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एकादशमांग-विपाक मूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध १११
विपुलं असणं ४ आसएणं आहारेइ से खिप्पामेव विद्धसेइ २ तातोपच्छा पूयत्ताए सोणियत्ताए परिणमेइ, तंपियणं पूयंच सोणियंच आहारेइ ॥ ४३ ॥ तएणं भगवं गोयमं तंमियापुत्तं दारयं पासित्ता अयमेयरूवे अझत्थिए पत्थीए चिंतीए मणीगए संकप्पे समुप्पजित्था-अहोणं इमेदारए पुरापोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुपडिकंताणं असु. भाणं पात्राणं कडाणं कम्माणं पावगंफल वित्तिविसेसं पञ्चणुब्भवमाणे विहरइ, णमे दिवाणरगावा जरइयावा, पच्चक्खं खलु अयंपुरिसे जरय पडिरूवियं वेयणं वेएई, तिकटु मियदेवि आपुच्छइ २त्ता मियादेवीए गिहाओ पडिनिक्खमई २ ता मियग्गामं लगा, खाते ही वह आहार विगडाया, विद्वंम कर पीप [ राद ] पने रक्त पने परिणमा, तब उस पीप रक्त रूप आहार को भी वह खा गया ॥ ४३ ॥ तब भगवन्त गौतम उस मृगा पुत्र कुमार को देखकर इस प्रकार अध्यवसाय प्रार्थना चिन्ता मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुवा-अहो इति खदाश्चर्य ! यह बालक पूर्व बहत काले पहिले जन्मान्तर में दुश्च-प्राणातिपाताद आचरन किये, उन अशुभ कर्म के कारन ए कर्म के विपाक संचय किये जिस के अशुभ फल रूप वृत्ति भोगवता हुवा प्रत्यक्ष अनुभवता विचरता है, मैंने नरक और नरीयेको तो प्रत्यक्ष नहीं देखे परंतु यह पुरुष प्रत्यक्षमें पापफल नरक जैसी वेदनावेदता देखा है।* यो विचार कर मृगावती देवीको पूछकर मृगावती देवी के घर से निकलकर मृगाग्राम के मध्य २ में होकर
48 दुःखविपाक का-पहिला अध्ययन-मृगापुत्रका 48
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