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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी
सा सुभद्दा अपणया कयाइ लवण समद्दोतरंच लच्छिविणासंच पोतविणासंच पति । मरणंच अणुचिंतमाणीरकालधम्मणा संजता॥४८॥तएणं णयरगुत्तिपा सुभदं सत्थवाहि कालगयं जाणित्ता उज्झिय गंदारगं साओ गिहाओ पिछभंति २ त्ता तंगिहं अण्णस्स दलयंति ॥४९॥ तएणं से उज्झियदारए सयाओ गिहाओ निछढे समाणे वाणियग्गामे णयरे, सिंघाडग जाव पहेसु जूयखलएस वेसियाघरएसु पाणागारेसुय सुहं सुहेणं परि
वहइ ॥ १० ॥ तएणं से उझिए दारए अणोहट्टए अणिवारए सच्छंद मईसयरप्पयारे सुभद्रा एकदा प्रस्तावे जिस प्रकार पति लवण समुद्र की मुशाफरी करने गये जिस प्रकार लक्ष्मी का वाहन का नाश हुवा भरतारका मृत्यु हुवा इत्यादि विचारमें चिन्ताग्रस्त बनी हुई महा दुःख धारन करती कालधर्म |
हुई मरगई. ॥४८॥ तब नगर का कोटवाल सुभद्रा सार्थ वाहीनी को काल धर्म प्रम हुई जान कर, उस उज्झित लडके को उसके घर से निकाल दिया, वह घर लक्ष्मी कर्जदार को दे दिया ॥४२।। तब फिर वह जे । उज्झिन बालक अपने घर मे शाहिर निकाला हवा, वाणिज्य ग्राम नगर के दो तीन चार अनेक रास्ते " मिलते तहां जूवा के खेल में वैश्या संग में मद्यान के स्थान फिरता हुया दुख से रहने लंगा ॥ ५० ॥
तब फिर यह उज्झित बालक किसी के रक्षण रहित किसी के अंकुश रहित स्वच्छन्दा चारी बनकर-1
प्रकाशक-गजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी
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