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संजुत्तं सुणेइ, ते तहा हथणिक्खेवंच बाहिर भंडसारंच गहाई एगंतं अवकमइ॥४५ तएणं सा सुभद्दा सस्थवाही विजयमित्तं सत्थवाहं लवणसमुहे पोए विवित्ति णिबुडं कालधम्भुणा संजुत्तं सुणेइ २ त्ता महया पइसोएणं अपण्णा ममाणी परसुनियताविव चंपगलया धसइ धरणीतलसि सव्वंगेहि सणिपडिया ॥ ४६ ॥ तएणं सा सुभद्दा मुहत्तरेणं आसत्थासमाणी बहहिं मित्त जाव परिवुडा, रोयमाणी कंदमाणी विलवमाणी विजय मतं सत्थवाहं लोइयाई मयंकिच्चाई करेइ २ ॥ ४७ ॥ तएणं चार सुने कि विजय मित्र सार्थवाही लंग मद्र में लक्ष्मी यक्त क.ल धर्म को प्राप्त हुवा है, ऐसा श्रवण कर जो गुप्त थापन थी, उनने छिपाली, कितनेक मुनीमादि के हाथ जो लगा उसे लेकर एकान्त में गये॥४॥ तब फिर भद्रा सार्थवाहीनी विजय मित्र सार्थवाही को लवण समुद्र में डूबने के समाचार श्रवण कर भरतार के वियोग के दुःख से अती ही पीडित हुइ नैसे फरसी में छदित की हुइ, चम्पा के वृक्ष की डाल
पडती है तैसे धस्का खाकर सर्वांग कर धरतीपे पडगइ ॥ ३० ॥ तब फिर वह सुभद्रा मुहूर्तान्तर सावध ॐई बहुत से मित्रज्ञाती आदि से परिवरी हुई आंशू न्हाखती,आक्रांद करती,रूदन करती, विलापात करती
चित्रपत्र सार्थवाही का लोक सम्बन्धी मृत्यकार्य किया ॥ ४५ ॥ तब फिर वह
पाकसूत्र का प्रथम श्रुलस्कन्ध 43
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सूत्र
क का-दैमरा अध्ययन-उमज्झतकुगारका
8- एकादशमांग
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