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________________ एकादशमांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 18+ तेसि बहुहिं काई अंडएहिय जाव कुकुडि अंडरहिय सोल्लेहिं तलिंभुजे सुरंच ४ आसाए १ विहरइ ॥ १९ ॥ तएणं से णिण्णए अंडए एएकम्मे ४ सुबहुपावं समजित्ता एगंधास सहस्तं परमाउपालइ २ त्ता कालमाम कालंकिच! तच्चाए पुढत्रीए उक्कोसणं सत्तसागरांवम द्वितीएसु औरइएमु णेरइयत्ताए उववणे ॥ २० ॥सणं ताओ अणंतरं उबद्धता इहव लाडवीए चोरमल्लीर विजयस्स चोरसेगावइस्त खंदसिरीए भारियाए कुञ्छिसि पुत्त-ताए उचक्ष्णं ॥ २१ ॥ तएणं से खंदसिरी भारियाए अण्णा याकयाइ तिण्हं मासाणं बहुपांडपुण्णाणं. इमेयारवे दोहले पाउन्भूर धण्णाउणं ताओ यावत् मुर्गी के अण्डे बुरे कर नल नूंज कर मादेश के साथ खाला हुवा खिलाता हुवा विचरता था ॥ ११ ॥ सरह मिना भण्डाणिक इस प्रकार महा पार कर्म का उपार्जन कर एक हजार वर्ष कामे, उत्कृष्ट अायुष्य को पालकर काल के अवसर में काल कर तीसरी नरक में उत्छष्ट सात सागरोपम की स्थितिपने उत्पन्न दुग॥ २० ॥ वहाँले अन्तर राहेत निकलकर यहां सालाटवी चोर पल्ली में विजय चोर मेनापति के खंघश्री भार्या की कृक्ष में पुत्रपने उत्पन्न हुवा ॥ २१ ॥ फिर खंघश्री भार्या को एकदा मसावे तीन महीने व्यतिक्रान्त हुये वाद इसप्रकार दोहला उत्पन्नाचा. धन्य उसमाता को है कि जो माता बहुत है। दुम्पावनाका-तामरा अध्ययन-अभग्गसेन चोर का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600256
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages216
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_vipakshrut
File Size22 MB
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