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4.88 एकादशर्माग विपाकमत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48+
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तीसे गंगदत्ताए संस्थवाहिए अण्णयाकयाइ पुवरत्ता वरत्तकाल. समपंसि कुटेबजाग. रियं जागरमाणे अयं अज्झस्थिए ४ समुप्पणे-एवं खलु अहं सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं सहि बहुहिं वासाहिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ, णोचेवणं अहं दारगंवा दारियंत्रा पयामि, तं धण्णउताओ अम्मयाओ संपुण्णाओ कयत्थाओ कयपुण्णाओ कयलक्खणाओ सुलटेणं तासि अम्मयाणे माणुस्सए जम्मजीवियफले जासिंमण्णे णियग कुच्छि संभूयगाइं थणदुडलुद्धगाई ममण पपियाति थणमूल
कक्खदेसभागं अतिसर माणगाई मुद्धगाइं पुणोय कोमल कमलोवमेहिं हत्थेहि तब फिर वह गंगदत्ता सार्थशाहिनी अन्यदा किसी वक्त आधी रात्रि व्यतीत हुवे कुटुम्ब जागरना जागती
इस प्रकार अध्यवसाय उत्पन्न हुये-यों निश्चय मुझे सागरदत्त सार्थवाही के साथ उदारप्रधान मनुष्य संबंधी भोगोंगवते बहुत वर्ष हो परंतमैने आजतका एक पुत्र या पुत्री जन्म दिया नाहिं, इस है उस माताको संपूर्ण पुण्यात्माको कुनाथिको कृत्पुण्यको कृतलक्षणी-मुलक्षणी को,अच्छा प्राप्त हुवा जस माता का मनुष्य जन्म जीवितका फल की जिस माता ने अपनी कुंक्षी से उत्पन्न हुशे पुत्रको स्तन दूग्ध पान कराती । है मुन मुने शब्द से बोलाती है स्तन के मूल कांक्षके देशविभाग में या गोद में बैठाती है, मुग्धास्त्री (सह पावली बन ) बारम्बार उसे उठाती सुलाती है, मुकुपाल कमल समान उस के हाथ अप ने
दुःख विपाक का-सातवा अध्ययन-उम्बरदत्त कुमारका
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