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________________ श्री अमोलक ऋपिजी - जाव णिन्याय णियाघायागार कंदर मलाणेव चपगपायवे सुहं सुहणं विहरइ ॥४२॥" तएणं से विजयमित्त सत्थवाह अण्णया कयाइ गणमच धरिमच मैजच पारिच्छज्जंच है चउविहं भंडगं गहाय लवण समुदं पोय वहणेणं उवगए॥४३॥तएणं से विजयमिते तत्थलवण समद्दे पोते विवत्तए णिव भंडस्मारे अत्ताणं असरण कालधम्मणा संजुत्ते ॥ ४४ ॥ तएणं तं विजयमित्त सत्थवाहं जे जहा बहः ईसर तलवर कोडुंबिय इन्भसट्टि सस्थवाहा लवण समुद्दो पोयविवत्तियं निवुड भंडसारं कालधम्मुणो क्रीडा करानेवाली और५ गोदी में लेकर खिलानेवाली, इनपांच धाय माताओं से व्याघात रहित पर्वत की गुफाके ममीप चम्पक बृक्ष की तरह सुख २ से वृद्धि पाता विचर रहा था ।। ४२ ॥ तब फिर विजय मिव सार्थवाही अन्यदा किसी वक्त-नालेरादि गणिमा, गुडादि तीलमा, धान्यादि मापा, और सुवर्णादि परिक्षवा इन चारों प्रकार के किरियाने को ग्रहण करके लवण समुद्र के किसी द्वीप में व्यापा. रार्थ गया॥ ४३ ॥ तब वह विजय मित्र सार्थवाह लवण समुद्र में वाहन का भंग होने से लवण समुद्र में ही सर्व वस्तु रूप लक्ष्मी का भंडार, प्रधान वस्तु सहित डूब गया और आपदा से वगनवाला (धर्म ) के शरण सहित मृत्यु को प्राप्त हुवा ॥ ४० ॥ तय फिर विजय मित्र सार्थवाही का बहुत द्रव्य युवराज कोटवाले माविक कुटुम्बि इब्भ शेठ सार्थवाही इत्यादि जिन के वहां स्थापन रक्खा था उनने यह समा.. * प्रकाशक-सजाबहादुर लाला मुखदेव अर्थ | - s Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600256
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages216
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_vipakshrut
File Size22 MB
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