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ऋषिजी.
मिक्खाग-मयूरि• कुकुडि अंडएय, अण्णेसिंच बहुशं जलयर थलयर वहयर माईण अंडाइं गेण्हइ २त्ता पत्थिय पडिगाइं भरे २त्ता,जणेव निण्णए अंडवाणियए तेणेव उवा. गच्छइ २ सा गिण्णयस्स अंडवाणियस्स उवणेइ ॥ १७ ॥तएणं तस्स णिण्णयस्स . अंडवाणियस्त बहवे परिसा दिण्णभए बहवेकाय अंडएय जाव कुकुडअंडएय अण्णे. सिंच बहुणं जल-थल-खेचरमाईगं अंडए तबएसय. कंदुसुय भजणारसुय इंगालेसुय तलिति भजति सोल्लिंति तल्लिता भजिंता सोलिंताय रायमग्गं अंरावणांस अंडय पणियणं वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ ॥ १८ ॥ अप्पणावियणं सेणिण्णए अंडवाणियए
* अनुवादक लब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक
..प्रकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.
ण्डे, मयूरी के अण्डे, बदक के अण्डे, कूकही मूर्गी के अण्डे, और भी बहुत प्रकार मच्छादि जलचर स्थलचर के खेचर के अण्डों को लेकर छोटे बड वांप के टोपलों में भरकर जहां निम्नव अंडवानिया या तहां आकर निमव चनिये को देते थे ॥ १७ ॥ तब फिर वह मिना अंड वनिया उन बहुत पुरूषों को मजुरी देता हुआ उन कउवे के अण्डे यावत मूर्गी के अंडे आदि बहुत से जलचर थलचर खेचर के अंडे ग्रहण कर लोह की तावडीमें बडी कडाइमें डालकर अंगार पर चाकर भूनता तैलादि में तलता मुंजकर
मलकर उन के सोले-टुकडे करके मशाला से संस्कार छाबडी में भरकर राजमार्गमें उनको बेंचता हुशा अपनी *भाजीविका करता हुवा विचरता था॥१८॥ और वह अण्डवानीया आप सभी उन बहुत कउने
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