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भमियासु अंतेउरेय दिण्णवियारेयावि होत्था ॥ ४ ॥ तेणंकालेणं तेणसमएणं सामी समोसड़े परिसारायाय णिग्गओ जाव पडिगया ॥ ५ ॥ तेणंकालेणं तेणंसमएणं समणस्स जेट्टे जाव रायमग्ग उगाढे तहेव हत्थी आसे पुरिसे, तेसिंचणं परिसाणं मज्झगयं एगंपुरिसं पासइ २ त्ता जाव करणारीसंपरिबुडं, तएणं तं पुरिसं रायपुरिसा चच्चरंसि तत्तंसि अउमयंसि समजोइयति सिंहासणंसि णिवेसावेइ, तयाणं तरंचणं पुरिसाणं मझगयं बहुहिं अयकलसेहिं तत्तेहिं समजोइ भूएहिं अप्पे गइयाणं तंबभअलंकार (मुरन ) का करनेवाला था, वह श्रीदाम राजा का आश्चर्यकारी विविध प्रकार बहुत पोधकर अलंकार कर्य! नापितपना ] करता था उसको सर्व प्रकारसे शैय्या भोजनादि पर्ष स्थानों में सर्व भमि का प्रसाद कोठारादि में अन्ते पुर में प्रवेश करने की रानाने-आज्ञा रजा दी थी॥४॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषदा बंधन करने गई, धर्म कथा श्रवण कर
परिषदा पीछी गई ॥ ५॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के जेष्ट शिष्य पूर्वो प्रकार भिक्षार्थ नगरमें फिरते हाथी घोडे मुमटों के बृन्दमें एक पुरुषको देखा-वह बहुत स्त्री पुरुषों के परिवारसे
परिवार हुवा है, उस पुरुष को बहुत राज्य पुरुषों चौरास्ते में तप्त किया लोहा का अमि समान सिंहासनपर 15 बैठाया है, फिर उस पुरुष को लोह के कलश अग्नि समान तप्तकिये उन में से कितनेक काल में ताम्मे का?"
११ एकादशमांग-विपाक मूत्रका प्रथम भ्रवस्कन्ध
42 दुःख विपाकका छठा अध्ययन नन्दी केनकुमार का
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