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मनि श्री अमोलक ऋपिजी
महब्बलंणं रमा विसजिए समाण जणव कुड गारसाला; तणव उवागच्छइ २ ॥ ५५ ॥ तएणं से महब्बलराया कोडु बय पुरिसे सदायेइ २ त्ता एवं वयासी. गच्छहणं तुक्भे देवाणुप्पिया ! विपुलं असणं ४ उवक्खडावेइ २त्ता तं विपुलं अप्तणं ४ सुरंच ५ सुबहु पुप्फगंधमल्लालंकारंच अभग्गसेणस्स चोरसणावइस्स कुडागार सालाए उवण्णेह ॥ ५६ ॥ तएणं ते कोडुंबिय पुरिसा करयल जाव उवणेइ ॥ ५७ ॥ तएणं से अभग्गसेण बहुहिं मित्तणाइ जाव सद्धिं परिबुडे पहाए जाव सव्वालंकार विभसिए, तं विपुलं असणं ४ सुरंच ५ आसाएमाणे ४ पमत्ते विहरइ ॥ ५८ ॥ महा बलगजा का भेजा हुवा जहाँ क्डागार शाला थी तहां आया, आकर उस में रहने लगा ॥ ५५ ॥ तब फिर मठा बलराना कौटुबिक पुरुष को बोलाकर यों कहने लगा-जावो तुम हे देवानुपिय ! विस्तीर्ण अशनादि चारों आहार तैयार कराकर मदिरा के साथ बहुत फल फूल मृगन्धमाला अलंकार अभग्गसेन चोर सेनापति के लिये कूडागार साला में भेजो ॥ ५६ ॥ तब फिर वह कोदुम्धिक पुरुप हाथ जोड आज्ञा नान कर पूर्ववत् अशनादि चारों आहार नशा युक्त तैयार कर अभग्गमेन चोर सेनापति को अर्पन किया ॥ १७ ॥ तब फिर अभग्गोन चोर सेनापति बहुत मित्रों के साथ परिवरा हुवा जान करके पूर्वक सर्व अलंकार से विभूपित हो यह बहुत अशनादि चारों आहार मदिरा के साथ अस्वादता खाता खिलात,
. प्रकाशक राजावादर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजा *
अर्थ
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