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सूत्र
अर्थ
4867 एकादशमांग- विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध
विग्गा सुहं सुहेणं परिवसित्तए त्तिकद्दु, पायवडिया पंजलिउडा महब्बलरायं एवमट्ठ विष्णवंति ॥ ३७ ॥ एणं से महब्चलेराया, तेसिं जणवयाणं पुरिसाणं अंतिए एयमट्ठ सच्चा जिसम्म असुरुते जाव मिसिमिसेमाणं तिबलियं भिउडिं णिलाडे साहहु दंड सदावे २त्ता एवं व्याप्ती - गच्छहणं तुमं देशणुप्पिया ! सालाडविए चोरपलिं विलुंपाहि अभग्ग सेण चोरणाच जीवग्गाहं गिण्हाहिं रत्ता मम उवण्णेहिं ॥ ३८ ॥ एणं से दंडे तहन्ति यटुं डिसुणेइ २ ॥ ३९ ॥ तरणं से दंड बहुहिं पुरिसेहिं सण्णद्ध जात्र पहरणेहिं सद्धिं संपरिबुडे मगाइएहिं फलएसि जाव छिप्पत्तरेहिं वजमाणेणं महया
व्यतीत करना, यों कह कर पांव पडकर हाथ जोड कर महवल राजा से विनंती करी || ३७ ॥ तत्र फिर | महाबल राजा उन जनपद देशके पुरुषों के मुख से उक्त कथन सुनकर अवधार कर शीघ्रही कोपायमान हुवा यावत् मिसमिसायमान होता सर्प के ज्यों फुंफट करता तीन शल्य निलाडपर चडाकर दंडसेनापति को बोलाकर यों कहने लगा- जावो तुम दे देवानुनिया ! सालाटवी चोरपल्ली को लुंटो, उसका विनाशकरो और अभग्गसेन चोर सेनापति को जिन्दा पकडकर मेरे सुपरत करो ॥ ३८ ॥ तब उस दंड सेनापतिने राजा की आज्ञा तहति प्रमाणकी।। ३९ ।। तब वह दंड सेनापति बहुत सुभटों साथ सन्नद्धबद्धहो मन्नहाव क्तर शस्त्र धारन कर यावत् दथीयार धारनकर उन सुभटों के में परिवार से परिवरा हुवा हाथो में खांडा खड्गादि ग्रहण किये।
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408 दुःख विपाक का तीसरा अध्ययन- अभग्गसेन चोर का
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