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| वैदइ णमंसइ २त्ता विउलेणं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलाभे सामीति तुढे॥१८॥तएणं का तस्स समुहस्स तेणं दब्बसुद्धेणं दायकसुद्धणं पडिग्गह सुद्धणं तिबिहेणं तिकरणसुद्धेणं
सुदत्तेअणगारे पडिलाभिए समाणे संसार परित्तीकए, मणुस्साउएणिबंध गिहेसियं से।
इमाइं पंचदिव्वाई पाउब्भूयाइं तंजहा-वसुहारबुट्ठी, दसवण्णे कुममेणिवातिए, 4 . चेलुखेवकरइ, आहयाओ देवदुंदुभीया अंतरावियणं आगासंसि-अहोदाणं २ घुट्टेय,
चारों प्रकार का आहार का दानदेते पहिली संतुष्ट हुवा, ॥ १८ ॥ तब फिर वह सुमख गाथापति द्रव्यशुद्ध F अर्थात् जो द्रव्यदान में दियाजाता वह भी फ्रमुक निर्दोष तपसंयय की ज्ञान की वृद्धि करनेवाला, दातार
शुद्ध अर्थात दानदेनेवाला भी विशुद्ध निर्मल-द्रव्यफल की वांछा रहिन उदार परिणाम सहित, और पडिग्राहि भी शुद्ध-अर्थात् वह दानद्रहण करनेवाल भी शुद्ध संयमपालक संजमनिर्वाह के अर्थ लोलुप्तता रहित आहार ग्रहण करनेवाले, यों तीनों प्रकार के योग्य उत्तम मिले. और मन में उत्सहा महित, वचन से गगानुवाद करता, काय से अढलकदेता, यों तीनों करणशुद्ध सुदत्तअणगार को प्रतिलाभता-दान देता हुवा संसारको परत किया अर्थात् संसार परिभ्रमण को पृष्टदी मोक्ष के सन्मुख हुवा. वहां ही मनुष्यायु का बन्ध किया. उस वक्त वहाँ उम मुमुख गाथापति के घर में पांच प्रधान द्रव्य प्रगट हुबे, उन के नाम-साढी बाडे कोडी सोने की पांच वर्णके अचित वैक्रय बनाये फूलों की-क्षामालादि उत्तमवस्त्रोंकी-वृष्टीहुई, आकाशमें
एकादशमांग-विपाक मूत्रका द्वितीय श्रुतस्कन्ध १०884
सुख विपाकका पहिला अध्ययन-सुबाहु कुमार का
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