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42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
दारएहोत्था, अहीणं ॥ ४ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सामीसमोसड़े आव परिसा पडिगया ॥ ५॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं जेतु अंतेवासी जाव सौरियपुरेणयरे उच्चणीय अहापजत्तं समुदाणंगहाय सोरियपुराओ जयराओ पडिणिक्खमइ, २चा तस्स मच्छंध पाडगस्स अदूरसामतेणं वीइवयमाणे महइमलियाए मणुस्स पुरिसाणं मझगयं पासइ, एगंपुरिसं सुकं भुक्खं णिम्मंसं अट्ठिचम्मावणद्धं किडिकिडियाभूयं १
णीलसामागणियत्थं मच्छकटएणं गलए अणुलग्गोणं कट्ठाई कलुणाई वीसाराई कुउ का पुत्र था वह भी पूर्ण अबावाला था ॥ ४ ॥ उस काल उस समए में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी पधारे, परिषदा आई, धर्मकथा मनाई, परिषदा पीछी गई ॥५॥ उस काल उस समय में भगवंत के बडे शिष्य यावत् सायपूर नगर में उंचनीच मध्यमकुल में बहुत घरों की भिक्षा ग्रहण करते सोरी-33 पुर नगर से पीछे निकलते उस मच्छीपाडे पास से जाते हुवे महाजवर बहुत मनुष्यों की परिषदा के मध्य में एक पुरुष का शरीर काष्टभूत सूकगया है, राखभूत लूक्खा होगया है, मांस रहित हड्डी का पंजर चयडे कर वेष्टित किया हुवा शरीर है किडकिडीभूत-उठते बैठते चलते हड्डीयों का कहर अवाज होता है, पानी से भीजा दुवा वस्त्र पहने है, उस के कंठ ( गले ) में मच्छी का काटालगाहुवा है जिससे वह अत्यंत क्लेशकारी यावत् दीनदयामने वचनबोल रहा है, विकराल शब्द से रूदग ।
* प्रशाशक-सनीबहादर लाला सुखदेवमहायनी ज्वालाप्रसादजी .
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