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सत्र
एकादशांग-विका प्रथम तक
दंडं खंडबसणं खंडमल खंडहत्थगयं गिहे २ देहं बलियाए विर्तिकप्पेमाणे पासइ २ ॥ ६ ॥ तणं भगवं गोयमे उच्चणिय जाव अडइ अहापजतं गिण्हइ २त्ता पडलीसंडाओ णयराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव समणे भगवं तेणेव उवागच्छइ २ ता भत्तपाणं पडिदसेइ २ ता समणेणं अब्भणुष्णाए जाव विलमित्र पण्णगभए अप्पाणं आहार माहारेइ, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ ७ ॥ तरणं से मस्तक के बाल बिखर रहे थे, दंड खंडित-फटे टूटे बल से शरीर का कुछ २ विभाग अच्छादन किया था, फूटा हंडा हाथ में ग्रहण कर द्वारा द्वार परिभ्रमण करता था, अपने पांवों के बलकर भिक्षावृति से उपजी विका करता हुवा फिरता हुन भगवंत गौतम स्वामीने देखा ॥ ३ ॥ तब भगवंत गौतम ऊंच नीच मध्यम कूल में यावत् परिभ्रमण करके यथा पर्याम चाहिये या उतना आहार पानी आदि ग्रहण किया, ग्रहण (कर पाडलीखंड नगर से निकलकर जहां श्रमण भगवंत महावीर स्वामी थे तहां आये, आकर आहार पानी बताया, श्रमण भगवंत की आज्ञा प्राप्त करके जिस प्रकार बिल में सर्प प्रवेश करता है उस प्रकार ममत्व रहित कवल को मुख में नहीं फिराते हुवे अपने पेटरूप कोठार में वह आहार पानी आदि प्रक्षेप किया, फिर संयम तपकर अपनी आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे ॥ ७ ॥ तत्र भगवंत गौतम रकमी दूसरे छठ खमन बेले के पारने को प्रथम पहस्सी में स्वध्याय की दूसरी में ध्यान किया, तीसरी में भगवंत की
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३ दुःख विपाकका माता अध्ययन- उम्वरदत्त कुमारका
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