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8+ एकादशमांग-विपाकपुत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध486
नाव आहिंडमाणी दोहलं विणिंति ॥ २६ ॥ तएणं सा खंदसिरी भारिया संपुषण दोहला समाणिय दोहला विणिय दोहला वोछिण्ण दोहला संपुण्ण दोहला तं गन्भं सुहं सुहेणं परिवहइ ॥ २७ ॥ तएणं सा खंदसिरी चोरसेणावइणी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारयं पयाया ॥ २८ ॥ तएणं से विजय चोर सेणावइ तस्स दारगस्स इवीसकारसमुदएणं दसरत्तढिइ वडियं करेइ ॥ २९ ॥ तएणं से विजय चौर सेणावइ तस्स दारगस्स एक्कारसमेदिवसे विपुलं असणं ४ उवक्खडावेइ२त्ता मित्तणाइ
आमंतएइ २त्ता जाव तस्सेव मित्तणाइ पुरओ एवं क्यासी-जम्हाणं अम्हं इमंसि दारगंकरती सिंहनाद से समुद्र की तरह गारव करती दोहला-मनोरथ पूरन करती हुइ विचरने लगी ॥२६॥ तब फिर वह खंदश्री भार्या समस्त वांच्छितार्थ पूर्ण करती हुई दोहला पार पहोंचाती हुई वांच्छा से निवर्तती हुई विविक्षितार्थ वांच्छा कारण वह विच्छेद होने से संपूर्ण दोहला होने से गर्भ की सुख २ से पृद्धि करती हुइ विचरने लगी ॥ २७ ॥ तब फिर खंदश्री चोर सेनापत्नि नव महीने पूर्ण हुवे बालक का जन्म दिया ॥ २८ ॥ तब फिर विजय चोर सेनापति उस बालक का महा मंडान से ऋद्धि आदि कर समुदाय कर दश दिन तक जन्मोत्सव किया ॥ २९ ॥ तब फिर विजय चोर सेनापति उस बालक का इग्यार दिन बहुत प्रकार का अशनादि निष्पन कराकर मित्र ज्ञातियोंको बोलाकर जेमनदिया,जेमनदेकर उन मित्र
दुःखविपांक का-तीसरा अध्ययन-अभग्गसेन चोर का+
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