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48.एकादशयांग-विपाक सूत्र का प्रथम श्रुत्स्कन्ध०१४
दारिया अण्णया कयाई व्हाया जाब विभूसिया बहुहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ता उस्पि आगासतलगंसि कणग तिंदृसएणं कीलमार्णए विहरइ ॥ ३३ ॥ इमंचणं वेसमण दत्तेराया ण्हाया जाब विभूसिए आसंदुरुहइ बहुहिं पुरिसेहिं संपरिबडे आसवाह. णियाए णिज्जायमाणे दत्तस्सगाहावइयस्स गिहस्म अदुरसामंते बीयवयमाणेणं ॥ ३४ ॥ तपणं से वेसमणेराया जाववीडवयमाणे देवदत्तंदारियं पिआगसतलगंति कीलमाणी पासइ२त्ता देवदत्ताए दारियाए रुवेणय जोवणेय लावण्णेणय जाव विम्हए कोडबिय
पुरिसे सहावेइ२त्ता एवं वयासी-कस्सणं देवाणुाप्पया!एसादारिया किंवाणामधेजेणं॥३५ होकर बहुत से, खोजा यावत् पुरुषों के परिवारकर कर परीवरी हुई अपने घर की आकाशके तले [चांदनी]
की गेंद से क्रीडा करती हुई विचरने लगी ॥ ३३ ॥ इधर पैश्रणदत्त राजा स्नान किया यावत् विभूषित हो अश्वारुढ हो बहुत पुरुषों के परिवारसे परिवरा अश्वक्रिडा करनेकों जाना हुवा दत्त गाथापतिके घरके पाम हो कर निकला॥३४॥तव बह वैश्रमण राजा दत्तगाथापनिक घरके पास जाते देवदत्ता बालिका को आवस के उपर के तल में क्रीडा करती हुई देखी,देखकर देवदत्ता वालिका के रूप में यौवन में लाय- 2 पता में यावत् आश्चार्यता को प्राप्त हुवा, कोटुनिक पुरुष को बोलाकर यों कहने लगा-किहे देवामुप्रिय ! यह बालिका किसकी है? इसका क्या माम ॥३५॥तत्र कोटुम्बिक पुरुष वैश्रमण राना से हाथ जोडकर यों से
दुःख विपाक का-नववा अध्ययन-देवदत्त
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