________________
श्री अमोलक ऋषिजी +
१३०
उवदिसइ ॥ १२ ॥ अप्पाणं वियणं सेधण्णंतरीवेजे तेहिं मच्छमसहिय जाव मयूरमंसेहिय अण्णहिय बहुहिं जलयर थलयर खहयर मंसाइ मच्छरसएहिय जाव मयूर रसएहिय सोल्लेहिय तिल्लिएहिय भजिएहिय सुरंच ५: आसायमाणे ४ विहरइ ॥१३॥ तएणं से धण्णंतरीवेजे एयकम्मे ४ सुबहुपावं समजिणित्ता बतीससयाई वासाइं परमाउं पालइत्ता कालमस कालंकिच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसं बगवीससागरोबमाई उवणे ॥ १४ ॥ तएणं इहेवपाडलिसंडे णयर सागरदत्ते सत्यवाहे गंगदत्ते भारिया
जायणियावि हात्था, जाजा जाया दारगा विणिघायमावति ॥ १५ ॥ तएणं स्थलचर का खेचर का मांस खाने का उपदेश देता था ॥ १२ ॥ और आप भी पछ का यावत् मयुरादि का मांग के सोले-टुकड़े कर तलकर मुंजकर सेक कर मदिरा आदि के साथ अस्मादिना था खाता खिलाता विचरता था ॥ १३ ॥ वह धनंतरी वैद्य-उक्त प्रकार के कर्मों का आचरन कर बहुत पाप का उपार्जन कर बत्तीस हजार ३२००० वर्ष का परम उत्कृष्ट आयुष्य का पालनकर कालके.अवसर में कालपूर्णकर छठीतमप्रभा नरक में उत्कृष्ट बावीस सागरोपमकी स्थितिषने मेरिया पने उत्पन्न हुआ ॥ १४॥ तब इसही पाडली खंड नगर में सागरदत्त सार्थवाही की गङ्गदत्ता मार्ग मृतवज्झथी अर्थात् उस के बच्चे जीते नहीं थे जीते गर्भाशय में उत्पन्न हो जन्मकर तुर्त मरमाते थे ॥१५॥
• प्रकाशक-राजाबहादर लालामुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
48 अनवादक-बालब्रह्मचारी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org