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428+ एकादशमांग-विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध
चणं करई २त्ता जाणुपायडियाए उवाएत्तए, जइणं अहं देवाणुप्पिया ! दारगंवा दारियंवा पयामि, तोणं अहं जायंच दायंच भायंच अक्खयणिहिं च अणुवस्सामि, त्तिक? उववाय उवाइणित्तए, एवं संपेहेइ२त्ता कल्लं जाव जलंते जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ २त्ता सागरदत्तं सत्थवाह एवं क्यासी-एवं खल अहं पेवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं सदि जाव णपत्ता तंइच्छामिणं देवाणुप्पिया ! तुम्भेहि अन्भाणुण्णाया जाव उवाइणित्तए ॥ १७ ॥ तएणं से सागरदत्ते सत्थवाहे गंगदत्तं
भारियं एवं बयासी-ममंचेव देवाणुप्पिया! एसचेवमणोरहे कहणं तुमं दारगंवा दारीयंवा यदि हे देवानुमिया ! मैं पुष या पुत्री पसवूगीतो में तुमरे यहाँ यज्ञकर-पूजा करूंगी, तुमारी यात्रा करूंगी, हमारी द्रव्योत्पति का विभाग कर तुमारा अस्खूट निध्यान (भंडार) में द्रव्य की वृद्धि कर ऐसा करने से मुझे उस से इष्ट वस्तु की प्राप्ति होगी. ऐसा विचार किया, ऐमा विचार कर, प्रातःकाल होते. यावत् जाखल मान सूर्योदय होते जहां सागरदत्त सार्थवाही था तहां आई आकर सागरदत्त सार्थवाई ऐसा बोली-यों निश्चय हे देवानुपिया ! मुझे सुमारे साथ भोग भोगवते इतने वर्ष हवे परंतु आप एण भी पालक प्राप्त हुवा नहीं इसलिये अहो देवानुप्रिया ! जो तुमारी आज्ञा होतो में चहाती हूं उम्बरदत्त यक्षकी पूनाकर यावत् पूत्रकी याचना करूं॥१॥तब उसमागरदत्ते सार्थवाहीने गंगादत्ता सार्थवाहीनीसे ऐसाघोल
दुःख विपाकका-सातवा अध्ययन-उम्परदत्त कुमार का
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