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________________ अर्थ 42 अनुवादक ब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी कालमासे कालकिच्चा इमोसे रयप्यभाए उक्कीमेणं रइएस उववज्जिर्हिति सेणं ताओ अनंतरं उवहिता एवं संसारो जहा पढमे जाव पुढवी तओ उबट्टित्ता बाणारसीए ए सुरता पचायाहिंति, सेणंमच्छतोय रिएहिं जीवियाओं विवरं विए समाणे सत्थेव बाणारसी जयरीए सटुकुललि पुत्तत्ताए पबार्हिति सेणं तस्थ उमुक्कबालभावे एवं जहा पढ़ने जात्र अंतं काहिति ॥ ६२ ॥ निखच ॥ दुहविवागाणं तइयं अज्झयगरस सम्मत्तं ॥ वहां उत्कृष्ट एक सागरोपम के आयुष्यमें मेरीयेने उत्पन्न होगा, नहीं अंतर गीत निकलकर मृगापुत्रकी महार परिभ्रमण करेगा यावत् पृथव्यादि के भाकर वहांन निकलकर बनारसी नगरीमें शूरुरपने उन सूपरका पालनेवाला उसे मारेगा, स से निकलकर बग्मी नगरी शेठ कुड में पुत्राने उप.ग. बाल्यावस्था से मुक्त हो दीक्षा ग्रहणकर मृगापुत्र की तरह सिद्ध होगा या सर्व दुःखका अन्य करेगा || इति दुःख विपाक का तीसरा अभग्गसेन चोर का अध्ययन संपूर्ण ॥ ३ ॥ X x O Jain Education International Maste For Personal & Private Use Only RBCLEA * प्रकाशक-गजबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * www.jainelibrary.org
SR No.600256
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages216
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_vipakshrut
File Size22 MB
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