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१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
रिएहि, अप्पेतउपभरिएहि, अप्पेसीसग भरिएहि, अप्पेकल २ भरिएहि, अप्पेखारतेलभरिएहिं, महया २ रायाभिसेएणं, अभिसिंचइ ॥ तयाणं तरंचणं तत्तअउमयं समजोइ भूयं अउमय सडासगं गहाय हारंपिणडइ, तयाणं तरंचणं हारं अद्धहारं जाव पर्ट मउडं, चिंता तहेव पुच्छा जाव वागरेइ ॥ ६ ॥ एवं खलु गोयमा ! तेणंकालेणं तेणंममएणं इहेव जंबूहीवें २ भारहेवासे सीहपुरे णामं णयरे होत्था
रिडत्थमिय ॥ तत्थणं सीहपुरे णयरे सीहरहे णामं रायाहोत्था ॥ ७ ॥ तस्सणं AE गरम किया हुवा रसभरा है कितने कलशमें तरूआ (कधीर) का तप्त रसभरा है, कितने कमें सीसाका सप्तरस भरा है. कितनेक कलशमें तीक्षण चाणादिमिश्रीत गरमपानी भरा है कितनेक कलसमें क्षार भरा है. उनकलशों
उनके शरीर परसींचन कराते उसे स्नान कराते हुवे महामंडाग-आडम्मर करके राज्याभिजेषकर रहे हैं.' उस पुरुष को तप्त किये अग्नि समान लोहे के अठारासरेहार, अर्धहार नवसर यावत् मस्तक का टोप मुकट धारनं करा रहे हैं-पहना रहे हैं. इस प्रकार उस पुरुष को देख कर गौतम स्वामी को पूर्वोक्त विचार हुवा यावत् भगवंत पास आये सर्व वृत्तान्त मुनाया, और पूछा कि इस पुरुपने पूर्व जन्म में ऐसा क्या कर्म
किया है कि जिससे यहमत्यक्ष नरक जैस दुःखका प्रत्याक्षानुभवकर रहा है?॥३॥तब भगवंत बोले-यों निश्चय रहे गौसम ! उस काल उस समय में इस ही जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सींहपुर नाम का नगर ऋद्धि
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी!
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