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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
अंतराणिय छिद्दाणिय विरहाणिय पडिजागरमाणीओ विहरति ॥ १४ ॥ तएणं सा सामादेवीए इमीसकाहाए लट्ठाए समाणे एवंवयासी-एवं खलू ममपंचण्हं सबती सयाइं इमीसे कहाए लढे समाणे अण्णमण्णं एवं वयासी. एवं खलू सीहसेण राया जाव पडीजागरमाणीओ विहरंति, तणणज्जतिणं ममं केणइ कुमरणेणं मारेस्सती तिकटु भीया, जेणेव कोवघर तेणेव उवांगच्छइ रत्ता उहय जाव झियाइ ॥१६॥ तएणं से सीहसेणराया इमीसे कहाए लढे समाणे जेणेव कोवघरे जेणेव सामादेवी तेणेव उवागच्छइ २त्ता सामादेवी उदय जाव पासइत्त २त्ता एवं वायसी-किण्हं तुमं । देवाणुप्पिय ! उहयं जाव झियाइ ॥ १५ ॥ तएणं सा सामादेवी सीहसेणणं रायाणं तर छिद्र मनुष्यों का विरह देखती हुई विचरने लगी॥१४॥ तब सामारानी को उक्त सापाचार तब वह अपने मन से विचारने लगी-यों निश्चय पांचमो शोको पांचसे सोको की माताओंने ऐसा जाना और परस्पर मिलकर यों कहने लगी-कि सिंहमेन राजा शामादेवी से लुब्ध हो अपनी पुत्री का आदर नहीं करता है इसलिये शामा को किसी भी उपाय से मार डालना यावत् मुझे मारने का अन्तर छिदर देखती हुई विचर रही है. तो नमालुम मुझ को किस कुमृत्युकर मारेंगी. यों विचार कर डरपाई प्रासपाई, जहां कोप घर ( सूना घर) था तहां भाकर चिन्ता ग्रहस्तबनी, आर्तध्यान करती हुई विचरने लगी ॥१८॥
* भकाशक-राजावहादुर लालामुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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