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अर्थ
+3 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
अमग्गसेण चोर सेणावइ विपुलं असणं ४ उवक्खडाइ २ त्ता पंचाहिँ चोर सहिं सद्धिं पहाए जात्र पायच्छित्ते भोयण मंडवंसि तं विपुलं असणं ४ सुरंच ५ आसाए माणे ४ विहरइ, जिमिय भुतुत्तरागए वियणं समाणे आयंते चोक्खे परमसूइ भूए पंचहिं चोर सएहिं सद्धिं अल्लं चम्मं दुरुहइ २ ता सण्णद्धं जाव पहरणे मगइतेहिं जात्र रचेणं पञ्चात्ररण्ड काल समयंसि सालाडवी चोरपल्लीयाओ निगच्छइ २त्ता विसम दुग्ग गहणं ठिएगहिय भत्तपाणीए तं दंडं पडिवाले माणेचिट्ठइ ॥ ४५ ॥ तणं से दंडे जेणेव अभग्गेसण चोर सेणात्रइए तेणेव उवागच्छइ २ ता अभग्गसेणेणं चोर
{सेन सेनापति अशनादि चारों प्रकार का आहार बहुत निष्पन्न कराकर मदिरा के साथ अस्वादता खाता खिलाता विचरने लगा, जीमकर चुलु आदि कर पवित्र हुवे, तृप्त हुवे फिर पांच सो ( रक्षी [ बक्तर ] पहन कर टोपी लगाकर, हथियारों लेकर वासों ग्रहण कर खांडा
चोर साथ सन्नह जीव खड्गादि यावत् वार्दित्र
वाजते दिन के चौथे पहर में सन्ध्या समय सालाटवी चोर पल्ली से निकले, निकलकर जहां अन्य को प्रवेश करना दुष्कर ऐसे दुर्गमस्थान पर्वत के कडवे में छिपकर आहार पानी ग्रहण कर उस दंडसेन सेनापति की मार्ग प्रतिक्षा करते रास्ता देखते रहे हैं ॥ ४५ ॥ तब फिर वह दंड सेनापति जहां अभरंगसेन चोर सेनापति है तहां
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प्रकाशक- राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी
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