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सूत्र
अर्थ
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49 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक जी
आसाएमओ विसाएमाणीओ परिभाएमाणीओ परिभुंजमाणीओ दोहलं विणजति तं जयिणं अहमंत्रि बहुणं णयर जाव विणज्जामि, सिकहु, तंसिदाहलसि अविणिजंमाणंसि सुक्का भुक्खा निम्मंसा उलग्गसरीश, नितेया, दीणंच मणवयणा पंडुल्लुइय मुही ॥ १९ ॥ इमंचणं भीमे कूडग्गाहे जेणेव उप्पला कूडग्गाहणीए तेणेव उवागच्छइ २त्ता उहय जाव पासइ २त्ता एवं बयासी किष्ण तुमं देवाणुप्पिया ! उहय
हुइ दूसरेको खिलाती हुइ सर्व प्रकारने भोगोपभोग भोगवती हुइ अपने दोहले को पूर्ण करती है उनमात को धन्य है, वही कर्तार्थ है पुण्यात्म है यावत् मनुष्य जन्म की प्राप्ती उसीडी को अच्छी हुई है. इसलिय में भी बहुत नगरके पशुओं का मांस उक्त प्रकारसे खावूं डोहला पूर्ण करूं, ऐसा विचार किया, परंतु वह {डोहला पूर्ण होने जैसा नहीं देखा तब चिंता फिकर करती भोजनादि किये बिनासूकराई, सिनगार } के अभाव ले भूख-लूखी हुई मां राहत दुर्बल शरीर वाली हुई निस्तेज हइ, मन वचन काया के जोग से दीन-गरीब हुई, मुख पर पीलासपना छाया, जीर्ण अवस्था के जैसा शरीर ग्लान
हुवा ॥ ९९ ।। उस वक्त भीमकूडग्राही जहां उत्पला कूडग्राहणी थी तहां आया, आकर उत्पला को आर्तध्यान ध्याती हुई देखी, देखकर यों कहने लगा-हे देवानुप्रिय ! तू किस लिये आर्तध्यान ध्यारही है ॥२०॥
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* प्रकाशक- राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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