगा ॥ २४ ॥ तक श्रमण भगवंत महावीर स्वामी विनय क्षत्री राजा को उस महा परिषदा को धर्मकथा मुनाई, परिषदा पीछी गइ, विजय * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशगंग-विपाकमूत्रका प्रथम श्रुतस्कन्ध 2g तेणंसमएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूइ णामं अणगारे जाब विहरइ ॥ २६ ॥ तएणं से भगवं गोयमे तं जाइ अंधपुरिसं पासइ २त्ता जायसट्टे जाव एवं वयासीअत्थिणं भंते ! केइपुरिसे जाइअंधे, जाइअंधारूवे ? हता अत्थि ॥२७॥ कहिणं भंते ! से पुरिसे जाइअंधे जाइ अंधारूवे ? एवं खलु गोयमा ! इहेव मियगामे णयरे विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियांदवीए अतए मियापुत्त णाम दारए जाइअधे जाइअंधारूवे, नत्यिणं तस्स दारगरस जाब आगितिमित्ते, तएणं साराजा भी गया ॥ २५ ॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवन्न महावीर स्वामी के समीप रहनेवाले बड़े शिष्य इन्द्रभूनी नाम के अनगार यावन् धर्मध्यान ध्याते विचर रहथ ॥२६॥ तब वे भगवंत गौतम स्वामी उस जन्मान्ध पुरुष को देखकर, प्रश्न पूछने की श्रद्धा उत्पन्न हुई यावत् भगवंत के पास आये वंदना नमस्कार कर यों कहने लग-अहा भगवान् ! ऐसा कोइ जन्मान्ध पुरुष है. जन्मान्धरूप उत्पन्न हुवा है ? भगवानने कहा-हां है ॥ २७॥ गोतम स्वामी बोले-अहो भगवान ! वह जाति अन्ध पुरुष जाती अन्धरूप पुरुष कहां है? भगवंत बोले-हे गौतम ! यहां ही मृगाग्राम नगर में विजय क्षत्रि राजा का पुत्र मृगादेवी रानी का आत्मज मृगापुत्र नामका कुमार जन्मान्य जन्मान्धरूप है उस कुमार के हाथ पांव कान नाक आंख अर्थ दुःखविपाक का पहिला अध्ययन-मृगापुत्र का 48:02 Rago For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी8% मियादेवी जाव पडिजागरमाणी २ विहरइ ॥ २८ ॥ तएणं से भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता नमासत्ता एवं बयासी-इच्छामिणं भंते!अहं तुभहिं अब्भणुण्णाए समाणे मियापुत्तं दारयं पासित्तए ?, अहासुहं देवाणुप्पिया ! ॥ २९ ॥ तएणं से भगवं गोयमें समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे हट्टतुटे समणस्स भगवओ अंतियाओ पडिणिक्खमई २ त्ता अतुरियं जाव सोहेमाणे २ जेणेव मियागामेणयरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता मियागाम जयरं मझमझेणं अणुपंवसई २त्ता जेणेव मियाए देवीए गिह तेणव उवागच्छइ ॥ ३० ॥ तएणं सामियादेवी आदि अवयत्र कुछ नहीं हैं.फक्त आकार मात्र प्रच्छन्न हैं; उस का मृगादेवी पलन करती हुई विचर रही है॥२८॥ तब भगवंत गौतम श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर यों कहने लग-अहो भगवान ! जो आपकी आज्ञा होत में मुगापुत्र कुमार को देखना चहाता हुँ ? भगवानने कहा हे दवानुप्रिय ! जैसेमुख हो वैसे करो ॥२९॥ तब भगवंत गौतम स्वामी श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की आज्ञा प्राप्त होने हृष्ट इतुष्ट अनंदित हुवे,श्रमण भगवंन महावीर स्वामी के पास से निकलकर त्वरिता-शीघ्रता रहित यावत् इयर्यासमिति से देखतेहुवे २ महां मृगाग्राम नगर था तहां आये, मृगाग्राम नगर में प्रवेशकर के मध्य मध्य में होकर जहां मृगावती रानी का घर था, तहां आये ॥ ३० ॥ तब वह मृगादेवी भगवंत गौतम स्वामी को आते हुवे . प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी , For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्धन भगवं गोयमं एजमाणं पासइ २ त्ता हट्टतुटु जाव एवं. वयासी-सदिसंतुणं देवाणुप्पिया ! किमागमण पयोयणं ॥ ३१ ॥ तएणं भगवं गोयमे मियादेवि एवं वयासी • अहणं देवाणुप्पिया ! तवपुत्तं पासियं हवमागए॥ ३२ ॥ तएणं सा मियादेवि मियापुत्तस्स दारयस्स अणुमग्ग जायए, चत्तारिपुत्ते सव्वालंकाराविभूसिए करेइ २त्ता भगवं गोयमस्स पाएसु पाडेइ २त्ता एवं वयासी-एएणं भंते! मम पुत्ते पासह ॥ ३३ ॥ तएणं से भगवं गोयमे मियंदेवि एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिय! अहं एए तवपुत्ते पासिओमागए, तत्थणं जे से तब जेट्टे पुत्ते मियापुत्ते दारए जाइ अंधे जाइअंधारूवे जन्नं तुमं रहस्सियं भूमि देखकर हर्षपाइ यावत् वंदना कर यों कहने लगी-अहो देवानुप्रिया ! आज्ञादीजीये आप किस प्रयोजन मे यहां पधारे है ? ॥ ३१ ॥ तब भगवंत गौतम मृगादेवी मे ऐसा बोले-हे देवानुप्रिया ! मैं तेरे पुत्र को देखने यहां शीघ्र आया हुं ॥ ३२ ॥ तब वह मृगादेवी मृगापुत्र के बाद चार पुत्र हुवे थे उन को सर्व प्रकार के वस्त्रालंकार से विभूषित कर भगवंत गौतम स्वापी के पांव लगाये, पांच लगाकर यों क लगी-अहो भगवान ! देखीये यह हैं मेरे पुत्र ॥ ३३ ॥ तब वे भगवंत गौतम स्वामी मृगादेवी से ऐसा बोले-हे देवानुप्रिया ! में इन तेरे पुत्रों को देखने के कुमार जन्मान्ध जन्मान्धरूपे है जिस को तूं गुप्त भूमीघर में रखती है, गुप्त आहार पानी देतीदुई विचरतीहै, 28-दु:खावपाक का-पहिला अध्ययन-मृगापुत्रका ११ For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ १० अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी घरसि रहस्तिएणं भत्तवाणेनं पडिजागरमाणी रविहरइ तन्नं अहं पासिओ हन्यमागए ॥ ३४ ॥ एवं सामियादेवी भगवं गोयमं एवं वयासी सेकेणं गोयमा से तहारुवे णाणीवा तकस्सिवा जेणं ता एसमट्ठे मम ताल रहस्स कहेइ, ते तुम्हव्यमकखाए, जओ तुन्भेजाह ? ॥ ३५ ॥ तणं भगवं गोयमे मियादेविं एवं क्यासी एवं खलु देवापिया ! ममधम्मायरिए समणे भगवं महावीरे जात्र जओणं अहं जाणामि ॥ ३६ ॥ जावंचणं मियादेवीं भगवया गोयमेणं सद्धिं एयमट्ठ संलवइ, तावचणं मियापुत्तरस दारगस्स भत्तवेला जाययाविहोत्था ॥ ३७ ॥ तरणं सामियादेवि भगवं गोयम एवं उस को देखने केलिये में आया हु ||३४|| तब वह मृगावतीदेवी भगवंत गौतम स्वामी से यों कहने लगी अहो इति आश्चर्य ! अहो गौतम ! यह कौन ऐसा तथा रूप ज्ञानी अथवा तपरूप लब्धिकर युक्त हैं जिसने यह मेरा छिपा हुआ अर्थ तुम को कहा, जिसे प्रसिद्ध किया जिस से तुमने जाना और उसे देखने शीघ्र पधारे हो ? ॥ ३५ ॥ तवं भगवंत गौतम मृगादेवी से यों कहने लगे – हे देवानुप्रिय ! मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवंत महावीर स्वामी सर्व सर्वदर्शी हैं यावत् जिनाने मेरे से कहा जिस से मैंने जाना ॥ ३६ ॥ जितने में मृगावती देवी गौतम स्वामी से उक्त वार्तालाप करती थी उतने में मृगापुत्र कुमार को भोजन देने की वक्त होगई ॥ ३७ ॥ तब वह मृगावतीदेवी भगवंत गौतम स्वामी से यों कहने लगी For Personal & Private Use Only * प्रकाशक राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १२ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एकादशमांग-विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 438 वयासी-तुभेणं भंते ! इहचेच चिंटूह, जहणं अहं तुभं मियापुत्तं दारयं उवेदंस-, मितिकटु, जेणेव भत्तपाणघरए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता वत्थपरियट करेइ २ त्ता कट्रसगडियं गिण्हइ २ ता विपुलस्स असण पाण खाइम साइमस्स भरेइ २ त्ताः तं कट्टसगडियं अणुकट्ठमाणी २ जेणेव भगवं गोयमे सेणेव उवागच्छइ२ त्ता भगवं गोयम एवं वयासी-एहिणं तुब्भे भंते ! ममं अणुगच्छह. जहाणं अहं तुभं मियापुत्तं दारयः उवदंसेमि ॥ ३८ ॥ तएणं से भगवं गोयमे मियंदविं पिटुओ समणुमच्छइ. : ॥ ३९ ॥ तएणं सा मियादेवी तं कटु सगडियं अणुकट्ठमाणीरजेणेव भूमिघरे तेणेक उवगच्छइ २त्ता चउप्पडेणं वत्थेणं मुहबंधमाणी, भगवं गोयम एवं वयासी-तुब्भेविणं अहो भगवान! तुम यहांही खडेरहो जिससे में तुमारे को मृगापुत्र कुमारदेखावू.यों कहकर जहां भोजन गृहया । आई आकर वस्त्र बदले, वस्त्र बदलकर लकडे की छोटीसी गाडी ग्रहण की, उस में विस्तीर्णः अन्न खादिम स्वादिम भरा, भरकर उस काष्ट गाडी के मुख को डोरी वन्धी थी उसे खेचती हुई २ जहां भगवंत गौतम स्वामी थे तहां आइ, गौतमः स्वामी से यों कहने लगी-अहो भगवान ! तुम मेरे पीछे पधारों निस ॐ से मैं तुमारे को मृगापुत्र देखावू ॥ ३० ॥ तक भगवंत गौतम स्वामी मृगावतीदेवी के पीछे २ चले ॥३॥ तब वह मृगावती देवी उस काष्ट गाडी को खेचती २ जहां भूमीगृह ( भोयाग) था तहां आई, आकर ११.दुखविपाकका-पहिला अध्ययन-मृगा पुत्र .. Jan Education International For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी mamminwomer: भंते ! मुंहपोत्तियाए मुहबंधह ॥ ४० ॥ तएणे सेभगवं गोपमे मियदिवीए एवं बुले समाणे मुहपोतियाए मुहबंधेइ२ चा ॥४१॥ तएणं सा मियादेवी परंमूही भूमिघरस्स . दुवारं विहाडेइ, तओणं गंधो गिगच्छइ, से जहा नामए अहिमडेइवा जाव तओविणं अणिटुनराएचेव जाव गंधे पण्णत्ते ॥४२॥ तएणं से मियापुत्तेदारए तस्स विपुलस्स असण पाण खाइम साइमस्स गंधेणं अभिभएसमाणे तं विपुलं असणं मुच्छिए, तं वस्त्र के चार पटकर मुख (नाक) बम्धती हुई, भगवंत गौतम स्वामी से को कहने लगी--अशे भम्बन् ! तुम भी मुख को (नाक) को वस्त्र बन्धो + ॥ ४० ॥ तब वे भगवन्त गौतम ! मृगादेवीका उक्त वचन अवधार कर मुख [ नाक ] को वस्त्र बन्धा ॥ ४१ ॥ तब वह मृगावतीदेवी अपने मुख को भूमीगृह की तरफ से फिराकर पराङ मुखी हो भूमी गृह के द्वार खुल्ले किये, उसी वक्त उस में से दुर्गन्ध निकली, वह दुर्गन्ध यथादृष्टान्त-सका मडा(मृत्पुक शरीर)इत्यादि मडे सड जानसे उस में से जैसी दुर्गन्ध निकलती है उस से भी अधिक दुर्गन्ध कही है।॥ १२॥तब वह मुगापुत्र बालक उस विस्तीर्ण अशनादि चारों आहार की सुगंध आने से, उस अशनादि चारों आहार में मूछित हुआ, उस अशनादि चारों प्रकार के आहार को खाने + नाक दको यह शब्द लज्जा स्पद होने से, मुख बंधो ऐसा कहा है. क्यों कि गंध को नाक ही ग्रहण करता है. नकिमुख. प्रकाशक-रामाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. अनुवादक-बालब्रह्मच OY 1 For Personal & Private Use Only | Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमांग-विपाक मूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध १११ विपुलं असणं ४ आसएणं आहारेइ से खिप्पामेव विद्धसेइ २ तातोपच्छा पूयत्ताए सोणियत्ताए परिणमेइ, तंपियणं पूयंच सोणियंच आहारेइ ॥ ४३ ॥ तएणं भगवं गोयमं तंमियापुत्तं दारयं पासित्ता अयमेयरूवे अझत्थिए पत्थीए चिंतीए मणीगए संकप्पे समुप्पजित्था-अहोणं इमेदारए पुरापोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुपडिकंताणं असु. भाणं पात्राणं कडाणं कम्माणं पावगंफल वित्तिविसेसं पञ्चणुब्भवमाणे विहरइ, णमे दिवाणरगावा जरइयावा, पच्चक्खं खलु अयंपुरिसे जरय पडिरूवियं वेयणं वेएई, तिकटु मियदेवि आपुच्छइ २त्ता मियादेवीए गिहाओ पडिनिक्खमई २ ता मियग्गामं लगा, खाते ही वह आहार विगडाया, विद्वंम कर पीप [ राद ] पने रक्त पने परिणमा, तब उस पीप रक्त रूप आहार को भी वह खा गया ॥ ४३ ॥ तब भगवन्त गौतम उस मृगा पुत्र कुमार को देखकर इस प्रकार अध्यवसाय प्रार्थना चिन्ता मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुवा-अहो इति खदाश्चर्य ! यह बालक पूर्व बहत काले पहिले जन्मान्तर में दुश्च-प्राणातिपाताद आचरन किये, उन अशुभ कर्म के कारन ए कर्म के विपाक संचय किये जिस के अशुभ फल रूप वृत्ति भोगवता हुवा प्रत्यक्ष अनुभवता विचरता है, मैंने नरक और नरीयेको तो प्रत्यक्ष नहीं देखे परंतु यह पुरुष प्रत्यक्षमें पापफल नरक जैसी वेदनावेदता देखा है।* यो विचार कर मृगावती देवीको पूछकर मृगावती देवी के घर से निकलकर मृगाग्राम के मध्य २ में होकर 48 दुःखविपाक का-पहिला अध्ययन-मृगापुत्रका 48 ५१ an Education International For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ acacic - अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी णयरं मझं मज्झणं निगच्छइ २त्ता जेगेव समणे भगवं महावीर तेणेव उवागच्छइरत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहाण पयाहाण करेइ २ त्ता वंदइ णमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एव खलु भंत! अह तुब्भेहिं अभणुण्णाए समाणे मियग्गामं णयरं मझं मझेणं अणुपविसामि. जैव मियादेविएगिहे तेणेव उगए. तएणं मामियादेवी मम एजमाण पासइ २ त्ता हटुं, तंच व सव्यं जाव पूयंच सोणियंच आहारेइ, तएणं ममे इमे अज्झत्यिए पत्थीए चिंतीए मणोगएसंकप्प समुप्पजित्ता-अहोणं इमे दारए पुरा जाव विहरइ, सेणं भंते ! पुरिसे पुन्वभवे के आसी ? किं णामेएवा किं जहां श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी थे तहां आये, आकर श्रमण भगवन्त महावीर शमी को तीन वक्त हाथ जोड प्रदक्षिणावर्त फिराकर बंदना नमस्कार की, वंदना नमस्कार कर ऐमा बोले-अहो भगवन् ! मैं आपकी आज्ञासे मृगाग्राम नगर के मध्य में हो जहां मृगावती देवीका घर तहां गया,तव मृगावती देवी पेरेको आता हुवा देखकर हृषतुष्ट हुई इत्यादि सब कथन क हदिया यावत् पीप रक्तपण व आहार परिणमा उमे भी वह है खागया, तब मुझे इसप्रकार अध्यवसाय प्राथीचिंता मनोगत संकल्प उत्पन्न हुवा कि-अहो खेदाश्चर्य यह बालक जन्मान्वर के संचित पाप के फल भोगमता विचर रहा है, अहो भगवान ! वह पुरुष पूर्व भव में कौन में क्या नाम था, क्या गौत्र था, किन ग्राम में अथवा नगर में रहता था, क्या खराब वस्तु अन्यकोदी, क्या PanamanAmAnnnnnnnnnivannivAAAAAAnnaamang • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी, अर्थ For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोएवा कयरंसि गामसिवा णयरंसिवा, किंवादच्चा किंवाभोच्चा किंवा समायरित्ता केसिंवा पुरापोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिकताणं असुभणं पावाणं कंम्माणं फलनिति विसेस पच्चणुब्भवमाणे विहरइ ? ॥ ४४ ॥ गोयमाइ, समणे भगवं महावीरे गोयमं एवं वय सी-एवं खलु गोयमा ! तेणंकालेणं तेंणसमएणं इहेब जंबद्दीवे दीवे भारहेवासे सयदुवारे णामं णयरे होत्था, रिद्धथमिए समिद्धा वण्णओ तत्थणं सयदुवारे णयरे धणवती णाम रायाहोत्था वण्णओ, ॥४५॥ तस्सणं लयदुबारस्स गयरस्स अदूरसामेते अभक्ष खाया, क्या पाप समाचरन किये, कौन से जन्मान्तर में पुरातम् बहुत कालके दुश्चीर्ण प्रणाति पातादि दुष्टपने समाचारे, उमे प्रतिक मे नहीं प्रायःश्चित ले शुद्ध हुवा नहीं, वे अशुभ करनी के हेतू भूत पापकर्म सावद्य अनुष्ठान कर्म उस के अशुभ विपाक फल रूपवात्त जिस का प्रत्यक्ष अनुभव करतो भोगवता हुवा यह यहां विचर रहा है ? ॥ ४४ ॥ गौतम दिसे आपण भगवंत महावीर स्वामी गौतम सामी से यों कहने लगे-यों- निश्चय हे गौतम ! उस काल उस समय में इसही जबुद्वीप में सोद्वार वाली शतद्वारा नामकी नगरी कही, वह नगरी ऋषिकर प्रधान तथा भूमिका आवासकर सुसोभिन स्वचक्र परचक्र 17 के भयरहित धन धान्यकर पूर्णथी. तहां शतद्वारा नगरीमें धनपतिनामका राजा कोपिक राजा जैसाथा॥४॥ एकादशमांग विपाक सत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्धA8 498 दुःखविपाक का पहिला, अध्ययन-मृगापुत्रका 482 4 For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाहिण पुरस्थिमे दिसिभाए विजयवद्धमाणे णाम खेडेहोत्था, रिद्वत्थामय वण्णओ ॥ ४६॥ तस्सणं विजयवद्धमाणे खेडस्स पंचगामसयाई अभोएयाबि होत्था ॥४७॥ तस्सणं विजयबद्धमाणे खेडे एक्काइ णाम रटुकडेहोत्था, अहम्मिए जाव दुप्पडियागंदे, ॥ १८ ॥ सेणं एकाइणामं रट्टकूडे विजयवद्धमाण खेडस्स पंचण्हंगामसयाणं आहेबच्चं पोरवच्चं सामित्तं भहितं महतरगत्तं आणाईसर सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरइ ॥ ४९ ॥ तएणं से एक्काइ रटकूडे विजयवद्धमाण खेडस्स पंचगाम उस सतद्वारा नगरी से बहुत दूर नहीं तैसे बहुत नजीक नहीं दक्षिण पूर्व के बीच अग्निकौन में विजय बृद्धमान नामक खेडा (धुलका कोट वाला) ग्राम था, वह भी ऋद्धि स्मृद्धिकर शोभित था॥४॥उस विजय बृद्धमान खेडा के पीछे पांचमो ग्राम लगते थे, उसका भोग विनय बृद्धमान खेडा के अधिपति कोमिलता, था ॥ ४७ ।। उस विजय वृद्धमान खेडे में एक्काइ राठोड-देशाधिकारी ठाकुर था, वह एक्काइ अधर्मी यावत् कुकर्म करके ही आनन्दप्राप्त करता था॥४८॥ वह एक्काइ राठोड विजय वृद्धमान खंड में लगते हुने पांचसो ग्रामका अधिपति(जिष्टिक पना अग्रेसर(स्वामी)पना,(मेनापति पना भरन पोपन करता पालता हुवा विचरताचा 13॥४९॥ तब फिर वह एक्काइ राठोड विजय बृद्धमान खेड़ा के पांचमी ग्राम का कर बढाता विशेष करलेता,, अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक परषिजी १ प्रकाशक-राजाबहादुरलाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* 50 For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयाई बहुहिं करोहिय भारहिय विडीहिय उक्कोडाहिय पराभवहिय दिजेहिय भन्जेहिय कुंतेहिय लंछपोसेहिय, आलोवणेहिय पंथकोटेहिय उवीलेमाणे २ विहिंसेमाणे २ तज्जेमाणे २ तालेमाणे २ निधणेकरेमाणे २ विहरइ॥५०॥तएणं से एक्काईरहकूडे विजयवद्धमाण खडस्स बहुणं राईसर जाव सत्थवाहाणं अण्णेसिंच बहुणं गामेल्लगपुरिसाणं 4.११ एकादशमांग-विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 18+ प्रचूर करलेता, कृष्णादि पाम मे बहन बनलेता, उस में भी प्रतिदिन कर वृद्धिकरता. लांचलताई लोगोंका पराभव करता, ऋण (करजा दिया हुधा पीछा अधिकलेता, एकका दंड बहुत के सिर डालता (नथा, कहता था की तेरे पाल मेरा इस भवका व पर भवका ऋन है यह चुका)लांचलेकर चोरों का पोषन कर चोरी करता रास्ता लूट करता, दूसरके पास करना, लोगोंचको धर्म से आचार से भृष्ट करता, तर्जना करता, चपटे मारता, स्वार्थ पूर्ण करने लाल पाल (खुशामद ) करता, इत्यादि प्रकार से लोगों को निर्धन करता हुवा दुःखी करता हुआ विचरता था।॥५०॥और भी बह एकाइ राठोड विजय बृद्धमान खडे के बहुत से राजा युवराजा शठ सार्थवाही प्रमलो को और भी बहुत से ग्राम के पुरुषों को बहुत से कार्यों में घमीटता, से कडो कार्य जिन के पास करता,आलोच-शला करने में, गुहा-निर्लन कार्य करने में, हरके वस्तु का निर्णय करने में, निश्चय के काम में, व्यवहार के काम में, सना हुवा भी कहता मैं ने नहीं सुना है और विनामुना 4280दुखविपाकका-पाहला अध्ययन-मृगापुत्रका 42 vowwwww For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुसु-कज्जेसुय कारणेसुय मंतेसुय गुज्झेसुय निच्छेय ववहारेसुय सुणमाणे मणइ नसणेइ असुणमाणे भणइ सुणेइ एवं पस्समाणे भासमाणे गिण्हमाणे जाणणे ॥ ५१ ॥ तणं से एक्काइरटूकूडे एयकम्मे एयपहाणे एयविज्जे एयसमायारेसुय बहुपावकमं कलिकलुतं समज्जिणमाणे विहरइ ॥ ५२ ॥ तएणं तस्स एक्काइयरस रटुकूडस्स अण्णा कषाई सरीरगंसि जमगसमगमेव, सोलसरोगायका पाउन्भूया, तंजहा- सासे, खासे, जरे, दाहे. कुच्छसले, भगंदरे, अरिसे, अजीरे, दिट्ठीसले मुद्धसूले, अरोए, अर्थ हुवा कहता कि मैं ने सुना है, ऐनेही देखे हुने को नहीं देखा कहता है ओर बिना देखे हुवे को देखा कहता, बोला हुवा को नहीं बोला कहता और बिना बोले को बोला कहता है, लिया हुवा नहीं लिया और नलिये को लिया कहता था. या हरेक कार्य में अपना मतलब साधते झूठ बोलता हुवा अन्य का धन ग्रहण करता था ॥ ५० ॥ तब वह एकाइ राष्ट्रकड इस कुकर्मकर इस मार्ग में प्रवृतिकर उक्त प्रकार पाप समाचरता हुवा बहुत खोटेकर्म क्लेशकारी कर्म उपार्जन करता हुवा विचरता था ॥ ५२ ॥ तब एक्काइ राठोड के शरीर में अन्यदा किसी वक्त एकही साथ मोलेरोग प्रगट हुने, उन के नाम- १ श्वाश, २ खांसी, ३ ज्वर, ४ दाहा, ५ कुक्षीशूल, ३ भगंदर, ७ हरश ( मस्ना ) ८ आजीर्ण, ९ दृष्टीशूल, १० मस्तकशूल, ११ अरुचि. १२ आंखखीवेदना, १३ कांनकी वेदना, १४ खुजली, १५ जलोदर, और सत्र २३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी For Personal & Private Use Only * प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ** Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 * एकादशमांग विपार्क सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 अक्खिवेयणा, कण्णवेयणा, कंडू, उदरे. कोड्डे, ॥ ५३ ॥ तएणं से एक्काइरटुकडे सोलसहिं रोयातंकेहिं अभिभूएसमाणे कोडुचिय पुरिसेसदाइ २त्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! विजयवद्धमाणे सिंघाडग तिय चउक्क चच्चर महापहेसु महया २ सहेणं उघोसेमाणे २ एवं वयाली-एवं खल.देवाणप्पिया! एक्काइस्ट्रकडस्स सरीरगंसि सोलसरोयंका पाउन्भूया तंजहा-सासे खासे जाव कोडेय, तंजोणं इच्छइ देवाणुप्पिया! विजोवा विज पुत्तेवा, जाणआवा, जाणपुत्तोवा, तेइच्छीयोवा, तेइच्छीय पुत्तावा, एक्काइरट्ठकुडस्स एसिं सोलसण्हं ऐगायंकाएणं एगमविरोगायक उवसामित्तए तस्सणं १६ कोड ॥५३॥तब फिर वह एक्काइराठोड उन सोलइरोगांतक प्राणों का नाशकरे ऐसे उन से पराभवपाया हुवा, कोटुम्बिकआज्ञाकारी पुरुपका बोलाया,वोलाकर यों कहने लगा-हे देशानुभिया! तुम जाबा विजय वृद्धमानखेडमें शृगाटकपंथ में, त्रीपंथ में, चौरास्ते में, महापंथ-राज्यपंथ में महाशब्दकर उद्यापनाकरो, उद्घोशना करते हुवे ऐसा कहाकि-अहो देवानुप्रिया : एक्काइराठोड के शरीर में साले रोगांतक प्रगट उन के नाम-श्वाश खांसी यावत् कोड, इस लिये अहो देवानुपिया ! वैद्य वैद्य के पुत्र, वैद्य के जान, वैद्यक शास्त्र के जानने वाले के पुत्र, औषधीवाले, औषधीवालों के पुत्र, जोकोई इच्छताहा वह एक्काइराठोड के शरीर में के इस मोलेरोगों में का एक भी राग उपशमावेगा-गमावेगा उमको एक्काइराठोड दुःखविपाक का पहिला अध्ययन-मृगापुत्र का 488 For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 एक्काइरटूकडे विपुलं अत्थसंपयाणं दलसइ,दोचंपि तच्चंपि उग्घोसेह रत्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह ॥ तएणं ते कोडंबिय पुरिसा जाब पच्चपिणंति॥५४॥तएणं से विजयवद्ध. माणखेडंसि इमएयारूबाई उग्घोसणं सोच्चा णिसम्म बहवे विजया६ सत्थकोस हत्थगया सएहिं २ गिहाओ पडिनिक्खमइ २त्ता विजयक्हमाण खडं मझमज्झणं जेणेव एक्काइ रट्टकू* डस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ २त्ता एक्काई रटुकडस्स सरीरयं रामसइ २त्ता तेसिं रोगाणं : नियाणं पुच्छइ २त्ता,एक्काई रट्ठकूडस्स बहुहिं अभंगाहय,उवटणांहिय,सणहं पाणेहिय,वमा हिय विरेयणेहिय,साचगहिय,अबद्दहणेहिय,अणुवासणाहिय,वत्थि कम्मेहिय, नरुहेहिय, बहुत धन सम्पदा देवेगा, इस प्रकार दो तीन वक्त उद्गोपना करो, कर के यह मेरी आज्ञापीछी मेरे सुपरत करो. तब वह कुटुम्बक पुरुष कहे मुजर उद्घोषना करके आज्ञा पीछे सुपरत करी ॥५४ ॥ तर उस विजय वृद्धमान खेडा के रहने वाले उक्त प्रकार की उद्घोषना श्रषण कर अपधार कर, बहुत वैद्य वैद्य के. पुत्रों यावत् औषधी वाले के पुत्रों वेदिक शस्त्रों का कोश-वक्स हाथ में ग्रहण कर अपने २ घर से निकले निकलकर विजय बृद्धमान खडे के मध्य मध्य में होकर जहां एक्काइ राठोड का घर था तहां आये, ता आकर एक्काइ राठोड के शरीर को नाडी आदि अंग परिक्षालिये ग्रहण किया, उस रोग का निदान-उत्पन्न होने का कारन पूछा,एक्काइ राठोड के शरीर को बहुत प्रकार के तैलका मर्दन कराया, उगटना(पीठी)कराया, कालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी - * प्रकाशक-राभाबहादर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादनी . अर्थ For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध-4880 सिरावेहेहिय, तच्छणेहिय, पच्छणेहिय, सिरवत्थीहिय, तप्पणेहिय, पुडपागेहिय, छल्लीहिय, मलेहिय, कंदहिय, पुष्फेहिय, पत्तेहिय, फलोहिय बीएहिय, सिलियाहिय, गुलियाहिय, ओसहेहिय, भेसयहिय, इच्छति, तसेणिं सोलसहं रोगायंकाणं एगमवि रोगातंकं. उवामित्तए णो चेवणं संचाएइ उवसामित्तए ॥५५॥ तएणं ते बहः विजोवा विज. पुत्तोवा जहा णो संचाएइ तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमविरोगायकं उत्समित्तए उकालकर पानीपाया, वमन कराया,विरेचन(जुलव) कराया, औषधीयों का सींचन किया,सेवन कराया, बहुत है, प्रकार के औषध के पानी से स्नान कराया, यंत्रादि के. योग से शरीर का मर्दन कराया, चर्म की बची । ( नली ) औषधी से भरकर गुदा में प्रक्षेप की,केइ वस्तु सुघाई, धूवादिया, छुरी आदि शस्खकर स्वचा-चमडी का छेद किया, पाछनादि से मांसादि काटे, मृगचरर्मादि से बन्धे, शरीर के छिन्द्रों में तैलपुरे, उष्ण तेलादि शरीर पर छांटे, लीम्बादि के पत्तेसे सिकताव किया,अनेक प्रकार की वनस्पतिकी छालकर भूलकर कंदकर फुलकर पानकर फलकर बीजकर, चिरायतादि कापानीकर गोली त्रिगडा प्रमुख, औषधः मिले हुवे द्रव्यकर, भेषध प्रत्येक अलग २ द्रव्य कर, जो जो जिसने चहाया वह २ उपाय किया, परन्तु उनसोले रोगों का एकभी रांग उपशमासके नहीं।।२५॥तब वे वैद्य वैद्य केपुत्र इत्यादि जब समर्थ नहीं हुवे उनः सोल. ५ रोग ये का एक ही रोग उपशमाने, तब थकगये अतीही यकगये, जिस दिशा से आये थे उस दिवा पीछे है। 488 दुःखविपाक का-पहिला अध्ययन मृगापुत्रका 88 For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाहे संता तंता परितंता,, जामेवदिसि पाउन्भया तामेवदिसि पडिगया ॥ ५६॥तएणं एक्काइ विजेवि पडियाक्खिए परियारगं परिच्चए निविणो सहभिसजे. सोलसरोगायंके अभिभूय समाणे, रज्जेय रट्टेय जाव अंतेउरय मुच्छिए, रजच आसायमाणे पत्थेमाणे पीहेमाणे अनिलसमाणे अदृदुहह वसट्टे अट्ठाइजाइं वाससयाइं परमाऊ पालइ २त्ता, A कालमासे कालांकच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं सागरोवमट्टिइएसु T णरएसु णेरइयत्ताए उववण्णे ॥ ५७ ॥ सेणं तओ अणंतरं उवटित्ता इहेव मियगामे यरे विजयखत्तियस्स मियादेविएकुच्छिति पुत्ताए उववण्णे ॥ तएणं तीसे मियादेवीए. गये ॥ १६ ॥ तर एक्काइ सोड वैद्यादि को हार कर पीछे गये जाने, सार संभाल करने वाले भी थके जाने, औषोधोपचार मे भी थके, तब उन सोले रोगों की प्रबल वेदना कर अति ही पीडित हुवा, राज्य में देश में यावत् अन्तेपुर में अत्यन्त मूछिन बना हुवा राज्यादिको अस्वादना-प्रार्थता-चहाता हुवा, अभिलाषा करता हुवा आतध्यान रौद्रध्यान ध्याता-शारीरिक मानसिक दुःखकर अति दुःखी हुवा, उस वेदना के वशमें कपडा, अढाइसो( २५०) वर्ष का परम उत्कृष्ट आयुष्य का पालनकर, काल के अवसर में काल पूर्णकर इस प्रथम रत्न प्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाला नरक में नेरीया उत्पन्न हुवा ॥ ५७॥ वह तहां से अन्तर रहित निकलकर इस ही मृगाग्राम नगर में विजय क्षत्री राना की मगावती रानी की दक-बाल मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * More । For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र · सरीर वेयणा पाउब्भूया उज्जला जाव जलंता, जप्पपिभिचणं मियापुतदारए मियादिव कुछिसि गम्मत्ताए उबवण्णे तप्पभिचणं मियादेवी विजयस्तखत्तियरस अट्ठा अकंता अपिया अमण्णा अमणामा जाय विहोत्था ॥ ५८ ॥ तएणं तीसेमियादेवीए अण्णयाकयाइं पुत्ररत्तावरतकालसमयंसि कुटुंब जागरियाए : जागरमणीए इमे अज्झथिए ३ समुप्पम्ने एवं खलु अहं विजयखत्तियस्स पुकिं इट्ठा ₹ विसासिया अमयाँआसी; जप्पभिइंचणं ममं इमेगन्भे कुच्छिसि गम्भत्ताए उवणे तपभचणं विजयरस खतियस्स अहं अणिट्ठा ३ जाव अमणामा जायाकि कूक्षी में पुत्रपने उत्पन्न हुआ, तब मृगावती देवी के शरीर में वेदना प्रगट हुई, वह बेदना अति उज्वल जाज्वल्यमान सहन करना अतिदुक्कर ।। जिस दिन से मृगावती के कुक्षी में गर्व उत्पन्न हुवा था उस दिन से मृगावती देवीं विजय क्षत्री राजा को अनिष्ट लगने लगी, प्रीति का नाश हुवा, मन को अनगमती लगी, मन को सुहाती नहीं, ॥ ५८ ॥ तब मह मृगावती देवी अन्यदा किसी वक्त आधी रात्रि में कुटुम्ब जागरना जागती हुई इस प्रकार अध्यवसाय उत्पन्न हुवा - यों निश्चय में विजय क्षत्री राजा को पहिले इष्टकारी { प्रियकारी मनोज्ञ थी मेरे नाम को वे हृदय में धारन करते थें, में उन को विश्वास पात्र थी, बल्लभयी, - परन्तु जिस दिन से मेरे यह गर्भ कुक्षी में उत्पन्न हुवा है उस दिन से विजयक्षत्री राजा को में अनिष्ट 48+ एकादशमांग- विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध 48 For Personal & Private Use Only 4 दुःख विकका पहिला अध्ययन-मृगापुत्रका २५ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + होत्था; नेच्छइणं विजए खत्तिए ममं णामंवा गोयंवा गिण्हित्सए किमंगपुणं दसणंवा : परिभोगेवा; तं सेयं खलु ममं एवं गभं बहुहिं गब्भसाडणाहिय, पाडणाहिय, गालणाहिय मारणाहिय, साडित्तएवा पाडित्तएवा गालित्तएवा मारित्तएवा,एवं संपेहेइ२त्ता बहुणि खाराणिय, कडयाणिय, तूबराणिय, गब्भसाडणाणिय,पाडणाणिय,गालणाणिय, मारणाणिय खायमाणी पियमाणी इच्छइ, तंगभं साडित्तएवा पाडित्तएवा गालीतएवा । भारितएवा, णो चेवण से गम्भे सडंइवा पडइवा गलइवा मरइवा ॥ तएणं सा मिया देवी आहे णो संचाए तंगभं साडत्तएवा पाडत्तएवा गालेत्तएवा मरित्तएवा तहेव अप्रिय भमनोज्ञ हुइ हूं यावत् मन में भी अच्छी लगती नहीं हूं, विजय क्षत्रीराजा मेरा नाम गोत्रसुनना भी चहाते नहीं हैं, तो मुझे आँखों से देखना यावत् भोगोपभोगना तो द्रहीरहा, इसलिये मुझे श्रेयकारी हे कि मैं इस गर्भ को औषधोपचार करके सहावं पडायूं गला मारू, जिस प्रकार यह गर्भ सडें पढे गले मरे एसा उपचार करूं, इस प्रकार विचार कर अनेक प्रकार के क्षारे कडुये तूर इत्यादि गर्भपात की औषधी यों खाती हुई पीती हुई इच्छने लगी की यह गर्भ मडो पडो गलो मरो, परन्तु वह गर्भ किसी भी उपचार कर सहा नहीं पडा नहीं गला नहीं मरा नहीं ॥ ५८ ॥ तब उस मृगावती देवी का उप गर्भ को सडाने पहाने गालने मारने का कुछ भी उपाव चला नहीं, तब मन में अत्यन्त खदित हो दुःख. धारन करने लगी. ३.काशक-गजाबहादुर खला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्र एकादशमांग-विपाकपुत्र का प्रथम श्रुतस्कन्धg+ संता तता परितता अकामिया अवसयंत्रा तंगभं देहं दुहेणं परिवसई ॥५९॥ तरसणे दारगरस गन्भइगयरस चेव अट्ठनालीओ अभिसर पवाहाओ,अट्ठनालीओ बाहिरप्पवहा. ओ, अट्ठपूयप्पवहाओ, अट्ठसोणियप्पवहाओ, दुवे २कण्यंतरेसु दुवे २अक्खिइरसु, दुवे २ नकंतरेसु दुवे २धमाणिअंतरेसु अभिक्खणं २ पूर्यच सोणिपंच परस्सवमाणीओ२ चिटुंति ॥ ६ ॥ तएणं तस्स दारगस्स गब्भगयरस चेव अग्गिएणामं वाही पाउब्भूए, जेणं सेदारए आहारेई सेणं खिप्पामेवे विद्वंसंसैमागच्छई २ त्ता, पूयत्ताएंय, सोणियत्ताएय अभिलाषा रहित विना मन. परवशपने उप्त गर्भ को दुःख से निर्वाहने लगी ॥ ५९ ॥ सब उस बालक को उस गर्व अवस्था में से ही आठ नाडीयों के शिरासे अभवन्तर [ शरीर के अन्दर ] ऋधीर बहने लगा, आठ नाडीकी शिरा से शरीर के बाहिर अधीर बहने लगा,यो १६, आठ नाडी पीप (राध)की अन्दर बहने लगी और आठ नाडी पीप की वाहिर बहने लगी, यो ३२, दो दोनाडी दोनो कान में, दो दो नाडी दोनों के आंखों में, दोदो नाडी मा यो १.६,सब४८नाडायों वारम्बार पीप रक्त से पूरित हो वहने लगी॥३०॥तब उसमें %ालकको गर्म अवस्था में से ही अभिवास ( भस्माग्नि ) नाम का रोग उत्पन्न हुवा उस रोगकर वह बालक जिस वस्तु का आहार करै वह आहार तत्काल विद्धस हो जावे, विद्धशपाकर, पीप (राध ) पने रक्तपने दुख विपाक का-पहिला अध्ययन-मृगापुत्र का418 lain Education International For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक -पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + परिणमइ, तं पियसे पूयंच सोणियंच तं आहारेइ ॥ ६१ ॥ तएणं सा मियादेवी अण्णयाकथाइ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारयं पयाया-जाइअंधे जाव आगिति. मित्ते ॥६२॥तएणं सा मियादेवी तं दारयं हंडं अंधारूवं पासइ २त्ताभीया४ अम्माधाइ सहावेइ २त्ता एवं वयासी-गच्छहणं देवाणुप्पिए!तुमं एयंदारगं एगंत उक्करुडिया उज्झाडि। ६३ ॥ तएणं सा अम्माधाइ मियादेवीए तहति, एयमटुं पडि पुणेइ २त्ता जेणेव विजएखत्तिए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता करयल परिग्गहियं जाव एवं वयासी एवं खलु सामी ! मियादेवी णवण्हं जाव आगितिमित्ते, तएणं सामियादेवी त हुंडं परिण में,क्षुधा क प्रबलतामे उस पीप रक्तको भी वह आहार कर जाने लगा॥६१॥तब फिर मृगारती रानी अन्यदा नव महोने प्रतिपूर्ण होने से कुमार का जन्मदिया, बालक जाति अन्ध अङ्गोपाङ्ग रहित यावत् उस के इन्द्रियों के आकार मात्र देखाते थे ॥ ६२ ।। तब वह मगावती रानी उस मॉम की लाथ ममान इन्द्रिय रहित उस बालक को देखकर डरगइ, त्रास पाइ, भय भीत हुइ, उस वक्त अपनी धायमाता को बोलाकर यों कहने लगी-हे देवानुप्रिया! तुम जावो इस बालक को एकान्त उकरडे पर डाल देवो ॥३॥ तब वह धायमाता मृगावती देवी का उक्त कथन प्रमाणकर जहां विजय क्षत्री राजा थे तहां आई, आकर दोनों हाथ जोड कर मस्तकपर चढ़ाकर थावत् यों कहने लगी हे स्वामी! मगावती रानी नव महीने प्रनिर्ण * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + एकादशमांग विपाकसूत्र का प्रथम श्रतस्कन्ध अंधारू पासइ २ ता भीया ४ ममं सहावेइ २ त्ता एवं वयासी गच्छणं तुमं देवापिए ! एवं दारयं एगंत उक्करुडियाए उज्झाहिं, तं संदिसहणं सामी ! तं दारगं अहं एगंते उज्झामि ? उदाहु मा ॥ ६४ ॥ तए से विजए, तीसे अम्मधाईए अतिए एयमट्ठे सोच्चा,तहेब ससंभंते उट्ठाए उट्ठेइ उट्ठेता जेणेव मियादेवी तेणेव उवागच्छइ २त्ता तंमियादेविं एवं वयासी- देवाणुप्पिए ! तुम्म पढमं गन्भे, तं जइणं तुमं एयंदारगं एगंते उक्करुडियाए उज्झामि तो तुम्मं पया णोथिरा भविस्सइ, तेणं तुम्मं एयंदारगं रहस्तियांसि भूमिघरंसि रहस्सिएण भन्तपाणेणं पडिजागरमाणी २ विहरामि, तोणं बालक saar है, वह बालक जन्मान्ध सर्व इन्द्रियों रहित उसके इन्द्रिये के आकार मात्र देखाते तत्र मृगावती देवी उस हुंड मांस की लोथ जैसे बालक को देखकर डरंगइ बासपाइ, मेरे को वोलाकर यों कहने लगी- हे देवानुप्रिया तुम जावो इस बालक को एकान्त उकरडी ऊपर डाल दो, इसलिये हे स्वामी आपकी आज्ञा चहाती हुं उस बच्चे को में एकान्त उकरडी पर फेंकूया नहीं फेंकूं, कहिये ? ॥ ६४ ॥ तब विजय क्षत्रीराजा उस अम्माधाई के पास उक्त वचन श्रवनकर वैसे ही संभ्रांत घबराया हुवा शीघ्र उठा खडा हुवा, जहां मृगावती देवी थी तहां आया, आकर मृगावती देवी से ऐसा कहने लगा दे देवानुप्रिया तुपारा यह प्रथम गर्व है, जो तुम इस बालक को एकान्त उकरडी पर डालोगे तो आग को तुमारे संतान the othe For Personal & Private Use Only दुःखविपाक का पहिला अध्ययन-मृगः पुत्रका २९ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी ने श्री अमोलक ऋषिजी तुम्भं पया थिरा भविस्सइ॥६५॥तएणं सा मियादेवी विजयस्स खत्तियरस तहत्ति एयमद्वं विणएणं पडिसुणेइ २त्ता,तंदारगं रहस्तिय समिघरं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी विहरइ ॥६६॥एवं खल गोयमा! मियापुत्तदारर पुरापोराणानं जाव पचणुब्भवमाणे विहरइ।।६७॥ मियापुतणं भंत ! इओ कालमाम कालंकिच्चा कहिं गमिहिंति कहिं उक्वजिहिंति ? गायना ! मियापुत्ते दारए बत्तीसं वासाई परमाऊ पालइ २त्ता कालमासे कालंकिच्चा इहव जंबुद्दीवे २ भारहेवासे वेयगिरिपाइमूले सीहकुलंसि सीहत्ताए पचायाहिंति, स्थिर नही होयेगा, इसलिये तुप इस पुत्रको न्हाखोमत, परंतु इस को तुम छिपाकर भूनीघर में गुप्त पने रक्ख कर आहार पानी से पोषती हुइ बिचरो कि जिस से आगे तुमारे संतान स्थिरी भूत होवे ॥ १५ ॥ तब वह मृगावती रानी विजय क्षत्री राजा का उक्त वचन तहत प्रमाण कर सविनय श्रवणकर अवधारकर उस बालक को भूमीघरमें प्रच्छन्नपने रखकर आहार पानी से पोपती हा विचरने लगी ॥३६॥ हे गौतम ए. इस प्रकार मृगापुत्र कुमार पूर्वभव में बहत काले के संचित किये पाप के दश्चिर्ग खराब फल को भोगवता: हुवा विचर रहा है॥६॥ अहो भगवान! यह मृगापुत्र वालक यहांते कालेक अवसरकालपूर्ण करके कहां जावेगा। कहां उत्पन्न होगा हे गौतम गापुत्र बालक बत्तीस वर्षका उत्कृष्ट आयुष्एकामालनकर कालके अवसर काल पूर्ण कर इस बैताइ पर्वत के पास सिंह के कुलमें सिंहपने उत्पन्न होगा,वह सिंह अधर्मी पापिष्ट यावत् सहासिक क्रूर प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाप्रलदजासी For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ सूत्र एका शमांग विपाकसूत्र का प्रथम स्कन्ध सेणं तत्थसी भविस्सइ, अहम्मिए जाव साहस्सीए बहुपात्रं जाव समज्जिणइ २ ता कालमासे कालंकिच्चा इमीसे स्यणप्पभाए उक्कोसं सागरोवमं जाव उबवजेहिंति, सेणं तओ अनंतरं वहिसा सिरीसिवसु उववज्जहिंति, तत्थणं कालंकिच्चा दोच्चार पुढवीए उक्कोसिया तिणि सागरोवमाई, सेणं तओ अनंतरं उवहित्ता पक्खीसु उववज्जइ, तत्थणं कालंकिच्वा तच्चाए पुढवीए सत्तसागरोवम, तओ मीहेसु तयाणं तरंचणं चरथी पुढवीए, उरगो, पंचमी, इत्थीओ, छट्टीए, मणुओ. अहेसत्तमाए, तओ अनंतरं उत्ति से जाई इमाई जलयर पंचेंदिय तिरिक्खजोणियाणं, मच्छ कच्छभ होगा, वहां बहुत पापका उपार्जन करेगा, वहांने कालपूर्ण करके इस रत्नप्रभा पहिली नरकमें उत्कृष्ट एक सागपत्रकी स्थिति वाला नेरइया होगा, तहां से अन्तर रहित निकलकर नकुलपने उत्पन्न होगा, कहांसे काळपूर्ण कर दूसरी नरक में उत्कृष्ट तीन सागरोपमकी स्थिति पावेगा, तहां से अन्तर रहित निकलकर पक्षी में उत्पन्न होगा, वहां से काल पूर्णकर कै तीसरी नरक में सात सागरोपम की स्थिति पावेगा, तहां से निकलकर सिंह होवेगाहां से निकल चौथी नरक में दश सांगस्थिति पावेगा, फिर सर्प होगा, फिर पांचवी नरक में सतरा साररोषमस्थिति गोवगा फिर स्त्री होगा, फिर छठी नरक में बाइस सागवेस्थिति पावेगा हर मनुष्य होगा, फेर सातवी नरक में तीस सागरोपमस्थिति पावेगा, वहां से अन्तर रहित निकल कर जलवर तिर्येच पंचेन्द्रिय होगा, यों मच्छ, काछवा, For Personal & Private Use Only 4- दुःखविपाक का पहिला अध्ययन-मृगापुत्रका ३१. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ namaAM अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलंक ऋषिजी + गाहा-मगर-सुसुमारादीणं अडतेरस जाइ कलकोडीजोणि पमुह सया हस्साइं, तत्थणं एगमेगंसि जोणिविहाणंसि अणेगसयसहस्स खुत्तो उद्दाइ २ त्ता तत्थेवभुजो २ पच्चायाइस्सइ, सेणं तआ उहित्ता एवं चउप्पएसु, उरपरिसप्पेसु, भुयपरिसप्पे पु, खहयरेसु, चउरिदिएम, तइंदिए सु, वेइंदिएसु, वणप्फइकडयरुक्खेसु कडयदुडिएसु; वाऊ-तऊ-आऊ-पुढवि अणेगसहस्स खत्तो ॥ ६८ ॥ सेणं तओ अणंतरं उव्वहित्ता सुपइट्ठपुर गोणत्ताए पच्चायाहिति, सेण तत्य उमुक्कबालभावे जोव्वणगमणुपत्ते अण्णयाकयाइं पढमापाउसंमि गंगाए महाणईए खलीणमट्टियं खणमाणे तडीए पल्लिए ग्रह,मगर,मुमुमार आदिक जलचर जीवों की साढीधारेलाख कुलक्रीडी में उत्पन्न होगा,तहां एकेक योनी के भेद । उस में अनेक सोहजार ( लाखों ) वार जन्म धारन कर कर मरंगा, तहां फिर २ उत्पन्न होवेग से निकल कर चौपदों में, उरपर सर्प में, भुजपर में, ऐसे ही पक्षीयों में,ऐसे ही चौरिन्द्रिय तेन्द्रिय बेइन्द्रिय, वनस्पति में, कडवे कंटाले वृक्षों में,वायु में तेऊ-अग्नि में पृथवी में,यों छेही काय की मर्व योनीयों में अनेक लाखबार । मर२कर तहाँ २ ही पीछा उत्पन्न होगा ।।१८||फिर तहां से अन्तर रहिन निकलकर सुप्रतिष्ट नगरमें बेल (सांड) होवेगा, तब वाल्या वस्थासे मुक्त हो यौवन अवस्था को प्राप्त होवेगा, तब प्रथम की वर्षाद ऋत में गंगानदा के तटकी मृति का शृंग से खोदता हुवा वह तट टूटकर ऊपर पडेगा, जिस से मृत्युपाकर, २ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी घालाममादजी* For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ - एकादशांग विपाकसूत्रका प्रथम श्रुतस्कन्ध समाणे कालंग, तत्थेव सुपइट्ठपुरे जयरे सेट्ठिकुलांस पुत्तत्ताए पच्चायाइस्सइ, सेणं तत्थ उमुक्कवालमावे जाव जोन्त्रणगमणुपत्ते तहा रूवाणं थेराणं अंतिए धम्मं सोच्चाणिसम्म मुंडे भवित्ता, आगाराओ अणगारियं पव्त्रइस्सई ॥ सेणं तत्थ अणगारे भविस्सई, इरिया समिए जात्र भयारी, सेणं तत्थ बहुई वासई सामण्ण दरियागं पाउणित्ता आलोइय पडिक्कं समाहिपत्ते कालंमासे कालंकिच्चा सोहम्मकप्पे देवताए उववज्जि - हिंति, सेणं तओ अनंतरं चयं चइत्ता महाविदेवासे सेजाई कुलाई भवंति अड्डड्ड् [ तहां ही सुप्रतिष्ट नगर में शेठ के पुत्रपने उत्पन्न होगा, तहां बाल्य अवस्था से मुक्त होकर तथा रूप स्थविर आचार्य के पास धर्म श्रवण करेगा अधारेगा यावत् गृहस्थावास का त्यागकर मुण्डित हो- अणगार { साधु बनेगा || वह साधु वहां इर्यासमिति आदि पांच समिति समिता तीन गुप्ति गुप्ता यावत् ब्रह्मवार्यदि साधु के गुन युक्त बहुत वर्ष साधु पना पालकर आलोचना प्रतिक्रमना निन्दना ग्रहना कर शुद्ध हो, समाधी { परिणाम से काल के अवसर काल पूर्णकर सौधर्ना देवलोक में देवता होवेगा, तहां से अन्तर रहित चत्रकर महा विदेह क्षेत्र में उत्तम कुल में जन्म धारन कर स्मृद्धिवंत जैसा उनबाई व रायप्रसेनी सूत्र में द्रढ प्रतिज्ञा कुमरका कथन कहा है तैमा होकर बहुतर कलाका अभ्यमकर कर यावत् दीक्षा लेकर करणी कर कर्म क्षय For Personal & Private Use Only दुःखविपाक का - पहिला अध्ययन-मृगापुत्रका ३३ ( Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जहा ददुपइण्णे, सव्ववत्तव्वया कालाओ जाव सिज्झिहिति ॥ ६९ ॥ एवं खल जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते, तिबेमे ॥ दुहविवागाणं पढ़मं अज्झयणं मम्मत्तं ॥ १ ॥ कर सिद्ध होगा बुद्ध होगा युक्त होगा निर्वाण पावेगा सब दःख का अन्तःकरेगा।॥३१॥यों निश्चय हे जम्बू! श्रमण भगवंत महावीर स्वामी यावत् मुक्ति पारे उनाने दुःख विपाक के प्रथा अध्ययन का यह अर्थ कहा, तैसा मैनें तेरे से कहा ॥ इति मृगा पुत्र का प्रथम अध्ययन समाप्तम् ॥ १ ॥ + अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामगादजी. SVARANA For Personal & Private Use Only , Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ एकादशमांग- विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध * द्वितीय-अध्ययनम् * जइणं भंते ! समणेणं जाब संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, दोच्च सेणं भंते ! अज्झयणस्स दुहविद्यागाणं समणेणं जाव संपतेणं केअ पण्णत्ते ? ॥१॥ तएणं से सुहम्मे अणगारे जंबू अगगारं एवं वयासी एवं खलु जंबू ! ते काणं तेणंसमएणं वाणीयगामे णामं णयर होत्था, रिद्धत्थिमिय ॥ २ ॥ तस्सणं वाणियगामस्स नगरस्स उत्तर पुरत्थिम दिसीभाए दुईप्पलासे णामं उज्जाणेहोत्था, तत्थणं दुइपलास मुहमस्स जक्खस्स जक्खायतने होत्था वण्णओं ॥ ३॥ तत्थेणं वाणियगामे यदि अहो भगवान ! श्रमण भगवंत महावीर स्वामी यावत् मुक्ति पवारे उनाने प्रथम अध्ययन का उक्त अर्थ कहा, तो अहो भगवान श्रमण भगवंत यावत् मुक्ति पधारे उनाने दुःख विपाक के दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? ||१|| तब सुधर्मा स्वामी जंबूस्वामीं से ऐसा बोले-यों निश्चय हे जंबू ! उसकाल उस { समय में वाणिज्य ग्राम नाम का नगर था, वह ऋद्धि स्मृद्धिकर संयुक्त था || २ ||उस वाणिज्यग्राम नगर के ( ईशान कौन में घुति पालास नाम का उध्यान (बाग) था, उस द्युनि पालास उध्यान में सुधर्म यक्ष का यक्षायतन ( मंदिर ) था, पूर्ण भद्र जैसा वर्णन् योग्य. ॥ ३ ॥ उस वाणिज्यग्राम नगर में मित्र नामका राजा For Personal & Private Use Only दुःखविपाक का दूसरा अध्ययन- उज्झित कुमारका ३५. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +8 अनुवादकबालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी मिसेणाम रायाहोत्था ॥ तत्थणं मित्तस्सरण्णो सिरीनामदेवी होत्था विष्णओ. ॥ ४ ॥ तत्थणं वाणियगामः गयरे कामज्झयाणामं गणियाहोत्था, अहीण जाव सुरूवा, वावत्तरीकला पंडिया, चउसट्टि गाणिया गुणोववेया, एकूणतीसे विसेसे रममाणी, एकतीसरगुणप्पहाणा,बतीस पुरिसोवयार कुसला,णवंगसुत्त पडिबोहिया, अट्ठारस्सदेसी भासाविसारया, सिंगारागार चारुवेसाइ, गीयरइ गंधव्वण कुसला, संगयगय भाणिय विहिय विलासललिय स्लावणिउणजुत्तो वयारकुसला, सुंदस्-थण-जहण-यण-करराज्य करता था, उस मित्र सजाकी श्री देवीरानी थी, उसका वर्णन धारनी रानी जैसा जानना ॥४॥. उस वाणिज्य ग्राम नगर में कामना नाम की गणिका (वैश्या) रहती थी वह पांचाइन्द्रिय अपाङ्गकर पूर्ण सुरूपवती थी. व पुरुष की ७२ कला तथा स्त्रीकी ६४ कलकी जान थीं, ६४ वैश्या के गुणयुक्त थी,२९ रति (विषय ) के गुन में रमन करती थी, ३१. रति के गुन प्रधान भोगवती थीं, ३२ पुरुष के उपचार जिस से पुरुष वश्य होवे उस में पण्डित थी, ९ अंग (२ कान, २ आंख, २ नाक, ' जिव्हा, १ त्वचा 5 और १ मन इन को ) मूते हुवे को जाग्रत कर सकती थी, १० देश की भाषा बोलने में विशारद [पडित ] थी, श्रृंगार का आगार [घर समान चारू-मनोहर वेश की धारन करने वाली थी, गीत. में रती (काम) सेवन में गन्धर्ग कला नृत्य कला में बडी कुशल थी, संगित गतिकी जानने वाली, विधि । प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-लावण्ण-बिलास कलिया, उसियधया सहस्सलभा, विदिण्ण-छत्त. चामर बाल-- वेयणिकाया, कणीस्हप्पयायाहोत्था, बहुणं गणियासहस्साणं आहेबच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भहित्तं महतरगत्तं आणाइसर सेणावच्चं करेमाणी पालेमाणी विहरइ ॥५॥ तत्थणं वाणियग्गामे विजयमिते णामं सत्थवाहे परिवसइ, अड्डे॥ ६ ॥ तस्सणं विजय मित्तस्स सुभदाणामं भारिया होत्या,अहीणा जावे सुरूवा ॥ ७॥ तस्सणं विजयमित्तस्स 48+ एकादशमांग-विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध48862 + दुःखत्रिपाकका दूसरा मध्ययन-उज्झिा सहिक कहने वाली विविध प्रकार के विलास, ललित वचन बोलना इनकर युक्त थी, लोकीक व्यवहार साधने में बडी कुशल थी, उस के शरीर के अवयव स्तन जंघन मुख हाथ पांव, लावण्यता बिलास कलिन पनाकर आतिसुन्दरथे, जिस के घरपर ऊंची दमा फरारा रहीथी,हजार दिनार(मुवर्ण मोहर) देनेवालेको अंगीकार की करती थी, उसे छत्र चमर बाल श्रीजना-मोरछंग, करण का सहित रथ पालखी राजाने बक्षीस में दियेथे, वह बहुत हजार गणिका की मालकनी थी. सब का पालन करती अधिपतिपना करती अग्रेसरपना करती पोषकपना जेष्टिकापना आज्ञा मनाती ऐश्वर्यफ्ना करती पालती विचरती थी ॥५॥ तहां वाणिज्य ग्राम नगर में विजय मित्र नामे सार्थवाही रहता था, वह ऋदिवंत था यावत् अपरामवित था ॥६॥ उस विजय मित्र सार्थवाही की सुमित्रा नाम की भार्या थी, वह प्रतिपूर्ण अङ्गोपाङ्ग वाली यावत् सुरुमा थी ॥ ७ ॥ उस " For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र मर्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुति श्री अमोलक ऋषिजी पुत्ते सुभद्दाए भारियाए असए, उज्झिए नामं दारए होत्था, अहीण जाव सुरुवा॥ ८ ॥ कालणं तेणंसमएणं समणे भगवं महावीरे जात्र समोसड्डे परिसाणिग्गया रायाचि निग्गया, जहा कुणिओ निग्गओ धम्म कहिओ परिसा राया पडिगया || ९ || तेणंका लेणं तेणं समणं समरस भगवओ महाबीरस्स जेडे अंतेवासी इंदभूइ जाव तेयलंसे, छटुं छडे जहा पणतीए पढमं जात्र जेणेव वापियगामे तेणेत्र उवागच्छइ २त्ता वाणियगामे उच्चनीयमज्झिमाईकुलाई अडमाणे अंग्रेत्र राज्यमग्गे तेणेव उवागन्छ २ चा विजय मित्रका पुत्र भद्रा का आस्पन उज्झित नाम का बालक था, वह सर्व अंग पूर्ण रूपर्वत था ॥ ८॥ उप काल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषदा आई जिस प्रकार कोणिक राजा आया, ई उस प्रकार, राजा भी आया, धर्मकथा कही परिषद पीछो गई, राजा भी पीछा गया ॥ ९ ॥ उम काल उन समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के बडे शिष्य इन्द्रभूनी नावे अनगार यावत् तेजोलेश्यावंत छठ २ (बैले २ ) वारना करने भी सूत्र में कहे जय मयन पोरसी में स्वाध्याय की, दुसरी में ध्यान घरा, तीसरी पोरसी में भगवंत की आज्ञा लेकर भिक्षार्थ वाणिज्य ग्राम नगर में आये, वाणिज्य ग्राम नगर के ऊंच क्षेत्र नीच कृपणादि मध्यम वणिकादि के कुलों में फिरते हुवे जहां राज्य पंथ था तहां आये, वहां आश्चर्य कारक बता देखा - बहुत हाथी देखे, के हाथीयों सनहा पाखर युक्त मजबूत डोरीकर For Personal & Private Use Only * मादक - राज बहादुर लाला सुखदेवसहायजी आलाप्रसादजी ३८ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . Hot मूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध एकादशमांग-पाक तत्थणं बहवे हत्थीपासइ, सणवह वम्मिाडिए उपीलिय कयत्वे उदामियघंटे जाणामणिरयणविविगेबजे, उत्तरकंचुइजे पडिकप्पिए, झय पड:गवर पंचामल आरुढे. हत्यारोह गहिया उसनहरेणए, अपय तत्थ बरते यामे पासई सणबद्ध चम्मियगडिए, आविद्धगडे उनाग्यिवरे उनकचय उचलमा चडावर चामर घासक परिमंडिय कडीए, आरुढ अस्सारं हे गहिया उप्पहरणे ॥ तलि चणं पुरिमाणं मझगयं एगंपुरिसं पासइ अयउडगबंधग उमाकागामासं हताधियगयं बझकर -जिन का पेट पन्धा हुआ था. बहुन घंटा यक्त. ओक प्रकार के पास जडित विविध प्रकार के आभरण युक्त, उत्तर कंचक-होदा-प्रभारी राफ, सीमायग्राले कलिन, पंगी, पताका धनाओं ऊंची करी हुई है, निम पर राज पुरुप यीपारों (खा)को धान कर यास्ट. और भी वहां बहुत घे डों की पाक्त दखी-चे घोडे भी पावर पार हु नकर बन्धे , पाल जिन पर ख मा हवा लगान खंचने में जिनका मुख ऊंचा हुवा है.जि । का पृष्ट विभाग चामरकर आरोगा कर मणिका है जिस पर सुभा चार हा हैं. और भी बहुन पुरुष (पाल)का लकार है, जिने धनुशवाण दियोक मरण उरूई *धारन किये हैं. उस के मध्य एक पुरुप दखा..इ उलटी मुम्कों से या हवा है उसके कान नाक छेदन ये हैं, संद कर जिस का शरीर चिला है, वसमेत हानि पहनाद है, घोर के योग्य दुःखविपाक का-दूनग अध्ययन-उज्ज्ञ कुपारका For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ अनुदकं चालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + कणियस्थं, कंट्टे गुणरत मल्लदामं खुण्णगुडियायं खुण्णयं बैभपाणीपीयं, तिलं २ चैत्र छिजमाणं, काकणिमसाई खावियं तं णत्रीकक्करसएहिं हम्ममाणं अणेगणरणारीसं परिबुडे चंचरे २ खंड पडहरणं उग्घोसिज्जमानं इमं चणं एयारूत्रं उग्घासणं सुइ-जो खलु देवाणुनिया ! उज्झियदारगस्स केइराया रायपुत्तोत्रा अवरजइ, अप णो से साई कम्माई अवरजइ ॥ १० ॥ तएण से भगवं गोयमं तं पुरिसं पासिला, इसे अज्झथिए - अहोणं इमे पुरिसे जाव निरयपडित्रयं वेयणंबेएसि चिकटु, वस्त्र पहनाये हैं, गले में कणियर के फूल की माला डाली है, गेरू के रंग कर जिस का मात्र भरा है, जिस को अपने प्राण बहुत प्रिय हो रहे हैं, उन के शरीर का मांस तिल २ जितना छेदके काटके उसको ही खिलाते हैं, उस को कर्कश वचन सुनाते हैं, बांसों के प्रहार कर मारते हैं, अनेक स्त्री पुरुष के परिवार से परिवरा हुवा बजार २ में खडा करके फूटा हुवा ढोल बजाते हैं, डड बजाते हुवे इस प्रकार उद्घोषकरते हैं कि हे देवानुप्रिय ! इन उज्झिन कुमार पर राजा का राज पुत्रादि किसी का भी अपराध नहीं है, परंतु यह अपने किये हुने कर्मों करही दुःख पारठा है || १० || तब वे भगवंत गौतम स्वामी उस पुरुषको देखकर इस प्रकार विचार करने लगे--अडो इति वेदाश्चर्य ! यह पुरुष प्रत्यक्ष नरक जैसी वेदनाका { अनुभव कर रहा है, यो विचार कर वाणिज्य ग्राम नगर के ऊंच नीच कुल में यावत् भिक्षार्थं फिरते हुवे अपनी For Personal & Private Use Only * प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवमहायजी आलाप्रसादजी ● ४० ( Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ एकादशांग विपाक सूत्र का प्रथम श्रुतान्य वायगा यरे उच्चणीयकुले जाव अडमाणे अहापज्जत समुदाणं गण्हई वाणिय गामं यरं मज्झ मज्झेणं जाव पडिदंसेइ, समगं भगवं मवावीरं बंदइ नमसइ वंदिता नमसिता एवं बयासी एवं खलु अहं भंते ! सुम्भेहि अन्भणुण्णाए समाणे वाणियगामं जव तहेव नित्रेएइ, सेणं भंते ! पुरिसे पुव्यभवे के आसि जाय पञ्चणुब्भवमाणे बिहरई ? ॥ ११ ॥ एवं खलु गोयमा ! तेणंकालेणं तेंणंसमएणं इहेत्र जंबुद्दीवे २ मारवा से हरियणाउरे णामं जघरे होत्था, रिद्धत्थमिय ॥ १२ ॥ तत्थणं हत्थिा मर्याद प्रमाणे समुदानी बहुत घरों से भिक्षा लेकर वाणिज्य ग्राम के मध्य मध्य में होकर निकलकर यावत् भगवंत के पास आये, आहार पानी बताया, देखाकर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदनानमस्कार कर यों कहने लगे-ठे पुज्य ! में आपकी आज्ञा लेकर वाणिज्य ग्राम नगर में भिक्षार्थ गया था वहां वन्धबन्धा हुवा पुरुषको देखा इत्यादितच देखावा वृतान्त निवेदन किया, और पूछने लगे कि हे अहो भदंत ! वह पुरुष पूर्व भव में कौन था? यावत् जो नरक जैसा दुःख भागव रह है ? ॥ ११ ॥ भगवंत कहते हैं-यों निश्चय हे गौतम ! उस काल उस समय में इस ही जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में हस्तिमागपुर नाम का नगर ऋद्धि स्मृद्धिकर सम्पन्न था ॥ १२ ॥ नहीं हस्तिनागपुर नगर में सुनन्द नामे राजा राज्य करता था, For Personal & Private Use Only दुःखविपाक का दूसरा अध्ययन-उज्झिन कुमार का ४१ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PEO म अनुवादक-बार.ब्रह्मचारीमान भी अमोलक ऋोना । है रेगयरे सुपणेगाम राया.त्था, महिया हिमवंत मलय मंदर ॥ १३॥ तत्थणं हत्थिमाउरे जयरे बहुमझदेसमाए ९ महएगे मोमंडवेहोत्था, अणेग खंभमय रागिट्रेि. पासाईए ४॥ ११! तत्ययं बहवे णयर गोरखा सणाहाय अणाहाय घरमाची उतपरिवतीदाय या डिपाउय, जयामहिसउय णयर वसभाय, पउर तण पाणिय शिब्भयागिकिया, सह सहेण परिवस॥१५॥ नत्थणं हथिणाउरे भीमगान कडरगाहहोत्था, अहम्भिए जाव दुप्पडियाणंद ॥ १६ ॥ तस्सणं भीमस्स वह राजा महा हिमत पर्वत समान मलयाचल तथा मस पर्वत समान था ॥ १३ ॥ उस हस्तिनागपुर नगर के मध्य में तहां एक सीमा) था, वह अनेक स्थम्भोंकर वष्टित चित्तको मरुभका देखने योग्य अभीरूप, प्रतिरू। था ॥ १४ ॥ उस गांशाला में बहुत नगर के चौपद-पशु सनाथ-मालको के, अनाथ-विनामारको क गरीगाइयों, नगर के बैलो नगर के भेना, नगर के पाडे (भेंसे) नगर क महावृषपो (मांड । इत्यादि उप में रहते थे, उस गोशाला में खाने के यि घांस व दाना पीने के लिये पानी. बहुत था. वे पशओं सर्व प्रकार के भप रहिन सत्र २ में अपना जीविन व्यतीत करने थे॥१५॥ तहां हसिनागपुर नगर में भीम नाम का कुडग्राही कुर्दिमे द्रव्योपार्जन करने वाला | अधर्म कर यावर कर्म कर आनन्द प्राप्त करनेवाला रहता था ॥१६॥ उसभीम कुडग्राही की उत्पला नाम की भार्या थी. वह •प्रकाशक-राजीबहादुर लाला मुस्वडेनसहायजी ज्याला प्रसादजी. | । For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूड़गाहस्त उप्पलागामं भारियाहोत्था, अहीण ॥१७॥ तएणं सा उप्पला कूडग्गा. हिणी अगयाकपःई अवगस ता जायायाविहोत्था ॥ १८ ॥ तएणं तीसे उपलाए कूडग्गाहिणीए तिहमः पाणं बहुमण्डपुण्णाणं अयमेया रूवे दोहले पाउन्भूए-धग्माउणं त ओ अम्मयाओ ४ जाच सुलद्धे जाओणं बहुणं णयरगोरुवाणं सगाहाणय जाय वसभाणय-जहेहिय. थणेहिय, वमणेहिय, छिप्पाहिय, कुकुहहिय. वहहिय, कण्हेहिय, अक्खिहिय, णासाहिय, जिगाहिय, ओटुहिय, कंबल हय, सालेहय, तलेतेहिय भनि पहिय, परिसुक्कहिय लावणेहिय मुरंच महुंच मेंगरंच ज इंच सिधुच पसण्णंच मग पूर्ण मुरूषा थी ॥ १७ ॥ तत्र यह उत्तराला कूडग्राहणी एक वक्त गर्भवती हुइ ॥ १८ ॥ तब उन उत्पला कूपनगगी अवस्थाक तीनमही व्यतीत हान इसप्रकार दोहला उत्पन्न हुवा कि जोमाता-गौशाला में रहें हुो दुत में पशुओं मालकों के या विनामार को के गौ बेल, भेंस, पाड प्रमुख जिनों का गाय के प्रतल रहे उहाड का, वल के वृषण (अंडोका) पेटका, सन का. वमन का, स्कन्ध का, कूकड-वे स्कन्ध का, गलेका, आंख का, नाक का, जिव्हा का. हष्टका कवल-गके नीचे लटकती लोमका, सूले व कई कर तेल में तल ओमार भंकर, लूस मिरची आदि मशले में संस्कार कर सका वा साम 15मय, ताडी, मदिरा, गुरुका वना-सिन्धु, पावडी का बना पासन्न निमकर जिन को अस्वाद थी हुइ खाती * एकादशमांग-विशक सूत्र का प्रथम श्रस्कन्ध 4 दुःखविपाक कादूगग अध्ययन उज्झित कुमार का के Jain Education international For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4 49 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक जी आसाएमओ विसाएमाणीओ परिभाएमाणीओ परिभुंजमाणीओ दोहलं विणजति तं जयिणं अहमंत्रि बहुणं णयर जाव विणज्जामि, सिकहु, तंसिदाहलसि अविणिजंमाणंसि सुक्का भुक्खा निम्मंसा उलग्गसरीश, नितेया, दीणंच मणवयणा पंडुल्लुइय मुही ॥ १९ ॥ इमंचणं भीमे कूडग्गाहे जेणेव उप्पला कूडग्गाहणीए तेणेव उवागच्छइ २त्ता उहय जाव पासइ २त्ता एवं बयासी किष्ण तुमं देवाणुप्पिया ! उहय हुइ दूसरेको खिलाती हुइ सर्व प्रकारने भोगोपभोग भोगवती हुइ अपने दोहले को पूर्ण करती है उनमात को धन्य है, वही कर्तार्थ है पुण्यात्म है यावत् मनुष्य जन्म की प्राप्ती उसीडी को अच्छी हुई है. इसलिय में भी बहुत नगरके पशुओं का मांस उक्त प्रकारसे खावूं डोहला पूर्ण करूं, ऐसा विचार किया, परंतु वह {डोहला पूर्ण होने जैसा नहीं देखा तब चिंता फिकर करती भोजनादि किये बिनासूकराई, सिनगार } के अभाव ले भूख-लूखी हुई मां राहत दुर्बल शरीर वाली हुई निस्तेज हइ, मन वचन काया के जोग से दीन-गरीब हुई, मुख पर पीलासपना छाया, जीर्ण अवस्था के जैसा शरीर ग्लान हुवा ॥ ९९ ।। उस वक्त भीमकूडग्राही जहां उत्पला कूडग्राहणी थी तहां आया, आकर उत्पला को आर्तध्यान ध्याती हुई देखी, देखकर यों कहने लगा-हे देवानुप्रिय ! तू किस लिये आर्तध्यान ध्यारही है ॥२०॥ For Personal & Private Use Only * प्रकाशक- राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ४४ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ एकादश मांग- विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन् झियाहिंसि ? ॥ २० ॥ तणं सा उप्पला भारिया भीमकुडगाहं एवं वयासीएवं खलु देवाणुपिया ! ममं तिन्हं मासाणं बहुपडि पुण्णाणं दोहलं पाउन्मए ४ जाउ बहुणं गोरुवाणं ऊहेहिय जाब लावणएहिय सुरंच ६ आसाए माणीओ ४ दोहलं विर्णिति, तएणं अहं देवाणुप्पिया ! तंसि दोहलसि अविणिजमाणंसि जाव झियामि २१ ॥ ए से भीमकुङग्गा उप्पलं भारियं एवं बयासी माणं तु देवाणुपिया ! उहज्झियासि, अहणं तं तहा करिस्सामि जहाणं तवदहलस्स संपती भावस्तइ, ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं जाव समासाइ ॥ २२ ॥ एणं से भीमकूड तव उत्पला भार्या भीमकूडग्राही से यों कहने लगी-यों निश्चय हे देवानुप्रिय ! मेरे को गर्भावस्था के तीन महीने प्रतिपूर्ण हुवे दोहला उत्पन्न हुवा. जो माता गौशाला के बहुत गौ बैल भैंस पाडे का [ उडास्तन यावत् मशाले से संस्कार कर मदिरा आदि के साथ अस्साद थी खाती खिलाती हुई विचरती हुई दोहला पूर्ण करती है, उसे धन्य है. तब फिर मैंने हे देवानुप्रिय ! मेरा यह दोहला पूर्ण होता नहीं देखा इसलिये मैं आर्त ध्यान ध्याती हुई विचर रही हूं ॥ २१ ॥ तत्र भीमकूडग्राही उत्पला यों कहने लगा हे देवानुप्रिय ! तुम चिन्ता मत करो जिस प्रकार तुमारा दोइत्रा पूरा होगा बैसा ही मैं करूंगा, यों कह कर इष्टकारी मियकारी वचन कर उस को संतोषी || २२ || तब फिर वह भीमकुडग्राही । भार्या से 43 दुःखविपाकका दूसरा अध्ययन- उज्झिन कुपार का For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋापनी 22 ग्गाहे अद्धरतकालसमयंसि एगे अबीए सणबद्ध जाव पहरणे, साओ गिहाओ णिगच्छइ २ सा हथिणारं मझमझेगं जणेव गोमंडो तणेय उमाइ २ ता चहुणं गयर गोरुवाणं जाव वसभाणय-अप्पंगइयां ऊहे छिदइ, अपगइयाणं कंबलंछिंदइ.अप्पेगइयाणं अण्णमण्णाणं अंगोवंगाई बिइंगेइ २ ता जेणेव सएगिह तेणेव उवागच्छइ २ त्ता उप्पल!ए कुडग्गाहणीए उवणेइ ॥ २३ ॥ तएणं सा उप्पला कूडग्गाहणी संपुण्ण पोहला, समाणिय दोहला, विच्छिा दोहला, संपण दोहला, आधीरात्रि काल समय में अकेला ही किसी को साथ नहीं लेना हुवा सद्ध बना [वरतर ] पहनकर हथियार ग्रहण करके अपने घर से निकला, निकलकर हस्तिनापुर नगर के मध्य २ में होकर जहां शाला थी तहां आया, आकर बहुत से ग्राम के चौपद वृषभ गाय प्रमाव के अलग२ कितनेक के उहाडे का छंदन किया, कितनेकका कम्बलका छदन किया. यों अलग२ पशुओं का अश्या अंगोपांग का छेदन लेकर जहां अपना घर था तहां आया, आकर उसरा कूःग्रहण' को वह दिया, उत्पा कूडया बहुन प्रकार के मौ आदि के मांस के सूलाकर तल भूज मदिरादि के माथ अस्पद भी खाती खिलाती दाइला पूर्ण किया ॥ २३ ॥ तब वह उस ला कूडग्राहणीका समस्त दांच्छितार्थ पूर्ण हुवा,वांछा की निवृत्ति • प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8+ एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुतकन्ध48+ सं गन्मं सुहंसुहेणं परिवसइ ॥ २४ ॥ तएणं सा उपग्ला कुडग्गाहणी अण्णयाकयाई नवण्हं मासाणं बहुपडि पुण्णागं दारगंग्याया ॥ २५ ॥ तएणं तेणं दारएणं जायमितेणं चैव महया २ सहगं विघुट्ट विसरे आरसिए ॥ २६ ॥ तएणं तस्स दारगस्त आरोयसई सोचा णिसम्म हाथिणाउंर णयरे वहवे णयरगोरुवा जाव वसभाणय माया उन्मिगा सवओ सम्पना विष्पलाइत्ता ॥ २७ ॥ तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो अयमेयारू णामधेजं करेइ जम्हाणं अम्हं इमेणं दारएणं जायामेत्तेणं चेत्र महया २ हुई, वांच्ा का विच्छेद हुना, दोहला संपूर्ण. हुवा. उस गर्व की सुख २ मे वृद्धि करने लगी ॥ २४ ॥ तब फिर वह उत्पला कूडग्राहणी एकदा प्रस्ताके नव महीने प्रतिपूर्ण हुने बालक को प्रसना-जन्म दिया ॥२५॥ जिस वक्त उस बालक का जन हु। उस ही वक्त वह बालक महा २ शब्द कर चिल्लाया-चीस मारी विक्सर-खराब हर कर अण्डाट शब्द कर दन किया ॥ २४॥ तब उस बालक का वह भयंकर शब्द श्रवण कर उ: हस्तिनापुर नगर के मध्य की गोशाला के बहुत से पशु गौ बैलादि उद्वेगः पाये भयभ्रान्त हो दिशादिशा पलायन करने लगे-भगने लगे ॥ २७॥ तब फिर उस बालक के मातापिता उस बालक का इस प्रकार का गुणांनष्पत्र नाम स्थापन किया, जिस वक्त यह हमारा बालक का जन्म " 4 दुःख पाक का दूपरा अध्ययन-उज्झितकयारको For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaramanand wwwwwwwwwwwwwwwwamrn. २१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सदेण विधुढे विस्सरे भारस्सिए तएणं एयस्स दारगस्स आरसिय सदै सोचा णिसम्म हथिणाउरे बहवेणयर गोरूवाजावभीया४ उव्विगासवओसमंता विप्पलाइत्ता, तह्माणं होउणं अहमेदारएगोतासे णामणं॥२८॥ तएणं से गोतासे दारए उम्मुक्कबाल भावे जाव जाएयाविहोत्था ॥ २९ ॥ तएणं से भीमकूडग्गाहे अण्णयाकयाइं काल धम्मुणासंजुत्ते ॥ ३० ॥ तएणं से गोतासे दारए बहुणं मित्तणाइं णियग सयण संबंधि परिजणेणं सद्धिं संपरिबुडे रोयमाणे कंदमाणे बिलयमाणे भीमस्स कुडग्गाहस्स गीहारणं करेइ २ त्ता, बहुइलोइयमयकिच्चाइ करइ २, ॥ ३१ ॥. तएणं से सुणंदे हुवा. तब यह बालक महारशब्द कर-रूदन किया चीस पाढी तथ इस के भयंकर शब्द को श्रवण कर अवा धार कर हस्तिनापुर नगर के बहुत पशु गोबेलादि त्रास पाये यावत् दिशोदिशा में भगे, इमलिये हमारे इस बालक का नाम 'गौत्रासीया" होयो ॥२८॥ तब फिर वह गौत्रासिया बाल्यावस्था से मुक्त हुवा यावत् । बीवन अवस्था को प्राप्त हवा ॥ २९ ॥ तब यह भीमकूडग्राही अन्यदा प्रस्तावे काल पास हवा. मृत्यु पार १॥३०॥ तब फिर गौत्रासीया बहस पिध सजातिये गौत्रीये अपने स्वजन मित्र. दास दासी, प्रमुख के साथ परिवरा हुवा रूदन करता आक्रन्दन करता भीमकूडग्राही के शरीर का निहारन कर्म किया जा फिर बहुत लोकाचार मृत्युक की पीछे करने के काम किये ॥ ३१ ॥ तव फिर उस नगर के सुनन्द । प्रकाशक-राजाबहादरलाला सुखदेवसहावजी ज्वालाप्रसादजी* - - For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमांग-विपाकपुत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध राया गीतासं दारयं अण्णयाकयाइ सयमेव कूडग्गाहेत्ताए ठवेइ ॥ ३२ ॥ तएणं से गोत्तासे दारए कृडग्ग हेजाएयाविहोत्था, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे ॥३३॥ तएणं से गोतासे दारए कूडग्गाहे कल्लाकलिं अद्धरत्त कालसमयंसि एगे अबीए सण्णद्धव कवय जाव गहिया उपहरणे साओ गिहाओ णिज्जाइ २ त्ता जेणेव गोमंडवे तेणेव उवागच्छइ २त्ता बहुणं णयरगोरूवाणं सणाहाय जाब वियंगतेइ २त्ता जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ २ ॥ तएणं ते गोतासे कूडग्गाहे तसिं बहुहिं गोमंसेहिं सोल्लेहिं सुरंच ६ आसाएमाणे ४ विहरइ ॥ ३४ ॥ तएणं से गोतासे कूडग्गाहे-एयकम्मे एयपहाणे एयवीजे एयसमायारे बहुपावं कम्मं समजिणित्ता, पंचवाससयाई परमाउपाराजाने गौवासीये चालक को अन्यदा किसी वक्त अपना चाडीया-दूतपने स्थापन किया ॥ ३२ ॥ सय वह गौत्रासीया सदैव आधीरात्रि में अकेला किसी अन्य को साथ में लिये विना कवचादि पहनकर शस्त्र धारन कर अपने घर से निकलकर जहां गौशाला है तहां आता, आकर बहुत नगर के गौरू चौतुष सनाथ अनाथके अंगोपांगका छेदन करता, छेदन करके जहां अपना घर है तहां पीछा आता, उस गौमांस ७ के बहुत मूले करके सूरादि के साथ अस्वादता खाता खिलाता विचरता था ॥३४॥ तय फिर वह गौवामिया चाहीया ऐसे तीव्र पाप कर्म का समाचरन करके, पाप कर्म में प्रधान श्रेष्ट होकर इस प्रकार खराव दुःख विपाय का-दृमरा अध्ययन-उाझा कुमार का 4 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + लइ २त्ता अदुइट्टोबगए कालमासे कालंकिच्चा दोच्चाए पुढीए उकोसं तिसागरोवर्म गैरइयत्ताए उवणे ॥ ३५ ॥ तएणं सो विजयमितरस सत्यवाहस्स सुभद्दा भारिया जाइणिदुयाविहोत्या, जायादारमा विणिहायमावजात ॥ ३६ ॥ तएणं से गोतासे कुंडग्गाहे दोच्चाआ पुढवीओ अणंतरं उहित्ता इहेव वाणियग्गामे गयरे विजय मित्तरस __ सत्थवाहस्स सुभद्दा भारिया कुच्छिसि पुत्तताए उबवणे ॥ ३७ ।। तएणं सा सुभद्दा सत्यवाहीणी अण्णया कयाइ णवण्हं मातागं बहपडिपुण्णाणं दारयं पयाया ॥ ३८॥ तएणं सा सुभद्दा सत्यवाहीणी तं दारगं जायमेवयं चा एगते उकुरुडियाए उम्झाइरत्तो समाचारी कर बहुन पाप कर्म की उपार्ज ना कर पांच सौ वर्ष का परम उत्कृष्ट आयुष्य पालन कर आत रौद्र ध्यान ध्याता हुवा काल के अवसर काल पूर्ण करके दूपरी नरक पृथ्वी में उत्कृष तीन सागरोपम के आयुष्यपने नेरीयःपने नरक में उत्पन्न हुया ।। ३५ ।। तब वह विजय मित्र सार्थवाही की मुद्रा भार्या मरे, हवे पालकों का जन्म देनी थी ॥३६॥ तव वह ग.त्रानीया चाडीया दूरी नरक से अंतर रहित निकलकर इस ही वाणिज्य ग्राम नगर में विजय मित्र सार्थवाही की भद्रा भार्या के कुक्षी में पुत्राने उत्पन्न ॥३७॥ तब फिर भद्रा भार्या सार्थवाहीनी एकदा प्रस्ताव नव महीने प्रति पूर्ण हुने बाद बालक का जन्म दिया । ३८ ॥ तब बह भद्रा सार्थवाहोनी उस जन्मते हवे बालक को एकान्त उकरी पर डलवाया * पकाकराजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादनी अनुवादक-बालब्रह्म For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + एकादशमांग विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 438 दोचंपि गिण्हावेइ २त्ता आणुपुव्वेणं सा रक्खमाणी सं गोवेमाणी संबड्डेइ ॥ ३९ ॥ तओणं तस्स दारगम अम्नापियरो ठितिवडियंत्र कम्मं चंदसरया दंसणियंच जागरियं च माहिया इद्रि सक्कार समदयणं करड॥ ४०॥ तआणं तस्त दारगस्स अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे णिवत्ते.संपत्ते बारसाहे अयमेयारूचे गोगं गुणणिप्पणं णामधेनं करेइ, जम्हाणं अम्हे इमं दारए जायमेत्तए चेव एगंते उकरुडियाए उज्झिए तम्हाणं होउणं अम्ह दारए उझिय णामणं॥४१॥तएणं से उझिय दारए पंचधाई परिग्गहिए । तं जहा-खीरधाइ, मंजणधाइ, मंडणधाइ, कीलामणधाइ, अंकधाइ जहा दङ्पइप्णे, डलाकर पीछा दूसरी वक्त उठा लिया, फिर अनुक्रम से उस का रक्षण करती हुई, दुग्धादि से पोषती हुई. वस्त्रादि से गोपती हुई तथा शीतोष्णादि से रक्षती हुई रहने लगी ॥ ३४ ॥ तब फिर उस बालक के माता पिता प्रथम दिन जन्मोत्सव, तीसरे दिन चन्द्र मूर्य के दर्शन छठ दिन जागरण इत्यादि बहुत ऋद्धि सत्कार सन्मान से किया ॥ ४०॥ तव फिर उस बालक के माता पिता इग्यारवा दिन अशुची कर्म से निवृत हो बारवे दिन इस प्रकार का गुग निष्पन्न नामकी स्थापना की. जियक्त हमारा यह वालक जन्मा उस वक्त इसे एकान्त उकरडी पर डाला था, इसलिये हमारे इस बालक का नाम उज्झिा कुपार होवो ॥४१॥ तब फिर वह उज्झित बालक १ दूध पिलानेवाली, २ मंजन करनेवाली, ६ मंडन-सिन्गार करानेवाली +8 दुःखरिपाक का दूसरा अध्ययन-उन्शिा For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋपिजी - जाव णिन्याय णियाघायागार कंदर मलाणेव चपगपायवे सुहं सुहणं विहरइ ॥४२॥" तएणं से विजयमित्त सत्थवाह अण्णया कयाइ गणमच धरिमच मैजच पारिच्छज्जंच है चउविहं भंडगं गहाय लवण समुदं पोय वहणेणं उवगए॥४३॥तएणं से विजयमिते तत्थलवण समद्दे पोते विवत्तए णिव भंडस्मारे अत्ताणं असरण कालधम्मणा संजुत्ते ॥ ४४ ॥ तएणं तं विजयमित्त सत्थवाहं जे जहा बहः ईसर तलवर कोडुंबिय इन्भसट्टि सस्थवाहा लवण समुद्दो पोयविवत्तियं निवुड भंडसारं कालधम्मुणो क्रीडा करानेवाली और५ गोदी में लेकर खिलानेवाली, इनपांच धाय माताओं से व्याघात रहित पर्वत की गुफाके ममीप चम्पक बृक्ष की तरह सुख २ से वृद्धि पाता विचर रहा था ।। ४२ ॥ तब फिर विजय मिव सार्थवाही अन्यदा किसी वक्त-नालेरादि गणिमा, गुडादि तीलमा, धान्यादि मापा, और सुवर्णादि परिक्षवा इन चारों प्रकार के किरियाने को ग्रहण करके लवण समुद्र के किसी द्वीप में व्यापा. रार्थ गया॥ ४३ ॥ तब वह विजय मित्र सार्थवाह लवण समुद्र में वाहन का भंग होने से लवण समुद्र में ही सर्व वस्तु रूप लक्ष्मी का भंडार, प्रधान वस्तु सहित डूब गया और आपदा से वगनवाला (धर्म ) के शरण सहित मृत्यु को प्राप्त हुवा ॥ ४० ॥ तय फिर विजय मित्र सार्थवाही का बहुत द्रव्य युवराज कोटवाले माविक कुटुम्बि इब्भ शेठ सार्थवाही इत्यादि जिन के वहां स्थापन रक्खा था उनने यह समा.. * प्रकाशक-सजाबहादुर लाला मुखदेव अर्थ | - s For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजुत्तं सुणेइ, ते तहा हथणिक्खेवंच बाहिर भंडसारंच गहाई एगंतं अवकमइ॥४५ तएणं सा सुभद्दा सस्थवाही विजयमित्तं सत्थवाहं लवणसमुहे पोए विवित्ति णिबुडं कालधम्भुणा संजुत्तं सुणेइ २ त्ता महया पइसोएणं अपण्णा ममाणी परसुनियताविव चंपगलया धसइ धरणीतलसि सव्वंगेहि सणिपडिया ॥ ४६ ॥ तएणं सा सुभद्दा मुहत्तरेणं आसत्थासमाणी बहहिं मित्त जाव परिवुडा, रोयमाणी कंदमाणी विलवमाणी विजय मतं सत्थवाहं लोइयाई मयंकिच्चाई करेइ २ ॥ ४७ ॥ तएणं चार सुने कि विजय मित्र सार्थवाही लंग मद्र में लक्ष्मी यक्त क.ल धर्म को प्राप्त हुवा है, ऐसा श्रवण कर जो गुप्त थापन थी, उनने छिपाली, कितनेक मुनीमादि के हाथ जो लगा उसे लेकर एकान्त में गये॥४॥ तब फिर भद्रा सार्थवाहीनी विजय मित्र सार्थवाही को लवण समुद्र में डूबने के समाचार श्रवण कर भरतार के वियोग के दुःख से अती ही पीडित हुइ नैसे फरसी में छदित की हुइ, चम्पा के वृक्ष की डाल पडती है तैसे धस्का खाकर सर्वांग कर धरतीपे पडगइ ॥ ३० ॥ तब फिर वह सुभद्रा मुहूर्तान्तर सावध ॐई बहुत से मित्रज्ञाती आदि से परिवरी हुई आंशू न्हाखती,आक्रांद करती,रूदन करती, विलापात करती चित्रपत्र सार्थवाही का लोक सम्बन्धी मृत्यकार्य किया ॥ ४५ ॥ तब फिर वह पाकसूत्र का प्रथम श्रुलस्कन्ध 43 Arvinvvw सूत्र क का-दैमरा अध्ययन-उमज्झतकुगारका 8- एकादशमांग For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PAN.. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी सा सुभद्दा अपणया कयाइ लवण समद्दोतरंच लच्छिविणासंच पोतविणासंच पति । मरणंच अणुचिंतमाणीरकालधम्मणा संजता॥४८॥तएणं णयरगुत्तिपा सुभदं सत्थवाहि कालगयं जाणित्ता उज्झिय गंदारगं साओ गिहाओ पिछभंति २ त्ता तंगिहं अण्णस्स दलयंति ॥४९॥ तएणं से उज्झियदारए सयाओ गिहाओ निछढे समाणे वाणियग्गामे णयरे, सिंघाडग जाव पहेसु जूयखलएस वेसियाघरएसु पाणागारेसुय सुहं सुहेणं परि वहइ ॥ १० ॥ तएणं से उझिए दारए अणोहट्टए अणिवारए सच्छंद मईसयरप्पयारे सुभद्रा एकदा प्रस्तावे जिस प्रकार पति लवण समुद्र की मुशाफरी करने गये जिस प्रकार लक्ष्मी का वाहन का नाश हुवा भरतारका मृत्यु हुवा इत्यादि विचारमें चिन्ताग्रस्त बनी हुई महा दुःख धारन करती कालधर्म | हुई मरगई. ॥४८॥ तब नगर का कोटवाल सुभद्रा सार्थ वाहीनी को काल धर्म प्रम हुई जान कर, उस उज्झित लडके को उसके घर से निकाल दिया, वह घर लक्ष्मी कर्जदार को दे दिया ॥४२।। तब फिर वह जे । उज्झिन बालक अपने घर मे शाहिर निकाला हवा, वाणिज्य ग्राम नगर के दो तीन चार अनेक रास्ते " मिलते तहां जूवा के खेल में वैश्या संग में मद्यान के स्थान फिरता हुया दुख से रहने लंगा ॥ ५० ॥ तब फिर यह उज्झित बालक किसी के रक्षण रहित किसी के अंकुश रहित स्वच्छन्दा चारी बनकर-1 प्रकाशक-गजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी - For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्सान्ध1.08. - मनपसंगी-चोर-जुय-वेलदारप्पसंगी जाएयाविहोत्था ॥ ५१ ॥ तएणं से उज्झिए अण्णयाकयाइ कामझियार गणियाए सद्धि संपलिग्गे जाएगावि होत्था, कामझियाए गणिए सद्धिं उरालाई माणुस्सग्गाई भोगभोगाई भंजमाणे विहरइ॥५२॥ तएणं तस्स मित्तस्स रण्णो अण्गयाकयाइ सिरिए देवीए जोणीसुले पाउ भएयावि होत्था, णो संचाएइ मित्तेराया सिरीए देवीए सद्धिं उरलाई माणुसगाई भोगभागाइं भुंज. माणे विहरइत्तए॥ ५३ ॥ तएणं से मित्तेराया अग्णयाकयाइ उज्झियदारए कामज्झि याए गणियाए गिहाओ णिच्छ नावइ २ त्ता कामज्झियं गणियं अमितरय ढवेइ २ त्ता. कुसंगत में पड़ा हुआ मद्य प्रांगीवना चोरयता जुगारीबना, वैश्यागमनी. बना, परखी प्रमुख दुर्थश्न का प्रसंगी (सेवन करने वाला) बना ॥५१ ॥ तब फिर वह उज्ज्ञिा पालक का उस कामना गणिका से सम्पन्ध हुवा, फिर कामना गणिका के साथ उदार प्रधान काम भाग भोगता हुवा विचरने लगा ॥५२॥ उस वक्त उनमित्र र.जा की श्रीदेवी रानी को एकदा मस्त वे योनी में मूल रोग उत्पन्न हुवास जिस से मित्र राजा श्रीदेवी के साथ उदार प्रधान मनुष्य सम्बन्धी काम भाग भोगवने समर्थ नहीं ॥५३॥ तब फिर वह मित्र राजा एकदा प्रस्तावे उस उज्झिन बालक को काम दुना गणिका के मेकालकर, कामेज गणिका को अपने घर में स्थापन कर कामदज गणिका केही दुःख विपाकका दूसरा अध्ययन-उज्झत hos For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक पिजी कामज्झियाए गाणियार सहिं उरालाइं जाव विहरइ ॥ ५४ ॥ तएणं से उरिझयदारए कामज्झयाए गणियाए गिहाओ णिच्छुभावे समाणे कामज्झियाए गणियाए मुच्छिए गिद्धे गट्टिए अज्झविवणे अण्णत्थकत्थइ सुयंच रतिंच धितिंच अबिंदमाणे तच्चिते तभ्मण्णे तल्ले तदझवसाणे तदवार उत्ते तयप्पियकरणे तब्भावणा भाविए कामज्झि. याए गणियाए बहणि अंतराणिय छिद्दाणिय विवराणिय पडिजागरमाणे २ विहरइ ॥ ५५ ॥ तएणं से उज्झिएयदारए अण्णयाकयाइ कामज्झियं गणियं अंतरं लभेइ कामझियं गाणयं गहि रहस्सइगं अणुप्पविसइ २ त्ता कामज्झियाए गणियाए सद्धि माय उदार प्रधान भोग भोगवता विचरने लगा ॥५४॥ ता फिर वह उज्झित बालक काम द्वग गणिका के घर निकले बाद कामदज गणिका से मूछन हुवा गृदीवना अति ही आसक्तवना अन्य किसी भी स्थान रति-सुख नहीं प्राप्त करता हुवा, धृति-धैर्यपना नहीं धारन करता हुवा, उस हा कामदन गणिका को अपने चित्त में रटन करता हुआ, उसी पर लगाता हुवा उत्तीकी गवेषना करता हुवा, वही अध्यवसाय उसकी प्राप्ती के उपाव देखता हुवा, फिर कब मिलेगी इसप्रकार उसी में अपना सर्व स्वयं अर्पनकर उसकी भावना भावतावा क्षीण मात्रभी नहीं भूलताहुवा, कामना गाणकाकी प्राप्ति के लिये राजा का विरह राजाका परिवार सीपाइ-रक्षकादि का विरह बहुत प्रकारसे देखता हुवा विचरने लगा ॥५५॥ नवाई .प्रकाशक-राजावहादुर लाला गुषहरमहायजी घालाप्रसादजी. अर्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ In उरालाइ जाव विहरइ ॥ ५६ ॥ इमंचणं मित्तराया बहाए जाव कयबलीकम्मा कयकोउय मंगल पायच्छिने सब्बालंकार विभूसिए माणस्स वगुराए परिखित्ते, जेणेव कामगणियागिहे तेणेव उपागच्छइ २, ॥ ५७ ॥ तत्थणं उज्झियदारए कामज्झयाए गगियाए सद्धिं उरालाइं जाव विहरमाणं पासइ २ त्ता आसुरुते ४ तिवलिंभिउडिं गिलाडे साहटु उझियं दारयं पुरिसेहिं गिण्हावेइ २त्ता अट्ठिमुट्टि जाणुकोप्परप्पहाणं 30% एकादशगंग-विषाकसूत्रका प्रथम श्रुतस्कन्ध-*880% र वह उज्झिन बालक अन्यदा किनी वक्त कामदन गणिका की प्राप्ती का अन्तर अवसर प्राप्तकर कामना गणिका के घर में एकान्तपने प्रवेश किया, प्रवेशकर कामदजा गणिका के साथ उदार प्रधान भोग भोगवता विचरने लगा ॥ ५६ ॥ इस वक्त मित्रराजा स्नान करके यावत् कुल्ल किये कौतुक मङ्गल निमित अनेक प्रायश्चित किये, सर्व अलंकार से विभूवित हो मनुष्यों के परिवार से परिवरा हुआ जहां कामदजा गणिकाका घरचा तहां आया,॥२७॥ तहां उज्झिन बालक को कामना गणिका के साथ उदार प्रधान भोग भोगवता हुवा विचरता देखकर शीघ्र क्रोध में धम धमाय मान हुना, रौद्राकार धारन किया, तीन भकुटी (तीन रेखा) नीला उपर चढाइ, उज्झित, बालक को अन्य पुरुष पास पकडाकर* आजादी कि-इसे हड़ी मुष्टि घुटनने खुतीयों कर खूा प्रहार करो-मारी, दहीकी परे मथन करो । दुःखावपाकका दसरा अध्ययन-उज्झतकुमरकाम For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुवादक-पालग्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी संभग्गमहियमत्तं करेइ २त्ता अवउडगबंधणं करेइ २त्ता एएणं विहोणं बझं अगावेइ ॥ ५८ ॥ एवं खलु गोयया ! उज्झिपर दारए पुरापोराणाणं जा पञ्चणुभवमाणे बिहरइ ॥ ५९ ॥ उज्झरणं भंते ! दारए इओकालमासे कालंकिवा कहिं गच्छर्हिति कहिं उक्वजिहिंति ? एवं खलु गोयमा ? उझरतदारए पणवीसं वालाई परजाऊं पाल इ२त्ता अजेवत इभागावसेस दिवसे सलामिणकए समाज काउंमासे बालकिया इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जरइयत्तार उववजिहिंति सेणं तओं अणंतरं उहित्ता इहेब जंबूद्दीवे २ भारहेबासे बेयगिरिपायमले वाणरकूलसि बाणरत्ताए उववजिहिति, उलटी मुस्कों मे बन्धन बन्धो इस प्रकार राजाकी आज्ञा नायकर चाकर पुरुषोंने जस ही प्रकार उसका किया. ॥५॥ यो निश्चय हे गौतम ! उ.शा वाला पुराना पूर्वजन्मोगामित कर्मों को भगवना विचर रहा है।५९॥ अहो भगन् ! उज्झिन कुमार यहा मे काल के अनर काउ करके कहां जायगा कहां उत्पन होगा ? यों निश्चय हे गौतम ! उशिन वालक पचीस वर्ष का उत्कृट आयुष्य पालकर आज हो दिन के तीसरे प्रहर में शूली से शरीर भेदाया हुया काल के अवसर काल पूर्ण करके इस हा रत्नप्रभा पृथ्वी में मेरीयेपने उत्पन्न होगा. वहां से अन्तर हित निकलकर, इस ही जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में बैत.ढ्य पर्वत के पास बन्दर के कुल में इन्दरपने उत्पन्न होगा, वहां बाल्यावस्था से मुक्त हो यौवन अवसा को प्राप्त हो तिर्यच प्रकाशक-गजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्व मलदजासी, Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmanmanner तिसेणं तत्य उम्मुक्कबालभावे तिरियभोए सुमुच्छिए गिद्धे गढिए अझोववणे जाव वाणरपल्लेए वहेइ एयकमे ४काले मासं कालंकिच्चा,इहेब जंबूद्दीवे भारहवासे इंदपुरेणयरे मणियाकु लंसि पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति।।६०॥तएणं तं दारगं अम्मापियरो जायमेत्तक वद्धहिंति॥६॥ तएणं तस्स दारगरसअम्मापियरो णिवत्तवारसाहेदिवसे,इमं एयारूवेणं णामधेनं करहिंति, होउणं पियसेणनपुंसए॥६२॥तएणं से पियसेणे णपुंसंए उमुकवाल भावे जोवणुगमणुपचे विण्णाय परिणय मित्तेवेणय जोवणेणय लवणेणय उक्किटे उकिटे सरीरा भविस्सइ।६३। के भोग में मूच्छित हुया गृद्ध दुवा अत्यन आसक्त हुवा जो दूसरी बन्दरीयों पुत्र जन्मेंगी उनाका बध कर मारकर महापापकर्म उपार्जन कर काल के अवसर काल पूर्ण कर इस ही जम्बूद्वीप के भग्त क्षेत्र में इन्द्रपुर नगर में गनिका के कुल में पुत्राने उत्पन्न होगा ॥ ६ ॥ तब उस के मातापिता उस का वाल्यावस्था में ही पुरुष चिन्ह [लिंग ] का छेदन कर उस को नपुंनक वनावेंगे और नपुंसक की चेष्ट रूप कुकर्म उस को । ॥१॥ तब फिर उसके मातापिता अनका से बारव दिन गुण निष्पन्न 'मियमेन नपुंसक' ऐसा नाय स्थापन करेंगे ॥ १२॥ तब फिर वह प्रियसेन नपुंसक वाल्यावस्था से मुक्त 17 अवस्था को प्राप्त होगा. तब विज्ञान की प्राप्ति होगी. तब रू कर यौवन कर लावण्यता कर बोलने चलने +8एकादशांग विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध+8+ mmmmmmmmmmms 4दुःखविपाक का दूसरा अध्ययन-उज्झितकुमारका For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तएणं से पियसेणे पुमए इंदपुर जयरे बहवे राइसर जाव पभियओ दाहुहिय विजा पउगेहिय मंत चुपणहिय उडायणहिय णिवणेहिय पण्हवणेहिप वसीकरणेहियमि ओगेहिय अभियोगिता उसलाइ माणुस्सए आग मागाइं भुजमाणे विहरिसर ॥६४॥ तएणं से पियसेण युसए एयकम्मे ४ सु बहु पात्रकम्मं समाजणित्ता इकवीसं वास सयं परमाउ पालइत्ता कालमासे कालंकिच्चा इमीसे रयप्पभाए पुढवीए णेरइएत्ताए उक्वजिहिति, तओ सिरिसिवसु, संसारा तहेवजाव पदमो जार पदविसेण तओ अनुनादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी की चतुरता कर उत्कृष्ट शरीर का धारक बनेगा ॥ ६२ ॥ तब फिर प्रियमेन नपुंसक इन्द्र पुर नगर में वहत से राजा ईश्वर यावत् प्रभात प्रमुख को बहुत प्रकार से विद्या के प्रयोग कर,मंत्र के प्रयोग कर, चूर्ण के प्रयोग कर, हृदय को उद्राउनहार अर्थत् चित्त का शून्यपना करेगा, यद्यपि उस को बहुन लोगों द्रव्य देंगेतो भी वह किसी को पूछने से कहेगा नहीं, यों बहुत अदत्तादान ग्रहण कर वहन कृपणता धारन कर उक्त विद्यादि प्रयोगमे बहुत लोगों को अपने वश में कर उनको किर-चाकरकी माफक पवर्तावेगा,उदार मनुष्य संबंधी भोग भोगना हुवा विचरेगः ॥ ३ ॥ तब फिर वह प्रियमेन नपुंसक इस प्रकार कर्म करतूत कर बहुत पाप कर्म की उपार्जना कर, एक सो इक्कीस (१२१) वर्ष का उत्कृष्ट आयुष्य पालन कर, काल के अब. मर में कालं पूर्ण कर इस ही रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होगा, नहां से निकल गौ तथा नकुल होगा..! • पाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजा For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n - - अणंतर उवाहिता इहेव जंबुद्दीवेदीवे मारहेवासे चंपा गयरीए महिसताए पधाया-- * हिंति, सेणं. तत्थ अण्णयाकयाइ गोहिल्लएहि जीवियाओविवशोबसमाणे तत्व पाए जयसए सेटुिंकुलंसि पुत्तत्ताए पञ्चायाहिं, तिसेणं तत्थ उमुक्कबालभावे तहारूवाणं ... धेर:णं अंतिए केवलंबोहिय अगगारे, सोहम्मेकप्पे जहा पढमो जाव अंतंकरोहिति ॥ E-णिक्लेवोवियं भझयणस्स ॥ दुहविवागस्स विइयं अज्झयणं सम्मन्तं ॥१॥ वहां से निकलकर मुगापुर की परे संमार परिभ्रमण करेगा यावत् पृथम्यादि में उसप होगा, सांसे तर रहिल निकलकर, इसही जम्द्वीप के भरत क्षेत्र की एम्या नगरी में मसापने सब होगा, वह अवदा गौष्टिले (मित्र) पुरुष जीवितब्य रहिन करेंगे, तह से परकर उसकी पम्मा नगरी में कुल में पुत्रपने उत्पम होगा, तहां बाल्यावस्था से मुक्त हो पौवनावस्था प्राप्त हो नया कर स्थविर के पास सम्यक्त्व की प्रती कर साधु होगा, फिर चारित्र पालकर सौधर्मा दवलोक में देवनापने उत्पन्न होगा। वहां से प्रथम अध्ययन में कहे माफिक महा विदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध बुद्ध मुक्त हो सर्वदास का क्षय करेगा ।। इति दुःख विपाक का दूसरा अमित कुमार का भययन संपूर्ण ॥२॥ .. mmmmmmmmmunicia 48-एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्द mamminiummmmmmm दुःखविषाक का दूसरा अध्ययन- उज्झत कुमार का For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी ___ * तृतीय-अध्ययणम् * तबस्स उक्खेवो-एवं खलु जंबू ! तेणंकालेणं तेणंसमएणं पुरिमताल णामे णयरे होत्था रिद्धस्थिमिय ॥ १ ॥ तस्सणं पुरिमतालस्स अयस्स्स उत्तरपुरथिमे दिसीमाए एस्थणं अमोहदंसी उजाणे, तत्थणं अमोहदंसीस्स अक्खस्स जक्खायणे होत्था ॥२॥ तस्थणं पुरिमताले गयरे महव्वले णामं राया होत्था ॥ ३ ॥ तत्थणं पुरिमतालस्स गयरस्स उत्तरपुरित्थिम दिसीभाए देसप्पते अडवीसंसया, एत्थणं मालाडवी णाम तीसरा अध्याय का उत्क्षेप-यों निश्चय हे जम्बू! उम काल उस समय में पुरिमताल नाम का नमर थापा ऋद्धि समद सहित था ॥ १ ॥ उस पूरिमताल नगर के ईशान कौन में अमोघदर्श उद्यान था, उस अमोपदर्श उपान में अमोघदर्श नामक यक्ष का यक्षायतन [देवालय ] था ॥ २ ॥ तहां पुरिमताल नगर का महाबल नाम का राजा था ॥ ३ ॥ उम पुस्मिताल नगर के उत्तर पूर्व दिशा के बीच-नशान कौन में देशादि-देशमंडल के अन्त में अटवी में यहां 'सालादधी' नाम की चारपल्ली चोरों के रहने का स्थान था, वा विषम गिरी पर्वत का कुटर (मध्य) उस की कंदरा-गुफा के प्रान्त-पार सहां पली [ग्राम ] पसी ई थी, इस के वंस जालका कोद चारों तरफ फिरता हुना उस पल्ली को घेरा हुवा था, छेदित किया। प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालामसादजी. For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48+ एकादशमांग विपाक सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध + चोरपली होत्था, विसम गिरिकंदर कोलंबसणिविट्ठा वंसीकलंकपागारपरिक्खिता, छिण्णसेल विसमप्पत्राय फरिहोत्रगुढा, अभितर पाणीयासदुल्लभ जलपेरंता अ खंडी विदितजण दिण्ण निग्गमप्यवेसा सुचहुयस्स त्रिकूधियस्स जणस्स दुप्पत्रेसायावि होस्था || ४ || तत्थणं सालाडवीए चोरपलीए विजय णामं चोरसेणात्रइ परिवसइ, अहम्मिए जाव लोहियपाणी बहुणयरणिग्गयंजसे सूरदड्डप्पहारे, साहस्सिए, सद्दवेही, { हुवा पर्वत उस के मध्य विषय प्रायात खड्डा वही उस की खाइ थी, उस पल्लीको प्रगूढ-चैष्टित थी, वह पल्ली. अन्दर तो सुलभ सुखदाई परन्तु बाहिर से बडी दुर्लभ थी, अन्य को उस में प्रवेश करने का पंथ ढूंढते हुवे भी न मिले ऐसी थी, उस पल्ली में भगने के छिपने के स्थान बहुत थे, भगजाने के गुप्त द्वार भी बहुत थे, उन रास्तों से पंछानते मनुष्य को ही निकलने प्रवेश करने देते थे. देते थे, अत्यन्त कोपायमान हुवा मनुष्य भी अंदर प्रवेश नहीं कर सके इस चोर पड़ी थी ॥ ४ ॥ उन सालाटवी चोर पल्ली में विजय नाम का चोरों का सेनापति था, वह बडा अधर्मी यावत् जीवों का वध करने से जिसके हाथ रक्त से भरे रहते थे, उसे था, वह सब लोगों के आगे अधर्मकी ही बातों करता था तथा लोकों भी उसके आगे करते थे, वह अधर्म को ही देखता था, अधर्म का हो अधर्म का ही अन्य को आने जाने नहीं प्रकार की वह सालाटवी व्यापारी था, For Personal & Private Use Only [ राजा ] रहता अधर्म ही इष्टकारी अधर्मकी ही बातों आचारी थी, अध 48 दुःखविषांक का तीसरा अध्ययन- अभग्गसेन चोर का Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक अपिजी अमिला? पढम मलंसेणं, तत्थणं सालाडवी चारपल्लीए पंचण्हं धोरसयाणं आहेवर्ष जाव विहरइ ॥ ५ ॥ तएणं से विजए चोर सेणावइ बहुणं चोराणय, पारवारियाणय, गदि भेयाणय, संधि छेयाणय, खंडप्पाणय. अण्णेसिंच बहुणं छिणभिण्ण वाहिरा हियाणं कुडंगेयावि होत्था ॥ ६ ॥ तएणं से विजए चोर सेणावह पुरिमतालस्स .. करकेही अपनी आजीविका करता था, बहुत से नगरों में विस्तार पाया था जिस का नाम, सूर वीर सपहार का करनेवाला, अकार्य करने में साहसीक नीडर, शब्दभेदी-शब्दानुसार निशान मारनेवाल खग काष्टकादि भायुध का धारक. प्रयही पात्र में मारनेवाला, ऐना वह विजय चोर सेगपति था. सप्स सालानी चोर पल्ली में रहते हुये पांच मो चोरों का अधिपतिपना करता जन को पालता पोषता । विचरता था ॥५॥ तब फिर विजय चोर सेना का नायक बहुत चोरों को, पर स्त्री ग्राही को, । छेदक को, घुघरादि से घर की सन्धी भेदक को (खात देनेवाले को) पांव की पट्टेपम्बन कर लंगड़े बोंग कर लोकों को ठगनेवाले पूर्ण को, राजाने जिस के हात छेदे हो माक काटा हो इत्यादि अपचिन्द कर नगर से निकाल दिया हो उन को इत्यादि को अपने यहां रखकर बंश जल समान रक्षा करता या ॥ ६॥ तब फिर विजय चोर मेनापति पुरिमताल नगर से ईशान कौन के जनपद देश के बहुत से नामों की नगरों की घात करता हुवा, गरादि पशुओं का हरण करवा हुवा, बंधन से संघ.. पकडकर लाता हु ..प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वाला प्रसादानी www : . . For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा गयरस्म उत्तर पुरथिमिल जणवयं बहुहि गामवाएहिय. पायरघाएदिय, गामणहिय; वंदिग्गहणेहिय, पंथकोहहिय, खत्तखणणेहिय, बलिमाणे २, विदरमाणे २,सगाणे २ सालेमाणे २, गित्था मिजे शिकणे करेसाण विहरइ, महबलस्परप्णा अमि. क्खवणं २ कप्पाइं गिण्हइ ।। ७ ॥ तत्वयं विजयस धोरणावहस्स खंधसिरिणाम भारिया होत्था, अहीणं ॥ ८ ॥ तस्थणं विजय चोर सेणावइस्त पुत्ते खंधतिरीए रास्ता लूट करता हुघा, साथ बार-बहुन लोगों मिलकर गाये उसको लूटना हुचा सागर दे चोरी करता। हुगा, इत्यादि अनेक उपद्रय कर लोगों को दुःख से पीड़ित करता हुया, लोगों का धन का विम कर-3 ता हुवा, लोगों की पारी वस्तु का हरण करता हुवा, लोगों को धर्म कर्म रहित करता हुषा, सर्जना ताडना करता, थय उत्पन करता, कम चायूकादि का प्रहार करता-मारता, लोगों को स्थान भृष्ट करता-स्थान छोडता अर्थान् ग्राम को उजाड करता हुदा, लोगों को निर्थन करता हुआ, गवादि पशू रहित करता हुवा, जात्यादि पान्य रहित करता हुवा, इस प्रकार दःख देना हु विचरता था. और पहायल राजा से भी |ac द्रव्य का भाग लेता था:॥ तहां विनय चोर सनापति के खंघश्री नाम की भार्या थी, वह प्रातिपूर्ण इन्द्रिय की धारक यावत् सुरुषा धी। ८॥ तहां विजय चोर मेनापति का पुत्र खंधश्री भार्या का आत्मज पकादशमांग-विपाक सत्रका प्रथम श्रुतस्कन्ध-40182 चविषाक का तीसरा अध्ययन-अभग्गनेन चोर का 2. For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-शलब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक अपनी मारियाए अत्तर अभग्गसेणं णाम दारए होत्था अहीणं ॥ ९॥ तेणंकालेणं तेणंसमएण समगे भगवं महावीरे परिमतालणाम जयरे जेणेव अमोहदंसी उजाणे तणव समोमढे, परिसा राया जिग्गओ, धम्मोकहिओ परिसा राया पडिगओ!॥ १०॥ कालगं तणंसमएणं समस्त भगवओ महावीरस्म जेद्र अंतवासी गायम जाब रायमग्गं समोरगाढे. तत्थणं वहवे हत्थी पासइ बहवे असि परिसे सन्नद्धबद्ध कधए तेसिणं पूरिसाणं मझगयं एग परिसं पासइ अघउडय जय उपचासेमाणा ॥ ११ ॥ तएणं तं पुरिसं राया पुरिला पढनसि चच्चरसि णितियाविति २ चा अट्टचुल्लपि उए अभगमेन नाम का चाला था यह भी सन्द्रिय पूर्ण था ॥१॥ उस काल उप मराय में श्रमण भगत महावीर स्वामी पुरनिगल नगर का जहां अमोघदर्श उया था उसमें पधारे, परिषदा दर्शर्थ ... धर्मकथा सुनाई परिषदा राजा पीछा गया ॥ १० ॥ उस काल उ र ममय में धरण भगवंत महावीर स्वामी के घडे शिष्य गौतम सापी भगरम की आज्ञले पुरिनाल नगर गोरी गये, तहां राज्यपन्य में बहुन इस्ति सनद्धपद्ध-पाखर युक्त यावत् दुसरे अध्ययन में कहें मुजब देखा ॥ ११ ॥ तहां सब के मध्य में एक पुरुष बन्धन से बन्धा हुवा उसे राज्य पुरुष प्रथम चौवट के मध्य में बैठाकर उस के सन्मुख पाठ पीसारये काका (बाप के छोटे भाई) को मारते हैं, कस-चाबुक के प्रहार कर मारते हैं, वे उसे मार प्रकाशक-राजीबहादुर लाला मुखदेवसमापजी ज्वालाप्रसाद जी * For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध अग्गउघाएइ, कसप्पहारहिं तालेमाणे २ कलुण काकणिमंसाई खावेइ २ त्ता रुहिर पाणिंच वा पायति; तयाणं तरंचगं दोषि चच्चरंसि अट्टलहु भाउयाओ अग्गयोघाएयति एवं तच्चे अटुमहापिए, चउत्थे अट्ठमहामाउथ, पंचमेपुत्ता, छठे सुहा, सतमेजामाउय, अट्ठमेधूयाओ, पवमेगनुया, दसमेणातुयओ, एक्कार से तयावई, बारसमेणओ, तेरसमे उरितय पत्तिया, चउहसमें विउस्सियाओ, पगर सम मालियाओ से पीडित हुवे करूणा मय सन्द करते, उन के मां के कागनी जितन छोटे २ टुढे करन उस को खिलाते थे; उस का जाधीर (रक्त) निकाल कर पानी के स्थान पिलाते थे, तब फिर दूसरे चौरास्ते में लेजाकर उक्त प्रकार आठ छोटी पिनरानी (काकी) को 32 के सम्मुल पारी उस के मांस के काकनी जितने दुकडे करके उसे खिलाय, रक पाया. इस कारही-नीरे चौरास्ते में आठ बडे पिता (साउ-बाजी मारे, पांचये चोरटे में आउ बडीबितरीयानी (कडोत्रा-पटेवाली सी) को मारी, पांचवे चौगाने में उस आठ पुयको बारे,छठे चौरास्ते में आ3 पुत्राको पानीमा बौना में अजमाइ मारे, बाठो में उन इवेटी को मारी, मघा चौरास्ते में शहर के पेट की मां जो चीर पुन के टाटी मारे, इग्यावे चौरास्ते मे-आटोहित्री के भरतार को यार, बार चको में आट दायिकी भार्यकामारीख चौगस्तमें प्राउ भूदा-फुफा घामकी येन के भरतार) को मार, पोदव नौगावे पाउभूभा-फंकी (पापली बेन) को दावविपाक का-तीयमा अध्ययन-अभम्भार चार का For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ०७ अर्थ 409 अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पइया, सोलसमे मासिओ, सत्तरसमे मासियाओ, अट्ठारसमे अवस मिचणाइयिंग सयण संबंधि परिजणं अग्गओ घायंति २त्ता कसप्पहारेहिं तालेमाणे २ कलणं काकमिसाई खाइं रुहिर पागंच पाएइ || १२ || तरणं से भगवं गोयमे तं पुरिसं पास २ ता अयमेयारूवे अज्झत्थिए समुप्पण्णे- जाम्र तत्र णिग्गए एवं बयासी एवं खलु अहं भंते! सेणं पुरिसे पुव्वमत्रे केआसी जाव विहरइ ॥ १३ ॥ एवं खलु री, पंदर चौरास्ते में आठ मासे (माकी बेनके भरतार ) को मारे, पोल चौरास्ते में अठ मासी ( ( माकी बेन ) को मारी, सतरत्रे चौरास्ते मे आठ मामा ( माझे भाइ ) को मारे, और अठार चौरास्ते में बाकी रहt शेष चारका परिवार मित्र पुत्र न्याती गोत्री स्वजन माता पिता विवाही दास दासी प्रमुख सब को उस के आगे मार डालें. वे करुणा मय शब्द करते तडफडत हुने का कांगुनी २ जितने यांस के टुकडे कर उस शेर को खिलाये और पानी के स्थान उन का ऋषिर पाया ॥ १२ ॥ तब फिर भगवंत गौतमसामी उस पुरुष को देखा, देखकर इस प्रकार अध्यवासाय उत्पन्न हुवा यह प्रत्यक्ष नरक जैसे दुःखानुभव करता है, इत्यादि विचार कर अहार पानी ग्रहण कर नगर {से निकलकर जहा भगत महावीर स्वामी थे सह आये, आकर यों कहने लगे-यों निश्चय हे भगवान ! तुपारी आज्ञा लेकर में गोचरी गया था यावत् देखा हुवा व्यतिक्रम्त सब कह सुनाया और पूछने लगे की {की अहो भगवान! इस जीवने पूर्व भवमें ऐसे क्या पापकर्म उपार्जन किये हैं जिसके फल यह प्रत्यक्ष भोगवता For Personal & Private Use Only * प्रकाशक राजाहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयमा ! तेणंकालेणं तेणं समर इहेव जयदीवेदीये भारहेवासे पुरिमताले माम जयर होत्था रिडस्थिमिए ।। १४ ॥ तत्थणं पुरिमताले उदयेणामं राया होत्था, महया ॥ १५ ॥ तत्थणं पुरिमनाले निन्न रणाम अंड यागिर होत्या, अड्डे जाव अपरिभूए, अहम्मिए जाच दुप्पडिपाणदे। १६ ॥ तस्मणं णिाियरस अंडय वाणियरस बहवे पुरिमा दिण्णभनि भातोडगा नलि कदालियाओय पत्थियाए पडिए गेहइ रिमतालस्स णयरस्स परिपरतेमु बहुकाकडएय, घूतिअंडएय, पारेवइअडएय, टेहि ३१.४ एकादशभाम-विषाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4. दुःखविपाकका तीसरा अध्ययन-अमगामन चोर का विचरता है॥१३॥ तर भारत काने लग यों निश्चय हे गौतप: उस काल उस समय में इस ही जंबूद्वीप के भरत क्षेत्रमें पुरियताल नाम का नगर ऋद्धि स्वृद्धिक र युक्त था ॥ १४॥ उस पुरिमताल नगर में उदायन नाम का रागा राजपकरता था, महाहियः पर्वत समान ।। १५ ।। उ पुरिपताल नगर में निन्दव नाम का मंदिरावा यान: या यात्रत् दूसरे का खराश कर मानन्द मनने वाला था ॥ १६ करके या पहल नोकर ये उनको वह खान पान मजूरी के दाम देता था, वे नोहा पुरुन नदेव वक्तो वक्त भुपीख दनकी कुदालियों बांस के टोपल छोटी टोपलीयों को ग्रहणकर चारों तरफ दियः पिदिशा बहुमसे कान के अण्ड, घूर के अण्ड,परदे-कबूतर के अण्डे, टोही के Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिजी. मिक्खाग-मयूरि• कुकुडि अंडएय, अण्णेसिंच बहुशं जलयर थलयर वहयर माईण अंडाइं गेण्हइ २त्ता पत्थिय पडिगाइं भरे २त्ता,जणेव निण्णए अंडवाणियए तेणेव उवा. गच्छइ २ सा गिण्णयस्स अंडवाणियस्स उवणेइ ॥ १७ ॥तएणं तस्स णिण्णयस्स . अंडवाणियस्त बहवे परिसा दिण्णभए बहवेकाय अंडएय जाव कुकुडअंडएय अण्णे. सिंच बहुणं जल-थल-खेचरमाईगं अंडए तबएसय. कंदुसुय भजणारसुय इंगालेसुय तलिति भजति सोल्लिंति तल्लिता भजिंता सोलिंताय रायमग्गं अंरावणांस अंडय पणियणं वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ ॥ १८ ॥ अप्पणावियणं सेणिण्णए अंडवाणियए * अनुवादक लब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ..प्रकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. ण्डे, मयूरी के अण्डे, बदक के अण्डे, कूकही मूर्गी के अण्डे, और भी बहुत प्रकार मच्छादि जलचर स्थलचर के खेचर के अण्डों को लेकर छोटे बड वांप के टोपलों में भरकर जहां निम्नव अंडवानिया या तहां आकर निमव चनिये को देते थे ॥ १७ ॥ तब फिर वह मिना अंड वनिया उन बहुत पुरूषों को मजुरी देता हुआ उन कउवे के अण्डे यावत मूर्गी के अंडे आदि बहुत से जलचर थलचर खेचर के अंडे ग्रहण कर लोह की तावडीमें बडी कडाइमें डालकर अंगार पर चाकर भूनता तैलादि में तलता मुंजकर मलकर उन के सोले-टुकडे करके मशाला से संस्कार छाबडी में भरकर राजमार्गमें उनको बेंचता हुशा अपनी *भाजीविका करता हुवा विचरता था॥१८॥ और वह अण्डवानीया आप सभी उन बहुत कउने For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 18+ तेसि बहुहिं काई अंडएहिय जाव कुकुडि अंडरहिय सोल्लेहिं तलिंभुजे सुरंच ४ आसाए १ विहरइ ॥ १९ ॥ तएणं से णिण्णए अंडए एएकम्मे ४ सुबहुपावं समजित्ता एगंधास सहस्तं परमाउपालइ २ त्ता कालमाम कालंकिच! तच्चाए पुढत्रीए उक्कोसणं सत्तसागरांवम द्वितीएसु औरइएमु णेरइयत्ताए उववणे ॥ २० ॥सणं ताओ अणंतरं उबद्धता इहव लाडवीए चोरमल्लीर विजयस्स चोरसेगावइस्त खंदसिरीए भारियाए कुञ्छिसि पुत्त-ताए उचक्ष्णं ॥ २१ ॥ तएणं से खंदसिरी भारियाए अण्णा याकयाइ तिण्हं मासाणं बहुपांडपुण्णाणं. इमेयारवे दोहले पाउन्भूर धण्णाउणं ताओ यावत् मुर्गी के अण्डे बुरे कर नल नूंज कर मादेश के साथ खाला हुवा खिलाता हुवा विचरता था ॥ ११ ॥ सरह मिना भण्डाणिक इस प्रकार महा पार कर्म का उपार्जन कर एक हजार वर्ष कामे, उत्कृष्ट अायुष्य को पालकर काल के अवसर में काल कर तीसरी नरक में उत्छष्ट सात सागरोपम की स्थितिपने उत्पन्न दुग॥ २० ॥ वहाँले अन्तर राहेत निकलकर यहां सालाटवी चोर पल्ली में विजय चोर मेनापति के खंघश्री भार्या की कृक्ष में पुत्रपने उत्पन्न हुवा ॥ २१ ॥ फिर खंघश्री भार्या को एकदा मसावे तीन महीने व्यतिक्रान्त हुये वाद इसप्रकार दोहला उत्पन्नाचा. धन्य उसमाता को है कि जो माता बहुत है। दुम्पावनाका-तामरा अध्ययन-अभग्गसेन चोर का For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + अम्माधाओ जाणं बहहि मित्तलाइ जियग सयणसंबंधि परियण महिलाएहि अण्ण.. हिय चार महिलाहिं सहि संपरिवडा पहाया जाव पायच्छिता सव्वालंकार भा विउलं असण पाणं खाइमं साइमं सुरंच १ आसा :माणे ४ विहग्इ, जिमियभुजुत्तरागयाओ परिसणेवत्थिया सण्ड जाब पहरगावरणा भगिएहि फलएहिं णिविद्र अमीहिंअं सागरहिं तो माह सजीशहि धगह समुचिरोहिं सरोहिं समुहाबोलियादिय दामाहिं लवियाहिं उसारेथाहिं उरटाहिं छिपसरगं बिजमाणे २ महया २ उभिट्ठ मित्रवाति मह जाति अपने पुत्र पौत्रादि गोत्री सनन की स्त्रियों जामदासीय को खिों के साय और भी चोर की स्रोयों क माथ परिवरी ६ई नात मंजन करके प्रायश्चित्त कर शुद्धहाई अलंकार मे विभूषित होकर बहुत अन्न पानी खादिम सादिम चार प्रकार का आहार निपजाकर मदिरा के साथ अवादन करनी हुई विचरती है, इस प्रकार भोजन पान कर तृप्त होकर पुरुष भेष धारन कर पुरुष के वस्त्राभूषण ने सज्ज होकर हरियार-शस्त्र धारन कर समयदकर खगादि म्यान के वाहिर निकाल हाप में धारन कर कन्धपर स्थापन कर तीरों का मराधा भाषा पृष्ट पर लटकाती हुइ वान युक्त धनुष्य चढाया पवा. आकर्षित कर जंघा को कोटी २धीयों की माला बंध कर अनेक वार्जिन बजते हुये महा २ शब्द से समुद्र के ज्यों गर्जारस करती हुई जिस प्रकार समुद्र की पानी की बेल चलती है पस प्रकार शीघ्रनामे *पकाशक-समावहादर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालामसादमी - For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र एकादशमांप-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध48+ जाव समुदरवभूयं पिवकरेमाणीओ सालाटवीए चोरपल्लीए सवओं समंताओ लोए माणीओ २, अहिंडमाणीओ २, दोहलं विणंति, तंजइ अइं अहंपिव हुर्हिणाइ णियग सयण संबंधि परियणमहिलाई अण्णेहिं सालाडवीए चोरपलीए सव्वओ समंताओ. लोएमाणीओ २ आहिंडमाणीओ २, दोहलांवणिज्जामि? तिकटु, तंसि दोहलंसि अबणिजमाणसि जाव झियामि ॥ २२ ॥ तएणं से विजय चोरसेणवइ खंदसिरीभा. रियं उहय जाव पासइ एवं क्यासी-किण्हं तुम्हं देवाणुप्पिए ! उहय जाव ज्झियासि? ॥ २३ ॥ तएणं सा खंदसिरी मारिया विजयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! से चलती हुई सालावटी चोर पल्ली के मर्व दिशी विदिशी में देखती हुई गमन करती हुई दोहला-मनोर्थ पूरण करती है, उसमाता को धन्य है. मैं भी कभी बहुत ज्ञाती गौत्रीयों की स्त्रीयों दास दाप्तीयों था अन्य स्त्रीयों के साथ सालाटवी चोर पल्ली के सर्व दिशी विदिशी में देखती हुई गमन करती हुइ.विचरूंगी. दोहला पूर्ण करूंगी? इस प्रकार विचार करती हुई उक्त दोहला अपना पूर्ण होता हवा नहीं देखकर यावंत आर्त ध्यान ध्याने लगी ॥ २२॥ तब वह विजय चोर सेनापति खंदश्री भार्या को आर्त ध्यान ध्याती हुई देखकर यों कहने लगा-हे देवानुप्रिय ! तुम किस कारन आर्त ध्यान ध्यारही हो ? ॥२३॥ तब वह खंदश्री विजय चोर सेनापति से यों कहने लगी-यों निश्चय अहो देवानुप्रिय ! मेरे गई को 18 दुःख विपाक का-तीसरा अध्ययन-अमग्गसेन चोर का OYO । For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ममं तिन्हं मासाणं जाव ज्झियामि ॥ २४ ॥ तरणं से विजये चोरसेणावइ खंदसिरी भरिया अंतिम सोच्चाणिसम्म खंदसिरी भारियं एवं वयासी - अहासुहं देवाणुपिये, एमटुं पडिसुणेइ २ ॥ २५ ॥ तणं सा खंदसिरी भारिया विजएणं चोरसेणावणा अब्भणुण्णायासमाणी हट्टतुट्ठ बहुहिं मिच जाव अण्णेहिय बहुहिं चोर महिलाहिं सद्धिं परिवुडा व्हाया जाय विभूसिया, विपुलं असणं पाणं खाइयं साइमं सुरं ५ आसामाणी ४ विहरइ, जिमिय भुत्तरागया पुरिसणेवत्था सण्णडबड तीनमहीने व्यतीत होने से उक्त प्रकार का दोहला उत्पन्न हुवा है जिस से मैं आर्त ध्यान ध्यारही हूं ||२४| तब वह विजय चोर सेनापति खंदश्री भार्या के मुख से उक्त कथन श्रवन कर हृदय में धारन कर खंदश्री भार्या से कहने लगा कि तुमारे को सुख उत्पन्न हो तैसा कार्य करो, तुमारा मनोर्थ पूर्ण करो ॥ २५ ॥ तत्र खंदश्री भार्या विजय चोर सेनापति की आज्ञा प्राप्त कर हृष्ट तुष्ट हुई, बहुत से मित्र ज्ञातीयोंकी स्त्रीयों के { के साथ परिवरि स्नानादि करके यावत् आभरण अलंकार से विभूषित होकर अशनादि चारों प्रकार का आहार निष्पन्न करा मदिरा के साथ अस्वादथी खाती खिलाती विचरनेलगी, खा पी तृप्त हुने बाद शुद्ध हो | पुरुष वेष धारनकर वस्त्र आभरण से अलंकृतहो हाथियार धारन कर सनबद्ध हो वक्त रादि पहनकर यमन For Personal & Private Use Only .. प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी ७४ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8+ एकादशमांग-विपाकपुत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध486 नाव आहिंडमाणी दोहलं विणिंति ॥ २६ ॥ तएणं सा खंदसिरी भारिया संपुषण दोहला समाणिय दोहला विणिय दोहला वोछिण्ण दोहला संपुण्ण दोहला तं गन्भं सुहं सुहेणं परिवहइ ॥ २७ ॥ तएणं सा खंदसिरी चोरसेणावइणी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारयं पयाया ॥ २८ ॥ तएणं से विजय चोर सेणावइ तस्स दारगस्स इवीसकारसमुदएणं दसरत्तढिइ वडियं करेइ ॥ २९ ॥ तएणं से विजय चौर सेणावइ तस्स दारगस्स एक्कारसमेदिवसे विपुलं असणं ४ उवक्खडावेइ२त्ता मित्तणाइ आमंतएइ २त्ता जाव तस्सेव मित्तणाइ पुरओ एवं क्यासी-जम्हाणं अम्हं इमंसि दारगंकरती सिंहनाद से समुद्र की तरह गारव करती दोहला-मनोरथ पूरन करती हुइ विचरने लगी ॥२६॥ तब फिर वह खंदश्री भार्या समस्त वांच्छितार्थ पूर्ण करती हुई दोहला पार पहोंचाती हुई वांच्छा से निवर्तती हुई विविक्षितार्थ वांच्छा कारण वह विच्छेद होने से संपूर्ण दोहला होने से गर्भ की सुख २ से पृद्धि करती हुइ विचरने लगी ॥ २७ ॥ तब फिर खंदश्री चोर सेनापत्नि नव महीने पूर्ण हुवे बालक का जन्म दिया ॥ २८ ॥ तब फिर विजय चोर सेनापति उस बालक का महा मंडान से ऋद्धि आदि कर समुदाय कर दश दिन तक जन्मोत्सव किया ॥ २९ ॥ तब फिर विजय चोर सेनापति उस बालक का इग्यार दिन बहुत प्रकार का अशनादि निष्पन कराकर मित्र ज्ञातियोंको बोलाकर जेमनदिया,जेमनदेकर उन मित्र दुःखविपांक का-तीसरा अध्ययन-अभग्गसेन चोर का+ For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ सि गब्भगयांस समाणंसि इमेयारूवे दोहले पाउब्भूए, तम्हाणं होउंअम्हं दारए अभग्गसेण णामेणं ॥३०॥ तएणं से अभग्गण कुमारे पंचधाई जाव परिधावई ॥ ३१ ॥ तणं से अभग्गसेो णामं कुमार उमुक्कवाल भावेयावि होत्या, अट्ठदारियाओ जाव अदाओ उपि भुजइ ॥ ३२ ॥ तएण से विजए चोर सेणावइ अण्णयाकयाइ कालधम्मुणासंजुत्ते ॥ ३३ ॥ तरणं से अभग्ग सेणकुमारे पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे विजयरस चोरसेणावइस्स महयाइड्डी सक्कारसमुदएणं णीहरणं ज्ञाती के सन्मुख यों कहने लगा. जिस वक्त हमारा यह बालक गर्भावस्था में था तब इस प्रकार दोहला {उत्पन्न हुवा था इसलिये होवो हमारे इस पुत्र का नाम अभग्गसेन कुमार || ३० ॥ तब फिर वह अभग्गसेन कुमार पांच धाइयों के परिवार से वृद्धि पाने लगा, पर्वतकी आड में चम्पक लता की तरह वृद्धि पाने | लगा ॥ ३१ ॥ तब फिर वह अभग्गसेन कुमार बाल्यावस्था से मुक्त हुवा यौवन अवस्थाको प्राप्त हुवा, तब | उसका आठ कन्या के साथ पानी ग्रहण कराया यावत् आठ२दाति दायचयें दीं, सारश्वस्तुको ग्रहणकर प्रसाद के ऊपर सुख भोगवता सुख से रहने लगा || ३२ ॥ तब वह विजय चोर सेनापति एकदा प्रस्तावे काल धर्मको मांस हुआ-परगया. ॥ ३३ ॥ तत्र फिर बद अभग्गसेन कुमार पांचसो चोर के साथ परिवरां हुवा रूदन करता ++ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी For Personal & Private Use Only * प्रकाशक - राज बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ७६ ( Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमांग विपाकमूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 488+ mirmirmirmire करेइ २ ता बहुहिं लोइयाई मयाकिच्चाई करेइ २ ता. कालमं अपए जाण्याविः । होत्था ॥३४॥ तएणं से अभग्गसेणकुमारे चोर सेणावइजाए, अहम्मिए जाव कप्पाई गेण्हइ २ ॥ ३५ ॥ तएणं ते जाणवया पुरिसा अभग्गसेण चोरसेंणावइणा बहुग्गा-- मघायावणाहिँ तांवियासमाणा अण्णमष्ण सदावेइ २त्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अभग्गसेण चोरसेणावइया पुरिमताले गया पुरिमताले णयरस्स उत्तरिलं जणवयं बहुहिँ गामघाएहिं जाब णिद्धणं करेमाणे विहरइ, तं संयं खलु देवाणुप्पिया! हुवा विजय चोर सेनापति का महा ऋद्धि सत्कार समुदाय कर निहारन किया, निहारन करके बहुत से लोकीक में कार्य किये, कालन्तर में सोगरहित हु॥३४॥तब फिर वह अभग्गसेन कुमार चोर सेनापति हुवा, महा अधीपापी यावत् महावल राजा के माल में से मालका भाग लेनेवाला, तथा भोग आते हुवेको बीच से लेनेवाला हवा ॥ ३५ ॥ तब फिर उस जनपद देश के लोगों अभग्गन चोर सेनापतिने बहुत गामो की घात धनादि लुंटकर तपित किये हुये, दुःख से पीडित हुवे परस्पर बोलाकर यों कहने लगे-यों निश्चय हे देवानुप्रिया ! अधग्गसेन चोर सेनापति पुरमिताल नगर में पुरिमताल नगर से ईशान कौन में रहे हुके जनपद देश के बहुत से ग्रामों को लुटता निर्धन बनाता विचर रहा है, इसलिये श्रेय है अपने को कि-महाबल राजा को यह विपाकका-तीसरा अध्ययन-अभग्गन चोर का wwww बम For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +3 अनुवादक-बालब्रह्मगरी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + महव्वलसरण्णो एयमटुं विष्णवित्तए ॥ ३६ ॥ तएणं जणवया पुरिसा एययटुं अण्ण मण्ण पडिसुणेइ २ ता महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं गिण्हइ २ ता जेणेव पुरिमताले णयरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता जेणेव महब्बलेराया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता महाव्वलरण्णो महत्थं जाव पाहुडं उवणेई, करयल अंजलीकटु महब्बलंरायं एवं वयासी-तुम्भं बाहुछाया परिग्गहिया निब्भया णिरुविग्गा सुहं सुहेणं परिवसित्तए. सालाडवी चोरपल्लीए अभग्गसेणे चोरसेणावइ अम्हं बहुहिं गामघायहिय जाव णिडणे करेमाणे विहरह, तं इच्छामिणं सामी ! तुब्भं बाहुछाया परिग्गहिया णिब्भया णिरुसर्व बृतान्त निवेदन करें॥३६॥तब फिर जनपद देश के लोगों परस्पर उक्त कथन सुनकर-मान्यकर महाप्रयोजनवाला बहुमूल्य राज्ययोग भेटना निजराना ग्रहनकर,जहां पुरिमताल नगरथा तहां आये, आकर जहां महावल राजा था. आये, वहमहा प्रयोजन रूप महामूल्य भेटना (निजराना) अर्पन कर हाथ जोडकर मस्तकावर्तन कर यों कहने लगे-हम सब आपकी वाहकी छहिमें आपके वाहके आधारसे भय रहित हुने उद्वेग रहित हुवे रहते हैं. परंतु सालाटवी चोरपल्ली में अभग्गसेन चोरसेनापति हमारे बहुत से ग्रामोकी घातकरताहुवा यावत् निर्धन करता हुवा विचरता है,इस लिये चहाते हैं अहो स्वामी ! आपकी बांहकी छांह में इतना भी भय रहित द्वेष रहित सुख मुख से काल प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्या प्रलदजासी * For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4867 एकादशमांग- विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध विग्गा सुहं सुहेणं परिवसित्तए त्तिकद्दु, पायवडिया पंजलिउडा महब्बलरायं एवमट्ठ विष्णवंति ॥ ३७ ॥ एणं से महब्चलेराया, तेसिं जणवयाणं पुरिसाणं अंतिए एयमट्ठ सच्चा जिसम्म असुरुते जाव मिसिमिसेमाणं तिबलियं भिउडिं णिलाडे साहहु दंड सदावे २त्ता एवं व्याप्ती - गच्छहणं तुमं देशणुप्पिया ! सालाडविए चोरपलिं विलुंपाहि अभग्ग सेण चोरणाच जीवग्गाहं गिण्हाहिं रत्ता मम उवण्णेहिं ॥ ३८ ॥ एणं से दंडे तहन्ति यटुं डिसुणेइ २ ॥ ३९ ॥ तरणं से दंड बहुहिं पुरिसेहिं सण्णद्ध जात्र पहरणेहिं सद्धिं संपरिबुडे मगाइएहिं फलएसि जाव छिप्पत्तरेहिं वजमाणेणं महया व्यतीत करना, यों कह कर पांव पडकर हाथ जोड कर महवल राजा से विनंती करी || ३७ ॥ तत्र फिर | महाबल राजा उन जनपद देशके पुरुषों के मुख से उक्त कथन सुनकर अवधार कर शीघ्रही कोपायमान हुवा यावत् मिसमिसायमान होता सर्प के ज्यों फुंफट करता तीन शल्य निलाडपर चडाकर दंडसेनापति को बोलाकर यों कहने लगा- जावो तुम दे देवानुनिया ! सालाटवी चोरपल्ली को लुंटो, उसका विनाशकरो और अभग्गसेन चोर सेनापति को जिन्दा पकडकर मेरे सुपरत करो ॥ ३८ ॥ तब उस दंड सेनापतिने राजा की आज्ञा तहति प्रमाणकी।। ३९ ।। तब वह दंड सेनापति बहुत सुभटों साथ सन्नद्धबद्धहो मन्नहाव क्तर शस्त्र धारन कर यावत् दथीयार धारनकर उन सुभटों के में परिवार से परिवरा हुवा हाथो में खांडा खड्गादि ग्रहण किये। For Personal & Private Use Only ต 408 दुःख विपाक का तीसरा अध्ययन- अभग्गसेन चोर का Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उकिटु णायं करेमाणे पुरिमतालं णयरं मज्झमझणं णिग्गच्छइ २त्ता जेणेव सालाडविः चोरपल्ली तेणेव पहारत्थगमणाए ॥ ४० ॥ तएणं तस्स अभग्गसेणावइस्स चोरपुरिसे इमीसे कहाए लढे समाणे जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव अभग्गसेणावइ तेणेव उवागया, करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! पुरिमताले णयरे महब्बलेणं रण्णा महया भडचडगरणां परिवारेणं दंडे आणए गच्छहणं,तुम देवाणुप्पिया ! सालाडवि चौरपलिं विलुपाहिं अभग्गसेण चोरसेणाबइ जीवग्गाहिं गिणहेहि २त्ताममंउवण्णेहि,तएणसे Eहुवे वादिन वाजते हुवे महा गरिव करते पुरिमताल नगर के मध्य मध्य में होकर निकलकर जहां सालावटी चोरपल्ली है उसके रास्ते में गमन करने लगे।॥४०॥ तब फिर वह अपग्गसेन चौरसेनापति के गुप्त चार लाने वाले चोर पुरुष को उक्त प्रकार की कथा कारता प्राप्त होने से जहां सालाटवी चोरपल्ली । अभग्गन चोरसेनापति था तहां आया, आकर हाथ जोडकर यावत् यों कहने लगा-यों निश्चय हे देवानुप्रिया ! पुरिमताल नगर का महब्बल राजा महा सूभटों के वृन्द सहित दंड सेनापति को आज्ञादी है कि-जावो तुम हे देवानुप्रिया! सालाटवी चोरपल्ली को लूओं विद्वंसकरो अभग्गसेन चौरप्तेनापीतको जिन्दा पकड कर लाकर मेरे मुपरत करो. तर फिर वह दंड सेनापति महा सुभटों के वृन्द से परिवरा .प्राशक-रामाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी पालाप्रसादजी. । For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंडे महया भडचडगरेण जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव पहारेत्थ गमणाए।।४ १॥तएणं से अभग्गसेण चोरसेणावई तेर्सि चोपुरिसाणं अंतिए एयमटुं सोचाणिसम्म पंचचोरसयाइं सहावेइ २त्ता एवं वयासी-एयं खलु देवाणुप्पिया! पुरिमताले णयरे महब्बले जाव तेणेव पहारत्थ गमणाए आगए ॥४२॥ तएणं से अभग्गसेणे ताइपंचचोरसयाइं एवं वयासी-तं सेयं खल देवाणुप्पिया! अम्ह तं दंडं सालाडवि चोरपल्लिं असंपत्तं अंतराचेव पडिसेहित्तए॥४३॥ वएणं ताइ पंचचोरसयाई अभग्गसेजस्स तहत्ति जात्र पडिसुणे २ ॥४४॥ तएणं से हुवा यहां सालाटवी चोर पल्ली में आरहा है ॥ ४१ ॥ तब फिर वह अभग्गसेन चोर मेनापति उम हेरू चोर के पास उक्त अर्थ श्रवण करके हृदय में अबधार कर पांच सो चोरोंको बोलाये, वोलाकर यों कहने लगा-चों निश्चय हे देवानुप्रिय ! पुरिमताल नगर का महा बलराजाका दंड मेनापति कटक सेना) लेकर यहां अपनी चोर पल्ली लूटने आरहा है,ऐमा हेरूका कहना है ॥४२॥ फिर अभग्गसेन चोर उन पांचसो चारों को यों कहने लगा-हे देवानुप्रिय ! उन सेनापति का कटक सालाटवी चौर पल्ली को आ नहीं पहुंचे तहां तक सन्मुख जाकर उस को बीच रास्ते में से मारकर पीछा फिराना अपन को उचित है ॥ ४ 15 उन पांच सो चोरोंने सेनापति का वचन तहति प्रमाण किया-मान्य किया ॥ ४४ ॥ तब फिर वह अग्ग एकादशमांग त्रिपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध दुःखावपाकका-तीसरा अध्ययन-अभग्गसन चार का 1 8 Horos For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 富 अर्थ +3 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अमग्गसेण चोर सेणावइ विपुलं असणं ४ उवक्खडाइ २ त्ता पंचाहिँ चोर सहिं सद्धिं पहाए जात्र पायच्छित्ते भोयण मंडवंसि तं विपुलं असणं ४ सुरंच ५ आसाए माणे ४ विहरइ, जिमिय भुतुत्तरागए वियणं समाणे आयंते चोक्खे परमसूइ भूए पंचहिं चोर सएहिं सद्धिं अल्लं चम्मं दुरुहइ २ ता सण्णद्धं जाव पहरणे मगइतेहिं जात्र रचेणं पञ्चात्ररण्ड काल समयंसि सालाडवी चोरपल्लीयाओ निगच्छइ २त्ता विसम दुग्ग गहणं ठिएगहिय भत्तपाणीए तं दंडं पडिवाले माणेचिट्ठइ ॥ ४५ ॥ तणं से दंडे जेणेव अभग्गेसण चोर सेणात्रइए तेणेव उवागच्छइ २ ता अभग्गसेणेणं चोर {सेन सेनापति अशनादि चारों प्रकार का आहार बहुत निष्पन्न कराकर मदिरा के साथ अस्वादता खाता खिलाता विचरने लगा, जीमकर चुलु आदि कर पवित्र हुवे, तृप्त हुवे फिर पांच सो ( रक्षी [ बक्तर ] पहन कर टोपी लगाकर, हथियारों लेकर वासों ग्रहण कर खांडा चोर साथ सन्नह जीव खड्गादि यावत् वार्दित्र वाजते दिन के चौथे पहर में सन्ध्या समय सालाटवी चोर पल्ली से निकले, निकलकर जहां अन्य को प्रवेश करना दुष्कर ऐसे दुर्गमस्थान पर्वत के कडवे में छिपकर आहार पानी ग्रहण कर उस दंडसेन सेनापति की मार्ग प्रतिक्षा करते रास्ता देखते रहे हैं ॥ ४५ ॥ तब फिर वह दंड सेनापति जहां अभरंगसेन चोर सेनापति है तहां For Personal & Private Use Only प्रकाशक- राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी ८२ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमांग-विपाकपुत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + एणवि आसवलेण वा हात्थिबलेणवा जोहबलेणवा; रहबलेणवा, चाउरंगिणं पिउर . उरेणं गिण्हत्तए, ताहे सामेणय भेदेणय उवप्पदाणेणय, वीसंभमाणे उपत्तेयावि होत्था, जेदंडेणयविषसे अभितग्गासी सगसमामितणाइ णियग सयण संबंधि परियणंच... विपुलं धणकणगरयण संतसारसावए जेणं भिंदइ अभग्गसेणस्सय चोरसेअभिक्खण २ महत्थाई महग्घाई महरिहाइं पाहुडाई पेसेइ अभग्गसेणंच चोरसे वीमंभमाणेइ॥४८॥ तएणं से महब्बलेराया अण्णयाकयाइ पुरिमताले णयरे एगंमहं महइ महालियं कुडा. चतुरंगनी सेना के बलकर ऊपरा ऊपर आता हुवा लष्करभी उसे ग्रहण करने समर्थ नहीं होसकता है,परन्तु वचनादि से सन्तोष के वरुप में कर परस्पर भेद पडाकर वश्य में कर, तथा धनादि. देकर वश्य में कर विश्वास प्राप्त कर, प्रतीत उत्पन्न कर, उस के आभ्यन्तर के शिष्यसमान मित्र गौत्री स्वयं के सजनादि दास दासी प्रमुख को बहुत धन सुवर्ण रत्नादि होती हुई सार वस्तु देकर तत्काल उस का भेद उपावकर और अभग्गसेन चोर सेनापति को बारम्बार भेट प्रमुख भेज कर महा अर्थवाला बहुत मूल्यवाला उत्तम पुरुष के योग्य इस प्रकार भेटना(निजराना)ना कर अभग्गसेन चोर सेनापतिको विश्वास उत्पन्न कर पकडोतो भलाइ पकह सकोगे ॥ ४८ ॥ तब फिर महा बलराजा उस वचन को ध्यान में रख अन्यदा किसी वक्त रिमताल. नगर में एक बड़ी जंगी बहुत ही लम्बी विस्तीर्ण.चौडी कुंट के आकारवाली-तथा कूडपास रूप .प्रकाशवराजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. - For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ ++ एकादशमांग- विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध गारसालं करेइ, अणेग खंभसय पासादिष ४ ॥४९॥ तणं महम्बलेराया अण्णयाकयाइ पुश्मिताले जयरे उस्सुक्कं जाव दसरत्तं पमोयं उग्घोसावेइ २ चा कोडुंबिय पुरिसे सदावेइ २ ता एवं व्यासी- गच्छहणं तुम्भं देवाणुपिया ! सालाडवीए चोरपल्ली, तत्थणं तुभे अभग्गसेणं चोरसेणावइस्त करयल जाव वयह एवं खलु देवापिया ! पुरिमंताल जयरे महाब्बलस्स रष्णो उसुक्के जाब दसरते पमोद उग्घोलिए तं किण्णं देवाध्विया ! विपुलं असणं ४ पुप्फवत्थ गंधमलालंकारेय इहं हम्ब शाला बनवाई, वह अनेक स्थम्भोंकर वैष्टित चित्तको प्रश्न कारी देखने योग्य अभीरूप प्रतिरूप बनी थी॥ ४१ ॥ { तंत्र महा बलराजा उस शाला के उत्सव के लिये अन्यदा किसी वक्त दश दिनका दान माफ किया यावत् दशदिनतक प्रमोद उत्सव सुरू किया उस उत्सवका निर्दोष कराया— पडह बजवाया और कुटुम्बिक पुरुष को बोलाकर यों कहने लगा- हे देवानुप्रिय ! तुप सालाटव चोर पल्ली में जावो नहीं तुम अभग्गतेन चोर सेनापति को हाथ जोड वधाकर ऐसा कहना - यों निश्चय हे देवानुप्रिय ! पुरिमताल नगर में महा बलराजाने प्रमोद महोत्सव मंडा है, दश दिन दान लेना भी बन्ध किया है, यावत् दश दिन तक प्रमोदोत्सव का निर्घोष पडह बजाया है, इस लिये आप कहो तो आपको विस्तीर्ण अशना दे चारों प्रकार का आहार पुष्प गंध माला अलंकारादि यहां लाकर अर्पण करूं और जो आप की इच्छ हो आप For Personal & Private Use Only 4 दुःखविषांक का तीसरा अध्ययन-अममानेन चोर का ८५ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + माणिज उदाहु सयमेवगच्छित्ता॥५०॥तए कोडुबिय पुरिसे महब्बलस्स रणो करयल जाव पडिमुणइ२त्ता पुरिमतालाओ गयराओ पांडनिक्खमइ रत्ता णाइविकटुहिं अहा हिं सहहिं पातरासेहिं जणव सालाडवी चीरपल्ली तेणेव उवागच्छइरत्ता अभग्गसेण चौरसेणावहस्स करयल जाव एवं वयामी एवं खलु देवाणुप्पिया ! पुरिमताल णयरे महब्बलस्स रण्णो उस्सुक्के जाव उदाहु सयवच्छित्ता ? ॥५१ ॥ तएणं से अभग्ग सेणे ते काडुबिय पुरिसं एवं वयासी-अहण्णं देवाणुप्पिया ! पुरिमताले नयरे सय. स्वयंपेत्र वहाँ पधागे ॥ ५० ॥ दव फिर कौमक पुरुष महा बलराजा का वचन हाय जोड शिरसावन अंजली कर विनय महिनश्रण किया. अषण कर पुरिपताल नगर मे निकलकर धीरे २ रास्ते में सु सुख से मुकाम करता हा. जन सिराम पालू आदि करता हुवा, जहां नालाटवी चोर पल्ली थी तहां आया, आकर अभग्गन चार मेनापति का जय विजय कर बधाया, बधाकर यों कहने लगा-यों श्रय देवानुप्रिय! परिपताल नगर में यहा बलराजाने प्रमोद उत्सव मंडा है, दश दिन दाण हांस भी बन्धकिया है, इसलिय कहीये आपको अशसादि यहां लाकर अर्पण करूं कि आपस्वयमेव वहां पधारते हो ? ॥५१॥ तब फिर वह अभगमेन चार सेनापति उस कौटुम्बिक पुरुष को यों कहने लगाहे देवानुप्रिय ! पुरिमताल नगर में मैं सयं ही अपनाबसब परिवार लेकर आताहूं. यों कहकर उस .प्रकाशक-गजाबहादुर लाला मुखदवमहायजी ज्वाला प्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 428+ मेवगामिए, कोडुंबिय पुरिसे सकारइ सम्माणेइ पडिविसजेइ ॥ ५२ ॥ तएणं से अभग्गसेण चोरनेणाइ बहहिं मित्त जाय परिबुडे हाए जाव पायपिछत्ते सव्वालंकार विभूसिए, सालाडवी च रमल्लीओ पडिणिक्षमइ जंगेत्र पुरिमताल गयरे जेणेव महः ब्बलरायालेणेव आगच्छ३२त्त करयल परिग्गाहयं महब्बलं रायंजएणं विजएणं बडावेह बडादेहत्ता महत्थं जाव पहई उववण्गेइ॥५३॥तएणं से महबल्लराया अभग्गसेणस्स चोरस्स त महत्थं जाव पडिच्छइ, अभग्गसेण चोरसे सकारेइ समाणेइ विसजेइ, कुडागार सालबसे आश्सएहिं दलयइ ॥ ५४ ॥ तएणं से अभग्गण चोरसेणावह कौटुबिक पुरुष को दस ताम्बूलादि से मस्कार सन्मान कर पीछा विदा किया ॥५२॥ फिर अम-2 जग्गसेन चोर सेनापति बहुन मित्र शातीयों के पारेवर से परिवरा हुवा स्नान कर शुद्ध हो सर्व अलंकार सामरण पानकर सालाची चोर पल्ली से निकला, निकलकर जहां पुरिमताल नगर जहां महार सही पाया, तहां आकर दोनों हाथ जाड जय हो बिजय हो इस प्रकार बधाकर महा मुख्य राज्य भेटना (निजराना ) अणि किया ॥ ५३ ॥ तब फिर वह महा बलराना अभग्गरेन चोर सेनापनि का वा महामस्य भेट ग्रहग किया. अभगोन चोर सेनापति को प्रकार सम्मान दिया और उस कुटाकार शाला में उस का उतारा कराया. रहने को स्थान दिया ॥ ५४ ॥ तब फिर वह अभग्गसेन चोर सेनापति। n nawwaanwwwwwwwwwwwimaAAAAAAA दिपाकका-सासरा अध्ययन-बमम्गसन चोर का A For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनि श्री अमोलक ऋपिजी महब्बलंणं रमा विसजिए समाण जणव कुड गारसाला; तणव उवागच्छइ २ ॥ ५५ ॥ तएणं से महब्बलराया कोडु बय पुरिसे सदायेइ २ त्ता एवं वयासी. गच्छहणं तुक्भे देवाणुप्पिया ! विपुलं असणं ४ उवक्खडावेइ २त्ता तं विपुलं अप्तणं ४ सुरंच ५ सुबहु पुप्फगंधमल्लालंकारंच अभग्गसेणस्स चोरसणावइस्स कुडागार सालाए उवण्णेह ॥ ५६ ॥ तएणं ते कोडुंबिय पुरिसा करयल जाव उवणेइ ॥ ५७ ॥ तएणं से अभग्गसेण बहुहिं मित्तणाइ जाव सद्धिं परिबुडे पहाए जाव सव्वालंकार विभसिए, तं विपुलं असणं ४ सुरंच ५ आसाएमाणे ४ पमत्ते विहरइ ॥ ५८ ॥ महा बलगजा का भेजा हुवा जहाँ क्डागार शाला थी तहां आया, आकर उस में रहने लगा ॥ ५५ ॥ तब फिर मठा बलराना कौटुबिक पुरुष को बोलाकर यों कहने लगा-जावो तुम हे देवानुपिय ! विस्तीर्ण अशनादि चारों आहार तैयार कराकर मदिरा के साथ बहुत फल फूल मृगन्धमाला अलंकार अभग्गसेन चोर सेनापति के लिये कूडागार साला में भेजो ॥ ५६ ॥ तब फिर वह कोदुम्धिक पुरुप हाथ जोड आज्ञा नान कर पूर्ववत् अशनादि चारों आहार नशा युक्त तैयार कर अभग्गमेन चोर सेनापति को अर्पन किया ॥ १७ ॥ तब फिर अभग्गोन चोर सेनापति बहुत मित्रों के साथ परिवरा हुवा जान करके पूर्वक सर्व अलंकार से विभूपित हो यह बहुत अशनादि चारों आहार मदिरा के साथ अस्वादता खाता खिलात, . प्रकाशक राजावादर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजा * अर्थ For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तएण से महब्धलराया कोडंबिय पुरिसे सहावेइ २त्ता एवं बयासी गच्छहणं तुम्भ देवाणुप्पिया ! पुरिमतालस्स जयरस्स दवाराई पिहिंति २त्ता अभग्गसेण चोरसेणावइ जीवग्गाहंगण्हंति २त्ता ममं उवषण्णेह, तविउवणेति॥ ५९॥तएणं महब्बलराया अभग्ग• सेण चोरोए तेणं विहाणण वज्झ आणवेए॥ ६ ॥ एवं खलु गोयमा ! अभग्गसेण चोरसेणावइ पुरा जाब बिहरइ ॥६१॥ अभंग्गसेणेणं भंते ! चारसंणावइ कालमासे कालंकिच्चा कहिं गच्छिहिंति कहिं उपजिहिति ? गोयमा ! अभगसेण चोरसेणावइ सत्तवीसं वासाई परमाउपालिता अनेवतिभागावसेसे दिवसे सूली भिण्णकए समाणे मादी(व्होंश) वनकर विचरने लगा ।। . ८॥ तव फिर महा बलराजा कौटुक पुरुष को बोलाकर यों कहने लगा जायो तुम हे देवानुपिय! पुरिमताल नगर के द्वार बन्ध करो.अभग्गसेन को जिन्दा पकड मेरे सुपरत करो; कौटूबिक पुरुषने तैसा हो किया, ॥२९॥तब फिर महा बलराजा अभग्गसेनको बन्याकर. हे गौतम ! तुम देख , आये इस प्रकार मारने की आज्ञा दी है ॥३०॥ यों निश्चय हे गौतम ! अभग्गसेन पूर्व काल में किये कर्म के फल भोगवता विचरहा है ॥ ६१ ॥ अहो भगान् ! यह अभग्गसन काल के अपर काल कर यहाँसे कहा Pin नावेगा कहां उत्पन्न होगा? हे गौतम ! अगलेन चोर सेनापति सत्तावीस (२७) वर्ष का पूर्ण आयुष्य भंग कर बाज तीसरे प्रहर में शूली से शरार भेदाया हुदा आयुष्य पूर्ण कर इस ही रत्नप्रभा नरक में? एकादश्चमागविपाक सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 + दुःखविपाक का तीसरा अध्ययन-अभग्गसेन चोर की For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 42 अनुवादक ब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी कालमासे कालकिच्चा इमोसे रयप्यभाए उक्कीमेणं रइएस उववज्जिर्हिति सेणं ताओ अनंतरं उवहिता एवं संसारो जहा पढमे जाव पुढवी तओ उबट्टित्ता बाणारसीए ए सुरता पचायाहिंति, सेणंमच्छतोय रिएहिं जीवियाओं विवरं विए समाणे सत्थेव बाणारसी जयरीए सटुकुललि पुत्तत्ताए पबार्हिति सेणं तस्थ उमुक्कबालभावे एवं जहा पढ़ने जात्र अंतं काहिति ॥ ६२ ॥ निखच ॥ दुहविवागाणं तइयं अज्झयगरस सम्मत्तं ॥ वहां उत्कृष्ट एक सागरोपम के आयुष्यमें मेरीयेने उत्पन्न होगा, नहीं अंतर गीत निकलकर मृगापुत्रकी महार परिभ्रमण करेगा यावत् पृथव्यादि के भाकर वहांन निकलकर बनारसी नगरीमें शूरुरपने उन सूपरका पालनेवाला उसे मारेगा, स से निकलकर बग्मी नगरी शेठ कुड में पुत्राने उप.ग. बाल्यावस्था से मुक्त हो दीक्षा ग्रहणकर मृगापुत्र की तरह सिद्ध होगा या सर्व दुःखका अन्य करेगा || इति दुःख विपाक का तीसरा अभग्गसेन चोर का अध्ययन संपूर्ण ॥ ३ ॥ X x O Maste For Personal & Private Use Only RBCLEA * प्रकाशक-गजबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48एकादशमांग-विपाक सत्र का प्रयय श्रुत्स्कन्ध88+ * चतुर्थ-अध्ययनम् * जइणं भंते ! चउत्थरस उक्खेवा-तणंकालणं तणंसमएणं सोहंजणगामं गयरी .. होत्था, रिद्धास्थानिय ॥ १॥ तीसणं सोहंजगीणयरी बाहया उत्तरपुग म दिमीभाए देवरमणेणाम उजाणे होत्था,तत्थणं अमोहस्स जखस्त जायगे हत्था.पुगणे॥२॥ तत्थणं सोहंजणीयरीए महच्चंदण्या होत्था महया ॥ ३ ॥ तमाम मह वदस्म रणो सुसेसेणेणामं अमच्चे होत्था, सामभयदंड णिगह कुमले ॥ ६ || ई जणिए णयरीए मुदंसगा णामं गाणया हे त्या वण ॥ ५ ॥ तत्थ गं माहंजणी णयरीए चौथा अध्ययन-उस काल उस समय में मोहंजनी नामकी नगी ऋद्ध स्मृद्धिकर मंयुयी ॥ १ ॥ इस सोहजनी नगरी के बाहिर ईशान कौन में देवरान नाम का उध्यान था, वहां अमंघमे यक्ष का यक्षायतन (देवालयथा) वह बहु काल का जीर्ण बच्च' था ॥ २ ॥ नीगरी में महाद नाम का राजा राज करता था. वह महा हिवंत तिममान था ॥ ३ ॥ उस महावद राजा के भुन नाम का प्रधान था. वह प्रधान शाम-वचनादि मे सन्मांपकर, भेद-सरसर भेद पडाकर, दंड-निग्रा करके। इत्यादि राजनीति के शास्त्र में कुशल था ॥ ४॥ तहां मोहंजनी नगरी में सदा नामकी गाणका रहती। थी, उस का वर्णन् कामन गणिका जैसा जानना ॥ ५ ॥ उस सहिंजणी नगरी में सुभद्र नामका सार्थ ।। दुःवविपाक का-चौथा अध्ययन-शकारकयार का ... For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 49 अनुवादक बालश्रमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + सुभद्दे णामं त्वा होत्था अड्डे || ६ || तस्सणं मुमद्दस्स सत्यवाहस्म भद्दा नामं भारीया होत्या अहीण ॥ ॥तस्वणं सुभद्दस्ससत्यवाहस्त पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए सगडे णामं दारए होत्था अंहीण | ८ || तेणकालणं तेर्णसमएणं समणे भगवं महाबीरे समोसरणं. परिसा राया णिग्गया, धम्मो काहओ, परिसारामा पांडेगओ ||९|| तेकाले समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जट्ठे अंतेवासी जाव रायमग्गे उगाढे. तत्थणं हत्थी आसी पुरिसे तेसिणं पुरिसाणं मज्झगयं पालई, एगंस इत्थियं वाही रहता था वह ऋद्धिवंत था || ६ || उस सुभद्र सार्थ वाही के भद्रा नाम की भार्या थी वह संपूर्ण अंगवाली सुरूप थी ॥ ७ ॥ उस सुभद्र सार्थवाही का पुत्र भद्रा भार्या का आत्मज शकट नामका कुमार ईथा वह भी सर्वांग पूर्ण सुरूप थां ॥ ८ ॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषद तथा राजा आये, धर्म कथा सुनाइ, परिदा राजा पीछे गये॥२॥उस वक्त श्रमण भगवंत के जेष्ट शिष्य गौतम | स्वामी छठ-बेलाका पारनालेने श्रमण भगवंतकी आज्ञा लेकर सोहजनी नगरी में गोचरीगये, फिरते हुवे राज्यपथं में पूर्वोक्त प्रकार ही बहुत हाथी घोडे सुटों के मध्य में एक स्त्री पुरुष का जोड़ा उलटी को सेबन्धा बुबा, जिनके कान नाक छेड़न किये, पूर्वोक्त प्रकार फूटा ढोल बजाते उदघोषता करते देखा, तैसे ही भगवंत के पास आये आहार बताया व्यतीत कर नीवेदनकर पूछने लगे-अहो भगवन्! वे स्त्री पुरुष कौन है और पूर्व जन्म For Personal & Private Use Only * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ +++ एकादशमांग- विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतवन् पुरिसं आवडगबंध उक्खत्तं जाय उघोसणचित्ता; तत्र जाब ||१०|| भगवं वागरेइ एवं खलु गोयमा ! तेणंकालेणं तेनएणं ईहेव जंबूदी वेदीचे भारहेवासे छगलपुरे यरे होत्या, तत्थ सिंह गिरीणामं रामा होत्या महया || ११|| तत्थणं छगलपुरे णयरे छणिए णामं छगलिए परिवसइ, अड्डे, अम्निर जाव दुडियाणंदे ॥ १२॥तस्वणं छष्णयछाग लियरस बहवे - अजाणय, एलाणय, रोज्झाणय, वसभाणय, ससयाणय, परायाणय सूयराणय, सिंघाणय, हरीणाणय, मयुराणिय, महिलाणिय, सहस्संबद्धाणिय, जुहा• क्या पाप का संचय किया है जिससे नरकके जैसे दुःख का प्रत्यक्षानुभव कर रहा है॥ १० ॥ भगवंत बोले यों निश्चय हे गौतम ! उस काल उस समय में इन ही संदीप के भारत वर्ष में छगलपुर नाम का नगर था, तहां सिंहगीरी नामका राजा राज्य करता था, वह महा पर्वत समान था ॥ १२ ॥ उस छात्र था और अधर्मी यावत् कुकर्म कर पूर नगर में छणिक नामका खाट की (कसाई) रहता था के आनन्द पाता था || १२ || उस छनिक खाकी के बहुत से छला बकरे, एक मेंढे, रोझ, बेल, सुनले सुबर, सिंह, हिरन, मयुर, भैंसे, इत्यादि हजारो पशुओं का युथ वांडे के विष पूरा हुवा - मराहुवा निलंबन किया वा रखा था ।। १३ ।। और भी तहां बहुत पुरुषो जिन को आहार पानी तनखा देता था, वे For Personal & Private Use Only 403 दुःखविपाकका चौथा अध्ययन - शकटकुमार का ९३ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिय वाडगंसि सण्णिरुहाई चिट्ठइ ॥ १३ ॥ अण्णेय तत्थ बहवे पुरिसा दिण्णमा भत्त वेयणा बहवे अए जाव महिसेय सारक्खमःणा संगोवेमाणा चिट्ठइ॥१४॥ अण्णेय से बहवे पुरिता अयाणय जाब गिहनिणिरुद्धा चिटुंति ॥१५॥ अण्गय से बहंव पुरिसा दिण्णभइभत्त गण! बहर आय र महिय जीवियाओ विवरोविंति २ सामंताई कप्पणी कनियाई करेइ २त्ता छाण्या गालयस्त उणे।।१६। अप्णय से बहब पुरिमा दिण्णमत वेयणाताई बहुयाई अयमंमाइये जाव महिसमसाइयं, तबएमय कयलीसुय बकरे यावत् भेनों का संरक्षण करने दाना घांस पानी की संभ ल लते चोरादि उपद्रव से बचाते हुवे विचर से थे ॥ २४ ॥ और भी बहुत में मां को बह खान पान नखादेता था वे का बकरे यावद मेंसे को बारे में गोपकर छिपाकर रक्षण कर रख थे ॥१५ ।। और भी बहुत पुरुषों को बह खाम नखादेता था, वे बहुत से पकर यावत् भेंगे का जीवित मे रहित कर मार कर, उन के मांस के छुरा आदिकर दुकटं २ कर उनछन खटोक को देने थे॥ ॥ और भी बहुनसे पुरुषों उस बहुतसे पर के माम को यावत् भैन के मां को, तावों में कडा में कुंभ (घडे) में मूंजने के लिये अग्निपर चडाकर 11 वसते ये मूला-टुकडा करते थे, सेक-भंजकर सोला कर, उस को राज मार्ग में बेचते हुये आजीविका अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलकं ऋषिनी" wwwwmammmmmmmmmmmmmmmm प्रकाशक:राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. ' For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एकादशमांग-विपाक मूत्र का प्रथम श्रुत्कन्ध488 कंदसय भजणाएसुय,इंगालेमय,तलेतिय, सोलितिय,तर्लिताय सोलिताय राय मग्गांस - वित्तिकप्पेमाणा विहाति॥१७॥अप्पणावियणं से छाण्णए छागलिए ॥१८॥ एय कम्मे पविसेसं बहुपशवकम्मं कलिकलुमं सम्मजिणिसा, सत्तवास सयाई परमाउपलिता कालमासे कालंकिच्चा चरत्थीए पुढबीए उक्कोसण दस सागरोबम टिइएस गरएसु गरइयत्ताए उबवण्ण१९॥ तएणं सुभदरस सत्यवाहस्स भदाए भारिया जावणियायावि होत्था, जाती पारगा विणिहायमावजा२.तिएणं से छािए छागलीए चउत्थीए पुढवीए अणंयरंउवाहिता इहव सोहंजगीए णयरीए सुभहस्त सत्थवाहस्स, भदाएं नारियाए कुञ्छिसि. पुत्त्चाए उवषण्णे ॥२॥तएणं सा सुभदासस्थवाहीणी अण्णयाकयाइ णवण्हं मासाणं करते हुने विकरते थे ॥ १७ ॥ वह छनिक खाटिक आप स्वयं भी उन बहुत मे बकरे का यावत् असे का मास खाता हुवा विचरता था ॥ १८ ॥ इस प्रकार वह छत्रीक कसाइ प्रधान अशुभ कर्मों का उपार्जन कर है। बहुन पापकों क्ला के कारण का मंयकर सानो वर्ष का उत्कृष्ट प्रयुगा पालन कर,काल के अवसर में काल पूर्णकर चौथी नरकमें उत्कृष्ट दशनागगेगम की स्थिनिपन नरक में नेरीयेपने उत्पन्न हुवा ॥१९॥ तब वह मुभद्र सार्थवाहींनी मृतांज्म थी उसके बालक जाते रहत नहीं थ२०॥ फिर वह छनिक खाटकी चौथी नरक से निकलकर सोइंजनी नगरी में सुभद्र सार्थवाही की भद्रा मार्या के कुक्षीमें पुश्पने उत्पन हुआ।२१॥ तब फिर । दाखविपाक का चाथा अध्ययन:शकटकुमार का - For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ ॐ अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषी बहुपडिण्णाणं दारगं व्याया ॥ २२ ॥ एणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो जायमे तंत्रसगडम टुओ वेइ २ ता दोन गिण्हावेइ २ ता अणुपुत्रेणं सारक्खइ, संगो संइ, जहा उज्झिया सुभद्दे लवणे कालगया से विगिहाओ णिछूडे ॥ २३ ॥ तएण से सगडेदारए साओ गिहाओ गिछूडे समाणे, सिंघाडगं तहेव जाव सुदंसणाए गणिए सद्धिं संपलम्यावि होत्या २४ ॥ तएवं से सुसंण अमचे तं सगडं दारगं अण्णाकयाइ सुदरसिणाए गणियाएं गिहाए णिछूभाइ २ ता सुदर्रिसणं गणियं भद्रा सार्थवाहीनी एकदा प्रस्तावे नव महीने प्रतिपूर्ण होने से बालक का जन्म दिया ? ॥ २२ ॥ तत्र उस बालक के माता पिता जन्मते ही बालक को गांडे के नीचे रखा कर रख तुर्त उठा लिया, अनुक्रममे रक्षण करती हुई गोपवती हुई दुग्धादि पानकरा वृद्धि करती हुई इत्यादि सब अधिकार दूमरे अध्ययन में उज्झित कुमारका कहा तैसा इसका भी सब जानना. विशेष में गाडे के नीचे रख उठालिया, इसगुण निष्पन्न इस का { नाम शकट कुमार दिया यावत् सुमद्र सार्थवाही समुद्र में काल माप्त हुबे, अनुक्रमसे वह पतिके शोग से भद्रा (सार्थवाहीनी भी मृत्युनाई, कोतवाल करजदारको घर सुपरतकर शकट बालकको घर से निकाल दिया, ॥२३॥ तब वह शकट कुमार निराधार निरंकुश हुन भटकता फिरता सुदर्शना गणिका सेलुब्ध बना||२४|| तब वह सुसेन नामे प्रधान अन्यदाकिसी वक्त उस शकट कुमारको सुदर्शना वैश्या के घर से निकाल कर, सुदर्शना For Personal & Private Use Only ● मकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाषजी ज्वालाप्रसादजी १३ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमांग-विपाकपुत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 128 अभिंतरए ठवेइ २ त्ता ॥ २५ ॥ तएणं से सगडेदारए सुदरिसणाओ गिहाओ . णिछुभेसमाणे अण्णत्थ कत्थइ सूइंवा खूइंवा अलभ, अण्णयाकपाइ रहस्सियं सुंदरिसणागिहंसि अणुप्पविसइ, सुदरिसणाए सद्धिं उदालाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ ॥ २६ ॥ इमंचणं सुसेणं अमच्चे हाए जाव विभूसिए मणुस्स वग्गुराए जेणेव सुदरिसणाए गणिया गिहे तेणेव उवागच्छइ.२ ता पासइ सगडंदारयं सुदरिसणाएसडिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणे पासइ, आसुरुते जाव मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडि पिडाले साहटु सगडंदारयं पुरिसेहिं गिण्हावेइरत्ता अट्ठि आव महियं करेइ,अवउडगको अपनी स्त्री बनाइ अभ्यन्तर घरमें स्थापनकी॥२६॥तब वह शकट कुमार सुदर्शन गणिकाके घरसे निकाला हुवा अन्य किसी भी स्थान रति-सुख प्राप्त कर सका नहीं. अन्यदा किसी वक्त गुप्तपने सुदर्शना गणिका के घर में प्रवेश कर सुदर्शना गणिका के साथ उदार प्रधान मनुष्य सम्बन्धी काम भोग भोगवता विचरने लगा ॥ २६ ॥ उस वक्त सुमेन प्रधान भी स्नान कर वस्त्रभूषणादि से अलंकृत हो मनुष्यों के परिवार से है परिवरा हुवा जहां सुदर्शन गणिका का घर था तहां आया, आकर सुदर्शना गणिका के साथ शकट बालक को उदार प्रधान भोग भोगवता देखकर, शीघ्र ही क्रोधातर हुवा सर्प के ज्यों फंफाटे करता हवाई तीनशल्य निलाडपर चराकर शकट वालकको अन्य पुरुषके पास एकडाया,पकडाकर ईटों पथरों लातों घुटने दुःखविपाक का तीसरा अध्ययन-चौथा शकस्कु For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 42 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी बंधणं करेइ, जेणेव महचंदेराया तेणेव उवागच्छइ रत्ता करयल जाव एवं वयासी एवं खलु सामी ! सगडेदारए ममं अंतपुरियंसि अवरद्धे ॥ २७ ॥ तणं से महचंदेराया सुसेणं अमचं एवं वयासी तुमं चेवणं देवाणुपिया ! सागडस्स दारगरस दंडनितेहिं ॥ २८ ॥ तरणं से सुसेण अमचे महच्चंदेणं रण्णा अब्भणुष्णाए समाणे सगडं दारयं सुदरिमणं च गणियं एएणं विहाणेणं वज्झं आणवेइ ॥ २९ ॥ तं एवं खल गोयमा ! सगडेदारयं तं पुरापोराणाणं दुश्चिण्णाणं जाव विहरइ ॥ ३० ॥ सगडेणं भंते! दारए कालगए कहिं गच्छहिंति कहिं उववजिहिंति ? गोयमा ! खुनीकर खूबमराया, उस की हडीयों नोड डाली, दही के ज्यों मथन किया, उल्टी मुमकों से बन्धा, जहां { महाचंदराजा था तहां लाया, लाकर सावंदरावासे हाथ जोडकर यों कहने लगा-यों निश्चय हे स्वामी! इस शकट कुमारने मेरे अन्ते पुर में अत्याचार किया है ॥ ५७ ॥ तब महाचंद राजाने सुबेन प्रधानसे कहा, हे देवानुप्रिय ! तुम ही तुमारी इच्छा प्रमाने शब्द कुमार को जैना जानो वैसा दंडकरो ॥ २८ ॥ तब फिर वह सुसेन प्रधान महाचंद राजाकी आज्ञा हुने शकट कुमारको और सुदर्शन गणिकाको हे गौतम तुमने देखा उस प्रकार बन्धन में न्धकर मारने की आज्ञा दी है ।। २१ । इसलिये हे किये बहुत काल के पाप के फल भोगवता हुवा विचर रहा है ॥ ३० ॥ For Personal & Private Use Only गौतम! शकट कुमार पूर्वोपार्जन भो भगवन् ! शकट कुमार ● प्रकाशक - राजबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजो ९८ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +8+ एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध +8+ सगडेणं दारए सत्तावण्णं वासाई परमाउपालइत्ता अजेव तिभागावसेसे दिवसे एंगे * महं अउमयं तत्तं समजोइ भूयं इत्थी पडिमं अवतासाविए समाणे कालमासे कालं. किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए मेरइयत्ताए उववजिहिं ॥३१॥ सण तओ अणंतरं उध्वहित्ता रायगिहे णयरे मातंगकुलंसि जमलत्ताए पञ्चायाहि ॥ ३२ ॥ तएणं तस्स दारगरस अम्मापियरो णिवत्तबारसमस दिवसस्स इमें एयारूवं णामधेनं करिस्संति, होउणं दारए सणणामेणं होउणं दारिए सुदस्सिणा णामणं ॥ ३३ ॥तएणं सेसगडे दारए उमुक्कयाल भावे जोवणगमणुपत्तं भरिसइ ॥ ३४ ॥ तएणं सा सुदरिसणा काल के अवसर काल करके कहां मारेगा. कहां उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! शकट कुमार संचावन वर्ष का उत्कृष्ट आयुष्य भोगव कर आज दिन के तीसरे भागमें एकबडी लोह-पोलाद की स्त्री की प्रतिमा (पुसली) अनिमे ऊष्णकी हुई अग्नि वर्ण समान उसका का शकटकुमार को ढालिंगन कराने से कालके अवसर काल करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी में मेरीपने उत्पन्न होगा ॥ ३१ ॥ तहां से अंतर रहित निकलकर राजग्रही Kनगरी में चांडाल के कुल में युगल-जोडेपने उत्पन्न होंगे ॥ ३२ ॥ तब फिर बालक के मातापिता इग्यारवे 3 दिन अतिक्रमे पारवे दिन इस प्रकार नाम स्थापन करेंगे-पुत्र का शकट नाम और पुत्री का सुदर्शना नाम देंगे ॥ ३३ ॥ तब फिरु शकट बालक बाल्यावस्था से मुक्त हो यौवन अवस्थाको प्राप्त होगा। Ammmmmm दुःख विपाक का-चौथा अध्ययन-श For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी में वि दारिया उमुक्कबालभावा विण्णाय जोव्यणगमणुपता रूवेणय जोवणेणय लवण्णेणय उक्किट्ठा उकिट्ट सरीरया भविस्सइ ॥ ३५ ॥ तएणं से सगडेदारए सुदरिसणाए रूवेणय लावण्णेणय जोवणेणय समुच्छिए ४ सुदरिसणाए भगिणीए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंज़माणे विहरिस्सइ ॥ ३६ ॥ तएणं से सगडेदारए अण्णया कयाइ सयमेव कुडग्माहत्तं उत्रसंपजित्ताणं विहरिस्सइ ॥३७॥ तएणं से सगडदारए कूडग्गाहे भविस्तइ अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे .. ॥ ३८ ॥ एयकम्मेसु बहुपाबं जाव समजिणित्ता कालमासं कालंकिच्चा इमीसे रयण॥ ३४ ॥ तच फिर वह सुदर्शना कुमारी भी बाल्यावस्था से मुक्त हो यौवनावस्था को प्राप्त होगी, शरीर की क्रान्ति आकार उस का संयुक्त यौबन वय विशेष कर लावण्यता-स्त्री की चेष्टा कर प्रधान स्त्र लक्षण कर प्रधान इस प्रकार होगी ॥ ३५ ॥ तब फिर वह शकट बालक उस मुदर्शना के रूप में यौवन में लावण्यता में मूञ्छित हुवा अपनी बहिन के साथ उदार प्रधान मनुष्य सम्बन्धी काम भोग भोगवता विचरेगा ॥ ३६॥ तब शकट बालक एकदा प्रस्तावे कूडग्राही-चुगलखोरका होदा प्राप्त करेगा ॥३७॥ तब र वह शकट बालक कूडग्राही अधर्मी यावत् कूकर्म कर आणन्द प्राप्त करेगा ॥ ३८ ॥ यों महा पापका * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्व प्रलदजासी. - For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ एकादशम्मकिपाक मूत्र का प्रथम श्रुत्स्स.न्ध 422 प्पभाए पुढवीए णेरइएत्ताए उबवण्णे, संसारो तहेव जाव पुढवीसेणं, तओ अणंतर उवाहित्ता वाणारसीए णयरीए मच्छत्ताए उववजिहि, तिसेणं तत्थणं मच्छ मच्छ बंधिएहिं वहिए, तत्थेव वाणारसीए णयरीए सेटुिंकुलंसि पुत्तत्ताए पञ्चायाहिंति, बोहिं पवजा सोहम्मेकप्पे. महाविदेह वासे · सिज्झिहिंति ॥ ३९ ॥ णिक्खवो दुहविवागरस चउत्थं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ४ ॥ उपार्जन कर काल के अयसर में काल पूर्ण कर इस ही रत्नप्रभा पृथ्वी में नेरीयेपने उत्पन्न होगा, तहां से अन्तर रहित निकलकर बनारसी नगरी में मच्छपने उत्पन्न होगा, तहां मच्छ वधक के मारने से उस ही वनारसी नगरी में शेठ का पुत्र हो दीक्षा धारन करेगा, वहां सेआयुष्य पूर्ण कर सौधर्मा देवलोक में देवता देशा, वहां से महा विदेह क्षेत्र में जन्म ले संयम ले मोक्ष प्राप्त करेगा ॥ ३९ ॥ निक्षेप ॥ इलि. दुःख विषाक का शकंटकुमार का चौथा अध्ययन संपूर्णम् ॥ ४ ॥ दुःख विपाक का-चौथा अध्ययन-शकटकुमार का 8 क For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक अपिजी ॥पञ्चम-अध्ययनम् ॥ जाणं भंते ! पंचयरस अज्झयणस्स उक्खेत्रओ-एवं खलु जंबू ! तेणंकालेणं तेणं. समएणं कोसंबी णामं णयरी होत्था, रिद्धत्थमिय, वाहिं चंदोतरणे उज्जाण, सेयभद्दे जक्खे, ॥ १ ॥ तत्थणं कोसंबीय णयरीए सयाणिए णामराया हो था, महयाहिमवंत ॥ २ ॥ तस्सणं सयाणिस्त रणगो मियावती णामं देवी होत्था, अहर जावरूवा ॥ ३ ॥ तस्मण सयाणिस्स रण्णा पुत्ता मिपावतीए देवीए अत्तए उदयणे णाम कुमारे होत्था, अहीण जाव जयराया ॥ ४ ॥ तस्सगं उदयणस्स कुमाररस पउमावइणामं पांचवा अध्ययन-यों निश्चय हे जम्बू ! उस काल उम ममय में कोसंबी नाम की गरी ऋद्धि सगरूर सयुकपी. कोसंबी नगीक वाहिर ईशान कौन में चन्द्रोतर नामका उध्यान था, उस मे श्वनभद्र यक्ष का यक्ष यतन था ॥१॥ तहां कोमंबीगरी में मताकि नाम का राजा राज्य करता था. वर वडाहिमवंत पर्वत ममान था ॥२॥ सनानिक राजा के मृगपती नामकी गनी संपूर्ण अंगाली सुरूषाथी ॥ ३ ॥ सतानीक राजा का पुत्र मृगावती रानी का अंगजत उदयन न म कगार था, वह मर । इन्द्रियकराल सहित था उसे युव राजपद पर स्थापन किया था ॥ ४ ॥ उदयन कुमार के पद्मावती नामकी देवीया ॥५॥ .प्रकाशक-राजावडादर लाग सुखदेवसहायजी जालापमादजी. Bot For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 एकादशमांम विपाकसूत्र का प्रथम श्रुनस्कन्ध att देवी हो ॥५॥ तत्थगं मयाणियस्त सोमदत्ते णामं पुरिहिए होत्या, रिउवेदेयजुवेदे जाव बंमणयेमु कुल ॥६॥ तस्सणं सोमदत्तस्स पुरोहियस्म वसुदत्ता णाम भारिया होत्था ॥ ७ ॥ तस्मण सोमदतपुत्ते वसुदत्ताए अत्तर वहस्मईदत्ते णामं दारए होत्था अहोणा८॥ तंगकालेगं तेगंसमएणं समण भगवं महावीरे समोसरिए॥९॥ तेणंकालणं तेणंसमएणं भगवं गोयमे तहेव जाव रायमग्गं उग्गाढे तहेव पामइ हत्थी आसे पुरिसे मझेपरिसं, चिंत्ता तहेव पुच्छइ-पुव्वं भवं॥१०॥ भगवं वागरेइ एवं खलु गोयमा ! तेणंकालेगं तेणंसमएणं इहेब जंबुद्दीने २ भारहवास सव्वओभदे णामं णयरी होत्था उम संसानिक राजा के सोमदत्त नामका पुरोहित था, वह ऋजुवेद यजुरवेद शामवेद अनवेद चारोवेंद आदि बहुत शस्त्र का जान था ब्राह्मण विद्या में कुशल या ॥ ६॥ सामदत्त पुरोहित के वसुदत्ता नामकी भार्या थी ॥ ७ ॥ उस सोमदत्त का पुत्र वसुदत्ता का आत्पज बृरस्पतिदत्त नाम का पुत्र वह पांचों इन्द्रय कर पूर्ण था ॥८॥ उन काल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी समोमर ॥९॥ काल उस मक्य में भगवंत गौतम स्वामी पूर्वोक्त गति प्रमाणे गौचरी पधारे. फिरते हुवे राज्यपंथ में ममान हाथी घडे पुरूषों के बृन्द में एक पुरुष बन्धा में बन्धा देखकर चिन्ता उत्पन्न हुई. पूर्वोक्त प्रकार भगवंत से पूर्वभव पूछा ॥ १० ॥ भगवंतने कहा-यों निश्चय हे गौतम ! उस काल उस समय में इस ही :ख विपाकका-पांववा अध्ययन बृहस्पनिदत्त का । For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिद्वित्थमिय ॥ ११ ॥ तत्थणं सव्वओभद्दे णयरे ‘जियसत्तू णाम राया होत्या ॥ १२ ॥ तत्थणं जियसत्तुस्स रण्णो महेसरदत्तेणामं पुरोहिए होत्था, रिउबेय ४ जाव अत्थव्वण कुसलेयावि होत्था ॥ १३ ॥ तएणं से महेसरदत्ते पुरोहिए जियसन्तु स्स रपणो रजबल विवरण द्वयाए कल्लाकल्लिं एगमगं माहण दारगं एगमेगं खसिय दारंगं, एगमेगं, वइस्स दारगं, एगमेगंसुद्द दारगं गिण्हावेइ २ त्ता तेसिं जीयतगाणं चव हियेउडए गिण्हावेइ २ त्ता जियसत्तुस्स रणो संति होमं करेइ २ ॥ १४ ॥ तएणं से महेसरदत्ते पुरोहिए अट्ठमी चउदिसीसु दुवे २ माहण खत्तिय वइस्स सुद्दे, अंबुद्वीप के भरत क्षेत्र में सर्वतो भद्र नाम की नगरी ऋद्धिस्मृद्धि युक्त थी ॥ ११. उस सर्वतो भद्र नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था ॥ १२ ॥ जितशत्रु राजा के महेश्वरदत्त नाम का पुरोहित था, वह ऋजु आदि यावत् अवनवेद में कुशल था॥१३॥ तब फिर वह महेश्वरदत्त पुरोहित जितशत्रु राजा के राज्यबल - की वृद्धि के लिये सदैव (दिन २ परते ) एकेक ब्राह्मन का पुत्र, एकेक क्षत्रीका पुत्र, एकेक वैश्य का F पुत्र और एकेक शूद्रका पुत्र यों चार लडको को पकडकर उन के जीवते का हृदय का मांपिंड निकाल Me कर जितशत्रु राजा के मुख शान्ति के लिये होम करता था, ॥ १४ ॥ तब फिर वह महेसरदत्त पुरोहित, 17 अष्टमी चतुर्दशी के दिन-दो ब्राह्मण के, दो क्षत्री के, दो वैश्य के, और दो शूद्र के यों ८ बालको को मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अर्थ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * 4.3 अनुवादक-वाल For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 एकादशमांग-विपाकपुत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध8+ चउण्णं मासाण चत्तारि२, छह मासाणं अटू२, संवच्छरस्स सोलस्स२, जाहेर विथणं जियसत्तूणं राया परबलेणं अभिभुज्जइ ताहे तहिं वियणं से महेसरदत्ते पुरोहिए अट्ठसयं माहणं दारगाणं, अट्ठसयं खत्तिय दारगाणं, अट्ठसयं वइस्स दारगाणं,अटुसयं । सुद्ददारगाणं, पुरिसेहिं गिण्हावेइ २ ता तेसिं जीवंताणं चेव हय उडियाओ गिण्हावे २ त्ता जियसत्तुस्स रण्णो संतिहोमं करेइ ॥ १५ ॥ तएणं से परघले खिप्पामेव विसइ वा पडिसेहिजइबा ॥ १६ ॥ तएणं से महेसरदत्ते पुरोहिए एयकम्मे ४ . सुबहु पावं जाव समजिणित्ता तीसंवास सयाई परमाउपालिता, कालमासे कालं है पकडाकर उक्त प्रकार मारता था, चौमासीर( चार २ महीने ) में चार ब्राह्मण के यावत् चार शूद्र के यो बालको को मारता था, छे छे महीने में आठ ब्राह्मण के यावत् आठ शूद्र के यों ३२ लडको को इमारता था, और वर्षों वर्ष सोला ब्राह्मण के बालक यावत् सोला शटक बालक यों ६४ बालकों को मार ता था, और जिस २ वक्त जितशत्रु राजा पर शत्रु के कटक का भय तथा ओचाट उत्पन्न होता था तब १०८ ब्राह्मण के पुत्र, १०८ क्षत्री के पुत्र, १०८ वैश्य के पुत्र और.१०८ शूद्र के पुत्र, यों ४३२ लडको को आपके पास पकडाकर मंगाता उनका जीवतेका कलेजका मांस पिंड निकालकरजितशत्र राजा के मख शान्ति के लिये होम करता था॥१५|| इस प्रकार करने से अन्यका कटक कितनाही प्रवल्प होतो पीछा फिर जाता था, दिशोदिश भगनात था, या विंद्वश पाता था ॥१६॥ -~-unmaavamahanmammmmmmmmmmAAAAmawaanwa दुःखविपाक का-पांचवा अध्ययन-ब्रहस्पतिदत्त का For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + किच्चा, पंचामए पुढवीए उक्कोसेणं सत्तर सागरोवमट्टिई णरएष उववष्णे, सेणं तओ अणंतरं उत्रहित्ता इहेव कोसंबीए णयरीए सोमदत्तस्स पुरोहियस्स वसुदत्ताए भारियाए पुत्तत्ताए. उववणे ॥१७॥ तएणं तस्स दारगरस अम्मापियरो णिवत्त बारमाहस्सदिवस इमं एयारूवं णाधिज करेइ, जम्हाणं अह्म इमे दारए सोमदत्तस्म पुत्ते वसुदत्ताए अत्तए लम्हाणं. होउ अमदारए दारए वहस्सइंदत्तेगामेणं॥१८॥तएणं से वहस्सइदत्ते दारए पंचधाई परिग्गहिए जाव परिवड्डइ॥ १९॥तएणं से वहस्सइदत्त दारए उमुक्कपाल तब फिर वह महेसरदत्त पुरोहित इस प्रकार के कर्म कर अतिपाप का उपार्जन किया, वो नीन हजार वर्ष का प्रतिपूर्ण आयुष्य भोगवा जिसमें एमा महापाप उपार्जन कर आयुष्य पूर्णकर पांचवी इनरक में उत्कृष्ट सतरा सागरोपम के आयुष्यपने उत्पन्न हुआ. तहां से अन्तर रहित निकलकर इस ही| कोमंबी नगरी में सोमदत्त पुरोहित की वसुदत्ता भार्या की कुक्षी में पुत्राने उत्पन्न हुवा ॥१७ सब फिर उस बालक के माता पितानबारे दिन गुगतान उचालक का नात्र स्थापन किया, जि लिये हमारा यह बालक सोमदत्त का पुत्र सत्ता का आत्मजत है इलिये हमारे इस पुत्र का नाम बृहस्पति ॥ १८॥ तब वह बहरपातेदत्त बालक पांच धाय मे परिवरा या बद्धि पाने गा ॥१९॥ * प्रकाशक-राजावादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी. अर्थ दक्ष होवो For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ एकादशमांग विपाकमूत्र का प्रथम अतस्कन्ध 48 भावे जोवण विण्णाय होत्था, उदयणस कुमाररस पिय बाल वयस्स पयावि होत्था, सहजायए सहवडियए महापसु कीलियए ॥ २०॥ तएणं से मययाणिए राया अण्णया कयाइ काल धमत्रा संजत॥२१॥तएणसे उदयणे कुमार बहुहिं राईसर जाव संपरिबुडे-रोयमाणे कंदमाण विलबमाणे सयाणियरस रण्णो महयाइ इड्डीमकार समुदएणं णीहरणं करइ २ त्ता बहुइं लोइयाई मयकिच्चाई करेइ ॥ २२ ॥ तएणं से बहवे राईसर जाव सत्थवाहे उदयणं कमारं महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचइ ॥ २३ ॥ तएणं से उदयणे कुमारे रायाजाए महया हिमवते ॥ २४ ॥ तएणं से तबफिर वह वृहस्पनिदत्त बालक बल्यावस्था से मुक्त हुवा यौवन अवस्थाको प्राप्त हुवा, तब उदयन कुमारका प्रियकारी बाल मित्र हुवा, पाथ में जन्मे साथ में वृद्धि पाये माथ में रजु (धूल) क्रीडा की ॥ २० ॥ तब वह संतानीक राजा एकदा प्रस्तावे काल धर्म प्राप्त हुगा ॥ २१ ॥ तब फिर उदयन कुमार बहुत राजा प्रधान प्रमुख यावत् सार्थवाही आदि साथ परिवरा रूदन करता अक्रन्द करता विलाप करता मंतानिक राजा के शरीर का महा ऋदि सरसा समुदाय कर निहारन किया, फिर लोकीक सम्बन्धी बहुत से मृत्यु Ta कार्य किये ॥ २२॥ तब फि बहुत से राजा प्रधान शेठ सनापति सार्थवाद मिलकर उदयन कुमार का महा मंडान से राज्याभिशष किया॥२६॥तब फिर उदयन कुमार राजा हुवा महा हिमवंत पर्वत समाना२४॥ ammaaranamannaamanmannamanna. 4. दुःखविषाक का-पविवा अध्ययन-बार पतिदत्त का For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहस्सइदत्ते दारए उदयणस्सरण्णो पुरोहिए उदयणस्स रण्णो अंतेउरे वेलासुय अवेलासुय कालेसुय अकालेसुय राउय रियालेय पविसमाणे, अण्णयाकयाइ पउमावइदेवीए सद्धिं संपलग्गेयावि होत्था, पउमावइ देवीए सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाण विहरइ ॥ २५ ॥ इमंचणं उदयणे राया बहाए जाव विभूसिए जेणेव पउमावईदेवी तेणेव उवागच्छइ २ त्ता वहसाइदत्तं परोहियं पउमावईए सद्धिं उरालाइ भोगभोगाई भुंजमाणे पासइ २ त्ता आसुरुत्ते तिबलियं भिउडिं णिलाडे साह९, वहस्सइदत्तं पुरोहियं पुरिसेहिं गिण्हावेइ २ ता जाव एएणं विहाणेणं यन्झ आणवइ ॥ २६ ॥ तब फिर बृहस्पतिदत्त बालक उदयन राजा का पुरोहित हुवा, उदयन राजा के अंसेपुर में, वक्त में वे वक्त में भोजन के काल, शयन के काल, तीसरे प्रहर प्रथम प्रहर रात्रि को सन्ध्या को प्रवेश करता हुवा, एकदा प्रस्तावे पद्मावती देवी के के साथ आसक्त हुवा लुब्ध बना, यावत् १मावती रानी के साथ उदार प्रधान मनुष्य सम्बन्धी भोगोपभोग भोगवता विचरने लगा !॥ २५ ॥ इस वक्त उदयन राजा स्नान करके यावत् वस्त्र भूषण से भूषित हो जहां पद्मावती देवी थी तहां आया, तहां आकर वृहस्पतिदत्त पुरोहित को पद्मावती रानी के साथ उदार प्रधान भोग भोगवता हुवा देखा, देखकर शीघ्र क्रोधातुर होकर त्रीवली निलाड पर चढाकर वृहस्पति को सुभटों के पास पकडकर हे गौतम ! तुमने देख आये इस 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ** प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * अर्थ | For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + 48+ एकादशमांग-विपाकमूत्र का प्रथम श्रुतस्फ एवं खलु गोयमा ! वहस्सइदत्ते पुरिहिए पुरापोराणाणं जाव विहरइ ॥ २७ ॥ वहस्सइदत्तेणं भंते ! दारए इओकालगए काहं गच्छिहिति कहिं उपवाजिहिंति ? गोयमा ! वहस्सइंदत्तेणं दारए पुरोहिए चउसटुिं वासाइं परमाऊपालिता, अजेव तिभागावसेसेदिवसे सूलीमिणकए समाणे कालमासे कालंकिच्चा, इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए. संसारो तहेव पुढवीए, तओ हत्थिणाउरे णयरे मियत्ताए पञ्चाइस्सइ, सेणं वस्थवाउरिएहि वहिए समाणे तत्थेव हत्थिणाउरे सेट्टिकुलंसिं पुत्तत्ताए, बोहिं सोहम्मे कप्पे, महाविदेहे सिज्झिहिंति. णिक्खेबो ॥ २८ ॥ पंचमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ५॥ प्रकार बन्ध करने की मारने की आज्ञा दी है ॥ २६ ॥ यों निश्चय है हे गौतम ! वृहस्पति पुरोहित पूर्वजन्म में जन्मान्तर में बहुत काल के संचित कर्मों के फल भोगवता हुवा विचरता है ॥ २७ ॥ अहो भगवन ! यह बृहस्पतिदत्त यहां से आयुष्य पूर्ण कर कहां आयगा कहां उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! बहस्पतिदत्त पुरोहित चौसट वर्षका उत्कृष्ट आयुष्य भोगव कर आज दिन के तीसरे भाग में शुली से भिन्न शरीर किये काल के अवसर काल पूर्ण करके प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होगा, फिर मगा पुत्र की तरह बहुत काल संमार में परिभ्रमण कर यावतू पृथ्वी से निकलकर हस्तिनापुर नगर में मृगपने उत्पन्न होगा, वह मृग वागरी के हाथ से मृत्यु पाकर उस ही हस्तिनापुर नगर में शेठ के कुल में पुत्र उत्पन्न होगा समर्कित युक्त चारित्र अंगीकारकर सौधर्मा देवलोकमें देवताहोंगा. वहांसे महाविदेह क्षेत्र में जन्मे सले दीक्षा ले, मुक्ती जावेगा॥२८॥निक्षेप, दुःख विपाक सूत्रका बृहस्पतिदत्तका पांचवा अध्ययन संपूर्ण॥२॥ 48 दुःखविपाकका-पांचावा अध्ययन-बृहपतिदत्त का For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * षष्टम-अध्ययनम् * जइणं भंते ! छट्ठा उक्लेवो-एवं खलु जंबू । तेणंकालेगं तेणंसमएणं महुरा णयरी, भंडीरे उजाणे, सुदरिसणे जक्खे, सिरिदामेराया, बंधुसिरी भारिया, पुत्ते गंदिसेणे णामं कुमारे, अहीण जाव जुबराया ॥ १ ॥ तस्सणं सिरिदामस्स सुबंधुणामं अमचे होत्था, साम दंडे भेय ॥ तस्सणं सुबंधुस्स अमच्चस्स बहुमित्ता णामं भारिया होत्था ॥ २ ॥ तस्सणं सुबंधस्स अमच्चस्स बहुमित्तीपुत्ते णामं दारए होस्था अहीण ॥ ३ ॥ तस्सणं सिरिदामस्स रणो चित्तेणामं अलंकारिए होत्था, सिरिदामस्स रण्णो चितिं बहुविहं अलंकारिय कम्मं करेइमाणे सबट्ठाणेसु सम्व भहो भगवन् ! छठा भध्यपन का आधिकार कहिये-यों निश्चय हे जम्बू! उस काल उस समय में मथुरा नामे नगरी थी, बाहिर भंडीर नाम का उद्यान था, उस में मुदर्शन यक्ष का यक्षालय या, श्रीदाम नामे राजा था, उस की बंधुश्री नाम की भार्या थी, उन का पुत्र नन्दीसेन नाम का कुमार था, यह संपूर्ण इन्द्रिय धारक यावत् युवराज्यपद पर स्थापन किया हुआ था॥१॥ श्रीदाम गजा के सुबन्धु नाम काब प्रधानपा. बह शाम-पचनादि कर संतोषना,दंडनादेना,और भेद-परस्परफुटपडानाइत्यादि राज्य नीतिका जानथा उस सुबन्नु आमत्य-प्रधान के बटुमित्रा नाम को स्त्री धी ॥२॥ उन के बहुमित्रा नाम का पुत्र था वह सर्व इन्द्रिय कर पूर्ण था ॥ ३ ॥ श्रीदाम राजा के चित्र नाम का अलंकारी (नापिक): • प्रकाशक राजाबहादुर डाला मुखदेवसहायजी वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ momrrARAAAAman भमियासु अंतेउरेय दिण्णवियारेयावि होत्था ॥ ४ ॥ तेणंकालेणं तेणसमएणं सामी समोसड़े परिसारायाय णिग्गओ जाव पडिगया ॥ ५ ॥ तेणंकालेणं तेणंसमएणं समणस्स जेट्टे जाव रायमग्ग उगाढे तहेव हत्थी आसे पुरिसे, तेसिंचणं परिसाणं मज्झगयं एगंपुरिसं पासइ २ त्ता जाव करणारीसंपरिबुडं, तएणं तं पुरिसं रायपुरिसा चच्चरंसि तत्तंसि अउमयंसि समजोइयति सिंहासणंसि णिवेसावेइ, तयाणं तरंचणं पुरिसाणं मझगयं बहुहिं अयकलसेहिं तत्तेहिं समजोइ भूएहिं अप्पे गइयाणं तंबभअलंकार (मुरन ) का करनेवाला था, वह श्रीदाम राजा का आश्चर्यकारी विविध प्रकार बहुत पोधकर अलंकार कर्य! नापितपना ] करता था उसको सर्व प्रकारसे शैय्या भोजनादि पर्ष स्थानों में सर्व भमि का प्रसाद कोठारादि में अन्ते पुर में प्रवेश करने की रानाने-आज्ञा रजा दी थी॥४॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषदा बंधन करने गई, धर्म कथा श्रवण कर परिषदा पीछी गई ॥ ५॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के जेष्ट शिष्य पूर्वो प्रकार भिक्षार्थ नगरमें फिरते हाथी घोडे मुमटों के बृन्दमें एक पुरुषको देखा-वह बहुत स्त्री पुरुषों के परिवारसे परिवार हुवा है, उस पुरुष को बहुत राज्य पुरुषों चौरास्ते में तप्त किया लोहा का अमि समान सिंहासनपर 15 बैठाया है, फिर उस पुरुष को लोह के कलश अग्नि समान तप्तकिये उन में से कितनेक काल में ताम्मे का?" ११ एकादशमांग-विपाक मूत्रका प्रथम भ्रवस्कन्ध 42 दुःख विपाकका छठा अध्ययन नन्दी केनकुमार का For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + रिएहि, अप्पेतउपभरिएहि, अप्पेसीसग भरिएहि, अप्पेकल २ भरिएहि, अप्पेखारतेलभरिएहिं, महया २ रायाभिसेएणं, अभिसिंचइ ॥ तयाणं तरंचणं तत्तअउमयं समजोइ भूयं अउमय सडासगं गहाय हारंपिणडइ, तयाणं तरंचणं हारं अद्धहारं जाव पर्ट मउडं, चिंता तहेव पुच्छा जाव वागरेइ ॥ ६ ॥ एवं खलु गोयमा ! तेणंकालेणं तेणंममएणं इहेव जंबूहीवें २ भारहेवासे सीहपुरे णामं णयरे होत्था रिडत्थमिय ॥ तत्थणं सीहपुरे णयरे सीहरहे णामं रायाहोत्था ॥ ७ ॥ तस्सणं AE गरम किया हुवा रसभरा है कितने कलशमें तरूआ (कधीर) का तप्त रसभरा है, कितने कमें सीसाका सप्तरस भरा है. कितनेक कलशमें तीक्षण चाणादिमिश्रीत गरमपानी भरा है कितनेक कलसमें क्षार भरा है. उनकलशों उनके शरीर परसींचन कराते उसे स्नान कराते हुवे महामंडाग-आडम्मर करके राज्याभिजेषकर रहे हैं.' उस पुरुष को तप्त किये अग्नि समान लोहे के अठारासरेहार, अर्धहार नवसर यावत् मस्तक का टोप मुकट धारनं करा रहे हैं-पहना रहे हैं. इस प्रकार उस पुरुष को देख कर गौतम स्वामी को पूर्वोक्त विचार हुवा यावत् भगवंत पास आये सर्व वृत्तान्त मुनाया, और पूछा कि इस पुरुपने पूर्व जन्म में ऐसा क्या कर्म किया है कि जिससे यहमत्यक्ष नरक जैस दुःखका प्रत्याक्षानुभवकर रहा है?॥३॥तब भगवंत बोले-यों निश्चय रहे गौसम ! उस काल उस समय में इस ही जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सींहपुर नाम का नगर ऋद्धि *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी! For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ And M का प्रथम श्रुनन्ध 48 एकादशमांग-विपाकसूत्र AIL सीहरहस्स रगणो दुजोहणे णाम चारगपालए होत्था, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे ॥ ८ ॥ तस्तणं दुजोहणस्स चारगपालस्स इमेयरूवे चारगभंडे होत्था-तस्सणं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे अयकुंडीणो-अप्पेगइयाओ तंबभरियाओ, अप्पेगइयाओ, तउभरियाओं, अप्पेगइया सीसगभरियाओ, अप्पेगइया कलकल भरियाओ,अप्पेगइया खारतेल भरियाओ; अगिणीकायंसि अद्दहियाओ चिट्ठति ॥ ९॥ तस्सणं दुजोहणस्स चारगपालइसे बहवे उहियाओ आसमुत्त भरियाओ, अप्पेगइयाहत्थीमुत्त भरियाओ, समृद्धि कर युक्त या तहां सिंहपुर नगर में सिंहस्थ नाम का राजा राज्य करता था ॥७॥ उस सिंहस्थ राजा के दुर्योधन नाम का चोर का रक्षपाल (जेलर ) था, वह अधर्मा पापट यावत् कुकर्म कर आनन्द प्राप्त करताया ॥८॥ उस दुर्योधन जेलर के चोरोंको सजा देने के इस प्रकार के उपकरणो का संग्रह किया या उस दुर्योधन जेलर के बहुतसी लोह के कूडे थे उस में से किसी में तांबे का उकाला हुवा रस भरा था, किसी में तरू का तप्तरस भराथा,किसीमें साँसेका उष्णरस भराथा,किसी तीक्षण चूर्ण मिश्रित गरमा गरम पानी भराथा, कितने में अति तीक्षण तेजापादि क्षार भरा था, कितनेक में में उष्ण तेल भगथा, यह सब अग्निपर उकलते२ रकरखे हुवे थे ॥ ९ ॥ उस दुर्योधन जेलर के बहुत से मट्टी के कुंडे थे. उन में से कितनेक में अश्व-घोडे का मूत. भर रक्खा था, कितनेक में हाथी का मूत भरा था, कितनेक में ऊंटका मूत भरा था, किसनेक में 4 दुःखविपाक का छठा अध्ययन-नन्दासन For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अप्पेगइया उट्टसुमुत्त भारियाओ, अप्पेगइया गोसुमुत्त भारियाओ, अप्पेगइया एलयसुमुत भारियाओ, अप्पेगइया महिसमुत्त भारियाओ बहुपडिपुण्णाओ चिट्ठइ ॥ १० ॥ तरसणं दुज्जोहणस्स चरगपालस्स बहवे - हत्थंडुयाणय, पायंडुयाणय, हडीणयया, {णियलाणय संकलाणय पुंजाय णिगराय सणिखित्ता चिट्ठति ॥ ११ ॥ तरसणं दुज्जो - हणस्स चारगपालस्स बहवे बेणुलयाणय, चिचा छिबाणं कसाणय वायरासीणय पुंजागिरा चिट्ठेति ॥ १२ ॥ तस्मणं दुज्जोहण चारगपालस्त बहवे सिलाणय, उडाण मोग्राणय, कण्णगराय पुंजाणिगरा चिट्ठइ ॥ १३ ॥ तस्सणं दुज्जोहण चारगपालस्स गौका मूत भरा था, कितनेक बकरे का मूत भरा था, कितनेक में भैंसों का मून भरा था, इत्यादि कर प्रतिपूर्ण भर कर वे कूंडे घडे रक्खे थे, ॥ १० ॥ उस दुर्योधन जेलर के बहुत से हाथ के बन्धन -हथकडी, पांव के बंधन - बेडी, खोडा बेडी सयुक्त, सांकलो, बडी बेडीयों इत्यादिकों का दगकिया हुवा रक्खाथा ॥ १.१ ॥ उस दुर्योधन जेलर के बहुतसी बांसकी लता (छडीयों) बेंतकी लता, काष्टकी लता, अम्बलीकी कांचा (छडी) चमडेकी लता-चाबुक, वांक-सनकी डोरीयों, ताडन करनेको मारनेको ढगकर रक्खी थी ॥ १२ ॥ उम दूर्योधन { जेलर के, बहुतसी पत्थर की छोटी सिला, बडी लठीयों- मुद्गर तथा मोगरीयों, जागर हलों इत्यादिका मारने के लिये { संग्रह कर रक्खा था || ११ | उस दूर्योधन जेलर के बहुतसी तांत समान मजबूत अतीपतली (बन्ध से For Personal & Private Use Only * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाषजी ज्वालाप्रसादजी * ११४ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ +8+ एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध 428 वरताणय, वागरज्जणय, बालसत्तरज्जणय. पंजाणिगरासंचिद्ध १४॥ तस्सणं दुजोहण चरगपालस्स बहवे अखिसागर करपत्ताशय, सस्पताणय, कलंबचीर पसाणय पुंजाणिगरा संचिट्ठइ ॥१५॥ तस्मण दुजायण चरमपालस्स बहरे लोहखी- . , लणाय कडसकराणय, अलिपत्ताणय पुंजाणिगरा संचिट्ठ॥ १६ ॥ तस्सणं दुजायण चरगपालस्स बहवे सुच्चीणय मंडणाणय कोटिलाणय पुंजाणिगरा संचिट्ठइ ॥ १७ ॥ तस्सणं दुजोहण चारगपालस्ट बहवे सत्थाणय पिप्पलाणय कुहाडाणय, पहच्छेयणा णय, दब्भाणय, पुंआणिगरा संचिठ्इ ॥ १८ ॥ तस्सणं से दुजोहण चारगपालस्स पमडी कटे ऐसी) बडी २ लम्बी तथा छोटी रस्सीयों बन्धन करने ढग करके रक्खी थी ॥ १४॥ उम योधन, जेलर के बहुत करवत खङ्ग छूरी पाछने इत्यादि चीर फाड करने के शस्त्र के ढगकर रक्खे थे ॥ १५ ॥ उस दुर्योधन जेलर के बहुत से लोहके खीले, वांस की शलाइयों. विदंक के आकार वाले इत्यादि का लगकर रक्खाथा ॥१६॥ उस दुर्योधन जेलर के बहुत से मूई सोये फाल (डाम देने-दागने) के शस्त्र, इत्यादि का ढगकर रखा था, ॥ १७ ॥ दुर्योधन जेलर के बहुत से गुप्ति उस्तरे कतरमी 30 कैची कुहाडे नख छेदने की नेरनी फाडने के शस्त्र निनके समूह रक्खे थे, ॥ १८ ॥ तब फिर वह दुर्योधन. 48 दुःखविपाक का छठा अध्ययन नन्दोमेनकुमार का , For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी • सहरहरु रण्णी बहवे चौरेय, परिदारिय, गंठीभेदेयशया वका रायअण्णधारतेय, बालघातेय त्रीसंभघातेय जूइकरेय, खंडपट्टेय पुरिसेहिं गिण्हवेइ २त्ता उत्ताणएयाडेई, लोहदंडेण मुहं विहाडे, अप्वेगएए ततं तंब पज्जइ, अप्पेगए तओयं जेइ अप्पेगएए सीसगं पज्जेइ, अप्पेगएए कलकलं पजेइ, अप्पेगएए खारतिल्लं पज्जेइ अप्पेगएए तेणंचेच अभिसेगं करेइ, अप्पेगए उत्ताणएवाइ, आंसमुत्तं पज्जेइ अप्पेगए हत्थिमुत्तं पज्जेइ, जाब एलमुत्तं जेइ, अप्पेएए हिट्टामुहं पांडेइ, बलस्सवम्मावेइ, अगए एर्णचेव उवील. जेलर सिंहस्थ राजा के बहुत से चोरों को, परखी के लम्पट को, गठडी छेदने वाले को, राजा के अपराधी को, बहुत ऋण वाले को, बालक के घातक को, जुगारी को, धूर्तठगारे को, इत्यादि जुलम करने वाले को अन्य सूमों के पास से पकडाकर, चित्ते सुलाकर लोहके संडासी से मुह फडाकर, किसी के मुह मे तप्त [ किया अनि समान ताम्बेका रस पिलाता था, कटुक चरन पोला हुवा उष्ण पानी पीलाता था, कितने क को क्षार पिलाता था, कितनेक के शरीर पर उक्त वस्तुओं सींचन करता जान कराता हुआ, को चिसासूलाकर उनके मुख में घोड़े का मूत, हाथी का मूत यावत् बकरे का मूत पिलात था, कितनेक कितनेक को उलटे मूह पटक कर लता-छड़ीयों के सडा के मारता था, कितनेक के सिरपर बहुत सिलाओं रखकर खदा रखता था, कितनेकको हथकड़ी पहनाता, कितनेक को बेडी पहनाता, कितने कका खोडेमें पांच डालता, For Personal & Private Use Only * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी १.११ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दयइ,अप्पेगएएहत्थंडयाहिं बंधावेइ, अप्पेगएए पायंडुयाणं बंधावेइ, अप्पेगएर हडिबंधणं करेइ, अप्पेगएए णियलवंधण करेइ, अप्पेगएए संकोडिय करेइ, अप्पेगएए संकलबंधणं करेइ,अप्पगएए हथिच्छिष्णए करेइ,जाब सत्थाबाडिए करेइ,अप्पेगएए वेणुलयाहिय जाव वायरासीहिय हणावेइ, अप्रेगएए उत्ताणए करेइ २न्ता उरेसिल दलावेइ २ ता लेउलं बुभावेद,परिसंहिं उकंपावेइ,अप्पगएए तंतीहिय जाय सुत्तरज्जुहिय हत्थेसुय पादेसुय बंधावेइ, अगडमिउ लंपाणगं पजेइ,अप्पेगएए असिपन्तेहिय जाव कलंबचीरपत्तेहिय mahanmRAAnnnnnnnnn 488 एकादशमांम विपाक सूत्र का प्रथम श्रुतस्कम्य 48+ दुःखविपाक का छठा अध्ययन-नंदीसेन कुमार का कितनेक को बडी सांकलों से छोटी सांकलों से रहे इन्धन बन्धता. कितनेक के अंग संकोच कर दृढवन्ध कर रखता, कितनेक के अंग मरोडकर तोडता, कितोक के हस्त छदन करता, कितनेक के यावत् शब्दसे प्रत्येक अंगोपांग का छेदन करता, खङ्गादि कर गर्दन मारता, कितनेक को बांस की लता-(छडी) कर मारता, कितनेक को यावत् रस्ती-बाबुक कर परता, कितनेक को चित्ता सुलाकर हृदय पर मिलान रखाता, ऊपर लकडे घराला दोनों तरफ पुरुषों के पास दधाता, कितनेक को तांत से यावत् मृत की डोरी कर हाथ पांव बन्धनकर कूत्र में उलटा लटकाता, ऊपर नीचे उम को सरकाता हुवा इस प्रकार पानी में डूबता, कितनेक को स्वगादिशस्त्र कर छेदता, यावत् करवत शस्त्र विशेष उस से तराछ कर-छीलकर - For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११८ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 48 अनुवादक-बालप्रमचारी पच्छावेइ खारतेल्लेणं अब्भंगावेइ,अप्पेगएए णिलाडेसुय अवटुसुय कोप्परेसुय जाणुसुय खलुएसुय लोहकील एसुय कडसक्करासुय दलावेइ, अलए भंजावेइ, अप्पेगएए सूतीउय दंभणाणिय,हत्थंगुलियासुय पायंगुलियासुय कुटिलएहिं आउडावेइ २त्ता भूमिकंड्यावेइ, अप्पेगएए सथिएहिय जाव णहच्छेदणएहिय अंगं पछावेइ, दन्भेहिय कुसेहिय उल्लदन्भेहिय वेढाबेइ, आयंबंसि दलयइ, सुक्केसमाणे चडचडस्स उप्पाडेइ ॥ १९ ॥ तएणं से दुजोहण घरगपालए एएयकम्मे ४सु बहुपावं समजिणित्ता एगतीसंवासा सयाई ऊपर तेल क्षार चोपडता, कितनेक के निलाड में घुटने में बुंनी में पगतले में लोहकेखीले ठोकता, शरीर में प्रक्षेप कराता, तीक्षण कंकर शरीर में ठोकाता, डाभकी सलाइ हरेवांसकी सलाइ आंखो में नामें ठोकाता, कितनेक को लोहे की सूई हस्तकी अंगुलीयों में चुनाता पावोंकी अंगुलीयों में चुवाता ऊपर मोगरी मुद्रला आदिसे कुटाता, फिर उन हाथ पांवोंकी अंगलीसे जमीन खोदाता, कितने का शरीर शखसे छेदन भेदन करक्षा, नेरनीकर छुरीकर अङ्गोपांग छेदता, डाभम्ल युक्त कुशमूल युक्त मस्तक को बन्धकर धूप में काता चरट चरड चमडा उखाड डालता, इस प्रकार जीवों को सताताथा ॥ १९ ॥ तब फिर वहदर्योधन कोटवार इस प्रकार कर्म करतून करके अतिही पाप का उपार्जनकर एकतीससो (३१.. ) वर्ष का *प्रकाशक-राजावहादुरलाला सुखदेवसहायजी मालामसादजी For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध987 ' परमाउपालइता कालमासे कालंकिच्चा छट्ठीए पुढबीए उक्कोसं वावीसं सागरोवमाइं ढिईएम णेरइएसु उववण्णे॥२०॥सेणं तओ अणंतरं ऊव्वहित्ता इहेव महुराए णयरीए सिरिदामस्स रण्णो बंधुसिरीए देवीए कुञ्छिसि पुत्तताए उववणे ॥ २१ ॥ तएणं बंधुसिरी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव दारगं पयाया ॥ २२ ॥ तएणं तस्स दारगरस अम्मापियरो णिवत्त बारसाहे इमं एयारूवं णामधेजं करेइ, होउणं अम्हं दारगे गंदि सेणे णामेणं ॥ २३ ॥ तएणं से गंदिसेण कुमारे पंचधाई परिबुडे जाव परिवढाइ ॥२४॥ तएणं से गंदिसेण कुमारे उमुक्कबाल भावे जाव विहरई, जाव जुबरायाजाए पूर्ण आयुष्य पालकर, काल के अवसर काल करके, छठी नरक पृथ्वी में उत्कृष्ट बाबीस सागरोपम की स्थिति में नेरीयेपने उत्पन्न हुचा ॥२०॥ तहां से अन्तर रहित निकलकर इस मथुरा नगरी में श्रीदाम राजा, की बन्धुश्रीदेवी रानी की कुंक्षी में पुत्र पने उत्पन्न हुवा ॥ २१ ॥ तब फिर बन्धुश्री मव महिने पूर्ण पुत्र का जन्म दिया ॥ २२ ॥ तब फिर उमबालक के माता पिताने चारवे दिन इसप्रकार नाम स्थापा-हमारे बालक होने से हम को आनन्द हुवा जिस से इस का नाम नंदीसेन कुमार होवो ॥ २३ ॥ तब फिर नंदी सेन कुमार पांच धाय से वृद्धि पाता बाल्यामस्था से मुक्त हो यौवन अवस्था प्राप्त होते युवराजपद पर स्थापन हुना ॥ २४ ॥ तब फिर नंदीसेन कुमार राज्य सुख में यावत् अन्तेपुर में मूञ्छित दुवा श्रीदाम + दुःखविपाक का छठा अध्ययन-नंदीसेन कुमार का 1 For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ अनुवादक ब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी यथा ॥ २५ ॥ तएणं से मंदिसेण कुमारे रज्जोय जाव अंते उरे पुय मुच्छिए इच्छइसिरिदामंरायं जीविया विवशेवित्ता, सयमेव रज्जसिरि कारमाणे पालेमाणे विहरइ ॥ २४ ॥ एणं से णंदिसेण कुमारे सिरिदामस्स रण्णो अंतरं अलभमाणे अण्णा या चित्तं अलंकारियं सदावेइ २त्ता एवं वयासी-तुमणं देवाणुपिया ! सिरिदाम रायं सव्ॠट्ठाणेसु सव्वभूमियासुय अंत उरेय दिष्णधियारे सिरिदामरायं अभिक्खणं २ अलंकारिय कम्मं करमाणे विहरइ, तण्हं तुमं देवाणुपिया ! सिरिदाम राय अलंकारियं करेमाणे गीवाए खरंणिवेसेहिं, ताणं अहं तुम्मं अद्धरजियं करेस्समि, राजा को जीवित रहित कर मारकर आपस्त्रयं राज्यलक्ष्मी का भोगोपभोग भोगवने की इच्छा करने लगा || २५ || तब फिर नंदीसेन कुमार श्रीदाम राजा को मारने का अवसर मौका प्राप्त नहीं करता हुवा, अन्षदा उस चित्र नामक अलंकारी [ नापिक । को बोलाया, बोलाकर एकान्त में लेकर उस से यों कहने लगा - हे देवानुप्रिय ! तुम श्रीदाम राजा के शैय्या स्थान में भोजन स्थान में प्रसाद में अंतेपुर में प्रवेश करते हो, श्रीदाम राजा का वारम्वार अलंकार (मुंडनादि ) करते हो इस लिये हे देवानुमिय ! तुम श्रीदाम राजा का अलंकार-क्षोर कर्म (हिजामत ) करते गले में क्षुरा- पासन- उस्तरा लगाकर मारडालो, सब फिर मैं तुमारे को मेरा आधा राज्य देखूंगा, तुमारा कहा करूंगा, और तुम हम दोनों प्रधान राज्य For Personal & Private Use Only * प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेव महायजी ज्वालाप्रसादजी * १२० Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमांग-विपाकपुत्र का प्रथम श्रुतस्कम्घ8 तुम्हं अम्हेहिंसद्धिं उराले भोग भोगाई भुंजमाणे विहरिस्सइ ॥ २७ ॥ तएणं से चिंते अलंकारिए गदिसेणस्स कुमारस्स क्यणं एयमटुं पडिसुणेइ २ ॥ २८ ॥ तएणं तस्स चित्तस्स अलंकारियस्स इमेयारूचे जाव समुप्पजिधा-जइणं ममं सिरिदामेराया एयमटुं आगमेइ, तएणं ममं णणजइ केणइ असुभेणं कुमरेणणं मारिस्सत्ति त्तिकह भीए ४, जेणेव सिरिदामेराया तेणेच उवागच्छइ २ त्ता सिरिदामरायं रहस्सिएगं करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी ! णंदिसेणकुमार रज्जेय जात्र मुच्छिए ४ इच्छइ तुम्भे जीवियाओ विवरोवित्ता सयमेव रजेसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरह ॥२९॥ तएणं से सिरिदामेराया चित्तस्स अलंकारीयस्स अंतिए एयमटुं सोचाणिसम्म सम्बंधी भोग भोगवते विचरेंगे।।२७॥ तब फिर उस चित्र नामक अलंकारी [नापिक ने नंदीसेन कुमार का उक्त कथन प्रपान किया ॥ २८ ॥ तब फिर वह चित्र नपिक को इस प्रकार मध्यवसाय उत्पन्न हुवा-जो श्रीदाम राजा मेरी यह बात जान जाये तो नमालुप मुझ को कित कु मृत्युकर मारें, ऐना विचार कर वह भय भ्रांत हुवा त्रास पाया, जहां श्रीदामराजा या तहां आया, आकर श्रीदामराजा को गुप्त एकान्त में हाथ जोड यावत् यों कहने लगा-यों निश्चय हे स्वामी ! नन्दीसेन कुमार राज्य में मूञ्छित हो तुमारे को 50 मारकर आप स्वयं राज्य करना चहाता है ॥ २१ ॥ तब फिर श्रीदाम राना चित्र नापिक के मुखमे उक्त 48 दुःखविपाक का-छठा अध्ययन-नंदीसन Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अबोलक ऋषिजी + आसुरुते ४ जाव साहष्टु णंदिसणं कुमारं पुरिसेहिं गिण्हाबेइ, एएणं विहाणेणं वझं आणवेइ ॥ ३० ॥ तं एवं खलु गोयमा ! णदिसेण कुमारे जाव विहरइ, ॥ ३१ ॥ गंदिसणं कुमारे इओ चुओ कहिं गच्छिहिंति कहिं उवव. ___ जिर्हिति ? गोयमा ! णदिसेणं कुमारे सळिवासाई परमाउपालेता कालमासं कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए, संसारो तहेव, ततो हत्थिणापुरे पयरे मच्छत्ताए उववाजिहिति, सेणं तत्थमच्छिएहिं वधिए समाणे तत्येवसेट्रिकुले बोहिं सोहम्मेकप्ये महाविदेह वासे सिज्झिहिंति ॥३२॥ एवं खलु णिक्खयो।छट्ठस्स अज्झयणं सम्मत्तं॥६॥ कथन श्रवन कर अवधार कर शीघ्रही कोपायमान हुवा यावत् त्रिवली भृगुटी चडाकर नंदीसेण कुमार को सूभट के पाम पकडाकर हे गौतम ! तुम देख आये वैमा हाल कर रहा है. ॥३०॥ हे असे गौतम ! नंदीसण कुमारने पूर्व भर में इस प्रकार कर्म किये जिसके फल भोगवता हुचा विचर रहा है।॥२१॥ अहो भगवान! नन्दीसेन यहां से मर कर कहां जायगा? हे गौतम ! नन्दीसेन कुमार साठ 60] वर्षे का आयुष्य पूर्ण भोगकर काल के अवसर काल करके इस रलप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होगा यावत् मृगापुत्र के अ ज्यों संसार भ्रमण कर तहां से निकल हसनापुर में, मच्छ होगा, वहां मच्छीमार के हाथ मे भरकर वहां ही नगर में सेठके कुल में पुत्र हो संयमले सौधर्म देवलोक में जावेगा. वहां से महाविदह क्षेत्र में जन्मले सिद्ध होगा ।। इति दुःव विपक का नंदीमेन कुमार का छठा अध्ययन समाप्तम् ॥ ६॥ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी उचल प्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११कादशर्माग-विषाक मूत्र का यम श्रुत्स्कन्ध428+ ॥सप्तम-अध्ययनम् ॥ जइण भंते ! उक्खंवो सत्तमस्सा-एवं खलु जंबू ! तणंकालेणं तेणंसमएणं पाडलिं संडे णयरे, वणसंडे उज्जाणे, उंबरवत्तेयक्खे ॥ १ ॥ तत्थर्ण पाडलिसंडे गयरे सिहत्थ राया ॥ २ ॥ तत्थणं पाडलिसंडे गयरे सागरदत्त सस्थवाहे होत्था अड्डे, गंगदत्ता भारिया ॥ ३ ॥ तस्सण सागदत्तस्स पुत्ते गंगदत्ता भारियाए अत्तए उंबरदत्ते णाम दारए होत्था, अहीण ॥ ४ ॥तेणंकालंगं तेणंसमएणं समोसरणं जाव परिसा पडिगया यौद अहो भगवान ! साता अध्ययन का क्या अर्थ कहा है. ! यो निश्चय हे जंब ! उस काल उस समय में पाडली खंड नाम का नगर था, वनखंड नाम का उध्यान था, उम्वरदत्त यक्ष का यक्षायतन था, है॥ १ ॥ उस पाडलीखंड नगर में सिद्धार्थ राजा राज करता था ॥२॥ उस पाडलीखंड नगर में सागरदत्त नाम का सार्थवाही ऋद्धिवंत था, उस की गङ्गादत्ता नामकी भार्या धी ॥३॥ उस सोगरदत्त का पुत्र गङ्गदत्ता भार्या का आत्मजत उम्बदत्तं नाम का कुमार था, वह सर्व अंग पूर्ण था ॥ ४ ॥ उस काल १०. उस समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी समोसरे, परिषदा वंदने आई, धर्म कथासुनाइ, परिषदा पीछी गइ, ॥ ५ ॥ उस काल उम समय में भगवंत गौतम सामी पूर्वोक्त प्रमाण जहां पाडलीखंड नगर था तहां दुःख विपाक का-सातवा अध्ययन-उम्बरदन कुमारका For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी + ॥ ५ ॥ तणंकालेणं तेणंसमएणं भगवं गोयम तहतए जणव पाडलिसड गयर तणव उवागच्छइ २ त्ता पालिसंड जयरे पुरथिमण दुवारणं अणुप्पविसत्ति, तत्थणं पासइ एगं पुरिसं कच्छलं कोढियं दोउयारेयं भगदलियं अरिसिल्लं कासिल्ल सासिल्लं यमूह सूयहत्थं सूयपायं सडिय हत्थंगुलियं, सडिय पायंगुलियं, सडिय कण्णाणासियं, रसिया एय पूएणय थिविथिवित्तं वणमुहं किमि उण्णुयंतगलंत पृयरुहिर लालापगलंत कण्णणासं अभिक्खणं २ पूयकवलेय रुहिरकवलय किमियकवलेय वममाई कट्ठाई कलुणाई वीसराई कृत्रमाणं मंछिया चडगरपहगरेणं अणिजमाणमग्गं फुटहडाहडसीसं भीक्षार्थ आये, पाडलीखंड नगर के पूर्व के द्वार से प्रवेश किया, तहां एक पुरुष को देखा वह पुरुष खुजली के रोग युक्त, कारके रोगयुक्त, जालोदर के रोगयुक्त, भगंदर के रोग युक्त, रम रोग युक्त, जिस के खांनी चलती थी, श्वास उठता था, पांच हाय की अंगुलीयों पर सोज। चडा हुवा था, हाथ पांव की अंगुलियों सडगाइ था, कान नाक भी सडगये थे, पीप ( रस्सी) रक्त शरीर से जर रहा था, क्रीमी (कीडे ) कली जबल कर रहे थे, गूगडे हुवे थे, मुह मे से कमी सहिन पीप की लाल उगल रहा था, वारम्बार रक्त के कुल्ल पीके कुल का मन करता था, क्लाशत करूणा जनक वचन बोलता था, अव्यक्त शब्द से अक्रदं करता था, मक्षीकाओं के समूह उसपर बेटे हुवे थे, बहुतसी मक्षीकाओं उस के पीछे परिभ्रमण कर रहीथे। • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुरदेव महायजी जालाप्रसाद जी . - - For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपे सत्र एकादशांग-विका प्रथम तक दंडं खंडबसणं खंडमल खंडहत्थगयं गिहे २ देहं बलियाए विर्तिकप्पेमाणे पासइ २ ॥ ६ ॥ तणं भगवं गोयमे उच्चणिय जाव अडइ अहापजतं गिण्हइ २त्ता पडलीसंडाओ णयराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव समणे भगवं तेणेव उवागच्छइ २ ता भत्तपाणं पडिदसेइ २ ता समणेणं अब्भणुष्णाए जाव विलमित्र पण्णगभए अप्पाणं आहार माहारेइ, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ ७ ॥ तरणं से मस्तक के बाल बिखर रहे थे, दंड खंडित-फटे टूटे बल से शरीर का कुछ २ विभाग अच्छादन किया था, फूटा हंडा हाथ में ग्रहण कर द्वारा द्वार परिभ्रमण करता था, अपने पांवों के बलकर भिक्षावृति से उपजी विका करता हुवा फिरता हुन भगवंत गौतम स्वामीने देखा ॥ ३ ॥ तब भगवंत गौतम ऊंच नीच मध्यम कूल में यावत् परिभ्रमण करके यथा पर्याम चाहिये या उतना आहार पानी आदि ग्रहण किया, ग्रहण (कर पाडलीखंड नगर से निकलकर जहां श्रमण भगवंत महावीर स्वामी थे तहां आये, आकर आहार पानी बताया, श्रमण भगवंत की आज्ञा प्राप्त करके जिस प्रकार बिल में सर्प प्रवेश करता है उस प्रकार ममत्व रहित कवल को मुख में नहीं फिराते हुवे अपने पेटरूप कोठार में वह आहार पानी आदि प्रक्षेप किया, फिर संयम तपकर अपनी आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे ॥ ७ ॥ तत्र भगवंत गौतम रकमी दूसरे छठ खमन बेले के पारने को प्रथम पहस्सी में स्वध्याय की दूसरी में ध्यान किया, तीसरी में भगवंत की For Personal & Private Use Only ३ दुःख विपाकका माता अध्ययन- उम्वरदत्त कुमारका १९५ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भगवं गोयमे दोच्चपि छ?खमण पारणगांस पढ़माए पोरसीए सज्झाई जा पालिस णयरं दाहिणिल्लेणं दुवारेणं अणुप्पविरसइ तंचव पुरिसं पासइ२त्ता कच्छूलं तहेव जात्र संजमेणं विहरइ ॥ ८॥ तएणं से गोयमे ! तचं छटुं तहेव जाव पचत्थिामल्लेणं दुगरेणं अणुप्पविसमाणे तंत्र पुरिसं कच्छूल्लं पासइ २ त्ता चउत्थं छटुं उतरेणं इमे अज्झथिए समुपण्णे- अहोणं इमे पुरिसे पुरापोराणाणं जाव एवं क्यासी-एवं खलु अहं भंते! छटुस्स जाब रियंते जेणेव पाडलिसंडे गयरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता पाड. लिपुरे पुरस्थिमिल्लेणं दुवारेणं अणुपविटे, तत्थणं एगं पुरिसं पासइ कच्छूले जाव आज्ञा ग्रहण कर यावत् पाडलीखंड नगर के दक्षिण के द्वार से प्रवेश किया, तहां भी वह पुरुष देखा बुजली सहिन यावत् आहार आदि ग्रहण कर पीछे आये मयम तपकर आत्मा भावते विचरने लगे नव गौतम ! तीसरे छठ खमन-बल के पारने में पाडलीखंड नगर में पश्चिम के द्वारकर से प्रश कि वहां, उस ही पुरूप को देखा और चउ थे वले के पारने उत्तर के द्वारसे प्रवेश करते उपही पुस्त्र को दखा. बता गौतम मापी के इस प्रकार का अध्यालाय उत्पन्न हुवा-अहो यह पुरुष पुर्व के पूराने मांचित कर्षके फल का नरक के समान दुःख का प्रत्याक्षानुभव करतापिचरता है यावत् भगवंत के पास आकर यों कहनेलग-यों निश्चय अहो भगवान में ले के पारने का इर्याममिती युक्त पाडलीखंड नगर के फूंके द्वार से प्रवेश प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्पेमाणे तं जहा अहं दोच्चं छटपारणए दाहिणिल्लेदारण तहेव तच्च छटुं पञ्चत्थिमेणं तहेव. ते अहं चउत्थं छपारणए पाडलिउत्तर दारेअणुप्पविठू तंव पुरिसं पासामि कच्छूले जाच वित्तिकमाणे विहरइ, चिंता, पुवभवे पुच्छा वागरेइ ॥ ९ ॥ एवं खलु गोयमा ! तेणंकालेणं तेणंसमएणं इहब जंबुद्दीवेदीवे भारहेवासे विजयपुरे णामं गयरे होत्था, कणगरहे णामराया होत्था॥१०॥तस्मणं कणगरहस्मरणो धणं १२७ 486+एकादशमांग त्रिपाकमंत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4+8+ किया, तहां एक पुरुष को देखा खुजली युक्त यादन् द्वार २ फिर उपजीविका करता विचरता हुवा जब में दूसरे छठ स्वमन के पारने को दक्षिण के द्वार से प्रवेश किया तो भी उस ही पुरुष को देखा, तीसरे बेले के पारने केदिन पश्चिम के द्वार से प्रवेश करले उसी पुस्पको देखा और चौथे बले के पारने उत्तर के द्वार से प्रवेश करते उस ही पुरुष को देखा, खुजलयुक्त यावत् भिक्षा वृत्तिकरता विचरता हुवा. तक मुझे विचार हुवा कि यह किस पुराकृत कर्मोदया से नरक ममान दुख का प्रत्यक्षानुभव करता विचरता है अहो भगवन् ! यह पूर्वजन्म में कौन था ? ॥ ९॥ भगवंत ने कहा-यों निश्चय हे गौतम ! उसमें काल उस समय में इस ही जंबुद्वीप के भरत क्षेत्र में विजयपुर नाम का नगर था, वहां कनकरथ राजा राज्य करता था, ॥ १० ॥ उस कनकरथ राजा का धनंतरी नाम का वैध था, वह आठ प्रकार आयुयो दाखविपाक का-सातवा अध्ययन-जम्बरदत्त कुमार का For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी + तरीणामे वेजेहोत्था, अटुंगाओवेदे पाढए तंजहा-कोमारभिच्चं, सालागे, सल्लकहते, कायतिगिच्छा, जंगोले, भूयवेजे, रसायणे, वाजोकरणे; सिवहथे सुद्ध हत्ये लहत्थे ॥ ११ ॥ तरणं धगंतरीवेजे विजयपुरे णयो कणग रहा रस रणो अंतेउरे अण्णेसिंच बहुणं राईसर जाव सत्यवाहणं अण्णसिंच बहुणं शास्त्र का जान था-उन के नाम-१ कुपार की चिकिल्ला-चालक को क्षीरपानादि मे पोष करते जो शून्यचित्तादि दोष उत्पन्न होते हैं उस की विशुद्धी का करना, २ शलाका-जो कान में नाक में आंख में 1 इत्यादि प्रकार के स्थानों में रोग होवे उस औषधमय शलाका फेरकर रोग दूरकरे, ३ शाल्यकृत-खड्ग तीरादि शस्त्र के शल्य के कर कांचादि गुप्त रहा हो उन का उद्धार करे, ४ कातिगच्छा-जारादि रोग ग्रहस्त शशीर से उमरोग का उपशमन करे, जंगोल-सर्प विच्छ आदि जंगप विष सालकुटादि स्थावर विषा का उपशम करे, ६ भूनविद्याभूत गंधर्वादि देवता शरीर प्रविष्ट हो न उका उपशमन करे, ७ रसामृत-शरीरमा दृढकर पद्धावस्या का अभाव करे, तथा रोगादि की उत्पनि अटकाकर आरोग्य रहे, ऐमा, करे और ८ वा करण-शरीर में शुक्रादि धातु की वृद्धिकर घोडे के जैसा पुष्ट पराक्रमी शरीर करे इस प्रकार के शास्त्रों में का जानकर वह था, उसका हाथ रोग हरन करने में आगेग्य था. सुवोत्पादक हाथ था, अमृत तुल्य जिम का हाथ था, लघु-हलका हाथ था ॥ ११॥ तव फिर वह छतरी वैद्य विजथ युर नगर में कनक रथ ... प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुम्बदव महायजी ज्यामिनादजा. For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ - एकादशमांग-विपाक मूत्र का मैंथम श्रुत्स्कन्ध 1888 - दुबलणाय, गिलाणाणय, बाहियाणय, रोगीयाणय, सणाहाणय, अणाहाणय, सम. जाणय, माहणाणय, भिक्खणाणय, करोडियाणप, कप्पडियाणय, आउराणय, अपगइयाणं मच्छमंसाई, उवादिसइ,अप्पेगइयाणं कच्छमंसाई, उवदिसइ अप्पेगइयाणं गाहमसाइ उवदिसइ, अप्पेगइयाणं, मगरमसाई उवदिसइ, अप्पगइयाणं सुसमारमंसाई उवदिसइ, अप्पेगइयाणं अयमंसाई, उपदिसइ एवं-एला-रोज्झा-सूयर-मिगससथ. गोमंसाई महिसमंसा अप्पेगइयाणं तित्तिरमंसा, अप्पेगइयाणं बटक-लवक कयोत-कुक्कुड-मयुर. अण्णसिंच बहणं जलयर थलयर खहयरामाईणं मंसाइ राना के अन्तेपुर में और भी बहुत युवराज प्रधान सेनापति यावत् मार्यवाही के घमि तथा बहुत मे दुर्बल रोगीयों व्याधी यो-उनाथ अनाथसाधु ब्राह्मण अनेक पिक्षाचारों कापडी आदिरोगीयों जो की चिकित्साके, अजान थे उन की चिकित्सा औषध करता हवा, उनको पथ्य के लिये कितनक को मच्छ का मांस खाने का उपदेशदेता, कितनेक को काछो के मान स्वाने का उपदेश देता, कितनेक को ग्राहाका मोसम्बाने का उपदेश देवा, कितनेक को मगर का मांस खाने का उपदेशदता, कितनेक को सुसमार का मामखाने का उपदेवदेता, ऐसे ही कितीकों-मेंहका-रोज्झका-सूबर का-माका-सूसले (खरगोर) का गायका-भेनेका-कितनक को तीतर का-बटेर का-लवे का-परेचे को यूगे का- मयुर का इत्यादि अनेक प्रकार के जल घर का दःखरिपाकका-माता अध्ययन-उम्बरदत्त कुमार का 6 । For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी + १३० उवदिसइ ॥ १२ ॥ अप्पाणं वियणं सेधण्णंतरीवेजे तेहिं मच्छमसहिय जाव मयूरमंसेहिय अण्णहिय बहुहिं जलयर थलयर खहयर मंसाइ मच्छरसएहिय जाव मयूर रसएहिय सोल्लेहिय तिल्लिएहिय भजिएहिय सुरंच ५: आसायमाणे ४ विहरइ ॥१३॥ तएणं से धण्णंतरीवेजे एयकम्मे ४ सुबहुपावं समजिणित्ता बतीससयाई वासाइं परमाउं पालइत्ता कालमस कालंकिच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसं बगवीससागरोबमाई उवणे ॥ १४ ॥ तएणं इहेवपाडलिसंडे णयर सागरदत्ते सत्यवाहे गंगदत्ते भारिया जायणियावि हात्था, जाजा जाया दारगा विणिघायमावति ॥ १५ ॥ तएणं स्थलचर का खेचर का मांस खाने का उपदेश देता था ॥ १२ ॥ और आप भी पछ का यावत् मयुरादि का मांग के सोले-टुकड़े कर तलकर मुंजकर सेक कर मदिरा आदि के साथ अस्मादिना था खाता खिलाता विचरता था ॥ १३ ॥ वह धनंतरी वैद्य-उक्त प्रकार के कर्मों का आचरन कर बहुत पाप का उपार्जन कर बत्तीस हजार ३२००० वर्ष का परम उत्कृष्ट आयुष्य का पालनकर कालके.अवसर में कालपूर्णकर छठीतमप्रभा नरक में उत्कृष्ट बावीस सागरोपमकी स्थितिषने मेरिया पने उत्पन्न हुआ ॥ १४॥ तब इसही पाडली खंड नगर में सागरदत्त सार्थवाही की गङ्गदत्ता मार्ग मृतवज्झथी अर्थात् उस के बच्चे जीते नहीं थे जीते गर्भाशय में उत्पन्न हो जन्मकर तुर्त मरमाते थे ॥१५॥ • प्रकाशक-राजाबहादर लालामुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* 48 अनवादक-बालब्रह्मचारी For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.88 एकादशर्माग विपाकमत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48+ Anomanianmananewwwwnewwwwwwnama तीसे गंगदत्ताए संस्थवाहिए अण्णयाकयाइ पुवरत्ता वरत्तकाल. समपंसि कुटेबजाग. रियं जागरमाणे अयं अज्झस्थिए ४ समुप्पणे-एवं खलु अहं सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं सहि बहुहिं वासाहिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ, णोचेवणं अहं दारगंवा दारियंत्रा पयामि, तं धण्णउताओ अम्मयाओ संपुण्णाओ कयत्थाओ कयपुण्णाओ कयलक्खणाओ सुलटेणं तासि अम्मयाणे माणुस्सए जम्मजीवियफले जासिंमण्णे णियग कुच्छि संभूयगाइं थणदुडलुद्धगाई ममण पपियाति थणमूल कक्खदेसभागं अतिसर माणगाई मुद्धगाइं पुणोय कोमल कमलोवमेहिं हत्थेहि तब फिर वह गंगदत्ता सार्थशाहिनी अन्यदा किसी वक्त आधी रात्रि व्यतीत हुवे कुटुम्ब जागरना जागती इस प्रकार अध्यवसाय उत्पन्न हुये-यों निश्चय मुझे सागरदत्त सार्थवाही के साथ उदारप्रधान मनुष्य संबंधी भोगोंगवते बहुत वर्ष हो परंतमैने आजतका एक पुत्र या पुत्री जन्म दिया नाहिं, इस है उस माताको संपूर्ण पुण्यात्माको कुनाथिको कृत्पुण्यको कृतलक्षणी-मुलक्षणी को,अच्छा प्राप्त हुवा जस माता का मनुष्य जन्म जीवितका फल की जिस माता ने अपनी कुंक्षी से उत्पन्न हुशे पुत्रको स्तन दूग्ध पान कराती । है मुन मुने शब्द से बोलाती है स्तन के मूल कांक्षके देशविभाग में या गोद में बैठाती है, मुग्धास्त्री (सह पावली बन ) बारम्बार उसे उठाती सुलाती है, मुकुपाल कमल समान उस के हाथ अप ने दुःख विपाक का-सातवा अध्ययन-उम्बरदत्त कुमारका For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . -- -गिण्हउण उच्छंगं णिवेसियाई दिति समुलावए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पभाणिए, अहण्णं अधण्णा अपुण्णा अकयपुण्ण, एतो एकतर मविणपत्ता ॥ १६ ॥ तं सेयंखलु ममं कलं जाव जलंते सागरदत्तं सत्थवाहं आपुच्छित्ता सुबहु पुप्फवस्थगंधमल्लालंकारं महाय, बहुहिं मित णाइ णियग सयण संबंधि परिजण महिलाइंसडिं पाडलिसंडाओ जघराओ पडिणिक्खमित्ता बहिया जेणेव उबरदत्तस्स जखस्स जक्खायतणे तेणेव उवागच्छइत्तारत्ता तत्थणं उंम्बरदत्तस्स जक्खस्स महरिहं पुप्फ हाथ में ग्रहण कर मलती है गोद में बैठीता है, कोमल-मधुर वचम कर वारम्बार स्नेह वचन कर बोलाती है उसे धन्य है, और इस ही सिये में अधन्य हुँ अपुण्य हुँ चुंकि आज तक एक ही पुत्र व पुत्री को प्राप्त नहीं कर सकी ॥१६॥ इस लिये अब श्रेय है मुझ को कॉल प्रातःकाल होते जाज्वलमान, सूर्य प्रगट होते सागरदत्त मार्थवाह को पूछकर अच्छे बहुत फूल वस्त्र सुगंधी याला ग्रहण कर, बहन मित्रज्ञाति स्वजन सम्बन्धियों परिजनकी स्त्रीयों के साथ परिवरी हुई पाडली खंड नगरसे। लनिकल कर बाहिर जहां उम्बरदत्त यक्षका यक्षायतन ( मंदिर ) है वहां जाकर तहां उम्बरदत्त यक्षकी 1 महा मूल्य फुलोसे आर्चगकरूं, करके दोनों घुटने जमीन को लगाकर पांच पडूं और याचना करूं कि 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *काशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादणी* For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428+ एकादशमांग-विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध चणं करई २त्ता जाणुपायडियाए उवाएत्तए, जइणं अहं देवाणुप्पिया ! दारगंवा दारियंवा पयामि, तोणं अहं जायंच दायंच भायंच अक्खयणिहिं च अणुवस्सामि, त्तिक? उववाय उवाइणित्तए, एवं संपेहेइ२त्ता कल्लं जाव जलंते जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ २त्ता सागरदत्तं सत्थवाह एवं क्यासी-एवं खल अहं पेवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं सदि जाव णपत्ता तंइच्छामिणं देवाणुप्पिया ! तुम्भेहि अन्भाणुण्णाया जाव उवाइणित्तए ॥ १७ ॥ तएणं से सागरदत्ते सत्थवाहे गंगदत्तं भारियं एवं बयासी-ममंचेव देवाणुप्पिया! एसचेवमणोरहे कहणं तुमं दारगंवा दारीयंवा यदि हे देवानुमिया ! मैं पुष या पुत्री पसवूगीतो में तुमरे यहाँ यज्ञकर-पूजा करूंगी, तुमारी यात्रा करूंगी, हमारी द्रव्योत्पति का विभाग कर तुमारा अस्खूट निध्यान (भंडार) में द्रव्य की वृद्धि कर ऐसा करने से मुझे उस से इष्ट वस्तु की प्राप्ति होगी. ऐसा विचार किया, ऐमा विचार कर, प्रातःकाल होते. यावत् जाखल मान सूर्योदय होते जहां सागरदत्त सार्थवाही था तहां आई आकर सागरदत्त सार्थवाई ऐसा बोली-यों निश्चय हे देवानुपिया ! मुझे सुमारे साथ भोग भोगवते इतने वर्ष हवे परंतु आप एण भी पालक प्राप्त हुवा नहीं इसलिये अहो देवानुप्रिया ! जो तुमारी आज्ञा होतो में चहाती हूं उम्बरदत्त यक्षकी पूनाकर यावत् पूत्रकी याचना करूं॥१॥तब उसमागरदत्ते सार्थवाहीने गंगादत्ता सार्थवाहीनीसे ऐसाघोल दुःख विपाकका-सातवा अध्ययन-उम्परदत्त कुमार का For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी पयाए जामि,गंगदत्तं भारियं एयाटुं अणुजाइ॥१८॥तरण सा गंगदत्ताभारियाए एयमटुं अभाण्णाया समाणी सुबहु जाव मित्तगाइंसद्धिं ताआगिहाओ पडिणिक्खमइत्ता २त्ता पाडलीसंड जयरं मझमझगं भिगच्छइ २त्ता जेणव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ२त्ता पुखरिणीएतीर सुबहु पुप्फांध मलालंकारंटुवेइ २ ता पुक्खरिणीउगाहे. इ २ त्ता जलमज्झणंकरेइ २ त्ता जलकिडंकरेइ २ त्ता हाया कयकोउपमंगला उलुपडि साडिया पुक्खरिणी पच्चुत्तरइ २ ता तं पुप्फ गिण्हइ २ ता जेणव उंबरदत्तस जवखस्त जव स्वायतणे तेणेव उवागच्छइ २ ता उबरदत्तस्स जक्खस्स की हे देवानुपिया मेरे मन में भी यही विचारथा फिकिम कारनसेतुमारेको पुत्र पुत्री नहीं होते है,यों कह गङ्गदत्ताभा का उक्त कथन अच्छा जाना. आज्ञादी) ॥ १८॥ तब वह गंगदत्ता भार्या उक्त अर्थ की अज्ञा प्राप्त होते बहुत मित्रज्ञाती आदि की खी यों की साथ अपने घर से निकलकर पाडलीखंड नगर के मध्य मध्य में हो निकलकर जहां पुष्करनी(बावडी) थी तहां आई, पुष्करनीके किनारे पर साथे लाये हुवे बहुत पुष्फ गंधमालाई अलंकारका स्थापन किया, पुष्करनी में उतरकरजलमंजन जलक्रिडाकी, स्नान किया कुल्ले आदि कौतुकमंगल, कतिलकादिकर आली [पानीकी भींजी हुइ साडी पहने हुव ही पुष्करनीसे बहिर निकली, बाहिर निकलकर वे पुष्पादि ग्रहणकिये. जहां उम्बरदत्त यक्षका यक्षायतनवा तहांआइ, उम्बरदत्त यक्षकी प्रतिमा को देखते ही • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी , For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ एकादशमांग विपाक सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध i आलोए पणामंकरेइ २ ता लोह परासुसइ २ ता उंबरदरांजक्खं लोमहस्थएणं पमजइ २ ता इगध राए अक्वइ २ ता पम्हलगाइ लट्ठीओलूहेइ, सेयाई त्थाई परिes, महरिह पुप्फारूहाणं वत्थारूहाणं मल्लागंधाचुणारुहाणं करेइ २ त्ता धूडहइ २ता जाणुायपडिया एवंवयासी-जइणं अहं देवाणुपिया ! दारगं दारियं पयामि तोणं जाव उवाइणइ २ चा जामेवदिसि पाउब्भूया, तामेत्रांदसिं पडिगया ॥ १९ ॥ तणं से धन्वंतरीवेजे ताओ णरगाओ अनंतरं उट्टित्ता इहेब जंबूद्दीवे २ भारहेवा से पाडिलीसड णयरे गंगदत्ताए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उबवणे प्रणाम [ नमन ] किया, प्रणाम कर मोर पीछी को हाथ में ग्रहण की, उम्बरदत्त यक्ष की प्रतिमा का प्रमार्जन की ( पूंजी ) पुंजकर पानी की धारकर स्नान कराया, पद्म जैसे सुकुमाल वस्त्र कर यक्ष प्रतिमा का शरीर को पूंछा, उसे श्वेत व पानाये, महा मूल्य फुलों की माल का रोहन किया ( पहनाई ) वस्त्रा रोहण किया ( पहनाये ) पाला गंध चूर्ग वडाया धूप खेवा, धूप खेकर छूटने जमीन को लगा पांत्र में पडी हुइ-यों कहने लगी अहो देवानुमिया ! यदि में पुत्र या पुत्रो प्रभूंगी तो में यावत् उक्त कहे ममाने करूंगी | यों कह कर जिसदिशा से आई थी उस दिशा पीछी गई ॥ १९ ॥ तत्र वह धनंतरी वेद उस छड़ी नरक से निरंतर निकलकर इस ही जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में पाडलीखंड नगर में गंगदत्ता For Personal & Private Use Only दुःखविपाक का सातवा अध्ययन- उम्बरदत कुमार का १३५ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी ? ॥ २० ॥ तए तीस गंगदत्ताए भारियाए तिण्हं मासाणं बहुपडि पुष्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-धण्णाआणं ताओ अम्मयाओ जाव फलं जाओणं विपुलं असणं ४ उबक्खडावेइ २ ता बहुहिं जाय मित्त परिबुडाओ तं विपुलं असणं ४ सुरंच ६, पुष्फ जाव गहाइ पाडलिसंडं जयरं मझमझेणं पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ २ सा पक्खरिणी उगाहेइ २ ता व्हाया जाव पायच्छिताओ तं विपलं असणं ४ बहुहिं मित्त णाई जाव सद्धिं आसाएइ ४ दोहलं विणेइ ॥ एवं संपेहेइ सार्थवाहीनी कूक्षी में पुत्रपने उत्पन्न हुवा ॥२०॥ तत्र उस गंगदत्ता भारिया को तीन महीने प्रतिपूर्ण हुवे इस प्रकार का होहला प्राप्त हुवा धन्य है उस माता को यावत् जीवित फल सफल है कि जो विस्तीर्ण अशनादि चार प्रकार का आहार तैयार कराकर स्वजन बहुत यावत् मित्रादिकी स्वीयोंके साथ परिवरी हुई। उस विस्तीर्ण अशनादि चारों आहार को ग्रहण कर पाडलीखंड नगर के मध्य २ से निकालकर जहा पुष्करनी पावडी है तहां जाकर पुष्करनी में प्रवेश कर स्नानकर प्राय:श्चित कर शुद्ध हो उस विस्तीर्ण अशनादि चारों आहार की बहुत मित्रादि की स्त्रीयों के साथ अस्वादती खाती खिलाती डोहला पूर्ण करती है, उसे धन्य है में भी ऐसा करूं; ऐला विचार कर प्रातःकाल होते यावत् जाज्यल्य मान सूर्योदय होते जहां सागरदत्त सार्थवाही था तहां आइ, सागरदत्त सार्थवाही से ऐसा कहने लगीधन्य * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी उसालाप्रसादजी * For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्लं जाव जलंते जेणेव सागरदत्त सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ २त्ता सागरदत्त सस्थवाहं एवं क्यासी-धन्नाओणं ताउ जीव विणेति तं इच्छामिणं जाव विणेतिए । ततेणं से सागरदत्ते सत्थवाहे गंगदत्ता भारियाए एयम, अणुजाणाति ॥ २१ ॥ तएणं सा गंगदत्तेणं सात्थवाहीणी सागरदत्त सात्थवाहि अब्भणुण्णाय समाणी विपुलं असणं ४ उवाक्खडायेइ, तं विपुलं असणं ४ सुरंचस बह पप्फ परिगण्हावेइरत्ता बहहिं जाय हाया कय बलिकम्मा जेणेव उबरदत्त जक्खस्स जक्खायणे जाव धूर्व डहेइ.२ त्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ २ ॥ २२ ॥ तएणं ताओ मित्त है उप्त माताको यावत् उक्त प्रकार डोहला पुर्ण करती है. इसलिये अहो देवानुप्रिया! जो आपकी आज्ञाहोतो में चाहाती हूं डोहला पूर्ण करना. तब उन सागरदत्त सार्यवाही ने गंगदत्ता भारिया का कथन अच्छा जाना अज्ञादी ॥२५॥ तक वह गंगदत्ता सार्थवाहीनी सागरदत्त सार्थवाही की आज्ञा प्राप्त होते विस्तीर्ण अशन चारों आहार तैयार करा कर उस अशनादि चारों आहार को मदिरा आदि को बछुत फुलादि को ग्रहण कर पुष्करनी पर आई, स्नान किया, पानी के कुल्ल किया जहां उम्परदत्त यक्ष का देवालय atथा तहां आइ पूर्वोक्त प्रकार पूजाकर याक्त धप खेया फिर पीछी उस पुष्करनीपर आइ॥२२॥तब वे मित्रज्ञाती आदि स्त्रीयों और गादत्ता सार्थवाहीनी वस्त्रालंकार कर विभूषित हुई, फिर गंगदत्ता सार्थवाहीनी मित्त 4.११ एकादशमोग-विपाक मूत्रका प्रथम श्रुतस्कन्धा382 दुःखविपाक का सातवा अध्ययन-उम्परदच कुमार का? For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जव महिलाओ गंगदत्ता सत्यवाहिणी सव्वालंकार विभूतियं करेइ, तं सा गंगदत्ता ताहिं म अहिं बहुहिं णयर महिलाहिं सद्धिं तं विपुलं असणं ४ सुरंच ६ आसामाणी ४ दोहलं विणइ २त्ता जामेवदिसिं पाउन्भूया तामेवदिसिं पडिगया ॥ २३ ॥ तणं सा गंगदत्ताभारिया पसत्थदोहला तंगन्भं सुहपुहेणं परिवहइ ॥ २४ ॥ तएणं सा गंगदत्ता भारिया नवहंमासाणं जाव दारयं पयाया, ट्ठिया जाव णामे जम्हाणं अम्हं इमेदारए उंबरदत्तस्स जक्खरस उबाईलद्धते तं होऊणं दारए उंबरदत्तेणामेणं ॥ २५ ॥ तणं से उबरदत्ते दारए पंचधाई परिग्गहिए परिवड्डई ( ज्ञाति आदि की बहुत ग्राम की स्त्रीयों के साथ वह विस्तीर्ण अशनादि चारों आहार मदिरा आदि के {साथ अस्त्रादती खाती खिलाती विचर कर वह दोहला पूर्ण कर जिस दिशा से आई थी उल दिशा पीछी । | गइ || २३ || तब वह गंगदत्ता सार्थवहीनी का पूर्ण हुन दोहला उस गर्व की सुख से प्रति पालना करती वृद्धि करती विचरने लगी ||२४|| तब वह गंगदत्ता सार्थवहीनी नवमहीने प्रतिपूर्ण हुने यावत् पुत्रका जन्मदिया जन्मोत्सव किया यावत् नाम स्थापन किया जिस लिये हमारा यह बालक उम्बरदत्त यक्ष की आराधना से { हुवा इस लिये हमारे इस पुत्रका नाम उम्बरदत्त कुमर होवे ||२२|| तब फिर वह उम्रदत्त पांच धाय मात * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only १३८ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ ++++ एकादशमांग- विपाकसूत्र का प्रथम स्कन्ध+8+ दारए वावन्तरिवासाई परमाउपालित्ता कालमा से कालंकिच्चा इसीसे रयणप्पभाए पुढवीए इयत्ता उववज्जिहिति, संसारो तहेव, पुढबीए, तओ हत्थिणाउरेणयरे कुकुडत्ताए पच्चाया हिंति, नायामित्तेचेत्र गोडिल्लवहिंति, तत्थेव हत्थिणाउरेणयरे सेट्टीकुलसि बोही सोहम्मे कप्पे, महा विदेहे सिज्झिहिंति, निक्खेो ॥ ३१ ॥ सप्तमं अज्झायणं सम्मतं ॥ ७ ॥ 0 (( ७२ ) वर्षका पूर्ण आयु भोगव कर कालके अवसर आयुष्य पूर्णकर इस रत्नप्रभा नरक में उत्पन्न होगा ( यावत् मृगापुत्र की तरह संसार बरिभ्रमण करेगा, पृथ्वीकाय से निकल कर हस्तनापुर नगर में मूर्गा होगा! { जन्मनेही गोठील पुरुष उसकी घात करेंगे, तब वहां ही शेठके कुलमें पुत्रपने उत्पन्न होगा, धर्म पावेंगा {संयम लेकर मौधर्मा देवलोक में देवता होगा | वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्मले संमम धारनकर कर्म क्षयकर मोक्ष जावेगा ॥ ३१ ॥ उति दुःख विपाक सूत्रका उम्बरदत्त कुमार को सातवा अध्ययन समाप्तम् ॥ ७ ॥ 0 For Personal & Private Use Only दुःखविपाक सातवा का अध्ययन- उम्बरदत्तकुमार का १३९ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ॥ २६ ॥ तत्तणं से सागरदत्ते सत्यवाहे जहा विजयमित्ते जाव कालंमासे कालंकिच्चा, गंगादत्तावि, उंबरदत्त निछूडे, उहाउज्रियते ॥ २७ ॥ तएणं तस्स उंबरदत्तस्स दारगस्स अण्णयाकयाइ सरीरगंसि जमगसमगमेव सोलसरोगायंका पाउब्भया तंजहा-सासे खासे जाबकोढे ॥ २८ ॥ तएणं से उबरदत्ते दारए सोलस रोगायंकाहिं अभभूए समाणे सडियहत्थं जाव विहरइ ॥ २९ ॥ एवं खलु गोयमा ! उंबरदत्ते दारए पोरापुराणाणं जाव विहरइ ॥ ३० ॥ तएणं उंबरदत्त दारए कालमासे कालंकिच्चा कहिं गच्छहिंति कहिं उक्वजिहिंति ? गोयमा ! उंबरदत्ते से वृद्धि पाया ॥२६॥ तब फिर वे सागरदत्त सार्थवाह विजय धिमार्थवाही की तरह इस बद्र में मृत्यु पाया उसके फिकरमे गंगदत्ता भी मरगई, कोत बालने कर्ज बाट को घरस्पति देकर उम्बरदत्त कुमार को घर से निकाल दिया, ॥२७॥ तव उम उम्परदत्त के किमी वक्त शरीर में श्वास खां यावत् कोड, इन मोलेरोग की उत्पती हुइ ॥ २८ ॥ तब उस उम्बरदत्त का शरीर सोले रोग से विगहा यावत् सहगये हार पांच आदि शरीर यावत् हे गौतम! तुमने देखा चैमा विचरता है ॥२१॥ यो निश्चय हे गौतम! उम्पत्तने पहिले कोपार्जन किये हैं यावत् जिसके फल भोगवता विचर रहा है ॥३०॥ अहो भगवन् ! उम्परदत्त यहां + मे आयुष्य पूर्ण कर कहां जावेगा कहाँ उत्पन्न होगा? यों निश्चय हे गौतम ! उम्बरदत्त वालक - प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * अर्थ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र १११ 488+ एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध 48 * अष्टम-अध्ययनम् * अइणं भते ! अट्ठामस्स उक्खेवो-एवं खलुजंबू ! तेणंकालेणं तेणंसमएणं सोरियपुरे णयरं, सोरियडिंसगं उजाणं, सोरियजक्खो, सोरियदशोराया ॥ १ ॥ तस्सणं सोरियपुरस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरास्थमदिसीभाए एत्थणं एगेमच्छंधपाडए होत्या. तत्थणं समहदत्तणामं मच्छंधे परिवसह अहम्मिए जाव दप्पडियाणंदे ॥ २ ॥ तस्सणं समुददत्तस्स समुहदत्ताणामं भारियाहोत्था अहीणा ।। ३॥ तरसण समुद्ददत्तस्स मच्छंधस्स पुत्ते समुददत्ताए भारियाए अत्तए सोरियदत्तेणामे यदि अहो भमवन् ! आठवे अध्याय का क्या अर्थ कहा है ? यों निश्चय हे जंबू उस काल उम समए में सोरीपुर नाम का नगर था, सोराबडमग उध्यान था, तहां सारिय यक्षका यक्षायतन था, सोरीपुर का सोरीदत्त नामे राजा था ॥१॥ उस सोरीपुर नगर के बाहिर उत्तर पूर्व दिशा के बीच ईशान कौन है में यहां मच्छीपाडा मच्छीमार लोगों के रहने का महल्ला] था, तहां समुद्रात नामका मच्छी (मच्छीयों बेचने वाला )रहता था, वह अधर्मी यावत् दुष्कर्य करके आनन्द माननेवाला था॥२॥ उस समुद्रदत्त मच्छी के समुद्रदत्ता - नाम की भार्या थी वह सीप पूर्ग थी ॥३॥ उस समुद्र मच्छो का पुत्र समुद्र दत्ता की आत्मज मोरीदत्त नाम है। 4. दुःखविपाकका आठवा अध्ययन-सौर्यदत्त मच्छी का For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - दारएहोत्था, अहीणं ॥ ४ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सामीसमोसड़े आव परिसा पडिगया ॥ ५॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं जेतु अंतेवासी जाव सौरियपुरेणयरे उच्चणीय अहापजत्तं समुदाणंगहाय सोरियपुराओ जयराओ पडिणिक्खमइ, २चा तस्स मच्छंध पाडगस्स अदूरसामतेणं वीइवयमाणे महइमलियाए मणुस्स पुरिसाणं मझगयं पासइ, एगंपुरिसं सुकं भुक्खं णिम्मंसं अट्ठिचम्मावणद्धं किडिकिडियाभूयं १ णीलसामागणियत्थं मच्छकटएणं गलए अणुलग्गोणं कट्ठाई कलुणाई वीसाराई कुउ का पुत्र था वह भी पूर्ण अबावाला था ॥ ४ ॥ उस काल उस समए में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी पधारे, परिषदा आई, धर्मकथा मनाई, परिषदा पीछी गई ॥५॥ उस काल उस समय में भगवंत के बडे शिष्य यावत् सायपूर नगर में उंचनीच मध्यमकुल में बहुत घरों की भिक्षा ग्रहण करते सोरी-33 पुर नगर से पीछे निकलते उस मच्छीपाडे पास से जाते हुवे महाजवर बहुत मनुष्यों की परिषदा के मध्य में एक पुरुष का शरीर काष्टभूत सूकगया है, राखभूत लूक्खा होगया है, मांस रहित हड्डी का पंजर चयडे कर वेष्टित किया हुवा शरीर है किडकिडीभूत-उठते बैठते चलते हड्डीयों का कहर अवाज होता है, पानी से भीजा दुवा वस्त्र पहने है, उस के कंठ ( गले ) में मच्छी का काटालगाहुवा है जिससे वह अत्यंत क्लेशकारी यावत् दीनदयामने वचनबोल रहा है, विकराल शब्द से रूदग । * प्रशाशक-सनीबहादर लाला सुखदेवमहायनी ज्वालाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूत्रमाणे अभिक्खणं २ -पूयकवलेय, रुहिरकवलेय, किमिकवलेहिय, बममाणंपासइ २ त्ता इमेयारूवे अज्झस्थिए ४ पुरापोणाणं जाब विहरइ, एवं संपेहेइ २त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव पुत्वभवपुच्छा ॥ ६ ॥ जाव वागरणं एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेय जंबूद्दीवे २ भारहेवासे गंदिपुरेणामं णयरेहोत्था, मित्तेराया ॥ ७ ॥ तस्सणं मित्तस्स सिरीनाम महाणसिहोत्था अहम्मीए जाव दुप्पडियाणंदे ॥ ८ ॥ तस्सणं सिरियरप्त महाणसियस वहवे मच्छियाय, वागुरियाय साउरियाय, दिण्णभत्ति, कल्लाकालिं वहवेसण्ह मच्छाय जाव पडागाइ १डागेये कर रहा है अक्रन्दन कर रहा है,पीप(रस्सी) के कुल्ल लोहीके कुल्ले कृमी जन्तु के कुल्ले सहित वमन करता हुवा देखकर अध्यवसाय उत्पन्न हुवा, यावत् भगवंत के पास आकर पूर्व भवकी पूछा की ॥ ६ ॥ भगवंतने कहा यों निश्चय हे गौतम ! उस काल उस समय में इस ही जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में नंदीपुर नाम का नगर था, तहां मित्र नाम का राजा था. ॥ ७ ॥ उस मित्र राजा के श्रीया नाम का रसोइया था. वह Kअधर्मी याव कूकर्म करके आनंदपाने वाला था ॥ ८॥ श्रीया रसोइया ने बहुत से मछी-मच्छी मारने ७ वाले, वागुरी-पक्षी तीलरादि के घातक, खाटकी-चौपद के घातक इत्यादि को सदैव माहार पानी नतखा 1 मजदूरी देता था, वे मच्छी आदि मच्छीयों काछवे आदि जलचर जीवो,बकरे असे आदिक चौपद, नीबों। 418-एकादशमांग-विषाक सत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध482 +2 दुःखविप्राक का-आठमा अध्ययन-सौर्यदत्त मच्छी का 8 For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ * अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अएथ जाव महिसातेय, तितरेय जात्र मयूरेव जीवियाओ विवरोवेति सिरीयस्स महाणसियरस उवणे, अण्णेयसे बहवे तित्तराय जाब मयुराय पंजरं सिसाणिरुद्धा चिति अष्णेय हवेपुरिसा दिष्णभित्तिए वहवे तित्तरेय जात्र मयुरेय जीवियए चैत्र णिष्पखेइ २ ता सिरियस्स महाणसियस्स उववण्णेइ ॥ ९ ॥ तएणं से सिरिए महाणसिए बहुणं जलयर थलयर खइयर मसाई कप्पाणी कप्पियाई करेइ २ तंजहा सण्हखंडि याणिय वट्ट दीह रहस्त हिमपकाणिय, जम्म धम्म- मारुय-पक्काणिय कालाणिय, हरंगाणिय, महिट्ठाणिय, आमलसिया. णिया, मुद्दिया कविट्ठा दालिमर[तीतर यावत् मयूरादि खेचर- पक्षीयों इत्यादि को जीवित रहित कर मारकर श्रीया रसोइये को लाकर देते थे और कितनेक नोकरों पशु पक्षीयों को बाडे में पिंजरे में बंदकर रखते थे, और कितनेक नोकरों पशु पक्षी यों आदि की पांखो उखेड़कर आधे मरे बनाकर श्रीयाको लाकर देते थे ॥ ९ ॥ तब फिर वह श्रीया रसोइया बहुत जलनर थलचर खेचर इत्यादि का मांस कैषी से काट कर तद्यथा-सूक्ष्म बारीक टूकडे करकर, गोल टूकडे कर, छोटे खंडकर, शीतकर पचावे, पानी कर पचाचे, वायुकर पकावे, तक्र [ छाछ) कर भरे हुने तथा तक कर संस्कार किये हुवे, खट्टे अमली के रस भरे, खट्टेरस कर संस्कारे, इक्षु के रस से भरे, द्राक्ष के रसकर संस्कारे, कवीट के रसकर संस्कारे, दाडिम For Personal & Private Use Only * प्रकाशकं राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी # १.४४ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिया मच्छरस तलियाणिया भजिया सोल्लिया उपक्खडावइ २ ता अण्णेय बहवे मच्छरसएय एणिज्जरसएय तित्तररसएय जाव मयूरसएय, अण्णंच विउलं हरियसागं उपवक्खडावेई २ त्ता मित्तस्सरण्णो भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए उवणेइ ॥ १० ॥ अप्पाणा वियण्णं से सिरिए माहणसिए तेसिंच बहुहिं जाव जलयर थलयर खहयर मंसेहिं रसएहिय हरियसागेहिय सोलिहि यतल्लिय भजिय सुरेचद आसायमाणे ४ विहरइ ॥ ११ ॥ तएणं से सिरीएमाणसिए एयकम्मे ५ सुबहु -विपाक सूत्र का प्रथम श्रतस्कन्ध एकादशी दुःख विपाक का-भाउमा अध्ययन-सार्यदत्त मच्छी का १(अनार )के रसकर संस्कार, मच्छी के रसकर संस्कारे, तेलादिकर संस्कारे, तेलादि में सले, अग्नीकर भूमे इस प्रकार मांस को तैयार कर, और भी बहुत से मच्छीयों का रस मच्छीयों का मांस का रम, मृगादि पशु के मांस का रस, तीतरादि १क्षीयों के मांस का रस यावत् मयूरादि को का रस, और भी बहुत हरित काय? शाक भाजी तैयार करके मित्र राजा के भोजन मंडप में भोजन स्थानक में भोग (जेमन) के वक्त आगे कों रखताथा॥१०॥ और आपस्वयं भी वह श्रीप रसोइया उक्त प्रकारका जलचर थलचर खेचर के मांसका मूलाकर उक्त रसों के साथ हरित शाक भाजी के साथ सेक कर भून कर तल कर मदिरादि के साथ अस्पादता हुवाविचारता था ॥१२॥ तब फिर वह श्रीया रमोइया इस प्रकार करतूतकर कूआचरनकर तीस सो [३३००112 For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + जाव समजिणित्ता, तेत्तिसं वाससयाई परमाउपालिता कालमासे कालंीकच्चा छट्ठीए पुढवीए उबवण्यो ॥ १२॥ तएणं सा समुददत्ता भारिया गिद्याबि होत्था जाया २ दारगा विणिघायमावजंति; जहा गंगदत्ताए चिंता अपुच्छणा, उवाइय, दोहला, जात्र दारगं पयाया, जाव जम्हाणं अम्हं इमे दारए सोरियस्स उवातियाणडए तम्हाणं होउ अम्हे दारए सोरियदत्तेणामेणं ॥ १३ ॥ तएणं से सोरियदत्य दारए पंचधाइ जाव उमुक्कबालभावे विणाय परिणयमिते जोवणे होत्था ॥ १४ ॥तएणं से वर्ष का परमायुष्य पालकर काल के अमसर काल पूर्ण कर छठी नरक में उत्पन हुवा ॥ १२ ॥ तव वह समुद्र दत्ता भार्या मृतबज्झा थी उन के जन्मे बालक जीते रहते नहीं थे, उसे जिस प्रकार पूर्वोक्त गंगदत्ता भार्या को चिंता उपत्म हुई तैसे इस के भी चिंता उत्पन्न हुइ समुद्रदत्त को पूछ सोरीयक्ष की पूजा की मानताली | फिर छठी नरक से निकलकर श्रीया रसोइया समुद्रदचा की कूक्षी में पुत्राने उत्पन्न हुआ. तीसरे महीने डोहला उत्पन्न हुदा, सोरीदत की पूजा की नवमहीने व्यातीत हुवे, बालक जन्मा, नैसेही सोरियदत्त नाम स्थापन किया॥१३॥तब फिर वह सोरीदच बालक पांच पाय करबडा हुवा, बाल भाव से मुक्त हुवा, यौवन अवस्था प्राप्त हुवा ॥ १४ ॥ फिर समुद्रदत्त मच्छान्ध अन्यदा काल प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्यालामसादजी 1 For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ 49एकादशमांग-विपाकपुत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 480 समुददत्तस्स अण्णयाकयाइ कालधम्मुणासंजुत्ते॥१५॥तएणसे सोरियदत्ते दारए बहहिं मिरा रोयमाणे २ समुदत्तस्स णीहरणं करेइ २ ॥ अण्णयाकायाइ सयमेव मच्छंध महत्तरंगत्तं उयसंपजित्ताणं विहरई॥ १६ ॥ तएगं से सोरियदत्ते दारए मच्छंध जाए अहम्मिए जाच दप्पडियाणंदे ॥ १७ ॥ तएणं तस्स सीरिय मच्छंधस्स बहवे पुरिसा दिन्न भत्ति कल्लाकल्लि एगट्ठियाहिं जउणं महागंदिओगाहिति बहुहिं दहगलणहिय दहमलणेहिय, दहमहणेहिय, दहमहणेहिय, दहवहगेहिय, दह रहिय पच्वुले हेय, धर्म प्राप्त दुवा मृत्युपाया ॥१०॥ तब फिर वह सौर्यदत्त बहुत से मित्रादि साथ रुदन करताना सनदानका निहारन मृत्युकार्य-किया, बहुत से लोकीक सम्बन्धी कार्य किय; फिर अप संयं मच्छी का आयाति पना अङ्गीकार कर विचरने लगा ॥१६|| तब फिर वद्द सौर्यदत्त पच्छेप का माल हुका अध पापिष्ट यावत् ककर्म कर आनंद पाने लगा ॥ १७॥ तब फिर सौर्य दत्त मच्डी के बहुत से पुरुष नोकर थे, वह उन कोई सदैव भोजन पानी नोकरी देता था, वे सदैव काष्ट की नावारुड होकर महानदी में प्रवेश करकेद्रह-तला वादि में प्रवेश करके बहुतसी मच्छी आदि ग्रहण करने परिभ्रमण करते, पानी में स मच्छी आदि जल चर जीव को निकालते, कर्दम में मशलते, द्रह आदि को उलीव कर पाती कमी करते, पानीका मथन करते तरुशाखादिकर पानीको डोबला करते,पाल फोडकर पानी निकालते, साफ पानीनिकाल कर तडफडते पच्छादि।। * दुःखविपाकका-आठवा अध्ययन- मौर्यदत्त मच्छी का For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4- अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पंचपुलेहिय, जंभाहिय, तिसराहिय मिसराहिय विसराहिय, हिल्लीरीहिय, जालेहिय, लल्लिरीहिय झल्लरीद्दिय गलेहिय कूडपासेहिय, चकबंधेहिय, सुत्तबंधहिय, बालबंधे. हिय. बहये सहामच्छेय जाव पडागाइ पडागय गिव्हंति २ ता एगट्टियाओ भरेइ २ ता कूलंगाहिति २ चा मच्छखलए करेइ २ चा आयर्वसिदलयंति ॥ अण्णेयते बहवे पुरिसादिष्णभक्तिवेयणा आयवंतत्तएहिं सत्येहिसोलहिंय भजिएहिय रायमग्गि विर्तिकप्पेमाणे विहरइ ॥ १८ ॥ अप्पातिणावियणं सेसोरिए बहुर्हि सेसहामच्छेि { को ग्रहण करते, इत्यादि प्रकार से मच्छीयों को ग्रहण करके मच्छ बन्धन का, त्रिराजाल, भीसराजाल, दिल्लरीजाल, जलरी जाल, ललरी जाल, भलरी जाल, इत्यादि जालों के नाम जानना, मच्छ कंठ छेदन का कांटा, कूट पास बंधन, बक्कल बंधन, सूत्तबंधन, बालों के बच्चन, छाल के बन्धन, बहुत प्रकार के सम्हा शस्त्र इत्यादि कर मच्छीयों के पड़ागे २ समूह के समुह ग्रहण करके नात्रा भर २ कर नदी के तदपर आते, मच्छी। यों के ढग करते, ताप घूर में सूकाते थे, वे बहुत से पुरुषों को देते थे. और भी बहुत से पुरुषों को आहार पानी मजूरी देता था वे उन सूके हुने मच्छीयों के मूळे करके अग्निर से भूंज तळ यावत् राजपारीने बेचकर अपनी आजीविका करते हुने विचरते थे || १८ || और वह सौरियदत्त मच्छी आप भी For Personal & Private Use Only * प्रकाशक - राजवहादुर लाला सुखदेव सडायजी ज्वालाप्रसादजा १४८ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 जाव पडाग सोल्लाहिए तलेहिए भजिएहिए सुरंचद्द आसायमाणे ४ विहरइ ॥ १९ ॥ तएणं तस्स सोरियदत्तरस मच्छंधयस्स अण्णय कयाइ मच्छसोल्लय तलिए मजिए आहारेमाणस्स मच्छकंटएगलए लग्गेयाविहोत्या, महयाए वेयणाए अभिभूए समाणे कोडुवियपुरिसे सहावेइ २ ता एवं वयासीं-गच्छहणं तुम्मे देवाणुप्पिया ! सोरियपुरे णयरे सिंघाडग जाव पहेसु महया २ सहेणं उग्धोसेमाणे ५ एवं बदह- एवं खलु देवाणुप्पिया ! सारियदत्तस्स मच्छकंटए गलएलग्गे जं जोणं इच्छइ विजोवा सोरिया मच्छियस्स मच्छकंटगं गलाओ णिहरित्तए तस्सणं सोरिय विपुलं अत्थसंपयाण उन बहुन मच्छ यावत् पताके के सोलेकर तल कर भूजकर मदिरादिके साथ खाता हुचा रहता था ॥ ५९॥ एक दा मच्छ के सूले करके तलकर भूजकर आहार करते-खाते हुवे मच्छी का कांटा गले में लगा-चुव है। गया तब फिर वह सोरियदत्त मच्छी को अत्यन्त प्रबल बेदना उत्पन्न हुई, तब कोटुम्बक पुरुष को बोलाकर कहने लगा जावों तुम हे देवाणुप्रिय सोरी पुरके वीवट चौवट महा पंथमे उदघोषना करो यों कहो कि अहो 166 दवाणु, प्रेयसीरियदत्त मच्छी, केगले में मच्छका काँटा लगा है, जो कोइवैद्य वैद्यके पूत्र सौरियदत्त मच्छी के गले 1मे काट निकालेगा. उसे सोरियदत्त मच्छी बहुत धन सम्पदादेगा तब फिर फोटुम्बिक पुरुषने तैसाही किया है 498 एकादशमांग-विपाकपुत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध दुःवधिक का-आठवा अध्ययन-गोर्यदत्त मच्छी का अर्थ For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- दलयइ ॥ तओणं. कोडुबियपुरिस जाव उग्घोसइ॥ २० ॥ तओ बहवे विजाय इम एयारूवं उग्धोसेजं तंणिसामेइ २ त्ता जेणेव सोरिदत्तागिहे; जेणेव सोरियमच्छंध तेणेव उवागच्छइ २त्ता बहुहिं उप्पत्तियाहिय ४ इच्छंति सोरियमच्छंधस्स मच्छकंटगं १५० गलाओ पीहरितएवा विसोहित्तएवा णोचवणं संचाएत्ति णीहरित्तएवा विसोहिएत्तएवा ताहेसंता तंतापरितंता जामेवदिसि पाउन्भूया.तंमेवादसि पडिगया॥२१॥तएणसे सोरिय मच्छंधे विजंपडियारणिविण्णे, तेणं दुखणं महया अभिभूए सुक्के जाव विहरइ ॥ २२ ॥ एवं खलु गोयमा ! सोरिय पुरापोराणाणं जाव विहरइ ॥ २३ ॥ सोरिएणं ॥ २० ॥ तब फिर बहुत वैध आदि उक्त उदघोषना श्रवन कर जहां सोरियदत्त मच्छी का घर था जहाँ सोरियदत्त मच्छी था तहां आये, आकर बहुतसी उत्साती की विनीया क्रपीया परिणामीया चारों प्रकार की बुद्धीकर चहाने लगे सोरियदत्त के गले से मच्छका कांटा निकालना, परंतु अनेक उपाव करके भी कांटा, निकाल ने समथन हुवे गला विशुद्ध करसके नहीं तब बहुत से वैधादि थक गये हारगये घबराकर जिस दिशा से आये थे उस दिशा पीछे गये ॥ २१॥ तब सौर्यदत्त मच्छी उन वैद्य के गये बाद । Mदुःखकर अतीही पीडित हुवा सूका भूका मांस रहित हडी का पिंजर चर्म वेष्टित शरीर रहगया । है ॥ २२ ॥ यों निश्चय हे गौतम ! सौरिय पच्छी पूर्व जन्ममें बहुत काल के उपार्जन किये पापकर्म के फल 42 अनुवादक-घालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र एकादशमांग-विपाक सूत्रका प्रथम श्रुतस्कन्ध 428 मते । मच्छंधे इओ कालेमासे कालंकिच्चा कहिं गाच्छिर्हिति कहिं उववाजिर्हिति ? गोयमा ! सत्तरिवासाइं परमाउ पालेइत्ता, कालमासे कालंकिच्चा इमीसे रयणप्प. भाए पुढवीए, संसारो तहेव जाव पुढवी, ततोहत्थिणाउरे णयरे मच्छत्ताए उबवणे सेणं तओमच्छीएहिं जीवियाओ विवरोवेइ, तत्थेव संट्टि कुलंसि बोही, सोहम्मे, महाविदेहे सिज्झिहिति ॥ णिक्खेवो ॥ अटुंमं अज्झायणं सम्मत्तं ॥ ८ ॥ भोगवता विचरता है ॥ २३ ॥ अहो भगवान ! सौरिखदत्त मच्छी काल के अवसर काल पूर्ण कर कहां। जायगा कहां उत्पन्न होगा गौतम सित्तर [७०] वर्ष का पूर्ण आयुष्य भोगकर मृत्यु पाकर रत्नप्रभा नरक में उत्पन्न होगा, यावत् मृगापुत्र की परे संगार परिभ्रागकर पृथ्वी कायसे निकल हथनापुर नगर में मच्छ होगा, वहां मच्छीमर मारने से मृत्यु पाकर तहां ही हस्तनापुर नगर मे शेठ का पुष हो दीक्षा ले, सौधर्मा देवलोक में देवता होगा, यहां से महा विदेह क्षेत्र में जन्म ले दीक्षाले मोक्ष जावेगा ।। इति विधाक है मूत्र का सोरियदत्त मच्छी का आठवा अध्ययन समाप्तम् ॥ ८॥ * दुःख विपाक का आठया अध्ययन सौर्यदच मच्छीका + 6.8% Reer - For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ maamannawwand * नवम-अध्ययनम् * जइणं भंसे ! उक्खोवो णवमस्स-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं राही. डएणामं णयरे होत्था रिद्वत्थमिय, पुढवावडिंसए उजाणे, धरणे जक्ख, वेसमणद त्तेराया, सिरिदेवी, पृसणंदीकुमारे, जुवराया ॥ १ ॥ रोहीडएणयरे दत्तणाम गाहावई परिवसइ, अड्डे कण्हसिरीभारिया ॥ २ ॥ तस्सणं दत्तस्सधूया कण्हसिरिए अत्तया. देवदत्ताणामं दारियाहोत्था अहीण जाव उक्किट्ठसरीरा ॥ ३ ॥ तेणं कालेणं तेणं यदि अहो भगवान ! नावे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? यो निश्चय हे जम्बू ! उस काल उस समय में रोहीड नाम का नगर ऋद्धिस्मृद्धि कर संयुक्त था. ईशान कौन में पृथ्वी वडिसए नामका उध्यान था, रोहीड नगर में वेश्रमणदत्त नाम का राजा राज्य करता था, जिस की श्रीदेवी नाम की रानी थी, FEवेश्रमण राजाका पुत्र श्रीदेवीका आत्मज पूजनंदी नामका कुमार था, उसको जुगराजपद पर स्थापन किया था ॥१॥ उम रोहीड नगर में दत्त नाम का गाथापति रहता था वह ऋद्धिवंत था, जिस के कृष्ण श्री नाम की भार्या थी ॥ २ ॥ दत्त गाथापति के पुत्री, कृष्ण श्री की आत्मज देवदत्ता नाम की पुत्री थी, वह सर्व इन्द्रियकर पूर्ण थी यावत उत्कृष्ट प्रधान शरीर के रूपकी धारन करने वाली थी॥ ३ ॥ उस क . प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाममादजी. 4. अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी अर्थः For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ सूत्र एकादशमांग त्रिपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्य 4 समएणं सामीसमोसड्ढे, जाव परिसा पडिगया ॥ ४ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं जेट्टे अंतेवासी छट्ठखमण तहेव जात्र रायमग्गं उगाढ़े हत्थी आसे पुरिसे पासइ, तेर्सि पुरिसाणं मज्झगयं पामइ एगं इत्थियं अबउडगबंधणं उक्खत कण्णणासं जब सूलभिजमानं पास, इमे अज्झत्थिए ४ तहेव णिग्गए जाव एवं वयासीएसिणं भंते ! इत्थिया पुव्वभवे काआसी ? ॥ ५ ॥ एवं खलु गोयमा ! तेणं काळेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीवदीये भारहेवासे सुप्रतिष्णामं नथरे होत्या, रिद्धत्थमिय महासेणराया || ६ || तस्सणं महासेणस्स रण्णो धारणीपामोक्खं देवीसहरसं उम समय में श्रमन भगवंत महावीरस्वामी उधारे परिषद वंदने आई, घर्मकथासुन परिषदा पीछी गई || ४ | उस काल उप समय में श्रमण भगवंत के जेष्ट शिष्य बेले के पारने पूर्वोक्त प्रकार गौचरी गये, राज्यपंथ में हस्ति घोडे प्रमुख बहुत देखे उन पुरुषों के मध्य में एक स्त्री उलंटी मुस्को से बन्धी हुइ जिम के नाक कान स्तन छेदित किये हुये शूली देने को लेजाते देखी. पीछे फिर भगवंत के पास आये, यावत् थों बोले अहो भगवान ! यह स्त्री पूर्व जन्म में कौन थी ? ॥ ५ ॥ भगवंत बोले यों निश्चय हे गौतम ! उस काल उस समय में इस ही जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सुमतिष्ट नाम का नगर ऋद्धिस्मृद्धि युक्त था, वहां महासेन नामका राजा राज्य करना था || ३ || उप महासेन राजाके धारिती प्रमुख एकहजार रानीयोंका अन्तेपुर था For Personal & Private Use Only २०३ दुःख विपाक का नववा अध्ययन-देवदत्ता रानी का १५३ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री मोहक ऋणी उरोहियाधि होत्था ॥ ७ ॥ तस्सणं महासेणस्सपुत्ते धारणीदेवीए अत्तए सीहोण णामं कुमारे होत्था, अहीण जुबराया ॥ ८ ॥ तएणं तस्स सीहोणस कुमारस्स अम्मापियरो अण्णयाकयाइ पंचपासयवासयाई करेइ, अब्भूगए ॥ ९॥ तएणं तस्म सीहसेणस्स कुमारस्स अन्नयाकयाई सामापामोक्खाणं पंचहरायवर कण्हगसयाणं एगंदिवसेगं पाणीगिण्हावेइ पंचसइ उदाती ॥ १० ॥ तएणं से सीहसणस्स कुमारस्त सामापामक्खेिहिं पंचदेवीसएहिं साढ़ें उपि जाव विहरइ ॥ १७ ॥ तएणं से महासेणराया अण्णयाकयाइ कालधम्मुणा संजुना, जीहारणं, रायाजाए ॥७॥ उस महासेनराजा कापुत्र धारनी देवीका आत्यज सहसेन नामका कुमार था, वह सर्व अंगोपांगकर पूर्ण युवराज्यपद पर स्थापन किया था, ॥ ८॥ तब फिर सिंहसेन कुमार के सातापिताने एक दा पांचमो प्रमाद शिखाग्बंध कराय, वे बहुत ऊंचे पावत् शोभायमान थे, ॥२॥ नव फिर सिंहसेन कुमार को एक ही वक्त सामादवी प्रमुख पाँचसो (५००) राजा प्रधान की कुमारी का के साथ पानी ग्रहण कराया, पांच से हिरन्य क्रोड, पांचसो ग्राम आदि १९२ बोल का पांचसो २ दायचा दिया ॥१०॥ तब फिर सिंहसेनकुमार पांचसो रानीयों के साथ प्रसादो के उपर पांचों इन्द्रिय के भोगभोगवता हुवा विचरने लगा ॥ ११ ॥ तब एकदा वह महासेणराजा कालधर्ष माप्तहुआ-मृत्युपाया. उसका • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी उदाहारसादजी. For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 488+ एकादशमांग विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 480 महया ॥ १२ ॥ तएणं से सीहसेणराया सामादेवीए मुच्छि९ ६ अवसेसाओ देवीओ णोआढाहिं णोपरिजाणाहिं अणाढाइमाणे अपरिजाणमाणे विहरइ ॥ १३ ॥ तएणं तासिं एगुणगाणं पंडण्हं देवीसयाइं एगुणाइ पंचमाओधाइसयाइं इमीसे कहाए लढाई समाणियाए- एवं खलु सीहसेणराया सामादेवीए मुछिए ३ अम्हं धूयाओ गोआढाइणोपरिजाणइ, तंसेयं खलु अम्हं सामादेवीं अग्गिपओगेणवा, विसप्पओगेणधा,सत्थप्पओगणवा,जीवियाओविवरोवित्तए ।। एवं संपेहेइरत्ता सामादेवीए निहारन बहुत आडम्बर से किया, फिर सिंहसनराजा हुआ महाहिमवंत पर्वत जैसा ॥१२॥ सब वह सिंहसेनराजा अन्यदा सामादेवी से मच्छिन बना हुवा, दुमरी रानीयों का अनादर करता, उन का अनुमोदन भी नहीं करता उन का वचन मात्रले भी सन्तोष नहीं उपजाता रहने लगा ॥१३॥ तब एक कम पांचसों (४११ ) रानीयो और एक कम पांचने ( ४११) उन राणीयों की धाय माताओं ने इस प्रकार जानाकि सिंहसन राना एक शापारानीही में लुब्धहुभा इमारी पुत्रीयों का अनादर करता है, वचन मात्र से भी मन्तोपता नहीं है अच्छी भी नहीं जानता है. इसलिये अपन को श्रेय है कि शामादेवी को अनि के प्रयोगकर, विषके प्रयोगकर, शस्त्र के प्रयोगकर जीवित रहित कहे मारडाले. ऐसा विचार कर सामादेवीका दुःखावपाक का-नववा अध्ययन-देवदत्तारानी का 8 For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अंतराणिय छिद्दाणिय विरहाणिय पडिजागरमाणीओ विहरति ॥ १४ ॥ तएणं सा सामादेवीए इमीसकाहाए लट्ठाए समाणे एवंवयासी-एवं खलू ममपंचण्हं सबती सयाइं इमीसे कहाए लढे समाणे अण्णमण्णं एवं वयासी. एवं खलू सीहसेण राया जाव पडीजागरमाणीओ विहरंति, तणणज्जतिणं ममं केणइ कुमरणेणं मारेस्सती तिकटु भीया, जेणेव कोवघर तेणेव उवांगच्छइ रत्ता उहय जाव झियाइ ॥१६॥ तएणं से सीहसेणराया इमीसे कहाए लढे समाणे जेणेव कोवघरे जेणेव सामादेवी तेणेव उवागच्छइ २त्ता सामादेवी उदय जाव पासइत्त २त्ता एवं वायसी-किण्हं तुमं । देवाणुप्पिय ! उहयं जाव झियाइ ॥ १५ ॥ तएणं सा सामादेवी सीहसेणणं रायाणं तर छिद्र मनुष्यों का विरह देखती हुई विचरने लगी॥१४॥ तब सामारानी को उक्त सापाचार तब वह अपने मन से विचारने लगी-यों निश्चय पांचमो शोको पांचसे सोको की माताओंने ऐसा जाना और परस्पर मिलकर यों कहने लगी-कि सिंहमेन राजा शामादेवी से लुब्ध हो अपनी पुत्री का आदर नहीं करता है इसलिये शामा को किसी भी उपाय से मार डालना यावत् मुझे मारने का अन्तर छिदर देखती हुई विचर रही है. तो नमालुम मुझ को किस कुमृत्युकर मारेंगी. यों विचार कर डरपाई प्रासपाई, जहां कोप घर ( सूना घर) था तहां भाकर चिन्ता ग्रहस्तबनी, आर्तध्यान करती हुई विचरने लगी ॥१८॥ * भकाशक-राजावहादुर लालामुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ +8+ एकादर्शमांग विपाक सूत्र का प्रथम स्कन्ध एत्त समाणी उप्फेण उष्फेणियं सीहसेणरायं एवं बघासी एवं खलु सामी ! ममं एकूण पंचसबत्तीसयाई, एकूणं पंचधाइसमाई इमीसे कहाए लडट्ठए सत्रणयाए, अण्ण मग सहावेइ एवत्रयासी- एवंखलु सीहसेणराया सामदेवीए मुच्छि ४ अधुयाओ अढाइ जाव अंतराणिय छिद्दाणिय जात्र पडिजागरमाणी विहरीतए, तंणणजइणं तब हिमन राजा को यह बात मालुम होते ही जहां कोप घर था जहां शामादेवी थी सहां आया, अकार (शामादेवी को चिन्ताग्रस्त यावत् आर्तध्यान ध्याती, देखकर यों कहने लगा- हे देवानुमिया ! किस कारन तू चिन्तग्रस्त हो आर्तध्यान ध्यारही है ? ।। १६ ।। तत्र शामादेवी सिंहसेन राजा के उक्त वचन श्रवण कर क्रोध के उफान में आविलबिलाट शब्द करती सिंहसेन राजा से यों बोली-यों निश्चय अहो (स्वामी ! मेरी एक काम पांचसो शोको — और एक कम पांचसो उनकी धाय माताओं, इस प्रकार जाना और परस्पर मिलकर इस प्रकार मिसलतकी कि-यों निश्चय सिंहसेन राजा शामादेवी से मूच्छित हुवा है, हमारी -पुत्रो यों का आदर सत्कार नहीं करता है, इसलिये शाया को अग्नि से शास्त्र से जहर आदि [प्रयोग से मारडालना, यों विचार कर मुझे मारने का अन्तर छिदर देखती हुई विचर रही हैं, इसलिये {नमालुम की वे मुझे किस कुमृत्युकर मारेगी, ऐसा जान में डरपाई त्राम पाइ चिन्ता ग्रस्तहो आर्त ध्यान For Personal & Private Use Only 42 दुःखः विपाक का नववा अध्ययन -देवदत्ता रानी का १५७ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + ममं केइ कुमरणेणं मारेसइ तिकट्टु भाया ४, ज्झियामि ॥ १७ ॥ तरणं से सीह सेणे राया सामादेविं एवंवयासी- माणं तुमं देवाणुप्पिया ! उहय जाव ज्झियाहिंति, अहणं तववत्तीहामि जहाणं तवणत्थि कतोचि सरीरस्स आवाहेवा पत्राहेवा भविस्सइ तीक, ताहि इट्ठामिमासासति, तओपडिणिक्खवमइ २त्ता कोडवियपुरीस सद्दविइ २ ता एवं वयासी - गच्छहणं तुग्भे देवाणुप्पिया ! सुपइट्ठियस्स नयरस्त बहिया एवं महं कुडागारसालं करेह अगेग खंभ पासादिय ४ करेह २त्ता ममएयमाणंतियं पञ्चापिणह ॥ १८ ॥ तणं ते कोटुंबिय पुरिसा करयल जात्र पडिसुणेइ २ त्ता, सुप्पइट्ठियरस ध्यारही हूं ॥ १७ ॥ तब वह सिंहमेन राजा शामादेवी से यों कहने लगा-दे देवानुप्रिय ! तुम आर्त ध्यान मत करो, अब में ऐसा ही उपाय करूंगा जिस प्रकार तेरे शरीर को किंचित भी बाधा पीडा करने वाला कोई नहीं रहगा. यों कह कर उस को इष्टकारी प्रियकारी वचन से सन्तोषकर, वहां से निकला, निकलकर बाहिर आकर कोटुम्बिक पुरुष को बोलाकर यों कहने लगा- जावो तुम हे देवानुप्रिया ! सुप्रतिष्ट नगर के बाहिर एक बडी कुटाकार शाला अनेक स्थम्मकर सहित चित्त को प्रसनकारी देखने योग्य अभीरूपप्रतिरूप) { बनवाओ, बनवाकर यह मेरी आज्ञा पीछी मेरे सुपरत कसे ||१८|| कुटुम्बिक पुरुष हाथ जोड यावत् वचन * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी # For Personal & Private Use Only १६८ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ एकादशांग विपाक सूत्रका प्रथम श्रुतस्कन्ध यरस बहिया पच्छिमदिराभाए एवं महं कूडागारसाल जाप करेइ, अगेग खंभ पासाइया, जेगेव सोहसराया तेणेव उपागच्छइ २त्ता तमागचियं पञ्चप्पिणइ ॥ १९ ॥ तणं से सीहसेराया अण्णया कयाइ, एगुणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगुणाई पंचमाई सयाई आमंतेइ ॥ २० ॥ तरणं तासि एगूर्णपंचदेवीसयाणं एगूणं पचमाई सयाई सीह सेणरणा आमंतियाई समाणाई सव्वालंकारविभूसियाई करेइ जहा त्रिभवेणं, जेणेव सुपइयरे जेणेव सीहसेमेराया, तेणेव उवागच्छइ २ ॥ २१ ॥ तणं से सीतेणराया एकूगंपंचदेवीसयाणं, एकूणपंचण्हंमाईसयाणं कूडागारसाल मना किया, सुप्रतिष्ठ नगर के बाहिर पश्चिम दिशा के विभाग में एक बडी जवर कुटाकार शाला अनेक स्थंभों से वैष्ठित चिन की कारी नवाकर जहां सिंहसेन राजा था तहाँ आकर वह आज्ञा पीछी सुपरत की ।। १२ ।। नत्र हितेन राजा अन्यदा किसी वक्त एक कप पांच रानीयों को और उन की एक कम पांच वाताओं को आमंत्रण दे बोल|२०|| वे एककप पांचलो देवीयों और एकम काम पांचसो उन की धायमान राजा का आमं श्रवनकर सर्व अलंकार कर विभूषित हुई, जिस का विभवकारी वास होकर जहां सुमतिष्ठ नगर जहां सिंहसेन राजाथा तहां आई, ।। २१ ।। तब सिंहसेन राजाने एककम पांचों रानीयों को और एक कम पांचसो उनकी धाय माताओं For Personal & Private Use Only 4 दुःखत्रिपाकका नववा अध्ययन -देवदत्तारानी का १०२ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० अनुवादक-पलब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी आवसहं दलयइ ॥२२॥ तएणं से सिहसेणेराया कोडुंबिय पुरिसे सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुभ देवाणुप्पिया ! विउल असणं ४ उवणेह, सुबहुपुप्फवत्थगंध मल्लालंकारंच कूडागारसालं साहरइ ॥२३॥ तएणं ते कोडुबिय तहेव जाव साहरइ ॥ २४ ॥ तएणं तासिं एगुणगाणंपचण्हदेवीसयाणं एगुणपंचण्हंमाइसयाई जाव सव्वालंकार विभूसियाई, तं विउलं असणं ४ सुरंच ६, आसाएमाणी ४, गंधव्वेहिं णाडएहिय उवगीयमाणाई विहरइ ॥ २५ ॥ तएणं से सीहसेणराया अडरत्तकाल को कूडागार शाल में रहने का कहा, वे उस ही प्रमाणे उप्त कुटाकार शाला में जाकर रही ॥ २२ ॥ तब सिंहसेन राजा कुटुम्धिक पुरुष को बोलाकर, यों कहने लगा-यों निश्चय हे देवानुप्रिया ! तुम जावो विस्तिर्ण अशनादि चारों प्रफार का आहार तैयार कर के उस कूडागार शाला में पहोंचावो बहुत वस्त्र फूल गंध माला अलंकार भी कूडागार माला में पहोंचायो॥२३॥ तब फिर कुटुम्धिक पुरुषने तैसेही , चारो थाहार वस्खादि तहां भेजे ॥ २४ ॥ तब फिर एककमपावसो रानीयों और एक कम पांचसो धाय । मातायों पूर्वोक्त किये हुवे सर्व श्रृंगार सहित वह बहुत अशनादि चारों प्रकार का आहार मदिरादि के साथ खाती खिलाती गन्धर्व-गीतगाती, नृत्वकरती, गीत नृत्य में प्रमोद पाती विचरने लगी॥२५॥ तब फिर से वह सिंहसेन राना आधीरात्रि में बहुत पुरुषों के साथ परिवरा हुवा जहां कूडागार शाला थी तहां आया, • प्रकाशक-रांजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * + For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - एकादशमांग-विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध समयसि बहुहिं पुरि सेहिं संपरिवुडे जेणेव कूडागारसाला तेणेव उवागच्छइ २त्ता कूडागारसालाए दुवाराई पिहेइ, कूडागार सालाओ समंता अगणिकायं दलयति ॥२६॥ तएणं तासिं एगुणगाणं पंचण्हं देवीसंयाणं, एगुणगाणपंचमाई सयाई, सीहरणो आलोवियाई समणाइं, रोयमाणाइ ३ अत्ताणाई असरणाइ कालधम्मुणा संजुत्ताई ॥२५॥ तएणसे सीहसेणेराया एयकम्मे ४ सुबहु जाव समाजिणित्ता,चउतीसंवास सयाइ परमाउपालइत्ता कालमासे कालंकिच्चा, छट्ठीए पुढीवीए उक्कोसेणं वावीसं सागरोवमाई द्विती उववणे,सणं ताओ अणंतरं उवाहित्ता, इहेव रोहीडए णयरे दत्तस्स सत्यआकर कुडागार शाला के द्वार बन्ध कराये, कडागार शाला के चारों तरफ अनि प्रज्वलित की अर्थात् कडागार शाला को अंर लाय लगादी॥२०॥ तब फिर वे एककम पांचसो रानीयों और एककम पांचसो उन की पायमाताओं सिंहसेन राजाने अंगार लगाये वाद ऋदन करती अक्रन्दन करती, दु:ख का हरन करने वाला, मुख का प्राप्त करने वाला कोई भी नहीं मिलने से मृत्यु को प्राप्त हुई !!॥ २७ ॥ तब फिर सिंहमेन राना इस प्रकार कर्म करके बहुन पाप उपार्जन करके चौतीमसो ! ३४०० ] वर्ष का पूर्ण आयुष्य पालकर काल के अवसर काल प्राप्त हो उठी नरक में उत्कृष्ट बावीस सागरोपम की स्थिति पने दुःखविपाक का नववा अध्ययन-देवदत्तागनी का For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म वादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी :* बाहरस कण्हसिरिए भारीयाए कुञ्छिसि दारियात्साए उबवण्णे ॥ २८ ॥ तएणं सा कण्हसिरी णवण्हं मांसाणं जाव दारियं पयाया,सकुमाल जा सुरूव॥२९॥ तएणं तीसे दारियाए आमापियरोणिवत्त बारसाहियाए विउलं असणंजाब मित्तणामधज करेइ, होउणं दारिया देवदत्ताणामेणं॥३०॥एणं सा देवदता पंवधाइ पस्मिगहिया जाव परिवाइ ॥३तएणं सा देवदत्ता दारिया उमावालभावे जीवणेणय रूवेणय लावण्णणय जार अईव २ उकिट्ठा उकिटुसरीरा जायायाविहोत्था ॥ ३२ ॥ तएणं सा देवदत्ता निरीपा उत्पन्न हुवा ।। २८ ।। तहां से अन्सर रहित निकलकर इस ही रोटिनगर के दत्त सार्थवाहि की कृष्णा श्री भार्या की कुंक्षी में पुत्रीपने उत्पन हुवा ॥ २१॥ तब फिर कृष्णश्रीने ना महीने प्रति पूर्ण हुवे बाद यावत् पुत्रीका जन्मदिया. वह पुत्री सकुमाल यावत सरूपत थी, उस लडकी के मातापिता बारखे दिन विस्तीर्ण अशनादि चारों प्रकार का आहार तैयार कराकर मित्र ज्ञाती आदि को बोलाकर जेमनदेकर इस प्रकार नाम की स्थापना की-हमारी पुत्री का देवदत्ता नाग होणे ॥ ३० ॥ सर फिर यह देवदत्ता पांच धायकर परिवरी हुई यावत् वृद्धिपाने लगी ॥३१॥ तर यह देवदत्ता पुषी बाल्यावस्था से मुक्त हई यौवन कवस्था को प्राप्त हुई रुपकर यौवनकर लावण्यता कर यावत् अनीहि २ उत्कृष्ट २ सरीर की धारन करने वाली हुई ॥ ३२॥ तब फिर वह देवदत्ता कुमारी अन्यदा किसी वक्तनान करके यावत् विभूषित प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * र्थ For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 48.एकादशयांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध०१४ दारिया अण्णया कयाई व्हाया जाब विभूसिया बहुहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ता उस्पि आगासतलगंसि कणग तिंदृसएणं कीलमार्णए विहरइ ॥ ३३ ॥ इमंचणं वेसमण दत्तेराया ण्हाया जाब विभूसिए आसंदुरुहइ बहुहिं पुरिसेहिं संपरिबडे आसवाह. णियाए णिज्जायमाणे दत्तस्सगाहावइयस्स गिहस्म अदुरसामंते बीयवयमाणेणं ॥ ३४ ॥ तपणं से वेसमणेराया जाववीडवयमाणे देवदत्तंदारियं पिआगसतलगंति कीलमाणी पासइ२त्ता देवदत्ताए दारियाए रुवेणय जोवणेय लावण्णेणय जाव विम्हए कोडबिय पुरिसे सहावेइ२त्ता एवं वयासी-कस्सणं देवाणुाप्पया!एसादारिया किंवाणामधेजेणं॥३५ होकर बहुत से, खोजा यावत् पुरुषों के परिवारकर कर परीवरी हुई अपने घर की आकाशके तले [चांदनी] की गेंद से क्रीडा करती हुई विचरने लगी ॥ ३३ ॥ इधर पैश्रणदत्त राजा स्नान किया यावत् विभूषित हो अश्वारुढ हो बहुत पुरुषों के परिवारसे परिवरा अश्वक्रिडा करनेकों जाना हुवा दत्त गाथापतिके घरके पाम हो कर निकला॥३४॥तव बह वैश्रमण राजा दत्तगाथापनिक घरके पास जाते देवदत्ता बालिका को आवस के उपर के तल में क्रीडा करती हुई देखी,देखकर देवदत्ता वालिका के रूप में यौवन में लाय- 2 पता में यावत् आश्चार्यता को प्राप्त हुवा, कोटुनिक पुरुष को बोलाकर यों कहने लगा-किहे देवामुप्रिय ! यह बालिका किसकी है? इसका क्या माम ॥३५॥तत्र कोटुम्बिक पुरुष वैश्रमण राना से हाथ जोडकर यों से दुःख विपाक का-नववा अध्ययन-देवदत्त For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी तएणं ते कोडंबिय पुरिसा वेसमणराया करयल जाय एवंवयासी-एसणसामी ! दत्तसत्थवाहस्स धूया कण्हसिरिअत्तया देवदत्तणामं दारिया रूवेणय जोवणेय लावण्णेणय उक्किट्ठा उक्किटुसरीरा ॥ ३६ ॥ तएणं से वेसमणेराया आसवाहाणओ पडिणियत्तेसमाणे अभिंतरट्ठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी-गच्छाणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! दत्तस्सधूयं कण्हसिरी अत्तयं देवदत्तं दारियं पूसणंदिस्स जवरण्णो भारियाए वरेह जइवियसयरजसुक्का ॥ ३७ ॥ तएणं से अभितर?णिज्जा पुरिसा धेसमणरण्णो एवं वुत्तसमाण हट्ट करयल जाव एवं पडिसुणइ २ त्ता पहाया जाव कहने लगा-अहो स्वामी ! यह दत्तसार्थवाही की पुत्री कृष्णश्री की आत्मन देवदत्ता नाम की कन्या, रूपकर यौवन कर लावण्यताकर उत्कृष्ट उत्कृष्ट शरीर की धारक है ॥ ३० ॥ तव वैश्रयण र अश्वीक्रडा से पीछा निवृत कर आया, अभ्यन्तर के कार्य करता पुरुष को बोलाकर यों कहने लगा-थों निश्चय हे देवानुप्रिया ! जावो तुम दत्तमार्थवाही की पुत्री कृष्णश्री भार्या की आत्मज देवदत्ता नाम की केन्या को पुष्पनन्दी युवराज को भार्या के लिये मांगो, जो उस का मूल्य हो मो देवो ॥ ३७॥ तब वह क.अभ्यन्तरिक पुरुष वैश्रमण राजाका उक्त कथत श्रवणकर हर्ष पाया,हाथ जोड मिरवडा वचन प्रमाण किया, खान किया, यावतू शुद्र हो.उत्तम वस्त्र धारनकर मनुष्यों के परिवार से परिवरा हुचा, उस दत्तगाथापति के * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वाला प्रसादजी* For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र 48एकादशमांग विपाक सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4+8+ सुद्धप्पावइ संपरिबुडा, तएणं दत्तस्सगिह तेणेव उवागच्छइ २ ॥ ३८ ॥ तंएण से दत्तसत्यवाहे ते पुरिसे एजमाणे पासइ २ त्ता हट्ठ आसणाओ अब्भुट्ठइ सतकृपयाई अभुग्गए आसणेणं उवणिमंतेइ २ ता ते पुरिसे आसत्थ वीसत्थे मुहासण वरगए एवं वयासी-संदिसंतणं देवाणप्पिया! किं मागमणप्पओयण ? ॥ ३९ ॥ तएणं ते रायपुरिसा दत्तसत्थवाहं एवं बयासी-अम्हेणं देवाणुप्पिया ! तवधूयं कण्हसिरी अत्तयं देवदत्तं दारियं पूसणंदिस्त जुवरण्णो भारियत्ताए बरेमो, ते जइणंसि देवाणुप्पिया ! जुत्वा पत्तंवा सल्लाहणिजंवा सरिसोवा, संजोगा दिजं उणं देवदत्ता भरिया पुसणंघर को आया ॥ ३८ ॥ तब वह दत्तमार्थवाही उम राज्य परुष को आता हुवा देखकर हर्ष पाया आमन E से खडा हुवा सात आठ पांव सन्मुख गया. बैठने को आसन की आमंत्रणा की, तब यह राज पुरुष उम आसन पर बैठकर मार्गक्रमन के श्रम रहित हुवा, तर उमे दत्तमार्थवाहो कहने लगा-हे देवानुप्रिया : आज्ञा दीजीये तुमारा यहां किल प्रयोजन मे आना हुवा है ? ॥ ३१ ॥ तब वह राज्य पुरुष दत्तसार्थवाही से ऐसा कहने लगा-हे देवाप्रिया ! मैं तुमारी पुत्री कृष्णा श्री की आत्मज देवदत्ता नाम की कन्य को ॐ पुष्पनन्दी युवराज की भार्या के लिये मांगरे आया हूं, इसलिये अडओ देवानु प्रया! यदि तुपारे को यह ॐकार्य योग्य लगता दो,परत तकारी मालुम पड़ता दो, प्रसंशनीय जानाजाता हो, दोनों का एकासा योग्य संजोग हो। दुःखविपाक का नवा अध्ययन-दवदत्तारानी का For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmmmmmmmmm अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिनी + दिस्स जुवराणो. भणदेवाणुप्पिया ! किं दलयामो सुकं ? ॥ ४ ॥ तएणं से दत्ते ते अभिंतरट्ठाण पुरिसस्स एवं बयासी-एवं चणं देवाणुप्पिया! ममं सुकं जण्णं वेसमण दत्तेराया ममंदारिया णिमित्तेणं अणुगेण्हरसा सेट्टाणपुरिसे विउलेणं पुप्फवस्थ गंधमल्ला लंकारेणे सकारेड पडिविसजेड ॥४१॥ तएणं सेट्राण परिसे जेणेव समणेराया तेणेव उवांगच्छइ २त्ता वेसमणस्सरण्णो एयमंटू णिवेदेइ ॥४२॥ तएणं से दत्तेगाहावई अण्णयाकयाइ सोभणंसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमहतंसि विउलंसि असणं ४ उबक्खडावेइ २चा मित्तणाइ आमंते व्हाए जाव पायच्छिते सुहासणवरगए तेणमित सहि Ear तुपारी कन्या देवदत्ता को पुष्पनन्दीकुमार युवराज के भार्या पने देवों, और कहो कि हे देवानुभिचा! उस का मूल्यक्या देवें॥४०॥ त दार्थ वाह उम अभ्यन्तर स्थानिक राज्य पुरुपत इसप्रकार बोला-यों निश्चय अहो देवानुप्रिया मुझे मूल्य यही दीजीये कि वैश्रमणदत्त राजा मेरी पुत्री को ग्रहण करने अनुग्रहकरें. यों कहकर उस अभ्यन्तर स्थानीय राज्य पुरुषको विस्तीर्ण वस्त्र सुगंध द्रव्य फुलमाला अलंकार कर सत्कार सन्मानदे विसर्जन किया ॥ ४१॥ तप व अभ्यन्तर स्थापानेय पुरुष जहाँ बैश्रमणराजा था तह आकर वैश्रमणराजासे सर्व वृतान्त निवेदन किया ॥ ४२ ॥ सब वह दत्तगाथांपति अन्यदा किसी वक्त अच्छा तीथी दिन करण नक्षत्रादिमुहर्त देखकर विस्तीर्ण अशानादि चारों आहार तैयार कराकर मित्रज्ञा * प्रकाशक-राबाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादी For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपरिथुढे तंविउलं असणं 8 आसाएमाणा ४ एवं वर्ण विहरइ, जिमिय भुतुतरागए आयंते ३ तं मित्तणाई विउलं गंध पुप्फ जाव आलंकारेणं सकारेइ समणेइ, देवदत्तं दारियं हाथं जाव विभूसियं सरीरं पुरिसहस्सवाहिणीयं दुरुहिएर सा सुबहुमित्त जाब सहि संपरिवुडे सवडीए जाव सब्बरवेणं रोहिडगं णयरं मझं मझेणं जेणेव वेसमणे रणोगिहे जेणेव वेसमणोराया तेणेव उवागच्छइ२त्ता करयल जाव वहावई २त्ता वेसमण. रायं देवदत्तं दारियं उवणेइ ॥ ४३ ॥ तएणं से वेसमणराया देवदत्तं दारियं उवणीयं अर्थतीयों को बोलाये; पावत् प्रापाश्चतकर शुद्ध हुवे, सुखासनपर पेठे हुभे उन मित्रझातीयो के साथ परिषरे हुमे विस्तीर्ण अशनादि चारों आहारको खाते खिलाते विचरने लगे | जीमकर तृप्त हुने कुल्ले आदिकार अत्यन्त पवित्र हुवे,फिर उन मित्रज्ञाति को विस्तीर्ण गंधफूल यावत अलंकारकर सत्कारे सन्माने,देवदचा लडकी को मानकराया यावत् बहु मूल्य वस्त्र भूषण कर विभूषित की, हजार पुरुष उठावे ऐसी शिवका में बैठाइ बैठाकर बहुत मित्रज्ञाति भादिके साथ यावत् परिवरे हुवे सर्व ऋद्धियुक्त यावन वादित्र के झगकार पुक्त . रोहिड नगर के.मध्य मध्य में होकर जहां वैश्रयणराजा का घर था जहां वैश्रमणराजा था तहां आये. आकर हाथ जोड सिरसावर्त कर जयहो विजयहो इस प्रकार बधाये, बधाकर वैश्रमणराजा को देवदचा 0 पुत्री सुपरतंकी ।। ४३ ॥ तब.वैश्रमणराजा देवदत्ता कन्या को प्राप्त हुइ देखकर हर्ष पाया फिर विस्तीर्ण +8एकादशमांग-विपाकमूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48+ दुःख विमाक कानववा अध्ययन-देवदचारानी का For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r wmanmintimromanmkamom 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी में 'miksikhninashamitramaniammmmmmmmmmmmmmmminaru पासइ.२त्ता हट्ठ विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ २त्ता मित्तणाइ आमतेइ ज़ाव सकारेइ २ समाणेइ पूसणंदिकुमारं देवदत्तं दारियं पट्टयं दुरुहेइ २ ता सेयापीएहिं कालसेहिं भेजावेइ २ ता वरणेवच्छाई करेइ २त्ता अग्गिहोम करेइ पूर्णदिकुमारं देवदत्ताए दारियाए पाणिगिण्हावेइ ॥ ४४ ॥ तएणं से वेसमणदत्तेराया पुसणंदिकुमारस्स देवदत्तं दारियं सम्बड्डीए जाव रवेणं महयाइड्डी सक्कारसमुदाएणं पाणिग्गहणं करेइ, देवहत्ताए भारियाए अम्मापियरोमित्त जाव परियणंच विउलं असणं ४ बस्थगंधमलालंकारिय अशनादि चारौ प्रकार के आहार को तैयार कराया, मित्रज्ञासीयों को बोला ये सत्कारे सन्माने पुष्प नंदी कूमरको देवदत्त के साथ पाटपर बैठाये. बैठाकर चांदी के सुवर्ण के कलशकर मानकराया, फिर विवह योग्य प्रधान वस्त्र पहनाये अग्निहोम किया, पृष्पनन्दी कुपारका देवदत्ताका हाथ मिलाप किया। पानी ग्रहण कराया ॥ ५४ ॥ तब फिर वैश्रनण दत्तराजा पुष्पनंदी कुमार को और देवदत्त को सर्व प्रकार की ऋद्धिकर यावत् सर्व प्रकार के द्रव्य कर बहुत सत्कार सन्मान कर बहुत परिवार से परिवरे पानी) ग्रहण' का उत्सव किया. तब फिर देवदत्ता भार्या के माता पिता मित्र यावत् परीजनको विस्तीर्ण अशनादि. चारों प्रकार के आहार कर वस्त्र गंध अलंकार कर सत्कार सन्मान कर विसर्जन किये ॥ ४५ ॥ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी. मर्थ For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - * एकादशाम विपाकम्त्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 18+ सकारेइ जाव पडिविसजेइ ॥ ४५ ॥ तएणं से पूमणंदीकुमारे देवदत्ताए दारिपार सहिं उर्षिपसाय फट्टयत्तीस उपगिज २ इत्ता जाय विहरइ ॥ ४६ ॥ तएणं तीसे वसमणेराया अण्णयाकयाइ कालधम्मुणाजुत्ता, णीहरणं जाव रायााए पुसणंदी ॥ ४७ ॥ तरण से पूमदराया सिंगदबीरमाया भत्तेय चि होत्था, कल्ला कलिं, जेणेव सि देवी तेणेव उगच्छइ २ चा पायपडणं करेइ २त्ता सयपाग सहस्सपागेहिं तेहिं अभिगायेइ , अट्ठिसुहाए मंससुहाए तयासुहाय रामसुहाए चउविहाए संवाहणाइ संबाहावेइ २ त्ता सुरभिणा गंधवट्टएणं उबढावेइ २त्ता तिहित्तिणि तब वह पुष्पनन्दाकुमार देवात्ता भा क माय उपर प्रसाद में मृदंग के मस्तक फूटते हुने बत्तीस प्रकार के नाटक होने दुरा इत्यादि मुखापभोग में गदहा सुख भोगवंता विचर ने लगा ॥ ४६॥ सब वह वैश्रमण राजा अन्यदा किमी वक्त कालधर्म को प्राप्त हुआ-मृत्युपाया, जिमका महाऋद्धि से निहारन किया फिर वह पुष्पनन्दीकुमार गजा मा॥४७॥ तब फिर पुष्पनन्दी राजा श्रादेवी माता का भक्त बनाम वको वक्त जहाँ श्रीदेवी है वहां आकर पांच पडे, फिर कोपाक सहश्रपाक तेलका मा तेलका मालिश, हड्डीको मुखदाइ, मांसको मुखादाइ, त्वचा-चमडीको मुखदाइ, रोमराइ को सुखदाइडोये, यो चारप्रकारमुखकारी संवाहन करके सुगन्धी गंध पदार्थके उगटना पीठी करे, फिर तीन प्रकारके पानी कर नान करावे-प्रथम उष्ण पानी से नन्तर शीतल पानी से, नन्तर सुगंधी पानी से. मान करा वस्त्रादि से 48 दुःखविपाक का-नववा अध्ययन-देवदत्ता अर्थ For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणीए ण्हवरावइ उदएहिं मंजावेइ २त्ता तंजहा-उसिणोदएणं, सिओदएणं, गंधोदएणं. विउलं असणं ४ भोयावेयी, सिरीदेवीए व्हायाए जाव पायाच्छित्ताए जाव जिमिय भुत्तुत्तरागयाए, तओपच्छा पहाइ भुंजहि वाउरालाइं मणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ ॥४८॥ तएणं तीसे देवदत्ताए देवीए अण्णयाकयाइ पुव्वरता वरत्त कालसमयसि कुंटुब जागरियं जागरमाणे इमेयारूवे अज्झथिए४एवं स्खलु पूसणंदीराया सिरीदेवीए माइ भत्ते जाव विहरइ,तं एएणं विघाएणं णो संचाएमि अहं पुसणंदिणारण्णो सर्डि. उरालाई भुंजमाणे विहरामी ॥ एवं संपेहेइ २त्ता सिरीदेवीए अंतराणिय ३ पडि जागरमाणी २ विहरई ॥४९॥ तएणं सा सिरीदेवी अण्णयाकयाइ मजावीविरहिय श्रृंगार कर असनादि चारों प्रकार का आहार तैयार करा के भोजन जिमावे, इस प्रकार श्रीदेवी को स्नान करा यावत् भोजन करा फिर आप अपने स्थानक में आकर स्नान करे भोजन करे प्रधान मनुष्य सम्बन्धी मुख भोगत्रता विचरे ॥ ४८ ॥ तब वह देवदत्तादेवी एकदा प्रस्तावे आधीरात्रि व्यतीतहुवे कुटुम्ब, जागरना जागती हुई इस प्रकारका अध्यवमाय विचार करनेलगी-यों निश्चय पष्पनन्दी राजा श्रीदेवी माता का भक्त होकर यावत् विचरता है, उस व्याघातकर मैं पुष्पनंदी राजा के साथ उदार प्रधान मनुष्य सनुम्बन्धी काम भोग भोगवने को समर्थ नहीं हुं. ऐसा विचार कर श्रीदेवी को मारने केलिये अन्तर छिद्र 17 अकेली कवमिले इस प्रकार देखती हुई विचस्ने लगी ॥ ४९ ॥ तब वह श्रीदेवी अन्यदा किसी वक्त 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकारक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुतसा अर्थ सयाण जासमाजायायाधि हात्या ॥ ५० ॥ इमचण देवदार देवी जेणेव सिमी देवी नेणव वामनछह २ ना किसी मजावी बिगहिय समिजासि सहपमत्त एसइ २त्ता दिनालाय का? २ ने मया तव लाहदई परामसदरत्ता लोहदंडं लावध२ चा तत्तं मम जाइभयं फल किसयमान संडासए गहाय जेणेव सिरीदवी तेणेव उवागच्छद २त्ता सिरी ए देवीए अपागास पक्खबई॥५१॥ तएण सा सिरीदेवी महयारमहणं आरसित्ता कालरामणा जाता ॥ ५२ ॥ एणं से सिरीदेवीए दासचडीओ आरहियसई सो चाणिसम्म जेणेव सिरीदवी तणेव उवागमदिरापी कर मानकर एकान्त स्थान में शैया में निद्रावश मुनी थी ॥५० ।। इन वक्तवर देवदना देवी जहां श्रीदेवी थी तहां आइ आकर श्रीदेवी को मदिरा के नाश में बहोंश शैय्या में मुख से मृती देखा चारों दिशा में अवलोकन किया कि कोई देखना ता नहीं है, तत्काल जहां भोजनमः था तहां आइ आकर लोहाका दंड ग्रहण किया, लोहदंड ग्रहण कर अग्नि में पाया, तप्त अनि समान क.सहा (पजाम) के फल समान लाल किया, उसे संहास में पकड कर जहां श्रीदेवी सूनी थी तहां आकर श्रीदेवी के अपान से द्वार (योनी) में वह लोहदंड प्रक्षेप किया-दावा दियां ॥५१॥ तब वह श्रीदेवीमा २ शब्दकर चिल्लाइ, और तत्काल मृत्यु प्राप्त हुई ॥५॥तब फर श्रीदेवी की दासीन वह अण्डाट शब्द वनकर हृदयमें धारनकर श्रीदेवधी तहां आइ, देवदत्ता देवी को वहां से भागती हइ देवी, देखकर जहां श्रीदेवी भी नहीं दुखावपाक का - नवना अध्यय-देना For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + छत्ता देवदत्त देवि तओ अवकम्ममाण पासह २त्ता जेणेव सिर्दिवी तेणव उवागच्छइ २ त्ता सिरिदेवी गिप्पाणं णिचेटुं जीवविप्पजढं पासइ २ त्ता हाहा ! अहो अकजं !! मितिकट्ट, रोयमाणी ३ जेणेव पूसणंदिराया तेणे उबागच्छइ रत्ता पूमणंदीरायं एवं बयासी-एवं खल सामी! सिरीदेवि देवदत्ता देवीए अकाले चव जीवि. याओ विवरोविया ॥ ५३ ॥ तएणं से पूरणंदीराया तामिंदासचेडीओ अंतिए एयमद्वं सोचाणिसम्म महया माइ सोएणं अफण्णे समाणे फरसुणियतविध चपग पायवे धमइ धरणीतलंसि सव्यंगहि सणिपडिये ॥ ५४ ॥ तएणं से पूमणंदीराया महत्तं तरेणं आसत्ये ममाणे बहुहिं राईसर जाव सत्यवाहाहि मित्त जाव परणेणय सद्धिं रोयमाणे २ आकर श्रीदेरी को श्वाशदि जीवित की चटा गहत जीव रात देखी, देखकर हाहाकार किया। अहो इति खदाश्चर्य! जबर अकये हुवा !! यों बोलती रुदन करती जहां पुष्पनन्दा राजा था तहां पाह आकर पुष्पनन्दी गजा को यों कहाने लगी-पो निश्चय हे स्वामी! श्रीदेवी माता को देवदता रानी को विनाकारन जीवित रहित की-मारडाली ! ॥५३॥ तत्र पुषनभी राजा उदासी के पास उक्त कथन श्रान कर अवधार कर माता क मृत्यु के महानोगकर व्याप्त दुवा, असे फरमी मे काट हुइ चम्मक वृक्ष की शाखा पडती है यों धमाकर करणी नलपर सींग कर पडगया ॥५४॥ सर फिर पुष्पनंदी राना मुहुर्तवाद सचिस ही बहुत से राजा मान सहि मित्र जावी यावत् दासदासीयों के साथ रूदन करता wamanawanemammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm प्रकाशक-राजाबहादरलाला हरददव महायमी भालाप्रपादजी. 1 For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 rammronmmmmmmmmmm wwwwwimmind सिरीए देवीए इड्डिए णीहरणं करेइ २त्ता.आसुरत्ते ६देवदत्तं देवि पुरसेहिं गिण्हावेइ २ ना. एएणं विहाणं बझं आणवेई ॥५५॥ एवं खलु गायमा ! देवदत्ता इंधी पुरा जाव विहरइ ॥५६॥ देवदत्ताण भंते ! देवी ईओ काल पाने कालंकिचा कहिं गच्छिहिति कहिं उववजिहिति?गोयमा! अतीयवासाई परमाउपालेता कालमासे कालंकिजा इमीसे रयणपभाए पुढवीए गरियत्ताए उववण्णे; संसारावगस्सइ, तओणं अणंतरं उबाहित्ता गंगपुरे णयरे हंसत्ताए पञ्चायाहिं, तिसेणं,तत्थमाउणिएहिं बधिए समाणे,तत्थेव गंगपुरे सेट्रिकुले, बोहि, सोहम्मे कप्प,महाविदह सिम्झि हति॥५७॥ गयमं अज्झयणं सम्मत्तं॥९ आश्रूप न करता श्रीदेवी माना का मह ऋद्धिकर निहारन किया, फिर शिघ्र को पातर हो देवदत्त देवी को अन्य पुरुष के आम पडाकर गौतम ! तुमो देख पाये नैसे हाल करा रहा है ॥ ५५ ॥ यों निश्चय हे है जगातम ! दवदत्ता देवी पूर्वोपार्जिन कर्म भांगवती पिचर रही है, ॥५६॥ अह. भगवन् ! यह दवदत्ता देवी का काल के अवसर कालकर कहां जायगा कहां उत्पन्न होगा?ह गौतम ! अस्सी.८०) वर्ष का पूर्ण आयु भोगवकर काल के अवसर काल कर इसहो रहसभा नरक में उत्पन होगा यावत् मृगापुत्रकी तरह संभार परिधरण कर गंगापुर नगर में म पक्षीपने उत्पन्न होगा, वहां चिडिमार के हाथ से मारा जायगा. फिर वही गंगापूर नगर में शेठ के कूल में जन्म ले, दक्षाले सौधर्म दवलों में देवतापने उत्पन्न होगा.वाले है महाविदह क्षेत्र में जन्म लेपाक्ष जावेगा ॥ इति विपाक मबहादेवदचारानी का नववा अध्याय सपू॥९॥१ एकादशमांग-विपाकरत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध वरिपाकका-नामा अध्ययन-दवदत्ता रानी का - For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ १०३ अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * दशमम्-अध्ययनम् जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेण दसमस्त उक्खेवओ ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालंणं तेणंसमएणं वद्धमाणपुरेणामे जयरे होत्था, विजय वद्धमाणे उज्जाणे,मणिभद्देजक्खे, विजय मित्तराया ॥ १ ॥ तत्थणं धणदेवणामं सत्थवाहे होत्था, अड्डे, पियंगुभारिया, अंजदारियां जाव सरीरा ॥ २ ॥ समोसरणं, परिसणिग्गया जाव पडिग्गया ॥ ३ ॥ तेकालेणं तेणंसमएणं जेट्टे जात्र अडमाणे जाव विजय मित्तस्स रण्णोगिहस्स असो यदि हो भगवान ! श्रमण भगवन महावीर स्वामीने दशवे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? यों निश्चय हे जंबू ! उस काल उस समय में वृद्धमानपुर नाम का नगर था, वहां विजय बृद्धपान नाम का उध्यान था, उस में मणिभद्र यक्ष का देवालय था, वृद्धमान पुरका विजय मित्र नामे राजा राज्य करता था ॥ १ ॥ उस वृद्धमान नगर में धनदेव नाम का सार्थवाही रहता था, वह ऋद्धिवंत था, जिस की प्रियंगु नाम की भार्या थी और अंजूनामकी उसकी पुत्री थी, वह रूपकर यौवन कर लावण्यता कर यावत् उत्कृष्ट २ शरीर की धारन करने वाली थी ॥ २ ॥ श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषदा वंदने गई, धर्म कथा श्रवण कर परिषदा पीछी गई ॥ काल उस समय में भगवंत के जेष्ट शिष्य ३ ॥ उस For Personal & Private Use Only * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १७१ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4- एकादशमांग- विपाकसूत्र का प्रथम तस्कन्ष गणिया अदूरसामंतेणं वीइवयमाणे पासइ २ ता एगइत्थियं सुकं भुक्खं निम्मंसं किडि २ भूयं अट्ठचम्माबणद्धं, नीलसासगणियत्थं कट्ठाई कलुणाई बिस्सराइ कूत्रमाणं पास २ ता चिंता, तहेव जाव एवं व्यासी-एसणं भंते ! इत्थिया पुन्वभवे काआसि ? ॥ ४ ॥ वागरणं एवं खलु गोयमा ! तेणंकालेणं तेणंसमएणं इहेव जंबुवेदवे भारवा से इंदपुरे णामं णयरे होत्था. तत्थणंददत्तेराया ||ढविसिरि णामं गणिया ओ ॥ ५ ॥ तणं सा पुढविसिरी गणिया इंदपुरे णयरे बहवे राईसर जाव प्पभियओ श्री गौतम स्वामी भिक्षार्थ बृद्धमान पुर में फिरते हुवे यावत् विजय राजा के घर की आ(शोक वाडी के पास होजाते हुवे एक स्त्री को देखा, वह स्त्री शरीर कर सूकी हुई भूखी { हुई मास लोही रहित, ठड्डी की पिंजर चर्म से मंडीत शरीर को पानी मे भींजोइ हुइ साडी से ढककर करुना जनक क्लेशकारी दीनदयायने विद्रूप शब्द से अक्रन्दन रुदन करती देखकर गौतम स्वामीनी को विचार उत्पन्न हुवा, तैसे ही यावत् भगवंत पास आकर यों कहने लगे – अहो भगवन् ! यह स्त्री पूर्व भव में कौन थी ? ॥४॥ भगवंतने कहा यों निश्चय हे गौतम ! काल उस समय में इस ही जम्बूद्वीप नाये द्वीप के भरत क्षेत्र के इन्द्रपुर नाम के नगर में इन्द्रदत्त राजा राज्य करता था, तहां पृथवी श्री नामे (गणिका - वेश्या थी उस का वर्णन कामद्वजा गणिका जेसा जानना ॥ ५ ॥ तब वह पृथ्वी श्री उस For Personal & Private Use Only दुःखरिपाकका दसवा अध्ययन-अंजूरानी का १७५ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोल ऋपिनो + बहुहिं चुण्णप्पयोगेहिय जाव अभिओगिता उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ ॥ ६ ॥ तएणं सा पुढविसिरि गणिया, एएकम्मा एयसकम्मा ४ सुबहावं समजिणित्ता पणतीसं बाससयाई परमाउपालित! कालमासे कालं किच्चा छ । पुढबीए उक्कोंमे णेरइयत्ताए उक्वण्णा ॥ ७ ॥ साण ताओ उवत्ता इहेव बमाण णयरे धगदेवरस सरवाहस्स पियंगुमारियाए कच्छिसि दारियत्ताए उवणे । ॥ ८ ॥ तएणं सा पियंगुभारिया णवाहं मासाण दारियं पयाया, गाम अंजू, सेसं । जहा दे दत्ताए ॥ ९ ॥ तएणं से विजयराया आसवाहणियाए णिजायमाणे जहा - 14 गणिका इन्द्रपुर नगर के बहुत से राजा ईश्वर यावत् प्रभृतिक को बहुत मे चूणदि प्रयाग कर यायत्} . अभियोग कर वश में कर प्रधान मनुष्य संबंधि भागोपभोग भोगवती विचरती थी ॥६॥ तब वह पृथवी श्री या इम प्रकार काँगर्ज कर बहुन प्रकार पप का समायरन कर पतीसो ( ३५०० ] वर्ष का पूर्ण आयुष्य पालकर काल के अवमर में काल पूर्ण कर छडी पृथ्वी में उत्तष्ट यावीम मागरांपप की स्थितिपने उत्पन्न हुई ॥७॥ वहां से निकलकर इस ही बृद्धमानपुः गर में धदर मार्यवाही की प्रियंगु भार्या की कुंक्षी में पुत्रीपने उत्पन्न हुई ॥ ८॥ सब मियंगु भार्या न महीने पूर्ण हुने पुत्रिका जन्म दिया. उस का अंजनाम स्थापन किया. शेष अधिकार मब दवरचा कुमारी जैसा जानना ॥१॥ तब ...शिकाजासादरमहा सुखदव सहायनी ज्वालाप्रमादजी. For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + एकादनमांग विषाकसूत्र का प्रथम श्रुनस्कन्ध वेसमणदत्ते तहा अंजू पासइ. गवरं अप्पाणो अट्ठावएवरेइ, जहा सेतली. जाव अंजू भारियाए सद्धिं उपि जाव विहरइ ॥ १० ॥ तएणं तीसे अंजदेवीए अण्णयाकयाइ जोणीसूले पाउब्भूएयाधि होत्था ॥ ११ ॥ तएणं से विजयेराया कोडंबिय पुरिसे सद्दावेइ२त्ता एवं बयासी-गग्छहणं देवाणुपिया ! वदमागपुर जयरे सिंघाडग जाव एवं वय एवं खलु देवाणुप्पिया! विजए रायस्स अजू देवीए जाणी सूले पाउन्भूए,जाणं इच्छवह विजगमित्र राजा अश्व कहा नीमिन निकला था जैसे वैश्रयण राजाने देवदत्ता को देखीथी तैसेती विजय मित्र राजन अंजून्या को देखी, जिस में विशेष इतना वैश्रवण गजाने पुत्र केलिये याचना कराइ थी और इसने अपने लिये याचना कराइ, जिस प्रकार ज्ञ.ता सूत्र में ताली प्रधानने कराई थी. यावत् अंजू भार्या के माथ कर प्रसाद सुख भोगना विचरने लगा॥10॥न उस अंजस्वी को अन्पदा किसी वक्त योनीशू का रोग उत्पन्न हुा ॥११॥नव जय राजा के टुम्पक पप को बुलाकर यों कहने लना-हे दनानुपित? जवा तु र वृद्धमानपुर नगर के शृंा.टक य में यावत् महापंथ में महा २ शब्द कर उद्योप। कगे कि हिनापित राजा की अंजानीक यानी रोग उत्पन्न हुआ है,उो कोइ वैद्या दे। आराम करेगा उसे विजय किराना वा अर्थ समर देगा. केदुमा पुगी 3 ही प्रकार उद्योपना दुख विपाक का दसरा अध्ययन-अंजूरानी का? * For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ सिवा ६ जाव उग्योसइ ॥ १२ ॥ तए से बहवे वेजावा ६, इमं एयारूयं सोचाजिसम्म जेणेव विजयराया तेणेव उवागच्छइ२त्ता अंजए देवीए बहवे उप्पत्तियाहिं। बद्धिहि परिणामे माणाइच्छति अंजए देवीए जोणीसले उवसामित्ते णो संचाएइ उवसामिचए ॥ १३ ॥ तएणं ते बहवे विजायइ जाहे णो संचाएइ अंजदेवीए जोणीसूले उवसामित्तए तासंता तंता जामेव दिसि पाउब्भया तामेवदिसिं पडिगया ॥ १४ ॥ तएणं सा अंजदेवी ताये वेयणाए अभिभया सम.णी सुक्कामुक्खा हिम्मंसा कट्ठाई कलणाइं पीसराइ पिलवइ ॥ १५ ॥ एवं खलु गोयमा ! अंजदेवी पुरा जाव विहरइ ॥ १६ ॥ अंजणं भंते देवीए कालमासे कालंकिच्चा की ॥ १२ ॥ तब वे बहुत वैद्य वैद्य के पुत्रों वगैरे औषध शास्त्रादि लेकर विजयमित्र राजा के पास आये, आकर अंजदेवी की चिकित्सा उत्पतियादि चारों प्रकार की बुद्धी प्रज्यंकर करी परन्तु अंजदेवी की योनीशल उपशमाने-गमाने समर्थ नहीं हुवे. तब वे वैधादियके अतीहीथक कर जिस दिशा से आये थे उस दिशा अपने घर पीछेगये ॥१४॥ तब वह अंजूदेवी उस वेदनाकी सन्मखर्डई सूकी भुकी रक्त मांस रहित ककाष्ठ भत हो करुणा जनक शब्द करती हे गौतम ! तुमने देखी वैसी विचर रही है ॥ १५ ॥ यो निश्चय रहे गौतम ! अंजूदेवी पूर्व जन्म के उपार्जन किये हुये कर्मके फल इस प्रकार भोगवती विचर रही है॥१६॥अहो । अनुवादक-बालग्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48+ एकादशमांग विपाक सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 18+ कहिंगछिर्हिति कर्हि उववज्जहिंति ? गोयमा ! अंजूणदेवी उइवासाई परमाउ पालीता कालमासे कालंकिच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उबवणे, एवं संसारो जहा पढमो तहा यव्वं जात्र वणरसईसाणं तओअनंतरं उचट्टित्ता सन्बओ भद्रेणयरे मयूरत्ताए पच्चायाहिंति, सेणं तत्थसाउणिएहिं बहिएसमाणे तत्थेव सवओ भद्रेणयरे सेठिकुलंसि पुत्तताय पच्चाहिंति, सेणं तत्थ उमुक्कबालभावं तहारूवा थेराणं अंतिए केवलिंबोहिं बुज्झिर्हिति २, पव्वज्जा, सोहम्मे सेणं ताओ देवलोगाओ भगवान ! अंजूदेवी काल के अवसर पूर्ण कालकर कहां जायेगी कहां उत्पन्न होवेगी ? हे गौतम! अंजदेवी नये (९०) वर्ष का पूर्ण आयुष्य पालकर काल के अवसर में काल पूर्ण कर, इस रत्नप्रभा पृथ्वी में नेरीये पने उत्पन्न होगी. यों प्रथम अध्ययन में कह मुजब मृगापुत्री की तरह संसार परिभ्रमण करेगी. यावत् वनस्पति काय में उत्पन्न हो वहां से अंतर रहित निकलकर सर्वोतभद्र नगर में मयूरपने उत्पन्न होगा, वहां चीडीमार के हाथ में मृत्यु पाकर वहीं उस ही सर्वतोभद्र नगर में शेठ के घर में ( पुत्र ने उत्पन्न होगा, वहाँ वाल्या वस्था से मुक्त हो यौवन अवस्था प्राप्त हुवे तथारूप स्थविर के पास केवली प्रणित धर्म से वोधित हो दीक्षा अंगीकार कर आयुष्य पूर्ण कर सौधर्म देवलोक में देवता होगी । For Personal & Private Use Only 403 दुःख विपाक का दसवा अध्ययन-अंजूरानी का १७९ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 43 अनुवादक बालग्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी आउक्खणं ३ कहिं गच्छर्हिति कर्हि उवयनिर्हिति ? गोयमा ! महाविदेहवासे जहा पढमो जात्र सिम्झिहिति जात्र अंतकार्हिति ॥ १७ ॥ एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्ते दुनिवागाणं दनमस्म अज्झयणस्न अयमट्ठे पण्णत्ते ॥ सेवं भंते ! भचेति || दसमं अझ सम्भ मत्तं । विग दस अज्झवणसु पढमो सुयक्खंधो सम्भत्तो ॥ १ ॥ अहो भगवान ! वहां से आयुष्त भवस्थिती क्षयकर कहां जायेंगा ? हे गौतम! महाविदेह क्षेत्र में प्रथम अध्ययन में ऋडे माफक सिद्ध बुद्ध मुक्त होगा यावत् सब दुःख का अन्त करेगा ।। १७ ।। इतेि दशवा अंजू देवी का अध्यय । समःप्त ॥ १० ॥ यों निश्चय हे जंबु ! श्रमण यावत् मुक्ति पधारे उनोने दुःखविपाक { के दशवा अध्ययका यह अर्थकहा || वहिती भगवान !|इत दुःखविपाक सूत्र समाप्तम् ॥ १३ ॥ * इति दुःखविपाक नामक प्रथम * ॥ श्रुतस्कन्ध समाप्तम् ॥ For Personal & Private Use Only # प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायत्री ज्वालामजी * १.८० Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ॥ द्वितीय श्रुतस्कन्ध-सुख विपाक ॥ एकादशमांग-बिपाकसूत्र का द्वितिय श्रुत स्कन्ध अहबीय सुयखंधं । तेणं कालेणं तेणं समएणं, रायगिहणयरे, गुणसिले चेइए, मुहम्मो समोसड़े, जंबू जाव पज्जुवासंति एवं वयासी-जइण भंते ! समणेणं जाव है संपत्तेणं दुहविवागाण अयमद्धे पण्णत्ते, सुहविवागाणं भंते ! समजेण जाव सपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? ॥ १ ॥ तएणं से सुहम्म अणगारे जंबू ! अणगारं एवं वयासी एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता अथ दूसरा श्रुत्स्कन्ध मुख विक प्रारंभ ।। उस काल उस समय में राजग्राही नाम की नगरी थी, जिस के ईशान कौन में गुणमिला नामका चैत्यथा.वहां श्री सुधर्मा स्वामी पधारे,इनके शिष्य जंबू स्वामी वंदना नमस्कार कर सेवा करते इस प्रकार बोले यदि अहो भगवान श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी. यावत् मोक्ष पधारे :उनाने दःख-विपाक के दश अध्ययन कहे वे तो मैं ने श्रवण किये, अब अहो भगवान ! श्रमण यवात् मक्ति पधारे। उनोचे सुख विपाक का क्या अर्थ कहा है ? ॥१॥ तब सुधर्मास्वामी. जंबूस्वामी से : ऐमा बोले-यों निश्चय हे जंबू!श्रमण यावत् मुक्ति पधार उनोंने सुख विपाक के दश अध्ययन कर है,उन के नाम-१ सुबाहु कुमार का, २ भद्र नन्दी कुमार का, ३. सुजात कुमार का, ४ सुबासब कुमार का, ५ जिनदास .कुपार १४ सुख विमाक का-पहिला अध्ययन सुबाहुकुचारका । For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी - तंजहा-(गाहा)-सुबाहु,२भद्दणंदी,३ सुजाए.४सुवासवे. ५ तहेब जिणदासे ॥ ६ घणप. तिय ७ महन्यलो, ८ भद्दणंदी, ९ महचंदे, १० वरदत्ते ॥१॥ २ ॥ जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता; पढमस्सणं भंते ! अज्झयणस्स सुहविवागाणं जाव संपत्तेणं के अट्ठ पण्णसे ॥ ३ ॥ तएणं से सुहम्मे अणगारे जंबू ! अणगारं एवं वयासी-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणंसमएणं हत्थीसीसेणामं णयरे होत्था रिद्धस्थमिय, ॥२॥ तत्थणं हत्थीसीसरसणयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमेदिसीभाए एस्थणं पुष्फकरंडए णाम उजाणे होत्था, सव्वउय ॥ का, धनपनि कुमार का, ७ महाबल कुमार का. ८ भद्रनन्दी कुमार का, ९ महाचन्द्र कुमार का, और ११. वर कुमार का, ॥२॥ यदि अहो भगवान् ! श्रमण भनवंत यावत् मोक्ष पधारे उनोंने सुखविपाक al के दश अध्ययन कहे है, तो अहों भगवान! प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा?॥३॥ तब मुधर्म अनगार जंधू अनगार से ऐसा बोले-यों निश्चय हे जंबू ! उस काल उम समय में हस्तिशीर्ष नाम का गगर ऋद्धि स्मृद्धि कर संयुक्त था. ॥ ४ ॥ तहां हस्ति शिर्ष नगर के पाहिर उचर और पूर्व दिशाके बीच-ईशान कौन में पुष्पकरंड नाम का उध्यान था, उस में मर्व ऋतु की वस्तु प्राप्त होतीथी, जहां कृतपालबनमिय नाम के यक्ष का यक्षाय तन ( देवालय ) या वह दिव्य प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुम्बदेवसहायनी ज्वालापसादजी. For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 एकादशमांग-विपाक सूत्रका द्वितीय श्रुत्स्कन्ध82 - तत्थ केयवयणमाला पियरस जक्खस्स जक्वायतणे होत्था, दिव्वे ॥ ५ ॥ तत्थणं हत्थीसीसे णयरे अदीणसत्तूणामं रायाहोत्था, महया ॥ ६ ॥ अदीणसत्तुस्सरण्णो धारणापामोक्खाणं देवीसहस्सं उरोहेयात्री होत्था॥ ७ ॥ तएणंसा धारणीदेवी अण्णया कयाइ तंसि तारिसगंलि वास भवणंसि सीहं सुमिणं जहा मेहजम्मणं, तहा भाणियब्ध, गवरं सुबाहुकुमारं जाव अलंभोगसमत्थंवाविजाणंति २ त्ता अम्मा पियरो पंचयासायवडिंसगवासायई करेइ २ त्ता अब्भुगय भवणं एवं जहां महव्वल. प्रसिद्धि पाया हुवा था ॥ ५ ॥ तहां हस्तिशीर्ष नगर में अदीनशत्रु नाम का राजा राज्य करता था वह महाहिमवंत पर्वत समान था ॥॥ उस अदीन शत्रु राजा के धारनी प्रमुख एक हजार वीरानीयों थी। ॥७॥ब वह धारनी रानी अन्यदा किसी वक्त पुन्यवंत के शयन करने योग्य भुवन [घर ] में सुख शैय्या में मूती हुई सिंहका स्वपन देखा, जिस प्रकार मेघकुमार का जन्म का अधिकार ज्ञाता मूत्र में कहा है तैसे यहाँ भी कहना, जिस में इतना विशेष-मुवाहु कुमार नाम स्थापन किया, यावत् संपूर्ण भोग Fभोगपने समर्थ हुवा जानकर उसके माता पिताने पांचसो प्रसाद शिखरबंद कराये, उन पांचसो प्रसादो के. मध्य में एक अति ऊंचा भुग्न कराया. जिस प्रकार भगवती मूत्र में मावल राजा को पांचसो कन्या +पानीप्राण करानेका अधिकार कहा है तैसेही यहां भी जानना जिस में इतना विशेष-पुष्पचूला प्रमुख पांचसो में सुख विपाक का-पहिला मध्ययन-सुबाहु maramanawaranan For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सरणो वरं पुष्पचूला पामोक्खाणं पंचण्डं रायवरकण्ह स्याणं एगदिवसेणं पाणि गिण्हावे, तब पंचसयदातो जात्र उपि पासाय वरगए फुट्ट जाव विहरइ ॥ ८ ॥ काणं ते समएणं समणेणं भगवया महावीरेणं समोमरणं, परिसाणिग्गया, अदीणसत्तू जहा कोणिए णिग्गए, सुबाहुवि जहा जमाली जहा रहेणं णिग्गए, जाव धम्म कहिओ, या परिसा पडिगया ॥ ९ ॥ तएणं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवओ महावीर अंतिर धम्मं सोच्चाणिसम्म हट्ट तुट्ठे, उट्ठए उट्ठेइता जाव एवं वयासीसद्दहामिण भंते ! निग्गंथे पावयणं जहाणं देवाणुप्पिया ! अतिए बहवे राईसर जाव राजा की प्रधान कंन्या के साथ एकही दिन पानी ग्रहण कराया, तैसेही पांचसो २ सुवर्णकी रूपकी यावत् १२८ बोलका दाय जादिया यावत् प्रसाद के ऊपर पांचों इन्द्रिय से विषय सुखोपभोग भोगवते विचारने लगे ॥ ८॥ उप काल उस समय में श्रमण भगमंत महावीर स्वामी समोसरे, परिषदा दर्शनार्थ आई, जिनशत्रु राजाभी कोणिक राजाकी तरह आया, सुबाहुकुमार भी जमाली क्षत्रीकुमारकी तरह रथारूढ हो आया, धर्मकथा कही राजा परिषदा पीछींग ॥ १ ॥ तत्र सुबाहुकुमार श्रमण भगवंत महावीरस्वामी के पास धर्म श्रवण कर हर्ष तुष्ट आनन्दपाया उठखडा हुवा वंदना नमस्कारकर यावत् यों बोला- अहो भगवान ! मैंने निग्रन्थ प्रवनका श्रधान किया, जैसा देवानुमिया ने कहा वैसा ही है; यदि देवा के पास तो बहुत से राजा युवराजादि राजा । * * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * For Personal & Private Use Only १८४ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : सूत्र सूत्र का द्वितिय श्रुतस्कन्ध प्पभिइयो मुंडे भवित्ता, अणाओ अणगारियं एवइया, णो खलु अहं तहा संचाएभि मुं. भक्त्तिा आगाराओ अणगारिय पव्वत्तिए, अहणं देवाणुप्पिया अंतिए पंचाणुब्बइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजिस्सामि ? अहामुहं देवाणुप्पिया ! मपडिबद्धं करेइ ॥ १० ॥ तएणं से सुबाहु कुमारे समणस्स भगवआ महावीरस अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिखावश्यं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजइ २त्ता, तमेव दुरुहइ २ त्ता जामवदिसिं पाउब्भूया तामेवदिसं पडिगए ॥ ११ ॥ तेण कालेणं तेणंसमएणं जेटे इंदभूई जाव एवं वयासीअहोणं भंते ! सुबाहु कुमारे छोडकर साधुपना अङ्गीकार करते हैं परन्तु निश्चय में तैसा मुण्डितहो घर छोडकर अनगार होने साधु-चनने को समर्थ नहीं हुं में तो देवाणुप्रियाके पास पांच अणुात सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकारका जो गृहस्थका धर्म है उस को अङ्गीकार करणाचाता? भगवंत कहा हे देवाणु प्रया! जिस प्रकार सुख हो उस प्रकारं करो धर्म कार्य में प्रतिबन्ध-ढीलमतकरो ॥ १० ॥ तव सुबाहुकुमार श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीजी के पास पांच अनुव्रत सात शिक्षाबत बारे प्रकार का श्रावक का धर्म अङ्गीकार किथा, अंगीकार कर तैसे ही थारुढ हो जिस दिशा से आयाथा उस दिशा पीछा गपा ॥ ११ ॥ उस काल उम समय में 'श्रमगवंत के बडेशिष्य इन्द्रभूति-गौतम स्वामी जी भगवंत को वंदना नमस्कारकर यों बोले-अहो इति । सुखविपाक का पहिला अध्ययन सुधा हुकुमार का अर्थ For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटे-इ8 रूबे, कतै-कंतरूवे, पिए-पिएरूवे, मणुणे-मणाणे, सोमे, सुभगे, पियसिपी, सुरूवे बहुजणस्स वियणं भंते! सुबाहु कुमारे इष्टेरकते सोमे४ साहुजणस्स वियणं,भते! सुबहुकुमारे इ8 इट्ठरूवेय जाव सुरूवे सुबाहुकुमारेणं भंते ! इमेयारूवे उराला माणुस्सरिद्धी किण्णालद्धा किण्णापत्ता किण्णा आभि समण्णागया, कोवाएस आसि पुत्रभव जाव समण्णा गया ? ॥ १२ ॥ एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणंसमएणं हर्षाश्चर्य है कि अहो भगवंत ! बहुत लोगों में सर्वाधिक साहुकुमार इष्टकारी इष्टकारी रूपवाला, कंतकारी कन्तकारी रूपवाला, पियकारी प्रियकारी रूपवाला, मनोज्ञयनाम सौम्य - चन्दमा समान सौभाग्यवंत, मोत्पादक सुन्दर दर्शनी स्वरूप शोभनिकाकार, देखने में आया, अहो भदंत ! सुबाहुकुमार इष्टकारी बल्लभकारी अच्छा, कामनीय सौम्य-औदार यावत् मुरूप, अहो भदंत ! मुवा हुकुमार को इस प्रकार उदार प्रधान मनुष्य की ऋद्धि किस प्रकार की करनी करने से मिली है किस प्रकार प्राप्तहुई है किस हेतुसे, भोगवने मन्मुख आई, सुबाहुकुमार परभव में कौन था यावत् क्या नाम व क्या गौत्र था कहां रहता था, क्या इसने अच्छा पदार्थ सुपात्रदानदिया, क्या इसने फामुक आहारादि भोगवा, क्या इमने उत्तमाचार समाचारन किया, किस प्रकार माधु श्रावक के पास धर्म श्रवण किया, जिम से मुबाहकुपार को इम कपकार की प्रधान मनुष्य सम्बन्धी ऋद्धि मिली प्राप्तहई समाव आई है? ॥१२॥ भगवंत बोले-यों 49 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी + प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwnaramnonvar एकादशमांग-विपाक सूत्र का द्वितिय श्रुतस्कन्ध इहेव जंबूद्दीवे २ भारहेवास हथिणाउरे णामंणयरे होत्था रिद्धीत्थमिथ ॥ १३ ॥ तत्थणं हथिणाउरे णयरे सहमेणाम गाहावइ परिवसइ अड़े ॥ १४ ॥ तेणं कालणं । तेणं समएणं धम्मघोसाणामं घेरा जाइ संपण्णा जाव पंचहि समणसएहिं सद्धिं संपरि बुडा पुवाणु पुर्दिब चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव हत्थिणाउरे "यरे जेणेव सहसंबवणे उजाणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता अहा पडिरूवं उग्गहं उगिण्णइ २त्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे हिरई ॥ १५ ॥ तेणंकालेणं तेणंसमएणं धम्मघोसाणं थेराणं अंतवासी सुदत्तेणाम अणगारे, उराल जाव तेयलेसे मासेमासेणं निश्च गौतम ; उस काल उस समय में इस ही जम्बू द्वीपनाम के द्वीप में भरतक्षेत्र में हस्तिनापुर नाम का नगर ऋद्धि स्मृद्धि संयुक्त था ॥ १६ ॥ उस हस्तिनापुर नगर में मुमुखनाम का गाथापति रहता था। वह ऋद्धिवंत था ॥ १५ ॥ उस काल उम समम में धर्मघोषनाम के स्थविर जाति संपन्न कुलसंपन्न यावत पाँचसो साधुओं के साथ परिवरे हुवे, पूर्वानु पूर्वानु चलते हुवे ग्रामानुग्राम उल्लंघते हुचे सुख सुख से विचरतें जहाँ हस्तानपुर नगर का जहां सहश्रम्ब उध्यान था तहां आये आकर यथा प्रतिरूप साधु को कल्ये बैमा अवग्रह-आज्ञा ग्रहणकर संयम तपकर अपनी आत्मा को भवते हुवे विचरने लगे ॥१५॥ उम काल उस समय में धर्मघोष स्थरवर के अन्तेवासी मुदत्तनाम के अनगार औदर- प्रधान तप के करनेवाले यावत् सुख विपाकका-पहिला अध्ययन-मुबाहु कुमारका ' For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. अनुगदकालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + खममाणे विहरइ॥ १६ ॥ तएण से सद्दत्ते अणगारे मासखमणरस पारणगंसि पढमं पारसिए सझायं करेइ, जहा गोयमसामी तहेव धम्मघोसथेरे आपुच्छइ ३ त्ता जाव अडमाणे सुमुहस्स गाहावइस्सागहं अणुपवितु ॥ २७ ॥ तएणं से सुमुहगाहावई कुले सुदत्ते अणगारे एजमाणं पासइ हटे तुढे आसणाओ अब्भुटेइ २त्ता पायपीढाओ पच्चारूहइ २ त्ता पादुयाओमुयइ २ त्ता एगसडियं उत्तरासंगं करेइत्ता २ ता सुदत्तं अणगारं सतपायाई अणुगच्छइ २ त्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ२ तप के प्रभाव से उत्पन्न हुई तेजोलेश्यों को गुप्तकर रखने वाले मांसमांस क्षमण तप करते विचरते थे ॥१६॥ तब वे सुदत्त अनगार मांस क्षमनोपवास के पारने के दिन प्रथम प्रहार में स्वध्याय की, दूसरे पहर में ध्यान किया तीसरे प्रहर में गौतम स्वामीजी की तरह धर्मघोष स्थाविर को पूछकर यामत् भीक्षार्थ फिरते हुवे सुमुख गाथापति के घर में प्रवेश किया ॥ १७ ॥ तब सुमुख गाथापति अपने घर में सुदत्त अनगार को आते हुये देखकर हर्ष सन्तोपपाया, आसन छाडकर खडा हुआ, पादपीठका में नीचे उतरकर पांव में से पगरखा निकाली, फिर बीच में नहीं सीवा हुवा एना एकपाटसाटिक-स्त्र का उतरासन किया मुखकी यत्नाकर के सुदन अनगार के सन्मुख सात आठ पांव जाकर तीन वक्त दोनो हाथजोड प्रदक्षिणावर्त मस्तपर फिराकर वंदना नमस्कार किया. वंदना नमस्कार कर विस्तीर्ण अन्न पानी पकान मुखवास * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | वैदइ णमंसइ २त्ता विउलेणं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलाभे सामीति तुढे॥१८॥तएणं का तस्स समुहस्स तेणं दब्बसुद्धेणं दायकसुद्धणं पडिग्गह सुद्धणं तिबिहेणं तिकरणसुद्धेणं सुदत्तेअणगारे पडिलाभिए समाणे संसार परित्तीकए, मणुस्साउएणिबंध गिहेसियं से। इमाइं पंचदिव्वाई पाउब्भूयाइं तंजहा-वसुहारबुट्ठी, दसवण्णे कुममेणिवातिए, 4 . चेलुखेवकरइ, आहयाओ देवदुंदुभीया अंतरावियणं आगासंसि-अहोदाणं २ घुट्टेय, चारों प्रकार का आहार का दानदेते पहिली संतुष्ट हुवा, ॥ १८ ॥ तब फिर वह सुमख गाथापति द्रव्यशुद्ध F अर्थात् जो द्रव्यदान में दियाजाता वह भी फ्रमुक निर्दोष तपसंयय की ज्ञान की वृद्धि करनेवाला, दातार शुद्ध अर्थात दानदेनेवाला भी विशुद्ध निर्मल-द्रव्यफल की वांछा रहिन उदार परिणाम सहित, और पडिग्राहि भी शुद्ध-अर्थात् वह दानद्रहण करनेवाल भी शुद्ध संयमपालक संजमनिर्वाह के अर्थ लोलुप्तता रहित आहार ग्रहण करनेवाले, यों तीनों प्रकार के योग्य उत्तम मिले. और मन में उत्सहा महित, वचन से गगानुवाद करता, काय से अढलकदेता, यों तीनों करणशुद्ध सुदत्तअणगार को प्रतिलाभता-दान देता हुवा संसारको परत किया अर्थात् संसार परिभ्रमण को पृष्टदी मोक्ष के सन्मुख हुवा. वहां ही मनुष्यायु का बन्ध किया. उस वक्त वहाँ उम मुमुख गाथापति के घर में पांच प्रधान द्रव्य प्रगट हुबे, उन के नाम-साढी बाडे कोडी सोने की पांच वर्णके अचित वैक्रय बनाये फूलों की-क्षामालादि उत्तमवस्त्रोंकी-वृष्टीहुई, आकाशमें एकादशमांग-विपाक मूत्रका द्वितीय श्रुतस्कन्ध १०884 सुख विपाकका पहिला अध्ययन-सुबाहु कुमार का For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4: अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक जी हथिणारे सिंघाडग जाब पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवं आइक्खंइ घण्णेणं देवाप्पिए! सुमुहेणं गाहाबइ जाव तंघण्णेण देवाणुप्पिए ! सुमुहे गाहा ॥ १९ ॥ तणं से सुमुहेगाहाइ बहुहिंवाससयाई आउयंपालइ २त्ता कालमासे कालंकिच्चा इहेत्र हत्थिसिय यर अदीणसत्तुस्सरण्णां धारिणी देवीं कुच्छिसि पुत्तत्ता उवण्णा ॥ २० ॥ तणं सा धारिणी देवी सघणिजांस सुत्तजागरा आहीरमाणी २ दुंदुभी का नाद हुवा और आकाश में रहे हुवे देवों महादानम् २ ऐसा निर्घोष शब्द करने लगे. हस्तिनापुर नगर के श्रृंगाटक पंथ में श्रीवट चौवट यावत् महापंथ में बहुत लोगों मिल २ कर परस्पर बात करने लगे। कि है देवानुप्रिया ! सुमुख गाथापतिको घम्य है, कि जिसने इसप्रकार उत्तम प्रकार का दानदिया ऐमे उत्तम सांधु को प्रतिलाभ इसलिये धन्य है सुमुख गाथापति को ! ॥ १९ ॥ तब फिर सुमुख गाथापति बहुत वर्ष का आयुष्य पालकर काल के अवसर में काल पूर्णकर, इस ही जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र के इसे { हो हस्तिशीर्ष नगर में अदीन शत्रु राजा की धारनी रानी के कूंक्षी में पुत्रपने उत्पन्न हुवा ॥ २० ॥ तब धारनी देवीने सुख शैय्या में सुती हुई कुछ निद्रा में कुछ जाग्रत इपत्निद्रा आते तैसे ही पूर्वोक्त प्रकार केशरीसिह का स्वम अवलोकन किया और अधिकार सब पूर्वोक्त प्रकार जानना यावत् पादों पर सुख · For Personal & Private Use Only * प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेव महायजी ज्वालामसादजी ११० ( Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 एकादशनांग -विपाकसूत्र का द्वितिय श्रुतस्कन्ध - तहेव सीहं पासइ, सेतं तंचे जाव उपिपासइ विहरंति-॥ २१॥ एवं खलु गोयमा! . सबाहुणा इमा एयारूबा माणुस्सरिद्धी लडापत्ता अभिसमण्णागया ॥ २२ ॥ पभणं भंते ? सुबाहुकुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडेभवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइत्तए ? हेता पभू ॥ २३ ॥ तएणं से भगवं गोयमे ? समणं भगवं महावीर वंदइ णमंसइ२त्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ २४॥ तएणं समणे . भगवं महावीरे अण्णयाकयाइ हत्थीसीसओणयराओ पुप्फकरंडाओ उज्जाणाओ केयवण जक्खयणाओ पडिनिक्खमइ २त्ता वहिया जणवह विहारं विहरइ ॥ २५ ॥ भोगवना विचरता है ॥ २१॥ यों निश्चय हे गौतम ! सुबाहु कुमारने पूर्वजन्म में इस प्रकार अच्छी करनी करने से मनुष्य सम्बन्धी ऋद्धि मिली है प्राप्त हुई है, सन्मुख आई है ॥ २२॥ अहो भगशान ! मुबाहु कुमार गृहस्था वास डोडकर देवानुपिया के पास मुण्डिंत हो दीक्षालेने समर्थ है क्या?हां गौतमीमुबाहु पार दिक्षा ग्रहण करेगा ॥ २३ ॥वर फिर भगवंत गौतम स्वमीजी श्रमण भगवंन महावीर स्वामीजीको -वंदना नमस्कार कर तप संयम से अपनी आत्माको भावते हुवे विचरने लगे ॥ २४ ॥ तव अपेण भगवत श्रीबहावीर स्वामीजी अन्यदा किसीवक्त हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरंड उध्यान के कृतवनमाली यक्षके यक्षायतन से निकले निकल कर बाहिर जनपद देश में विहार करने लगे ।। २५ ।। तब सराहकमर श्रम सुखविपाकका पहिला अध्ययन-सुबाहकुमार का | For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ 4अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी" तएणं से सुबाहुकुमारे समणोवासए जाए अभिगय जीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ ॥ २६ ॥ तएणं से सुबाहुकुमारे अण्णयाकयाइ चउदरसट्ठमुद्दिट्ठ पुण्णमा सिणीसु जेणेव पोस्हसाला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता पोसहसालं पमज्जइ २ त्ता उच्चारपासवणं भूमिपडिलेहे २ त्ता दब्भसंथारं संथरइ २ त्ता दब्भसंथारं दुरूहइ २ त्ता अट्ठमंभत्तं गिण्हइ २ त्ता पोसहसालाए पोसहिए अट्ठमभत्तिएपोसहं पडिजागरमाणे विहरइ ॥ २७ ॥ तस्स सुबाहुस्सकुमारस्स पुव्वरत्तवरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्त, इमेयारूवे अज्झथिए समुपप्पणे-धण्णापां ते गामागरणगर जाव . * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वाला प्रसादजी * णो पासक साधुका भक्तावना, जीव अजीव आदि नवतत्वका जान हुआ यावतू चउदह प्रकार का दान प्रतिलाभना हुआ निचरने लगा ॥ २६ ॥ तब सुबाहुकार अन्यदा किसिवक्त तुर्दशी अमावश्या अष्टमी पूर्णिमाके दिन जहां पोषधशाला है तहां आया. आकर, पोषधशालाको रजोहरणसे पूंजकर उच्चार-बड़ीनीत पासण लघुनीत परिठायनेकी भूमीका पर्डिलेही, पडिलहकर दार्म (पगल) का संथारा विच्छोन बिछाकर दर्भ बंधारे पर बैठकर अष्टमभक्त ( तेलेका तप ] ग्रहण किया, ग्रहणकर अष्टभक्त-तेलेका पोषधवत ग्रहणकर धर्म जागरना जागता हुआ विपरनेलगा॥ २७ ॥ तब उस सुबाहुकुमरको आधारात्री व्यतीत हु धर्म जागरणा जाग ते हु इस प्रकार अध्यवसाय उत्पन्न हुआ धन्य है उस ग्राम नगर १ । For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 43 एकादशमांग- विपाकसूत्र का द्वितीय श्रुतस्कन्ध - ससा जत्थणं समणे भगवं महावीरे विहरइ, घण्णाणं तेराईसर जेणं समणस्स अंतिएमुंडा जाव पव्वयंति, घण्णाणं तेराईसर जेणं समणस्स अंतिए पंचाणुञ्चतियं जात्र गिहिधम्मं पडिवज्जइ. धण्णाणं तेराईसर जेणं समणस्स अंतिए धम्मं सुणेइ ॥ अणं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुर्वि जाब दूइज़माणे इहमागच्छेजा जान विहरिजा तओणं अहं समणस्स अंतिए मुंडेभवित्ता जान पाएजा ॥ २८ ॥ त समणे भगवं महावीरे सुबाहुस्स कुमारस्त इमं एयारूवं अज्झत्थियं जात्र वियाणिता यावत् सनीस को जहां भ्रमण भगवंत महावीर स्वामी विचरते हैं, पति आदि को जो श्रवण भगवंत महावीर स्वामी के पाप मुण्डित हे उन राजा इश्वरादि को जो श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के ग्रहस्थ का धर्म धारन करते हैं, धन्य है उन राजा ईश्वशादे को करते हैं; यदि श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पूर्वानु पूर्व चलते हुवे भावते विचरंतो में भी श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के पास मुण्डित हो दीक्षा धारन करूं ॥ २८ श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने सुबाहु कुपार के इस प्रकार के अध्यवसाय को जाने, और पूर्वानुपू धन्य है उन राजा ईश्वर शेठ सेना होते हैं. यावत् दीक्षा धारन करते हैं, धन्य पास पांच अनुना सात शिक्षात्रतरूप जो श्रवण भगवंत के पास धर्म श्रवण यहां पधारकर तप संयम से मात्मा त For Personal & Private Use Only । 48 सुखविपाक का पाडेला अध्ययन-सुहुकुहार का १९३ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी वाणुपुत्र चरमाणे जात्र दुइजमाणे जेणेव हत्थीसीसे णयरे जेणेव पुप्फकरंडए उज्जाणे जेणेव कयवणमाला पियरस जक्खरस जक्खायतणे तेणेव उवागच्छ २त्ता अहापडिवं उग्गह उगिव्हता संजमेणं तवसा जाब विहरइ ॥ २९ ॥ परिसा राया निग्गओ, तणं तस्स सुबाहुस्स कुमारस्स तंमहया जहा पढमं तहा निग्गया धम्मोहिओ परिसाराया पडिगया || ३ • ॥ एणं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मंसच्चा णिसम्महट्टु जहा मेहो, तहा अम्मापियरो आपुच्छर, निक्खमणाभिसेओ ग्रामनुग्राम उल्लंघते जहां हस्तिशीर्ष नगर जहां पुष्पकरंड उध्यान जहां कृतवन माली यक्षका यक्षायतन था तां आये, आकर यथा प्रतिरूप साधु के योग्य अवग्रह अवगाहकर ग्रहणकर संजम तपकर अपनी आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे ॥ २९ ॥ परिषदा दर्शनार्थ आई, तब सुबाहु कुमार महा अडंबर कर पहिले की तरेही बंद करने गया, धर्मकथा कही, परिषदा पीछी गई ॥ ३० ॥ तत्र सुबाहु कुमार श्रमण भगवंत के पास धर्म श्रवणकर अवधार कर हृष तुष्ट आनन्दित हुवा जिस प्रकार कर मेघकुमारने अपने मातपिता से पुच्छा, प्रश्नोत्तर हुवा इस ही प्रकार प्रश्नोत्तर हुने हुना यावत् अनगार-साधु हुवा, इर्यासमिती समता यावत् ब्रह्मचारी बना, ॥ दीक्षा उत्सव भी तैसे ही ३१ ॥ सब वह सुबाहु For Personal & Private Use Only * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी १९४ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमांग-विपाकसूत्र का द्वितीय श्रुतस्कन्ध तहेव अणगारे जाए, इरियासमिए जाव बंभयारी ॥ ३१ ॥ तएणं से सुबाहुअणगारे समणस्म भगवओ महावीरस्स तहारुवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिजइ २ त्ता बहुहिं चउत्थछट्ठम तबो विहाणेणं अप्पाणं भाकित्ता बहुहिवासाई समणपरियागं पाउणित्ता, मातियाए सलेहणाए अप्पाणं झूसिता सर्टि भत्ताइं अणसणाई छेदित्ता आलोइय पडिकंते समाहिपत्ते कालमाप्ते कालंकिच्चा सोहम्मकप्पे देवत्ताए उबवण्णे ॥ ३२ ॥ सेणं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं अनगार श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामाजी के समीप रहने वाले तथारूप स्थविर के पास सामायिक आदिक इग्यारे अंगपढे, पढकर बहुत प्रकार चोथभक्त-उपवा वेला तेला आदि तपकर्मोपाधान से अपनी आत्मा को भावते बहुत वर्ष साधुपने की पर्याय का पालनकर, अन्तिम एक महिने की सलेषना से पापात्मा की झोसनाकर साठ भक्त अनशन का छेदन कर आलोचना प्रकिक्रमनाकर समाधी प्राप्त हो काल के अवसर काल कर के सौधर्म देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुवा ॥ ३२ ॥ वह सुबाहु देव देवलोक से यहां का बन्धा आयुष्य का क्षयकर देवता का भव का क्षयकर देवता की स्थिति का क्षयकर अन्तर रहित चक्कर मनुष्यपने को प्राप्तहोगा, केवली प्रणित बोध से बोधित होगा, बोधित हो तथारूप स्थपिरपास मणित हो सुख विपाका-पहिला अध्ययन-सुबाहुकुमार का : For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - भवक्खएणं ट्ठिइक्खएणं अणंतरं चयंचइत्ता माणुरसं विग्गहं लाभहिति केवलं वोहिं बुझिाहिति २त्ता तहारूवाणं थेराणं अंतिए मुंडे जाव पव्वइस्सइ, सेणं तत्थ बहुहिं वासाइ समण्ण परियागं पाउणिहिति,आलोइय पडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा, १९३ सणंकुमाकप्पे देवत्ताए उववपणे: तओमाणुस्स पवज्जा,बंभलोए, माणुस्सं महासुक्के, माणुस्सं, आरणए, माणुस्सं, सम्वदसिडिं॥सेणं तओअणंतरं उव्वहिता महाविदेहे जाव अड्डा जहा दढपइण्णे सिज्झिहिति ॥३३॥ एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव सपत्तणं सुहविवागाणं यावत् दीक्षाधारन करेगा. वह वहां बहुत वर्ष साधुपना पालकर आलोचना पतिक्रमणाकर समाधी से काल के अवसर काल प्राप्त हो सनतकुमार नामक तीसरे देवलोक में देवता होगा, वहां से चक्कर मनुष्य होगा, दीक्षाधारन करेगा, वहां पांचमे ब्रह्मदेवलोक में देवता होगा, वहां से मनुष्य हो संयमलेगा, वहां से। सातवे महाशुक्र देवलोक में देवता होगा, वहां से फिर मनुष्य होगा, संयम की आराधना कर इग्य रवे अरण में देवलोक में देवता होगा,वहां से फिर मनुष्य हो संयम की आराधना कर सर्वार्थ सिद्ध नामक महा-विमान देवता होगा, वह मुबाहकुमार का जीव वहां से अनन्तर निकलकर महाविदेह क्षेत्र में जन-लेगा,ऋद्धिंवत होगा. जिस प्रकार दृढप्रतिज्ञा कुमार का कथन उबवाइ सूत्र में कहा है उसही प्रकार याले कर्म का क्षपकर , मुक्तहोगा निर्वाणपावेगा सर्व दुःख का अंतकरेगा ॥ ३३ ॥ यों चिश्चय * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. - For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमस्स अज्झयणस्स अयमद्रुपण्णत्ते तिमि ॥ इति पढमअझयणं सम्मत्तं ॥ १ ॥ बितियस्स उक्खेवओ ॥ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं उसभपुरे णयरे धूमकरंडगउजाणे, धण्णोजक्खो, धण्णोवहोरया, सरस्सइदेवी, सुमिणदंसणं, कहणाजम्म-बालतणं-कलाउय-जोमणे पाणिग्गहणं-दाउ-पसाद-भोगायं जहासुबाहुस्सः णवर भदनंदीकुमारे, सिरीदेवी पामुक्खाणं पंचसया ॥ १ ॥ सामीस्स समोसरणं,सावगधम्म १९७ - हे जंबू ! श्रमण भगवंव श्री महावीर स्वामीनी मुक्ति पधारे उनोंने सुख विपाक का प्रथम अध्ययन का इस प्रकार अर्थ कहा तैसा ही मैं ने तेरे से कहा ॥ इति सुबाहु कुमार का प्रथम अध्ययन समाम् ॥ १॥ है दूतरा अध्ययन-यों निश्चय हे जंबू ! उस काल उस समय में बृपभपुर नाम का नगर का वहां स्तूभकरड नाम का, उध्यान था, उसमें धनायक्षका यक्षयतन था, वृषभ पुरनगर का धन्नावह नामका राजाथा, उसकी सरस्वती नामकी रानीथी, सिंहका स्वप्न देखा. स्वप्नपाठक से पछा. पत्रजन्नत्सव हवा. बाल्यक से मुक्त हो बहुतरेकला का अभ्यास किया, श्री देवी आदि पांचसो कन्या के साथ पानी ग्रहण किया. 5पांचसो २ दातदी यावत् प्रसादपर पांचों इन्द्रीय के सुखोपभोग भोगवते विचारने लगे, इत्यादि सर्व कथन सुबाहु कुमार जैसा जानना जिसमें इतना निशेप इन का भद्रनन्दीकुमार नाम स्थापन किया ॥ १ ॥ एकादशमांग विपाक सूत्रका द्वितीय श्रुतस्कन्ध 42 सुख विपाक का दूसरा अध्ययन-सुबाहु कुमार का ? For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 영화 अर्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + ॥२॥पुव्त्रभवपुच्छा-महाविदेहे पुंडरिगणनयरी विजयकुमारे, जुगबहुतित्थकरे पडिला भे माणुस्सा उ निवडे इहंउप्पण्णे, सेसं जहा सुबाहुस्स जाव महाविदेहे सिज्झिहिंति बुज्झिर्हिति मुच्चिहितिं परिनिव्वर्हिति, सव्चदुक्खण मंतकरिहिंति ॥ त्रितियं अज्झयणं सम्मतं ॥ २ ॥ तच्चस्उक्खवओ ॥ वीरंपुरनयरं मणेोरमंउज्जाणं, वीरकण्हमित्तेराया, सिरिदेवी; सुजाते कुमारे, बलसिरीपामोक्खाणं पंचसया, सांमीसमोसरिए ॥ पुन्वभवपुच्छा श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीजी समोसरे धर्म कथा श्रवणकर श्रावक धर्म अङ्गीकार किया ॥ २ ॥ गौतम स्वामीजीने पूर्वभव की पृच्छा की भगवंतने फरमाया - महाविदेह क्षेत्र की पुंडरीकगणी नगरी में विजय नाम का राज्य पुत्र था, श्री युगबाहु तीर्थंकर को प्रतिलाभे दानदिया मनुष्यजन्म का आयुष्य बंधकर यहां उत्पन्न हुवा, शेप अधिकार सब सुबाहु कुमार जैसा जानना यात्रत् महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा तहां तक कह देना || इति दूसरा भद्र नन्दी कुमार का अध्ययन समाप्तम् ॥ २ ॥ तीसरा अध्ययन का उक्षेप | वीरपुर नगर, मनोरम उध्यान, वीरकृष्ण मित्रराजा श्रीदेवी रानी सुजात नामका कुपार, बलश्री प्रमुख पांचसो कन्या के साथ पानी ग्रहण किया. भगवंत पधारे, श्रावक बने, गौतम स्वामीने पूर्व भत्र पूछा- भगत ने कहा- इक्षुकार नगरमें वृषभदत्त गाथापतिने पुष्पदन अनगारका प्रतिलाभकर मनुष्य For Personal & Private Use Only प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * १९. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न अर्थ 48 एकादशांग विपाक सूत्र का द्वितीय श्रुतस्कन्ध उसुपारेणयरे- उसभदत्ते गाहावई, पुप्फदत्तेअणगारे पडिलाभे, माणुस्साउनिबडे, इहउप्पण्णे, जाव महाविदेहे सिज्झिर्हिति ॥ सुहविवागे तइयं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ३॥ चउत्थरस उक्खवओ ॥ विजयपुरंणयरं, णंदणवणं उज्जाणे, असोगोजक्खो, वासवद तेराया, कण्हदेवी, सुवास कुमारे, भद्दा मोक्खं पंचसयादेवी ॥ जाव पुव्वभवो कोसंबीणयरी धण्णपा'लो राया, वेसमण भद्दे अणगारे पडिला भिए, इहं जावसिडे ॥ चउत्थअज्झयणं सम्मत्तं ॥ ४ ॥ पंचमस्स उक्खोवओ || सोगंधियां णयरी, णीलासोग उज्जाणे, सुकालो जक्खो, वासवदत्त आयुबन्धकर उत्पन्न दुवा] यावत् महाविदेह क्षेत्र में सिद्धबुद्ध मुक्त होगा ।। इति सुजात कुमार का तीसरा अध्ययन ॥३॥ चौथा अध्ययन का उक्षेप | विजयपुर नगर, नंदनवन उद्यान, आशोक यक्ष. ( राजा कृष्णादेवी रानी, सुवास कुमार, भद्रा प्रमुख पांचमो कन्या के सात पानी ग्रहण कराया || पूर्वभव - कोसंबी नगरी धनपाल राजाने वैभ्रमण भद्र अनगार को प्रतिलाभे, यहां ( उत्पन्न हुवा, यावत् महाविदे क्षेत्र में सिद्ध होगा ॥ इति सुवास कुमार का चौथा अध्ययन संपूर्ण ॥ ४ ॥ पंचत्रा अध्ययन का उक्षेप – सौगन्ध का नगरी, नीलाशोक उध्यान, सुकाल यक्ष, अप्रतिहत राजा, { सुकृष्णादेषी रानी, महाचन्द्र कुमार, उसके अरहदत्त भारिया. जिसका जिनदास पुत्र, तीर्थकर पधारे ॥ For Personal & Private Use Only 40 सुखविपाक का ३-२ अध्ययन- सुबाहुकुमार का १९९ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmmmm अप्पडिहयोराया, सुकण्हादेवी, महचंदकुमारे, तस्स अरहदत्ताभारिया, जिणदासपुत्ते, तित्थगरागमणं, जिणदासो, पुव भवो-मज्झिमिया णयरी, मेहरहोराया, सुहम्मे अणगारे पडिलाभिए, जाव सिद्धे ॥ पंचमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ५ ॥ छठुस्स उक्खेवओ कणगपूरं गयरं, सेयासेयं उजाणे, वीरभद्दाजक्खो, पियचंदो राया सुभद्दादेवी, वेसमणे कुमारे, जुबराया, सिरीदेवी पामक्खिा पंचसया, तित्थगरागमणं धणवइ जुवरायपुत्तो, जाव पुत्रं भवं-मणिवया गयरी, मितोराया, संभ. तिविजय अणगारे पडिलाभिए, जाव सिद्ध ॥ छटुं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ६ ॥ सत्तमस्स उकाखेवो ॥ महापुरंणयरं, रत्तासोगं उजाणं, रत्तापाल जक्खा, बलेराया, सुभद्दा पूर्वभव-मज्झिमिका नगरी,मेघरथराजा,सौधर्म अजगार प्रतिलाभे यावत् सिद्धहुवाजिन्दापका पांचवा अध्ययन छहा अधीन का उक्षे कनकपुर नगर, श्वेताशोक उध्यान, कीरभद्रयक्ष, प्रियचंद्रराजा, सुभद्रादेवीरानी, वैश्रमण कुमार युवराजा,श्रीदेवी प्रमुख५०० कुमगनी योनीर्थकर पधारे,धनवती युवराजाका पुत्र ।। पूर्व भव पूच्छा. मणिवयानगरी,मित्रराजा,संभूतीविजय अनगार प्रतिलाभे यावत् मुक्ति प्राप्तहुवे ॥धनपति का छट्ठा यध्याय ॥६॥ 10 सातवा अध्यायन का उक्षेप-महापुरनगर, रत्ताशोक उध्यान, रक्त पाल यक्ष वलनामे राजा, सुभद्रा देवा 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. • प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + 498+ एकादशमांग विपाक सूत्रका द्वितीय श्रुतस्कन्ध देवी, महाबले कुमारे, रत्तवतीयामोक्खाणं पंचम्पा, तित्थगरागमणं,जाव पुनभवो-माणीपुरं णयर,णागदत्तेगाहावई,इंदपुरे अणगारे पडिलाभिए,जाव सिद्धे॥ सत्तम्मं अ०स०१७॥ अटुमस्स उक्खोवओ ॥ मुघोसं णयर, देवरमणं उजाणं, वीरसेणोजक्खो, अज्जुणोराया त. तवइदेवी, भद्दनंदीकुमारे, सिरीदेवी पामोक्खाणं पंचसया ॥ जाव पुनभवेपुच्छा-महाघोसे णयरे धम्मघोसेगाहावइ, धम्मसीहे अणगारे पडिलाभे, जाव सिद्ध ॥ अट्ठमं अ० स० ॥८॥ णवमस्स उक्खेवओ॥ चपाणयरी, पुण्णभद्दे उज्जाणे, पुण्णभद्देजक्खो.दत्तेराया,रत्तवइदेवी, महचंदेकुमार, जुवराया, सिरिकंतापामोक्खाणं पंचसया, जाव पुव्वभवो-तिगिच्छि णयरी, रानी महाबल कुमार, रक्तावती प्रमुग्व ५०० कुमारानी यों ॥ तीर्थंकर समवमरे, पूर्वभव पुच्छा-माणीपुर नगर, नागदत्त गाथापति, इन्द्रदत्त अनगार को प्रतिलाभे, यावत् मोक्षपाये इति महाबल का सातवा अध्ययन समाप्तम् ॥ ७ ॥ • आठया अध्ययन का उक्षेप-मुघोस नगर, देवरमण उध्यान, वीरसेन यक्ष, अर्जुन राजा, तलवतारानी, भद्रनन्दी कुमार, श्रीदेवी प्रमुख ५०० 3 कुपाररानी. पुर्वभव-महाघोष नगर, धर्म घोष गाथापति, धर्म सिंह अनगार को प्रतिलाभे यावत् मोक्ष पाया ॥ इति भद्रनन्दीका अषा अध्ययन समाप्त 10 8 नवमा अन्धा का उप-बम नगरी, पूर्ण भद्रयक्ष सुख विपाक का ६.९ अध्ययन मुबाहु कुमार का For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जियसत्तुराया, धम्मविरति अणगारे पडिलभिए जाक सिद्धे ॥णवमंअज्भयणं सम्मत्तं ॥९॥ जहणं दसमस्स उक्खेवओ ॥ एवं खलु जंबु ! तेणं कालणं तेणं समएणं साएयं णामं गयरे होत्था, उत्तरकुरु उजाणे, पासामियो जक्खो, मित्तणंदीराया, सिरिकतादेवी, वरदत्तकुमारे, वीरसेणापामोक्खाणं पंचसयादेवी, तित्यगरागमणं, सावगधम्मं ॥ पुवभवो-सयादुवारे णयरे, विमलवाहणेराया, धम्मरूइ अणगारे पधिलाभिए, माणुस्साउ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक. ऋषिजी + • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी दत्तराजा रत्तवती रानी महाचन्द्र कुमार युवराजा, श्रीकान्ता प्रमुख पांचसो कुमरातीयों ॥ पूर्वभव-तिगिछी नगरी जितशत्रुराजा, धर्मवृति अनगार प्रतिलाभे,यावत् सिद्धहुवे।।इति महाचंदका नववा अध्ययन समाप्तम्।। ___ दशा अध्ययन का उक्षेप-यों निश्चय हे जंबू ! उस काल उस समय में साकेत नगर था उत्तरकुर उध्यान, पासामीयक्ष, मित्रनंदीराजा, श्रीकंतादेवी, वरदत्तकुमार. वीरसेना प्रमुख पांचसो कन्या से पानी ग्रहण कराया ॥ भगवंत श्री महावीर स्वाजी पधारे, वरदत्तकुमार श्रावक बना. गौतम स्वामीजीने पूर्वभव पूछा-भगवंत फरमाते हैं-शतद्वारा नगरी के विमल वाहनराजाने धर्मरुची अनगार को प्रतिलाभकर नुष्यायु का बन्धकर यहां उत्पन्न हुवा, और शेष अधिकार सुबाहु कुमार जैसा जानना, पौषध में भगवंत के दर्शन की चिन्तबना की भमवंत पधारे, दीक्षाधारन की, आयुष्य पूर्ण कर-प्रथम देवलोक, wwwwwwwwwwwwanm For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S एकादशमांग-विपाक सूत्र का द्वितीय श्रुतस्कन्ध बंधे इहं उप्पण्णे सेसं सुबास्स चिंता जाव पवज्जा, कप्पंतरे तओ जाव सबसिडे, तओ महाविदेहे जाव सिज्झिहिंति ॥ दसमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥१०॥ * एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते ॥मेवं भंते २॥ णमोसयदेवयाए विवागसुयस्स दोसुयक्खंधा दुहविवाग दसअ. ज्झयणा, सुहविवाग दसअज्झयणा, एक्कारसगा दसमु चेव दिवसेसु उद्दिसिजंति, एवं सुहविवागोवि सेसंजहा आयारस्स ॥ इति विवागसुयं एकारसमं अगं सम्मत्तो॥११॥ मनुष्य, तीसरा देवलोक, मनुष्य, पांचवा देवलो, मनुष्य, सातबा देवलोक, मनुष्य, नवधा देवलोक, मनुष्य, ग्यारवा देवलोक मनुष्य और सर्वर्थ सिद्ध में उत्पन्न हो वहां से महामिदेह क्षेत्र में जन्मले दीक्षाले कर्म | क्षयकर सिद्ध होगा यावत् सर्व दुःख का अन्त करेगा ॥ यों निश्चय हे जंबू ! श्रमण भगवंत यावत् मुक्ति गये जिनोने दशवा अध्ययन का यह अर्थ कहा, तैमा ही मेंने तेरे से कहा. तहति वचन अहो भगवान आपने कहा तैसा ही है ।। इति सुख विपाक का दशवा अध्ययन समाप्तम् ॥ १० ॥ + उपसंहार-नमस्कार होवो श्रुतदेवको,विपाक मूत्रके दोश्रुतस्कन्ध दुःख विपाकके दश अध्ययन और सुख विपाक-24 के भी दश मध्ययन. इग्यारवे अंग के२० अध्ययन प्रथयके दश अध्ययन भी दश दिन में वांचने तैसेही दूसरे केदश अध्ययन भी दश दिन में बांचन, और आचारंग के जैसे जानना ॥ इति मुख विपाक सूत्र समाप्तम् ॥ ११ ॥ 40 सुख विपाकका-१०-११अध्ययन सुबाहुकुमारका For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S . . . . . . . . . .. . Pratada इति Osdany एका दशमाङ विपाक सूत्र समाप्तम् ........ १ अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी मकारक-राजाबहादरलाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. .. ..... - वीराब्द-२४४४ जेष्ट पूर्णिमा चन्द्रवार. * पी . mra g eevariyory For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9.9.00.. .... HISAMAVOXIMESMORE शास्त्रोद्वार प्रारंभ वीराब्द 2442 ज्ञान पंचमी 2 5903RRIERRECE 3039332-28 11 Artic PRASAR PASPICES STREAL विपाक सूत्र 12BSETERNATI श्री महापार जैन भारधना केह, कोबर FEAD999903:26 PATRE Nins Isist4 OTOS CEER F REEKS. समाप्तम .3 LEELAM कोली शास्त्रोद्धार समाप्ति वीराब्द 2446 विजयादशमी 9.00000000000000 00000 Calkala.....9.466