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श्री अमोलक ऋषिजी
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भंते ! मुंहपोत्तियाए मुहबंधह ॥ ४० ॥ तएणे सेभगवं गोपमे मियदिवीए एवं बुले समाणे मुहपोतियाए मुहबंधेइ२ चा ॥४१॥ तएणं सा मियादेवी परंमूही भूमिघरस्स . दुवारं विहाडेइ, तओणं गंधो गिगच्छइ, से जहा नामए अहिमडेइवा जाव तओविणं
अणिटुनराएचेव जाव गंधे पण्णत्ते ॥४२॥ तएणं से मियापुत्तेदारए तस्स विपुलस्स
असण पाण खाइम साइमस्स गंधेणं अभिभएसमाणे तं विपुलं असणं मुच्छिए, तं वस्त्र के चार पटकर मुख (नाक) बम्धती हुई, भगवंत गौतम स्वामी से को कहने लगी--अशे भम्बन् ! तुम भी मुख को (नाक) को वस्त्र बन्धो + ॥ ४० ॥ तब वे भगवन्त गौतम ! मृगादेवीका उक्त वचन अवधार कर मुख [ नाक ] को वस्त्र बन्धा ॥ ४१ ॥ तब वह मृगावतीदेवी अपने मुख को भूमीगृह की तरफ से फिराकर पराङ मुखी हो भूमी गृह के द्वार खुल्ले किये, उसी वक्त उस में से दुर्गन्ध निकली, वह दुर्गन्ध यथादृष्टान्त-सका मडा(मृत्पुक शरीर)इत्यादि मडे सड जानसे उस में से जैसी दुर्गन्ध निकलती है उस से भी अधिक दुर्गन्ध कही है।॥ १२॥तब वह मुगापुत्र बालक उस विस्तीर्ण अशनादि चारों आहार की सुगंध आने से, उस अशनादि चारों आहार में मूछित हुआ, उस अशनादि चारों प्रकार के आहार को खाने + नाक दको यह शब्द लज्जा स्पद होने से, मुख बंधो ऐसा कहा है. क्यों कि गंध को नाक ही ग्रहण करता है. नकिमुख.
प्रकाशक-रामाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.
अनुवादक-बालब्रह्मच
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