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सूत्र
अर्थ
एकादशमांग विपाक सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध
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आलोए पणामंकरेइ २ ता लोह परासुसइ २ ता उंबरदरांजक्खं लोमहस्थएणं पमजइ २ ता इगध राए अक्वइ २ ता पम्हलगाइ लट्ठीओलूहेइ, सेयाई त्थाई परिes, महरिह पुप्फारूहाणं वत्थारूहाणं मल्लागंधाचुणारुहाणं करेइ २ त्ता धूडहइ २ता जाणुायपडिया एवंवयासी-जइणं अहं देवाणुपिया ! दारगं दारियं पयामि तोणं जाव उवाइणइ २ चा जामेवदिसि पाउब्भूया, तामेत्रांदसिं पडिगया ॥ १९ ॥ तणं से धन्वंतरीवेजे ताओ णरगाओ अनंतरं उट्टित्ता इहेब जंबूद्दीवे २ भारहेवा से पाडिलीसड णयरे गंगदत्ताए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उबवणे प्रणाम [ नमन ] किया, प्रणाम कर मोर पीछी को हाथ में ग्रहण की,
उम्बरदत्त यक्ष की प्रतिमा
का प्रमार्जन की ( पूंजी ) पुंजकर पानी की धारकर स्नान कराया, पद्म जैसे सुकुमाल वस्त्र कर यक्ष प्रतिमा का शरीर को पूंछा, उसे श्वेत व पानाये, महा मूल्य फुलों की माल का रोहन किया ( पहनाई ) वस्त्रा रोहण किया ( पहनाये ) पाला गंध चूर्ग वडाया धूप खेवा, धूप खेकर छूटने जमीन को लगा पांत्र में पडी हुइ-यों कहने लगी अहो देवानुमिया ! यदि में पुत्र या पुत्रो प्रभूंगी तो में यावत् उक्त कहे ममाने करूंगी | यों कह कर जिसदिशा से आई थी उस दिशा पीछी गई ॥ १९ ॥ तत्र वह धनंतरी वेद उस छड़ी नरक से निरंतर निकलकर इस ही जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में पाडलीखंड नगर में गंगदत्ता
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दुःखविपाक का सातवा अध्ययन- उम्बरदत कुमार का
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