________________
संपरिथुढे तंविउलं असणं 8 आसाएमाणा ४ एवं वर्ण विहरइ, जिमिय भुतुतरागए आयंते ३ तं मित्तणाई विउलं गंध पुप्फ जाव आलंकारेणं सकारेइ समणेइ, देवदत्तं दारियं हाथं जाव विभूसियं सरीरं पुरिसहस्सवाहिणीयं दुरुहिएर सा सुबहुमित्त जाब सहि संपरिवुडे सवडीए जाव सब्बरवेणं रोहिडगं णयरं मझं मझेणं जेणेव वेसमणे रणोगिहे जेणेव वेसमणोराया तेणेव उवागच्छइ२त्ता करयल जाव वहावई २त्ता वेसमण.
रायं देवदत्तं दारियं उवणेइ ॥ ४३ ॥ तएणं से वेसमणराया देवदत्तं दारियं उवणीयं अर्थतीयों को बोलाये; पावत् प्रापाश्चतकर शुद्ध हुवे, सुखासनपर पेठे हुभे उन मित्रझातीयो के साथ परिषरे
हुमे विस्तीर्ण अशनादि चारों आहारको खाते खिलाते विचरने लगे | जीमकर तृप्त हुने कुल्ले आदिकार अत्यन्त पवित्र हुवे,फिर उन मित्रज्ञाति को विस्तीर्ण गंधफूल यावत अलंकारकर सत्कारे सन्माने,देवदचा लडकी को मानकराया यावत् बहु मूल्य वस्त्र भूषण कर विभूषित की, हजार पुरुष उठावे ऐसी शिवका में बैठाइ बैठाकर बहुत मित्रज्ञाति भादिके साथ यावत् परिवरे हुवे सर्व ऋद्धियुक्त यावन वादित्र के झगकार पुक्त . रोहिड नगर के.मध्य मध्य में होकर जहां वैश्रयणराजा का घर था जहां वैश्रमणराजा था तहां आये. आकर हाथ जोड सिरसावर्त कर जयहो विजयहो इस प्रकार बधाये, बधाकर वैश्रमणराजा को देवदचा 0 पुत्री सुपरतंकी ।। ४३ ॥ तब.वैश्रमणराजा देवदत्ता कन्या को प्राप्त हुइ देखकर हर्ष पाया फिर विस्तीर्ण
+8एकादशमांग-विपाकमूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48+
दुःख विमाक कानववा अध्ययन-देवदचारानी का
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International