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488एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध-4880
सिरावेहेहिय, तच्छणेहिय, पच्छणेहिय, सिरवत्थीहिय, तप्पणेहिय, पुडपागेहिय, छल्लीहिय, मलेहिय, कंदहिय, पुष्फेहिय, पत्तेहिय, फलोहिय बीएहिय, सिलियाहिय, गुलियाहिय, ओसहेहिय, भेसयहिय, इच्छति, तसेणिं सोलसहं रोगायंकाणं एगमवि रोगातंकं. उवामित्तए णो चेवणं संचाएइ उवसामित्तए ॥५५॥ तएणं ते बहः विजोवा विज.
पुत्तोवा जहा णो संचाएइ तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमविरोगायकं उत्समित्तए उकालकर पानीपाया, वमन कराया,विरेचन(जुलव) कराया, औषधीयों का सींचन किया,सेवन कराया, बहुत है,
प्रकार के औषध के पानी से स्नान कराया, यंत्रादि के. योग से शरीर का मर्दन कराया, चर्म की बची । ( नली ) औषधी से भरकर गुदा में प्रक्षेप की,केइ वस्तु सुघाई, धूवादिया, छुरी आदि शस्खकर स्वचा-चमडी
का छेद किया, पाछनादि से मांसादि काटे, मृगचरर्मादि से बन्धे, शरीर के छिन्द्रों में तैलपुरे, उष्ण तेलादि शरीर पर छांटे, लीम्बादि के पत्तेसे सिकताव किया,अनेक प्रकार की वनस्पतिकी छालकर भूलकर कंदकर फुलकर पानकर फलकर बीजकर, चिरायतादि कापानीकर गोली त्रिगडा प्रमुख, औषधः मिले हुवे द्रव्यकर, भेषध प्रत्येक अलग २ द्रव्य कर, जो जो जिसने चहाया वह २ उपाय किया, परन्तु उनसोले
रोगों का एकभी रांग उपशमासके नहीं।।२५॥तब वे वैद्य वैद्य केपुत्र इत्यादि जब समर्थ नहीं हुवे उनः सोल. ५ रोग ये का एक ही रोग उपशमाने, तब थकगये अतीही यकगये, जिस दिशा से आये थे उस दिवा पीछे है।
488 दुःखविपाक का-पहिला अध्ययन मृगापुत्रका 88
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